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Aspects of Jainology
Vol. IV
जैन विद्या के आयाम
खण्ड ४280
3043
230 Golden Jubilee Seminar Volume
स्वर्ण जयन्ती संगोष्ठी ग्रन्थ
Editors Prof. Sagarmal Jain Dr. Ashok Kumar Singh
सच्चं लोगम्मि सारभूयं
LASU
पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी-५ PĀRŚVANATHA ŚODHAPĪTHA, VĀRĀŅASĪ-5.
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जैन विद्या के आयाम ग्रंथांक ४
पार्श्वनाथ विद्याश्रम स्वर्णजयन्ती ग्रन्थ
( विद्याश्रम के स्वर्ण जयन्ती पर आयोजित प्राकृत एवं जैन विद्या परिषद के प्रथम अधिवेशन के लिए प्रस्तुत शोधपत्रों का संकलन )
सम्पादक प्रो० सागरमल जैन डॉ० अशोक कुमार सिंह
प्रकाशक
पार्श्वनाथ शोधपीठ वाराणसी ५
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प्रकाशक पार्श्वनाथ शोधपीठ
आई० टी० आई० रोड पो० आ० : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी - २२१ ००५
दूरभाष : ३११४६२
प्रथम संस्करण १९९४
मूल्य : अजिल्द रु० २५०.००
सजिल्द रु० ३००.००
मुद्रक
डिवाइन प्रिण्टर्स सोनारपुरा, वाराणसी।
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ASPECTS OF JAINOLOGY
Vol. IV
Pārsvanātha Vidyāśrama Golden Jubilee Volume
( Selected Research Papers of Ist Prākṣt Jaina Vidyā Parișad Conference held on
the Occasion of Vidyāśrama Golden Jubilee )
Editors Prof. Sagarmal Jain Dr. Ashok Kumar Singh
Publisher Pārsvanātha Śodhapitha, Varanasi - 5
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Published by Pārsvanātha Sodhapitha
I. T. I. Road P. O.:B. H. U. Varanasi : 221 005 Phone : 311462
First Edition : 1994
Price : Paper Back Rs. 250.00
Hard Bound Rs. 300.00
Printed at Divine Printers Sonarpura, Varanasi.
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पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के निर्माता
स्व. श्री हरजसराय जी जैन जन्म : १३ /०६/१८९६
स्वर्गवास : १८/०६/१९८६
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Entrance to the Research-cum-Administrative Block.
पाश्र्वनाथ विद्याश्रमशोधसंस्थान B. V. RESEARCH INSTITUTE
A View of the Library.
Women's Hostel Block for the P.V. Research Institute.
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प्रकाशकीय
जैन विद्या के आयाम के चतुर्थ खण्ड का प्रकाशन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर 'प्राकृत जैन विद्या परिषद् के प्रथम अधिवेशन में प्रस्तुत निबन्धों के संकलन के रूप में किया जा रहा है। प्राकृत एवं जैन विद्या परिषद् के प्रथम अधिवेशन में प्राकृत और जैन विद्या के अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने भाग लिया
और अपने आलेखों के माध्यम से जैन विद्या के कोश को समृद्ध किया। इसका प्रकाशन चिरप्रतीक्षित था किन्तु कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों वश उसमें विलम्ब हो गया। इसके हिन्दी के आलेख तो लगभग २ वर्ष पूर्व ही छप गये थे किन्तु अंग्रेजी आलेखों के टंकण में अप्रत्याशित रूप से विलम्ब होता गया और इस प्रकार लगभग ५-६ वर्ष के लम्बे अन्तराल के बाद हम इसे पाठकों के हाथों में समर्पित कर रहे हैं।
इस लम्बी प्रतीक्षा के लिए हम न केवल पाठकों अपितु उन लेखकों के भी विशेष आभारी हैं, जिन्होंने इस विलम्ब को सहा है।
पार्श्वनाथ शोध संस्थान, भगवान् पार्श्वनाथ की जन्मस्थली वाराणसी में, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के समीप स्थित है। जैन विद्या के उच्च अध्ययन एवं शोध-केन्द्र के रूप में यह देश का प्रथम एवं प्रतिष्ठित संस्थान है। शोध-कार्य हेतु काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता प्राप्त यह शोधपीठ जैनधर्म, दर्शन, साहित्य, इतिहास और संस्कृति के सम्बन्ध में शोधात्मक प्रवृत्तियों का तो जन्मदाता ही है। १० नवम्बर १९३५ को अमृतसर में पू० श्री सोहनलाल जी म० सा० की पावन स्मृति में स्थापित इस समिति ने जैन विद्या के विकास एवं प्रचार-प्रसार हेतु वाराणसी में, सन् १९३७ में अपनी शैक्षिक गतिविधियाँ प्रारम्भ की। इस शोधपीठ के प्रेरक रहे हैं - स्वनामधन्य पं० सुखलाल जी संघवी, अहमदाबाद और निराकाम समाजसेवी लाला हरजसराय जी जैन, अमृतसर।
__ शोध के सम्बन्ध में विशुद्ध अकादमिक दृष्टिकोण एवं साम्प्रदायिक आग्रहों से दूर रहकर जैन-विद्या के क्षेत्र में शोध-कार्य करने के कारण इसका विशिष्ट स्थान है। आज तक इस संस्थान से ५० से अधिक छात्र पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं और लगभग २० छात्र इस समय पी-एच० डी० हेतु पंजीकृत हैं। इस संस्थान द्वारा जैन विद्या का एक वर्षीय स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम भी चलाया जा रहा है।
यह शोध-संस्थान २५००० पुस्तकों वाले बृहद् पुस्तकालय तथा फोटोस्टेट मशीन, कम्प्यूटर, लेज़र प्रिण्टर जैसे अत्याधुनिक उपकरणों से युक्त है। संस्थान के पास दो
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(
VI
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मंजिला भवन, निदेशक-आवास, शिक्षक-आवास, अतिथि-गृह, श्रमण-श्रमणियों तथा छात्रछात्राओं के लिए आवास की सुविधा है।
संस्थान के प्रकाशनों में जैन-विद्या से सम्बन्धित शोधपूर्ण एवं उच्चस्तरीय १०० से अधिक ग्रंथों का प्रकाशन किया जा चुका है। इसके साथ ही संस्था से नियमित रूप से 'श्रमण' नामक त्रैमासिक पत्रिका प्रकाशित होती है।
अपने विकासक्रम में अब यह संस्थान मान्य विश्वविद्यालय बनने के लिए सरकार द्वारा आदेश प्राप्ति के लिए प्रतीक्षारत है।
जैन विद्या के आयाम के इस चतुर्थ खण्ड के प्रकाशन की इस बेला में हम उन सभी विद्वानों के आभारी हैं जिनके विद्वत्तापूर्ण आलेखों से इस ग्रंथ की गरिमा में वृद्धि हुई है। प्रस्तुत आलेखों के सम्पादन, प्रूफ-संशोधन और मुद्रण-सम्बन्धी व्यवस्थाओं के लिए संस्थान के निदेशक प्रो० सागरमल जैन, प्रवक्ता डॉ० अशोक कुमार सिंह और डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने जो सहयोग दिया है उसके लिए हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
इस ग्रन्थ के हिन्दी विभाग के मुद्रण का कार्य डिवाइन प्रिण्टर्स के श्री महेश जी ने किया। इसके अंग्रेजी खण्ड का टंकण संस्थान में हुआ तथा इस टंकित सामग्री को मुद्रणयोग्य स्वरूप देने का कार्य नया संसार प्रेस ने किया। वर्द्धमान मुद्रणालय द्वारा इसका मुद्रण किया गया। एतदर्थ मैं इन सभी के प्रति आभारी हूँ।
भवदीय भूपेन्द्रनाथ जैन
मन्त्री
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१. डॉ० के० आर० चन्द्र
२. डॉ० दीनानाथ शर्मा
३. डॉ० जीतेन्द्र शाह
४. डॉ० सुदर्शन लाल जैन ५. डॉ० साध्वी प्रमोद कुमारी ६. सुदीप कुमार जैन
७. रूपेन्द्र कुमार पगारिया
८. पं० विश्वनाथ पाठक
९. डॉ० प्रेमसुमन जैन
१०. कानजी भाई पटेल
११. डॉ. धर्मचन्द जैन
१२. डॉ० कृपाशंकर व्यास
१३. डॉ. लालचन्द जैन
१४. डॉ. बच्छराज दूगड़ १५. डॉ. मुमुक्षु शांता जैन
विषय सूची ( हिन्दी खण्ड )
आचारांग ( प्रथमश्रुतस्कन्ध ) के प्रामाणिक संस्करणों के कतिपय पाठों की समीक्षा एवं भाषाकीय दृष्टि से उन्हें सुधारने की अनिवार्यता
इसिभासियाई के कुछ अध्ययनों का भाषाशास्त्रीय विश्लेषण
नयचक्र में उद्धृत आगम पाठों की समीक्षा महाराष्ट्री प्राकृत में मूल 'य' वर्ण का अभाव जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में नारद
जोइन्दुकृत अमृताशीति
शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति में प्रतिपादित जैनाचार
पउमचरियं के हिन्दी अनुवाद में कतिपय त्रुटियाँ
कवि हरिराज कृत प्राकृत मलयसुंदरीचरियं अनुयोगद्वारसूत्र और वैदिक व्याख्यान पद्धति की तुलना
जैन दर्शन में हेतु - लक्षण
जैनधर्म में ईश्वरविषयक मान्यता का अनुचिन्तन
चित्र - अद्वैतवाद का जैन दृष्टि से तार्किक विश्लेषण
जैन दर्शन में मन
लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण
१ - ९
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w an a
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८६
९२ - १०१
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(
VIII )
१६. हुकुचंद संगवे
आचार्य कुन्दकुन्द की आत्मदृष्टि : एक चिन्तन
१०२ - १०७ १७. डॉ. रमेशचन्द जैन गीता, उसका शांकरभाष्य और जैन दर्शन १०८ - ११६ १८. डॉ. वंशिष्ठ नारायण सिन्हा । जैन एवं काण्टीय दर्शनों की समन्वयवादी शैली
११७ -१२४ १९. डॉ. निजामुद्दीन
जैनधर्म और इस्लाम में अहिंसा: तुलनात्मक दृष्टि
१२५ - १३१ २०. डॉ. विजय कुमार
जैन शिक्षा दर्शन में गुरु की अर्हताएँ १३२ -१३८ २१. प्रा. डॉ. एच. यू. पण्ड्या तप
१३९- १४९ २२. जिनेन्द्र कुमार जैन णायकुमारचरिउ के दार्शनिक मतों की समीक्षा
१५० - १५६ २३. कुमारी अरुणा आनन्द योग का अधिकारी : हरिभद्रीय योग के सन्दर्भ में
१५७- १६४ २४. अनिल कुमार मेहता आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार का मूल्यांकन
१६५ - १७१ २५. डॉ. रत्नलाल जैन जैन-जैनेतर दर्शनों में अहिंसा
१७२- १७४ २६. डॉ. रज्जनकुमार समाधिमरण जीवन से भागना नहीं
१७५- १८० २७. प्रो. नन्दलाल जैन जैन शास्त्रों में आहार-विज्ञान
१८१- १९४ २८. महोपाध्याय विनयसागर श्रमण : महावीर तीर्थ का प्रमुख स्तम्भ । १९५- २०२ २९. डॉ. देवी प्रसाद मिश्र जैन पुराणकालीन भारत में कृषि
२०३- २०६ ३०. डॉ. अजय कुमार जैन वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनर्निरीक्षण २०७- २१३ ३१. डॉ. पी. सी. जैन साहित्यिक उन्नयन में भट्टारकों का अवदान २१४- २१८ ३२. डॉ. नरेन्द्र भानावत कविवर बनारसीदास और जीवनमूल्य २१९- २२५ ३३. डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक
मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २२६- २३७ ३४. डॉ. हरिश्चन्द्र जैन आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी
२३८-२४४ ३५. डॉ. मधु अग्रवाल
मारवाड़ चित्रशैली एवं जैन विज्ञप्ति पत्र २४५-२५० ३६. डॉ. आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव एलोरा की जैन सम्पदा
२५१- २५२
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ENGLISH SECTION 1. Dr. K. R. Chandra
A Critical Review of the Old Arya Metre Restored in the Text of Itthiparinna
1-6 2. Johari Mal Parekh Positive Contents of Jainism
7-21 3. Dr. S. K. Bharadwaj Concept of Liberation and Its Pre
requisites (According to Pañcasūtrakam of Cirantanācārya
22 - 31 4. Prof. Madhao S. Ranadive The idea of Impermanence
32 - 36 5. Dr. Yugal Kishore Mishra Jaina Asceticism : An Appraisal 37 - 42 6. Piotr Balcerowicz
Some Remarks on the Analysis of the sensuous cognition ( Mati-jņāna ) Process
43 - 46 7. Dr. Anil Kumar Jain
Colour : An Innate Property of the Matter
47 - 51 8. Dr. L. C. Jain
Dhruvarāśi Takanika in Jaina Canons 52 - 57 9. Dr. M. S. Shukla
Ancient India and South-east Asia
as known from Jaina Sources 58 - 61 10. Dr. A. K. Chatterjee Historical Significance of early Jaina Kadamba Inscriptions
62 - 67 11. Rita Pratap
Wall Paintings as Depicted in the Patodi Jaina Temple, Jaipur
68 - 74 12. Prof. R. N. Maheta Chaitya Paripāți and Ahmedabad of Early Seventeenth Century
75 - 77
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FIRST ALL INDIA CONFERENCE
OF PRAKRIT AND JAINA STUDIES प्रधान अध्यक्ष : पं० दलसुखभाई मालवणिया का अभिभाषण
उपस्थित विद्वद्वन्द !
सर्वप्रथम आप सब विद्वत्जनों का आभार मानना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ कि आपने मुझे इस पद पर बैठा दिया। किन्तु जब मैं इसके कारण का विचार करता हूँ तब यह प्रतीत होता है कि आपने मझ जैसे व्यक्ति को अवसर दिया है उसका कारण मेरी विद्वत्ता की अपेक्षा जैन धर्म और प्राकृत भाषा के क्षेत्र में अध्ययन करनेवालों की कमी-यह है। तब ही मेरे जैसे व्यक्ति को यह अवसर दिया गया-ऐसा मैं हृदय से मानता हूँ। मेरे लिए यह आनन्द और प्रतिष्ठा की वस्तु होने पर भी जब मैं अनुभव करता हूँ कि जैन धर्म और प्राकृत भाषा का क्षेत्र विद्वानों द्वारा उपेक्षित हैं तब हृदय दुःख का अनुभव करता है, और इस उपेक्षा के कारणों की खोज की ओर मन स्वतः प्रवृत्त हो जाता है।
प्राकृत भाषा के अध्ययन की आज देश में क्या स्थिति है ? इसका चित्रण मेरे गुरु पं० सुखलाल जी ने आज से लगभग ४० वर्ष पूर्व किया था। उसे मैं उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ, वे लिखते हैं कि "जब मैं काशी में उच्चकोटि के साहित्यिक एवं आलंकारिक विद्वानों के पास पढ़ता था तब अलंकार नाटक आदि में आने वाले प्राकृत गद्य-पद्य का उनके मुंह से वाचन सुनकर विस्मित सा हो जाता था, यह सोचकर कि इतने बड़े संस्कृत के दिग्गज पण्डित प्राकृत को यथावत् पढ़ भी क्यों नहीं सकते ? विशेष अचरज तो तब होता था, जब वे प्राकृत गद्य-पद्य का संस्कृत छाया के अभाव में अर्थ ही नहीं कर सकते थे। प्रो० विधुशेखर शास्त्री ने इस सम्बन्ध में ध्यान खींचते हुए कहा है कि "प्राकृत भाषाओं के अज्ञान तथा उनकी उपेक्षा के कारण 'वेणी संहार' में कितने ही पाठों की अव्यवस्था हुई है।' पण्डित बेचरदासजी ने 'गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति' में पृ० १०० टि० ६२ में में शिवराम म० प्रांजपे संपादित 'प्रतिमा नाटक' का उदाहरण देकर वही बात कही है। राजशेखर की 'कर्पूरमंजरी' के टीकाकार ने अशुद्ध पाठ को ठीक समझ कर ही उसकी टीका की है। डा० ए. एन. उपाध्ये ने भी अपने वक्तव्य में प्राकृत भाषाओं के यथावत् ज्ञान न होने के कारण संपादकों व टीकाकारों के द्वारा हुई अनेकविध भ्रान्तिओं का निदर्शन किया है।
विश्वविद्यालय के नये युग के साथ ही भारतीय विद्वानों में भी संशोधन की तथा व्यापक अध्ययन को महत्त्वाकांक्षा व रुचि जगी। वे भी अपने पुरोगामी पाश्चात्य गुरुओं की दृष्टि का अनुसरण १. जैन साहित्य की प्रगति पृ०२-४
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करने की ओर झुके व अपने देश की प्राचीन प्रथा को एकांगिता के दोष से मुक्त करने का मनोरथ व प्रयत्न करने लगे। पर अधिकतर ऐसा देखा जाता हैं कि उनका मनोरथ व प्रयत्न अभी तक सिद्ध नहीं हुआ। कारण स्पष्ट है। कॉलेज व यूनिवर्सिटी की उपाधि लेकर नई दृष्टि से काम करने के निमित्त आये हुए विश्वविद्यालय के अधिकांश अध्यापकों में वही पुराना एकांगी संस्कार काम कर रहा है। अतएव ऐसे अध्यापक मुंह से तो असांप्रदायिक व व्यापक तुलनात्मक अध्ययन की बात करते हैं पर उनका हृदय उतना उदार नहीं है । इससे हम विश्वविद्यालय के वर्तुल में एक विसंवादी चित्र पाते हैं । फलतः विद्यार्थियों का नया जगत् भी समीचीन दृष्टिलाभ न होने से दुविधा में ही अपने अभ्यास को एकांगी व विकृत बना रहा है ।
हमने विश्वविद्यालय के द्वारा पाश्चात्य विद्वानों की तटस्थ समालोचना मूलक प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाही पर हम भारतीय अभी तक अधिकांश में उससे वंचित हो रहे हैं। वेबर, मेक्समूलर, गायगर, लोयमन, पिशल, जेकोबी, ओल्डनबर्ग, शार्पेन्टर, सिल्वन लेवी, थॉमस, बेईल, बरो, शुबिंग, आल्सडोर्फ, मैडम कैया, वेशलर, सुजिको ओहिरा आदि विदेशी संशोधक विद्वान् आज भी संशोधन क्षेत्र में भारतीयों की अपेक्षा ऊँचा स्थान रखते हैं। इसका कारण क्या है इस पर हमें यथार्थ विचार करना चाहिए । पाश्चात्य विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम सत्यशोधक वैज्ञानिक दष्टि के आधार पर रखा जाता है। इससे वहाँ के विद्वान् सर्वांगीण दृष्टि से भाषाओं तथा इतर विषयों का अध्ययन करते कराते हैं। वे हमारे देश की रूढ़प्रथा के अनुसार केवल सांप्रदायिक व संकुचित दायरे में बद्ध होकर न तो भाषाओं का एकांगी अध्ययन करते हैं और न इतर विषयों का ही। अतएव वे कार्यकाल में किसी एक ही क्षेत्र को क्यों न अपना पर उनकी दष्टि व कार्यपद्धति सर्वांगीण होती है। वे अपने संशोधन क्षेत्र में सत्यलक्षी ही रह कर प्रयत्न करते हैं। हम भारतीय संस्कृति की अखण्डता व महत्ता की डींग हाँकें और हमारा अध्ययन-अध्यापन व संशोधन विषयक दृष्टिकोण खंडित व एकांगी हो तो सचमुच हम अपने आप ही अपनी संस्कृति को खंडित व विकृत कर रहे हैं।
एम० ए०, डॉक्टरेट जैसी उच्च उपाधि लेकर संस्कृत साहित्य पढ़ाने वाले अनेक अध्यापकों को आप देखेंगे कि वे पूराने एकांगी पंडिनों की तरह प्राकृत का न तो सीधा अर्थ कर सकते हैं, न उसकी शुद्धि-अशुद्धि पहचानते हैं, और न छाया के सिवाय प्राकृत का अर्थ ही समझ सकते हैं। यही दशा प्राकृत के उच्च उपाधिधारकों की है। वे पाठ्यक्रम में नियत प्राकृतसाहित्य को पढ़ाते हैं तब अधिकांश में अंग्रेजी भाषान्तर का आश्रय लेते हैं, या अपेक्षित व पूरक संस्कृत ज्ञान के अभाव के कारण किसी तरह कक्षा की गाड़ी खींचते हैं । इससे भी अधिक दुर्दशा तो 'ऐन्श्यिन्ट इन्डियन हिस्ट्री एन्ड् कल्चर' के क्षेत्र में कार्य करने वालों की है। इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश अध्यापक भी प्राकृतशिलालेख, सिक्के आदि पुरातत्त्वीय सामग्री का उपयोग अंग्रेजी भाषान्तर द्वारा ही करते हैं। वे सीधे तौर से प्राकृत भाषाओं के न तो मर्म को पकड़ते हैं और न उन्हें यथावत् पढ़ ही पाते हैं। इसी तरह वे संस्कृत भाषा के आवश्यक बोध से भी वंचित होने के कारण अंग्रेजी भाषान्तर पर ही निर्भर रहते हैं । यह कितने दुःख व लज्जा की बात है कि पाश्चात्य संशोधक विद्वान् अपने इस विषय के संशोधन और प्रकाशन के लिए अपेक्षित सभी भाषाओं का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं, जब कि हम भारतीय अपने ही प्राच्य भाषाओं का न तो पूरा अध्ययन ही करते हैं, और न ही पूरा उपयोग । ऐसी स्थिति में तत्काल परिवर्तन करना आवश्यक है। यह मेरे गुरुजो के मन की पीड़ा थी जो आज मेरी भी पीड़ा है। आवश्यक यह है कि संस्कृत, दर्शन एवं प्राचीन भारतीय इतिहास
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एवं संस्कृति के विभागों में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत और पालि भाषाओं की जानकारी आवश्यक मानी जानी चाहिए। इसी प्रकार भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन और हिन्दी, बंगला, गुजराती आदि भाषाओं के विभागों में भी प्राकृत भाषाओं का ज्ञान आवश्यक रूप से होना चाहिए, क्योंकि उसके अभाव में भाषा के विकास की सही प्रक्रिया को समझ पाना कठिन होता है । यह सब इसलिए आवश्यक है कि बिना इसके हम सही रूप में न तो भारतीय संस्कृति के धरोहर को समझ पायेंगे और न अपनी संस्कृति के जीवन मूल्यों को परख पायेंगे । आज प्राकृत भाषा और जैन धर्म एवं दर्शन के अध्ययन की उपेक्षा क्यों है ? इस प्रश्न का उत्तर सहज नहीं । हमें इसके लिये आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के इतिहास तक जाना होगा । जैन धर्म की प्रकृति का विचार करना होगा । भगवान् महावीर और बुद्ध समकालीन थे। किन्तु दोनों की प्रकृति में जो भेद देखा जाता है वही भेद जैन और बौद्ध धर्म में भी है । जैन धर्म साधकों का धर्म है । उसमें प्रचार गोण है । बौद्ध धर्म साधकों का धर्म हो कर भी साधना के समान ही उसमें प्रचार का भी महत्व है । भगवान् महावीर ने तीर्थङ्कर बन कर विहार करके जैन धर्म का प्रचार किया यह सच है । किन्तु प्रचार में उन्होंने इस बात पर विशेष ध्यान दिया कि साधक अपनी साधना में रत रहे, दुनिया से दूर रहे और अपना कल्याण करे। किंतु उनका यह उपदेश नहीं रहा कि धर्म प्रचार के कार्य में उतना ही ध्यान दे जितना अपनी साधना में । यही कारण है कि त्रिपिटक में बुद्ध के 'चरथ भिक्खवे चारिकां बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' जैसे वाक्य मिलते हैं किन्तु जैन आगमों में ऐसे वाक्य नहीं मिलते। परिणाम स्पष्ट है कि बुद्ध के समय का एक प्रभावशाली धर्म होकर भी जैन प्रचार की दृष्टि से पिछड़ गया । स्वयं पिटक इस बात के साक्षी हैं कि जहाँ कहीं बुद्ध गये प्रायः सर्वत्र बड़े-बड़े नगरों में प्रभावशाली निर्ग्रन्थ उपासकों से उनका मुकाबला हुआ और अन्त में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा |
प्रचार को प्राधान्य नहीं होने से जैन धर्म बौद्ध धर्म के समक्ष अपना प्रभाव कायम न रख सका किन्तु साहित्य निर्माण की दृष्टि से भी यह पिछड़ गया यह बात नहीं है । त्रिपिटक और उनकी अट्ठकथा के अतिरिक्त पालि में अन्य बौद्ध साहित्य नहीं बना है जब कि प्राकृत में जैन साहित्य निर्माण की अविच्छिन्न धारा बीसवीं शताब्दी तक कायम रही है । बौद्ध धर्म का महायानी साहित्य संस्कृत में लिखा गया और जैन धर्म का भी साहित्य संस्कृत में लिखा गया । चौदहवीं शताब्दी के बाद बौद्ध संस्कृत साहित्य प्रायः नहीं लिखा गया जब कि जैन संस्कृत साहित्य का निर्माण आज भी हो रहा है । बौद्ध साहित्य सीलोनी, तिब्बती, चीनी आदि भारतीयेतर भाषाओं में अपने प्रचार क्षेत्र के कारण लिखा जाता रहा जब कि जैन साहित्य अपभ्रंश और तज्जन्य प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में मर्यादित रहा ।
जैन और बौद्ध दोनों धर्मों का प्रतिवाद करने के लिए वैदिक विद्वान् सन्नद्ध थे किन्तु अपनी संस्कृतभक्ति और अपभ्रंशद्वेष के कारण जैन आगमों और पालि पिटकों से वैदिक विद्वान् प्रायः अनभिज्ञ ही रहे । ऐसा अभी एक भी प्रमाण देखने में नहीं आया जिससे स्पष्ट सिद्ध हो कि प्राचीन काल के वैदिक विद्वानों ने प्राकृत या पालि के ग्रन्थ देखकर उनकी विस्तृत आलोचना की हो । वैदिकों द्वारा आलोचना तब ही संभव हुई जब जैन और बौद्ध ग्रन्थों का निर्माण संस्कृत में होने लगा ।
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आलोचना-प्रत्यालोचना का क्षेत्र खास कर वादप्रधान दार्शनिक संस्कृत साहित्य है। जैनों की अपेक्षा बौद्धों ने इस क्षेत्र में प्रथम प्रवेश किया । जैन परम्परा के सिद्धसेन और समन्तभद्र के पहले भी नागार्जुन जैसे प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक अपना प्रभाव इस क्षेत्र में जमा चुके थे और वैदिक दार्शनिकों में एक हलचल पैदा कर चुके थे । वात्स्यायन जैसे वैदिकों ने नागार्जुन के पक्ष का खंडन किया था और उनको वसुबन्धु और दिङ्नाग जैसे दिग्गज बौद्ध दार्शनिकों द्वारा उत्तर भी मिल चुका था। यही समय है जब जैन दार्शनिकों ने भी इस क्षेत्र में पदार्पण किया और सिद्धसेन, मल्लवादी, समन्तभद्र जैसे प्रबल जैन दार्शनिकों ने वैदिक और बौद्ध विद्वानों के मतों का खण्डन किया। उस समय के बाद के ग्रन्थों को देखने से यह प्रतीत होता है कि समन्तभद्र या मल्लवादी के ग्रन्थों में जो प्रौढ पांडित्य और वादक्षमता है वह उस समय के किसी भी वैदिक या बौद्ध विद्वानों के ग्रन्थों से कम नहीं। फिर आगे चलकर जिस प्रकार बौद्ध और वैदिक विद्वानों के बीच पारस्परिक खण्डन का जो तांता लग गया वैसा जैन और बौद्धों के बीच या जैन और वैदिक के बीच देखा नहीं जाता। हम स्पष्ट रूप से पाते हैं कि बौद्ध और वैदिकों में उत्तरोत्तर एक के बाद एक परस्पर खंडन करने वाले विद्वानों का तांता-सा लग गया है। कुमारिल, उद्योतकर, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, शंकराचार्य,
कमलशील, वाचस्पति मिश्र, जेतारि, जयन्त, दुर्वेक, उदयन, ज्ञानश्री आदि विद्वानों के नाम दार्शनिक साहित्य के क्षेत्र में तेजस्वी तारों की तरह चमकते हैं। इनके ग्रन्थों को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन विद्वानों ने परस्पर जो खंडन किया है वह अपने से पूर्व होने वाले विद्वानों के ग्रन्थों को अपने समक्ष रख कर ही किया है । यह काल वस्तुतः बौद्ध और वैदिक विद्वानों के बीच प्रबल संघर्ष का काल रहा-इसकी साक्षी वैदिक और बौद्ध दार्शनिक ग्रंथ देते हैं। किंतु बौद्ध और वैदिकों के इस दीर्घकालीन संघर्ष में जैनों का क्या स्थान रहा इसका जब विचार करते हैं तब निराश होना पड़ता है। नागार्जुन से लेकर ज्ञानश्री तक के बौद्ध दार्शनिक ग्रन्थ देखें या वात्स्यायन से गंगेश तक के वैदिक ग्रन्थ देखें तब यह नहीं पता लगता कि उन दार्शनिकों के समक्ष जैन पक्ष भी कोई महत्त्वपूर्ण पक्ष था । सुमति या पात्रकेसरी जैसे जैन विद्वानों के मतों का विस्तृत खंडन बौद्ध ग्रन्थों में देखा जाता है अवश्य, किन्तु वह प्रासंगिक है और प्रायः ‘एतेन' की प्रक्रिया से है। स्याद्वाद या अनेकान्त जैसे वाद की समीक्षा भी सांख्य और मीमांसकों के साथ कर दी गई है। और तो और शंकराचार्य जैसे विद्वान् वैदिक दार्शनिक ने भी अनेकान्तवाद का जो खण्डन किया वह उनके नाम को शोभा भी नहीं देता और उनके बाद के वेदान्त के विद्वानों ने उसमें कुछ भी अपनी ओर से विशेष जोड़ा नहीं है। इतनी चर्चा से इतना स्पष्ट है कि दार्शनिकों के इस संघर्ष काल में जैन पक्ष बिलकुल गौण रहा । संघर्ष केवल बौद्ध और वैदिकों के बीच रहा ।
ऐसा होते हुए भी जब हम उसो दीर्घकाल के बीच होने वाले जैन दार्शनिकों के ग्रन्थ देखते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्ध और वैदिकों के इस संघर्ष का पूरा लाभ जैनों ने भी उठाया है । मल्लवादी हो या समन्तभद्र, अकलंक हो या हरिभद्र, विद्यानन्द हो या अभयदेव, प्रभाचन्द हो या वादीदेव, हेमचन्द्र हो या यशोविजय-इन सभी जैन विद्वानों के दार्शनिक ग्रन्थ इस बात की साक्षी देते हैं कि उन्होंने अपने-अपने काल के बड़े-बड़े बौद्ध और वैदिक विद्वानों के मतों को विस्तृत समीक्षा की है और खास कर उन दोनों के संघर्ष से निष्पन्न दोनों की खूबियों और खामियों का परिज्ञान करके अपने ग्रन्थों को समृद्ध किया है। इतना ही नहीं किन्तु वादी और प्रतिवादी दोनों की दलीलों को सुनने वाले न्यायाधीश के निर्णय में जो ताटस्थ्य होता है और दोनों के समन्वय का जो प्रयत्न
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होता है वैसा ही ताटस्थ्य और प्रयत्न इन जैन विद्वानों के ग्रन्थों में देखा जाता है। मल्लवादी का नयचक्र, हरिभद्र का शास्त्रवार्तासमुच्चय, अकलंक का राजवार्तिक और न्यायविनिश्चय, विद्यानंद की अष्टसहस्री और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अभयदेव का वादमहार्णव आदि ग्रन्थ जैन दर्शन के अपनेअपने काल के उत्कृष्ट ग्रन्थ हैं । इतना ही नहीं, किन्तु उस काल के वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों की तुलना में भी उनका स्थान उच्चतर नहीं बराबरी का तो है ही। इतना होते हुए भी इन ग्रन्थों का उपयोग तत्कालीन या उत्तरकालोन बौद्ध या वैदिक विद्वानों ने नहींवत् किया है. यह भी एक सत्य हकीकत है । या यों कहना चाहिए कि जैनों का प्रयत्न बाद में उतरने का रहा और उतरे भी किन्तु वह प्रयत्न एकपक्षीय रहा । अर्थात् जैनाचार्यों ने तो अपने-अपने काल के समर्थ दार्शनिकों के विविध मतों की विस्तृत समालोचना अपने ग्रन्थों में की किन्तु जैन आचार्यों को उत्तर नहीं दिया गया । इसके अन्य कारण जो भी रहे हों किन्तु मेरे मत से एक कारण यह तो अवश्य है कि जैनों ने ग्रन्थों की रचना करके उन्हें अपने भंडारों में तो अवश्य रखे किन्तु उन ग्रन्थों का प्रचार नहीं किया। इसका प्रमाण यह है कि जैन ग्रन्थों की हस्तप्रतों की प्राप्ति प्रायः किसी भी जैनेतर ग्रन्थ भंडार में नहीं होती। इसके विपरीत जैन ग्रंथागारों में जेनों के अलावा बौद्ध और वैदिक ग्रंथों की सैकड़ों क्या सहस्रों हस्तप्रतियाँ मौजूद हैं। इससे एक बात तो सिद्ध होती है कि जैन विद्वान् अपने ग्रंथागारों को सभी प्रकार के ग्रंथों से समृद्ध करते थे। इतना ही नहीं किन्तु जैन ग्रंथों को भी जैन-अजैन सभी प्रकार की सामग्री से समृद्ध करते थे। किन्तु जैन ग्रन्थों का उपयोग जैनेतरों ने उतनी ही मात्रा में किया हो उसका प्रमाण उपलब्ध नहीं होता।
ऐसा क्यों हुआ? इसका जब हम विचार करते हैं तो हमें उसो जैन प्रकृति पर आना पड़ता है। बौद्धों के स्थान-स्थान पर अपने विहार होते थे जहाँ बौद्ध भिक्षु स्थायी रूप से रहते थे और अपना अध्ययन-अध्यापन करते थे। यही बात वैदिक विद्वानों के विषय में भो थी । अर्थात उनका निवास स्थान स्थायी होता था। बौद्ध विहार एक प्रकार से आगे चलकर विद्यापीठ का रूप ले लेते थे और यही बात वैदिकों के मठों की भी है। किन्तु जैनों के ऐसे न विहार थे, न मठ । जैन आचार्य तो एक स्थान में रह नहीं सकते थे, सदा विचरण करते थे । अतएव उनकी विद्यापरंपरा स्थायी रूप ले नहीं पाती थी। पुस्तकों का बोझ लेकर वे विहार भी नहीं कर सकते थे। पुस्तक लिखकर भडार में रख दी और अपने आगे चल पड़े-यही प्रायः उन जैन विद्वानों की जीवन प्रक्रिया थी । बीच-बीच में कुछ जैन आचार्यों ने चैत्यवास के रूप में स्थायी हो जाने का प्रयत्न किया किन्तु जैन संघ में ऐसे आचार्यों की प्रतिष्ठा टिक नहीं सकी और आगे चलकर पुनः ग्रामानुग्राम विचरण करने वालों की प्रतिष्ठा होने लगी और चैत्यवासी परंपरा हीन दृष्टि से देखो जाने लगी। ऐसी स्थिति में विद्यापरंपरा का सातत्य और प्रचार संभव नहीं था। जैनेतरों को जैन मत जानने का साधन जैन ग्रन्थ नहीं किन्तु जैन व्यक्ति ही रहा। ऐसी स्थिति में जैनेतर ग्रन्थों में जैन ग्रन्थ के आश्रय से विचार होना संभव न था । अतएव हम देखते हैं कि जैनेतर ग्रन्थों में जेन मत और ग्रन्थों की चर्चा नहींवत् है।
जैनों के पक्ष की चर्चा अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलती इसका एक कारण और भी है और वह यह है कि दार्शनिकों में प्रायः अपने से विरोधी वादों की समीक्षा करने का प्रयत्न देखा जाता है । बौद्ध और वैदिक मन्तव्यों में जैसा ऐकान्तिक विरोध है वैसा जैन और वैदिकों में था बौद्ध और जैन में परस्पर ऐकान्तिक विरोध है भी नहीं। अतएव वैदिक और बौद्ध परस्पर प्रबल विरोधी मन्तव्यों
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की विचारणा यह स्वाभाविक है। जैनों ने तो दार्शनिक दृष्टि से बौद्ध और वैदिकों के दार्शनिक विरोध को अनेकान्त के आश्रय से मिटाने का प्रयत्न किया है। ऐसी स्थिति में जैनाचार्य बौद्ध या वैदिक आचार्यों के समक्ष एक प्रबल विरोधी रूप से उपस्थित नहीं भी होते हैं। यह भी एक कारण है कि जैनाचार्यों के ग्रन्थों की चर्चा या प्रचार अन्य दार्शनिकों में नहीं हुआ।
एक ओर दार्शनिक दृष्टि से प्रबल विरोधी पक्ष के रूप में जन पक्ष को जब स्थान नहीं मिला तब जैनों के साहित्य को देखने की जिज्ञासा का उत्थान ही जैनेतरों में नहीं हुआ; तो दूसरी ओर जैनों को अपने मन्तव्यों को लिखित रूप में सर्वत्र प्रचारित करने की प्रेरणा या आवश्यकता भी प्रतीत नहीं हुई । वे अपने भक्तों के बीच ही अपने साहित्य का प्रचार करते रहे । भक्तों में भी श्रावक या उपासक वर्ग तो उन हस्तलिखित पोथियों की पूजा ही कर सकता था किन्तु पढ़ने की आवश्यकता महसूस नहीं करता था । साधुवर्ग में भी कुछ ही साधु संस्कृत-प्राकृत पढ़-लिख सकते थे अन्य अधिक संख्या तो ऐसी हो होती थी जो बाह्य तपस्या आदि साधनों के द्वारा ही अपने आत्म कल्याण में लगे हुए थे। ऐसी स्थिति में सब विषयों में सदैव साहित्य का सर्जन होकर भी प्रचार में आया नहीं तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है।
अंग्रेज यहाँ आये और उसके बाद मुद्रण-कला का विकास हुआ। प्रारम्भ में तो जैन पुस्तकों के प्रकाशन का ही विरोध हुआ और वह विरोध मर्यादित रूप में आज भी है। किन्तु जब वेबर, याकोबी और मोनियर विलियम्स जैसे विद्वानों ने जैन साहित्य का महत्त्व परखा और उसकी उपयोगिता राष्ट्रीय सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से भो अत्यधिक है-इस बात को कहा तब विद्वानों का ध्यान जैन साहित्य की ओर गया। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित जैन साहित्य की मात्रा अत्यधिक होते हुए भो प्राकृत और अपभ्रंश भाषा उसके विशेष अध्ययन में बाधक इसलिये हुई कि संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन को परम्परा के समान प्राकृत-अपभ्रश की अध्ययन-अध्यापन परम्परा भारत वर्ष में थी ही नहीं। और जो जैन साहित्य प्रकाशित भी हुआ उसका अधिकांश इस दृष्टि से तो प्रकाशित हआ ही नहीं कि इसका उपयोग जैनेतर विद्वान अपने संशोधन कार्य में भो एव हम देखते हैं कि अत्यधिक ग्रन्थ पत्राकार मुद्रित हुए और उनमें विस्तृत प्रस्तावना, अनुक्रमणिका और शब्दसूचियाँ आदि उपयोगी सामग्री दो नहीं गई और आधुनिक संशोधन पद्धति से उनका संपादन भी नहीं हुआ। इन कारणों से विद्वानों को उपेक्षा आधुनिक काल में भो जैन साहित्य के प्रति रही। अध्ययन की आवश्यकता
___ इस उपेक्षा के कारण जैन दर्शन के मर्म को पकड़ना प्राचीन और आधुनिक काल के विद्वानों के लिए कठिन हो गया है। यही कारण है कि अनेकान्त के विषय में प्राचीन काल में शङ्कराचार्य द्वारा दिये गये आक्षेपों को जिस प्रकार अन्य वेदान्ती विद्वान् दोहराते रहे उसी प्रकार आधुनिक विद्वानों में किसी एक ने जो आक्षेप किया दूसरों के द्वारा वहो दोहराया जाता है और प्रायः यह देखा जाता है कि मूल ग्रन्थ अब उपलब्ध होने पर भी उन्हें देखने का कष्ट विद्वान् लोग नहीं उठाते । विद्वानों के आक्षेपों का उत्तर देने का तो यह स्थान नहीं। जिन्हें जिज्ञासा हो वे पं० महेन्द्र कुमार द्वारा लिखित 'जैन दर्शन' देखें। किन्तु जब आज सह-अस्तित्व और पंचशील की बात कही और प्रचारित की जाती है तब यह विचारना तो आवश्यक हो गया है कि यह सह-अस्तित्व और पंचशील
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की बात भारतवर्ष में में ही क्यों उठी ? इसके पीछे क्या भारतवर्ष की कमजोरी है या भारतीय संस्कृति का जीवातुभूत तत्त्व समन्वय की भावना है ? मेरी तुच्छ समझ में तो यह आता है कि वैदिक काल से चली आई समन्वय की भावना का ही चरम विकास राजनैतिक क्षेत्र में सह-अस्तित्व और पंचशील का सिद्धान्त है। कमजोर और छोटे राष्ट्र तो और भी हैं किन्तु उन्होंने तो सह-अस्तित्व की आवाज नहीं उठाई। अतएव यह मानना पड़ेगा कि विविध विचारों की क्रीड़ाभूमि भारतवर्ष में से ही उठने वाली यह आवाज उसकी अपनी प्राचीन परम्परा के अनुकूल है। वेद काल में बहुदेववाद के विरोध का समन्वय ‘एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' यह था। उपनिषद् में तो ब्रह्मतत्त्व के साक्षात्कर्ताओं ने ब्रह्म को 'अणोरणीयान् महतो महीयान्', 'क्षरम् अक्षरं च व्यक्ताव्यक्तम्' कह करके एक प्रकार से दो विरोधी धर्मों का समन्वय एक ब्रह्म में किया हैं। एक ओर ब्रह्म को अवाच्य बताया गया और दूसरी ओर उसे समझाने के लिए ही तो उपनिषदों की रचना हुई। उपनिषदों में जगत् के मूल में सत्, असत्, वायु, आकाश, अग्नि आदि कई पदार्थों को बताया गया, तो आखिर इन सबकी एकवाक्यता ब्रह्म पदार्थ में की गई—यह सब मेरे विचार से समन्वय की ही भावना के कारण शक्य हुआ है। इतना ही नहीं किन्तु भारतवर्ष के समग्र दर्शनों को अधिकारी भेद से निरूपित करके चरम सीमा पर ब्रह्मवाद को रखा गया यह भी उसी की ओर संकेत है। बौद्ध दर्शन के परस्पर विरोधी संप्रदायों की भी बुद्ध के उपदेश के साथ संगति अधिकार भेद को लेकर ही की गई और शन्यवाद की चरम सीमा में बिठाया गया-यह समन्वय नहीं तो क्या है ? ऐसी स्थिति में भारतवर्ष के समग्र दर्शनों का समन्वय करने वाला जैन दार्शनिकों का अनेकान्तवाद अब केवल आक्षेपों या उपेक्षा का विषय न रह कर अभ्यास का विषय बने यह आवश्यक है। जहाँ अन्य दार्शनिकों ने मौलिक विरोध को विरोध न मान कर केवल सैद्धान्तिक समन्वय की बात की है जैनाचार्यों ने उस बात की सचाई किस प्रकार सिद्ध होती है उसे विस्तार से दिखाने का अपने दार्शनिक ग्रन्थों में प्रयत्न किया है। वैदिक वाक्य में तो सिद्धान्त रूप से कह दिया कि 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' किन्तु इस वैदिक वाक्य की सचाई को सिद्ध करने का श्रेय यदि किसी को है तो वह जैनाचार्यों को है। जैसे-जैसे दार्शनिक विचारों का भारतवर्ष में विकास और विस्तार बढ़ता गया वैसे-वैसे जैनों का अनेकान्त उन सबका समन्वय करता गया यह बात कालक्रम से निर्मित जैन दार्शनिक ग्रन्थों से सिद्ध होती है। वस्तुतः देखा जाय तो भारतवर्ष के दार्शनिक विचारों के क्रमिक विकास को अपने में संनिविष्ट करनेवाले ये जैन ग्रन्थ उपेक्षा का नहीं किन्तु अभ्यास का विषय बने यह आवश्यक है।
