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बृहत्कल्पभाष्यम्
देकर, अब अन्यथा न बोलें। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। से केवल दूध का आस्वादन करता है वैसे ही जो गुणों का आप उपयुक्त होकर मुझे आलापक दें, अन्यथा चिंतन न करें। आस्वादन करता है तथा जो भी दोष हैं उनका परित्याग व्यत्यामेडन और उसके दान अर्थात् सिखाने के संदर्भ में मैं करता है, वह प्रस्तुत कल्पाध्ययन को ग्रहण करने में
और आप दोनों क्लेश न पाएं।' इस प्रकार निष्ठुर बोलने योग्य है। वाला और कलह करने वाला शिष्य अयोग्य होता है। ३६७. जे होति पगयमुद्धा, मिगछावग-सीह-कुक्करगभूया। ३६२. सेल-कुडछिद्द-चालिणि, सुद्धो चउगुरुग घडदुवे होति। रयणमिव असंठविया, सुहसण्णप्पा गुणसमिद्धा।
परिपूण महिस मसए, बिरालि आभीरि एमेव।। जो शिष्य प्रकृति से मृगशिशु, सिंहशिशु और श्वानशिशु ३६३. एमेव गोणि भेरी, हंसे मेसे य जाहग जलगा। की भांति अत्यंत भद्र होते हैं, असंस्थापित रत्न' की भांति
चउलहुगमदाणम्मी, पावति एएसु आयरितो॥ होते हैं वे सुखसंज्ञाप्य-सुखपूर्वक प्रज्ञापनीय और गुण-समृद्ध (योग्य शिष्य को वाचना न देने और अयोग्य शिष्य को होते हैं। वाचना देने से आचार्य को प्रायश्चित्त।)
३६८. जे खलु अभाविया कुस्सुतीहिं न य ससमए गहियसारा। मुदशैल, छिद्रकुट तथा चालिनी सदृश शिष्यों को विशेष
अकिलेसकरा सा खलु, वयरं छक्कोडिसुद्धं वा॥ कार्यवश सूत्र अथवा अर्थ की वाचना देने वाला आचार्य शुद्ध जो कुश्रुति-कुसिद्धांतों से अभावित होते हैं और जो है। बिना विशेष कार्य के उनको सूत्र अथवा अर्थ की वाचना अपने सिद्धांतों के रहस्यों से अस्पृष्ट हैं अर्थात् जिन्होंने देने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसी प्रकार अपने सिद्धांतों के सार को आत्मसात् नहीं किया है, जो घटद्विक-प्रशस्त और वाम्य तथा अप्रशस्त और अवाम्य अक्लेशकर है, वह अजानती परिषद् है। वह षट्कोटिशुद्ध तथा बोडकूट और भिन्नकूट सदृश शिष्यों को वाचना देने पर वज्र की तरह होती हैं। चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। परिपूणक, महिष, मशक, बिडाली, ३६९. किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य। आभीरी', अप्रशस्त गौ द्वारा उपलक्षित ब्राह्मण, कंथाकारी दुवियड्डगा उ एसा, भणिया परिसा भवे तिविहा॥ भेरीपाल-इनके सदृश शिष्यों को सूत्रार्थ देने वाले को, दुर्विदग्धा पर्षत् तीन प्रकार की होती है-किंचिन्मात्रग्राही, प्रत्येक के विषय में प्रायश्चित्त है-चतुर्गुरु।।
पल्लवग्राही तथा त्वरितग्राही। इनके प्रतिपक्ष हंस, मेष, उद्दिलाव, जौंक, प्रशस्त गौ, ३७०. नाऊण किंचि अन्नस्स जाणियवे न देति ओगासं। मेरीपालक इनके सदृश शिष्यों को वाचना देने वाला आचार्य न य निज्जितो वि लज्जइ, इच्छइ य जयं गलरवेण॥ शुद्ध है। इनको वाचना न देने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त स्वयं थोड़ा जान लेने पर दूसरों को जानने का अवकाश आता है।
नहीं देता, निर्जित होने पर भी लज्जित नहीं होता, बाढ़स्वर ३६४. जाणंतिया अजाणंतिया य तह दुब्वियडिया चेव।। से चिल्ला-चिल्ला कर जय चाहता है। यह किंचिन्मात्रग्राही
तिविहा य होइ परिसा, तीसे नाणत्तगं वोच्छं॥ का लक्षण है। परिषद् के तीन प्रकार हैं-जानती, अजानती और ३७१. न य कत्थइ निम्मातो, ण य पुच्छइ परिभवस्स दोसेण। दुर्विदग्धा। उनमें जो नानात्व है, वह कहूंगा।
वत्थी व वायपुण्णो, फुट्टइ गामिल्लगवियड्ढो॥ ३६५. गुण-दोसविसेसन्नू, अणभिग्गहिया य कुस्सुइमतेसु। जो शिष्य ग्रामेयकविदग्ध-गांव के लोगों में हुशियार है,
सा खलु जाणगपरिसा, गुणतत्तिल्ला अगुणवज्जा। पर कहीं भी निर्मित नहीं है, परिभव के दोष से अर्थात् मेरा जानती परिषद् वह होती है जो गुणों को और दोषों को पराभव होगा इसलिए दूसरे से कुछ पृच्छा नहीं करता, वह जानती है, जो कुतीर्थिक सिद्धांतों से अनभिगृहीत है, हवा से भरी हुई वस्ति की भांति फूला-फूला रहता है। अप्रभावित है तथा जो अगुणों का वर्जन करती है और गुणों (फट पड़ने की तरह) रहता है-'मैं पंडित हूं' इस के प्रति प्रयत्नशील रहती है।
लोकप्रवाद से गर्वित होकर रहता है। यह पल्लवग्राही का ३६६. खीरमिव रायहंसा, जे घोटृति उ गुणे गुणसमिद्धा। लक्षण है।
दोसे वि य छडुती, ते बसभा धीरपुरिस ति॥ ३७२. दुरहियविज्जो पच्चंतनिवासो वावदूक कीकाको। जो गुणों से समृद्ध हैं तथा जैसे राजहंस नीरमिश्रित दूध खलिकरण भोइपुरतो, लोगत्तर पेढियागीते॥ १. देखें कथा परिशिष्ट नं. ३१। २. असंस्थापित रत्न वह होता है जो खदान से निकला है, पर अभी संस्कारित नहीं है। वैसे रत्न को हम अपनी इच्छानुसार घटित कर सकते हैं। ३. स्वभाव से ही छहों दिशाओं में शुद्ध।
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