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पीठिका
पुदगलों को सम्यक्त्व पुद्गल नहीं कर सकता। उसके पास न कोई अन्य शोधित पुद्गल हैं जिनका तब वह वेदन कर सके। अर्थात् अधिकृत सम्यक्त्वपुद्गलों के निष्ठाकाल में वेदन कर सके।
११६. सम्मत्तपोग्गलाणं वेदेडं सो य अंतिमं गासं । पच्छाकडसम्मत्तो, मिच्छत्तं चेव संकमति ॥ सम्यक्त्व पुद्गलों के अंतिम ग्रास का वेदन कर लेने पर तथा वह पश्चात्कृत सम्यक्त्व होकर भी मिथ्यात्व में ही संक्रमण करता है।
११७. मिच्छत्तम्मि अन्खीणे, तेपुंजी सम्मदिट्टिणो नियमा । खीणम्मि उ मिच्छत्ते, दु-एकपुंजी व खवगो वा ॥ जिन सम्यकदृष्टि जीवों का मिध्यात्व क्षीण नहीं हुआ है वे नियमतः त्रिपुंजी होते हैं। मिथ्यात्व के क्षीण हो जाने पर वे द्विपुंजी अथवा एकपुंजी (मिश्रपुंज के क्षीण होने पर) हो जाते हैं। अथवा सम्यक्त्वपुंज का भी क्षय हो जाने पर वे क्षपक हो जाते हैं।
११८. उवसामगसेढिगयस्स होति उवसामियं तु सम्मत्तं ।
जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥ उपशम श्रेणीगत व्यक्ति में औपशमिक सम्यक्त्व होता है। अथवा जिसने पुंजत्रय नहीं किया है, अक्षपित मिथ्यात्व वाले व्यक्ति का भी औपशमिक सम्यक्त्व होता है। ११९. वाही
सव्वछिन्नो, कालाविक्खंकुरु व्व ददुमो । उवसामगाण दोण्ह वि, एते खलु होंति दिट्टंता ॥ जो व्याधि सर्वथा छिन्न नहीं हुई है, वह कालान्तर में पुनः उद्भूत हो जाती है। दग्ध वृक्ष भी कालान्तर में पुनः अंकुरित हो जाता है। उसी प्रकार उपशांत मिथ्यात्व भी कालान्तर के बाद पुनः उद्भूत हो जाता है। अतः दोनों उपशमकों (११८ श्लोकमत) से संबंधित ये दोनों दृष्टांत हैं (उपशमश्रेणीगत औपशमिकदर्शनी का प्रतिपात देशतः अथवा सर्वतः होता है। औपशमिकदर्शनी का अवश्य ही सर्वप्रतिपात होता है। वह मिथ्यात्व को प्राप्त होता है।)
१२०. आलंबणमलहंती, जह सद्वाणं न मुंचए इलिया।
एवं अकयतिपुंजो, मिच्छं चिय उवसमी एति ॥ इलिका तृण के सहारे ऊपर चढ़ी। तृण के अग्रभाग तक वह चढ़ी, परंतु आगे आलंबन न होने के कारण वह अपने मूल स्थान पर आ गई, उसे नहीं छोड़ती। इसी प्रकार जो मिध्यात्व के तीन पुंज नहीं करता, वह उपशमी पुनः मिथ्यात्व को ही प्राप्त करता है।
१. क्या सम्यक्त्व लाभ के समय श्रुत अज्ञान रहता है ? यदि हां तो मिथ्यादृष्टित्व का प्रसंग आएगा। यदि नहीं तो श्रुत अज्ञान भी केवल आभिनिबोधिकज्ञानी के होगा। यह उपयुक्त नहीं है। क्योंकि
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१२१. खीणम्मि उदिन्नम्मी, अणुइज्जते य सेसमिच्छते। अंतोमुहुत्तकालं उवसमसम्म लहइ जीवो ॥ जो मिथ्यात्व उदयावलिका में प्रविष्ट हुआ है, उसके क्षीण हो जाने पर और शेष मिथ्यात्व का अनुदय होने पर जीव को अंतर्मुहूर्त काल का औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है (इसका कारण है मिध्यात्वदर्शन के वेदन का अभाव।) १२२. ऊसरदेसं वल्लयं च विन्झाह वणदवो पप्प |
इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्मं मुणेयव्वं ॥ वनप्रवेश का दब वनाग्नि ऊपर प्रवेश को प्राप्त कर बुझ जाती है। इसी प्रकार मिध्यात्व के अनुदय से औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति जाननी चाहिए।
१२३. जिम्हीभवंति उदया, कम्माणं अत्थि सुत्त उवदेसो । उपवायादी सायं, जह नेरइया अणुभवति ॥ दोनों प्रकार के औपशमिक सम्यकदृष्टि जीवों के शेष कर्मों का उदय भी निष्प्रभ हो जाता है। सूत्र का यह उपदेश है. जैसे नैरयिक जीव उपपात आदि में साता का अनुभव करते हैं।
१२४. उबवाएण व सायं, नेरहओ देवकम्मुणा वा वि। अज्झवसाणनिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं ॥ नैरयिक जीव (१) उपपात के अवसर पर (२) देवता द्वारा वेदना का उपशमन कर दिए जाने पर, (३) तथाविध शुभ अध्यवसान के निमित्त तथा (४) कर्मों के तथाविध अनुभाव के कारण साता का अनुभव करते हैं।
१२५. विभंगी उ परिणमं, सम्मत्तं लहति मति - सुतोहीणि ।
तइभावम्मि मति - सुते, सुतलंभं केइ उ भयंति । विभंगज्ञानी सम्यक्त्व का परिणमन करता हुआ मति, श्रुत और अवधिज्ञान को प्राप्त करता है। विभंग के अभाव में मिथ्यादर्शनी सम्यक्त्व का परिणमन करता हुआ मति और श्रुत इन दो ज्ञानों को प्राप्त करता है। कुछेक जीवों में श्रुतलाभ की भजना है-विकल्प है। जिन्होंने श्रुत का अध्ययन किया है उन्हें श्रुतज्ञान होता है, दूसरों को नहीं । १२६. अन्नाण मती मिच्छे, जढम्मि मतिणाणतं जहा एइ |
एमेव य सुयलंभो, सुयअन्नाणे परिणयग्मि ॥ मिथ्यात्व के त्यक्त होने पर मति अज्ञान मतिज्ञान में परिणत हो जाता है। इसी प्रकार श्रुत- अज्ञान के परिणत ( अपगत) होने पर श्रुतलाभ हो जाता है। '
१२७. उवसमसम्मा पडमाणतो उ मिच्छत्तसंकमणकाले ।
सासायणो छावलितो भूमिमपत्तो व पवडतो ॥ श्रुतज्ञान के बिना केवल आभिनिबोधिकज्ञान का अभाव होता है। कहा है-जत्थ मतिनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मतिनाणं । दोवि एयाइं अण्णोष्णमणुगयाई' इति ।
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