अनेकान्त की ही तरह भारतवर्ष में बुद्ध और महावीर से लेकर महात्मा गाँधी, विनोबा तक अहिंसा के विचार का विकास हआ है तथा आचरण में अहिंसा की व्यापकता क्रमशः बढते-बढते आज राजनैतिक क्षेत्र में भी पहुंच गयी है। ऐसी अहिंसा के विशेष अध्ययन की सामग्री जैन ग्रन्थों में है। जिस अहिंसा के सिद्धान्त का अग्रदूत भारतवर्ष राष्ट्रसमूह में बना है उस अहिंसा को परम्परा का इतिहास खोजना अनिवार्य है और उसके लिए तो जैन ग्रन्थों का अध्ययन अनिवार्य होगा ही। यह एक अच्छा लक्षण है कि जिससे कि जैन ग्रन्थों के अध्ययन की प्रगति अवश्य होगा ऐसा मैं मानता हूँ।
आधनिक भाषाओं के विकास का अध्ययन बढ़ रहा है और प्रादेशिक प्रचलित भाषाओं के उपरान्त बोलियों का अध्ययन भी हो रहा है-यह एक अच्छी बात है जिसके कारण प्राकृत भाषा का भाषादृष्टि से अध्ययन अनिवार्य हो गया है। किन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि भारतवर्ष
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के विश्वविद्यालयों की उपेक्षा अभी भी इस ओर बनी हुई है। जब तक प्राकृत भाषा का विधिवत् अध्ययन नहीं होता तब तक आधुनिक प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों का अध्ययन भी अधूरा ही रहेगा। आशा है इस ओर विश्वविद्यालय के अधिकारी वर्ग ध्यान देंगे और इस कमी को पूरा करेंगे।
साहित्योद्धार के प्रयत्न
याकोबी जैसे कुछ विद्वानों ने जैन ग्रन्थों के आधुनिक पद्धति से संस्करण प्रकाशित करके विद्वानों को इस साहित्य के प्रति आकृष्ट किया । आधुनिक युग प्रचार-युग है। अतएव उसका असर जैनों में भी हुआ और इस दिशा में भी प्रयत्न हुए। फलस्वरूप माणिकचंद दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, जैन साहित्य उद्धारक फंड ग्रन्थमाला, आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला, मतिदेवी जैन ग्रन्थमाला, जीवराज जैन ग्रन्थमाला, आदि ग्रन्थमालाओं में आधनिक ढंग से जैन पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं। बनारस में पार्श्वनाथ विद्याश्रम की स्थापना सन् १९३७ में की गई थी। प्रारम्भ में तो यह एक छात्रावास ही था किन्तु आज यह एक शोध संस्थान के रूप में विकसित हो गया है। विद्याश्रम ने विभिन्न शोध प्रबन्धों के प्रकाशन के साथ जैन साहित्य के बृहद् इतिहास के निर्माण का काम अपने हाथ में लिया; विद्वानों के सहयोग से यह कार्य कुछ आगे बढ़ा और आज तक इसके सात भाग प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु अपभ्रंश, मरुगुर्जर, आधुनिक गुजराती एवं हिन्दी के खण्ड अभी पूर्ण होना है। इसी प्रकार जैन दार्शनिक साहित्य के इतिहास का खण्ड भी अभी तक पूर्ण नहीं हो पाया है यद्यपि इसके लिए मैं स्वयं भी जिम्मेवार हूँ, किन्तु मेरी वृद्धावस्था के कारण अब यह अपेक्षा करना स्वाभाविक ही है कि कोई युवा विद्वान् इस कार्य को हाथ में लेकर पूर्ण करेगा। प्रकाशनों की दृष्टि से विद्याश्रम ने भी लगभग सत्तर (७०) ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं जो जैन विद्या के क्षेत्र में एक स्तुत्य कार्य ही कहा जायेगा। जहाँ तक शोध का प्रश्न है निश्चित ही यह विद्याश्रम एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। प्राकृत एवं जैनविद्या से सम्बन्धित विविध पक्षों पर जितने अधिक शोधकार्य यहाँ हुए हैं और हो रहे हैं उतने भारत के किसी अन्य शोध संस्थान या विश्वविद्यालय में नहीं हुए हैं । इसकी असांप्रदायिक दृष्टि एवं वाराणसी जैसी प्राच्य विद्या को नगरी में इसका स्थित होना इसकी गरिमा में वृद्धि करता है। मैं लक्ष्मीपतियों और विद्वानों दोनों से ही इस संस्थान के विकास में सहयोग का निवेदन करता हूँ।
प्राकृत आगम साहित्य के प्रकाशन का कार्य प्रारंभ में भीमशी माणेक मुर्शिदाबाद, उसके बाद देवचंद लालचंद पुस्तकोद्धार फण्ड-सूरत से आचार्य आनंदसागरसूरि के प्रयत्नों से हुआ । स्थानकवासी परंपरा में आचार्य अमोलक ऋषिजी ने सर्व प्रथम हिन्दी अनुवाद के साथ आगमों को प्रकाशित किया । यद्यपि यह संस्करण पाठ शुद्धि की दृष्टि से प्रामाणिक नहीं था। उसके पश्चात् आचार्य आत्मारामजी, तथा युवाचार्य मधुकर मुनिजो ने कुछ आगमों की संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित करवाया। फिर भी संशोधित संस्करणों की दृष्टि से महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित आगम ही अधिक प्रामाणिक माने जा सकते हैं। आचार्य तुलसी के निर्देशन में जैन विश्वभारती, लाडनं में जो कार्य हो रहा हैं वह भी संशोधन की नवीन पद्धति के आधार पर हो रहा है। उनका आगमशब्दकोश भी शोधार्थियों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। फिर भी आगमों के प्राचीनतम शुद्ध पाठ तैयार करने एवं संशोधित करने का
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दुरूह कार्य अभी विद्वानों के समक्ष है, क्योंकि आगमों के पाठों में बहुत अधिक परिवर्त हो गया है। यदि यह सब संस्थायें आपस में सहयोग करें तो आगमी दस-पन्द्रह वर्षों में आगमों के प्रामाणिक शुद्ध संस्करण तैयार हो सकेंगे। दिगम्बर परंपरा में षटखण्डागम का, कसायपाहुड का, उनकी धवला, जयधवला आदि टोकाओं के प्रकाशन का महान कार्य हुआ है। ये ग्रंथ जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त को जानने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं फिर भी इन ग्रन्थों पर शोध-परक दृष्टि से कार्य करना अभी भी शेष है । अभी तक जैनागमों का समीक्षात्मक अध्ययन कम ही हो पाया है। यह कार्य करना अभी भी शेष है।
जैन साहित्य के प्रकाशन को दृष्ट से अन्य संस्थाओं से वोर सेवा मंदिर दिल्लो, प्राकृत भारती जयपुर, महावीर जैन ग्रन्थ अकादमी जयपुर, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर ने भी महत्वपूर्ण कार्य किया था, किन्तु अब यह समाप्तप्राय ही है । शोध की दृष्टि से अभी तक जैनविद्या के विविध पक्षों पर चार सौ (४००) से अधिक शोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं। उनमें से सभी तो प्रकाशन योग्य नहीं है किन्तु अधिकतर प्रकाशन के योग्य हैं और जैन प्रकाशन संस्थाओं को उनके प्रकाशन में रस लेना चाहिए। यद्यपि मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि शोध के क्षेत्र में जो समीक्षात्मक और पैनीदृष्टि अब भी पाश्चात्य विद्वानों में देखने को मिलती है उसका भारत में अभाव ही है। अब तो स्तरीय शोध निबन्ध भी देखने को नहीं मिलते हैं। हमें प्राकृत एवं जैन विद्या के क्षेत्र में इस कमी को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए।
विगतवर्षों में जैन परंपरा में अनेक अभिनंदन और स्मृतिग्रंथ प्रकाशित हुए हैं और उनमें कुछ स्तरीय शोध निबंधों का प्रकाशन हुआ है किन्तु अधिकांश विवरणात्मक हैं-समस्यामूलक नहीं है। आज करने योग्य कार्य यह भी है कि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और अभिनन्दन एवं स्मृतिग्रंथों में जो स्तरीय निबंध प्रकाशित हुए हैं उनकी सूची प्रकाशित की जाये और यह प्रयत्न किया जावे कि सभी निबंध जैन शोध संस्थानों में अध्येताओं को प्राप्त हो सके। इसी प्रकार प्रकाशित और अप्रकाशित जैन ग्रंथों की सूची का भी प्रकाशन होना आवश्यक है। इस क्षेत्र में सर्व प्रथम जिनरत्नकोश का प्रकाशन हुआ था। इसी प्रकार छोटेलाल जैन द्वारा संकलित Jaina Bibliography दिल्ली से पुनः प्रकाशित हुई है किन्तु अभी तक ऐसी कोई व्यापक सूची जो श्वेताम्बर-दिगम्बर परंपरा के सभी प्रकाशित ग्रंथों और निबंधों को समाहित करती हो प्रकाशित नहीं हुई है। मुझे जानकारी मिली है कि पार्श्वनाथ विद्याश्रम यह कार्य कर रहा है जो संतोष का विषय है जैन विद्या के क्षेत्र में उदीयमान संस्थाओं में जैन विश्वभारती, लाडनं और भोगीलाल लहेरचंद भारतीय
ति विद्या मंदिर, देहली तथा जैनोलोजिकल रिसर्च फाउन्डेशन, मद्रास का नाम सामने आता है। इसी प्रकार दिगम्बर परंपरा में महावीरजी में जैन विद्या संस्थान की स्थापना हुई है। यद्यपि यह नवोदित सभी संस्थान आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हैं किन्तु कार्य करने में सक्षम जैन विद्या के विद्वानों की कमी इनकी प्रगति में अवरोध बनी हुई है।
यद्यपि ज्ञान और अध्ययन की प्रवृत्ति का विकास तेजी से हुआ है किन्तु प्राकृत भाषा के विद्वानों की तो अभी भी जो कमी है वह चिन्त्य है। इसके दो कारण है एक तो लोगों की रुझान ही कम है क्योंकि इस क्षेत्र में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं समझते हैं दूसरे जो परिस्थिति-विवश
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छात्रवृत्ति के प्रलोभन में आते हैं वे भी मन लगाकर श्रम नहीं करते । यद्यपि देश में अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है किन्तु आज भी देश में दो-चार विश्वविद्यालयों को छोड़कर अन्य कहीं भी प्राकृत भाषा के सम्यग् अध्ययन-अध्यापन के कोई विभाग नहीं हैं । उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, देहली, महाराष्ट्र, और आन्ध्र प्रदेश में एक भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं है जहाँ प्राकृत के सम्यग् अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हो। पहले नागपुर
और जबलपुर में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत के स्नातकोत्तर अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था थी किन्तु वह भी नाम शेष हो गई है । वाराणसी जिसे विद्या का केन्द्र कहा जाता है वहाँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ किसी में भी प्राकृत अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था नहीं हैं। यद्यपि संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में प्राकृत और जैन आगम का विभाग है किन्तु वहाँ भी छात्रों का पूर्णतया अभाव है । अतः यह चिन्ता सदैव ही बनी रहती है कि भविष्य में प्राकृतभाषा के अध्ययन, अध्यापन और संशोधन की प्रवृति किस प्रकार जीवित रहेगी। मुझे दुर्भाग्य से यह भी कहना पड़ता है कि मेरे बुजुर्ग और मेरी पीढ़ी के विद्वानों ने भी जो कुछ कार्य विगत वर्षों में किया है उस स्तर के कार्य का भी अब अभाव देखा जाता है। आप सब विद्वानों के समक्ष मेरी यही विनती है कि आप प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन की परंपरा को जीवित बनाये रखें और इस दिशा में सक्रिय रूप से कार्य करें। जो स्थिति प्राकृत की है वही स्थिति अब अपभ्रंश की होती जा रही है उस क्षेत्र में भी विद्वानों का अभाव ही है। आशा है कि विद्वत् वर्ग मेरे मन की पीड़ा को समझेगा और इस दिशा से कार्य करेगा।
आज जैन विद्या के विश्वकोश का अभाव हम सभी को पर्याप्त रूप से खलता है यद्यपि राजेन्द्रसूरिजी ने अभिधानराजेन्द्रकोश के नाम से एक कार्य किया था। यह भी प्रसन्नता का विषय है कि जो राजेन्द्रकोश वर्षों से अनुपलब्ध था वह पुनः मुद्रित होकर उपलब्ध हो गया है, फिर भी उस ग्रन्थ में अनेक कमियाँ हैं। फोटोस्टेट प्रक्रिया से छपने के कारण प्रथम तो उसके टाइप ही ऐसे हैं कि आज के पाठक को पढ़ने में कठिनाई उत्पन्न करता है। दूसरे मात्र प्राकृत भाषा का मर्मज्ञ ही उस कोश को देख सकता है। जब तक संस्कृत एवं प्राकृत का जानकार न हो उसके लिए उस ग्रन्थ का उपयोग करना दुष्कर कार्य है। उस क्षेत्र में दूसरा महत्वपूर्ण कार्य जिनेन्द्र वर्णीजी का जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश है। वह भी कई वर्षों से अनपलब्ध था किन्त भारतीय ज्ञानपीठ इसको पनः प्रकाशित कर रही है यह संतोष का विषय है। यह निश्चित ही हिन्दी पाठक के लिए उपयोगी कृति है। किन्तु जहां अभिधानराजेन्द्रकोश में दिगम्बर ग्रंथों के सन्दर्भो का अभाव है वहाँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में श्वेताम्बर ग्रन्थों के सन्दर्मों का नितान्त अभाव है। पूनः अंग्रेजी भाषा की दृष्टि से यह क्षेत्र अभी तक रिक्त है । अतः जनविद्या विश्वकोश ( इन्साइक्लोपीडिया ऑफ जैनिज्म ) का कार्य तत्काल करने योग्य है। अन्य तत्काल करने योग्य कार्यों में आगमों के अतिरिक्त चूणि, भाष्य, नियुक्ति आदि का हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद के साथ पुनः प्रकाशन भी आवश्यक है। पुनः जैन भण्डारों में अभी तक हजारों ग्रन्थ ऐसे पड़े हुए हैं जिनका न तो मुद्रण ही हुआ है और न विद्वानों को उनकी जानकारी है। प्रयत्न करके ग्रन्थ भण्डारों को सूचियों का और अमुद्रित महत्वपूर्ण ग्रंथों के प्रकाशन की व्यवस्था भी हमें करना चाहिए।
प्राकृत और जैन विद्या के क्षेत्र में करने योग्य कार्यों के सन्दर्भ में श्री जौहरीमल पारख ने एक विस्तृत योजना बनाई है, जो यहाँ विचारार्थ प्रस्तुत की जा रही है। अतः मैं विद्वानों से और
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श्रेष्ठिवर्ग से यही निवेदन करूँगा कि यह एक महत्वपूर्ण योजना है और हमें उसके क्रियान्वयन का प्रयत्न करना चाहिए।
। अन्त में शासन से भी यह निवेदन करना चाहूँगा कि जिस प्रकार वह संस्कृत, अरबी, फारसी और पाली तथा बौद्ध विद्याओं के विकास के लिए करोड़ों रुपया व्यय करके कार्य कर रहा है, उसी प्रकार उसे प्राकृत और जैनविद्या के विकास के लिए निष्पक्ष भाव से काम करना चाहिए । मुझे यह जानकर आश्चर्य होता है कि जब कभी किसी विश्वविद्यालय में प्राकृत और जैनविद्या विभाग की बात कही जाती है तो यह अपेक्षा की जाती है कि उसके लिए धनराशि की व्यवस्था जैन समाज करे, ऐसा सुझाव क्यों है ? क्या जैन इस देश की प्रजा नहीं है, आज देश में जैनविद्या से सम्बन्धित जो दो-चार संस्थान हैं उनमें भी एल० डी० इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी, अहमदाबाद को छोड़कर शासन से किसी को कोई मदद नहीं मिलती है । आखिर ऐसा क्यों होता है ? आज इन संस्थाओं को परस्पर जोड़ने वाला कोई सूत्र भी नहीं है। यदि एक जैन विश्वविद्यालय की योजना बनाकर इन सभी संस्थाओं को जोड़ा जा सके तो प्राकृत और जैनविद्या के विकास के अवसर अधिक सुगम हो सकेंगे। अन्त में मैं पुनः आप सभी लोगों के प्रति आभार प्रकट करते हुए यही कामना करता हूँ कि आपने जिस प्राकृत एवं जैनविद्या परिषद् का गठन किया है और जिसका प्रथम अधिवेशन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के प्रांगण में आयोजित हो रहा है, वह दीर्घजीवी हो ।
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1st ALL INDIA CONFERENCE OF PRAKRIT AND JAINA STUDIES
PRESIDENTIAL ADDRESS Section : JAIN SANGHA AND SOCIETY
Dr. VILAS ADINATH SANGAVE
Fellow Scholars in Jainology, Ladies and Gentlemen,
It is a matter of great pleasure for me to note that in the long cultural history of India spread over several centuries, the scholars in Jainology are meeting together on the historic and significant occasion of this First Conference of All India Association of Prakrit and Jaina Studies. It is also a very happy augury that this First All India Conference of Prakrit and Jaina Studies is being held under the benevolent auspices and encouraging leadership of the senior and world reputed seat of Jaina learning, viz. the Parshvanath Vidyashrama Research Institute in Varanasi, the most holy place of all ancient religions in India. In addition it is also a very happy event of far-reaching significance in the sense that this first All India Conference of Prakrit and Jaina Studies has been synchronised with the observance of the Golden Jubilee Celebrations of the Parshvanath Vidyashrama Research Institute. We can, therefore, legitimately cherish the hope that both the All India Association of Prakrit and Jaina Studies and the Parshvanath Vidyashrama Research Institute would march together in future and would thus succeed in further raising the prestige of studies in Prakrit languages and in Jaina Culture and Society. Separate Section on Jaina Society' :
It is really very heartening to find that in this First All India Conference of Prakrit and Jaina Studies, a separate section on "Jaina Sangha and Society" has been constituted. This is indeed a step in the right direction as roughly from 1945 onwards and especially from the publication in 1959 of the Sociological research treatise entitled 'Jaina Community : A Social Survey', there has been a growing tendency to devote more and more attention towards undertaking the research studies in
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different aspects of the Jainas as a Community. Obviously such research studies on Jainas are becoming popular with scholars both in Western and Eastern countries along with scholars in India. Moreover, it is gratifying to observe that these research studies are being planned and executed not only by the Jainologists but also by specialists in several social sciences like Sociology, Social Anthropology, Social History, Social Psychology and Social Demography. In addition, in recent years experts in different disciplines like Social Philosophy, Social Ethics, Social Environment and especially Comparative Religion have started to take keen interest in the scientific study of social conditions among the Jainas from their particular specific points of view. Furthermore, during the last few decades there has been a great stress laid on the scientific studies of Mino. rities of racial, religious, linguistic and other kinds spread in different parts of the world and this has attracted largely the attention of the scientists and the administrators towards the study of Jainas as a typical and significant religious minority in India, In view of this spirit in the social studies of Jainas carried out in the recent years by scholars in several disciplines in different parts of the world, it is quite appropriate that a separate section in 'Jaina Sangha and Society" has been formed in this "first All India Conference of Prakrit and Jaina Studies" so that scholars in this field can conveniently come together and exchange their views and findings and can thus give further encouragement to undertake similar studies on a large scale in the near future Emergence of the Studies on Jaina Society' :
The studies on Jaina Society as a part of Jainological Studies have no doubt emerged during the last forty years but they have, in fact, been in line with the development of studies generally termed as Oriental Studies. This term "Oriental Studies" was applied from the middle of the nineteenth century by the Western Scholars from England, France, Ger. many and other countries of the West to the studies of different aspects of culture of Eastern Countries from the Turkey and Egypt at one end to India and China at the other end. But soon it was realised that the field of Oriental Studies was extremely wide and hence Oriental Scholars started to delimit their studies to one particular country in the East like Turkey, Egypt, India or China. Naturally from such concentration of studies of particular countries, there developed branches of Oriental
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Studies known as Turkology, Egyptology, Indology or Sinology respectively. Later as the Indological studies pertaining to the different aspects of culture in India developed, it was keenly felt that the scope of Indological studies was also very vast and that there was a distinct and rich field of studies in Jaina Culture as a part of Indian Culture. Obviously in course of time the studies in Jainism developed to a great extent and from this emerged Jainology as a separate branch of Indology.
Naturally in the initial stages the Jainological Studies all over the world were mainly concerned with the studies in 'Jaina Religion and Philosophy' as they formed the very basis of Jaina Culture. As a result it was earlier thought that the Jainology was the study of Jaina Religion and Culture. But soon the studies in Jaina Literature' in different languages got prominence as it had enshrined and preserved the knowledge about the tenets, doctrines and practices relating to Jaina Religion and Philosophy'. In this way studies in Jaina Languages and Literature' constituted another branch of Jainology along with that of studies in Jaina Religion and Philosophy'. Later with the development of studies in various forms of Jaina Literature it was realised, that the studies in Jaina Culture would be complete only with the studies of several forms of Jaina Arts and Architecture as they had contributed to a great extent in enriching and developing the different aspects of Indian CulAs a result the studies in 'Jaina Arts and Architecture' soon assumed the status of a distinctive branch of Jainology.
ture.
In this way when studies in 'Jaina Religion and Philosophy', 'Jaina Language and Literature' and Jaina Arts and Architecture' were progressing as branches of Jainology, it was keenly felt by scholars in Jainology that the studies of Jaina People' and 'Jaina Community' from Sociological point of view should be undertaken in a scientific way as the Jaina Community had been mainly responsible not only for the preservation but also for the development of Jaina Culture and Indian Culture through all these centuries in an uninterrupted manner and inspite of the fact that the Jainas constituted a small minority in India. As a step in this direction pioneering work was done by Prof. Vilas Sangave by submitting in 1950 his thesis entitled 'Jaina Community: A Social Survey' to the University of Bombay for the Ph. D. in Sociology. Later on with
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the publication of this thesis in 1959 scholars in social sciences from India and countries of the West were attracted to the study of Jaina Community from different points of view. In fact there were two major considerations in selecting Jaina Community as a separate subject of study by social scientists. In the first place, the Jaina Community was the only community in the world which actually practised non-violence in all its aspects and in all its activities. As such, the Jainas were the only persons who represented the non-violent way of life in this world of violence and destruction. Secondly, the Jaina Community had preserved its separate identity and culture through all these centuries inspite of the fact that the small minority community of Jainas had to live amidst the other major communities of India.
In view of these pressing and important academic considerations social scientists and especially Social Anthropologists, Sociologists and Social Historians from different parts of the world began to devote their serious attention to the study of Jaina Community from their particular points of view. These studies got impetus in 1974 due to the world wide observance of 2500th Nirvan Mahotsava of Lord Mahavira and then in 1980 due to the publication of the second edition of Dr. Vilas Sangave's pioneering book in the field viz. Jaina Community: A Social Survey'. As a consequence, these studies in 'Jaina Community, assumed the form of interdisciplinary studies-with actual fieldwork attached to it in some cases-and were carried out with devotion by the Universities and Advanced Research Institutes not only in India but also in Western Countries like U.S.A., England, France and Germany.
In this connection it is very heartening to find that the old, prestigeous and very well-equipped and developed Department of Social Anthropology of the ancient and world-reputed University of Cambridge in England took the lead in the matter, carried out extensive field-works for studying different aspects of social conditions actually prevailing in the Jaina Community at present in different parts of India and England, and even organised in June 1985 at Cambridge the "First International Seminar on Jainas as a Community". This International Seminar of an interdisciplinary character was the first attempt to bring together for discussion the leading social scientists and orientalists like Dr. Mrs.
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Carolene Humphrey (Department of Social Anthropology, University of Cambridge, L. K.), Dr. Michael Carrithers (Department of Anthropology, University of Durham, U. K.), Professor Padmnabh Jaini (Department of South and Southeast Asian Studies, University of California, U.S. A.), Professor R. F. Gombrich (Oriental Institute, University of Oxford, U. K.), Professor F. Hardy (Department of History and Philosophy of Religion, University of London), Dr. S. Collins (Department of Religious Studies, University of Bristol, U. K.), Dr. C. Cottam (Agricultural Extension and Rural Development Centre, University of Reading, U. K.), Dr. P. Dundas (Department of Sanskrit, University of Edinburgh, U.K ), Dr. N.K. Singhi (Department of Sociology, University of Jaipur, India) and Professor Vilas Sangave (Shahu Research Institute, Shivaji University, Kolhapur, India) and many other scholars from different parts of the world. In this fruitful seminar a number of useful research papers were discussed and I am happy to say that a large volume based on these papers and discussions will soon be published by the University of Cambridge. Thus it is very gratifying to note that the subject of Studies in Jaina Community' has now got an international recognition. Significance of Jaina Community' :
Among the Muslim, Christian, Buddhist, Sikh and other religious minority communities of India, the Jaina Community occupies an important place from different points of view. The Jainas have the smallest population among the six major religious cominunities listed by the Government of India in their Census Report of 1971. In the total population of India, viz. 54,79,49,809, the Jaina population is only 26, 04, 646. Thus the percentage of the Jaina population to the total population of India is only 0.47. It means that per 10,000 persons in India, 8,272 are Hindus, 1,121 are Muslims, 260 are Christians, 189 are Sikhs, 70 are Buddhists and only 47 are Jainas.
Again, this meagre Jaina population is spread all over India. The Jainas are settled practically in all parts of India and are not concentrated, like Sikhs, in a particular geographical region. The Jainas also, like Sikhs, do not have a special dress or a specific language of their own. The Jainas are thus truly Indian in character and enjoy considerable prestige in India even though they are few in number.
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It is also noteworthy that the Jaina Community is more urban than rural. According to 1971 Census, urban Jainas constitute 59.83 percent of the total Jaina population, whereas rural Jain as account for 40.17 percent of all Jainas. Hence the Jainas are largely urbanised but not very highly urbanised like the Parsis and Jews in India.
Further, the Jaina Community is one of the very ancient communities of India. The existence of Jaina religion can be traced to the very beginning of Indian history. This hoary antiquity is a special feature of the Jaina Community and it is pertinent to note that this feature is not present in other religious minority communities in India.
Moreover, unlike other religious minority communities in India, the Jaina Community is Indian in every sense of the term. The Jainas are the indigenous inhabitants of this country and their mythological and historical personages, their languages, and their sacred places pertain to this country. The Jainas have no religious connections or affiliations with people outside India.
Furthermore, the Jainas, though small in number, constitute a separate entity and have succeeded In maintaining their distinctive features. Jainism being an independent religion, its followers have got their own and vast sacred literature, distinct philosophy and outlook on life, and special ethical rules of conduct based on the fundamental principle of Ahimsa. The entire activities of the Jainas are moulded by the considerations of Ahimsa. This utmost importance given to the observance of Ahimsa in the life of every individual is not found in other communities of India eventhough they may attach some value to the principle of Ahimsa.
Apart from antiquity, the Jaina Community has got the characteristic of unbroken continuity. Few communities in the world can claim such a long and continued existence. It is really a matter of wonder to find how the Jainas could maintain their perpetuity when the followers of many other religions and sects, which were prevalent in the past, are not found at present in India. Thus the survival of Jainas, as a separate entity, from the hoary antiquity to the present day can be considered as their distinctive feature.
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Survival of Jaina Community' :
In fact the most creditable achievement of Jainas is their survival from ancient times up to the present day. The Jainas and the Buddhists were the main representatives of Sramana culture in India and it is pertinent to note that while Buddhism disappeared from the land of its birth, though it survives in other parts of the world, Jainism is still a living faith in India though it never spread outside India with the exception perhaps of Ceylon. There are many reasons responsible for the continuous survival of Tainas in India.
Perhaps the most important reason which contributed to the continued existence of the Taina community to the present day is the excellent organisation of the community. The significant part of the Jaina organisation is the fact that the laity has been made an integral part of the community. The community has been traditionally divided into four groups, viz., Sadhus or male ascetics, Sadhuis or female ascetics, Srāvakas or male laity and Srāvikās or female laity, and these groups have been bound together by very close relations. The same Vratas or religious vows are prescribed for ascetics and laity with the only difference that the ascetics have to observe them more scrupulously while the laity is allowed to follow them in a less severe manner. The laity is made completely responsible for the livelihood of the ascetics and to that extent the latter are dependent on the former. From the beginning ascetics have controlled the religious life of the lay disciples and the lay disciples have kept a strict control over the character of the ascetics. That is why the ascetics are required to keep themselves entirely aloof from worldly matters and to rigorously maintain their high standard of ascetic life. If they fall short of their requirements they are likely to be removed from their positions. In this connection, H. Jacobi rightly remarks as follows. "It is evident that the lay part of the community were not regarded as outsiders, or only as friends and patrons of the Order, as seems to have been the case in early Buddhism; their position was, from the beginning, well defined by religious duties and privileges; the bond which united them to the Order of monks was an effective one.... It cannot be doubted that this close union between laymen and monks brought about by the similarity of their religious duties, differing not in kind, but in degree, had enabled Jainism to avoid fundamental changes
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Jain Education Inteinational
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within, and to resist dangers from without for more than two thousand years, while Buddhism, being less exacting as regards the laymen, underwent the most extraordinary evolutions and finally disappeared in the country of its origin
Another important reason for the survival of the Jaina community is its inflexible conservatism in holding fast to its original institutions and doctrines for the last so many centuries. The most important doctrines of the Jaina religion have remained practically unlatered up to this day and, although a number of the less vital rules concerning the life and practices of monks and laymen may have fallen into disuse or oblivion, there is no reason to doubt that the religious life of the Jaina community is now substantially the same as it was two thousand years ago. This strict adherence to religious prescriptions will also be evident from Jaina architecture and especially from Jaina sculpture, for the style of Jaina images has remained the same to such an extent that the Jaina images differing in age by a thousand years are almost indistinguishable in style. Thus an absolute refusal to admit changes has been considered as the strongest safeguard of the Jainas.
