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पीठिका
४२९. भद्द तिरी पासंडे, मणुयाऽसोएहिं दोहिं लहू लहुगा।
कालगुरू तवगुरुगा, दोहि गुरू अड्डोकंति दुगे। भद्र अर्थात अदृप्स तिर्यंच नरों तथा अशौचवादी मनुष्यों और पाषंडियों के आपात होने पर, तप और काल से लघु चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार शौचवादी मनुष्य स्त्री-नपुंसकों के आपात पर, तप और काल से गुरु चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है। शेष अर्थात् तिर्यंच-मनुष्य भेद में दो अर्थात् तप और काल संबंधी अापक्रांति जाननी चाहिए। कहीं वह तपोगुरुक और कहीं कालगुरुक होती है। ४३०. अमणुण्णेयरगमणे, वितहायरणम्मि होइ अहिगरणं।
पउरदवकरण दटुं, कुसील सेहादिगमणं च॥ अमनोज्ञ अर्थात् असांभोगिक संविग्न और इतर अर्थात् असंविग्न का गमन-आपात होने पर एक-दूसरे के वितथा- चरण को देखकर परस्पर कलह हो सकता है। कुशील अर्थात् पार्श्वस्थ मुनि प्रचुर पानी से शौचशुद्धि करते हैं। यह देखकर शैक्ष तथा शौचवादी मुनि उनके पास जा सकते हैं। ४३१. निग्गंथाणं पढम, सेसा खलु होति तेसि पडिकुट्ठा।
दव अप्प कलुस असती, अवण्ण पुरिसेसु पडिसेहो॥ निग्रंथों के लिए प्रथम प्रकार का स्थंडिल जो अनापातअसंलोक रूप है, वह विहित है। शेष तीन प्रकार के स्थंडिल वर्जनीय हैं, प्रतिषिद्ध हैं। पुरुषापात होना संभव हो तो नियमतः अकलुषित प्रचुर पानी ले जाना चाहिए। अन्यथा अल्प पानी अथवा कलुषित पानी अथवा बिना पानी के स्थंडिल गया हो तो वे आगंतुक पुरुष उसे देखकर अवर्णवाद कर सकते हैं। अतः पुरुष के आपात का प्रतिषेध किया गया है। ४३२. आय पर तदुभए वा, संकाईया हवंति दोसा उ।
पंडित्थिसंगगहिते, उड्डाहो पडिगमणमादी। स्त्रियों के तथा नपुंसकों का आपात होने पर स्वविषयक, परविषयक तथा तदुभयविषयक शंका आदि दोष उत्पन्न हो सकते हैं। अथवा वह साधु स्त्री और नपुंसक के साथ मैथुन का सेवन कर सकता है। किसी के द्वारा देखे जाने पर प्रवचन का उड्डाह होता है तथा वह मुनि भी लज्जित होकर श्रमणधर्म से प्रतिगमन कर देता है, गृहस्थ बन जाता है। ४३३. आणणादी दित्ते, गरहियतिरिएसु संकमादीया। ___ एमेव य संलोए, तिरिए वज्जित्तु मणुएसु॥
दृप्त तिर्यंच के आपात से आहनन आदि दोष होते हैं और गर्हित तिर्यंचों के आपात पर शंका आदि दोष उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार तिर्यग्योनिक को छोड़कर मनुष्य-स्त्री, पुरुष, नपुंसकों के संलोक में भी आपातवत् दोष होते हैं।
४३४. जत्थऽम्हे पासामो, जत्थ य आयरइ नातिवग्गो णे।
परिभव कामेमाणो, संकेयगदिन्नको वा वि॥ जहां हम उस आने वाले को देखते हैं और जहां हमारा ज्ञातिवर्ग शौचार्थ आता-जाता है, वहां हमारा परिभव करने की इच्छा से अथवा किसी के द्वारा संकेत को प्राप्त कर वह वहां आता है। ४३५. कलुस दवे असतीय व, पुरिसालोए हवंति दोसा उ। ___पंडित्थीसु वि य तहा, खद्धे वेउव्विए मुच्छा।
शौचार्थ कलुषित पानी अथवा पानी के न होने पर पुरुष का आलोक-संलोक होने पर अवर्ण आदि दोष होते हैं। तथा नपुंसक और स्त्री का संलोक होने पर मुनि की जननेन्द्रिय को स्थूल अथवा वातदोष से स्वाभाविक रूप से स्तब्ध देखकर, स्त्री या नपुंसक में कामाभिलाषा रूप मूर्छा के कारण मुनि के लिए उपसर्ग पैदा कर सकती है। ४३६. आयसमुत्था तिरिए, पुरिसे दव कलुस असति उड्डाहो।
आयोभय इत्थीसुं, अतितिणिते य आसंका।। तिर्यंच के आपात पर आत्म-समुत्थ दोष होते हैं। मनुष्य के आपात पर कलुषित पानी या पानी के न होने पर उड्डाह होता है। स्त्री तथा नपुंसक के आने-जाने पर आत्मदोष, परदोष तथा उभयदोष, आशंका आदि होते हैं। ४३७. आवायदोस तइए, बिइए संलोयतो भवे दोसा।
ते दो वि नत्थि पढमे, तहिं गमणं तत्थिमा मेरा।। तीसरे प्रकार के स्थंडिल में आपातदोष तथा दूसरे प्रकार के स्थंडिल में संलोकदोष होते हैं। ये दोनों प्रकार के दोष प्रथम प्रकार के स्थंडिल में नहीं होते। वहां जाने की यह मर्यादा है। ४३८. कालमकाले सन्ना, कालो तइयाएँ सेसगमकालो।
पढमा पोरिसि आपुच्छ पाणगमपुप्फिअण्णदिसिं॥ संज्ञा के दो प्रकार हैं-काल में होने वाली संज्ञा और अकाल में होने वाली संज्ञा। तीसरे प्रहर में होने वाली संज्ञा काल संज्ञा है और शेष सारी अकाल संज्ञा हैं। यदि प्रथम प्रहर में संज्ञाभूमी में जाना पड़े तो अपुष्पित-स्वच्छ पानी लेकर, स्थंडिल की दिशा में न जाकर उपाश्रय में आए और गुरु की आज्ञा लेकर संज्ञाभूमी में जाए। ४३९. अतिरेगगहणमुग्गाहियम्मि आलोय पुच्छियं गच्छे।
एसा उ अकालम्मी, अणहिंडिय हिंडिए काले॥ संज्ञाभूमी में जाते समय मुनि पात्र में एक और मुनि के काम आए उतना अधिक पानी लेकर गुरु के पास ईर्यापथ की आलोचना कर, गुरु को पूछकर, संज्ञाभूमी में जाए। यह अकाल संज्ञा की विधि है। काल संज्ञा की विधि यह
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