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गुरु के अनुशसन को सुनता है, जो गुरु कहता है उसे स्वीकार करता है, उनके वचन की आराधना करता है और अपने मन को आग्रह से मुक्त रखता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में विविध दृष्टियों से विनय-समाधि का निरूपण हुआ है। इसमें यह बताया है कि यदि शिष्य अनन्त ज्ञानी भी हो जाये तो भी वह आचार्यों की उसी तरह आराधना करता है जैसे पहले करता था। जिसके पास धर्म का अध्ययन किया उसके प्रति शिष्य को मन, वचन और कर्म से विनीत रहना चाहिए। जो शिष्य विनीत होता है, वही गुरुजनों के स्नेह को प्राप्त करता है, अविनीत शिष्य विपदा को आमन्त्रित करता है। विनीत शिष्य ही ज्ञान-सम्पदा को प्राप्त कर सकता है। इस अध्ययन में विनय, श्रुत, तप.और आचार, इन चारों समाधियों का वर्णन भी है और वे समाधियां किस तरह प्राप्त होती हैं, इसका भी निरूपण है।
दसवें अध्ययन का नाम सभिक्षु है। इस अध्ययन की इक्कीस गाथाओं में भिक्षु के स्वरूप का निरूपण है। भिक्षा से जो अपना जीवनयापन करता हो वह भिक्षु है। सच्चा और अच्छा श्रमण भी 'भिक्षुक' संज्ञा से ही अभिहित किया जाता है और भिखारी भी। पर दोनों की भिक्षा में बहुत बड़ा अन्तर है, दोनों के लिए शब्द एक होने पर भी उद्देश्य में महान् अन्तर है। भिखारी में संग्रहवृत्ति होती है जबकि श्रमण दूसरे दिन के लिए भी खाद्य-सामग्री का संग्रह करके नहीं रखता। भिखारी दीनवृत्ति से मांगता है पर श्रमण अदीनभाव से भिक्षा ग्रहण करता है। भिखारी देने वाले की प्रशंसा करता है पर श्रमण न देने वाले की प्रशंसा करता है और न अपनी जाति, कुल, विद्वत्ता आदि बताकर भिक्षा मांगता है। भिखारी को भिक्षा न मिलने पर वह गाली और शाप भी देता है किन्तु श्रमण न किसी को शाप देता है और न गाली ही। श्रमण अपने नियम के अनुकूल होने पर तथा निर्दोष होने पर ही वस्तु को ग्रहण करता है। इस प्रकार भिखारी और श्रमण भिक्षु में बड़ा अन्तर है। इसलिए अध्ययन का नाम सभिक्षु या सद्भिक्षु दिया है। पूर्ववर्ती नौ अध्ययनों में जो श्रमणों की आचारसंहिता बतलाई गई है, उसके अनुसार जो श्रमण अपनी मर्यादानुसार अहिंसक जीवन जीने के लिए भिक्षा करता है वह भिक्षु है। इस अध्ययन की प्रत्येक गाथा के अन्त में सभिक्खु शब्द का प्रयोग हुआ है। भिक्षुचर्या की दृष्टि से इस अध्ययन में विपुल सामग्री प्रयुक्त हुई है। भिक्षु वह है जो इन्द्रियविजेता है, आक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, तर्जनाओं को शान्त भाव से सहन करता है, जो पुनः पुनः व्युत्सर्ग करता है, जो पृथ्वी के समान सर्वसह है, निदान रहित है, जो हाथ, पैर, वाणी, इन्द्रिय से संयत है, अध्यात्म में रत है, जो जाति, रूप, लाभ व श्रुत आदि का मद नहीं करता, अपनी आत्मा को शाश्वत हित में सुस्थित करता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में श्रमण के उत्कृष्ट त्याग की झलक दिखाई देती है।
दस अध्ययनों के पश्चात् प्रस्तुत आगम में दो चूलिकाएं भी हैं। प्रथम चूलिका का नाम रतिवाक्या है। इसमें अठारह गाथाएं है तथा एक सूत्र है। इसमें संयम में अस्थिर होने पर पुनः स्थिरीकरण का उपदेश दिया गया है। असंयम की प्रवृत्तियों में सहज आकर्षण होता है, वह आकर्षण संयम में नहीं होता। जिनमें मोह की प्रबलता होती है, उन्हें इन्द्रियविषयों में सुखानुभूति होती है। उन्हें विषयों के निरोध में आनन्द नहीं मिलता। जिन के शरीर में खुजली के कीटाणु होते हैं, उन्हें खुजलाने में सुख का अनुभव होता है किन्तु जो स्वस्थ हैं उन्हें खुजलाने में आनन्द नहीं आता और न उनके मन में खुजलाने के प्रति आकर्षण ही होता है। जब मोह के परमाणु बहुत ही सक्रिय होते हैं तब भोग में सुख की अनुभूति होती है पर जो साधक मोह से उपरत होते हैं उन्हें भोग में सुख की अनुभूति नहीं होती। वह भोग को रोग मानता है। कई बार भोग का रोग दब जाता है किन्तु परिस्थितिवश पुनः उभर आता है। उस समय कुशल चिकित्सक उस रोग का उपचार कर ठीक करता है, जिससे वह रोगी स्वस्थ हो जाता है। जो साधक मोह के उभर आने पर साधना में लड़खड़ाने लगता है, उस साधक को पुनः संयम-साधना में स्थिर करने का मार्ग
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