The royal patronage which Jainism had received during the ancient and medieval periods in different parts of the country has undoubtedly helped the struggle of the Jaina community for its survival. The Karnataka and Gujarat continued to remain as strongholds of Jainas from the ancient times because many rulers, ministers and generals of renowned merit from Karnataka and Gujaratha were of Jaina religion. Apart from Jaina rulers many non-Jaina rulers also showed sympathetic attitude towards the Jaina religion. From the edicts of Rajputana it will be seen that in compliance with the doctrines of Jainism orders were issued in some towns to stop the slaying of animals throughout the year and to suspend the revolutions of oil-mill and potter's wheel during the four months of the rainy season every year. Several inscriptions from the South reveal the keen interest taken by non-Jaina rulers in facilitating the Jainas to observe their religion. Among these the most outstanding is the stone inscription dated 1368 A. D. of the Vijayanagara monarch Bukka Raya I. When the Jainas of all districts appealed in a body for protection against their persecution by the Vaishnavas, the king after
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summoning the leaders of both sects before him declared that no difference could be made between them and ordained that they should each pursue their own religious practices with equal freedom.
The varied activities of a large number of eminent Jaina saints contributed to the continuation of Jaina community for a long period because these activities produced a deep impression upon the general public regarding the sterling qualities of Jaina saints. They were mainly responsible for the spread of Jainism all over India. The chronicles of Ceylon attest that Jainism also spread in Ceylon. As regards the South India it can be maintained that the whole of it in ancient times was strewn with small groups of learned Jaina ascetics who were slowly but surely spreading their morals through the inedium of their sacred literature composed in the various vernaculars of the country. These literary and missionary activities of the Jaina saints ultimately helped the Jainas in South India to strengthen their position for a long time in the face of Hindu revival. Even in political matters the Jaina saints were taking keen interest and guiding the people whenever required. It has been evident that the Gangas and the Hoyasalas were inspired to establish new kingdoms by the Jaina Ācāryas. Along with the carrying of these scholastic, missionary and political activities, the Jaina Ācāryas tried to excel in their personal accomplishments also. Naturally princes and people alike had a great regard for the Jaina saints in different parts of the country. Even the muslim rulers of Delhi honoured and showed reverence to the learned Jaina saints of North and South India. It is no wonder that the character and activities of such influential Jaina saints created an atmosphere which helped to lengthen the life of Jaina community.
A minority community for its continued existence has always to depend on the goodwill of the other people and that goodwill could be persistently secured by performing some benevolent activities. The Tainas did follow and are still following this path of attaining the goodwill of all people by various means like educating the ating the pain and misery of people by conducting several types of charitable institutions. From the beginning the Jainas made it one of their cardinal principles to give the four gifts of food, protection, medicine and learning to the needy (ähāra abhaya-bhaişajya-śāstra-däna)-irrespective
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of caste and creed. According to some, this was by far the most potent factor in the propagation of the Jaina religion. For this they established alm-houses, rest-houses, dispensaries and schools wherever they were concentrated in good numbers. It must be noted to the credit of the Jain that they took a leading part in the education of the masses. Various relics show that formerly Jaina ascetics took a great share in teaching children in the Southern countries, viz. Andhra, Tamil, Karanataka and Maharashtra. In this connection Dr. Altekar rightly observes that before the beginning the alphabet proper the children should be required to pay homage to Ganesa, by reciting the fomula "Sri Ganesāya Namah" is natural in Hindu society, but that in the Deccan even today it should be followed by the Jaina formula "Om Namah Siddham” shows that the Jaina teachers of medieval age had so completely controlled the mass education that the Hindus continued to teach their children this or ginally Jaina formula even after the decline of Jainism. Even now the Jainas have rigorously maintained the tradition by giving freely these four types of gifts in all parts of India. In fact the Jainas never lag behind in liberally contributing to any national or philanthropic cause.
Another important factor which helped the continuation of the Jaina community is the cordial and intimate relations maintained by the Jainas with the Hindus. Formerly it was thought that Jainism was a branch either of Buddhism or of Hinduism. But now it is ger accepted that Jainism is a distinct religion and that it is as old as, if not older than, the Vedic religion of the Hindus. As Jainism, Hinduism and Buddhism, the three important ancient religions of India, are living side by side for the last so many centuries, it is natural that they have influenced one another in many respects. In matters like theories of rebirth and salvation, descriptions of heaven, earth and hell, and belief in the fact that the prophets of religion take birth according to prescribed rule, we find similarities in the three religions. Since the disappearance of Buddhism from India the Jainas and Hindus came more close to each other and that is why in social and religious life the Jainas on the whole do not appear to be much different from the Hindus. From this it should not be considered that the Jainas are a part of the Hindus or Jainism is a branch of Hinduism. In fact if we compare Jainism and Hinduism, we find that the differences between them are very great and
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their agreement is in respect of a few particulars only concerning the ordinary mode of living. Even the ceremonies which appear to be similar are in reality different in respect of their purport if carefully studied.
It is evident that there are several items of social and religious practices on which there are basic differences between the Jainas and the Hindus. It is pertinent to note that these differences are persisting even up to the present day. At the same time it will have to be admitted that there had been an infiltration of non-Jaina elements into Jaina social and religious usages. It is not that the Jainas blindly accepted these nonJaina elements. Perhaps the Jainas had to allow the infiltration of nonJaina element as an adjustment to changed circumstances. Jainas, as a policy for survival, willingly accepted the infiltration of nonJaina element in Jaina practices. But in doing so they made every attempt to maintain the purity of religious practices as far as possible. The Jaina Ācāryas, mainly with a view to maintain the continuity of Jaina community in troubled times, did not oppose but on the contrary gave tacit sanction to the observance of local customs and manners by the Jainas. In this connection Somadeva, the most learned Jaina Ācārya of medieval age in the South, observes in his YaśastilakaCampū that
द्वौ हि धर्मी गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः ।
यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥ the religion of Jaina householders is of two varieties, Laukika i.e. this worldly, and Paralaukika, i. e. the other-worldly; the former is based upon popular usage and the latter on the scriptures. Further, it is legitimate for the Jainas to follow any custom or practice sanctioned by popular usage so long as it does not come into conflict with the fundamental principles of the Jaina faith or the moral and disciplinary vows enjoined by the religion. It thus means that by showing the leniency to the Jainas in observing the well established local practices, provided they do not harm the highest principles of Jainism. a conscious e made by the Jainas to adjust to the adverse circumstances. This wise adjustment ultimately created cordial and intimate relations with Hindus and it appears that due to this policy the Jainas were saved from
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complete extinction at the hands of persecutionists and they could keep their existence for the last so many centuries. In fact the Jainas had made determined efforts to maintain good relations not only with the Hindus but with the members of other communities also. Even though the Jainas were in power for a long time they hardly indulged in the persecution of non-Jainas, whereas we find innumerable instances where Jainas were severely persecuted by non-Jainas. Major Aspects of Study :
This undertaken continuity of the Jaina Community from the hoary antiquity to the present day is a very significant aspect of the social history of Jainas in India. It is, therefore, quite pertinent to find out not only the major factors which helped the survival of the Jainas to-day but also the significant factors which will undoubtedly contribute to the continuation of the Jaina community in future. In this connection the nature and extent of prevailing social relations of Jainas with the Hindus in different parts of India will have to be investigated and the future policy of relationship will have to be formulated. Further, the several aspects of social life of the Jainas in particular regions, like the Southern Rajasthan, Western Madhya Pradesh, Northern Gujarat, Southern Maharashtra, and Northern Karnatak, where their proportion to total population of the region is comparatively more than in other parts of India, will have to be vividly brought out so that a comprehensive account of the Taina way of life and of their social institutions can be available for the first time. Moreover, a similar account of Jaina centrated in cities like Bombay, Ahmedabad, Delhi, Jaipur, Indore, Calcutta, Bangalore etc. will have to be presented in a scientific way. Furthermore, the distinctive role played by the prominent families in influencing and enriching the Jaina way of life over a long period can be analysed and studied. On the same lines the role played by the leading Jaina personalities and families in shaping the ecomomic, political and cultural life of the region can be assessed and evaluated. In addition the specialised institutions in the fields of education, health, social welfare etc. started and conducted by the Jainas in the interests of general public can be studied and their contributions to general welfare of the people can be determined. I thank you for giving me a patient hearing.
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Presidential Address
Section : JAINA PURĀŅAS AND NARRATIVE LITERATURE
DR. B. K. KHADABADI
Learned Friends,
Let me, at the outset, express my sincere gratitude to the Executive Body of the All India Association of Prakrit and Jaina Studies, for their confidence extended to me for presiding over the deliberations of the Jaina Purānas and Narrative Literature Section of its first and historic Session held here under aegis of the P. V. Research Institute.
We are rather proud to assemble here on the premises of this P. V. Research Institute, which is the oldest to serve the cause of higher studies and research in the realms of Prakrit and Jainology and which, coincidentally, also happens to celebrate now its Golden Jubilee. Besides, we are equally proud to be in this historic city, which has been for centuries a unique centre of learning and pilgrimage, and the soil and surrounds of which have been rendered sacred and spiritually cultured by the movements and teachings of several great Indian saints and seers, including the revered Tirthankaras like Pārsvanātha and Mahāvīra, With this inspiring background and with your enthusiastic gathering for the maiden Session of this Conference, I feel assured of your full cooperation in discharging the duties of this office entrusted to me. .
It is the usual practice of the Sectional President to present in his address a bibliographic survey of publications coming out during a particular period and also make an appraisal of researches carried out in the concerned field. But I think, such survey is not desirable, for you all, as scholars interested in this field, are expected to know about such publications. Nor is it justifiably practicable to enter, at this hour, into such appraisal. Moreover it is the maiden session of this newly emerged Conference. Hence I propose to limit myself to setting critically a few desiderative tasks and prospects for consideration, choice and undertaking, and also to stressing over a word or two for the equipment
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and encouragement of freshers and youngsters moving into this fascinating field viz., the field of the Jaina Purāṇas and Narrative Literature. Such limiting brings me on the following points :
(i) A Descriptive Master Catalogue of Jaina Purāņas. (ii) Historical core of the Adipurāņa or Adīśvaracarita. (iii) Jaina Narratives preserved in the Cūrņis. (iv) Some tips on higher studies and research in Prakrit and
Jainology.
The Jaina Purāņas actually form a branch of the vast Jaina Narrative Literature. But by virtue of their antique nature, magnitude, certain characteristic and objectives, they have assumed for themselves a class of their own viz., the Purāņas or Caritas. This class is also significantly designated as the Prathamānuyoga. These Purāṇas can be divided into two categories: (i) The Mahāpurāna or Trişaşțiśalākāpuruşa-carita (Biographies of Sixty-three Great Personages) and (ii) The (Laghu) Purāņa or Carita (Biography of one Great Personage). Unlike the Hindū Purāņas, the Jaina Purāņas have not been fixed into definite numbers (such as 18 and 8); nor are they tied to one language (such as Sanskrit). They, depending on the needs of time and place, have been composed in various Indian languages, ancient, medieval and modern, such as Prakrit, Sanskrit, Apabhraíśa and some of the regional languages, thus all these Purāņas amounting to a considerably large number spreading over a vast period ranging from a. 400 A. D. to 1700 A. D. With their peculiar cosmographical and mythological settings, the Jaina Purāņas are mostly encvclopaedic in nature and mainly aim at illustrating the life-history of great religious personages for the benefit of the liberable souls at large.
The origin and the progressive growth, for a pretty long time, of these Purāņas, of course, marks a note-worthy rich tradition of numerous Jaina teachers and scholars sincerely dedicated to composing them. But so far we have no solid means of having a panoramic view of all these Puranas, so that our studies and researches in this field would lead to wider perspectives and fresh findings. Hence, I feel the need of a
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Descriptive Master Catalogue of the Jaina Purāņas, composed in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsa, Hindi, Kannada and also possibly, in old Gujarati, Rajasthani, Tamil and Telugu. To substantiate such need, let me now put forth a succinct critical account of the Jaina Purāņas composed in Kannada The Jaina Purānas have been composed in Kannada from 941 A. D. to C. 1700 A. D. There is one Mahāpurāņa, composed in 978 A. D., by the great Cámundarāya and entitled Trişaștilakşaņa-mahāpurāņa, which is popularly known as the Cāvundarāya Purāņa. And there are more than thirty extant (Laghu-) Purāņas or Caritas (about twenty on the Tīrthankaras, and twelve on the other Salākāpuruşas) composed between 941 A. D. to C. 1700 A. D. All are by the Digambara authors. It is interesting to note that poet Nāgacandra (C. 1100 A. D.) has entitled his work (of the second category) as Rāmacandra-carita-purāņa. The earliest available Kannada classic, poetry of a very high order, is the Adipurāņa (941A.D.)
the great Pampa, who is known in the scholastic world as Adikavi and also as Puránakavi. The earliest-but-one Kannada prose work is the already referred Trişaşti-lakşaņa-mahāpurāņa (978 A.D.) by Camundarāya. The reputed Papa, Poona and Ranna, known as the Ratnatraya of Kannada Literature, have composed respectively the Adipurāņa (941 A. D.) the Sāntipurāņa (950 A.D.) and the Ajitapurāņa (993 A. D.). These and several other Puranas (composed on the various Tirtharkaras and other Salākāpurusas) are evaluated as excellent religious and literary works in Kannada. Cāmundarāya in the Introductory Part of his work states that there had been a great tradition of eminent teachers composing the Mahāpurāņas, such as Kūci-bhattāraka, Srīnandimunīśvara, Kavi-Parameśvara, Ācārya Jinasena and Guņabhadra; and that he has mainly based his work on those of Acārya Jinasena and Guņabhadra. The voluminous Mahāpurāņa (Adipurāņa and Uttarapurāna) of these two celebrated saints and teachers. composed Sanskrit, is well known. Parameśvara's (or Parameşthi's) Mahapurāna, from which Cāmundarāya quotes a few Sanskrit verses, has not come down to us. We can say that it was in Sanskrit; and according to Dr. A. N. Upadhye, (Literary Predecessors of Cāmundarāya, Journal of Karnataka University (Hum.), Vol. VI, 1960), it could be in the Campū form. About Kūci-bhattāraka and Srīnandimuni, the earliest in this line
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of the Purāņakaras, and also about their Mahāpurāņas, we are in comp. lete darkness-even in respect of their being referred to by any others elsewhere. Could it be that their Mahāpurăņas, or at least one of the two, were/was composed in Prakrit ? Almost all early Jaina works are found to have been composed in Prakrit. The earliest available Paumacariyam (a Laghu-Purāņa) of Vimalasūri is in Prakrit. So far no Mahapurāņa in Prakrit has come to light. Cámundarāya too does not specify the language in respect of any of the Mahāpuräņas of his predecessors. In his work, he has quoted a few Prakrit verses, some being not traceable to their proper sources. Several Prakrit words and phrases are found scattered in the course of its text. Hence it is possible that he might have passed his curious eye over one or two Prakrit Mahāpurāņas; and they/it could be none else than these/this composed by the great Kūcibhațţăraka and/or Śrīnandi-munīśvara.
I hope, such interesting findings arising from such brief ciritical account of the Jaina Puranas in Kannada might have now brought you home the importance of wider studies in this field. And the proposed Descriptive Master Catalogue would, no doubt, serve as the gate-way to such and other wider, perspective and fruitful studies. Hence it is highly desirable that there should first come out individual Descriptive Catalogues of the Jaina Puranas in different possible languages, which all would then naturally lead to the constitution of the Master Catalogue,
( II ) Coming to the second point, amongst the biographies of the Salākāpuruşas (Great Personages) of the Jaina Mahāpurāṇas, particularly amongst those of the Tirthaakaras (Ford-makers), Rşabhadeva has been given outstanding prominence with far greater details of his life-history and with longer space alloted for the same. Moreover the Jaina tradition preserved here, and also elsewhere, is unanimous and infact on Rşabhadevas being the first to preach the Ahimsādharma and higher values of life, to bring a good order in the society and to lay an deal path to perfection--the sum-total of which all, later, came to be known as Jina-dharma.
In very old days we had, of course, no chroniclers or historians. The old and important factual events were preserved first in oral tradi.
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tions and, then later, in the written ones. The Jaina Purāņas originated in such a process and then progressively grew with objectives of generating religious awakening and enlightenment and of guiding spiritual welfare for the followers of the creed. To heighten effect and create awe and reverence etc. myths and cosmographic settings etc., were also texturised as the inseparable and even rather bulky parts of these Purāņas.
Now, for practical purposes, in respect of the Adipurāņa or Adiśvaracarita, if we leave aside, for the time being, the descriptive details about his hoary antiquity, previous births, the mother's dreams, the Pañcakalyāṇas, the enormous physical height, the fabulous life-span etc., given at the imposing cosmographic background, as mythology, but accepting at the same time, their religio-spiritual significance meant by the Jaina Seers and authors for the laity at large, the traditional matter preserved in this Purāņa/Carita could no doubt be the historical core of his biography.
But, as modern times would expect, such core has to be adequately corroborated by archaeological, inscriptional, non-Jaina Literary evidences etc. But unfortunately serious, continued and co-ordinated efforts have not been put by us towards this direction. The interpretation of some of the Indus Valley Seals and Images has to be re-attempted thoroughly, taking note of the clues from the later conflicting views on thern held by some of the Vedic and other scholars. Let me remind that Prof, S. A. Dange has recently tried (Presidential Address, Vedic Section, A.I.O.C., Shantiniketan, 1982) to critically analyse some such details given by some scholars, and to sound a note of appeal to the Vedic scholars themselves in general, not to take them (these details) lightly. One would find that such and other details of such studies have almost reached a stage now, when the same figure on the same seal look like Siva, Rşabha and Brahmā too! Then, the relationship of the view of Pre-Vedic and Non-Aryan Origin of Jainism, (as connected Rşabhadeva of the Indus Valley culture days) with the postulation of the ancient Sramanic culture/religion of North-East India (Introduction to the Pravacanasāra, R. J. S. Vol. IX, Bombay 1935), is yet to be established. Moreover we do not have, so far, a single compact and handy monograph, wherein whatever episodes of the life of Rşabhadeva depicted in Sthânānga, details of Vedic references made to him in various contexts, the Hindu Purāņic details, the
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reference in the Vajrayana (Tantric) Buddhist Arya-mañjuśrī-mülakalpa etc. are duly discussed, compared and coordinated, and the result so obtained is stated in clear terms. Hence, holding fast to this part of the ground already covered, such and other requisite efforts have to be carried through for a cumulative and uncontroversial outcome, honouring, all along, the overall experience that authentic Jaina tradition more often than not has proved to be history to a large extent; and then, surely, Rşabhadeva would be accepted as a historical person on all hands.
III
Now coming to the third point, India with its warm and salubrious climatic conditions and congenial social and family atmosphere, is for long known as the home of numerous interesting tales, parables, fables etc. When Mahavira, and also the Buddha, picked up Prakrit, the natural language of the people, for preaching and teaching religious principles and ethical values to them, and that also through simple tales, illustrations, exemplification etc., it marked an important event in the social and cultural history of India. Such narratives, avowedly meant for the common people, naturally reflected glimpses of their day-to-day life. Following the great Seer, the Jaina saints and teachers later harnessed this instructional art fruitfully and turned out to be adept storytellers in course of time. The oral tradition of this art, nurtured and maintained in their sermons, was as a matter of course, further continued in the written one too. They thus cultivated and utilised for centuries various types of narratives to instruct and educate the laity and the masses round about them in an interesting and entertaining manner. a result there emerged a magnificient flow of Prakrit Narrative Literature, which gradually grew to a vast extent, covering a long period between c. 400 A. D. to 1700 A. D., and assuming various forms, types and trends such as Purāṇas/Caritas, religious novels and romances, historical and semi-historical tales, Kathākośas, satires, legends, myths, didactic tales, parables, fables, folk-tales etc,, wherein the society depicted, on the whole, came to be more popular and realistic than aristocratic and artificial. Hence it embodies a mine of significant social and cultural data, which is indispensable for the thorough reconstruction of the cultural history of India,
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This magnificient stream of Prakrit Narrative Literature, I would stress, has a very resourceful tributary, so very important for its age, size, strength, riches, reliability, variety and utility. This tributary is none else than the most important layer of the Jaina exegesis viz., the corpus of the Cürnis, more exactly its massive narrative part, the veritabl sure of numerous multi-valued narratives of varied types, upon which the medieval and late medieval Jaina teachers liberally drew and compiled numerous Kathākośas.
The Cūrņis, which are composed (during c. 7th Century A. D.) in Prakrit prose, mixed with Sanskrit in different degress ho of juncture in the Jaina exegesis, marking a departure from the archaic Prakrit verse of the Niryuktis and the Bhāşyas on one hand and paving the path for the classical Sanskrit prose of the Țikās on the other. The cardinal aspect of the many-sided value of the Cûrņis is it's. Preserving intact the old Prakrit narratives in their own grand inimitable style, These narratives, which were nurtured and operated, on need, in the oral tradition, as hinged on the lively telegraphic line of the Niryuktis and Bhāşyas, were carefully set down in writing for the first time, with all their riches and niceties, in the Cūrņis. And these narratives, let ine
beat, naturally embody a fund of significant information regarding the cultural wealth of ancient and early medieval India.
But unfortunately this mass of narratives, as a whole, has not been so far subjected to systematized studies so as to bring out it's manifold values--social, cultural, religion-historical, literary, linguistic etc. course it is a gigantic task, for which the Cūrņis themselves have to be duly studied first, not in isolation, but in their triple relationship with the Niryuktis, Bháşyas and Tikâs and also with an eye on the concerned Canonical and some Pre-canonical works and medieval and late medieval Kathakośas, keeping all along in view the ideals and labours of Prof. Leuman; and separate critical editions, such as Avassaya sales, Uttarajjhayaņa Tales, Dasaveyāliya Tales etc., have to be brought out; and, then, the cumulative outcome has to be laid down. All this, I am sure, will yield astounding results. I have experienced, to my joy, such an outcome on a micro-scale by exerting myself in my short study entitled 'Avaśyakacürņi and the Tale of Cilātīputra (published in the Tulasi Prajñā Vol. VI, No. 12, March 1981). I am also aware that such a task
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is not only gigantic but also cumbersome for, in the present state of affairs all the Cūrṇis (as stated by literacy historians) have not come down to us; of the available ones, all are not found in print; the printed ones too are not critical editions--too many hurdles for an individual to remove. But we cannot further ignore this desiderative task. Some institute, or some body of enthusiastic scholars, must come forward, undertake it, plan for it and execute it.
IV
Lastly, a word or two for the equipment and encouragement of freshers and young scholars moving into the province of higher studies and research in Prakrit and Jainology or its district of the Jaina Purāņas and Narrative Literature, which is no doubt rich and varied. But you have to choose your tasks carefully, build your scholarship through sustained hard work and honest industry and achieve them. Hurry and shortcuts in approach in the realm of research would render you dwarf and keep your goals beyond reach. Similarly taking several problems on hand and lingering on without finishing a single one, would bore and disappoint you. One at a time, and that too to be fruitfully completed within a fairly right time, should be the guiding self-disciplinary principle kept before you throughout your career. And lastly may you be tempted by quality rather than quantity in your persuits of higher studies and research, always aiming at a genuine problem-be it a research paper or a doctoral dissertation.
Let me illustrate the lack or sufferings of some of these basic ideals as reflected in my own observations and experiences. On the occasion of the Ujjain Session of the A. I. O. C. (1972), on the last day, we had invited Prof. Alsdorf to our Prakrit and Jainism Section; and in his informal address he passingly remarked that out of about thirty papers presented thereat, only three or four had problems for them in, most of the papers were descriptive and had no true research stuff. This fact was again brought out by Prof. D. D. Malvania on a similar occasion at the Dharwad Session (1976) of the same Conference. ved that more or less the same conditions prevail modestly appeal, to take a serious note of this and existing in whosoever's case, in its bud only. Then,
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And I have obsereven today. So I nip off this trend, if peeping a little at
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the recent zone of Ph. D. Studies, we find that prototypical trends and approaches rather dishearten us though the number of subjects or topics covered is gratifying. If we pass our eyes over the informative list of Ph. D. dissertations (written or being written) in our contextual range of the Jaina Purānas itself (Higher Education and Research in Prakrits and Jainology, Sarikāya Patrikā I, Śramaņavidyā, Vol. I, Varanasi 1983), we find that several studies of the individual (Laghu) Purāņas prototypically rotate over the Tulasī Rāmāyaṇa for comparision. What I mean by bringing out such feature at this context is that in this very range, fresh tracts or aspects could have been certainly explored for worthy harvest. Finally I hope, you will take these words, some of them signifying bitter truth, as coming from the heart of an elder colleague and not from the mouth of a pretending cynic.
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Presidential Address
Section : JAINA ART AND ARCHITECTURE
Prof. UMAKANT P. SHAH
Distinguished Guests, Pandit Dalsukhbhai Malvania, Dr. Sagarmalji; and friends,
The Parshvanatha Vidyashrama Research Institute deserves our congratulations for completing fifty years of valuable service to the cause of Jainism and Prakrit Studies. We offer our best wishes for its bright future. I am thankful to the organisers of this Conference and
Research Institute for asking me to preside over the deliberations of this Section on Jaina Art and Architecture. With your cooperation and good wishes I hope I shall be able to fulfil this difficult task, even though I cannot claim to be a great master of Indian Art and Architectural studies.
Since the beginning of modern Indological studies in the last century, Jainism, especially Jaina Art and Architecture, did not so much attract the world of scholars as did Buddhism and Buddhist Art and Architecture. There were reasons for this in difference. Buddhist monks, from ancient times, could travel beyond the borders of India and spread the message of the Buddha in several countries of Asia. So Buddhist Art is found in several countries of Asia and could soon attract the attention of modern Western Scholars. The Jaina monks were not allowed to cross the oceans by means of boats nor could they use vehicles to go to distant places. Jainism and its art practically remained confined within the borders of India. Also, in the early stage of modern Indological studies by foreign scholars some scholars mistakenly suspected that Jainism was only an offshoot of Buddhism. But the contribution of Jainism to Indian Philosophy, literature, etc. was gradually realised and it is now acknowledged that without a deeper study of Jaina literature (both Sanskrit and Prakrit) and Art, history of Indian Art and Culture cannot be fully reconstructed.
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During and after the Islamic onslaught in India in the mediaeval period, Buddhism practically was wiped out of India but Jainism survived and continues as a living faith even today. Hence Jaina Monuments and works of Art today outnumber the Buddhist ones in India. Yet because of the early neglect, study of Jaina Art and Architecture suffered for long time. It was perhaps Dr. A. K. Coomaraswamy who first succeeded in drawing the attention of scholars to Jaina paintings through his article on Jaina Art published in 1914 in the Journal of Indian Art and Industry. This Study obtained further stimulus from Dr. W. Norman Brown's publications of the miniature paintings of the Story of Kālaka, the Kalpa-sūtra and the Uttarădhyayana sūtra. Sarabhai Nawab published in 1935 the Jaina Citrakalpadruma, Vol. I, in Gujarati, with the active cooperation of Muni Shri Punyavijayaji without whose help he could not have brought to light so many Jaina miniatures on palm-leaf and paper. Muniji also contributed a long research paper on Prācīna Bhāratiya and Taina Lekhanakalā. Since then, Nawab published many more books on Jaina miniature paintings including the masterly study by Dr. Moti Chandraji on Jaina Miniature Paintings from Western India. The Contributions of Moti Chandra, Khandalawala, Pramod Chandra, U. P. Shah, Sarayu Doshi, Goetz, Gorakshakar and others also contributed to further studies of Jaina Paintings.
Coomaraswamy had published his Catalogues of collections in the Boston Museum which included his studies of Jaina sculptures and paintings in the Boston Museum. He published a few interesting Jaina Patas or Paintings on cloth and was followed by Hirananda Shastri who published a few more Patas on cloth and paper and published a book on Jaina Scroll Paintings known as Vijñaptipatras. Nawab, Moti Chandra and U. P. Shah published a few more Pațas. U. P. Shah also discussed the stone Ayāgapatas and could interpret them with the help of literary sources and inscriptions. It was found that the Jaina Ayāgapațas on stone were derived from the Silāpața worshipped in ancient Caityas, Yakşa shrines, etc. and representations of worship of such Silāpatas found amongst Buddhist reliefs at Bharhut corresponded with the Jaina description of a Silāpata obtained in the description of the Pūrņabhadra Gaitya. I have discussed Symbol Worship in Jainism in my book Stu
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dies in Jaina Art and in the recently published Jaina Rūpamaṇḍana but much more work remains to be done in this field.
The publication of three volumes of Jaina Art and Architecture, edited by Dr. Amalananda Ghosh has been of great importance as the work done upto c. 1970 in the field of studies in Jaina Art an Architecture has been ably summarised by various scholars in these three volumes. I refrain from giving here a historical account of modern studies in Jaina Art and Architecture. But I must point out here that much more remains to be done in the study of Jaina monuments all over India. There is still scope of further studies of the Jaina finds from Mathura.
After the earlier initial study of some Jaina monuments by scholars like Fergusson, Burgess, Cousens, Coomaraswamy, Percy Brown, D. R. Bhandarkar, M. H. Krishna and others, Shri M. A. Dhaky has now initiated several deeper studies of architecture of Jaina temples. I understand that his work on Satruñjaya will soon go to press. He has already published valuable studies of different Jaina temples from Western India and I believe his monumental work on this subject is nearing completion. Much of his work on architecture of Jaina temples from all over India will be included in the different volumes of Dictionary of Indian Architecture being prepared and published by the American Institute for Indian Studies, Centre for Art and Architecture, Varanasi. Krishna Dev has contributed a few good articles on architecture of a few Jaina temples but we still await his detailed study of Jaina temples at Khajuraho. We must note here Klaus Bruhn's monumental work on the Jaina images of Deogarh. At least one more volume on Deogarh from the pen of Dr. Bruhn awaits publication. We hope Shri M. A. Dhaky and Dr. Michel Meister will publish deeper studies on the architecture of the Jaina shrines at Deogarh, Khajuraho and other sites in the Madhya Pradesh. S. Settar has published a small good monograph on Sravana Belgola but his bigger thesis on Śravana Belgola is still unpublished.
Except Muni Jayantavijayaji's book on Holy Abu wherein he mainly identified the sculptures in the various shrines at Delvada, Mt. Abu, nobody has published a good detailed study of the architecture and sculpture of the Delvada shrines on Mt. Abu. Harihar Singh has publi shed a book on Jaina shrines of Western India wherein the shrines at
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Abu, Kumbharia, etc. have been referred to but a large number of Jaina shrines from Rajasthan deserve further research and publication. Also we expect special monographs on Jaina shrines from Karnataka, Andhra, Orissa, Tamil Nadu and Maharashtra. Jaina Art and literature from South India should be intensively studied in order to appreciate fully the contribution of Jainism to Indian Art and Culture.
Paintings of the Jaina Caves at Ellora have been practically neglected. Some Jaina charities should be diverted to the publication of good plates in colour of all the paintings in the Jaina caves at Ellora, Sittanvasal, Tirumalai etc.
A work on Jaina Pațas and Pațţikās in the collections of the L. D. Institute, Ahmedabad is under preparation by me but to do full justice to the Jaina contribution in the field of painted wooden book covers of palm leaf Jaina manuscripts, I am awaiting an opportunity to make a first hand study of all the Jaina Pațţikās at Jesalmere. I have been able to locate some Jaina Pațţikās (painted wooden book-covers) to the eleventh century A. D. As I have proved elsewhere Khandalavala's theory that sometime during the Rama päla period a Jaina monk saw a painted Buddhist pätali and thereafter the Jainas started making painted Jaina Pattikäs is wild and without any evidence to prove it. In fact in India many such activities have been undertaken by all the three main religions of India (namely, Brahmanism, Buddhism and Jainism) in the same period and their source is the common cultural heritage of the whole of India. It is almost impossible in such cases to say with confidence who was first in a particular field.
The Jaina contribution in the field of Pațas or big paintings on cloth and paper seems to have been very extensive. There are Tantric Pațas and mere Citrapatas and Patas depicting Jaina conceptions of cosmography. Some of these are beautiful specimens of Art. The Vijaya Tantra, for example, in the Victorial and Albert Museum, dated in Samvat 1501 and the Pañcatirthapata from Champaner, published by N. G. Mehtha and then in colours by Moti Chandra, and dated in Samvat 1433 are important documents in the history of painting before Akbar. I hope more and more Jaina Patas will be collected and preserved by Indian Museums and Bhandaras and will be published.
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There are a number of illustrated Jaina Rāsas and Kathā works which are still unpublished. These are important documents from various points of view and I hope the different universities will encourage research theses on such subjects.
Study of Jaina bronzes is a very attractive field. The contribution of Jainism in this field is very great. I had the good fortune to publish studies of the hoards of Jaina bronzes from Akota, and Vasantagadh and some interesting bronzes from Patan, Cambay, Surat, Chausa, Lingasur, and places in Maharashtra, Tamil Nadu, Andhra, Karnataka etc. At present I am engaged in bringing out a monumental work on Jaina Metal Images on the lines of Sivaramamurti's famous work on South Indian Bronzes. Incidentally I may add that Dr. Debala Mitra has published a hoard of interesting Jaina bronzes from Acyutrajapur in Orissa. Thousands of Jaina bronzes exist and are in worship in Jaina temples all over India and it is impossible in one lifetime to make an exhaustive survey of all of them just as it is impossible for one individual to make an exhaustive survey of all the Jaina stone sculptures from all over India. I have therefore refrained from drawing certain types of conclusions even in my works and articles on Jaina Iconography. However, I am criticised for having omitted to study this and that temple or sculptures or for not drawing certain types of conclusions. I had no energy and means and time to exhaust a study of all Jaina images from all parts of India.
I wish to sound here a note of warning. Several trustees of Jaina temples all over India have not registered the Jaina bronzes in worship in temples under their management. In absence of registration or publication by some scholar it is impossible to establish ownership of a stolen bronze or sculpture or painting. Since the publication of some fine Jaina bronzes during the last 35 years, art lovers and museum curators all over the world are now interested in Jaina bronzes. Dealers in antiquities have realised the value of Jaina paintings and sculptures and bronzes. Thefts of Jaina antiquities from temples and Bhandaras have naturally increased. It is therefore advisable that all Jaina antiquities are registered with the Archaelogical departments in their respective regions.
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Another note of warning has to be given to all my Jaina brethren all over India. In their zeal to spend money and rebuild old Jaina temples and to earn religious merit as well as name and fame, they have been removing, and then destroying or throwing away or burying or even selling old Jaina carvings, wood-work, paintings, and architectural pieces. The monks & acāryas, who inspire these lay devotees to spend do not at all care to preserve these antiquities. Recently I have come to know of a case wherein a late but beautiful painted wooden Jaina Pata has been removed (and given away to somebody) from an old Jaina temple which is fully destroyed and is being rebuilt from foundations. I have also heard of wanton covering of old and important inscriptions and putting over them new inscriptions by modern repairers and many other types of liberties taken with architectural pieces of some very famous old Jaina shrines. I also have come to know that in rebuilding a temple some ceiling paintings depicting a Jaina Katha have been completely destroyed. I also know of some important Jaina palm-leaf miniatures from Jaina Bhandaras now lying in collections outside India, due to the negligence and incompetence of the Trustees. It is high time that the Jaina community realises the gravity of the situation and rather than spending energy and money over erection of new temples the rich Jaina Patrons should first spend over preservation and conservation, and research and publication of their very valuable ancient Jaina heritage.
