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पीठिका
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एक ग्रामीण व्यक्ति अधूरी विद्या पढ़कर एक प्रत्यंतग्राम एक राजवैद्य था। वह मर गया। राजा ने पूछा-क्या वैद्य में गया और अपने आपको वैयाकरण बताने लगा। एक बार का कोई पुत्र है ? राजपुरुषों ने बताया कि वैद्य के एक पुत्र है, वहां नगर से एक वैयाकरण अपने वावदूक छात्रों के साथ वहां परन्तु वह वैद्यविद्या नहीं जानता। राजा ने उसे बुलाकर आया। दोनों के मध्य शब्दगोष्ठी हुई। ग्रामीण वैयाकरण ने कहा-अन्यत्र जाकर किसी निपुण वैद्य के पास यह विद्या उस नगरवासी वैयाकरण से पूछा-काग को क्या कहते हैं। सीखो। वह गया। एक दिन एक व्यक्ति बकरी को वैद्य के उसने कहा-'काकः!' ग्रामीण ने कहा-नहीं, उसे 'कीकाकः' पास लाया। उसके गलगंड था। वैद्य ने बकरी के स्वामी को कहना चाहिए। 'काक' तो सभी कहते हैं, फिर वैयाकरण की पूछकर जान लिया कि इसके गले में 'वालुंक' ककड़ी का विशेषता ही क्या? नगरवासी मौन हो गया। ग्रामवासियों ने एक टुकड़ा फंस गया है। वैद्य ने बकरी के गले पर कपडा अपने वैयाकरण का जयजयकार किया। वह नगरवासी बांध कर उसको इस प्रकार मोड़ा कि गले में फंसा ककड़ी वैयाकरण नगर में गया और भोजिक-गांवप्रधान को का टुकड़ा टूट गया और वह गले से निकल गया। वैद्यपत्र ने शिकायत कर उस ग्रामवासी वैयाकरण को तिरस्कृत कर
सोचा-यही वैद्यरहस्य है। वह राजा के पास लौट आया। गांव से निष्कासित कर दिया। इसी प्रकार लोकोत्तर प्रसंग में
राजा ने उसे नियुक्त कर दिया। एक बार रानी के गलगंड हो भी कोई शिष्य केवल पीठिका मात्र का अध्ययन कर अपने
गया। वैद्यपुत्र को रानी के पास लाया गया। उसने पूछा-रानी आपको गीतार्थ बताता है। यह दुर्विदग्ध परिषद् है।
कहां-कहां गई थी। लोगों ने वैद्यपुत्र के संतोष के लिए ३७३. आयरियत्तणतुरितो, पुव्वं सीसत्तणं अकाऊणं।
कहा-पुरोहड़े (पिछवाड़े)। तब वैद्य पुत्र ने रानी के गले पर हिंडति चोप्पायरितो, निरंकुसो मत्तहत्थि व्व॥
कपड़ा लपेट कर जोर से मरोड़ा। रानी का प्राणान्त हो गया। कोई पहले स्वयं शिष्य बने बिना (गुरुकुलवास में रहे
राजा ने अन्य वैद्यों को बुलाकर पूछा-रानी की जो इस
वैद्यपुत्र ने चिकित्सा की वह वैद्यशास्त्र सम्मत थी या नहीं? बिना) आचार्यत्व को पाने के लिए उतावला होकर प्रत्यंत
उन्होंने कहा-वह सम्मत नहीं, निषिद्ध थी। राजा ने तब उस गांव, नगर में जाकर अपने आपको आचार्य ख्यापित करता
वैद्यपुत्र को दंडित कर, गांव से निष्कासित कर दिया। है। तदनन्तर वह चोप्प-मूर्ख आचार्य निरंकुश हाथी की भांति
३७७. कारणनिसेवि लहुसग, अगीयपच्चय विसोहि दट्टण। परिभ्रमण करता है।
सव्वत्थ एव पच्चंतगमण गीयागते दंडो॥ ३७४. छन्नालयम्मि काऊण कुंडियं अभिमुहंजली सुढितो।
एक आचार्य ने कारण से प्रतिसेवना करने वाले एक गेरू पुच्छति पसिणं, किन्नु हु सा वागरे किंचि॥
शिष्य को अगीतार्थ मुनियों के प्रत्यय के निमित्त विशोधि कोई परिव्राजक 'छन्नालयम्मेि' त्रिदंड पर कुंडिका
अर्थात् प्रायश्चित्त दिया। एक शिष्य ने यह देखकर सोचारखकर, उसके अभिमुख हाथ जोड़कर, नीचे झुककर कोई
सर्वत्र इसी प्रकार प्रायश्चित्त देना चाहिए। वह शिष्य प्रत्यंत प्रश्न पूछता है। क्या वह कुंडिका कोई बात कहती है ? नहीं।
ग्राम या नगर में गया। वहां एक निष्कारण प्रतिसेवी को (जैसे कुंडिका का आचार्यत्व है, वैसे ही उस शिष्य का
प्रायश्चित्त दिया। कालान्तर में वहां गीतार्थ मुनि आए। सारी आचार्यत्व है।)
बात सुनकर, उस दंडदायी को दंडित कर, उसके अधिकार ३७५. सीसा वि य तूरंती, आयरिया वि हु लहं पसीयंति।
का हरण कर दिया। तेण दरसिक्खियाणं, भरितो लोगो पिसायाणं॥ ३७८. परंती छत्तंतिय, बुद्धी मंती रहस्सिया चेव। कुछेक शिष्य आचार्य बनने के लिए शीघ्रता करते हैं और पंचविहा खलु परिसा, लोइय लोउत्तरा चेव॥ आचार्य भी उन पर शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। वे शिष्यों की लौकिक पर्षद् के पांच प्रकार हैं-पूरयंती, छत्रवती, बुद्धि, परीक्षा नहीं करते। अतः यह लोक अल्पशिक्षित आचार्य मंत्री और रहस्यिका। लोकोत्तर पर्षद् भी पांच प्रकार की 'पिशाचों से भरा पड़ा है।
होती हैं। ३७६. तेगिच्छ मते पुच्छा, अन्नहि वालुंक देवि कहि चिन्ना। ३७९. पूरंतिया महाणो, छत्तविदिन्ना उ ईसरा बितिया।
तोसत्थेण कहति य, विज्जनिसिद्धे ततो दंडो॥ समयकुसला उ मंती, लोइय तह रोहिणिज्जा या।। १. वह प्रत्यन्तगांव में जाकर वहां स्थित अगीतार्थ मुनियों का अपने जमाए रखता है। एक बार वहां गीतार्थ मुनि आए। वहां की
अधीनस्थ कर अकरणीय कार्य भी करता है और अप्रायश्चित्त स्थान परिस्थिति को देखकर उस कृत्रिम गीतार्थ का निग्रह कर प्रायश्चित्त में भी उन्हें प्रायश्चित्त देता है। वह अपनी पूजा, सत्कार और गौरव- देकर उसके अधिकार को छीन लिया। (वृ. पृ. १११) हानि के भय से दूसरे को कुछ नहीं पूछता और अपना अधिकार
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