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बृहत्कल्पभाष्यम् इस प्रकार गुरु मंद बुद्धिवाले शिष्यों के लिए, जैसे वे (लकड़ी), धातु, व्याधि, बीज, कांकटुक, लक्षण और स्वप्न। समझ सकें वैसे सात परिपाटियों में अनुयोग करे।
(इनकी व्याख्या आगे के श्लोकों में)। २११. चोएइ राग-दोसा, समत्थ परिणामगे परूवणया। २१६. को दोसो एरंडे, जं रहदारूं न कीरए तत्तो।
एएसिं नाणत्तं, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ को वा तिणिसे रागो, उवजुज्जइ जं रहंगेसु॥ शिष्य ने प्रश्न किया-भंते! आपने जो तीन परिपाटियों में एरंडद्रुम में कौन-सा द्वेष है कि उससे रथयोग्य लकड़ी समर्थ और परिणामक शिष्य को अनुयोग की प्ररूपणा करने नहीं बनाई जाती? तिनिश की लकड़ी के प्रति कौनसा राग है की बात कही है, और मंद परिणाम वाले को सात कि उसका उपयोग रथ के अंगों के निर्माण में किया जाता है? परिपाटियों में अनुयोग-प्ररूपणा का कथन किया है, क्या २१७. जंपिय दारूं जोग्गं, जस्स उ वत्थुस्स तं पि हुन सक्का। उससे राग-द्वेष का प्रसंग नहीं आता? मैं इन समर्थ और जोएउमणिम्मविउं, तच्छण-दल-वेह-कुस्सेहिं॥ असमर्थ शिष्यों का आनुपूर्वी से नानात्व कहूंगा।
यद्यपि किसी वस्तु के योग्य कोई लकड़ी है, परंतु उसको २१२. मच्छरया अविमुत्ती, पूयासक्कार गच्छइ य खिन्नो। बिना निर्मापित किए उसे उपयुक्त स्थान में नियोजित नहीं
दोसो गहणसमत्थे, इयरे रागो उ वुच्छेयो॥ किया जा सकता। लकड़ी के निर्माण की ये क्रियाएं हैं-तक्षण, ग्रहण करने में समर्थ शिष्य को तीन परिपाटियों में दल-समूचे काठ को दो-तीन पाटों ने फाड़ना, वेध और कुश अनुयोग कहना, यह द्वेष है। इसके कारण ये हैं- (जिसे वेध के प्रान्त में पिरोया जा सके।) (१) मत्सरता-यह बहुशिक्षित होने पर मेरा शत्रु बन जायेगा। (इसी प्रकार शिष्य के योग्य होने पर भी जब तक वह (२) अविमुक्ति-सूत्रार्थ समाप्त होने पर यह मुझे छोड़ देगा, सूत्रों से परिकर्मित नहीं होता, तब तक उसे कल्प या अन्यथा मेरे शिष्य परिवार में ही रहेगा। (३) पूजा- व्यवहार नहीं पढ़ाया जाता। यह राग-द्वेष नहीं हैं।) सत्कार-इसका पूजा-सत्कार बढ़ जाएगा। (४) खिन्न-यह २१८. एमेव अधाउं उज्झिऊण धाऊण कुणइ आयाणं। परिश्रांत होकर अन्य गच्छ में चला जाएगा। यह द्वेष है। न य अक्कमेण सक्का, धाउम्मि वि इच्छियं काउं॥ इतर अर्थात् मंदमति को सात परिपाटियों में अनुयोग देना इसी प्रकार राग-द्वेष के बिना अधातु को छोड़कर धातु को राग है, क्योंकि आप सोचते हैं कि इसका संपूर्ण अनुयोग ग्रहण करता है। धातु को भी अक्रम से इच्छितरूप में नहीं ढ़ाला नहीं दूंगा तो अनुयोग का व्यवच्छेद हो जाएगा।
जा सकता, किन्तु क्रम से उसे वह रूप दिया जा सकता है। २१३. निरवयवो न हु सक्को, सयं पगासो उ संपयंसे। (इसी प्रकार अयोग्य शिष्यों का परिहार कर, योग्य
कुंभजले वि हु तुरिउज्झियम्मि न हु तिम्मए लिट्ट॥ शिष्यों को भी क्रमशः श्रुत का ग्रहण कराया जा सकता है।) आचार्य कहते हैं-एक ही परिपाटी में सूत्र का निरवयव- २१९. सुहसज्झो जत्तेणं, जत्तासन्झो असज्झवाही उ। संपूर्ण अर्थ कभी भी संप्रदर्शित नहीं किया जा सकता। जैसे जह रोगे पारिच्छा, सिस्ससभावाण वि तहेव।। जल से भरे हुए एक कुंभ का पानी भी यदि लेष्टु पर उंडेला वैद्य रोग की परीक्षा करता है। वह परीक्षा कर जान लेता जाए तो भी वह उसको नहीं भिगो पाएगा। इसी प्रकार समर्थ है कि यह रोग सुखसाध्य है, यह प्रयत्न-साध्य है और यह शिष्य भी एक ही परिपाटी से संपूर्ण अर्थ का धारण नहीं कर व्याधि असाध्य है-प्रयत्न से भी साध्य नहीं है। परीक्षा के सकता। अतः तीन परिपाटियों से उसे अनुयोग देना अदोष है। पश्चात् वह राग-द्वेष के बिना तदनुरूप उपचार करता है। २१४. सुत्त-ऽत्थे कहयंतो, पारोक्खी सिस्सभावमुवलब्भ। इसी प्रकार शिष्य के स्वभावों को भी राग-द्वेष के बिना
अणुकंपाएँ अपत्ते, निज्जूहइ मा विणस्सिज्जा॥ परीक्षण कर तदनुरूप प्रवृत्ति की जाती है। परोक्षज्ञानी आचार्य शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना २२०.बीयमबीयं नाउं, मोत्तुमबीए उ करिसतो सालिं। देते हुए, शिष्यों के आंतरिक भावों को जानकर, अपात्र ववइ विरोहणजोग्गे, न यावि से पक्खवाओ उ॥ शिष्यों का निर्वृहण करते हैं उन्हें सूत्रार्थ नहीं देते, यह कृषक बीज और अबीज को जानकर, अबीजों को जानकर कि श्रुत की आशातना आदि से उनका विनाश न हो छोड़कर शालि बीजों का वपन करता है। इस प्रवृत्ति में उगने जाए। यह द्वेषभाव नहीं है। .
योग्य बीजों के प्रति कृषक का पक्षपात नहीं है। न उनके प्रति २१५. दारूं धाउं वाही, बीए कंकडुय लक्खणे सुमिणे। राग है और न अबीजों के प्रति द्वेष है।
एगतेण अजोग्गे, एवमाई उदाहरणा॥ २२१. कंकडुए को दोसो, जं अग्गी तं तु न पयई दित्तो। एकांत अयोग्य शिष्य के वाचक ये उदाहरण हैं-दारु को वा इयरे रागो, एमेव य सुत्तकारस्स॥
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