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बृहत्कल्पभाष्यम्
४७६. दोसाणं परिहारो, चोयग जयणाए कीरए तेसिं।
पाते उ अलिप्पंते, ते दोसो होतऽणेगगुणा॥ ___ हे शिष्य ! लेप के संबंध में तुमने जो दोष बतलाए हैं, उनका परिहार यतना से किया जाता है। पात्र पर लेप न लगाने से वे दोष अनंतगुना अधिक होते हैं। जैसे४७७. उढादीणि उ विरसम्मि भुंजमाणस्स होति आयाए।
दुग्गंधि भायणं ति य, गरहति लोगो पवयणम्मि॥ ४७८. पवयणघाया अन्ने, वि अत्थि ते उ जयणाए कीरंति।
आयमणभोयणाई, लेवे तव मच्छरो को णु॥ अलेपकृत पात्र विरस होता है। उसमें भोजन करने से वमन, अरुचि आदि आत्मसंबंधी दोष होते हैं। दुर्गंधयुक्त पात्र को देखकर लोग गर्दा करते हैं। यह प्रवचनोपघात है। इसी प्रकार दूसरे अनेक प्रवचनोपघाती दोष होते हैं। उनका परिहार यतनापूर्वक किया जाता है। आचमन- अनाचमन, मंडली में पात्र में भोजन करना आदि भी प्रवचन के घात करने वाले दोष हैं। उनका उपयुक्त परिहार होता है। तो शिष्य! लेप के ग्रहण आदि में यतनापूर्वक व्यवहार करने पर तुम्हारा क्यों मात्सर्यभाव है? यह उचित नहीं है। ४७९. खंडम्मि मग्गियम्मी, लोणे दिन्नम्मि अवयवविणासो। ___ अणुकंपादी पाणम्मि होति उदगस्स उ विणासो॥
एक मुनि अलेपित पात्र को लेकर भिक्षा के लिए गया और गृहिणी से 'खंड' (शक्कर) की याचना की। गृहिणी ने भ्रांति-वश नमक दे डाला। उस पात्र के कुछ अवयव अभी तक अम्ल थे। अम्ल के साथ लवण का स्पर्श होने पर पृथ्वीकायरूप लवण के जीवों का विनाश हो गया। किसी मुनि ने पानक की याचना की। गृहिणी ने अनुकंपावश अथवा अज्ञान- वश उस पात्र में पानी दिया। अम्ल अवयव के स्पर्श से उदक का भी विनाश हो गया। ४८०. पूयलियलग्ग अगणी, पलीवणं गाममादिणं होज्जा।
रोट्टपणगा तरुम्मि, भिगु-कुंथादी य छट्ठम्मि॥ अलेपकृत पात्र में गृहस्थ ने मुनि को पूपलिका दी। उसके नीचे अंगारा (अग्नि) लगा हुआ था। उससे पात्र जलने लगा। नाप के कारण वह पात्र साधु के हाथ से छूटा और एक बाड़ पर जा गिरा। बाड़ में आगे लग गई। उससे गांव आदि का दहन हो सकता है। इससे महान अग्निकाय की विराधना होती है।
गृहिणी ने वैसे पात्र में रोट्ट दिया। पात्र के अम्ल अवयवों १. कहा है-भारे हत्थुवधातो, तत्थ य संपादिणी पडते य।
पारिट्ठावणिदोसो, अहिगम्मि य होइ अणीए॥ (वृ. पृ. १४२)
के स्पर्श से वह प्राणापहारी हो जाता है। सूक्ष्म तरारों में 'पनक' आदि वनस्पति का सम्मर्छन होता है। उस रोट्ट के परिष्ठापन से पनक के जीव विनष्ट हो जाते हैं। यह 'तरु' अर्थात् वनस्पतिकाय की विराधना है। भृगु अर्थात् सूक्ष्म तरारों में कुंथु आदि त्रस जीव भी उत्पन्न होते हैं। वे अम्लावयव स्पष्ट अन्नपान से नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार छठीकाय अर्थात् त्रसकाय की भी विराधना होती है।
(इस प्रकार पात्र के अलेपन से छहों जीवनिकाय की विराधना होती है।) ४८१. पायग्गहणम्मि उ देसियम्मि लेवेसणा वि खलु वुत्ता।
तम्हा उ आणणा लिंपणा य लेवस्स जयणाए। भगवान् ने पात्रग्रहण की अनुज्ञा दी है तो लेपैषणा की भी अनुज्ञा जान लेनी चाहिए। इसलिए लेप का आनयन और पात्र पर उसका लिंपन यतनापूर्वक करने में कोई दोष नहीं है। ४८२. हत्थोवघाय गंतूण लिंपणा सोसणा य हत्थम्मि।
सागारिए पभू जिंघणा य छक्कायजयणाए॥ शिष्य ने तर्क प्रस्तुत किया कि लेप को लाते समय भार के कारण हस्तोपघात होता है तो वहीं जाकर पात्र पर लेप करना चाहिए। और उस लेपित पात्र को हाथ में रखकर सुखाना चाहिए। (इनका उत्तर आगे दिया जाएगा।) लेप लाने के लिए जाते समय शय्यातर का शकट देखकर यह सागारिक-शय्यातर का पिंड है-यह सोचकर उसका वर्जन नहीं करना चाहिए। शकट के प्रभु की अथवा प्रभु-संदिष्ट व्यक्ति की अनुज्ञा लेकर उस लेप के कटुगंध की जानकारी के लिए उसे सूंघे। फिर षट्काय की यतनापूर्वक उसको ग्रहण करे। (इसकी व्याख्या आगे की गाथाओं में।) ४८३. चोयगवयणं गंतूण लिंपणा आणणे बहू दोसा।
संपातिमादिघातो, अहिउस्सग्गो य गहियम्मि। शिष्य कहता है-शकट के पास जाकर पात्र पर लेपन करना चाहिए। क्योंकि लेप के आनयन में अनेक दोष होते हैं। जैसे-भार से हस्तोपघात, संपातिम जीवों के पड़ने से उनका उपघात तथा अधिक लेप ग्रहण कर लेने पर उसके
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४८४. एवं पि भाणभेदो, वियावडे अत्तणो उ उवघाओ।
निस्संकियं च पायम्मि गिण्हणे इयरहा संका॥ आचार्य ने कहा-शिष्य! इस प्रकार करने पर खड़े-खड़े लेपन में व्याप्त होने पर हाथ से भाजन नीचे गिर कर टूट सकता है। शकट के कारण आत्मोपघात भी हो सकता है।
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