Before concluding I wish to repeat here that the earliest known Jaina image so far discovered is the polished stone torso from Lohanipur near Patna and that it dates from the Mauryan period, probably from the age of Samprati, the grandson of emperor Aśoka. It was not a surface find and was discovered in excavation at Lohanipur which is an extension of the Mauryan site of Pataliputra at Kumrahar near Patna. The late Dr. K.P. Jayaswal who published it assigned it to the Mauryan period and gave a small sketch of the foundations of the temple and a big courtyard of a shrine from which it was obtained. The bricks were of a size popular in the Mauryan period and Punch-marked coins were obtained from excavations on this site. Foundations of the square structure in the courtyard measured 8 ft. 10 inchs. on each side. This to my mind is for us the remains of the oldest known Jaina temple.
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Scholars like H. Sarkar and some others are inclined to post-date this torso in circa first or second century A. D. following the lead given by Nihar Ranjan Ray regarding Didarganj yakşi and on the ground that such a high polish continued upto first or second century A. D. There is a fallacy in this type of reasoning. We cannot post-date every highly polished antiquity merely on this ground. The famous highly polished Lion-Capital of the Sarnath pillar cannot be post dated on this ground.
Just because N. B. P. ware continued upto c. first century B. C. can we · assign to first century B. C. the N. B. P. ware of different colours found from excavations in the foundations of the Ghositārāma at Kaušāmbi ?
A. Ghosh, the well-known great archaeologist and once the Director-General of Archaeology in India, had accepted the view that the Lohanipur torso belonged to the Mauryan age. He wrote : "Leaving the standing figures on a Mohen-Jo-Daro seal out of consideration, the Lohanipur Tirthařkara images of Mauryan age show that in all proba. bility Jainism had the lead in carving of images for veneration over Buddhism and Brahmanism; no images of Buddha or any Brahmanical deity of that antiquity have been found, though there are conten or near contemporary Yaksa-statues after the stylistic model of which the Lohanipur images are carved".
I need not repeat here all my arguments regarding the origin of Jaina image and Jivantasvāmi image which I have discussed in my recent book on Jaina iconography entitled Jaina Rūpamaņdana but I wish to repeat here that the Vasudevahindi refers to Ratha-yătră of Jivantasvāmi image at Ujjain and the Bșhat-Kalpa-Niryukti and Bhäşya referring to this Ratha-yātrā and that during this Ratha-yātrā Samprati first met Arya Suhasti who later converted the king to the Jaina Faith. Samprati became a great supporter of Jainism and fecilitated the Vihāra of Jaina monks to Andhra. Dravida, Kudukka (Cudappa or Coorg ?). Jaina traditions say that Samprati installed many Jaina images and erected Viharas. (see, Mahāvīra pattaparampară of Devavimalagani, verses 37 ff.) It is for this reason that the Lohanipur torso is assigned to the age of Samprati and not earlier.
The tradition recorded in the above mentioned Bțhat-Kalpa-Bhāşya gathā 3289 and its commentary (vide, Bșhat-Kalpa-Sūtra, edited by
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Muni Punyavijaya, vol. III. p. 921) has recently been found to be correct. Dr. T. V. G. Shastri, as Director of the Birla Archaeological and Cultural Research Institute, carried out excavations at Vaddamanu (Vardhamāna) only 9 km away from the famous Buddhist site of Amravati in Andhra Pradesh. The site excavated was located on the top of a hill about 300 ft above the level of the village Vaddamanu close by. The excavations were carried out during the seasons between 1981 and 1985. Dr. T. V. G. Shastri informs me that "the excavations had revealed four structural phases. Of these the first two could be attributed to the faith different from the third. The third was typically Buddhist with stereotyped Vihāras built after dismantling the earlier structures.... Structural and other evidences had indicated differences between those of the Buddhist period and earlier two periods".
Of these two earlier periods Shastri has excavated what he calls Boulder stūpa and Summit stūpa. Only the foundations etc. are available. He writes "Of the two important stūpas unearthed on the hill, one was built with three concentric circular boulders around a central pit. The bouldered lines packed in the brick formed the tyres of the Stūpa indicating that it was developed from the architecture of the megalithic cairn circle. Since the region was known for several megaliths the evidence had led to the idea that the stūpas were built as per the local tradition. The second Stūpa built south-west of the former was of a different type. It was never encountered in the Buddhist sites in Andhra...... Such a stūpa was never built by the Buddhists in the area.... Structurally the second was raised on pyramidal vedis with a prominent anda. A pradaksinā patha was built below the anda and above the vedīs. step way was provided across the vedis upto the anda.... All these were of granite stone. From the available evidences, the stūpas could be attributed to the period from 200 B. C. to 50 B. C. Besides these, two ellipsoidal structures excavated....were built in bricks. They were thought to be residences of monks living on the hill............. Lime-stone railings to the pradakşiņāpatha and the main stepway were provided during the second period. This ranges from 50 B. C. to 225 A. D. The railings were built of pillars, uşnīşas and sūci slabs which showed a good lot of sculptural work....several auspicious symbols....suggesting aştamangalas of
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Jainas....some inscriptions on these lime-stone sculptures show reference to Godāsa, Uttara--the names of sthaviras mentioned in Jaina Pattāvalis ........Inscribed potsherds of first two periods give a better understanding of their association with the Jainas.... inscriptions on them reading as Viraka, Jinaka, arhantānam, siddhasa .......one important inscription reading as Jinona Vihāra shows direct reference to Jaina Vihara. "Another potsherd, of which Dr. Shastri has given me a photograph, reads Samprati Vihāra.
This is a very important discovery for the history of Jaina Sangha and Jaina Art. It clearly proves the historicity of the Bțhat-Kalpa-Sūtra and Bhāşya tradition about patronage to Jainism by Samprati, the Mauryan ruler and indirectly supports our assigning the Lohanipur statue to the age of Samprati, the Mauryan ruler.
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Presidential Address
Section : RAJASTHANI EVAN HINDI JAINA SĀHITYA
श्री भंवरलाल जी नाहटा
परमतारक तीर्थङ्कर परमात्मा सर्वसाधन सम्पन्न राजा और चक्रवर्ती पर्यन्त सर्वोच्च सामर्थ्यवान होते हुए भी समस्त विश्व के कल्याण हेतु सर्वस्व त्याग कर अकिंचन जङ्गल एवं पहाड़ों में तपस्या करते हुए लोकोपकार करते रहते हैं। चरम तीर्थङ्कर महावीर स्वामी सर्वज्ञ होकर जनता को उपदेश उनकी मातृभाषा में देते थे। यही कारण है कि वे लाखों मनुष्यों का उद्धार कर सके थे। स्वर्ग के देवी-देवता और पश-पक्षी तक उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अपना भविष्य उन्नत कर सके थे । लोकभाषा में वे सरलता पूर्वक लोगों के गले उतर जाय वैसी ही युक्ति का प्रयोग करते थे। उस समय की भाषा अर्धमागधी थी जिसमें अन्य प्रान्तीय भाषाओं का भी समावेश था। भगवान् बुद्ध की भाषा पाली थी जो उनके वज्जि जनपद से संबन्धित थी। भगवान् महावीर का जन्म क्षत्रियकुण्ड मगध में हुआ था जहाँ उस समय अर्द्धमागधी अधिक विकसित थी।
समवायांगसूत्र एवं विशेषावश्यक टोका में अठारह लिपियाँ बताई गई हैं। इनमें से अधिकांश आर्यों से संबन्धित थीं। उस समय की भाषाओं के प्रयोग अशोक के लेख, खारवेल के लेख आदि में देखे जा सकते हैं।
राजस्थान में आठवीं शताब्दी के बाद बड़ा उत्थान हुआ। प्रतिहारों के राज्य में व्यापार बढ़ा और कई नगर बने । श्रेष्ठिवर्ग का उदय इस काल की एक प्रमुख घटना है। ओसवाल, माहेश्वरी, खण्डेलवाल आदि जातियों का उद्भव एवं विकास लगभग इसी काल में हुआ। ये व्यापारी एक प्रदेश से दूससे प्रदेश में जाते एवं शीघ्र ही उन प्रांतों में प्रचलित भाषायें भी सीख लेते थे। कुवलयमाला में जिसकी रचना सं० ८३५ में उद्योतनसूरि ने की थी, सोलह जनपदीय भाषाओं का उल्लेख है । वहाँ इनके भेद भी वर्णित हैं। पड़ोसी प्रांतों की भाषा का एक दूसरे के ऊपर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है । संस्कृत और प्राकृत भी जैनों की भाषा रही है। इसमें कई ग्रंथ लिखे गये । कालान्तर में अपभ्रंश का भी व्यापक प्रचार रहा है। ७वीं शताब्दी से लेकर १८वीं शताब्दी तक इसके प्रयोग के उदाहरण मिलते हैं। जिनदत्तसूरि की चर्चरी, काल-स्वरूप कुलक और उपदेशरसायन 'अपभ्रंश काव्यत्रयी' में प्रकाशित हैं। इस अवधि की कई रचनाएँ दिगम्बर विद्वानों की मिलती हैं। उत्तरी भारत में उस समय व्यापक धार्मिक कार्य हुए थे। चौहानों, चालुक्यों, गहलोतों, भाटियों और परमारों ने पश्चिमी भारत में कई सांस्कृतिक कार्य किये। इनके शासनकाल में साहित्यकारों एवं जैन साधुओं द्वारा व्यापक साहित्य विरचित हुआ है। अजमेर में खरतरगच्छ का व्यापक प्रचार था। जिनदत्तसूरि के अतिरिक्त पल्ह कवि तथा कुमारपाल और हेमचन्द्र के प्रयत्न विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं । हेमचन्द्र ने देशीनाममाला में प्रथम बार तत्कालीन प्रचलित देशी शब्दों का संग्रह किया। श्वेताम्बर जैनों में ग्रंथ लिखाने की परम्परा जोरों से चली । लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए अवचूरि,
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टिप्पणक, बालाबोध आदि लिखे जो तत्कालीन प्रचलित "मरुगुर्जर" भाषा में है । इनकी विशेषता यह है कि ये तत्कालीन शब्दों को यथावत् लिखे हैं जिससे उस समय की भाषा का अध्ययन किया जा सकता है। मुनि जिनविजय ने "प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ' में ऐसे कई प्राचीन गद्य रचनाओं को सम्मिलित किया है। तरुणप्रभुसूरि एक विद्वान् लेखक थे जिन्होंने १४वीं शताब्दी में कई रचनाएँ मारुगुर्जर में की हैं। हमने ५०-५५ वर्ष पूर्व अनेक प्राचीन ऐतिहासिक रचनाओं को 'ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह' में प्रकाशित किया है । इसके बाद जेसलमेर भण्डार में मिली कई रचनाओं को और जिनभद्रसूरि स्वाध्याय पुस्तिका में से जो वि० सं० १४९० की प्रति है, कई रचनाओं को प्रकाशित किया है। प्राचीन रास और अन्य रचनाएँ कई अन्य विद्वानों ने भी प्रकाशित करवाई है । गुजरात में इस संबन्ध में काफी प्रयास किया गया है एवं अनेक प्राचीन रास एवं जूनी गुजराती की रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं।
राजस्थान में चित्तौड़, जालोर, जैसलमेर, अजमेर, त्रिभुवनगिरि, चन्द्रावती आदि श्वेताम्बर जैनों एवं विशेषरूप से खरतरगच्छ के उल्लेखनीय केन्द्र थे। यहाँ खरतरगच्छीय साधुओं व श्रावकों आदि द्वारा की गई रचनाएँ बहुत मिलती हैं । वि० सं० १३३२ मे रचित शालिभद्ररास जिनप्रबोधसूरि की रचना है। हेमभूषण कृत जिनचन्द्रसूरिचर्चरी १५ पद्यों की है। वि० सं० १३६३ में प्रज्ञातिलकसूरि ने कारटा मे "कच्छुली रास" को रचना की। यह उल्लेखनीय कृति है। यह आबू के परमार शासकों के राज्य में लिखा गई है। वस्तिग का बीस विहरमानरास वि० सं० १३६८ की रचना है। गणाकरसरि का श्रावकविधिरास और अम्बदेवसरि का समरारास वि० सं० १३७१ की रचना है। धर्मकलश कृत जिनकुशलसूरिपट्टाभिषेकरास (सं० १३७७ की रचना) हमारे अभय जैन ग्रंथालय में हैं जिसे 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित किया है। जिनप्रभसूरि की पद्मावती चौपाई सं० १३६८ में और जिनपद्मसूरि का स्थूलभद्रफाग सं० १३९० में रचित है। पद्म कवि की शालिभद्र काक एवं नेमिनाथ फागुकाव्य १४वीं शताब्दी को रचनाएँ हैं।
अल्लाउद्दीन ने राजस्थान के अधिकांश राज्यों की जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। इसने जैसलमेर, चित्तौड़, जालोर, आबू आदि नगरों के जैन मन्दिरों को नष्ट किया एवं कई ग्रंथ भण्डार समाप्त किये। इनके शिलालेखों को अन्यत्र उसने उपयोग में लिया था। इन शिलालेखों से उस काल की जैन समृद्धि का पता लग सकता है। कुछ वर्षों बाद राजपूतों ने अपने राज्य पुनः जोत लिये । दिल्ली की सत्ता कमजोर होने पर उन्होंने स्वाधीन राज्य स्थापित किये । १५वीं शताब्दी में मेवाड़ और जैसलमेर विशेष रूप उल्लेखनीय हुए। इस काल में जेन श्रेष्ठिवर्ग को अधिक राजकीय मान्यता मिली एवं कई मन्दिरों का निर्माण हुआ। कई रचनाएँ भो इस काल में हुई। वि० सं० १४०९ में आघाट में हलराज ने स्थूलिभद्रफागु रचा। वि० सं० १४१५ में 'जिनोदयसूरिपट्टाभिषेकरास' मुनिज्ञानकलश द्वारा रचित है । वि० सं० १४१२ में विनयप्रभ ने गौतमस्वामीरास लिखा, जिसे अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई। राजस्थान के कई ग्रंथ भण्डारों में इसकी प्रतियाँ उपलब्ध हैं। सं० १४२३ में रचित 'ज्ञानपंचमीचौपाई' ५४८ पद्यों को रचना है। इसके रचयिता श्रावक विद्धणु हैं जो जिनोदयसूरि के शिष्य थे। सं० १४३२ में मेरुनन्दनगणि ने "जिनोदयसूरिगच्छनायकविवाहलउड' की रचना की । यह काव्य छोटा होने पर भी सुन्दर है । सं० १४५५ में साधुहंस ने शालिभद्ररास को २२२ पद्यों में रचना की। जयशेखरसूरि ने ४४८ पद्यों में 'त्रिभुवनदीपकप्रबन्ध'
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की रचना की। पिप्पलगच्छ के हीरानन्दसूरि ने वस्तुपालतेजपालरास (वि० सं० १४८४), विद्याविलासपवाड़ा, कलिकालरास विरचित किये। इनके अतिरिक्त और कई कवियों की रचनायें भी मिलती हैं। इनमें मेहकवि का राणकपुरस्तवन (वि० सं० १४९७), सोमसुन्दरसूरि का नेमिनाथनवरसफाग (सं० १४८१) उल्लेखनीय हैं। दिगम्बर विद्वानों में भट्टारक सकलकीर्ति और ब्रह्मजिनदास की कई रचनाएँ मिलती हैं। इनका कार्य-क्षेत्र बागड़, मेवाड़ और गुजरात था। सकलकीति के सोलहकरणरास, सारसीखामणरास, शान्तिनाथफाग एवं ब्रह्मजिनदास के लगभग ३० से भी अधिक रास मिल चुके हैं। इनमें यशोधररास, धन्यकुमाररास, जीवन्धररास आदि प्रसिद्ध हैं।
१५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में दिल्ली और पूर्वी राजस्थान में दिगम्बर ग्रंथ लेखन एवं इन्हें चित्रित कराने को परम्परा ने जोर पकड़ा था। रइधू एवं अन्य लेखकों-कवियों की कई रचनायें प्रकाशित हुई हैं । आमेर, चाटसु आदि स्थानों से भो कई ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं।
___ मध्यकाल में राजस्थान में विपुल जैन साहित्य रचा गया। शताधिक जैन कवि एवं ग्रन्थ लेखक इस काल में हुए हैं। इन सबका परिचय देना इस संक्षिप्त भाषण में सम्भव नहीं है। यह राजस्थानी जैन साहित्य का चरमोत्कर्ष काल कहा जा सकता है। १४-१५वीं शताब्दी तक रास काव्य छोटे-छोटे थे किन्तु कालान्तर में मध्यकाल में लम्बी रचनायें होने लगीं। कई रास तो बहुत लम्बे हैं। दोहा एवं लोक गीतों का भी प्रचुर प्रयोग हुआ है। कभी कभी चौपाई जिसे चतुष्पदी भी कहा गया है, रची गई हैं । बेलि संज्ञक काव्य इस काल में काफी रचे गये हैं।
वि० सं० १५०१ में मुनिसुन्दर के शिष्य संघविमल या शुभशील ने २२५ पद्यों में सुदर्शनश्रेष्ठिरास रचा है, जो अपने शीलधर्म के लिए प्रसिद्ध है। कोचरव्यवहारीरास कवि देपाल ने विरचित किया है। सम्यक्त्वरास की रचना संघकलश ने मारवाड़ के तलवाड़ा में रहकर की है। इसका रचना काल सं० १५०५ है। ऋषि ने नल-दमयन्तीरास की रचना वि० सं० १५१२ में चित्तौड़ में की थी। ये अंचलगच्छीय जयकीर्ति के शिष्य थे। कथा का ढंग और वर्ण्य विषय को ठीक ढंग से प्रस्तुत करना इसकी विशेषता है। मतिशेखर इस काल का अच्छा रास लेखक था। इसके द्वारा विरचित धन्नारास (वि० सं० १५१४ पद्य ३२८), मयणरेहारास (१५३७ वि० सं० ३४७ पद्य) एवं नेमिनाथफुलड़ाफाग (गाथा १०८), करकंडुमहर्षिरास सं० १५३६, इलापुत्रचरित्र (गाथा १६७) एवं नेमिगोत प्रमुख हैं। यह उपकेशगच्छ का था एवं लम्बे समय तक मेवाड़ में रहा ।
जिनवर्द्धनसूरि के शिष्य आज्ञासुन्दर ने वि० सं० १५१६ में विद्याविलासचौपाई ३६३ पद्यों में बनाई। कीर्तिरत्नसूरि से सम्बन्धित विवाहला उनके शिष्य कल्याण चन्द्र ने ५४ पद्यों में बनाई। खरतरगच्छ के राजशील ने वि० सं० १४६८ में विक्रमचरितचौपाई की रचना की। राजशील चित्तौड़ में थे। इनका वहाँ के एक शिलालेख में भी वर्णन मिलता है । वाचक धर्मसमुद्र ने सुमित्रकुमाररास वि० सं० १५६७ में जालौर में ३३७ पद्यों में बनाया। इसी काल में सहजसुन्दर हुए जिनके द्वारा विरचित ऋषिदत्तारास, परदेशीराजारास आदि मिले हैं। लघुजातक के रचयिता खरतरगच्छ के मतिलाभ बीकानेर में लम्बे समय तक रहे थे। पार्श्वचन्द्रसूरि जो अपनो गच्छ परम्परा के लिए प्रसिद्ध हैं, नागौर, बीकानेर, सिरोही आदि क्षेत्रों में खब विचरे हैं। इनकी सिद्धान्त विषयक कई रचनाएँ मिलती हैं।
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दिगम्बर विद्वानों में पद्मनाभ, ठक्कुरसी, छोहल, ज्ञानभूषण ब्रह्मबुचराज, ब्रह्मयशोधर भट्टारक, शुभचन्द्र आदि हुए हैं। इनकी कई रचनाएँ मिलती हैं । इनमें शुभचन्द्र अच्छे विद्वान् थे । इनके महावीरछंद, नेमिनाथछंद, दानछंद आदि बहुत प्रसिद्ध हैं । पद्यों के साथ गद्यों की भी कई रचनाएँ हुईं। इनमें बालावबोध बहुत मिलते हैं । हेमहंसगणि का षडावश्यकबालावबोध (१५०१ वि०सं०), भवभावनाबालावबोध (१५०१ वि०सं०), जिनसूरि रचित गौतमपृच्छा बालावबोध, संवेगदेवगण विरचित पिण्डविशुद्धिबालावबोध (१५१२ वि०सं०), धर्मदेवगणि विरचित षष्ठिशतकबालावबोध (१५१५ वि०सं०), आसचन्द्र विरचित कल्पसूत्रबालावबोध (वि० सं० १५१७), जयचन्द्रसूरि रचित चउसरणबालावबोध आदि उल्लेखनीय हैं । इस समय केवल जैन आगमों और अन्य शास्त्रीय पुराणों के अतिरिक्त अलङ्कार ग्रंथ "विदग्ध मुख मण्डन', 'वाग्भट्टालङ्कार', तथा छन्द ग्रंथ "वृत्त - रत्नाकर" की भाषा टीका भी बालावबोध के रूप में की गई है ।
१७वीं शताब्दी में मालदेव, पुण्यसागर, साधुकीर्ति, कुशललाभ द्वारा विरचित दोलामारू, माधवानल कामकंदला चौपाई राजस्थानी साहित्य की श्रेष्ठतम रचनायें हैं । आज भी सबसे ज्यादा प्रचलित किसी जैन कवि को रचनाओं में इनका स्थान है । समयसुन्दर बहुत प्रतिभा सम्पन्न थे । राजस्थानी साहित्य के एक बड़े गीतकार के रूप में इनका नाम है । अकबर द्वारा वे सम्मानित थे । अकबर के दरबार में आपने "अष्ठलक्ष्मो" का पाठ किया था । "राजानो ददते सौख्यम्" पद के दस लाख से भी अधिक अर्थ वाले वर्णन करके अकबर और उसकी सभा को आश्चर्यचकित कर दिया था ।
अकबर का जैनों से बड़ा सम्पर्क रहा । होरविजयसूरि एवं जिनचन्द्रसूरि तथा इनके शिष्य कई बार अकबर से मिले थे । यह काल जैनों की उन्नति का काल था । इन्हें राज्य मान मिला था । अमारि घोषणा के कई शासन पत्र भी मिले थे। कई विद्वानों के नाम गिनाए जा सकते हैं । यह काल राजस्थानी जैन साहित्य का अत्यंत उत्कर्षकाल रहा है । तपागच्छ के मेघविजय, विनयविजय, यशोविजय, खरतरगच्छ के धर्मवर्द्धन, जिनहर्ष, योगिराज, आनन्दघन, विनयचन्द्र, लक्ष्मीवल्लभ आदि विद्वान् अकबर के परवर्ती काल १८वीं शती में हुए थे। जिनहर्ष और जिनसमुद्र सूरि की समस्त रचनाएँ राजस्थानी भाषा में हैं । इनका परिमाण भो बहुत अधिक है ।
लोकाशाह परम्परा के भो कई जैन विद्वान् १७वों और १८वीं शताब्दी में हुए हैं । संत जयमाल एक प्रभावशाली वक्ता, कवि एवं लेखक थे । इनकी १८वीं की अधिक रचनाएँ मिलती हैं । इनमें चन्दनबालासज्झाय, लघुसाधुचन्दना, सोलहसतो की सझाय आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इनके अतिरिक्त कुशलजी, रायचन्दजी, चौथमल, दुर्गादास, आसकरण, जीतमल, रत्नचन्द्र आदि कई कवि हुये हैं ।
दिगम्बर परम्परा में भी कई अच्छे विद्वान् हुये । इनमें सुमतिकीर्ति, खडगसेन, दिलाराम, शुभचन्द्र, नथमल विलाला, थानसिंह, जोधराज कासलीवाल, दौलतराम कासलीवाल, सेवाराम पाटनी और वख्तराम शाह की कई रचनायें मिलती हैं ।
दिगम्बरों में साधुओं के साथ कई गृहस्थ श्रावक भी उल्लेखनीय विद्वान् हुये हैं । इनमें जोधराज गोदिका, ब्रह्मनाथू, नेमिचन्द्र सेवक, लोहट, अभयराज पाटनी, कुशलचन्द्र काला, किसनसिंह, बुधजन, उदयचन्द्र, पार्श्वदास आदि उल्लेखनीय हैं ।
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१९ एवं २०वीं शताब्दी में जैन श्रावकों का बड़ी संख्या में बम्बई, कलकत्ता, बिहार, आसाम आदि में जाना हुआ था। इनके साथ कई साधु और पंडितों का भी इस क्षेत्र में जाना हुआ। इस काल में हिन्दी का विकास और उल्लेखनीय रचनाएँ होनी शुरू हुई थीं। बनारसी दास की रचनायें इस दृष्टि से बड़ी उल्लेखनीय हैं। इनमें खड़ी बोली का व्यापक उपयोग है। राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द जाति के ओसवाल गोखरू गोत्र के थे । इनका योगदान सर्वत्र उल्लेख किया हुआ है। कई प्राचीन ग्रंथों का अनुवाद हिन्दी में किया गया। उपमितिभवप्रपंचकथा का एक विस्तृत अनुवाद कुमुदचन्द्र द्वारा वनारस में किया गया। यह ग्रंथ अब अजमेर के जैन ग्रंथालय में सुरक्षित है और अभी अप्रकाशित है । १९वीं शताब्दी में ही जैन साधुओं और विद्वानों ने स्थानीय भाषाओं के साथसाथ हिन्दी में भी लिखना प्रारम्भ कर दिया था। इस काल की गद्य की भी कई अच्छी रचनाएँ मिलती हैं । खरतरगच्छ के विनयभक्ति ने “जिनलाभसूरिदवावैत' की रचना की। इसमें गद्य का उपयोग है। यह गद्य हिन्दी के आदिकालीन गद्य में रखा जा सकता है। विद्वानों का ध्यान अभी इस ओर नहीं गया है । इनको रचना के कुछ अंश इस प्रकार हैं :
ऐसी पद्मावती माई बड़े सिद्ध साधुओं ने ध्यायी। तारा के रूप बौद्ध शासन समाई। गौरी के रूप में शिवमत वालों ने ध्यायी । जगत में कहानी हिमालय की गाई ।
क्षमाकल्याण १९वीं शताब्दी के अच्छे विद्वान् थे। इनको रचनाओं में हिन्दी का अच्छा प्रभाव है। खड़ी बोलो के कई अंश इनकी रचनाओं में उपलब्ध हैं। ज्ञानसागर नामक खरतरगच्छ के विद्वान् की निम्नाकित हिन्दी रचनायें भी मिलती हैं। यथा :-पूर्वदेशवर्णन, कामोद्दीपन (सं० १८५६ में), मालापिगंल छन्दशास्त्र (सं० १८७६), निहानबावनो (सं० १८८१), भावछत्तीसी (सं० १८६५) आदि ।
उत्तमचन्द भण्डारी महाराजा मानसिंह के समकालीन जोधपुर निवासी थे। इन्होंने अलंकार आशय नामक ग्रंथ लिखा था। इनके भाई उदयचन्द भण्डारी भी अच्छे लेखक थे। इनके द्वारा लिखे गये ग्रंथों का काल सं० १८६४ से १९०० के बीच में आता है। इनमें लगभग ५० ग्रंथों की सूची दी जा सकती है।
इनमें ज्ञानप्रदीपिका. ज्ञानविनती. लघचाणक्य समासार. स्वरोदयश्रृंगार कवित्त आदि प्रमख है। गजल साहित्य भी खड़ी बोली को १९वीं शताब्दी की श्रेष्ठ रचनाओं में रखा जा सकता है। १. जोधपुरवर्णन
हेम कवि
सं० १८६६ २. जोधपुर वर्णन
गुलाब विजय ३. नागौर वर्णन
मनरूप
सं० १८६२ ४. मेड़ता वर्णन
मनरूप
सं० १८६५ ५. सोलन वर्णन
मनरूप
सं० १८६५ ६. बीकानेर वर्णन
लालचन्द
सं० १८३८ उत्तरप्रदेश, पंजाब, मध्यप्रदेश में भी हिन्दी भाषा में कई रचनायें जैन विद्वानों द्वारा की गईं। इनमें पद्य साहित्य, भक्तिगीत, कथाओं आदि के संग्रह प्रमुख हैं । धार्मिक विषयों एवं शील सम्बन्धी कई दृष्टान्तों का प्रयोग इनमें किया गया है ।
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२०वीं शताब्दी में अनेक विषयों पर जैन विद्वानों ने हिन्दी में रचनाएँ की हैं। इनमें नाटक, एकांकी, उपन्यास, चरिताख्यान, कहानी, लघु लेख, जीवनी, निबन्ध और शोध समालोचना मुख्य रूप से लिखे गए हैं । जैन एवं जैनेतर विषयों विज्ञान एवं आधुनिक अन्य विषयों पर भी जैन विद्वान् बराबर लिखते आ रहे हैं । २०वीं शताब्दी का युग मुद्रण-युग होने से लोगों को प्रसार की अधिक सुविधा है । इस काल में भारत के प्रमुख हिन्दी भाषा से सम्बन्धित जैन विद्वानों में जिनविजय, ज्योतिप्रसाद जैन, जुगलकिशोर मुख्तार, अगरचन्द नाहटा, गोपालदास वरैया, चैनसुखदास, सुखसम्पतिराय भण्डारी, नेमिचन्द जैन, शोभाचन्द भारिल्ल, इन्द्रचन्द्र शास्त्री, दरबारीलाल कोठिया, जवाहरलाल जैन, नाथूराम प्रेमी, विनयसागर, कल्याण विजय, प्रेम सुमन, वीरेन्द्रकुमार, सागरमल जैन, नरेन्द्र भानावत, मोहन लाल मेहता, भगवान दास जैन, हुकमचन्द भारिल्ल, कल्याणमल लोढ़ा, कस्तूरचन्द बांठिया, डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, दौलतसिंह लोढ़ा आदि उल्लेखनीय हैं।
खरतरगच्छ के सुमनजी, रामलालजी, विजयधर्मसूरि, विजयराजेन्द्रसूरि, कान्हजी स्वामी, आचार्य तुलसी, मुनि जयन्तविजय, मुनिमगनसागर, मुनि नथमल, मुनि रूपचन्द्र, जैन दिवाकर चौथमल, जवाहरलाल, आनन्दऋषि, गणेश लाल, हस्तीमल, नानालाल, अमर मुनि, मरुधरकेशरी मिश्रीलाल, मधुकर मुनि आदि के नाम प्रमुख रूप से लिए जा सकते हैं । शोध के क्षेत्र में मुनि जिनविजय का नाम जैन विद्वान् ही नहीं अपितु सारा देश याद करता रहेगा। ये मेवाड़ के रूपाहेली ग्राम में सं० १८८८ में जन्मे थे। राजपूत वंश में होते हुए भी वे बचपन से ही जैन यतियों और साधुओं के सम्पर्क में आये और जैन साधु के रूप में लम्बे समय तक दीक्षित रहे । सिंघी जैन ग्रंथमाला, राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला के सम्पादक एवं भारत की कई संस्थाओं के मानद विशिष्ट सदस्य रहे थे। ये न केवल संस्कृत, हिन्दी, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती के विद्वान् थे अपितु प्राचीन लिपियों, पुरातत्व एवं साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे। इन्होंने भारतीय विद्या, जैन साहित्य संशोधक आदि कई शोधपूर्ण पत्र भी प्रकाशित किये हैं।
श्री अगरचन्द नाहटा का नाम भी साहित्य के क्षेत्र में बड़ा उल्लेखनीय रहेगा। मैंने इनके साथ निरंतर कार्य किया है । सैकड़ों अप्रकाशित रचनाओं को प्रकाशित करने का इन्हें श्रेय है।
सुखसम्पतिराय भण्डारी ने भारत में देशी राज्य, ओसवाल जाति का इतिहास, जैन इतिहास, जैन दर्शन आदि पर अच्छा लिखा है। पं० काशीनाथ जैन मेवाड़ के निवासी थे। इनके द्वारा कई कथाएँ लिखी गई हैं। ये कथाएँ जैन साहित्य में प्रचलित कथाओं की रूपान्तर हैं। इनमें अभयकुमार, उत्तमकुमार, श्रावक कामदेव, चन्दनबाला, राजा हरिश्चन्द्र, पार्श्वनाथ, सुरसुन्दरी, चम्पक सेठ, राजा यशोधर चरित्र आदि उल्लेखनीय हैं।
दौलतसिंह लोढ़ा की मृत्य् अल्पायु में हो गई थी। ये शिलालेख, इतिहास एवं पुरातत्व के अच्छे विद्वान् थे। ये कवि भी थे और कई कविताएँ भी लिखी थीं। इनकी पुस्तकों में थराद नगर के जैन शिलालेख, प्राग्वाट जाति का इतिहास, राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ, यतीन्द्रसूरि अभिनन्दन ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं।
पं० भगवानदास गुजराती विद्वान् थे। इन्होंने हिन्दी में भी कई रचनाएँ शिल्पशास्त्र एवं ज्योतिष पर की थीं। आपने विजयधर्मसूरि द्वारा स्थापित यशोविजय जैन पाठशाला, बनारस में शिक्षा प्राप्त की थी। इसके बाद अधिकांश समय जयपुर में ही रहे ।
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पं० चैनसुखदास दर्शन के अच्छे विद्वान् थे । स्पष्ट वक्ता होने के साथ-साथ ये संस्कृत भ अच्छे ज्ञाता थे । बनारस से शिक्षा प्राप्त कर जयपुर में बसे थे। उपा० कवीन्द्र सागर जी की अनेक हिन्दी रचनाएँ प्रसिद्ध हैं । वे अच्छे कवि थे ।
मुनि विनयसागर फलौदी में झाबक परिवार में पैदा हुए। बचपन में दीक्षा ले ली । वैचारिक क्रांति के कारण १९५६ में साधुपन छोड़ दिया और गृहस्थ हो गये । आप संस्कृत - प्राकृत के अच्छे विद्वान् हैं । आपने प्राचीन इतिहास व शिलालेखों पर अच्छा कार्य किया है । आपने कई ग्रंथ सम्पादित किये हैं । इनमें नेमिदूत, संघपति रूपजी वंश प्रशस्ति, खरतरगच्छ का इतिहास, बल्लभ भारती, आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य उल्लेखनीय हैं ।
आचार्य तुलसी ने तेरापंथ में शिक्षा प्रचार पर अधिक जोर दिया । ये स्वयं अच्छे कवि और लेखक हैं । इनके प्रयास से आज तेरापंथ सम्प्रदाय में कई उत्कृष्ट लेखक और दर्शन के ज्ञाता हैं । स्थानकवासी सम्प्रदाय में कई अच्छे व्याख्याता और विद्वान् हुए हैं। इनमें जैन दिवाकर चौथमल को बड़ा राज्यमान मिला था । इन्होंने जहाँ भी विहार किया जीव दया के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया ।
शोध के क्षेत्र में इस समय कई विद्वान् बड़ा कार्य कर रहे हैं । दिगम्बर श्वेताम्बर आचार्यों, और उनकी कृतियों एवं दर्शन के कई पक्षों पर विद्वानों ने पीएच० डी० एवं डी० लिट० ली है । इस विषय में जो कार्य हो रहा हैं वह उल्लेखनीय है, किन्तु विद्वानों में यह देखा जाता हैं कि कार्य करने की लगन केवल शोध तक ही सीमित रहती है ।
कई जैन संस्थाएँ भी इस समय अच्छा कार्य कर रही हैं । पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हिन्दी में कई जैन पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं । कुछ पत्रिकाएँ अच्छे महत्व की भी हैं । इनमें श्रमण, तीर्थंङ्कर, अनेकान्त आदि उल्लेखनीय हैं । इन्होंने कई विद्वानों को हिन्दी में लिखने को प्रेरित किया है | हिन्दी पत्रकारिता में श्री अक्षयकुमार जैन सदैव याद किये जाते रहेंगे ।
हिन्दी के विकास में प्रारम्भ से ही जैन विद्वानों का बड़ा योगदान रहा है। जैन विद्वानों की गद्य एवं पद्य लिखने की बड़ी लम्बी परम्परा रही है । २०वीं शताब्दी में हिन्दी में विपुल साहित्य निकला है, जिनकी विस्तृत सूची देना कठिन है । आज जैन विद्वान् न केवल साहित्य, संगीत, दर्शन एवं कला विषयों पर लिख रहे हैं अपितु विज्ञान-गणित आदि विषयों पर भी अच्छा साहित्य तैयार कर लिया है ।
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Presidential Address
Section : JAINA LOGIC AND EPISTERMOLOGY
PROFF DAYANAND BHARGAVA
Distinguished scholars, learned delegates and lovers of Jaina tradition of philosophy !
I deem it a rare honour to have the opportunity of inaugurating the deliberations of the Section of Jaina Logic and Epistemology of first sessions of All India Association of Prakrit and Taina Studies in one of the oldest city of the world where the twenty third Tirthankara, Pārsvanātha, propogated the message of non-violence and truthfulness, the relevance of which was demonstrated in our own times by the Father of the Nation. Mahatma Gandhi.
