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६–७ अनेक द्रव्य पदार्थ हैं। इनमें पेट्रोल, पानी भी है, दूध, तेल भी है, घी, और छास तथा नीरस भी है । इस तरह इतने सब द्रव्य जो भिन्न-भिन्न हैं, स्वतंत्र हैं, लेकिन सब मिलकर एकरूप होते जाते हैं । ठीक इसी तरह कभी पत्नी, कभी पुत्र, पौत्र, व्यापार-धंधा, परमात्मा, रोग, बीमारी, मृत्यु आदि सेंकडों विषयों के विचार आते ही जाय और वे सब छन्नी में एक साथ इकट्ठे बनकर धारा का रूप ले लें तो क्या उसे ध्यान कहा जा सकता है ? जी नहीं । कदापि नहीं ।
पानी
धारा
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दूसरा चित्र भी देखिए... इसमें एक ही पदार्थ पानी है । उसे ही छत्री
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छाना जा रहा है। एक ही पदार्थ की एक ही प्रकार की अखंड धारा चल रही है। बस, ऐसा ही ध्यान होता है । पहले में अनेक पदार्थ थे और अनेकों की बनी एक धारा थी । उसमें पानी भी है, दूध-छास और तेलादि भी हैं यदि इन सब प्रवाही पदार्थों की बनी हुई एक ही धारा यदि सीधे हम हमारे मुँह में जीभ पर ले लें तो किसका स्वाद आएगा ? किसके स्वाद का आनन्द या मजा आएगी? एक की भी नहीं । क्योंकि अनेक पदार्थ हैं । और उनमें
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भी परस्पर विरुद्ध स्वादवाले विरोधी पदार्थ भी हैं । और उनमें भी एक धारा बनकर जीभपर आ रहे हो तो किसका स्वाद आए ? किसका आनन्द आए ? संभव ही नहीं है ।
ठीक इस दृष्टान्त की तरह पत्नी, पुत्र, पौत्र, पिता, परमात्मा, व्यापार- -धंधा, स्वर्ग, रोग, बीमारी और मृत्यु आदि सेंकडों निमित्त हैं । इन सब विषयक विचार आते ही रहें तो किस विषय के विचार का आनन्द आएगा ? एक का भी नहीं ! संभव भी नहीं है । एक समय एक विचार एक विषय का आया कि इतने में ही दूसरे समय दूसरा विचार दूसरे ही विषय का आया तो वह आनन्ददायक कैसे बनेगा ? इसी चलते क्रम को यथावत् देखते ही रहें तो ख्याल आएगा कि ... प्रति क्षण-क्षण समय-समय विचार बदलते ही रहते हैं । विचारों का यह प्रवाह सतत आयुष्य भर चलता ही रहता है । यह चक्र के रूप में घूमता
आध्यात्मिक विकास यात्रा