Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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(समय-विक्रमाब्द 914-941, ई० सन 857-884) की सभा में थे। आचार्य राजशेखर इन आचार्यो के परवर्ती थे।
आचार्य राजशेखर का उल्लेख करने वाले परवर्ती आचार्य :
आचार्य राजशेखर को उद्धृत करने वाले आचार्यों में दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी के धनञ्जय, सोमदेव, क्षेमेन्द्र, सोड्ढल, अभिनवगुप्त, कुन्तक, मम्मट आदि प्रमुख हैं। वाग्भट, हेमचन्द्र, अरिसिंह, देवेश्वर, अमरचन्द्र, केशवमिश्र तथा विश्वनाथ ने भी आचार्य राजशेखर के उद्धरणों को ग्रहण किया है। जैन कवि सोमदेव ने अपने यशस्तिलकचम्पू में पूर्ववर्ती साहित्यकारों की नामावली में राजशेखर के नाम का उल्लेख किया है । यशस्तिलकचम्पू का रचनाकाल सन् 959 ई० है।
धनञ्जय ने अपने 'दशरूपक' में आचार्य राजशेखर के विभिन्न श्लोकों को उद्धृत किया है।
उन्होंने प्रपञ्च के प्रसङ्ग में कर्पूरमञ्जरी का उद्धरण प्रस्तुत किया है 3 आयोग की दस अवस्थाओं में से
'आनन्द' के उदाहरण के रूप में भी धनञ्जय ने आचार्य राजशेखर की 'विद्धशालभञ्जिका' के श्लोक का
उल्लेख किया है। धनञ्जय का समय 974 ई० से 994 ई० के मध्य का है।
अन्ततः विभिन्न राजनैतिक, साहित्यिक साक्ष्य तथा राजशेखर द्वारा प्रस्तुत अन्तः साक्ष्य उन्हें 880 ई० से 970 ई० तक के काल का सिद्ध करते हैं। इस काल में अपनी प्रतिभा के प्रकाश से आचार्य राजशेखर ने साहित्य जगत् को आलोकित तथा महिमामण्डित किया।
1. मुक्ताकण: शिवस्वामी कविरानन्दवर्धनः प्रथां रत्नाकरश्चागात् साम्राज्येऽवन्तिवर्मणः॥
(राजतरङ्गिणी - तरङ्ग-5, श्लोक -149) 2 यथा उर्वभारवि-भवभूति-भर्तृहरिभतृमेण्ठकण्ठगुणाठ्यव्यास-भास बाण-कालिदास मयूरनारायण कुमार माधराजशेखरादिमहाकविकाव्येषु।
(यशस्तिलकचम्पू, चतुर्थ उच्छ्वास, 2/113) 3. "असद्भूतं मिथः स्तोत्रं प्रपञ्चो हास्यकृन्मत:----- | यथा कर्पूरमञ्जयां भैरवानन्दः रण्डा चण्डा दीक्षिता धर्मदारा मद्यं
मासं पीयते खाद्यते च। भिक्षा भोज्यं चर्मखण्डं च शय्या कौलो धर्म: कस्य नो भाति रम्यः॥" (दशरूपक - 3-15) 4. "आनन्दो यथा विद्धशालभञ्जिकायाम् सुधाबद्ध ग्रासैरूपवन चकोरै नुसृतां किरत्र ज्योत्स्नामच्छां नवलवलिपाकप्रणयिनीम्"
(दशरूपक - 4-54/55)