Though, the Truth was declared to be superalogical by the Vedic tradition when the Kathopanişad said : ArafaETOOTTORIT, and by the Sramana tradition when the Ācārārga said : goà freisfa. JET Gry a fao; yet the Vedic tradition accepted Logic to be the substitute of a seer and the Sramana tradition claimed rationality to be the bed-rock on which the edifice of Jaina philosophy stands. Paradoxical though it may appear, the Truth which transcends logic can be known only through logic. Dr. Satkari Mookerjee in his preface to the, Jaina Philosophy of Non-Absolutism' (p. X) rightly remarks: "Indian Philosophy does not stand by mysticism, though it culminated in it. But the mysticism is not the result of dogmatic faith. It is reasoned out of logical thought and is rather an overflow."
I
In fact, Dr. Mookerjee was the first modern scholar who not only realised that 'the philosophy of Syādváda has been more maligned than understood' but also took it upon himself to transvalue the ancient Jaina
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doctrine of non-absolutism in modern terminology. He, however, did not conceal the fact that his personal philosophical convictions were enlisted on the side of Sankara's Vedanta and yet after making a thorough investigation, he vindicates the approach of non-absolutism but concludes that 'the difference of philosophers is, however, a matter of conviction deeper than reason can probe' (op. cit. p. 20).
This is in short what Dr. Mookerjee propounded: There are two groups of school of logic. The first group believes that "our knowledge of things and of their relations starts from experience, and reason can at best serve to organise the experienced data and build a system of thought, the elements of which together with their relation, must be ultimately derived from this fundamental source of knowledge, in other words, from direct acquaintance furnished by observation" (op. cit. p. 1). The other group believes in the a priori validity of the Laws of Thought viz., the Law of Identity-"Whatever is, is "the Law of Contradiction"Nothing can both be and not be" and the Law of Excluded Middle"Everything must either be or not be" (op. cit. p. 7). Whatever experience of ours does not confirm to these laws, is not dependable. The Vedantist idealist, for example, has declared change to be illusory on the basis of Law of Identity. The Jainas, on the other hand, belong to the first group and insist that the validity of statement like "A is A" suffers from the defects of symbolism which become manifest as soon as we substitute a concrete substance for the symbol 'A', because a concrete substance like a pitcher is experienced to undergo constant change and the validity of our experience cannot be challanged on the ground of some pure logic the validity of which is held to be a priori i. e. independent of any experience (op. cit. p. 7). After having devoted his whole work to the vindication of the Jaina view point, Dr. Mookerjee draws some conclusions, three of which deserve the attention of the scholars.
1. 'I felt a close affinity of Jaina thought to Vedanta.' (op. cit. preface, p. X)
2. 'The difference of philosophers is, however, a matter of conviction deeper than reason can probe (op. cit. p. 20)
3. ....'my philosophical convictions are rather enlisted on the side of Sankara's Vedanta'. (op. cit. pp. 19-20)
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These conclusions raise one major question to which, according to my judgement, the scholars should seriously pay attention : Is the difference of philosophers really a matter of conviction deeper than reason can probe ?. If it is so, ultimately all reasoning in the field of philosophy is an excercise in futility. Things have to be decided by 'conviction deeper than reason can probe'. Why, then, reasoning at all ? Even if it were to be said that reasoning may not be the final authority, yet it is helpful as it paves the way for coming to a conviction or it fortifies our convictions, which are themselves beyond reasoning; yet logic is to be relegated to the secondary position in such a situation.
In case, however, we accept that logic can lead us to truth, the Jainas have to adduce some more arguments in favour of non-absolutism as against the absolutistic attitude of Vedānta. Almost all such arguments have been forcefully put forth by Dr. Mookerjee and yet, his 'convictions are rather enlisted on the side of Sankaras Vedānta'. Can the Jainas put forth some more convincing arguments so tha like Dr. Mookerjee are forced to rethink? Or is it to be taken merely as a matter of personal liking ?
II
On the historical plane, the question of the origination of the theory of non-absolutism is quite interesting. Dr. Nathmal Tatia in his D. Litt dissertation "Studies in Jaina Philosophy'' has given some hints regarding this point which are developed by Dr. B. K. Matilal in his work, "The Central Philosophy of Jainism". The difficulty lies in the fact that Ācārārga, the earliest work on Jainism, does not mention non-absolutism. The statement that 'one who knows one, knows all' hardly indicates non-absolutism, because the context where the sentence occurs, has no relation with non-absolutism but with conquest of the passions, meaning that in order to understand one passion, one has to understand all passions and vice-versa. The reference to vibhajyavāda in the Sūtrakstānga (Matilal p. 19) has led scholars like Pt. Dalsukhbhai Malavania (Nyāyāvatāra-vārtika-vrtti, Intr. pp. 11-35) to trace the origin of anekantaväda to vibhajyavāda which has been claimed by Buddha also (op. cit. p. 7)
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Dr. Matilal, in the first place, asserts that Parśvanatha, did not seem to uphold any, philosophical thesis such as the anekantavāda' and then he shows that the Nasadiya hymn of the Rgveda and various assertations in the Upanisads such as 'it moves, it moves not' are not the forerunner of anekāntavāda. (op. cit. p. 3) He further makes a distinction between vibhajyavāda of Buddha, which was the 'exclusive' middle as it rejected the two extremes, and of Mahāvīra, which was the 'inclusive' middle as it accepted the middle course without rejecting the two extremes (op. cit. p. 18). The distinction, as Dr. Nagin J. Shah in his foreword to the work states, is interesting. Dr. Matilal, however, is clear that 'the Buddha was an ekantavādin (op. cit. p. 18). In such a situation, it is yet to be decided by the scholars, if it would be proper to trace the origin of anekantavāda to the Vibhajyavāda of Buddhism particularly when Dr. Matilal, himself, is against accepting the statements of Násadiya hymn and the Upanisads as forerunners of anekanta on the ground that 'the anekanta doctrine will be misunderstood if merely the joint assertation of contradictory predicates about an identical subject be itself taken to be a vindication of anekanta doctrine. (op. cit. p. 3) In the third Chapter of his work, Jaina Nyāya kā Vikāsa', Muni Nathamal, has enumerated as many as eight pillars on which the edifice of anekanta stands. The first of them is the coexistence and invariable concommitance of the universal and the particular. The Buddhist will, however, accept only the particular. The second is the invariable concomitance of the permanence and transitoriness. The Buddhist will, here again, accept only the transitoriness. How can we, then, harp up on the theme of deriving anekānta of Jainism from the vibhajyavāda of Buddhism ? And in case we do so, where lies the fault in taking back the origin of anekanta to the Vedic literature, for, as Dr. Mookerjee has pointed out, it must not forgotten that Vedanta is frankly realistic in its logic and epistemology. And the logical evaluation of phenomenal reality as a mass of irrational surds and contradictions by Vedanta is almost endorsed in to by Jaina thought--" (op, cit., preface p. X) I do not know if the tendency to associate many concepts of Jainism with that of Buddhism is justified on the ground that both of these traditions are Śramanic. My own hypothesis is that Jainism is as nearer to or fartherer from Brahmanism as from Buddhism, as far as the question of logic goes.
If
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Jainism cannot accept the Brahmanical immutability of self, it is equally opposed to the Buddhistic transitoriness of it. The scholars, with a Buddhistic background, therefore, should resist from finding similarity between Jainism and Buddhism in the field of logic at least on some superfluous grounds.
III
Dr. Tatia says, "non-violent search for the truth should inspire the enquiries of a thinker. It is this attitude of tolerance and justice that was responsible for the origin of the doctrine of non-absolutism (Anekanta)" (op. cit. p. 22). Pt. Mahendra Kumar Shastri and Shri H. D. Kapadia followed by Dr. Matilal held the same view (Matilal p. 4) Dr. Matilal has elaborated this by saying that the Jaina principle of "respect for the life of others" gave rise to the principle of respect for the views of others (op. vit. p. 6). This view has been expressed by so many other modern scholars but I have not found any such hint in the ancient or medieval work. It is admirable if it could be shown that the doctrine of Anekānta demonstrates a spirit of toleration, understanding and respect for the views of others but unless we get such sentiments expressed in the old writings, we can only accept this position as a modern extension of an old doctrine. Such an extention is always welcome but it requires an overhauling of the whole logical and epistemological literature of the Jainas. I am afraid that this literature does not show any more catholicity of the Jaina outlook towards the non-Jaina systems than any other school of Indian philosophy shows. This position can be changed not merely by stating that the Jaina, are tolerant towards their adversories but by illustrating it by reviewing the position of the Jainas vis-a-vis the non-Jainas in the light of the new meaning which is being attributed to Anekānta Vāda in the modern times viz. that it helps us in cultivating the attitude of toleration. If some were to become secular to the extent that he cannot tolerate a communalist and tries to wipe him out of existence, the secularism may it-self become a sort of another communa
Similarly if non-absolutism becomes intolerant towards those who are not non-absolutist, it itself assumes the form of an intolerant dogma and its characteristic of tolerance remains only in name and not in spirit. The scholars of Jaina logic and Jaina epistemology should review
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the ancient philosophical literature of the Jainas to decide as to whether (i) this literature is really more catholic, than the literature of the nonJainas or (ii) the claim that Anekānta is characterised by toleration is not valid or (iii) the portion dealing with the debate between the Jainas and non-Jainas have to be re-written.
IV
An excellent work on a comparative study of Jaina theories of reality and knowledge by Y. J. Padmarajah was first published in 1963. This discusses ontological problems of identity-cum-difference in different system of Indian philosophy with special reference to Jainism. The Jaina position, when reviewed from non-absolutistic view point, is that reality is a unique and integral synthesis of identity in differences. Identity and differences co-ordinate in this synthesis, both having equal importance and none subordinating the other. This combination of identity and difference in reality gives birth to a distinct category-sui generis (jātyantara).
The differences are either external or internal. The difference of one object from the other is external which may either be homogeneous or hetrogeneous. The difference of one mode from another mode of an object is the first type of internal difference, whereas the difference between the object and its quality is second type of internal difference. A non-absolutist has to demonstrate that in all the above mentioned cases of difference there must be some identity also from one or more points of view out of the four determinate factors (i) the material factor (ii) the spatial location (iii) the temporal reference and (iv) the intrinsic nature. It would be observed that in an external objects the difference may appear to be absolute when we look at two objects existing at different space and time and having different mode also. The Jainas tried to establish identity on the basis that in such cases also both the objects exist and, therefore, there is 'identity of being'. Dr. Mookerjee, however, condemns it as 'a mean verbal quibble' (op. cit. p. 277). Here again it appears that theory of non-absolutism is in danger because there appears to be no bond of identity between two such hetrogeneous objects as the soul of Mahāvīra, on the one hand and a dead piece of stone on this earth, on the other. I have dealt with this problem in an independent
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paper elsewhere and, therefore, refrain from going in detail of this problem at the moment.
I have touched upon some points here just to illustrate that there is still scope for creative mind to contribute to the advancement of knowledge in the field of Jaina logic and epistemology as in any another field of knowledge. It is, therefore, a misconception that the scholars can do
anything accept repeating what has already been said. The earlier this misconception is removed, the better it is for the research in the field of Jaina logic and epistemology.
Once again, I express my gratitude to the organisers of this conference for giving me this opportunity of placing my ideas before this august assembly of distinguished scholars and to all of you for giving me a patient hearing.
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आचारांग (प्रथम श्रुत-स्कंध) के प्रामाणिक संस्करणों के
कतिपय पाठों की समीक्षा एवं . भाषाकीय दृष्टि से उन्हें सुधारने की अनिवार्यता
___ डॉ० के० आर० चन्द्र आचारांग जैन अर्धमागधी आगम साहित्य का आद्य ग्रंथ है और प्राकृत भाषा की यह प्राचीनतम कृति माना जाता है। परंतु ग्रंथ के सूक्ष्म अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी भाषा का स्वरूप सर्वत्र प्राचीनतम नहीं है। इसके अतिरिक्त श्री शुबिंग महोदय, पूज्य श्री सागरानन्दजी, पू० श्री नथमल जी और पूज्य श्री जम्बूविजयजी के संस्करणों में कितने ही पाठ एक समान नहीं हैं। उनमें ध्वनि-परिवर्तन सम्बन्धी जो भेद मिलते हैं वे विचारणीय हैं।' श्री शुबिंग के संस्करण में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप लगभग अट्ठावन प्रतिशत (५८"/.) है जबकि पूज्य श्री जंबू विजयजी के संस्करण में लगभग चौबीस प्रतिशत (२४%) है। इस भेद के कारण प्रश्न यह उठता है कि किस संस्करण को मूल पाठ के अधिक निकट माना जाय ?
आगे दी गयी तालिका से स्पष्ट है कि अलग-अलग संस्करणों में भाषा (वर्ण-विकार एवं शब्द-रूप) संबंधी कितना अन्तर है। यदि इनकी आगमेतर प्राचीन ग्रंथों की प्राकृत भाषा के साथ तुलना की जाय तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि आचारांग के संस्करणों में मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप का जो प्रतिशत मिलता है वह उचित नहीं है। वसुदेवहिंडी में यह लोप छप्पन प्रतिशत (५६:/.) है और पउमचरियं में बासठ प्रतिशत (६२/.)। इन दोनों ग्रंथों की रचना परवर्ती है
और आचारांग की भाषा से इन दोनों की भाषा अर्वाचीन होनी चाहिए और ऐसा है भी। यह बात इनमें उपलब्ध रूपों से भी सिद्ध होती है। उदाहरणार्थ सप्तमी एकवचन की विभक्ति'अंसि,' हेत्वर्थक प्रत्यय-'इत्तए,' संबंधक भूत कृदन्त के प्रत्यय-'टु, त्तु और च्चा' आचारांग में तो मिलते हैं परंतु ये प्राचीन प्रत्यय वसुदेवहिंडी और पउमचरियं में नहीं मिलते हैं । स०ए० व० की विभक्ति-म्मि' वसुदेवहिंडी में दो प्रतिशत (२./.) पउमचरियं में बीस प्रतिशत (२०/.) उपलब्ध है जबकि यह अर्वाचीन विभक्ति आचारांग (प्र० श्रु० स्कंध) में उपलब्ध नहीं है । सं० १. अंत में दी गयी शब्दों की तुलनात्मक तालिका देखिए । २. आचारांग प्रथम श्रुत-स्कंध के दोनों संस्करणों के प्रथम अध्ययन के विश्लेषण के अनुसार इस
निष्कर्ष पर पहुँचा गया है। ३. देखिए मेरा लेख :
Comparative Study of the Language of Paumacariyam and Vasudevahimdi : Proceeding of the AIDC, Jaipur Session, 1982 : Poona, 1984, जिसमें वसुदेवहिण्डी पृ० ३३ से ३४ और पउमचरियं, उद्देशक ६० से ६५ पर आधारित भाषाकीय विश्लेषण किया गया है।
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आचारांग की समीक्षा एवं उन्हें सुधारने की अनिवार्यता भू० कृ० के प्रत्यय 'ऊण' और 'उ' वसुदेवहिंडी में क्रमशः छिहत्तर और तीन प्रतिशत (७६/., ३./.) तथा पउमचरियं में क्रमशः बहत्तर और बीस प्रतिशत (७२:/, २०/.) मिलते हैं जबकि ये अर्वाचीन प्रत्यय आचारांग (प्र० श्रु० स्कंध) में नहीं मिलते । वसुदेवहिण्डी और पउमचरियं की प्राकृत भाषा का स्वरूप अर्वाचीन है अतः उनमें मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप छप्पन से बासठ प्रतिशत (५६/- से ६२/.) तक मिलता है जब कि आचारांग की भाषा का स्वरूप प्राचीन है
और शुबिंग महोदय के संस्करण में जो लोप अट्ठावन प्रतिशत (५८.) मिलता है वह विश्वसनीय कैसे माना जाय ? पू० जम्बूविजयजी के संस्करण में यह लोप चौबीस प्रतिशत ही (२४/.) है। उसे हम विश्वसनीयता के निकट मान सकते हैं।
जैन आगम साहित्य के अन्य सूत्र ग्रंथों की भाषा के विश्लेषण से भी ऐसा प्रतीत होता है कि आचारांग के शुब्रिग के संस्करण में मध्यवर्ती व्यंजनों का अट्टावन प्रतिशत लोप (५८/.) उपयुक्त नहीं है। यह मध्यवर्ती व्यंजन-लोप पज्जोसवणा (कल्पसत्र, सत्र, २३२ से २९१)में चौवालीस प्रतिशत (४४%) व्यवहार सूत्र (१,२,७,४,१०) में पैतालीस प्रतिशत (४५%), बृहत्कल्पसूत्र (उद्दे० १ से ६) में चौवन प्रतिशत (५४%) और निशीथसूत्र (उद्दे० १ से ५) में छप्पन प्रतिशत (५६%) है। इन सब सूत्रों की प्राकृत भाषा भी प्राचीन है जैसा कि निम्न संबंधक भूत (पूर्वकालिक) एवं हेत्वर्थ कृदन्तों से मालूम होता है---
ग्रन्थ | संबंधक भूत कृदन्त-प्रतिशत । हेत्वर्थ-प्रतिशत प्रत्यय प्रत्यय । इत्ता,
इत्ता ,
इत्ताणं, | इय च्चा, तु(8)| तए | उं व्यवहारसूत्र निशीथसूत्र बृ. क. सूत्र पज्जोसवणा
इन सभी सूत्र ग्रंथों में सं०भूकृ० के प्रत्यय-ऊण का प्रयोग नहीं मिलता है और सं० भू० कृ० एवं हेत्वर्थक प्रत्ययों का (ऊण एवं उ) का एक दूसरे के लिए प्रयोग भी नहीं मिलता है। ऐसे प्रयोग प्रायः पश्चात्कालीन हैं।
____ दो और प्राचीन आगम-सूत्र-ग्रंथों की भाषा का विश्लेषण भी यही साबित करता है। षखंडागम (सूत्र नं १ से १७७) में इकतालीस प्रतिशत (४१%) लोप मिलता है और पण्णवणा सूत्र (१.१ से ७४, २३९ से १४७) में बावन प्रतिशत (५२%) प्राप्त होता है। षट्खंडागम में स० ए० व० की विभक्ति 'अंसि' के बदले में 'म्मि' और 'म्हि' ११% और २०% के अनुपात में मिलती है। पण्णवणा में तो 'ए' विभक्ति मिली है, 'अंसि', 'म्हि' या 'म्मि' देखने को नहीं मिली।
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१. इन दोनों ग्रन्थों का भाषाकीय अध्ययन उपरोक्त अंशों तक ही सीमित है।
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डॉ० के० आर० चन्द्र
पुनश्च एक ही ग्रंथ की विभिन्न काल की प्रतों में उपलब्ध पाठों में मध्यवर्ती ध्वनिपरिवर्तन सम्बन्धी कितना अन्तर आ जाता है उसका एक ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने विशेषावश्यकभाष्य का है। इस ग्रंथ के ला० द० संस्करण में यदि मध्यवर्ती 'त' की स्थिति को 'त' श्रुति मानकर इस स्थान पर 'त' का भी लोप माना जाय तो सभी मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप इकतीस प्रतिशत (३१%) ठहरता है। यह लोप आचारांग के शुब्रिग महोदय के संस्करण से बहुत कम है यह मुद्दा ध्यान में लेने योग्य है। विशेषावश्यकभाष्य में लोप की स्थिति का यदि अन्य तरह से विश्लेषण किया जाय तो उसका प्रतिशत बदल जाता है। यदि मध्यवर्ती 'त' को सर्वथा छोड़ दिया जाय तो अन्य व्यंजनों का लोप बारह प्रतिशत (१२%) ठहरता है और यदि मध्यवर्ती 'त' की स्थिति को 'त' श्रुति न मानकर मूल 'त' ही माना जाय तो यह लोप दस प्रतिशत (१०%) ही ठहरता है। इसी ग्रंथ के ला० द० के अलावा जो अन्य संस्करण उपलब्ध हैं उनमें मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप अड़तालीस प्रतिशत (४८%) मिलता है। ला० द० संस्करण में जिस प्रति का उपयोग किया गया है वह दसवीं शताब्दी की है जो मूल ग्रंथ के रचनाकाल से लगभग साढे तीन सौ वर्षों बाद की है जबकि अन्य संस्करणों की प्रतियाँ अनेक शताब्दियों के बाद की हैं। इसी उदाहरण से स्पष्ट है कि एक ही ग्रंथ की विभिन्न कालीन प्रतियों में ध्वनि-सम्बन्धी परिवर्तन कितना बढ़ गया है। इस दृष्टि से यदि आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध की रचना या संकलन का काल कम से कम आगमों की प्रथम वाचना का समय यानि ई० स० पूर्व तीसरी शताब्दी से पहले का भी माना जाय तो उसके और उसकी प्राचीनतम प्रत के बीच में (जो बारहवीं शताब्दी की है) पन्द्रह सौ वर्षों का अन्तर पड़ता है। समय के इतने लम्बे अन्तर के कारण मूल पाठों के बदल जाने की बहुत अधिक संभावना रहती
इस तथ्य के विषय में किसी प्रकार की शंका करने का अवकाश ही नहीं रहता जैसा कि वि० आ० भाष्य के उदाहरणों से स्पष्ट है।।
विभिन्न आगम-सूत्र-ग्रंथों एवं अन्य रचनाओं में प्राकृत भाषा के स्वरूप को देखते हुए इतना तो स्पष्ट कहा जा सकता है कि पू० पुण्यविजयजी द्वारा संशोधित और पू० जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित आचारांग का संस्करण प्राचीनता (मूल भाषा) के अधिक निकट है जबकि शूब्रिग महोदय के संस्करण में भाषा की अर्वाचीनता है। यह सब कुछ होते हए भी पू० जम्बविजयजी के संस्करण में भी अनेक अर्वाचीन पाठ स्वीकृत किये गये हैं जो उपलब्ध प्रतों के आधार पर स्वतः स्पष्ट हैं। पू० सागरानन्दजी (आगमोदय समिति) के संस्करण में पाठान्तर
१. ग्रन्थ की प्रथम सौ गाथाओं ( ला० द० संस्करण ) के जो सभी पाठान्तर दिये गये हैं उनके अनुसार
इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है। देखिए मेरा लेख, पृ० ६५ से ७४, प्राचीन आगम ग्रन्थों का
संपादन, लाला हरजस राय स्मृति ग्रन्थ, १९८७, पा० वि० शोध संस्थान, वाराणसी-५. २. पू० मुनि श्री का जितना आभार माना जाय उतना ही कम है क्योंकि अब तक के उपलब्ध सभी
संस्करणों में यही एक ऐसा संस्करण है जिसमें अनेक प्रतियों का उपयोग किया गया है और अत्यंत परिश्रम के साथ इस संस्करण का संपादन किया गया है। उनके ही इस परिश्रम के कारण प्रस्तुत अध्ययन के लिए इस प्रकार की दृष्टि मिल सकी और यह संशोधनात्मक निबंध तैयार किया जा सका।
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आचारांग की समीक्षा एवं उन्हें सुधारने की अनिवार्यता नहीं दिये गये हैं अतः उस पर कोई चर्चा नहीं की जा सकती। पू० नथमलजी (युवाचार्य महाप्रज्ञजी) के संस्करण के बारे में कहा जा सकता है कि उसके सम्पादन में जिन प्रतों का आधार लिया गया है उनमें ही कुछ प्राचीन रूप उपलब्ध हैं परंतु उनको स्वीकार नहीं किया गया है। उदाहरणार्थःप्राचीनतम
अर्वाचीन प्रतों से घ प्रत से स्वीकृत रूप अस्वीकृत रूप स्वीकृत रूप
अस्वीकृत रूप
चुओ १-१-२ पडिसंवेदेइ १-१-B |
चुते पडिसंवेदयइ
वहंति १-६-१४० पहू १-७-१४५
वधंति (क) पभू (क)
इसी प्रकार शुबिंग महोदय के संस्करण में भी कुछ पाठों को उनके द्वारा उपयोगमें ली गयी प्रतों के आधार पर ही बदलने की आवश्यकता प्रतीत होती है । उदाहरणार्थ :
स्वीकृत पाठ
प्रतों में उपलब्ध (सी० चूणि)
पडिसंवेएइ (पृ. १-१८) अखेयन्ने (पृ० ९-१५) जीवा अणेगा (पृ० ३-१८) अनिच्चयं (पृ० ४-३०)
पडिसंवेदयइ (जी०) अखेत्तन्ने (जी०, सी०) जीवा अणेगे (ए०) अनितियं (सी०)
इसी तरह पू० जम्बूविजयजी के संस्करण में भी कतिपय पाठ बदलने की आवश्यकता प्रतीत होती है । उदाहरणार्थ :
कोष्ठक में सूत्र-संख्या दी गयी है--
स्वीकृत
अस्वीकृत
___स्वीकृत
अस्वीकृत
उववादिए
लोकं
उव वाइए (१, २) एगे (१२) आयाणीयं (१४,३६,४४,५२)
एके
अधं
आताणीयं
लोगं (२-२) अहं (४१) अट्ठिमिजाए (५२) अण्णयरम्म (९०) अणुपुव्वीए (२३०)
अट्ठिमिज्जाए
अण्णयरंसि
समुट्ठाए (१४,२५,३६,४० ४४,५२,५९,७०,७५)
समुट्ठाय
अणुपुत्वीय
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डॉ० के० आर० चन्द्र
पू० जम्बूविजयजी ने स्वयं अपने संस्करण की भूमिका में लिखा है- "सुगमता के लिए मध्यवर्ती ध के बदले में 'ह' पाठ स्वीकार किया गया है।" वास्तव में 'थ' का 'ध' में परिवर्तन थ='ह' (यथा, तथा के अघोष थ का घोष ध) से प्राचीन है परंतु उन्होंने अर्वाचीन 'ह' को अपनाया है जो 'थ' का 'ध' होकर फिर बाद में 'ह' हुआ है। उन्होंने ऐसे सब पाठ भी नहीं दिये हैं। यदि ऐसे सब पाठ दिये होते तो नया परिमार्जित संस्करण तैयार करने में बहुत सहायता मिलती।
. इस अध्ययन के दरम्यान आचारांग के विविध संस्करणों में तथा मूलग्रंथ, उसकी चूर्णी और वत्ति की विविध प्रतियों में उपलब्ध हो रहे विभिन्न पाठों का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है :I उपलब्ध हस्तप्रतों के विषय में :
१. मूल ग्रंथकी प्रतों में अशुद्ध पाठ भी प्राप्त. २. मूल ग्रंथकी प्रतों में अर्वाचीन रूप भी प्राप्त. ३. प्राचीन प्रतों में अर्वाचीन रूप भी प्राप्त. ४. रूपों की सर्वत्र एक-रूपता अप्राप्त. ५. चूर्णि की विभिन्न प्रतों में अलग-अलग शब्द-रूप प्राप्त. ६. चणि में अशुद्ध रूप भी प्राप्त. ७. चणि में अर्वाचीन रूप भी प्राप्त. ८. शीलांकाचार्य की वृत्ति में भी रूपों की एक-रूपता नहीं.
९. शीलांकाचार्य की वृत्ति में अर्वाचीन रूप भी प्राप्त. II उपलब्ध मुद्रित संस्करणों के विषय में :
१, अ-एक ही संस्करण में एक ही शब्द का कभी प्राचीन तो कभी अर्वाचीन रूप स्वीकृत।
ब-विविध संस्करणों में अलग-अलग शब्दरूप की प्राप्ति । २. अ-चूर्णि में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत ।।
ब-मात्र चणि का प्राचीन रूप स्वीकृत। ३. अ-प्राचीनतम प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत ।
ब-प्राचीनतम प्रत एवं चूर्णि में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत । स-प्राचीनतम प्रत एवं चूर्णि में उपलब्ध अर्वाचीन रूप स्वीकृत ।
द-प्राचीनतम प्रत एवं चणि में उपलब्ध अर्वाचीन रूप अस्वीकृत । ४. अ-अर्वाचीन प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप स्वीकृत ।
ब-अर्वाचीन प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत। स-अर्वाचीन प्रत में उपलब्ध अर्वाचीन रूप स्वीकृत । द-चूणि और अर्वाचीन प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत।
१. देखिए-आचारांगसुत्तं १९७७ मुनि जम्बूविजय की प्रस्तावना, पृ० ४३-४४. २. देखिए-'आचारांग के प्रथम श्रुत स्कंध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा', विद्या, गूज, युनि,
जिल्द, २५, नं० १-२, अगस्त, १९८२.
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आचारांग की समीक्षा एवं उन्हें सुधारने की अनिवार्यता ५. अ-कागज की प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप स्वीकृत ।
ब-कागज की प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत । III संपादकों द्वारा की गयी भूल :-अपने से पूर्व के संस्करणों में प्राप्त हो रहे प्राचीन या
उपयुक्त रूप बाद के संस्करणों में कभी-कभी नहीं लिये गये हैं। IV उपलब्ध पाठान्तरों के आधारों से किसी शब्द-रूप की प्राचीनता पुनः स्थापित करने के
विषय में :
समान संदर्भ में विविध प्रतों या संस्करणों में किसी शब्द या रूप के विविध प्रकार से उपलब्ध पाठों के आधार पर उनके अंशों का आधार लेकर उस शब्द या रूप की प्राचीनता पुनः स्थापित की जा सकती हो तो ऐसा क्यों न किया जाय अथवा ऐसा करने में क्या दोष है ? उदाहरणार्थ :(अ) स्वीकृत पाठ :-पव्वहिते जं० १.२.४.८४, पव्वहिए शुं० २.९.२६, आ० पृ० १२७,
अ, जै० १.२.४.९०, पाठान्तर-पव्वधिए, जंबू, की श्वे० प्रत आचारांग)। इस शब्द के प्राचीन रूप की पुनर्स्थापना 'पव्वधिते' (=प्रव्यथितः) में होगी। (ब) सहसम्मुतिया (सह-+सम्मुति+या विभक्ति) के उपलब्ध विविध पाठ और पाठा
न्तर :-सहसम्मुतियाए, सहसम्मुदियाए, सहसम्मुइयाए; सहसम्मदियाते, सहसम्मइयाए; सहसम्मुइए, सहसम्मइए, सहस्समुइए, सहसमुदियाए और सहसमदियाए। इन पाठान्तरों से स्पष्ट है कि शब्दका मूल रूप स्थानान्तर एवं समयान्तर के साथ किस प्रकार परिवर्तित होता गया। उसका विश्लेषण इस प्रकार किया जा
सकता है :
संस्कृत शब्द :-मत, मति, सम्मति । इन्हीं के प्राकृत-पालि रूप 'मुत', 'मुति' (अशोक के शिलालेख) 'सम्मुति' और तृ० ए० व० की विभक्ति के साथ ‘सम्मुतिया' (पालि साहित्य)। अतः 'सहसम्मुतिया' ही शुद्ध एवं प्राचीन रूप है। लेहियों की असावधानी के कारण उसने अनेक रूप धारणा किये जो पाठान्तरों से स्पष्ट हो रहा है।
प्राचीन रूप तो 'सम्मुतिया' ही था जो पालि साहित्य, अशोक के शिलालेखों और अर्धमागधी आगम साहित्य में उपलब्ध हो रहे साक्ष्यों से ही प्रमाणित हो रहा है। परंतु प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से यह प्रचलित रूप स्वीकृत नहीं हो सकता था अतः उसमें 'ए' विभक्ति जोड़कर 'सम्मुतियाए' बनाया गया जबकि मूल शब्द 'सम्मति' के लिए 'सम्मुतिया' जैसा कोई शब्द प्रचलित ही नहीं हुआ। यह तो पालि की 'या' और प्राकृत की 'ए' दो विभक्तिवाला रूप बन गया और वही आज के संस्करणों में प्रचलित है जिसे सुधारकर उस जगह संशोधित पाठ 'सहसम्मुतिया' रखा जाना चाहिए जो परंपरा-प्राप्त प्राचीन रूप है और येन केन प्रकारेण आचारांग के सिवाय अन्य प्राचीन जैन ग्रन्थों में भी सुरक्षित रह सका है।
आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध में उपलब्ध 'सहसम्मुइयाए' पाठ पर कुछ चर्चा, All India Oriental Conference,Calcutta Oct. 24-26, 1986 में प्राकृत एवं जैनिज्म सेक्शन में भेजा गया मेरा संशोधन पत्र ।
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डॉ० के० आर० चन्द्र
इस विश्लेषण से प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन में ध्यान में लेने योग्य जो तथ्य मुझे उपलब्ध होते हैं उन्हें निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है :
१. हरेक ग्रन्थ के या आवश्यकतानुसार उसके हरेक अध्ययन के पाठों का अलग-अलग __ अध्ययन किया जाना चाहिए। २. ग्रन्थ के रचना-काल के समय की भाषा के स्वरूप को ध्यान में रखा जाना चाहिए। ३. टीका ग्रन्थों या अन्य ग्रन्थों में उद्धृत पाठों पर भी ध्यान देना चाहिए। ४. अधिक से अधिक प्रतों में उपलब्ध समान पाठ ही स्वीकार्य हों, सर्वत्र ऐसा नहीं
माना जाना चाहिए। ५. प्राचीनतम प्रत प्रामाणिक हो ऐसा नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि अर्वाचीन
प्रत का आधार भी तो कोई प्राचीन प्रत ही रहा होगा। ६. लेहियों या आचार्यों द्वारा प्रचलित भाषा के प्रभाव, सुगमता, सरलता या लिपिभ्रम
के कारण मूल पाठ बदल जाने की संभावना को ध्यान में रखना चाहिए। ७. प्राकृत भाषा के वैयाकरणों ने काल की दृष्टि से प्रत्येक प्राकृत भाषा में विकसित रूपों के तुलनात्मक व्याकरण नहीं लिखे हैं और साहित्य में उपलब्ध सभी रूपों का समावेश भी नहीं हुआ है, अतः इस वैज्ञानिक दृष्टि को भी ध्यान में रखना चाहिए।
उदाहरणार्थ :निम्न शब्द-रूपों पर ध्यान दीजिए। (i) शब्द :-नितिय-निच्च (नित्य),
दविय-दव्व (द्रव्य), अगणि-अग्नि (अग्नि),
पिच्छ-पिंछ (पृच्छ) (II) प्रत्ययः-नपुं., द्वि. ब. व. आणि-आइं; तृ. से स. ए. व. की विभक्ति (स्त्री)-य,
ए,- तृ. ए. व. एण-एणं; तृ. ब. व. हि-हिं; स. ए. व. स्सिं, अंसि, म्हि म्मि. स. ब. व. सु-सुं, वर्तमान कृदन्त मान,-आण; सं-भू, कृ, ऊण, उं इत्यादि। इन सब का काल की दृष्टि से किस प्रकार विकास हुआ यह हमें वैयाकरणों से जानने को नहीं मिलता है।]
इस प्रकार का यह विश्लेषणात्मक अध्ययन संभव हो सका इसके लिए मैं सभी पूर्व के सम्पादकों का आभार मानता हूँ जिन्होंने परिश्रमपूर्वक सामग्री जुटाकर आचारांग का सम्पादन किया है। यदि यह बहुविध सामग्री उपलब्ध नहीं होती तो ऐसा अध्ययन ही संभव नहीं था अतः उन सभी सम्पादकों का आभार मानते हुए विनय के साथ कहना चाहिए कि हमारे इस निर्णय को भी अंतिम नहीं माना जाय। विद्वानों से अनुरोध है कि इस संबंध में जो भी आपत्तियाँ, शंकाएँ और प्रश्न उपस्थित हो रहे हों या इस पद्धति में यदि कोई त्रटि हो तो उन पर अवश्य चर्चा की जाय, जिससे आचारांग का ही नहीं, अपितु अन्य आगम-ग्रन्थों का भी पुनः सम्पादन करने में एक नयी दिशा प्राप्त हो ।
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आचारांग की समीक्षा एवं उन्हें सुधारने की अनिवार्यता
तुलनात्मक तालिका आचारांग के मान्य संस्करणों में कुछ शब्दों एवं रूपों के विभिन्न पाठ इस प्रकार मिलते हैं :---
प्रत्येक शब्द के बाद सूत्र-संख्या पू० जम्बू विजयजी के संस्करण की दी गयी है। संस्करण : पू. जम्बू विजयजी शुबिंग महोदय आगमोदय
पू. नथमलजी १. इदाणी-३३
इयाणिं
इयाणि
इयाणि २. जाती-मरण-७
जाइ-मरण
जाई-मरण जाई-मरण ३. उववाइए-१
उववाइए
उववाइए
ओववाइए ४. अधेदिसातो-१
अहेदिसाओ अहोदिसाओ अहे वा दिसाओ ५. वधेति, वहिति-५२ हणन्ति, वहन्ति हणंति, वहंति वहंति ६. चयोवचइयं-४५
चयावचइयं
चओवचइयं चयावचइयं ७. पडिसंवेदयति-६ पडिसंवेएइ
पडिसंवेदेइ पडिसंवेदेइ ८. लोगावादी-३
लोगावाई
लोयावादी लोगावाई अवियाणओ-४९
अविजाणओ
अवियाणओ अवियाणओ १०. विजहित्ता-२०
वियहित्तु
वियहित्ता विजहित्तु ११. णातं भवति-१
नायं भवइ
णायं भवइ णातं भवति १२. परितावेंति-५० परियाति
परिताति परिताति १३. पमादेणं-३३
पमाएणं
पमाएणं
पमाएणं १४. सदा-३३
सया
सया
सया १५. सता-३३
सया
सया
सया १६. जतेहिं-३३
जएहि
जत्तेहि
जतेहिं १७. निरए-३
नरए
णरए
णरए १८. णियाग-१९
नियाय
णियाग १९. णो सण्णा -१
नो सन्ना
णो सण्णा
नो सण्णा २०. पभू-५६
पहू २१. अहिताए-१३
अहियाए अहिआए
अहियाए २२. परिणा-१३
परिन्ना
परिण्णा परिणा २३. अणितियं-४५
अनिच्चयं
अणिच्चयं
अणिच्चयं २४. चते-१
चुए
चुओ २५. समारंभमाणो-१२ समारभमाणे समारंभेमाणा समारंभेमाणे २६. जीवा अणेगा-२६ जीवा अणगा जीवा अणेगे जीवा अणेगा २७ समुट्ठाए-१४
समुट्ठाए
समुट्ठाय
समुट्ठाए २८. अणुपालिया-२० अणुपालिया अणुपालिज्जा अणुपालिया काराविस्सं-४
कारावेस्सं
कारवेसुं
कारवेसं ३०. अकरिस्सं-४
करिस्सं
अकरिस्सं अकरिस्सं ३१. अबोधीए-२४
अबोहीए
अबोहीए
अबोहीए
नियाग
पह
चुओ
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संकेत – अ =
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डॉ० के० आर० चन्द्र
आगमोदमय समिति का संस्करण जै = पू. नथमल जी का संस्करण जं = पू. जंबूविजय जी का संस्करण शु = शुब्रिंग महोदय का संस्करण
संदर्भ-ग्रन्थ
1. आचारांग सूत्र, शुब्रिंग, लीपज़िग, 1910 ।
2. आयारंगसुत्तं मुनि जम्बूविजय, 1977
रीडर एवं अध्यक्ष, प्राकृत-पालि विभाग भाषा साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद - ९
3. अंगसुत्ताणि - 1, आचार्य तुलसी, जैनविश्वभारती, लाडनूं, सं० 2031 ।
4. श्रीमदाचारांगसूत्रम्, आगमोदय समिति, 1916 1
5. निशीथसूत्र, घासीलालजी, राजकोट, 1969 ।
6. व्यवहारसूत्र, शुब्रिंग, अनु० दोशी जीवराज घेलाभाई, 1925।
7. बृहत्कल्पसूत्र, पू० घासीलालजी एवं कन्हैयालालजी, सं० 1969 ।
8. कल्पसूत्र, पू० पुण्यविजयजी, सं० 1952
9. विशेषावश्यकभाष्यम्, प्रथमो भागः - पं० दलसुखभाई मालवणिया, ला. द. 1966 10. वसुदेवहिडी, जैन आत्मानंद सभा, भावनगर, 1930 11. पउमचरियं, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, 1962 ।
९
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इसिभासियाइं के कुछ अध्ययनों का भाषाशास्त्रीय विश्लेषण
दीनानाथ शर्मा
शुब्रिग महोदय द्वारा सम्पादित इसिभासियाइं सूत्र की भाषा का अध्ययन इस लेख का प्रस्तुत विषय है। इस सूत्र की गणना जैन आगम साहित्य के प्राचीन चार ग्रन्थों आचाराङ्ग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक के साथ की जाती है, अतः यह ग्रन्थ एक प्राचीन कृति माना जाता है। आचारांग इत्यादि के उपलब्ध संस्करणों की भाषा के स्वरूप के साथ यदि इस ग्रंथ की भाषा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रथ का प्राकृत शब्दावली में वर्ण-योजना प्राचीन हैं जबकि अन्य प्राचीन ग्रन्थो में वणं-योजना अर्वाचीन है। इस ग्रन्थ में विभक्तियाँ एवं प्रत्यय कुछ सीमा तक अवान्तर काल के उपलब्ध होते हैं, जबकि अन्य प्राचीन आगम ग्रन्थों में प्राचीन काल के मिलते हैं। जिस किसी ऋषि या मुनि ने इसिभासियाई के सूत्रों का संग्रह किया होगा वह भगवान् महावीर के बाद का ही होगा, इसके अधिकांश अध्ययनों में जो उपोद्घात वाक्य आते हैं वे इस प्रकार हैं :
"अरहता इसिणा बुइतं" ( ४२ बार अरहता,३७ बार बुइतं और ६ बार बुइयं ) जबकि आचाराङ्ग के प्रथम सूत्र का उपोद्घात वाक्य इस प्रकार है :"सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं"
इन दोनों वाक्यों में कितना भाषाकीय अन्तर दृष्टिगोचर होता है। प्राकृत भाषाओं के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से इसिभासियाइं का वाक्य प्राचीन रूप लिए हुए है जबकि आचारांग का वाक्य अर्वाचीन रूप लिये हुए है। ऐसा क्यों ?
