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पीठिका
अनुयोग किया जाता है वह द्रव्य से अनुयोग है। अनेक अक्षों से किया गया अनुयोग द्रव्यों से अनुयोग है। एक कल्प में स्थित होकर अनुयोग करना यह अधिकरण अर्थात् एक द्रव्य में होने वाला अनुयोग है। अनेक कल्पों में स्थित होकर अनुयोग करना यह द्रव्यों में होने वाला अनुयोग है। १५९. पन्नत्ति जंबुदीवे, खित्तस्सेमादि होइ अणुयोगो। __खित्ताणं अणुयोगो, दीवसमुदाण पन्नत्ती॥
जंबूद्वीप की प्रज्ञप्ति अथवा अन्य द्वीप की प्रज्ञप्ति-यह क्षेत्र का अनुयोग है। क्षेत्रों का अनुयोग-द्वीपसागरप्रज्ञप्ति अर्थात् अनेक द्वीपों और समुद्रों की प्रज्ञप्ति। १६०. जंबुद्दीवपमाणं, पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं। . एवं मविज्जमाणा, हवंति लोका असंखिज्जा।
पृथ्वीकायिक जीवों को मापने के लिए जंबूद्वीप प्रमाण का प्रस्थक बना कर पृथ्वीकायिक जीवों को माप-मापकर अलोक में फेंका जाए तो असंख्येय लोक होते हैं अर्थात् असंख्येय लोकाकाशप्रमाण अलोक खंड को पूरित करते हैं। (यह क्षेत्र से अनुयोग है।) १६१. ख्रित्तेहिं बहू दीवे, पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं।
एवं मविज्जमाणा, हवंति लोका असंखिज्जा॥ पृथ्वीकायिक को मापने के लिए 'बहु' अर्थात् तीन आदि द्वीपों का प्रस्थक बनाकर पृथ्वीकायिक जीवों को मापमापकर अलोक में फेंका जाए तो असंख्य लोक होते हैं अर्थात असंख्येय लोकाकाश प्रमाण अलोक खंड को पूरित करते हैं। (यह क्षेत्रों से अनुयोग है।) १६२. खित्तम्मि उ अणुयोगो, तिरियलोगम्मि जम्मि वा खेत्ते। ___ अड्डाइयदीवेसुं, अद्धछवीसाएँ खित्तेसु॥
क्षेत्र में अनुयोग, जैसे तिर्यक् लोक में अनुयोग जिस ग्राम, नगर अथवा उपाश्रय में अनुयोग। क्षेत्रों में अनुयोग जैसे-ढाई द्वीपों में अनुयोग अथवा साढा पचीस (२५) आर्य क्षेत्रों में अनुयोग। १. वायुकायिक जीवों के वैक्रियशरीर के अपहार का कालमानपल्योपम का असंख्येय भाग। शेष कायिक जीवों का-बद्ध औदारिक शरीर का, असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालमान में,
अपहार। २. वचन के सोलह प्रकार
'लिंगतियं वयणतियं, कालतियं तह परुक्ख पच्चक्खं। उवणय, वणयचउक्कं, अज्झत्थिययं तु सोलसमं॥ जैसे (१-३) लिंग तीन-स्त्री, पुरुष, नपुंसक।
(४-६) वचन तीन-एकवचन, द्विवचन, बहुवचन। (७-९) काल तीन-अतीत, वर्तमान, अनागत।
१६३. कालस्स समयरूवण, कालाण तदादि जाव सव्वद्धा।
कालेणऽणिलवहारो, कालेहि उ सेसकायाणं ।। काल का अनुयोग-समय की प्ररूपणा। कालों का अनुयोग-समयों अर्थात् समय, आवलिका आदि से समस्त काल (सर्वाद्धा) पर्यन्त। काल से अनुयोग, जैसे वायुकायिक जीवों का अपहार। कालों से-शेष कायिक जीवों का अपहार।' १६४. कालम्मि बिइयपोरिसि, समासु तिसु दोसु वा वि कालेसु।
वयणस्सेगवयाई, वयणाणं सोलसण्हं तु॥ काल में अनुयोग, जैसे दूसरी पौरुषी में। कालों में अनुयोग, जैसे-अवसर्पिणी के तीन अरों में सुषमदुःषमा में, दुःषमसुषमा में, दुःषमा में तथा उत्सर्पिणी के दो अरों में-दुःषमसुषमा में तथा सुषमादुःषमा में। (छह प्रकार का कालानुयोग समाप्त)। वचन का अनुयोग-एक वचन, द्विवचन, बहुवचन। सोलह वचनों का अनुयोग। १६५. वयणेणाऽऽयरियाई, इक्केणुत्तो बहूहि वयणेहि।
वयणे खओवसमिए, वयणेसु उ णत्थि अणुओगो।। वचन से अनुयोग-किसी आचार्य ने, भिक्षु ने अथवा श्रावक ने किसी आचार्य से कहा-'अनुयोग करो।' वह अनुयोग करता है। वचनों से अनुयोग, जैसे अनेक आचार्यों ने कहा-अनुयोग करो। वह अनुयोग करता है। क्षायोपशमिक वचन में स्थित का अनुयोग, वचन में अनुयोग है। उसके वचनों में अनुयोग नहीं होता, क्योंकि क्षायोपशमिक भाव का सर्वत्र एकत्व होता है, बहूत्व नहीं होता। १६६. भावस्सेगतरस्स उ, अणुयोगो जो जहट्टिओ भावो।
दोमाइसन्निकासे, अणुयोगो होति भावाणं ।।
औदयिक आदि भावों में से किसी एक में यथास्थित भाव है, उसका कथन भावानुयोग है। दो आदि भावों के संयोग में जितने विकल्प होते हैं, उनका कथन करना भावानुयोग है। १६७. भावेण संगहाईअन्नयरेणं दुगाइभावेहि।
भावम्मि खओवसमे, भावेसु य नत्थि अणुयोगो॥ (१०) परोक्ष-जैसे वह। (११) प्रत्यक्ष-जैसे यह। उपनय वचन-स्तुति वचन। अपनय वचन-निन्दावचन । (१२) रूपवती स्त्री-उपनय वचन (१३) कुरूप स्त्री-अपनयवचन। (१४) रूपवती स्त्री किन्तु दुःशीला-उपनय-अपनय वचन। (१५) कुरूप स्त्री किन्तु सुशीला-अपनय-उपनय बचन। (१६) अध्यात्म वचन-जो मन में हो वही कहना।
(बृ. पृ. ५०)
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