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=बृहत्कल्पभाष्यम्
में भेज दिया। कुणाल के पुत्र हुआ। अंधकुणाल गंधर्वविद्या से समस्त लोगों को प्रभावित करता था। वह गांव-गांव में घूमने लगा। वह घूमता-घूमता पाटलिपुत्र में गया। वहां के लोगों ने राजा को निवेदन किया कि एक अंधा व्यक्ति गंधर्वविद्या में अतीव कुशल है। वह यहां आया है। राजा ने उसे राजभवन में बुला भेजा। उसने राजा के आगे यह गीत गाया
'चंदगुत्तपपुत्तो यं, बिंदुसारस्स नत्तुओ।
असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कागिणिं॥' राजा ने पूछा-तुम कौन हो? उसने कहा-मैं चन्द्रगुप्त का प्रपौत्र, बिन्दुसार का पौत्र और अशोकश्री का पुत्र हूं। मैं अंधा हूं और मैं 'काकिणी'-राज्य की याचना करता हूं।' २९५. जो जहा वट्टए कालो, तं तहा सेव वानरा।
मा बंजुलपरिब्भट्ठो, वानरा पडणं सर॥ (कामिक सरोवर के तट पर एक विशाल वंजुल वृक्ष था। उस वृक्ष पर चढ़ कर कोई तिर्यंच प्राणी सरोवर में गिरता तो वह मनुष्य बन जाता और यदि मनुष्य नीचे गिरता तो वह देव बन जाता। दूसरी बार पुनः गिरने पर वह मूल की स्थिति में आ जाता। एक बार वानर दंपति प्रतिदिन की भांति वहां पानी पीने आया। उसने मनुष्य बनने
और देव बनने मात्र की बात सुनी। प्रकृतिगमन की बात नहीं सुनी। वह वानर युगल वृक्ष से सरोवर में कूदा और वह मनुष्य युगल में बदल गया। दोनों का रूप अप्रतिम था। मनुष्य बने बंदर ने अपनी पत्नी से कहा-एक बार और कूदें
और देवरूप को प्राप्त कर लें। स्त्री ने कहा-क्या पता ऐसा होगा या नहीं? इसलिए सरोवर में न गिरा जाए। मनुष्य ने कहा-देव नहीं बनेंगे तो क्या अपना मनुष्यरूप भी विनष्ट हो जाएगा? स्त्री द्वारा प्रतिषेध करने पर भी वह ऊपर से कूदा और वानर हो गया। उधर से राजपुरुष आए और उस सुंदर स्त्री को ले गए। राजा ने उसको रानी बना दिया। उस बंदर को मदारियों ने पकड़ लिया और उसे अनेक करतबों में शिक्षित कर दिया। एक बार मदारी उसी बंदर को लेकर राजा के समक्ष करतब दिखा रहा था। राजा१. पूरे कथानक के लिए देखें-कथा परिशिष्ट नं. २३। २. कुछेक कोलिक वजिका में गए। वहां उन्होंने खीर पकाने की बात
सोची। वहां वे दृध ले आए और उस गर्म कर दिया। फिर उन्होंने सोचा-उसमें जो कुछ भी डाला जाता है, वह खीर बन जाती है। उस गर्म दूध में उन्होंने चावल, मूंग, तिल आदि डाले। वे सारे नष्ट हो गए। अकिंचित्कर हो गए।
रानी दोनों करतब देख रहे थे। वानर बार-बार राजपत्नी को देख रहा था। रानी ने तब कहा-)
'वानर! जैसा समय (कालगत अवस्था) हो, वैसा ही वर्तन करो। वंजुल वृक्ष से एक बार सरोवर में गिरने पर मैंने पुनः उसमें दूसरी बार गिरने का प्रतिषेध किया था। पर तुम नहीं माने। अब उसको भोगो।' २९६. विच्चामेलण अन्नुन्नसत्थपल्लवविमिस्स पयसो वा।
तं चेव य हिट्टवरिं, वायढे आवली नायं ।। व्यत्यानेडित का अर्थ है--अन्यान्यशास्त्रों के अंशों से मिश्रित। उसके दो भेद हैं-द्रव्यतः व्यत्यानेडित और भावतः व्यत्यामेडित। द्रव्यतः व्यत्यानेडित में पायस' का उदाहरण है। सूत्र के शब्दों को नीचे-ऊपर व्यत्यास करना व्याविद्ध है। इसमें 'आवली' का उदाहरण है।३ २९७. खलिए पत्थरसीया, मिलिए मिस्साणि धन्नवावणया।
मत्ताइ-बिंदु-वन्ने, घोसाइ उदत्तमाईया।। स्खलित के दो भेद हैं। द्रव्यस्खलित में प्रस्तरसीता' अर्थात् प्रस्तरों से आकीर्ण क्षेत्र। इसमें चलने वाले हल आदि स्खलित होते हैं। भावस्खलित जैसे-सूत्रालापकों को बीचबीच से छोड़कर बोलना, जैसे-धम्मो, अहिंसा देवावि तं...। मीलित अनेक धान्यों को मिलाकर खेत में बोना। यह द्रव्यतः मीलित है। भावतः मीलित है-अनेक सूत्रालापकों का मिश्रण कर देना। अप्रतिपूर्ण अर्थात् मात्रा, बिन्दु, वर्ण आदि से अप्रतिपूर्ण। उदात्त आदि घोषों से रहित-अघोषयुत कहलाता है। २९८. मुत्तूण पढम-बीए, अक्खर-पय-पाय-बिंदु-मत्ताणं।
सव्वेसि समोयारो, सट्ठाणे चेव चरिमस्स। प्रथम पद हीनाक्षर, द्वितीय पद अधिकाक्षर-इन दो पदों को छोड़कर शेष पांच-अक्षर, पद, पाद, बिन्दु, मात्रा--इन सबका समवतार करना चाहिए। चरिम अर्थात् घोषयुत का स्वस्थान में समवतार होता है। इसमें केवल घोष से अपरिपूर्ण ही ग्राह्य है, अक्षर आदि से नहीं। २९९. खलिय मिलिय वाइद्धं, हीणं अच्चक्खरं वयंतस्स।
विच्चामेलिय अप्पडिपुन्ने घोसे य मासलहूं। स्खलित, मीलित, व्याविद्ध, हीनाक्षर, अत्यक्षर, ३. द्रव्यतः व्याविद्ध में आवली का उदाहरण
एक आभीरी नगर में गई। एक बनियानी उसकी सहेली थी। वह हार पिरो रही थी। आभीरी उसके पास जाकर बोली-मुझे दो। मैं हार पिरो दूंगी। बनियानी ने उसे दे दिया। आभीरी उसको विपरीत रूप से नीचे-ऊपर पिरो दिया। बनियानी ने आकर देखा और कहा-अरे मूर्खे! यह क्या किया? हार को नष्ट कर डाला। महान अकार्य कर दिया।
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