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पीठिका
शृंगनादित कार्य क्या हैं ? चैत्य का विनाश, चैत्यद्रव्य का विनाश, दो प्रकार का भेद-मरण अथवा उत्प्रव्राजन की परिस्थिति, आहार तथा उपधि का व्यवच्छेद होना, अन्य देवी-देवताओं को वंदना करने के लिए बाध्य करना, बंधन, घात आदि का होना ये सारे शृंगनादित कार्य हैं। ३१०. वितहं ववहरमाणं, सत्येण वियाणतो निहोडेइ। ___ अम्हं सपक्खदंडो, न चेरिसो दिक्खिए दंडो॥
राजा आदि संघ के प्रति वितथ व्यवहार कर रहा हो तो मंत्रीपर्षद् के अंतर्भूत विज्ञायक अर्थात् स्वसमय और परसमय के शास्त्रों का जानकार व्यक्ति राजा आदि को सुखपूर्वक निवारित कर सकता है। वह कह सकता है-हमारे सपक्ष में दंड होता है अर्थात अपराधी को संघ दंड देता है, राजा नहीं। तथा दीक्षित व्यक्ति को ऐसा दंड नहीं दिया जाता। (यह मंत्रीपर्षद् के अन्तर्गत है।) ३९१. सल्लुद्धरणे समणस्स चाउकण्णा रहस्सिया परिसा।
अज्जाणं चउकण्णा, छक्कण्णा अट्ठकण्णा वा॥ श्रमण का शल्योद्धरण करने के लिए चतुःकर्णा राहस्थिकी पर्षद होती है। श्रमणियों के लिए वह चतुःकर्णा, षट्कर्णा अथवा अष्टकर्णा होती है।' ३९२. आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवज्जितो गुरुसगासे।
एगंतमणावाए, एगो एगस्स निस्साए॥ जनता के आवागमन रहित एकांत स्थान में श्रमण गौरव से परिवर्जित होकर आलोचनाह अकेले आचार्य की निश्रा में अकेला ही आलोचना करे। ३९३. विरहम्मि दिसाभिग्गह, उक्कुडुतो पंजली निसेज्जा वा।
एस सपक्खे परपक्खे मोत्तु छण्णं निसिज्जं च॥ श्रमण एकांत में भी गुप्त प्रदेश में गुरु की निषद्या कर स्वयं पूर्व, उत्तर अथवा चरन्तिका दिशा को ग्रहण कर वंदना कर हाथ जोड़कर उत्कटुक आसन में अथवा व्याधिग्रस्त होने पर अथवा प्रभूत आलोचना करनी हो तो निषद्या की अनुज्ञा लेकर बैठे। यह स्वपक्ष में आलोचनाविधि है। परपक्ष-संयती को आलोचना देनी हो तो छन्न प्रदेश-गुप्त प्रदेश का वर्जन करना चाहिए तथा निषद्या नहीं करानी चाहिए। ३९४. आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवज्जिया उ गणिणीए।
एगंतमणावाए, एगा एगाए निस्साए। श्रमणी गोरवरहित होकर एकांत तथा अनापात स्थान में अकेली एकाकी गणिनी की निश्रा में आलोचना करे। १. चतुःकर्णा- श्रमण आचार्य या निग्रंथ के समक्ष आलोचना
करते समय। अथवा निग्रंथी निग्रंथी के समक्ष आलोचना करते समय।
४३ ३९५. आलोयणं पउंजइ, एगते बहुजणस्स संलोए।
अब्बितियथेरगुरुणो, सबिईया भिक्खुणी निहुया।। अद्वितीय-अकेले स्थविरगुरु के समक्ष अपने साथ एक अन्य भिक्षुणी को लेकर वह आलोचना करने वाली भिक्षुणी एकांत में, बहुजनसमक्ष नियंत्रित और अचपल होकर आलोचना करे। ३९६. नाण-दसणसंपन्ना, पोढा वयस परिणया।
इंगियागारसंपन्ना, भणिया तीसे बिइज्जिया॥ आलोचना करने वाली श्रमणी के साथ वाली दूसरी श्रमणी ज्ञान-दर्शन से संपन्न हो, प्रौढ़ हो (अस्रावी हो), परिणत वयवाली हो और इंगिताकारसंपन्न हो। ३९७. आलोयणं पउंजइ, एगते बहुजणस्स संलोए।
सब्बितियतरुणगुरुणो, सब्बिइया भिक्खुणी निहुया।। एक मुनि के साथ स्थित तरुण गुरु के समीप सद्वितीया श्रमणी एकांत में, बहुजनसमक्ष आलोचना करे। ३९८. नाणेण दंसणेण य, चरित्त-तव-विणय-आलयगुणेहिं।
वयपरिणामेण य अभिगमेण इयरो हवइ जुत्तो। आलोचनार्ह गुरु के साथ वाला वह मुनि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय और आलयगुणों से अर्थात् बाह्य चेष्टाओं में उपशमगुणयुक्त, वयपरिणत तथा अभिगम-सम्यग शास्त्रार्थ कौशल से युक्त होना चाहिए। ३९९. छत्तंतियाए पगयं, जइ पुण सा होज्जिमेहि उववेया।
तो देति जेहिं पगयं, तदभावे ठाणमादीणि॥ यहां छत्रान्तिका पर्षद् का प्रसंग है, अधिकार है। यदि छत्रान्तिका पर्षद् इन निम्नोक्त गुणों से सहित हो तो उसे कल्प और व्यवहार की वाचना दी जा सकती है। इन गुणों के अभाव में स्थानांग आदि (आदि शब्द से प्रकीर्णक) दिए जा सकते हैं। ४००. बहुस्सुए चिरपव्वइए, कप्पिए य अचंचले।
अवविए य मेहावी, अपरिस्सावी य जे विऊ॥ ४०१. पत्ते य अणुण्णाते, भावतो परिणामगे।
एयारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहइ।। वे गुण ये हैं-बहुश्रुत, चिरप्रव्रजित, कल्पिक, अचंचल, अवस्थित, मेधावी, अपरिस्रावी, विद्वान् (प्रभूतशास्त्रों की पारगामिता से समृद्ध बुद्धि वाला), पात्रता प्राप्त, अनुज्ञात, भावतः परिणामक इन गुणों से समन्वित महाभाग अनुयोग सुनने में समर्थ होता है। षट्कर्णा- स्थविर गुरु के समक्ष एक श्रमणी के साथ
आलोचना करती हुई श्रमणी। अष्टकर्णा-सद्वितीय तरुण गुरु के समक्ष एक श्रमणी के साथ
आलोचना करती हुई श्रमणी।
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