__ क्या आचारांग के प्रथम श्रुत्रतस्कन्ध की रचना इसिभासियाई के बाद में हुई ? अब हम इसिभासियाइं के कुछ अध्ययनों का भाषाकीय विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं :
मध्यवर्ती व्यञ्जनों में ध्वनि परिवर्तन पाव गोशालक
वर्धमान अध्याय ३१
११ यथावत् ६२%
४५% घोष ७%
२०% लोप ३१% २७%
३५% इन तीनों अध्ययनों में वर्धमान के अध्ययन में लोप सबसे अधिक और यथावत् स्थिति सबसे कम है।
३%
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नानाथ शर्मा
कुछ अन्य अध्ययनों में ध्वनि परिवर्तन की स्थिति
वज्जिपुत्त
२
८१%
७%
अध्याय
यथावत्
घोष
लोप
पुप्फसाल
५
६९%
8%
११%
२७%
इन सबका औसत निकाला जाय तो यथावत् स्थिति ६० प्रतिशत और लोप की स्थिति लगभग २५ प्रतिशत रहती है ।
इसि भासियाई सूत्र का सम्पादन परमादरणीय जर्मन विद्वान् डॉ० शुब्रिंग महोदय के द्वारा किया गया है उसी ग्रंथ के पाठों का यह भाषाकीय अध्ययन प्रस्तुत किया गया है ।
आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का सम्पादन भी श्री शुब्रिंग महोदय के हाथों से ही किया गया है, परन्तु उसकी प्राकृत भाषा का स्वरूप ध्वनि परिवर्तन की दृष्टि से बिलकुल विपरीत सा लगता है । आचारांग में लोप ५५ से ६० प्रतिशत है और यथावत् स्थिति २५ से ३० प्रतिशत । भाषा के इस स्वरूप को देखते हुए आचारांग का संकलन इसिभासियाई के बाद में हुआ होगाऐसा प्रतीत हुए बिना नहीं रहता ।
शुगि महोदय का आचारांग का संस्करण १९१४ई० का है जबकि उनका ही इसिभासियाई का संस्करण १९४२ ई० (१९७४, अहमदाबाद ) का है । अब प्रश्न यह होता है कि यदि इसिभासियाई प्राचीन है तब तो ध्वनि परिवर्तन की यह स्थिति उचित मालूम होती है परन्तु यदि इसिभासियाइं आचारांग से बाद का है तो समाधान कैसे किया जाय ? क्या वर्षों के अनुभव के बाद शुब्रिंग महोदय को ऐसा लगा कि यदि प्राचीन ग्रन्थों की हस्तप्रतों में मध्यवर्ती व्यंजन यथावत् मिलते हों तो उन्हें वैसे ही रखा जाय । क्योंकि आचारांग में उन्होंने मध्यवर्ती व्यंजनों का लगभग सर्वथा लोप कर दिया है। जबकि प्रतों में मध्यवर्ती व्यंजनों की स्थिति अनेक बार यथावत् हो रही है । सबसे अधिक लोप तो मध्यवर्ती 'त' का कर दिया गया है । हो सकता है कि 'त' श्रुति की जो भ्रामक धारणा चल पड़ी थी, उससे वे प्रभावित हुए हों। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो इसिभासियाई के सम्पादन में यही सिद्धान्त लागू किया होता, परन्तु उसमें मध्यवर्ती 'त' की स्थिति कुछ और ही है ।
नारद
१
६१%
१२%
२७%
दविल
३
यथावत्
६८%
१००%
८५%
७२%
मध्यवर्ती 'त' की स्थिति
उपरोक्त चार अध्ययनों (१, २, ३, ५, ) में मध्यवर्ती 'त' की स्थिति निम्नवत् पायी जाती है :
अध्याय
घोष
लोप
१
३२%
२
0%
३
१३%
११
६०%
२२%
१८%
0%
0%
२% (भविदव्वं )
५
0%
२८%
जबकि आचारांग ( प्रथम श्रुतस्कन्ध ) में मध्यवर्ती 'त' का प्रायः सर्वथा लोप कर दिया गया है । आचारांग की उपलब्ध प्रतों और चूर्णि में कितने ही शब्दों में मध्यवर्ती 'त' की जो यथावत् स्थिति मिलती है उसे हमने 'त' श्रुति मानकर उसका लोप कर दिया, जबकि इसिंभासियाई में यह नियम नहीं लगाया गया है । ऐसा क्यों ?
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. १२
इसिभासियाई के कुछ अध्ययनों का भाषाशास्त्रीय विश्लेषण
इसिभासियाइं के कुछ अध्ययनों में मध्यवर्ती 'थ' का 'ध' भी प्राप्त होता है____ अध्याय-२५ तधेव ( तथैव ), अ०-४० जधा ( यथा ) अ०-४५ जधा ५ बार, सव्वधा० और तधा कुछ और प्राचीन प्रयोग :अध्याय-१ कड ३ बार, भवति, संवुड २ बार, तवसा १ बार। अध्याय-११ आणच्चा ( आज्ञाय ) निराकिच्चा, कुणइ, कारियं ( कार्यम् )। अध्याय-२१ भवति, भवंति, कुरुते, जित्ता ( जित्वा )। अध्याय-३१ नितिय ( नि त्य ) २ बार, पप्प ( प्राप्य ) किच्चा ३ बार, मड (मृत)
संवुड ( संवृत ), भवति २ बार, भविस्सति २ बार अत्त, ( आत्मन् )। भूतकाल के रूप :-भुविं, णासि ३ बार
__ अध्याय ३१ में 'नामते' (नामतः ) पंचमी एक वचन के लिए प्रयुक्त हुआ है। पंचमी के ऐसे प्रयोग अशोक के पूर्वी शिलालेखों में मिलते हैं।
___इस ग्रन्थ में कभी प्राचीन तो कभी अर्वाचीन रूप दोनों ही प्रकार के शब्द प्रयोग मिलते हैं, जैसे-आता ( अ० ४४, ४५,) अप्पा (अ० ४१, ४५), आय आया (अ० २५, ४५)।
के ये चार प्रकार के रूप अत्ता, आता, आया और अप्पा प्राकृत भाषा के क्रमशः विकास के साक्षी हैं। अशोक के शिलालेखों में पूर्व में अत्ता मिलता है और पश्चिम में अत्पा मिलता है। अत्ता से आता और आया का विकास हुआ और अत्पा से अप्पा का विकास हुआ जो अलग-अलग काल में विकसित हुए।
कुछ अर्वाचीन प्रयोग जैसे-होति ( अ-९) निच्च ( अ-९), तवाओ ( अ-९), कज्ज (अ० ११) णिच्च (अ० ३१)।
___ इसिभासियाइं से अव्यय 'न' का प्रायः ण मिलता है। प्रारम्भिक 'न' के लिए अधिकतर 'ण' का प्रयोग हुआ है। मध्यवर्ती 'ज्ञ' के 'पण' का प्रयोग, मध्यवर्ती 'न्न' का 'पण' मिलता है। जबकि शुब्रिग महोदय के आचारांग के संस्करण में इस प्रवृत्ति के विपरीत दन्त्य 'न' और 'न्न' का ही प्रयोग हुआ है ।
शिलालेखीय आधारों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि 'न' और 'ज्ञ' के लिए 'ण' और 'पण' का प्रयोग प्राचीन कालीन न होकर अर्वाचीन कालीन है।
__ इसिभासियाई में अकारान्त पुलिंग प्रथमा एक वचन के लिए किसी अध्ययन में 'ए' विभक्ति तो किसी में 'ओ' विभक्ति अधिक प्रमाण में मिलती है। सप्तमी एकवचन के लिए 'ए' और 'म्मि' विभक्ति ही मिलती है। उपरोक्त अध्ययनों में कहीं पर भी 'अंसि' 'म्हि' या 'स्सि' विभक्तियाँ सप्तमी के लिए नहीं मिलती हैं जो प्राचीन प्राकृत विभक्तियाँ हैं। 'म्मि' विभक्ति काफी अर्वाचीन है । वर्धमान (अ०-२९) और महाकासव (अ० ९) नामक अध्ययनों में भी 'म्मि' विभक्ति ही मिल रही है। इन विभक्तियों को देखते हुए क्या इसका रचनाकाल परवर्ती अर्थात् आचारांग के बाद का माना जाय ?
पासिज्ज (अ०-३१) पार्श्वनाथ के अध्ययन में प्राचीन रूप मिलते हैं। इसमें मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप भी कम हैं। प्रथमा एक वचन के 'ए' विभक्ति की बहुलता है और भूतकाल के भविं (१ बार) णासी (३ बार) और आत्मन् के लिए अत्त के प्रयोग प्राचीनता के द्योतक हैं।
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दीनानाथ शर्मा
इस विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि सभी अध्ययनों में भाषा का स्वरूप एक समान नहीं है फिर भी मध्यवर्ती ध्वनि परिवर्तन की दृष्टि से इसिभासियाइं की भाषा आचारांग की भाषा से पूर्व की मालूम होती है।
इसिभासियाइं की हस्तप्रतें बहुत कम-एक या दो ही मिली हैं, जिस पर से यह संस्करण तैयार किया गया है, जबकि अर्धमागधी आगमों के प्राचीन ग्रन्थों की विभिन्न कालों की अनेक प्रतें मिलती हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जितनी अधिक मात्रा में और विभिन्न कालों में विविध लेहियों के हाथों से प्रतियाँ बनीं उतनी ही मात्रा में मूलभाषा में विकृति आती गयी। इस प्रवृत्ति के कारण इसिभासियाइं की भाषा में ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी प्राचीनता रह गयी जब कि अन्य प्राचीन आगम ग्रन्थों में मूल शब्द महाराष्ट्री प्राकृत के समान बन गये।
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नयचक्र में उद्धत आगम-पाठों की समीक्षा
जितेन्द्र शाह
द्वादशार नयचक्र एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ है । जिसके कर्ता आचार्य मल्लवादी ने (छठीं उत्तरार्ध) एवं टीकाकार आचार्य सिंहसूरि ने ( सातवीं उत्तरार्ध ) कुछ आगमों के वाक्यों को उद्धृत किया है । नयचक्र मूल एवं टीका में उद्धृत आगम पाठों की वर्तमान में प्रसिद्ध आगम पाठों से तुलना करने पर भिन्नता पाई जाती है । जिसका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत लेख में किया गया है ।
नयचक्र मूल में आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ) के पाठों को उद्धृत किया गया है । टीका में आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, नंदीसूत्र, जीवाभिगमसूत्र, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वारसूत्र आदि जैनागमों के जाक्यों को उद्धृत किया गया है । जिसमें पाठक्रमों की भिन्नता के अलावा भाषाकीय भिन्नता पाई जाती है । यद्यपि यह सत्य है कि वर्तमान काल में पाये जाने वाले आगमों के भी अनेक पाठभेद प्राप्त होते हैं तथापि यह सब पाठ-भेद प्रायः भाषाकीय परिवर्तनों के आधार पर ही है ।
जागृत, सुप्त, सुषुप्त एवं तुरीय – ये चार अवस्थाएँ इनका निपरूण करते हुए नयचक्र द्वितीय विधि अर में आचारांग के एक वाक्य को उद्धृत किया गया है, जो इस प्रकार हैसुत्ता अमुणी सया, मुणीणो सया जागरंति । जबकि वर्तमान प्राप्त आगम में --
'सुत्ता अमुणी, मुणिणो सययं जागरंति' पाठ मिलता है । उक्त दोनों पाठों की तुलना करने पर अन्तर पाया जाता है । उपलब्ध आगम पाठ में प्रथम सया पद का लोप हो गया है और दूसरे सया पद की जगह सययं पद मिलता है । इसी प्रकरण में टीकाकार सिंहसूरि ने भगवतीसूत्र का एक वाक्य उद्धृत किया है, यथा
णो सुत्ते सुमिणं पासति, सुत्त जागरियाए वट्टमाणे सुमिणं पासति । वर्तमान काल में प्राप्त व्याख्याप्रज्ञप्ति में -
'गोयमा ! नो सुत्ते सुविणं पासइ, नो जागरे सुविणं पासइ, सुत्त जागरे सुविणं पासइ ।' - यह पाठ मिलता है जिसमें 'नो जागरे सुविणं पासइ', पाठ अधिक है तथा नयचक्रके वट्टमाणे पद का लोप हो गया है । सुत्त जागरियाए के स्थान पर सुत्तजागरे पाठ मिलता है । सुमिण के स्थान पर सुविण मिलता है । आचार्य हेमचन्द्र ने आठवें अध्याय में इ: स्वप्नादौ १ / ४६ सूत्र से स्वप्न आदि शब्दों के आदि अ का इ करके सिविण या सिमिण शब्द को साधा है उक्त सूत्र की वृत्ति में 'आ उकारोऽपि' कहकर सुमिण शब्द को आर्ष माना है । इससे यह सिद्ध होता है कि सुमिण शब्द अधिक प्राचीन है । पासति के स्थान पर पासइ पाठ मिलता है जिसमें क्रिया प्रत्यय ति में से 'त' का लोप पाया जाता है । व्यंजन का लोप होना महाराष्ट्रीय प्राकृत का लक्षण है, न कि प्राचीन प्राकृत का ।
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जितेन्द्र शाह
प्रथम विधि नय के अन्त में आचार्य मल्लवादी ने भगवतीसूत्र का 'आता भन्ते ! णाणे अण्णाणे ? गोतमा ! णाणे नियमा आता, आता पुण सिया णाणे सिया अण्णाणे ।'-यह पाठ उद्धत किया गया है।
वर्तमान उपलक्ष्य भगवतीसूत्र में -
'आया भंते ! नाणे अन्नाणे ? णोयमा ! आया सिय नाणे, सिय अन्नाणे, नाणे पुण नियम आया।'-यह पाठ मिलता है जिसमें पाठ-क्रम में भिन्नता पाई जाती है। आता के स्थान पर आया पद ही प्रसिद्ध हुआ है जिसमें मध्यवर्ती 'त' का लोप हुआ है। संस्कृत आत्मन् शब्द का अशोक के पूर्वी शिलालेखों में एवं पालि सुत्तनिपात में अत्ता शब्द मिलता है, वही शब्द ध्वनिपरिवर्तन के नियमों के अनुसार परवर्ती काल में 'आता' बनता है और भी बाद परवर्ती काल में अर्थात् महाराष्ट्रीय प्राकृत काल में मध्यवर्ती 'त' का लोप होकर 'य' बनता है अर्थात् आता का आया होता है। वर्तमान में आत्मन् के अत्ता, अत्पा, आता, अप्पा, आया शब्द मिलते हैं जो निश्चित ही अलग-अलग काल के हैं अतः यह स्पष्ट है कि आता और आया भी भिन्न काल के हैं।
चतुर्थ विधि नियम अर के अन्त में आचारांग का 'जे एगणामे से बहुणामे' (१-३-४ ) यह पाठ उद्ध त है। वर्तमान में 'जे एगं णामे से बहु णामे जे बहुंणामे से एगं णामे'-यह पाठ मिलता है।
टीकाकार सिंहभूरि ने स्वभावादि का निरूपण करते हुए यथोक्तं (पृ० २९ ) और 'तथा' कह कर के दो आगमपाठों को उद्ध त किया है-यथा ।
_ 'किमिदं भंते ! अत्थित्ति वुच्चति ? गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव' एवं 'किमिदं भंते ! समएत्ति वुच्चति ? गोतमा ! जीवा चेव अजीवा चेव ।' किन्तु वर्तमान में उपलब्ध आगम में उपरोक्त पाठ नहीं पाया जाता । यद्यपि मुनि जंबूविजयजी ने दोनों पाठ स्थानांग सूत्र के माने हैं और टिप्पण में वर्तमान स्थानांग सूत्र से तुलना भी की है जैसा कि - जदत्थि णं लोगे तं चेव सव्वं दुपओआरं, तं जहा-जीवच्चेव, अजीवच्चेव...
स्थानांगसूत्र २.१.५७.५९ तथा-समयाति वा आवलियाति वा जीवाति वा अजीवाति वा पच्चइ ।
स्थानांगसूत्र २.४.९५ इस प्रकार अन्य कई पाठ हैं जिनमें पाठ भेद या क्रम भेद पाया जाता है। अतः यह सिद्ध होता है कि ग्रन्थकार एवं टीकाकार के सामने कोई अन्य आगम पाठ या परंपरा मौजूद रही होगी।
भाषाकीय दृष्टि से देखा जाय तो नयचक्र एवं टीका में 'य' श्रुति वाले शब्द का प्रयोग अत्यल्प है। आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के आधार पर असंयुक्त, अनादि क, ग, च, ज, त,द,प,य, व का प्रायः लोप होता है और लोप होने के बाद शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर य श्रुति होती है जो महाराष्ट्रीय प्राकृत का लक्षण है और ऐसा करने पर भाषा का स्वरूप बदल जाता है एवं रचनाकाल में भी अन्तर मानना पड़ता है । नयचक्र में उद्ध त आगम पाठ में 'य' श्रुति वाले पाठ अल्प ही हैं जैसा कि गौतम शब्द के लिए केवल एक या दो स्थल को छोड़कर सभी जगह पर गोतम शब्द का ही प्रयोग प्राप्त होता है जब कि उपलब्ध आगम में प्रायः
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नयचक्र में उद्धृत आगम-पाठों की समीक्षा गोयम शब्द ही पाया जाता है। आत्मा के लिए आता प्रयोग मिलता है तथा पासति, वुच्चति, कतो आदि पद प्राप्त होते हैं जिनमें मध्यवर्ती त का कहीं भी लोप नहीं हुआ है। जब कि वर्तमान उपलब्ध आगम पाठों में आया, पासइ, वुच्चइ, कओ आदि पाठ मिलते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि नयचक्र में उद्धत आगम पाठों की भाषा प्राचीन है। उपलब्ध आगम में कालक्रम से भाषाकीय परिवर्त
उपलब्ध आगम की भी कई प्रतियाँ उपलब्ध हैं तथा अनेक प्रतियों का उपयोग करके आगमों का संपादन आज भी हो रहा है तथापि यह आश्चर्य की बात है कि जहाँ प्राचीन पाठ मिलते भी हैं वहाँ भी प्राचीन पाठ या शब्दों को टिप्पण में रखा जाता है और परंपरागत पाठ को ही मूल में रखा जाता है। अतः यह आवश्यक है कि प्राचीनतम पाण्डुलिपियों एवं प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध आगम पाठों के आधार पर आगम की भाषा का निर्धारण करके एक नियमावली या सूची तैयार की जाय जो कि आगम को वास्तविक स्वरूप प्रदान करने में सहायक हो। आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगम पाठों को निर्धारित करने के लिए एक सूची बनाई थी जो आज उपलब्ध नहीं है। संभव है कि उनके संग्रह में वह सूची हो। उस सूची को प्राप्त करके तथा भाषा वैज्ञानिक संशोधन के आधार पर नई सूची तैयार हो सके तो भविष्य में शुद्ध संस्करण सुलभ हो पाएगा।
नयनचक्र में उद्धत आगमपाठ (१) ३.७ एवं दुवालसंगं गणिपिडगं दव्वतो एगं पुरिसं पडुच्च सादि यं सपज्जवसियं अणेगे
पुरिसे पडुच्च अणादियं अपज्जवसियं। खेत्ततो भरतेखेत्ते पडुच्च सादियं सपज्जवसियं, महाबिदेहे पडुच्च अणादियं अपज्जवसियं । कालओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणीओ पडुच्च सादियं सपज्जवसियं, णो उस्सप्पिणिअवसप्पिणीओ पडुच्च अणादियं अपज्जवसियं । [ भावओ ] जे जदा जिणपण्णत्ता भावा
इत्यादिना सादियं सपज्जवसितमेव [ नन्दि सू० ४२] (२) इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं सासया असासता ? गोतमा ! सिया
सासया सिया असासया ? से केणठेणं भंते ! एवं वुच्च इसिया सासया सिया असासयत्ति ? गोतमा ! दव्वट्ठताए सासता वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसप
ज्जवेहिं फासपज्जवेहिं संठाणपज्जवेहिं असासता [ जीवाभि० सू० ३/१/७८ ] (३) ११५.४ आता भंते ! णाणे, अण्णाणे ? गोतमा ! णाणे णियमा आता, आता पुण
सिया णाणे सिया अण्णाणे [ भगवती सू० १२/१०/४६८ ] (४) १७९.१० से किं भावपरमाणू ? भावपरमाणू वण्णवंते गंधवंते रसवंते फासवंते
[ भगवती सू० २०/५/६०० ] (५) १८३.६ सुत्ता अमुणी सया, मुणीणो सया जागरंति [ आचाराङ्ग १/३/१] (६) १८३.२४ णो सुत्ते सुमिणं पासति, सुत्तजागरियाए वट्टमाणे पासति [भगवती सू०
१६/५/५७७ ] (७) १८६.१९ पुवि भंते ! कुक्कुणी पच्छा अंडए ? पुवि अंडए पच्छा कुक्कुणी ? ३६२.१० रोहा जा सा कुक्कुडी सा कतो? अंडगातो ! जे से अंडए से कतो? कुक्कु
डीतो। एवं रोहा ! पुवि पि एते पच्छा वि एते, दो वि एते सासता भावा अणाणुपुव्वी एसा रोहत्ति [ भगवती सू० १/६/५३ ]
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जितेन्द्र शाह
१७ सव्वजीवाणं भंते ! एक्कमेक्कस्स मातत्ताए पित्तिताए भाविताए भज्जत्ताए पुत्तत्ताए धीतित्ताए ? गोतमा ! असति अदुवा अणंतखुत्तो।
[भगवती सू० १२.७.४५८ ] १८९.२४ एकोऽप्यहमनेकोऽप्यहम् [भगवती सू० १८.१०.६४७] १९०.७ अक्खरस्स अणंतभागो णिच्चुग्घाडितओ सव्वजीवाणं [ नन्दि सू० ४२]
तव्याख्यानिदर्शनं च [ तथा भाष्येऽपि ] इति ५५९ तम्पृष्ठे । तं पि जदि आवरिज्जिज्ज तेण जीवो अजीवयं पावे । सुठ्ठ वि मेहसमुदये होइ पभा
चंदसुराणं ॥ (नंदिसू. ४२) २१८.१९ केई णिमित्ता तहिया भवंति केसि च तं विप्पडिएत्ति णाणं ।
[सूत्रकृताङ्ग १२.१० ] २२८.५ किमिदं भंते ! अत्थित्ति वुच्चति ? गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव, किमिदं भंते ! समएत्ति वुच्चति ? गोतमा जीवा चेव अजीवा चेव ॥
[स्थानांग सू० ] २४५.१ किं भवं एके भवं, दुवे भवं, अक्खुए भवं, अव्वए भवं, अवट्ठिए भवं,
अणेकभूतभव्वभविए भवं ? सोमिला ! एके वि अहं दुवि वि अहं अक्खुए वि अहं अव्वए वि अहं अवट्ठिते वि अहं अणेकभूतभव्वभविए वि अहं
[ भगवती सू० १८.१०.६४७] २७७.२६ ते च्चेव ते पोग्गला सुब्भिगंधत्ताए परिणमंति ते चेव ते पोग्गला दुब्भिगंधत्ताए
परिणमंति [ ज्ञाताधर्म ] ३३४.३ दुविहा पण्णवणा पणत्ता जीवपण्णवणा अजीवपण्णवणा च-किमिदं
भंते ! लोएत्ति पवुच्चति ? गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव, एवं
रयणप्पभा जाव ईसी पब्भारा समयावलियादि [ प्रज्ञा १.१. ] ३७५. जे एकणामे से बहुणामे [ आचा० सू० १.३.४ ] ४०७.१८ परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं एयति वेयति चलति फंदति खोभति खुभति तं तं भावं परिणमति ? हंता गोतमा ! तदेव जाव परिणमति
[भगवती सू० ५.७.२१२ ] ४१५.२ अत्थित्तं अत्थिते परिणमति [ भगवती सू० १.३ ३२] ४१४ २४ एक्केक्को य सतविधो सत्त णयसया हवंति ते चेवं [आव० नि० २२६ ] ४६९ १२ अगणिरूपिता अगणिपरिणामिता अगणिसरीरेति वत्तव्वं सिया
[भगवती सू० ५.२.१८१ ] ५५०१४ एक्केक्को य सतविधो सत्त णयसता हवंति एवं तु।
बितियो वि अ आदेसो पंच णयसता हवंतेवं ॥ [ आव० नि० ७५९ ] ५५०.२ आता भंते ! पोग्गले, णो आता ? गोतमा ! सिया आता परमाणु पोग्गला
सिया णो आता । से केणठेण भंते! एवं वुच्चति-सिया आता परमाणुपोग्गले सिया णो आता ? गोतमा ! अप्पणो आदिट्टे आता परस्स आदिद्रुणो आता [भगवती सू० १२.१०.४६९ ]
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नयचक्र में उद्धृत आगम- पाठों को समीक्षा
१. 'दव्वत्तो' साइअं
२. 'अणाइयं' 'खेत्तओ' साइयं' अणाइयं, साइअं अणाईयं, जया, साइयं,
३. आया भंते ! नाणे, अन्नाणे ? गोयमा ! आया सिय नाणे सिय अन्नाणे, नाणे पुण नियमं आया ।
आत्मन् — शब्द अशोक के पूर्वी शिलालेखों में अत्ता; पालि-ग्रन्थ सुत्तनिपात में अत्ताशब्द ही ध्वनिपरिवर्तन के नियमों के अनुसार परवर्तीकाल में आता बनता है और भी बाद के परवर्ती काल अर्थात् महाराष्ट्री प्राकृत काल में मध्यवर्ती त का लोप होकर य बनता है अर्थात् आता का आया होता है ।
गिरनार - अत्पा, अप्पा
आगम के अत्ता, आता, अप्पा, आया चारों शब्दों का समय अलग-अलग है, अप्पा बाद में आया है ।
४. कइविहे णं भंते ! परमाणुपोग्गले पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे परमाणुपोग्गले पण्णत्ते । तं जहा - दव्वपरमाणु, खेत्तपरमाणु कालपरमाणु, भावपरमाणु । ५. सुत्ता अमुणी मुणिणो सययं जागरंति ।
६ इ: स्वप्नादौ १.४६,
स्वप्न इत्येवमादिषु आदेरस्य इत्वं भवति, सिविणो, सिमिणो, आर्षे उकारोप- सुमिणो,
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महाराष्ट्री प्राकृत में मूल 'य' वर्ण का अभाव
डा० सुदर्शन लाल जैन - प्राकृत वैयाकरणों ने संस्कृत के शब्दों को मूल मानकर प्राकृत भाषा का अनुशासन किया है। महाराष्ट्री प्राकृत में संस्कृत के मूलवर्ण 'य' का अभाव है क्योंकि संस्कृत शब्दों में जहाँ भी 'य' वर्ण आता है उसका सामान्यरूप से-आदि वर्ण होने पर 'ज' हो जाता है, संयुक्तावस्था में तथा दो स्वरों के मध्य में होने पर लोप हो जाता है । साहित्यिक महाराष्ट्री प्राकृत में जहाँ कहीं भी 'य' वर्ण दिखलाई देता है वह मूल संस्कृत का 'य' नहीं है अपितु लुप्त व्यञ्जन के स्थान पर होने वाली लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' ध्वनि ( श्रुति = श्रुतिसुखकर ) है। इसकी पुष्टि प्राकृत-व्याकरण के नियमों से तथा प्राचीन लेखों से होती है। महाराष्ट्री प्राकृत में वर्ण-लोप सर्वाधिक हुआ है जिससे कहीं-कहीं स्वर ही स्वर रह गए हैं।
मूल संस्कृत के 'य' वर्ण में होने वाले परिवर्तन निम्न हैं१. पदादि 'य' का 'ज' होता है। जैसे—यशः>जसो, युग्मम् > जुग्गं, यमः>जमो; याति> जाइ, यथा>जहा, यौवनम्>जोव्वणं । ‘पदादि में न होने पर 'ज' नहीं होता' इसके उदाहरण के रूप में आचार्य हेमचन्द्र अपनी वृत्ति में अवयवः>अवयवो और विनयः>विणओ इन दो उदाहरणों को प्रस्तुत करते हैं। यहाँ 'विनय' के 'य' का लोप स्पष्ट है जो आगे के नियम से ( दो स्वरों के मध्य होने से ) हुआ है। अवयवों में जो 'य' दिखलाई पड़ रहा है वह वस्तुतः 'य' श्रुति वाला 'य' है जो 'य' लोप होने पर हुआ है । अतः इसका रूप 'अअअओ' भी होता है । यहाँ दो स्वरों के मध्यवर्ती 'य' लोप में तथा 'य' श्रुति में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं है।
यहीं आचार्य हेमचन्द्र बहुलाधिकार से सोपसर्ग अनादि पद में भी 'य' के 'ज' का विधान भी करते हैं । जैसे-संयमः>संजमो, संयोगः>संजोगो, अपयशः>अवजसो । वररुचि ने भी इस संदर्भ में अयशः>अजसो यह उदाहरण दिया है। हेमचन्द्र आगे इसका प्रतिषेध करते हुए (सोपसर्ग 'य' का 'ज' नहीं होता) प्रयोगः>पओओ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिसमें 'य' का
हआ है। यहीं पर पदादि 'य' लोप का भी उदाहरण आर्षप्रयोग के रूप में दिया हैयथाख्यातम् >अहक्खायं; यथाजातम् >अहाजायं । ६ 'यष्टि' शब्दस्थित पदादि 'य'का 'ल'विधान किया गया है । जैसे--यष्टि:>लट्ठी । खड्गयष्टि और मधुयष्टि में भी य को ल हुआ है। जैसे १. आदेर्यो जः । हेम० ८.१.२४५ । वर० २. ३१ । २. हेम० ८.१.२४५ वृत्ति । ३. वही, वृत्ति । ४, वर० २.२ । ५. हेम ८.१.२४५ वृत्ति । ६. वही।
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२०
डॉ सुदर्शन लाल जैन खग्गलट्ठी, महुलट्ठी' । अन्यत्र भी 'य' का 'ज' होता है,इसके उदाहरण आगे विशेष परिवर्तन में दिखलावेंगे।
२. स्वर-मध्यवर्ती 'य' का लोपहोता है। जैसे-दयालु:>दयाल; नयनम् >नयणं (णयणं); वियोगः>विओओ । ये तीन उदाहरण हेमचन्द्र ने 'य' लोप के दिए हैं। यहाँ 'दयाल' और 'नयणं' इन दो उदाहरणों में स्थित 'य' को देखकर लगता है मानो 'य' लोप नहीं हुआ है, मूल संस्कृत का 'य' ही है, जबकि स्थिति यह है कि यहाँ दृश्यमान् 'य' लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' श्रुति वाला है जो 'य' लोप के बाद 'अ' उवृत्त स्वर के रहने पर हुआ है। इसीलिए इन दोनों उदाहरणों को हेमचन्द्र 'य' श्रुति में भी देते हैं ।
. इससे यह सिद्ध होता है कि स्वर मध्यवर्ती 'क, ग' आदि वर्गों का लोप तो प्रायः होता है परन्तु 'य' का नित्य लोप होता है यदि कोई अन्य परिवर्तन न हो। 'य' की स्थिति अन्य वर्गों से भिन्न है। संस्कृत से प्राकृत में परिवर्तित होते समय संयुक्त व्यञ्जन वर्णों के बलाबल के संदर्भ में भाषा वैज्ञानिकों ने 'य' को कमजोर वर्ण माना है। सिर्फ 'र' ही ऐसा वर्ण है जो 'य' से कमजोर बतलाया है ( ल स व य र-क्रमशः निर्बलतर )। परन्तु जब 'य' और 'र' का संयोग होता है तब वहाँ भी 'य' हट जाता है अथवा य को सम्प्रसारण (इ) हो जाता है। जैसे-भार्या>भज्जा ( भारिया ), सौन्दर्यम् >सुन्दरिअं।
इसीलिए हेमचन्द्राचार्य ने सूत्र में प्रयुक्त 'प्रायः' की व्याख्या करते हुए वृत्ति में लोपाभाव के जो उदाहरण दिए हैं उनमें 'य' लोपाभाव का एक भी उदाहरण नहीं दिया है जब कि 'ग' और 'व' के लोपाभाव के तीन-तीन उदाहरण दिए हैं तथा शेष वर्गों के लोपाभाव का एक-एक उदाहरण दिया है। वहाँ 'पयागजलं' (प्रयागजलम्) जो उदाहरण दिया गया है वह क्रमप्राप्त 'ग' लोपाभाव का उदाहरण है, न कि 'य' लोपाभाव का।
___ वररुचि ने प्रायः शब्द की व्याख्या में 'य' से सम्बंधित लोपाभाव का एक उदाहरण दिया है 'अयशः>अजसो । यहाँ 'य' का 'ज' हुआ है। वस्तुतः यह नत्र समासत पदादि वर्ण है।
३ 'य' श्रुति —'क, ग' आदि वर्गों का लोप होने पर यदि वहाँ 'अ, आ' शेष रहे तथा अवर्ण परे (पूर्व में) हो तो लुप्त व्यञ्जन के स्थान पर लघु-प्रयत्नतर 'य' श्रुति होती है। जैसे-तीर्यकरः>तित्ययरो, तित्थअरो; नगरम्>रयरं, नअरं; काचमणिः>कायमणी; रजतम्> रययं; मदनः>मयणो, म अणो; विपुलम् >वियुलं, विउलं; दयालुः>दयालू ; लावण्यम्>लायणं । यह नियम 'अ' स्वर शेष रहने पर ही लागू होता है, अन्य स्वर शेष रहने पर प्रायः नहीं प्रयुक्त होता है । जैसे-वायुः>वाऊ, राजीवम्>राईवं । कभी-कभी अवर्ण पूर्व में न रहने पर भी 'य' श्रुति होती है । जैसै-पिबति-पियइ। १. यस्यां लः । वर० २. ३२ तथा वृत्ति (भामहकृत)। हेम० ८.१.२४७ । २. कगचजतदपयवां प्रायो लुक । हेम० ८.१.१७७ । वर० २.२ । ३. अवर्णो यश्रुतिः । हेम० ८.१.१८० । ४. प्राकृत-दीपिका, पृ० १६ । ५. वर० २.२ वृत्ति । ६. हेम० ८. १. १८० ।
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महाराष्ट्री प्राकृत में मूल 'य' वर्ण का अभाव
२१
वस्तुतः यह जैनमहाराष्ट्री की विशेषता है तथा वैकल्पिक है । यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि वररुचि ने 'य' श्रुति विधायक सूत्र नहीं बनाया है । अतः उनके द्वारा प्रयुक्त उदाहरणों में एक भी 'य' वाला उदाहरण नहीं है ।
मूल 'य' और लघुप्रयत्नतर 'य' वर्ण के उच्चारण में भिन्नता रही है, अतः दोनों एक नहीं हैं । वस्तुतः यहाँ 'य' श्रुति कहने का यही तात्पर्य है 'जो सुनने में 'य' जैसा लगे, वस्तुतः 'य' न हो, संस्कृत वैयाकरणों ने इसे अधिक स्पष्ट किया है ।"
४. सम्प्रसारण - 'य' की गणना अर्धस्वरों में की जाती है । अतः कभी-कभी संयुक्त और असंयुक्त उभय अवस्थाओं में 'य' का सम्प्रसारण ( य > इ ) हो जाता है । " जैसे- चोरयति> चोरेइ ( चोर > इति > इइ = चोरेइ ), कथयति > कहेइ, व्यतिक्रान्तम् > वीइक्कतं, प्रत्यनीकम् > पडिणीयं, सौन्दर्यम् > सुन्दरिअं ।
