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पीठिका
अर्थात स्व-स्वपद के अनुसार व्यवस्थित होते हैं। वे परस्पर अनुगमनशील नहीं होते। १२. अत्ताभिप्पायकया, सन्ना चेयणमचेयणे वा वि।
ठवणादीनिरविक्खा , केवल सन्ना उ नामिंदो॥
चेतन अथवा अचेतन द्रव्यों में स्वेच्छा से इन्द्र आदि संज्ञा की जाती है, वह स्थापना आदि से सापेक्ष होती है। स्थापना आदि से निरपेक्ष जो केवल संज्ञा होती है, उस अर्थ से निरपेक्ष होती है, वह नामइन्द्र है। १३. सब्भावमसब्भावे, ठवणा पुण इंदकेउमाईया।
इत्तरमणित्तरा वा, ठवणा नामं तु आवकह॥ स्थापनेन्द्र के दो प्रकार हैं-सद्भाव स्थापनाइन्द्र और असद्भाव स्थापनाइन्द्र। अक्ष, वराटक आदि में इन्द्र की स्थापना असद्भाव स्थापनाइन्द्र है। इन्द्रकेतु आदि में इन्द्र की स्थापना सद्भाव स्थापनाइन्द्र है। स्थापना इत्वर और अनित्वर-दोनों प्रकार की होती है। नाम नियमतः यावत्कथिक ही होता है। १४. दब्वे पुण तल्लद्धी, जस्सातीता भविस्सते वा वि।
जो वा वि अणुवउत्तो, इंदस्स गुणे परिकहेइ॥ जिसमें वह लब्धि अर्थात इन्द्र की लब्धि है, जो अतीत में इन्द्र था अथवा भविष्य में इन्द्र होगा, वह द्रव्यइन्द्र है। जो इन्द्र के गुणों को दूसरों को कहता है, जो अनुपयुक्त है वह भी द्रव्येन्द्र है। १५. जो पुण जहत्थजुत्तो, सुद्धनयाणं तु एस भाविंदो।
इंदस्स व अहिगार, वियाणमाणो तदुवउत्तो॥
जो यथार्थ से युक्त है, वह भावेन्द्र है। यह शब्द आदि शुद्ध नयों द्वारा सम्मत है। अथवा जो इन्द्र शब्द के अधिकार- अर्थ को जानता हुआ उसमें उपयुक्त होता है, वह भावेन्द्र है। १६. न हि जो घड वियाणइ, सो उ घडीभवइ नेय वा अगी।
नाणं ति य भावो त्ति य, एगट्ठमतो अदोसो त्ति। शिष्य ने कहा-जो घट को जानता है वह घटी नहीं होता और जो अग्नि को जानता है वह अग्नि नहीं होता। (इसलिए यह जो कहा गया कि जो इन्द्र के अर्थ को जानता है वह भावेन्द्र है, यह सही नहीं है।) आचार्य कहते हैं-ज्ञान, भाव, अध्यवसाय तथा उपयोग-ये एकार्थक हैं। अतः वह अदोष ह।
१७. जमिदं नाणं इंदो, न व्वतिरिच्चति ततो उ तन्नाणी।
तम्हा खलु तब्भावं, वयंति जो जत्थ उवउत्तो॥ 'यह इन्द्र है', ऐसा जो ज्ञान है उससे इन्द्रज्ञानी अतिरिक्त नहीं है। अतः जो 'इन्द्र' भाव में उपयुक्त है, उसे इन्द्रादिभाव कहते हैं। १८. चेयण्णस्स उ जीवा, जीवस्स उ चेयणाओ अन्नत्ते।
दवियं अलक्खणं खलु, हविज्ज ण य बंधमोक्खा उ॥ (ज्ञान और ज्ञानी का अभेद न मानने पर ये दोष आते हैं।) चैतन्य का जीव से और जीव से चेतना का अन्यत्व मानने पर जीवद्रव्य लक्षणरहित हो जाएगा। (चेतनालक्षणो जीवः यह घटित नहीं होगा।) इस स्थिति में बंध और मोक्ष भी नहीं होगा। (क्योंकि अचेतन न बंधता है और न मुक्त होता है।) १९. जह ठवणिंदो थुव्वइ, अणुग्गहत्थीहिं तह न नामिंदो।
एमेव दव्वभावे, पूयाथुतिलद्धिनाणत्तं॥ जैसे अनुग्रहार्थी व्यक्ति स्थापनाइन्द्र की स्तुति करते हैं, पूजा करते हैं, वैसे नामइन्द्र की नहीं करते। इसी प्रकार द्रव्यइन्द्र और भावइन्द्र में पूजा, स्तुति और लब्धि विषयक नानात्व है। (द्रव्यइन्द्र स्तुत्य और पूजनीय तथा उपयोगलब्धियुक्त नहीं होता। भावेन्द्र स्तुत्य और पूजनीय तथा उपयोगलब्धियुक्त होता है।) २०. विग्योवसमो सद्धा, आयर उवयोग निज्जराऽधिगमो।
भत्ती पभावणा वि य, निवनिहिविज्जाइ आहरणा।। मंगल करने का प्रयोजन क्या है? मंगल के ये आठ प्रयोजन हैं-(१) विघ्नों का उपशमन (२) शिष्य के श्रद्रा की वृद्धि (३) शास्त्रों के धारण में आदर (४) शास्त्रविषयक उपयोग (५) ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा (६) शास्त्रों का स्पष्ट-स्पष्टतर अधिगम (७) गुरु और शास्त्रों के प्रति भक्ति की वृद्धि (८) प्रभावना। इस विषयक ये उदाहरण हैं-नृप, निधि, विद्या आदि।' २१. जो जेण विणा अत्थो, न सिज्झई तस्स तविहं करणं।
विवरीय अभावेण य, न सिज्झई सिज्झई इहरा।
जो प्रयोजन जिस करण (साधन) के बिना सिद्ध नहीं होता, उस प्रयोजन को उसी साधन से करना चाहिए। विपरीत
गन
१. नृप कोई कार्यार्थी पुरुष राजा को प्रसन्न कर अपना प्रयोजन सिद्ध करना चाहता था। वह राजा के पास उपहार लेकर उपस्थित होता है
और राजा को हाथ जोड़कर उसके चरणों में प्रणाम करता है। राजा प्रसन्न होता है और तब उस व्यक्ति का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। निधि, विद्या आदि-कोई व्यक्ति निधि का उत्खनन करना चाहता है अथवा किसी विद्या अथवा मंत्र की सिद्धि करना चाहता है तो वह
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार उपचार करता है। जैसे-द्रव्यतः वह पूष्पों के द्वारा उपचार करता है। क्षेत्रतः-श्मशान आदि स्थानों में, कालतः-कृष्णपक्ष की चतुर्दशी आदि तिथियों में और भावतः-प्रतिलोम और अनुलोम उपसगों को सहन करता है। इस उपचार के द्वारा वह निधि, विद्या और मंत्र को सिद्ध कर सकता है। इस उपचार के अभाव में कुछ भी सिद्ध नहीं होता। (वृ. पृ. १०)
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