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पहला उद्देशक
ये साधु असहिष्णु हैं, अत्वरितगति वाले हैं (माया से १३१२.पसिणापसिणं सुमिणे, विज्जासिहूँ कहेइ अन्नस्स। मंदगति करते हैं), ये गुरु के प्रति भी निष्ठुर व्यवहार करते अहवा आइंखिणिया, घंटियसिटुं परिकहेइ॥ हैं, ये क्षण में रुष्ट और क्षण में तुष्ट होते रहते हैं, ये स्वप्न में अवतीर्ण विद्याधिष्ठित देवता द्वारा कथित बात गृहिवत्सल हैं अर्थात् ये चाटुवचनों से गृहस्थों को लुभाते हैं, को प्रश्नकर्ता को बताना अथवा 'आइंखिणिया' डोंबी के ये अतिसंग्रहशील हैं आदि-आदि।
कुलदेवता घंटिकपक्ष द्वारा कान में कथित प्रश्न के समाधान १३०७.गूहइ आयसभावं, घाएइ गुणे परस्स संते वि। को दूसरों को कहना प्रश्नाप्रश्न कहलाता है।
चोरो व्व सव्वसंकी, गूढायारो वितहभासी॥ १३१३.तिविहं होइ निमित्तं, तीय-पड़प्पन्न-ऽणागयं चेव। मायी वह होता है जो आत्मस्वभाव को छुपाता है, दूसरे तेण न विणा उ नेयं, नज्जइ तेणं निमित्तं तु॥ में विद्यमान गुणों का घात करता है, चोर की भांति सर्वशंकी, निमित्त के तीन प्रकार हैं-अतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) गूढ़ाचारयुक्त तथा वितथभाषी होता है।
तथा अनागत। उस ज्ञान के बिना ज्ञेय-लाभ, अलाभ आदि १३०८.कोउअ भूई पसिणे, पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी।। नहीं जाना जाता, वह लाभ-अलाभ आदि के ज्ञान का निमित्त __इड्डि-रस-सायगुरुतो, अभिओगं भावणं कुणइ॥ होता है, इसलिए उसे निमित्त कहा जाता है।
जो ऋद्धि, रस और सात गौरव के वशवर्ती होकर १३१४.एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो आभिओगियं बंधे। कौतुकजीवी, भूतिकर्माजीवी, प्रश्नाजीवी, प्रश्नप्रश्नाजीवी, बीयं गारवरहिओ, कुव्वं आराहगुच्चं च॥ निमित्ता-जीवी होता है वह आभियोगी भावना करता है।
जो गौरव आदि के लिए कौतुक आदि का प्रयोग करता है १३०९.विण्हवण-होम-सिरपरिरयाइ खारदहणाई धूवे य॥ वह आभियोगदेवकर्म का बंध करता है। इसका अपवादपद ___असरिसवेसग्गहणं, अवयासण-उत्थुभण-बंधा॥ है जो गौरव आदि से रहित होकर कौतुक आदि का प्रयोग
कौतुक-बालकों की रक्षा के निमित्त अथवा स्त्रियों के करता है, वह आराधक होता है तथा उच्चगोत्र कर्म का बंध सौभाग्य के लिए विस्नपन-विशेष स्नान, होम, शिरपरिरय करता है।' अर्थात् हाथ फेर कर अभिमंत्रित करना, क्षारदहन-व्याधि के १३१५.अणुबद्धविग्गहो चिय, संसत्ततवो निमित्तमाएसी। उपशमन के लिए अग्नि में लवण आदि डालना, असदृश
निक्किव निराणुकंपो, आसुरियं भावणं कुणइ। वेषग्रहण-स्वयं आर्य होकर अनार्य का वेश धारण करना, अनुबद्धविग्रह, संसक्ततप करनेवाला, निमित्तादेशी, निष्कृप, पुरुष होकर स्त्री का वेश पहनना, अवयासण-वृक्ष आदि का निरनुकंप-वह आसुरीभावना करता है। (विस्तृत अर्थ आगे।) आलिंगन करवाना, अवस्तोभन-अनिष्ट निवारण के लिए 'थू- १३१६.निच्चं बुग्गहसीलो, काऊण य नाणुतप्पए पच्छा। थू' करना तथा बंध अर्थात् उपलों को बांधना आदि कौतुक
न य खामिओ पसीयइ, सपक्ख-परपक्खओ आवि॥ कहलाते हैं।
जो नित्य विग्रहशील होता है-कलहकारी होता है, कलह १३१०.भूईए मट्टियाए व, सुत्तेण व होइ भूइकम्मं तु। करने के पश्चात् अनुतप्त नहीं होता, जो स्वपक्ष और परपक्ष
वसही-सरीर-भंडगरक्खाअभियोगमाईया ॥ द्वारा क्षमापना करने पर भी प्रसन्न नहीं होता, वह अनुबन्द्रअभिमंत्रित राख, मिट्टी या सूत्र (तंतु) से भूतिकर्म होता विग्रह वाला होता है। है। यह वसति, शरीर और भांड आदि की रक्षा के लिए १३१७.आहार-उवहि-पूयासु जस्स भावो उ निच्चसंसत्तो। अभियोग-वशीकरण किया जाता है।
भावोवहतो कुणइ अ, तवोवहाणं तदट्ठाए। १३११.पण्हो उ होइ पसिणं, जं पासइ वा सयं तु तं पसिणं। जिसका परिणाम आहार, उपधि और पूजा में सदा
अंगुट्ठच्चिट्ठ-पडे, दप्पण-असि-तोय-कुड्डाई॥ प्रतिबद्ध रहता है, जो इस प्रकार रस-गौरव आदि के भाव से देवता आदि से पृच्छा करना प्रश्न कहलाता है। अथवा उपहत होकर आहार आदि के लिए तप-उपधान करता है, जो स्वयं देखता है या तत्रस्थित दूसरे लोग भी देखते हैं उसे वह संसक्त तप करने वाला है। 'पसिण' कहा जाता है। अंगुष्ठ, उच्छिष्ट पट, दर्पण, १३१८.तिविह निमित्तं एक्वेक्क छव्विहं जं तु वन्नियं पुव्विं । तलवार, पानी, भींत आदि पर अवतीर्ण देवता आदि को
अभिमाणाभिनिवेसा, वागरियं आसुरं कुणइ॥ पूछना या देखना यह प्रश्न है।
निमित्त के तीन प्रकारों का वर्णन जो पहले किया जा चुका १. गौरवरहितः सन् अतिशयज्ञाने सति निस्पृहवृत्त्या प्रवचनप्रभावनार्थमतानि कौतुकादीनि कुर्वन् आराधको भवति, उच्चैर्गोत्रं च कर्म बध्नाति, तीर्थोन्नतिकरणादिति। (वृ. पृ. ४०४)
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