५. संयुक्त 'य' का लोप संयुक्त 'य' का लोप होता है । प्राकृत की प्रकृति के अनुसार प्राकृत में भिन्नवर्गीय संयुक्त व्यञ्जन नहीं पाए जाते । उनमें से या तो एक का लोप करके और दूसरे का द्वित्व करके समानीकरण कर दिया जाता है या स्वरभक्ति । जैसे - लोप - मन्त्र > मन्त, शस्त्र > सत्थ । स्वरभक्ति-स्मरण > सुमरण, द्वार > दुवार । यह स्वरभक्ति प्रायः अन्तःस्थ या अनुनासिक वर्णों के संयुक्त होने पर ही देखी जाती है ।
६. संयुक्त 'य' का प्रभाव - (क) यदि संयुक्त वर्ण समान बल वाले होते हैं तो पूर्ववर्ती वर्ण का लोप करके परवर्ती वर्ण का द्वित्त्व कर दिया जाता है । यदि असमान बल वाले वर्ण होते हैं तो कम बलवाले का लोप करके अन्य वर्ण का द्वित्व कर दिया जाता है । जैसे - उत्पलम् > उप्पलं, काव्यम् > कव्वं, शल्यम् > सल्लं वयस्य > वअस्स, अवश्यम् > अवस्सं, चाणक्य > चाणक्क ।
(ख) यदि लोप होने पर द्वितीय या चतुर्थ वर्ण का द्वित्त्व होता है तो पूर्ववर्ती वर्ण को क्रमशः प्रथम या तृतीय वर्ण में बदल दिया जाता है । जैसे - व्याख्यानम् > वक्खाणं, अभ्यन्तर > अब्भंतर ।
( ग ) ऊष्मादेश - ऊष्म और अन्तःस्थ वर्णों का संयोग होने पर अन्तःस्थ को ऊष्मादेश होता है (य र व श ष स इन वर्णों का लोप होने पर यदि इनके पहले या बाद में श ष स वर्ण हों तो उस सकार के आदि स्वर को द्वित्वाभाव पक्ष में दीर्घकर दिया जाता है) । जैसे— शिष्य :- सीसो,
१. व्योर्लघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य । अष्टाध्यायी ( ८.३.१८ )
पदान्तयोर्वकारयकारयोर्लघुच्चारणौ वयो वा स्तोऽशि परे । यस्योच्चारणे जिह्वाग्रोपाग्रमध्यमूलानां शैथिल्यं जायते स लघुच्चारण: । वही, भट्टोजिदीक्षितवृत्ति ।
लघुः प्रयत्नः यस्योच्चारणे स लघुप्रयत्नः । अतिशयितः लघुप्रयत्नः लघुप्रयत्नतरः । प्रयत्ने लघुतरत्वं चैषां शैथिल्यजनकत्वमेव ।
२. प्राकृत दीपिका, पृ० ८ ।
३. बलाबल का निम्न क्रम स्वीकृत है
(क) वर्ग के प्रथम चार वर्ण - सबसे अधिक बलवान् परन्तु परस्पर समान बलवाले ।
(ख) वर्ग के पञ्चम वर्ण- प्रथम चार वर्णों से कम बल वाले परन्तु परस्पर समान बल वाले ।
(ग) लस व यर - सबसे कम बल वाले तथा क्रमशः निर्बलतर |
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डा० सुदर्शन लाल जैन (घ) तालव्यादेश-त्य थ्य द्य ध्य को क्रमशः च छ ज झ आदेश होते हैं' पश्चात् त्त्वादि कार्य । जैसे—अत्यन्तम्>अच्चन्तं । प्रत्यक्षम्>पच्चक्खं, मिथ्या>मिच्छा, रथ्या> रच्छा, उद्यानम्>उज्जाणं, विद्या>विज्जा, उपाध्यायः>उवज्झाओ।
(ङ) आदि वर्ण के संयुक्त होने पर कमजोर वर्ण का लोपमात्र होता है, द्वित्त्व नहीं। यदि कमजोर वर्ण का लोप नहीं होता है तो स्वरभक्ति कर दी जाती है । जैसे-न्यायः>णायो, स्वभावः>सहावो, व्यतिकरः>बइयरो, ज्योत्स्ना>जोण्हा, त्यजति>चयइ, श्यामा>सामा, स्नेहः>सणेहो, स्यात्>सिया, ज्या>जीआ।
७. विशेष परिवर्तनः (जहाँ 'य' भिन्न-भिन्न रूपों में परिवर्तित हुआ है)
(क) य>ज्ज- उत्तरीय शब्द में, अनीय, नीय तथा कृदन्त के 'य' प्रत्यय को विकल्प से ज्ज होता है। जैसे-उत्तरीयम्>उत्तरिज्जं उत्तरीअं, करणीयम्>करणिज्जं करणीअं, यापनीयम्>जवणिज्जं जवणीअं, द्वितीयः>बिइज्जो, बीओ। तृतीयः>तइज्जो तइओ, प्रेया> पेज्जा पेआ।
(ख) य>ह-परछाईं अर्थ में छाया शब्द के 'य' को विकल्प से 'ह' होता है। जैसेवृक्षस्य छाया>वच्छस्स छाही वच्छस्स छाया। कान्ति अर्थ में नहीं हुआ । जैसे—मुखच्छाया> मुहच्छाया।
(ग) य>व, आह (डाह)--'कतिपय' शब्द के 'य' को पर्यायक्रम से 'आह' और 'व' आदेश होते हैं । जैसे- कतिपयम्>कइवाहं, कइअवं ।
(घ) य>ल'-यष्टि' के 'य' को 'ल' होता है। जैसे>यष्टि:>लट्टी
(ङ) य>त -'तुम' अर्थ में 'युष्मद्' शब्द के 'य' को 'त' होता है। जैसे-युष्मादृशः, तुम्हारिसो, युष्मदीयः-तुम्हकेरो। 'तुम' अर्थ न होने पर 'त' नहीं होगा। जैसे–युष्मदस्मत्प्रकरणम् (अमुक-तमुक से सम्बन्धित) >जुम्ह-दम्ह-पयरणं ।।
(च) य>स्वरसहित लोप--'कालायस' के 'य' का विकल्प से अकारसहित लोप होता है। जैसे—कालायसम्>कालासं, कालाअसं, किसलयम्>किसलं किसलअं।
. (छ) स्त्य>ठ-'स्त्यान' के 'स्त्य' को 'ठ' विकल्प से होता है । जैसे--स्त्यानम् >ठीणं, थीणं ।
(ज) न्य>ज, ज-अभिमन्यु के 'न्य' को 'ज' 'ज' आदेश विकल्प से होते हैं।' जैसे-अहिमज्जू, अहिमञ्जू अहिमन्नु । १. अ-त्यथ्यद्यां च छ ज । २. वोत्तरीयानीय-तीयकृद्ये ज्यः । हेम० ८. १. २४८ । ३. छायायां हो कान्तौ वा । हेम० ८. १. २४९ । ४. डाह वौ कतिपये । हेम ८.१.२५० । ५. यष्ट्यां लः । वर० २.३२ तथा वृत्ति भामहकृत । हेम० ८-१-२४७ । ६. युष्मद्यर्थपरे तः । हेम. ८. १.२४६ । ७. वर ४.३ तथा वृत्ति ।। ८. स्त्यान-चतुर्थार्थे वा । हेम० ८.२.३३ । ९. अभिमन्यौ जजौ वा । हेम० ८.२.२५ ।
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महाराष्ट्री प्राकृत में मूल 'य' वर्ण का अभाव (झ) थ्य>छ-हस्व स्वर परे रहते 'थ्य' को 'छ' होता है। जैसे-~-पथ्यम्>पच्छं, मिथ्या>मिच्छा, सामर्थ्यम् > सामच्छं (सामत्थं भी होता है)।
(ञ) थ्य->च-आर्ष प्राकृत में थ्य को च होता है। तथ्यम्> तच्चं ।
(ट) य्य, र्य द्या>ज्ज-य्य, र्य और द्य को 'ज्ज' होता है । जैसे-जय्य>जज्जो, शय्या> सेज्जा, भार्या>भज्जा (भारिआ), कार्यम् > कज्जं, पर्यायः>पज्जाओ सूर्यः>सज्जो, मर्यादा> मज्जाया, मद्यम मज्जं, वेद्यः>वेज्जो, द्यतिः>जई. द्योतः>जोओ।
(ठ) र्य>र (जापवाद)- ब्रह्मचर्य, तूर्य, सौन्दर्य और शौण्डीर्य के 'य' को 'र' होता है। जैसे-ब्रह्मचर्यम् >बह्मचेरं तूर्यम् >तूरं, सौन्दर्यम् >सुन्देरं (सुन्दरिअं), शौण्डीर्यम्>सोण्डीरं । ['एत' परे रहते-पर्यन्तः>पेरन्तो (पज्जन्तो)]
(ड) र्य>रं-धैर्य के र्य' को 'रं' विकल्प से होता है। जैसे>धैर्यम्-धीरं, धिज्जं । [एत परे रहते-आश्चर्यम>अच्छेरं]
(ढ) र्य> रिअ, अर, रिज्ज, रीअ-आश्चर्य शब्द में अकार परे रहते ‘र्य' को 'रिअ' आदि आदेश होते हैं। जैसे-अच्छरिअं, अच्छअरं, अच्छरिज्जं, अच्छरीअं ।
(ण) र्य>ल्ल–पर्यस्त, पर्याण और सौकुमार्य शब्दों के र्य' को 'ल्ल' होता है। जैसेपर्यस्तम्>पल्लट्ट पल्लत्थं; पर्याणम् >पल्लाणं; सौकुमार्यम् >सोअमल्लं। (पल्यङ्क>पल्लङ्क पलिअंक ये भिन्न-प्रक्रिया के उदाहरण हैं)।
(त) ध्य, ह्य>झ' । जैसे-- ध्यानम् >झाणं, उपाध्यायः>उवज्झाओ, बध्यते>वज्झए, स्वाध्यायः>सज्झाओ, मह्यम्, मज्झं, गुह्यम् >गुज्झं, नह्यति>णज्झइ, सह्यम् >सज्झं, अनुग्राह्या>अणु गेज्झा।
उपसंहार-इस तरह हम देखते है कि महाराष्ट्री प्राकृत में मूल 'य' वर्ण का अभाव है उसमें लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' श्रुतिरूप से जो 'य' वर्ण दिखलाई देता है वह जैन महाराष्ट्री का परवर्ती प्रभाव है। यह 'य' श्रुति वस्तुतः मूल 'य' वर्ण नहीं है अपितु तत्सदश सुनाई पड़नेवाली भिन्न ध्वनि है जिसे लघुप्रयत्नोच्चारित श्रुति कहा गया है और जो 'अ' उवृत्तस्वर (लुप्त व्यञ्जन वाला स्वर) के स्थान पर होती है। संस्कृत वैयाकरण पाणिनि आदि ने भी 'य' और लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' में भेद किया है।
जिन संस्कृत शब्दों में 'य' वर्ण पाया जाता है वे महाराष्ट्री प्राकृत में परिवर्तित होते समय 'य'-विहीन हो जाते हैं । पदादि में, पदान्त में तथा संयुक्तावस्था में तो 'य' वर्ण दिखलाई १. ह्रस्वात् थ्य-श्च-त्स-प्सामनिश्चले। हेम० ८.२.२१ तथा वृत्ति। सामोत्सुकोत्सवे वा ।
हेम० ८.२.२२ । २. वही। ३. द्यय्यर्यां जः । हेम० ८.२.२४ । ४. ब्रह्मचर्य-तुर्य-सौन्दर्य-शौण्डीयें यों रः। हेम० ८.२.६३ । एत: पर्यन्ते । हेम० ८.२.६५ . ५. धैर्य वा । हेम० ८.२.६४ । आश्चर्ये । हेम० ८.२.६६ । ६. अतो रिआर-रिज्ज-रीअं। हेम० ८.२.६७ । ७. पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्ये ल्ल: । हेम० ८.२.६८ । ८. साध्वस ध्य-ह्यां झः । हेम० ८.२.२६ ।
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डा० सुदर्शन लाल जैन
ही नहीं पड़ता है । यदि कहीं दिखलाई देता भी है तो वह दो स्वरों के मध्य में, वह भी अवर्ण परे अवर्ण स्वर के साथ जहाँ 'य' श्रुति हो सकती है । अतः शंका ऐसे स्थलों पर ही अवशिष्ट रहती है । इस संदर्भ में निम्न हेतुओं से उस शंका का निवारण कर लेना चाहिए
(१) हेमचन्द्र ने स्वरमध्यवर्ती 'य' लोप के जो दो उदाहरण ( दयालू और नयणं) दिए हैं उनमें 'य' विद्यमान है जो वहाँ 'य' लोप के बाद पुनः होने वाली 'य' श्रुति का द्योतक है, मूल यकार का नहीं ।
(२) हेमचन्द्र 'प्राय: ' की व्याख्या करते समय 'य' लोपाभाव का एक भी उदाहरण नहीं देते जबकि 'कग' आदि के लोपाभाव के उदाहरण देते हैं ।
(३) वररुचि ने जो 'य' लोपाभाव का उदाहरण दिया है वहाँ भी य>ज में परिवर्तित हो गया है ।
(४) वररुचि ने महाराष्ट्री प्राकृत में न तो 'य' श्रुति का विधान किया है और न 'य' युक्त किसी पद को उदाहरण के रूप में अपने ग्रन्थ में कहीं दिया है। हेमचन्द्र जहाँ 'य' श्रुति का प्रयोग करते हैं वहाँ वररुचि उद्वृत्त 'अ' का प्रयोग करते हैं । हेमचन्द्र से वररुचि पूर्ववर्ती हैं । 'य' श्रुति बाद का विकास है । अतः 'य' का नित्य लोप होना चाहिए ।
(५) संस्कृत व्याकरण में भी लघुप्रयत्नोच्चारित 'य' का उल्लेख मिलता है जिससे 'य' श्रुति की मूल 'य' से भिन्नरूपता सिद्ध होती है ।
(६) प्राचीन महाराष्ट्री साहित्यिक भाषा में 'य' श्रुति का भी प्रयोग नहीं है । 'य' श्रुति सुखोच्चारणार्थ आई है जिसकी ध्वनि 'य' से मिलती-जुलती है, परन्तु 'य' नहीं है । अतः श्रुति शब्द का प्रयोग उसके साथ किया गया है, "य' होता है' ऐसा नहीं कहा गया ।
(७) 'य' का नित्यलोप होता है' ऐसा न कहने का कारण है 'य' में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों को बतलाना तथा सूत्रों को लघुरूपता देना ।
(८) 'र' जो कि सबसे कमजोर वर्ण है उसके साथ संयुक्त होने पर भी 'य' या तो 'इ' स्वर में बदल जाता है या हट जाता है और 'र' रह जाता है ।
(९) समान वर्गीय वर्ण संयुक्तावस्था में
पाए जाते हैं परन्तु दो य् संयुक्त ( य् +य्) भी नहीं पाए जाते । अन्तःस्थ ल और व स्व वर्गीय वर्ण के साथ संयुक्त पाए जाते हैं ।
(१०) 'य्' के साथ कहीं भी स्वरभक्ति नहीं देखी जाती ।
इन सभी संदर्भों से सिद्ध है कि महाराष्ट्री प्राकृत में मूल संस्कृत के 'य' वर्ण का सर्वथा अभाव है । मागधी आदि प्राकृत भाषाओं की स्थिति भिन्न है । मागधी में न केवल मूल 'य' पाया जाता है अपितु वहाँ 'ज' का भी 'य' होता है ।
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जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में नारद
साध्वी प्रमोद कुमारी भारतीय ऋषियों की परम्परा में नारद एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं। नारद के सम्बन्ध में हमें जैन, बौद्ध और हिन्दू तीनों ही परम्पराओं में उल्लेख प्राप्त होते हैं। यहाँ हम जैन परम्परा में नारद का उल्लेख कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में हुआ है, इसकी चर्चा करेंगे । जैन परम्परा में नारद का उल्लेख सर्वप्रथम 'ऋषिभाषित' ( ई० पू० चौथी-तीसरी शती) में मिलता है। ऋषिभाषित में इन्हें देवनारद कहा गया है तथा इनका उल्लेख अर्हत् ऋषि के रूप में हुआ है।' परवर्ती जैन व्याख्याकारों ने ऋषिभाषित के ऋषियों को प्रत्येकबुद्ध कहा है। इस रूप में ऋषिभाषित के नारद भी एक प्रत्येक बुद्ध माने गये हैं। ऋषिभाषित की संग्रहणी गाथा में नारद को अरिष्टनेमि के तीर्थ में होने वाला प्रत्येक बुद्ध बताया गया है। इससे इतना निश्चित हो जाता है कि नारद अरिष्टनेमि और कृष्ण के समकालिक व्यक्ति हैं। इस तथ्य की पुष्टि 'ज्ञाताधर्मकथा' से भी होती है। 'ज्ञाताधर्मकथा' में यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार की गई है कि वे वासुदेवकृष्ण और बलदेवराम के प्रिय थे तथा 'प्रद्युम्न, शाम्ब' आदि यादव कुमारों के श्रद्धेय थे।' 'ज्ञाताधर्मकथा' से यह बात भी स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है कि कृष्ण और पाण्डवों के परिवारों में उनका आवागमन होता रहता था। 'ज्ञाताधर्मकथा' में नारद के पाण्डवों के परिवारों में आने और पाण्डवों द्वारा उन्हें यथायोग्य सम्मान देने के साथ-साथ इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि द्रौपदी ने इन्हें अविरत और असंयत मानकर यथोचित सम्मान नहीं दिया था, परिणामस्वरूप वह उनके रोष की भाजन बनी थी। ज्ञाताधर्मकथा में इन्हें 'कच्छल नारद' कहा गया है। जबकि ऋषिभाषित उन्हें 'देवनारद' कहता है । अतः यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या ऋषिभाषित के देवनारद और ज्ञाताधर्मकथा केकच्छुलनारद भिन्न-भिन्न हैं ? किन्तु यह मान्यता समुचित नहीं है क्योंकि ज्ञाताधर्मकथा में उल्लिखित नारद
और ऋषिभाषित में उल्लेखित नारद दोनों ही अरिष्टनेमि के युग में ही हुए हैं। अतः ये दोनों भिन्न व्यक्ति नहीं हैं। यद्यपि यह एक सुनिश्चित सत्य है कि ऋषिभाषित में उन्हें जितने सम्मानित रूप में प्रस्तुत किया गया है उतने सम्मानित रूप में ज्ञाताधर्मकथा में प्रस्तुत नहीं किया गया है । ज्ञाताधर्मकथा में हमें उनके व्यक्तित्व का एक दोहरा रूप मिलता है। एक ओर उन्हें अत्यन्त विनीत और भद्र कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उन्हें कलुषितहृदय भी कहा १. इसिभासियाई ११ २. इसिभासियाइं संग्रहणी गाथा १ ३. वही गाथा २ ४. इसिमण्डल गाथा ४२ ५ ज्ञाताधर्मकथा १।१६।१४२ ६. वही १।१६।१३९
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जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में नारद गया है। एक ओर उन्हें ब्रह्मचर्य का धारक और मध्यस्थ भाव से युक्त कहा गया तो दूसरी ओर उन्हें कोलाहल प्रिय भी कहा गया है। एक ओर उन्हें आकाश में गमन करने की शक्ति आदि अनेक विशिष्ट प्रकार की सिद्धियों से सम्पन्न बताया गया है, दूसरी ओर उन्हें कलह कराकर दूसरों के चित्त में असमाधि उत्पन्न करने वाला भी कहा गया है।'
उपर्युक्त विवरण से ऐसा लगता है कि यद्यपि ग्रंथकार एक ओर उन्हें यथोचित सम्मान प्रदान करना चाहता है, तो दूसरी ओर उनके व्यक्तित्व के धूमिल पक्ष को भी प्रकट करता है। एक ओर उन्हें ब्रह्मचर्य का धारक तथा मध्यस्थ भाव ( समभाव) से युक्त कहना तथा दुसरी ओर अविरत, असंयत, अप्रतिहत (पापकर्मा) कहना अपने आप में विरोधाभासपूर्ण है।
इन दोनों विवरणों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहाँ ऋषिभाषित साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ऊपर उठकर नारद के व्यक्तित्व को प्रस्तुत करता है, वहाँ ज्ञाताधर्मकथा में उनके प्रति साम्प्रदायिक अभिनिवेश स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। ऋषिभाषित और ज्ञाताधर्मकथा के अतिरिक्त जैन परम्परा में नारद का उल्लेख 'समवायांग' में भी मिलता है उसमें उन्हें २१ वें भावीतीर्थंकर के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यह माना गया है कि नारद का जीव आगामी उत्सर्पिणी काल में विमल नामक २१ वाँ तीर्थकर होगा । पुनः औपपातिक में ब्राह्मण संन्यासियों की आठ परम्पराओं में 'नारद' की परम्परा का उल्लेख भी है। साथ ही उसमें यह भी माना गया है कि वे शौच पर अत्यधिक बल देते थे और चारों वेद, पुरा..
दि अनेक विद्याओं के ज्ञाता थे । इसिमण्डल में भी नारद का उल्लेख है, उसमें इन्हें 'सत्य ही शौच है' नामक प्रथम अध्ययन का प्रवक्ता कहा गया है। यह संकेत ऋषिभाषित के प्रथम अध्ययन का ही सूचक है। आवश्यकचूर्णी में नारद को यज्ञदत्त और सोमयशा का पुत्र शौरीपुर का निवासी कहा गया है और इसकी समानता कच्छुल नारद से बताई गई है । ५
इस प्रकार जैन आगम साहित्य में नारद का उल्लेख 'ऋषिभाषित' 'समवायांग' 'ज्ञाताधर्मकथा' 'औपपातिक' 'ऋषिमण्डल' और 'आवश्यकचूर्णी' में उपलब्ध होता है। जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके हैं कि ज्ञाताधर्मकथा और ऋषिभाषित के नारद एक ही हैं। हमें समवायांग औपपातिक और आवश्यकचर्णी में उल्लिखित नारद भी वही लगते हैं। इस बात का प्रमाण यह है कि दोनों में उन्हें शौचधर्म का प्रतिपादक बताया गया है। पुनः समवायांग में जिस नारद का भावी तीर्थंकर के रूप में उल्लेख हुआ है वह नारद भी ऋषिभाषित में उल्लिखित नारद ही हैं। क्योंकि हम देखते हैं कि 'समवायांग' में ऋषिभाषित के ऋषियों में से भयाली, द्वैपायन, नारद, अम्बड़ और सारिपुत्र को भी भावी तीर्थङ्कर के रूप में स्वीकार किया गया है। यद्यपि यहाँ एक असंगति हमारे सामने यह आती है कि सामान्यतया प्रत्येकबुद्ध को उसी भव में सिद्ध होने वाला माना जाता है। अतः नारद को एक ओर भावी तीर्थकर मानना और दूसरी ओर प्रत्येकबुद्ध कहना अपने आप में विरोधाभास का सूचक है। परम्परागत विद्वानों को इस असंगति पर विचार करना चाहिए। १. ज्ञाताधर्मकथा १।१६।१३९ २. समवायांगसूत्र, ६६८ / गाथा ८१ ३. औपपातिकसूत्र-संन्यासियों का अधिकार सूत्र ७६ गाथा १ ४. इसिमण्डलवृत्ति, पूर्वार्द्ध, गाथा ३५ ५. आवश्यक चूर्णी भाग २ पृ० १९४
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जोइन्दु कृत अमृताशीति
सुदीप कुमार जैन आचार्य जोइन्दु को आधुनिक इतिहासवेत्ताओं एवं मनीषियों ने छठवीं शताब्दी ईस्वी के आध्यात्मिक क्रान्ति-द्रष्टा महापुरुष व अपभ्रंश के महाकवि के रूप में स्वीकार किया है। उनकी बहुश्रुत व सुनिर्णीत कृतियों-परमात्मप्रकाश (परमप्पयासु) व योगसार ( जोगसारु ) के आधार पर ये दोनों धारणायें ( काल- छठवीं शती० ई० व अपभ्रंश के कवि) सुनिश्चित की गई हैं । परन्तु उनकी अन्य दो कृतियाँ इन दोनो धारणाओं पर प्रश्नचिह्न अंकित कर रही हैं । ये दोनों कृतियाँ हैं -(१) निजात्माष्टक और (२) अमृताशीति ।
इसमें 'निजात्माष्टक' प्राकृत रचना है और 'अमृताशीति' संस्कृत में रचित है। यह इस तथ्य का द्योतक है कि जोइन्दु मात्र अपभ्रंश भाषा के ही कवि नहीं थे, अपितु अपभ्रंश के साथसाथ प्राकृत और संस्कृत पर भी उनका समान अधिकार था।
अब हम काल सम्बन्धी मान्यता पर विचार करते हैं । डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने विविध साक्ष्यों की समीक्षा कर आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शताब्दी ई०) व आचार्य पूज्यपाद (पाँचवीं शताब्दी ) के साहित्य का प्रभाव जोइन्दु पर देखते हुए इनका काल ईसा की छठी शताब्दी निर्धारित किया है। इसके विपरीत आचार्य जोइन्दु ने अपने अमृताशीति नामक ग्रन्थ में आचार्य भट्टाकलंक देव तथा आचार्य विद्यानन्दी स्वामी का नामोल्लेख करते हुए उनके ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं । ३ चूंकि इन दोनों का काल क्रमशः ६-७ वीं शती स्वीकृत किया गया है। अतः जोइन्दु के काल के विषय में पुनर्विचार अत्यन्तावश्यक है।
प्रस्तुत 'अमृताशीति' नामक ग्रन्थ आचार्य जोइन्दु की ही रचना है। इसकी पुष्टि में कतिपय प्रमाण प्राप्त होते हैं। यद्यपि डॉ० ए० एन० उपाध्ये प्रभृति विद्वानों ने इसे जोइन्दु का ग्रन्थ स्वीकार किया है; परन्तु उन्हें यह ग्रन्थ प्राप्त नहीं हो सका था। इस ग्रन्थ को आचार्य जोइन्दु कृत प्रमाणित करने वाले कुछ प्राचीन व ऐतिहासिक साक्ष्यों का विवरण इस प्रकार है
(१) नियमसार ( आ० कुन्दकुन्द ) के टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव ( ११४०-११८५ ई०) ने अपनी तात्पर्यवृत्ति टीका में अमृताशीति के १९ वें, ५५ वें, ५६ वें, ५७ वें तथा ६१ वें छन्दों को तथा 'चोक्तममृताशीतौ' एवं 'तथाचोक्तं योगीन्द्रदेवैः' कहकर उद्धृत किया है।
(२) आचार्य जोइन्दु के चारों ग्रन्थों ( परमात्मप्रकाश, योगसार, निजात्माष्टक और १. डॉ० ए० एन० उपाध्ये आदि । २. अगास से प्रकाशित परमात्मप्रकाश योगसार की भूमिका : डॉ० ए० एन० उपाध्ये । ३ अमृताशीति, छन्द क्रमांङ्क ५९ व ६८। ४. परमात्मप्रकाश-योगसार की डॉ० ए० एन० उपाध्ये की प्रस्तावना । ५ नियमसार, तात्पर्यवृति क्रमशः गाथा १०४, ४३, १८०, १२४ व १४७ की टीकाओं में उद्धृत ।
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जोइन्दु कृत अमृताशीति
अमृताशीति ) के सर्वमान्य टीकाकार मुनि बालचन्द्र ( ई० १३५० ) ने जो सिद्धान्त चक्रवर्ती नभकीर्तिदेवके शिष्य थे, इन चारों ग्रन्थों की टीकाओं के प्रारम्भ में एक ही पंक्ति दी है'श्री योगीन्द्रदेवरु प्रभाकरभट्टप्रतिबोधनार्थम्
अभिधानग्रन्थम्' ।
इससे स्पष्ट होता है कि १४ वीं शताब्दी तक यह आचार्य जोइन्दु द्वारा विरचित ग्रन्थ के रूप में सर्वमान्य था । ये वही आचार्य जोइन्दु थे जिन्होंने प्रभाकर भट्ट नामक शिष्य के अनुरोध पर ग्रन्थ की रचना की थी ।
( ३ ) अमृताशीति की प्रशस्ति में उन्होंने अपना नामोल्लेख भी किया है।
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अमृताशीति के बारे में अन्य विप्रतिपत्तियाँ
( क ) डॉ हीरालाल जैन ने 'परमात्मप्रकाश की प्रस्तावना में इसे अपभ्रंश भाषा का ग्रन्थ कहा गया है; जबकि मुझे प्राप्त इसकी एकमात्र तथा कन्नड़ ताड़पत्रीय प्रति विशुद्ध संस्कृत भाषा में निबद्ध है तथा 'नियमसार' की टीका में उद्धृत पाँचों श्लोक भी संस्कृत के ही हैं । इस स्थिति में डॉ० हीरालाल जी द्वारा इसे अपभ्रंश का ग्रंथ कहने का क्या आधार रहा है, यह अज्ञात है ।
( ख ) डॉ० हीरालाल जी ने इसे ८२ छन्दों का ग्रन्थ बताया है जबकि उपलब्ध पाण्डुलिपि में ८० छन्द ही हैं । डॉ० हीरालालजी को इस ग्रन्थ की कोई प्रति प्राप्त नहीं हुई थी, फिर पता नहीं उन्होंने किस आधार पर इसे ८२ छन्दों के परिमाण वाला कहा ।
५
(ग) पं० नाथूराम प्रेमी इसका अपरनाम 'अध्यात्मसंदोह' मानते हैं, परन्तु यह निराधार प्रतीत होता है ।
(घ) जैनेन्द्रसिद्धान्त कोशकार ने ( अध्यात्मसंदोह को ) प्राकृत का ग्रन्थ कहा है परन्तु इस मान्यता का कोई आधार नहीं दिया है ।
अपभ्रंश भाषा का ग्रन्थ मानते
(ङ) 'अमृताशीति' को जैनेन्द्रसिद्धान्तकोशकार हैं, परन्तु क्यों ? यह प्रश्न वहाँ भी अनुत्तरित ही है ।
७
विषयगत वैशिष्ट्य
'अमृताशीति' में प्रतिपादित तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन रोचक व महत्त्वपूर्ण है । इसमें कई तथ्य ऐसे प्राप्त होते हैं जो 'परमात्मप्रकाश' तथा ' योगसार' में प्रतिपादित मान्यताओं
१. अमृताशीति की कन्नड़ टीका ( मुनिबालचन्द्र कृत ) की उत्थानिका
२. अमृताशीति, छन्द ८० वाँ ।
३. परमात्मप्रकाश की प्रस्तावना, डॉ० हीरालाल जैन पृ० ११६ (जैनेन्द्र सि०को ० भाग १, पृ० १३७ ) ४. वही
५. जै० सि० को ० भाग १, पृ० ५४ । ६. वही
७. जै० सि० को ० भाग ३, पृ० ४०१ ।
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सुदीप कुमार जैन से अलग प्रमेयों का प्रतिपादन करते हैं। इस तथ्य को निम्न दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है
अ) 'पुण्य' का महत्त्व—'अमृतशीति' में आचार्य जोइन्दु ने पुण्य का महत्त्व प्रतिपादित करते हए, पुण्यात्मा होना आत्महित या धर्मलाभ के लिए आवश्यक बतलाया है', यद्यपि इसमें कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है, फिर भी यह कथन 'परमात्मप्रकाश' के उस प्रतिपादन से सर्वथा भिन्न है, जिसमें वे पुण्य को पाप के समान हेय व तुच्छ गिनाते हैं।
(ब) 'समता' का महत्त्व-वैसे तो सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में समता या साम्यभाव का बड़ा ही महत्त्व प्रतिपादित किया गया है । परन्तु परमात्मप्रकाश या योगसार में समता शब्द या इसके वाच्य को इतना महिमामंडित कहीं नहीं किया गया, जितना कि 'अमृताशीति' के १४वें से २५ वें छन्द तक प्राप्त होता है। वे 'समता' को कुलदेवता, देवी३, शरणस्थली, मैत्र्यादि की सखी' आदि अनेकों विशेषणों से छायावाद जैसी शैली में सम्बोधित करते हैं।
(स) गुरु का अति महत्त्व-जैसे परवर्ती हिन्दी रहस्यवादी साहित्य में कबीर आदि सन्तों ने गुरु-रूप को अत्यन्त गौरव प्रदान किया है, उसी प्रकार 'अमृताशीति' में भी कई स्थलों पर गुरु की अपार महिमा व अनिवार्यता प्रदर्शित की गई है। यह वर्णन देव-शास्त्र-गुरु के आत्महित में निमित्तरूप प्रतिपादन के सामान्य महत्त्व से हटकर भिन्न शैली में प्रस्तुत किया गया है।
(द) हठयोग शब्दावली-हठयोग व योगशास्त्रीय शब्दों का किंचित् प्रयोग यद्यपि 'योगसार' में भी आया है, परन्तु 'अमृताशीति' में प्रचुर मात्रा में इस शब्दावली का प्रयोग है। कई शब्द तो ऐसे भी हैं, जो कि जोइन्दु ने 'योगसार' में भी प्रयुक्त नहीं किये गये हैंयथा-स्वहंसहरिविष्टर, अर्हहिमांशु', अहंमंत्रसार", द्वैकाक्षरं, पिण्डरूपं, अनाहतं १. अमृताशीति छन्द २रे से ९ वें छन्द तक । २. वही, छन्द १९ ३. वही, छन्द १ ४. वही, छन्द २२, ५. वही, छन्द २५, ६. वही, छन्द २७ ७. योगसार दोहा ९८ ८. अमृताशीति छन्द २९ ९. वही, छन्द ३२ १०. वही, छन्द ३३ ११. वही, छन्द ३४
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जोइन्दुकृतअमृताशीति ध्वनति', बिन्दुदेव, योगनिद्रा, नालिद्वार, हृदयकमलगर्भ,५, श्रवणयुगलमूलाकाश' तथा सदद्वारसार आदि। इन शब्दों का उन्होंने प्रयोग जैन रहस्यवादी या आध्यात्मिक अर्थों व ध्यान की प्रक्रिया के सन्दर्भो में किया है। इसमें कुछ छन्द तो ऐसे हैं, जो कि विशुद्ध योगशास्त्रीय व रहस्यवादी धारा का चरमोत्कर्ष प्रस्तुत करते हैं।'
__ डॉ० नेमिचन्द जैन शास्त्री, ज्योतिषाचार्य स्वीकारते हैं कि 'जैन रहस्यवाद का निरूपण रहस्यवाद के रूप में सर्वप्रथम इन्हीं (जोइन्दु) से आरम्भ होता है। यों तो कुन्दकुन्द, वट्टकेर और शिवार्य की रचनाओं में भी रहस्यवाद के तत्त्व विद्यमान हैं, पर यथार्थतः रहस्यवाद का रूप जोइन्दु की रचनाओं में ही प्राप्त होता है। ...." इस प्रकार जोइन्दु..... ऐसे सर्वप्रथम कवि हैं जिन्होंने क्रान्तिकारी विचारों के साथ आत्मिक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा कर मोक्ष का मार्ग बतलाया है।"
__इस प्रकार निष्कर्षतः तीन बिन्दु विचारार्थ प्रस्तुत होते हैं - १. योगीन्द्र या जोइन्दु छठी शताब्दी ई० के कवि नही हैं। मेरे मन्तव्य अनुसार अकलंक व विद्यानन्दी का उल्लेख करने से इन्हें आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध व नवमी शताब्दी के
पूर्वाद्ध का कवि होना चाहिए। २. जोइन्द्र की संस्कृत भाषामयी 'अमताशीति' व प्राकृतभाषामयी 'निजात्माष्टक' कृतियों के
