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पीठिका
१३७. पणगं खलु पडिवाए, तत्थेगो देवभावमासज्ज। वर्ण आदि अर्थात् वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान ये
मणुये रोग-पमाया, केवल-मिच्छत्तगमणे वा॥ प्रज्ञापनीय भाव हैं। इनकी प्रज्ञापना में श्रुतज्ञान भी उस-उस पांच स्थानों से श्रुतज्ञान का प्रतिपात होता है
रूप में परिणत होता है, अतः वह सादि-सपर्यवसित है। (१) देवभाव से (२) रोग से मनुष्य का (३) प्रमाद से १४२. दव्वे नाणापुरिसे, खेत्ते विदेहाई कालो जो तेसु। मनुष्य का (४) कैवल्य से (५) मिथ्यात्वगमन।
खयउवसम भावम्मि य, सुयनाणं वट्टए सययं ।। १३८. चउदसपुव्वी मणुओ, देवत्ते तं न संभरइ सव्वं। द्रव्यतः अर्थात् अनेक पुरुषों की अपेक्षा से, क्षेत्रतः
देसम्मि होइ भयणा, सट्ठाणभवे वि भयणा उ॥ अर्थात् पांच महाविदेह में, कालतः अर्थात् उन्हीं क्षेत्रों में काल कोई चतुर्दशपूर्वी मनुष्य देवत्व को प्राप्त हुआ। उसे सारा की अपेक्षा से तथा भावतः अर्थात् क्षयोपशमभाव से श्रुतज्ञान श्रुत स्मृति में नहीं रहता। उस श्रुत की आंशिक स्मृति में सतत सर्वकाल में रहता है। इस प्रकार श्रुतज्ञान अनादि भजना है, विकल्प है। कुछ याद रहता है और कुछ नहीं। और अपर्यवसित है। मनुष्यभव में उस श्रुत की भजना है। प्रमाद के कारण भी १४३. भंग-गणियादि गमियं, जं सरिसगमं च कारणवसेणं। भजना है। केवलज्ञान होने पर श्रुतज्ञान का क्षय हो जाता है। गाहादि अगमियं खलु, कालिय तह दिट्ठिवाए य॥ मिथ्यादर्शन में जाने से सर्वश्रुत का अभाव हो जाता है।
दृष्टिवाद गमिक है और कालिकश्रुत अगमिक है-यह १३९. नियमा सुयं तु जीवो, जीवे भयणा उ तीसु ठाणेसु। बहुलता की अपेक्षा से कहा जाता है।
सुयनाणि सुयअनाणी, केवलनाणी व सो होज्जा॥ कालिकश्रुत और दृष्टिवाद में भंग-चतुभंगी आदि, श्रुत नियमतः जीव है। तीन स्थानों के आधार पर श्रुत की गणित आदि (आदि शब्द से क्रियाविशाल पूर्व में जो छंद कहे जीव में भजना है, विकल्पना है। वे तीन स्थान ये हैं-जीव कभी गए हैं, वे) तथा सदृशगम का ग्रहण किया गया है। तथा श्रुतज्ञानी होता है, कदाचित् श्रुत अज्ञानी और कदाचित कारणवश से अर्थात् अर्थवश से जो सदृशगम (जैसे निशीथ केवलज्ञानी।
का बीसवां उद्देशक) है, वह गमिक है। शेष गाथा, श्लोक १४०. खित्ते भरहेरवए, काले उ समातो दोण्णि तत्थेव।। आदि अगमिक हैं।
भावे पुण पण्णवगं, पण्णवणिज्जे य आसज्जा॥ १४४. गणहर-थेरकयं वा, आदेसा मुक्कवागरणतो वा। क्षेत्रतः पांच भरत और पांच ऐरावत में, कालतः उन्हीं धुव-चलविसेसतो वा, अंगा-ऽणंगेसु णाणत्तं॥ क्षेत्रों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी-इन दो कालों में श्रुत जो श्रुत गणधरकृत है वह अंगप्रविष्ट है। जो श्रुत सादि और सपर्यवसित होता है अर्थात जब तक तीर्थंकरों के स्थविरों द्वारा रचित अथवा अंगों से नियूंढ है, जो आदेश हैं तीर्थ की अनुवृत्ति होती है तब तक श्रुत होता है, शेष काल में अर्थात् विषय संबंधी भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं, जो मुक्त नहीं।
व्याकरण अर्थात् स्फुट वचन हैं-ये सारे अनंगप्रविष्ट हैं। भावतः प्रज्ञापक तथा प्रज्ञापनीय भावों के आधार पर श्रुत अथवा ध्रुव और चल की अपेक्षा से अंग और अनंग में सादि और पर्यवसित होता है।
नानात्व है। अंग ध्रुव हैं और अनंग अध्रुव अर्थात् चल। १४१. उवयोग-सर-पयत्ता, ठाणविसेसा य हुति पण्णवगे। (द्वादशांग ध्रुव है क्योंकि उसका नियमतः नि!हण होता है।
गति-ठाण-भेय-संघाय-वन्नमादी य भावम्मि॥ प्रकीर्णक चल हैं क्योंकि उनका कदाचित निर्यहण होता है प्रज्ञापक के आधार पर श्रुत सादि और सपर्यवसित होता और कदाचित् नहीं। वे अनंगप्रविष्ट हैं।) है, जैसे प्रज्ञापक का उपयोग कभी शुभ और कभी अशुभ १४५. जइ वि य भूयावादे, सव्वस्स वयोगयस्स ओयारो। होता है। उसका स्वर कभी उदात्त, कभी अनुदात्त और कभी निज्जूहणा तहा वि य, दुम्मेहे पप्प इत्थी य॥ त्वरित होता है। उसका प्रयत्न कभी एक समान नहीं रहता। यद्यपि 'भूतवाद' अर्थात् दृष्टिवाद में समस्त वचनगत स्थानविशेष अर्थात् आसन विशेष के आधार पर भावों का (श्रुत का) अवतरण है, फिर मंदबुद्धि वाले पुरुषों तथा स्त्रियों उत्पाद और विनाश होता है।
को ध्यान में रखकर शेष अंगों तथा अनंगों का निर्वृहण किया प्रज्ञापनीय भावों के आधार पर श्रुत सादि और गया है। (यह स्पष्ट है कि प्रज्ञावती स्त्रियां भी दृष्टिवाद का सपर्यवसित होता है, जैसे-गति अर्थात् गति में सहायभूत पठन नहीं करतीं। क्योंकि-) धर्मास्तिकाय, स्थान अर्थात् स्थिति में सहायभूत अधर्मास्ति- १४६. तुच्छा गारवबहुला, चलिंदिया दुब्बला य धीईए। काय, पुद्गलस्कंधों का भेद, पुद्गलों का संघात, पुद्गलों के इति अतिसेसज्झयणा, भूयावादो उ नो थीणं ।।
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