प्रामाणिक रूप से मिल जाने के बाद इन्हें मात्र अपभ्रंश भाषा का महाकवि कहना उचित नहीं, यह अपभ्रंश के महाकवि तो हैं ही, परन्तु प्राकृत और संस्कृत पर भी आपका समान अधिकार सिद्ध होता है। सिद्धान्त चक्रवर्ती नयकीर्तिदेव के शिष्य व अनेक ग्रन्थों के विश्रुत कन्नड़ टीकाकार मुनि बालचन्द्र के आधार पर 'अमृताशीति' व 'निजात्माष्टक'- इन दोनों ग्रन्थों को हम 'परमात्म प्रकाश' व 'योगसार' के समान ही आचार्य जोइन्दु की प्रामाणिक कृतियाँ मान सकते हैं।
- व्याख्याता, जैन दर्शन विभाग लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ
नई दिल्ली-११००१६
१. अमृताशीति, २. वही, छन्द ३८ ३. वही, छन्द ३९ ४. वही, छन्द ४० ५. वही, छन्द ४३ ६. वही, छन्द ४५ ७. वही, छन्द ४५ ८. वही, छन्द ४६, ४८, ७३ । ९. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ( खण्ड २) पृ० २५३-२५४
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शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति में प्रतिपादित जैनाचार
रूपेन्द्र कुमार पगारिया
शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति जैन श्वेताम्बर अंचलगच्छ की समाचारी एवं उनके द्वारा मान्य सिद्धान्तों को आगमानुसार सिद्ध करनेवाला प्राचीन ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का रचना समय वि० सं० १२९४ है। यह ग्रन्थ अब तक अप्रकाशित है। इसकी ताड़पत्र पर लिखी हुई चार प्रतियाँ एवं कागज पर लिखी गई कई प्रतियाँ भण्डारों में मिलती हैं। पाटण जैन ज्ञान भंडार की दो ताडपत्रीय प्रतियों में एक संघवी पाडे की ताडपत्रीय प्रति का लेखन संवत् १३०६ है। अन्य प्रतियों में लेखन समय नहीं है। मैंने इस ग्रन्थ का संशोधन, सम्पादन इसी प्रति से किया है।
इस ग्रन्थ की खास विशेषता यह है कि इसके तीन संस्करण हुए हैं। प्रथम संस्करण बृहत् शतपदिका के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ के कर्ता आ० धर्मघोषसूरि थे। इसका रचना काल वि० सं० १२६३ है। इसकी भाषा प्राकृत थी। वर्तमान में यह संस्करण अनुपलब्ध है।
__ इसका दूसरा संस्करण आ० महेन्द्रसिंहसूरि ने किया। आ० महेन्द्रसिंहसूरि आ० धर्मघोषसूरि के पट्टधर थे। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्य के द्वारा बनाया हुआ यह ग्रन्थ देखा। उन्हें लगा कि अंचलगच्छ की समाचारी एवं मान्य सिद्धान्तों को शास्त्रप्रमाणों से सिद्ध करनेवाला तथा अन्य गच्छों की समाचारी को तुलनात्मक ढंग से प्रस्तुत करनेवाला यह अनुपम ग्रन्थ है। किन्तु इसकी भाषा प्राकृत है एवं विषय विवेचन भी अति गम्भीर है अतः इसे भाव और भाषा की दृष्टि से सरल बनाना चाहिए । यही सोचकर उन्होंने आ० धर्मघोषसूरि कृत शतपदी को नूतन शैली में तथा सरल संस्कृत भाषा में तैयार किया है। उन्होंने धर्मघोष कृत शतपदी के सभी प्रश्नों को अपने ग्रन्थ में समाविष्ट किया और जो प्रश्न और उत्तर विस्तृत थे उन्हें संक्षिप्त किये और जो संक्षिप्त किन्तु उपयोगी अंश थे, उसका विस्तार कर ५२०० श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ की प्रश्नोत्तर पद्धति से तैयार किया। आ० महेन्द्रसिंहसूरि अपने समय के उच्चकोटि के विद्वान थे। इन्हें कई आगम कंठस्थ थे। वे अपने शिष्यों को बिना पुस्तक की सहायता से ही पढ़ाते थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई ग्रन्थों की रचना की थी। गुरुगुणषट्त्रिंशिका, अष्टोत्तरितीर्थमाला, स्वोपज्ञवृत्तिविचारसप्ततिका, चतुःशरण तथा आतुरप्रत्याख्यानावचूरि, शतपदी, मनस्थिरीकरणप्रकरण आदि ग्रन्थ उनकी ज्ञान गरिमा को प्रकट कर रहे हैं।
_शतपदिका का तीसरा संस्करण लघुशतपदिका के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें ५२ प्रश्न बृहत् शतपदी से लिये हैं। अपनी ओर से सात नये प्रश्नों का समावेश कर १५७० श्लोक प्रमाण में वि० सं० १४५० में महेन्द्रप्रभसूरि के पट्टधर श्री मेरुतुङ्गसूरि ने लघुशतपदिका के नाम से इस की रचना की है । इसमें सत्रहप्रकारीपूजाविचार, पुस्तकपूजाविचार,आरती-मंगलदीपविचार,
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रूपेन्द्र कुमार पगारिया मालोद्घाटन-विचार, साधु-प्रतिक्रमणविचार, इस प्रकार सात प्रश्नों का विशेष रूप से विवेचन किया है। साथ ही इसमें कुछ ऐतिहासिक घटनाओं की सूची भी दी है, जो बड़ी महत्त्व की हैं। शतपदी का सार और परिचय
शतपदी ग्रन्थ में ११७ प्रश्नों के शास्त्रीय प्रमाणों के साथ उत्तर दिये गये हैं। इन्होंने आगम, टीका, भाष्य, चूर्णि, प्रकरण आदि सौ ग्रन्थों से उद्धरण लेकर अपनी बात को प्रमाणित किया है। उनके समय में उपलब्ध किन्तु वर्तमान में अनुपलब्ध ऐसे कई ग्रन्थों के उद्धरण इस ग्रन्थ में मिलते हैं। साथ ही कई ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध भी हैं, किन्तु अप्रकाशित स्थिति में ग्रन्थ भण्डारों की शोभा में अभिवृद्धि कर रहे हैं। साथ ही इस ग्रन्थ में संवत् के साथ कई ऐतिहासिक घटनाओं की भी सूची दी गई है। इतना ही नहीं वारहवीं सदी में प्रचलित जैन सम्प्रदायों की विभिन्न ५७ मान्यताओं का भी इसमें उल्लेख किया गया है, जिससे हमें उस समय की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का पता लगता है । शतपदीकार ने मुख्यतः अपने ग्रन्थ में जिनप्रतिमा, जिनपूजा पर्व, तिथि, श्रावक एवं साधुओं के आचार एवं उनके अपवाद तथा उत्सर्गमार्गकी विस्तृत रूप से प्रश्नोत्तर पद्धति में चर्चा की है। इनके द्वारा सूचित समाचारी को पूर्णिमागच्छ, सार्धपूर्णिमागच्छ, आगमगच्छ, नाडोलगच्छ वल्लभीगच्छ के आचार्यों ने भी मान्यता दी थी। शतपदीकार ने जिन विषयों की विस्तृत रूप से चर्चा की है उनका संक्षिप्त सार यह हैप्रतिमा विषयक विचार
१. प्रतिमा सपरिकर तथा अपरिकर दोनों वंदनीय हैं। २. प्रतिमा में वस्त्रांचल करना आवश्यक है। ३. साधुओं को प्रतिमा की प्रतिष्ठा नहीं करनी चाहिए । ४. दीपपूजा, फलपूजा तथा बीजपूजा नहीं करनी चाहिए। ५. बलि नहीं चढ़ाना चाहिए। ६. तण्डूल ( चावल ) से तथा पत्र से भी पूजा हो सकती है।
पार्श्वनाथ की मूर्ति में सात फणे और सुपार्श्वनाथ की मूर्ति में पाँच फणे ही करानी
चाहिए। ८. सामान्यतः जिन पूजा त्रिसंध्या में ही करनी चाहिए। कारणवश पूजा आगे-पीछे
भी की जा सकती है।। ९. देवों की तरह ही श्रावक को भी चैत्य वन्दन करना चाहिए। १०. रात्रि में पूजा नहीं करनी चाहिए। ११ निश्राकृत चैत्य तथा अनिश्राकृतचैत्य दोनों ही वन्दनीय हैं।
जैन परम्परा में एक पक्ष ऐसा भी था जो सपरिकर प्रतिमा को ही पूजनीय मानता था। परिकर रहित प्रतिमा को पूजनीय नहीं मानता था। शतपदीकार ने शास्त्रीय प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि प्रतिमा चाहे सपरिकर हो या अपरिकर, दोनों ही वन्दनीय हैं।
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शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति में प्रतिपादित जैनाचार दिगम्बर जैन मान्यता के अनुसार वस्त्ररहित प्रतिमा ही पूजनीय है। प्रतिमा पर वस्त्र या अलंकार नहीं होना चाहिए।
शतपदीकार का कहना है कि वस्त्र एवं अलंकारों से युक्त प्रतिमा भव्य, दिव्य एवं आकर्षक लगती है। ऐसी भव्य एवं समस्त अलंकारों से विभूषित प्रतिमा के दर्शन से व्यक्ति के मन में अधिक प्रसन्नता उत्पन्न होती है । व्यक्ति जितनी अधिक प्रसन्नता का अनुभव करता है उतनी ही वह कर्म की निर्जरा अधिक करता है।
जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा श्रावक को ही करनी चाहिए साधुओं को नहीं। उस समय कई साधु तथा आचार्य स्वयं अपने हाथों से मूर्ति की प्रतिष्ठा-विधि करते थे और करवाते थे। शतपदीकार ने शास्त्रीय प्रमाणों से सिद्ध किया है कि प्रतिष्ठा में सचित्त जल, अग्नि और वनस्पति का उपयोग होता है । ये कार्य साधु समाचारी के विरुद्ध हैं अतः साधु को ऐसी सावद्य प्रवृत्ति में नहीं पड़ना चाहिए।
____साथ ही फल से, दीप से या बीज से जिन पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि फल से, दीपक जलाने से तथा बीज के सजीव होने से इसमें अनेक जीवों की हिंसा होती है। अतः इन सजीव पदार्थों से जिन पूजा नहीं करनी चाहिए।
रात्रि में जिन पूजा नहीं करनी चाहिए और पूजा के निमित्त दीप भी नहीं जलाना चाहिए और मंगल आरती भी नहीं उतारनी चाहिए। क्योंकि दीपक में अनेक त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा होती है।
चैत्यवन्दन की विविध विधियाँ जैन समाज में प्रचलित थीं और हैं। उनकी विसंगतता को हटाने के लिए और उनमें एकरूपता लाने के लिए उन्होंने कहा-राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव ने तथा जीवाभिगमसूत्र में विजयदेव ने जिस प्रकार जिन प्रतिमा के सामने चैत्यवन्दन किया वैसा ही चैत्यवन्दन श्रावक को करना चाहिए । अन्य प्रकार से नहीं।
कुछ व्यक्ति ऐसा मानते थे कि श्रावकको धर्म क्रिया करते समय मुखवस्त्रिका, रजोहरण तथा स्थापनाचार्य अवश्य रखना चाहिए। शतपदीकार ने कहा-धार्मिक क्रिया सामायिक आदि करते समय श्रावक को मुखवस्त्रिका, रजोहरण या स्थापनाचार्य अनावश्यक है। मुखवस्त्रिका तथा रजोहरण का कार्य वह उत्तरीयवस्त्र से या वस्त्र के अंचल से भी कर सकता है। श्रावक के लिए स्थापनाचार्य का विधान आगम में कहीं भी नहीं आता अतः इसका रखना निरर्थक है।
श्रावक को त्रिविध रूप से साधु की तरह ही मिथ्यात्व का परित्याग करना चाहिए। श्राद्ध, देव-देवी पूजन, बलि चढ़ाना आदि सब मिथ्यात्व है अतः इनका श्रावक को त्याग करना चाहिए।
उपधान और मालारोपण उस समय भी विशेष रूप से प्रचलित था और आज भी है। उन्होंने इस विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा --- उपधानतप और मालारोपण शास्त्र विरुद्ध है, अतः श्रावक को यह नहीं करना चाहिए तथा साधु को भी इस शास्त्रविरुद्ध विधि का विधान नहीं करना चाहिए।
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रूपेन्द्र कुमार पगारिया श्रावक को अष्टमी-पूर्णिमा जैसी तिथियों में ही पौषध करना चाहिए, अन्य दिनों में नहीं।
सामायिक का समय केवल दो ही घड़ी है। दो घड़ी से अधिक की सामायिक नहीं होती। साथ ही श्रावक को प्रातः तथा संध्या के समय ही सामायिक करनी चाहिए। दो से अधिक बार श्रावक को सामायिक नहीं करनी चाहिए।
_कुछ लोग श्रावक को सूत्र पढ़ने या पढ़ाने का निषेध करते थे। शतपदीकार ने इस विषय में थोड़ी छूट देते हुए कहा - श्रावक आवश्यक नियुक्ति, चूणि तथा सूत्रों के अलापक (ग्रथांश) पढ़ सकता है। साधु भी श्रावक को मर्यादित एवं उनके उपयोगी शास्त्र पढ़ा सकता है।
आवश्यक चूणि में बतायी गई विधि के अनुसार ही श्रावक को षडावश्यक करना चाहिए।
साधु के उपाश्रय में स्त्रियों को खड़े खड़े ही वन्दन करना चाहिए। साधु के उपाश्रय में स्त्रियों को बैठना या घुटने टेक कर वन्दन करना शास्त्र विरुद्ध है।
मूर्ति को वन्दन एक खमासमन से भी हो सकता है। श्रावक द्वादशावर्तरूप वन्दन सामान्य साधू को भी कर सकता है।
प्रायश्चित्त का विधान साधु के लिए ही है यह कथन उचित नहीं। श्रावक भी साधु की तरह अपने पापों का प्रायश्चित्त कर सकता है। पर्वतिथिविषयक विचार
तीर्थंकरों के जन्म, च्यवन, दीक्षा, ज्ञान एवं निर्वाणकल्याणक नहीं मनाने चाहिए । जो जिनकल्याणक मनाते हैं वे शास्त्र विरुद्ध कार्य करते हैं।
आसोज और चैत्र मास के अष्टाह्निक पर्व न मनाये जायें। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आषाढ़ी पूर्णिमा से ५० वें दिन ही करना चाहिए।
चातुर्मास विहार पूर्णिमा के दिन ही करना चाहिए तथा पूर्णिमा को ही पक्खी माननी चाहिए। चतुर्दशी को नहीं ।
लौकिक पंचांग नहीं मानना चाहिए। क्योंकि लौकिक पंचांग में जैन सिद्धान्तों के विरुद्ध अनेक बातें आती हैं।
अधिक मास पौष या आषाढ़ को ही मानना चाहिए। अधिक मास में 'वीसापजूषण' अर्थात् भाद्रपदसुद ५ के दिन ही पर्युषण पर्व मनाया जाय । साधु के आचार विषयक-अपवाद ।
साधु को बाँस का ही दण्डा रखना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है काष्ठ का भी रख सकते हैं।
साधु को पर्व के दिनों में ही चैत्यवन्दन करना चाहिए । प्रतिदिन वन्दन के लिए चैत्य में जाने की आवश्यकता नहीं है ।
साधु को द्रव्य स्तव करने या करवाने का शास्त्र में निषेध है (जिन भगवान् के सामने नाटक, गीत, नृत्य आदि करबाना द्रव्यस्तव है) अर्थात् द्रव्यस्तव साधु को त्रिविध विविध रूप से नहीं करना चाहिए।
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शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति में प्रतिपादित जैनाचार साधु को चैत्यवन्दन तीन श्लोकवाली स्तुति से ही करना चाहिए। क्योंकि साधु मलमलीन एवं अस्नात होते हैं अतः अल्प स्तुति करके उसे तुरन्त चैत्य से निकल जाना चाहिए। साधु को चैत्यवन्दन में कृत्रिम स्तुतियाँ अर्थात् आधुनिक साधुओं के द्वारा बनाई गई स्तुतियाँ नहीं बोलनी चाहिए।
दो से कम साधुओं को एवं तीन से कम साध्वियों को नहीं विचरना चाहिए।
चातुर्मास के पश्चात् शेष काल में भी साधु साध्वी पीढ़, फलक आदि का उपयोग कर सकते हैं।
साधु को अपने उपाश्रयों में गीत, नृत्य, वाद्यवादन आदि नहीं करवाना चाहिए। साधु तथा साध्वी को द्वार युक्त वस्ति में ही रहना चाहिए।
कुछ आचार्य दीक्षा लेने के बाद साध्वी का प्रथम लोच स्वयं अपने हाथों से करते थे। शतपदीकार ने कहा- साध्वी का लोच साध्वी को ही करना चाहिए साधुओं को नहीं; जो ऐसा करते हैं वे शास्त्र विरुद्ध करते हैं ।
साधु को हाथ-पैर आदि नहीं धोने चाहिए क्योंकि शास्त्र में साधु को हाथ पैर धोना मना है।
भिक्षा लाने के समय में ही साधु को आहार करना चाहिए। अन्य समय में नहीं । शतपदीकार ने साधुओं के आचार में निम्न अपवाद भी सूचित किये हैं।
१. साधु पुस्तक, लेखनी, स्याही तथा उनकी सुरक्षा के उपकरण रख सकते हैं। २. पात्र में लगाने के लिए यदि खंजण लेप नहीं मिलता है तो अन्य लेप भी लगा
सकते हैं। ३. साधु कारणवश स्थिर (भीत, स्तंभ) अथवा चल (पीठ, फलक) का आधार लेकर ___ बैठ सकता है। ४. यदि साधु को ऋषभकल्पनावाली वसति नहीं मिलती है तो वह अन्य वसति में भी
रह सकता हैं। ५. बाहर वर्षा वरस रही हो तो भी साधु उपाश्रय में आहार कर सकता है। ६. सूत्रार्थ पौरुषी में भी साधु धर्मदेशना दे सकता है। ७. कारणवश साधु सूत्रपौरुषी में अर्थ और अर्थपौरुषी में सूत्र पढ़ सकता है। ८. साधू मात्रक, वासत्राण घड़ा, सुई, कैंची, कर्णशोधिका, पादलेखनिका आदि आवश्यक
उपकरण अपने पास रख सकता है। ९. कारणवश साधु मासकल्प को कम या अधिक कर सकता है। १०. नीव्रोदक से भी साधु वस्त्र आदि धो सकता है । ( नीव्रोदक छत से गिरा हुआ वर्षा
का पानी।) ११. कारणवश साधु अपने निवास का द्वार बन्द कर सकता है और खोल भी सकता है। १२. कारणवश साधु पासत्थे ( शिथिलाचारी) को वन्दन कर सकता है, उनसे बातचीत
कर सकता है और उनकी वसति में निवास भी कर सकता है।
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रूपेन्द्र कुमार पगारिया १३. तुम्बे का कण्ठ सीना या उसमें डोरा बाँधना शास्त्र विरुद्ध नहीं है। १४. चूहे आदि से बचने के लिए साधु अपने वस्त्र आदि खूटी पर भी टांग सकता है। १५. कारणवश साधु अपने पास औषध अ दि भी रख सकता है। १६. कारणवश साध लेख या संदेश भेज सकता है। १७. संवत्सरी तक साधु को अवश्य लोच कर लेना चाहिए। १८. प्रसंगवश साधु मधुर, स्निग्ध और पौष्टिक आहार भी कर सकता है। १९. साधु को नैऋत्य दिशा में ही स्थंडिल जाना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है। ___ अनुकूलता न हो तो अन्य दिशा में भी स्थंडिल जा सकता है। २०. साधुओं को एकांगिक रजोहरण नहीं मिले तो अनेकाङ्गिक भी ग्रहण कर सकता है। २१. साधु तुंबे के पात्र के सिवाय अन्य आलेपित पात्र में भी भोजन कर सकता है। २२. साधु भिक्षा के लिए गाँठे लगाकर झोली बना सकता है। २३. साधु दशायुक्त वस्त्र ले सकता है किन्तु उसका उपयोग नहीं कर सकता। २४. सामान्यतः साधु, साध्वी को नहीं पढ़ा सकता, किन्तु कारणवश उन्हें पढ़ा सकता
है और आगम की वाचना भी दे सकता है। २५. कारणवश साधु प्रावरण ( कम्बल या दुशाला ) भी ओढ़ सकता है। २६. साधुओं को जैनकुलों में ही भिक्षा लेनी चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है।
साधु जैनेतर कुलों में भी भिक्षा ले सकता है। २७. बीमारी आदि कारण से साधु फलादि भी ग्रहण कर सकता है। २८. साधु को तृतीय प्रहर में ही भिक्षा के लिए जाना चाहिए, ऐसा एकान्त नियम ___ नहीं है अन्य प्रहर में भी भिक्षा के लिए जा सकता है। २९. साध्वी जिस क्षेत्र में निवास करती हो उस क्षेत्र में साधु को नहीं रहना चाहिए । ऐसा एकान्त नियम नहीं है। ३०. घर में एक से अधिक संधाडे को नहीं जाना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है। ३१. साधु को संसृष्ट हाथ से या संसष्ट कडछी आदि से ही आहार लेना चाहिए ऐसा
एकान्त नियम नहीं है। असंसृष्ट हाथ या कडछी से भी साधु आहार ग्रहण कर
सकता है। ३२. समर्थ होने पर भी यदि साधु या श्रावक पर्व दिनों में तप नहीं करता है तो वह
प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है । यह नियम बाल, वृद्ध, ग्लान आदि के लिए लागू
नहीं होता। ३३. नमोत्थुणं में 'दिवोत्ताणं सरणगईपइट्टा, नमो जिनाणं जीय भयाणं तथा 'जे
अइयासिद्धा' ये जो पाठ हैं, उन्हें नहीं बोलना चाहिए। ३४. नमोक्कार मंत्र में 'हवइ मंगलं' के स्थल में 'होइ मंगलं' ही बोलना चाहिए।
क्योंकि 'होई मंगल' यही पाठ ही प्राचीन और शुद्ध है। ३५. साधु को एक ही बार भोजन करना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है। कारण
वश वह एक से अधिक बार भी आहार कर सकता है।
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शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति में प्रतिपादित जैनाचार इसके अतिरिक्त इन्होंने निम्न बातों पर भी अपने मंतव्य लिखे हैं१. जिनाज्ञा की प्रमाणता २. आचरणा वैचित्र्य विचार ३ अशठाचरण के लक्षण तथा दृष्टान्त ४. हरिभद्रसूरि तथा अभयदेवसूरि की आचरणा विषयक अपने विचार ५. मुनिचन्द्रसूरि तथा देवसूरि की आचरणा विषयक अपने मंतव्य ६. उपदेशमाला विषयक अपने विचार ७. खरतरगच्छमत मीमांसा . दिगम्बरमत समीक्षा ९. अंचलगच्छ तथा बृहद्गच्छ की उत्पत्ति का इतिहास ।
इन सब बातों का आ० महेन्द्रसिंहसूरि ने तुलनात्मक एवं तात्त्विक रूप से विवेचन किया है। आगम, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य एवं टीकाओं का तथा प्रकरण ग्रन्थों का गहराई के साथ अध्ययन कर अपनी मान्यताओं को शास्त्र प्रमाणों से सिद्ध किया है। शतपदी में करीब सौ ग्रन्थों के नाम और उनके उद्धरण प्रस्तुत किये हैं ।
इन्होंने जिन ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं उनमें से कुछ ग्रन्थ शतपदीकार के समय मौजुद थे किन्तु वर्तमान में अनुपलब्ध हैं जैसे
१. प्रतिष्ठाकल्प ( हरिभद्रसूरि ) २. प्रतिष्ठाकल्प ( समुद्राचार्य) ३. सम्यक्त्वकुलक ( वर्द्धमानाचार्य) ४. आवश्यकमीमांसा ( चिरन्तनाचार्य ) ५. दर्शनसत्तरि ( वर्द्ध मानाचार्य) ६. आवश्यकटिप्पणक ७. योगसंग्रह ८. योगसंग्रहचूणि ९. चिरन्तन कल्पवल्ली ( ४४००० हजार श्लोक प्रमाण ग्रन्थ ) १०. यापनीयतंत्र ११. छेदसूत्र की हुण्डियाँ आदि १२. जीवाभिगमसूत्रचूर्णि उपलब्ध किन्तु अप्रकाशित ग्रन्थ ये हैं१. व्यवहारसूत्रचूणि २. पंचकल्पणि ३. महानिशीथसूत्र ( जर्मनी में प्रकाशित ) ४. पाक्षिकचूणि ५. कल्पसामान्यचूर्णि
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६. कल्प विशेषण
७. पञ्चाशकटीका आदि
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हमें इन अनुपलब्ध ग्रन्थों का पता लगाना चाहिए तथा उपलब्ध किन्तु अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रकाशित करना चाहिए ।
आचार्य महेन्द्रसिंह सूरि का समय वि० सं० १२३७ - १३०९ तक का है । इनके समय में मूर्तिपूजक समाज ८४ गच्छों में विभक्त था । ८४ गच्छों की विभिन्न मान्यताएँ उनके आचार, विचार उस समय के जैन समाज में प्रचलित थे । आचार एवं विचारभेद के कारण एक गच्छ के आचार्य दूसरे गच्छ के आचार्य के साथ वाद-विवाद करता था । एक आचार्य दूसरे आचार्य के साथ वाक्युद्ध में उतरता था । इस धार्मिक युद्ध से आचार्य महेन्द्रसिंहसूरि बड़े व्यथित थे । वे कहते हैं -हमारे संप्रदायों में सैकड़ों आचार एवं विचारों का वैचित्र्य दृष्टिगोचर होता है । सभी अपने-अपने विचारों को सत्य बताते हैं तो हमें किन विचारों को मानना चाहिए मेरी दृष्टि से जो विचार शास्त्रसम्मत हों उन्हें ही मानना चाहिए । इसी से ही समाज में शांति स्थापित सकती है ।
आ० महेन्द्रसिंह सूरि ने उस समय की ५० विभिन्न प्रचलित मान्यताएँ अपने ग्रन्थ में दी हैं । वे ये हैं
१. कोई चैत्य में निवास करता है तो दूसरा साधु चैत्य निवास को मुनि के कल्प के विरुद्ध मानकर श्रावकों के लिए बनाई गई वसति में ही निवास करता है ।
२. कोई नमोक्कार मंत्र में "हवइ मंगलं " बोलता है तो दूसरा " होइ मंगलं " ।
३ कोई चैत्यवन्दन में " नमः श्री वर्द्धमानाय नमः तीर्थेभ्यः, नमः प्रवचनाय नमः सिद्धेभ्यः " ऐसे चार पद बोलता है, कोई एक ही पद बोलता है, तो कोई एक भी पद नहीं बोलता ।
४. कोई नमस्कार मंत्र का उपधान मानते हैं, तो कई उपधान को शास्त्रविरुद्ध कहकर उसका निषेध करते हैं ।
५. एक अपने हाथ से मालारोपण करते हैं । कोई दूसरों के हाथों से मालारोपण करवाते हैं । तीसरा पक्ष मालारोपण को ही शास्त्र के प्रतिकूल मानकर उसका निषेध करता है ।
६. एक पक्ष प्रतिक्रमण में "आयरिय उवज्झाए" आदि गाथाएँ बोलता है । दूसरा पक्ष नहीं बोलता |
७. एक पक्ष साध्वी का प्रथम लोच गुरु द्वारा ही होना चाहिए -- ऐसा मानता है, तो दूसरा पक्ष साध्वी का लोच साध्वी को ही करना चाहिए ऐसा मानता है ।
८. एक पक्ष जिन स्नान पञ्चामृत से मानता है दूसरा पक्ष गन्धोदक से ।
९. एक पक्ष श्रावक का "शिखाबन्ध" मानता है तो दूसरा पक्ष कलशाभिमंत्र करना मानता है । तीसरा पक्ष दोनों बातों को नहीं मानता ।
१०. एक पक्ष जिन प्रतिमा को रथ में रखकर छत्र, चंवर के साथ गाँव में दिग्पालों की पूजा करता है । बलि फेंकता है । तो दूसरा पक्ष इन का निषेध करता है ।
घुमाता है, सब बातों
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शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति में प्रतिपादित जैनाचार ११ एक पक्ष प्रत्येक प्रत्याख्यान में "वोसिरामि" ऐसा बोलता है। दूसरा पक्ष प्रत्याख्यान ___ के अन्त में 'वोसिरामि' ऐसा शब्द बोलता है। १२ एक पक्ष प्रत्याख्यान में “विगईओ पच्चक्खामि" ऐसा पाठ बोलता है तो दूसरा पक्ष
"विगईओ से सियाओ पच्चक्खामि" ऐसा पाठ बोलता है। १३. एक पक्ष एक परिकर में एक ही जिन बिम्ब बनाना मानता है तो दूसरा पक्ष एक
ही परिकर में २४ तीर्थङ्कर, त्रिबिम्ब, पंचतीर्थी, सत्तरिसयपट्ट (१७० तीर्थङ्कर)
बनाने का विधान करता है। १४. एक पक्ष एक गूढमण्डप तथा तीन द्वार बनाने का विधान करता है। दूसरा पक्ष
एक ही द्वार का विधान करता है। १५. एक पक्ष एक मन्दिर में एक ही प्रतिमा की स्थापना करता है, तो दूसरा पक्ष अनेक
प्रतिमा की स्थापना करता है। १६. कुछ लोग सामायिक ग्रहण करने के पूर्व श्रावक को इर्यापथिक करने का विधान
करते हैं, तो दूसरे लोग सामायिक ग्रहण करने के बाद इर्यापथिक कहते हैं । १७. एक पक्ष मन्दिर के लिए कुआँ, बगीचा, तालाब, ग्राम, गोकुल तथा खेत आदि देने
या बनवाने में पाप नहीं मानता है तो दूसरा पक्ष इन प्रवृत्तियों को सावद्य प्रवृत्तियाँ
कह कर उनका निषेध करता है। १८. एक पक्ष जिनपूजा के समय श्रावक को पगड़ी रखने की बात करता है, तो
दूसरा पक्ष उत्तरीयवस्त्र का विधान करता है। १९. एक पक्ष श्रावक को तथा सौभाग्यवती स्त्री को ही वन्दन प्रतिक्रमण करने का
विधान करता है, तो दूसरा पक्ष ऐसा नहीं मानता। २०. एक पक्ष आरती को निर्माल्य मानकर एक ही आरती से अनेक जिन बिम्बों की
आरती उतारता है, तो दूसरा पक्ष प्रत्येक बिम्ब के लिए अलग-अलग आरती
उतारता है। २१. एक पक्ष उत्तरशाटिका कोई छह हाथ की, कोई पाँच हाथ की, तो कोई चार हाथ ___ की ग्रहण करता है। दूसरा पक्ष ऐसा नहीं मानता । २२. एक पक्ष खुले मुख से बात करने में पाप नहीं मानता, तो दूसरा पक्ष खुले मुख से
बोलने में पाप मानता है। २३. एक पक्ष एकपटी मुखवस्त्रिका का विधान करता है, तो दूसरा पक्ष दोपटी मुख
वस्त्रिका को मानता है। २४. एक व्यक्ति स्नात्रकाल में पर्व तिथि को ग्रहण करता है, दूसरा सूर्योदय से पर्वतिथि
को ग्रहण करता है। तीसरा पक्ष सायंकाल में प्रतिक्रमण के समय तिथिग्रहण
करता है। २५. एक पक्ष चतुर्दशी का क्षय होने पर त्रयोदशी को प्रतिक्रमण करता है, तो दूसरा पक्ष ___ पूर्णिमा को प्रतिक्रमण करता है। २६. एक पक्ष एक पटलक रखता है, तो दूसरा बिलकुल नहीं रखता। २७. एक पक्ष श्रावण या भाद्रपद का अधिक मास होने पर ४९ वें दिन पर्युषण पर्व
मानता है तो दूसरा पक्ष ६९ वें दिन पर्युषण पर्व मानता है।
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२८. एक पक्ष एक गच्छ में एक आचार्य तथा एक ही महत्तरा का होना मानता है, तो
दूसरा पक्ष अपनी सुविधा के अनुसार कई आचार्य एवं कई महत्तराओं की स्थापना करता है । पूर्णिमा गच्छवाले एक गच्छ में अनेक आचार्य मानते हैं, किन्तु एक ही
महत्तरा होने का विधान करते हैं। २९. एक पक्ष अष्टमी, चौदस, पूर्णिमा तथा अमावास्या को ही शास्त्रोक्त पर्व तिथि
मानता है तो दूसरा पक्ष द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी ऐसी पाँच
तिथि मानता है। ३०. एक पक्ष, भट्टारिका, क्षेत्रपाल और गोत्रदेव की पूजा तथा श्राद्ध आदि को मान्य
रखता है. तो दसरा पक्ष इसे मिथ्यात्व कह कर, इसका निषेध करता है। ३१. एक पक्ष पुराने वस्त्रों को ही ग्रहण करता है तो दूसरा पक्ष साधु को नूतन वस्त्र
ही ग्रहण करने का विधान करता है। ३२. एक पक्ष ग्रहण के समय स्नात्र पूजा पढ़ता है, तो दूसरा पक्ष ग्रहण के समय पूजा
आदि का निषेध करता है। ३३. एक पक्ष के साधु वर्ष में दो बार केशलुंचन करते हैं, तो कुछ साधु वर्ष में तीन बार
लोच का विधान करते हैं। ३४. एक पक्षवाले साधु श्रावकों के द्वारा उठाई जाती हुई पालखी में बैठते हैं, तो दूसरा
पक्ष उसे साध के लिए अकल्पनीय मानता है। ३५. एक पक्ष चन्दन से चरणपजा करवाता है, तो दूसरा पक्ष उसका निषेध करता है। ३६. एक पक्ष प्रणिधान दंडक की दो गाथा ही बोलता है, तो दूसरा चार गाथा बोलता है। ३७. एक शेषकाल में भी पीढ फलक आदि ग्रहण करता है, तो दूसरा उसका निषेध
करता है। ३८. एक साधु रजोहरण की दशिकाओं को लम्बी तथा पतली बनाता है, तो दूसरा पक्ष
ऐसा नहीं करता। ३९. एक पक्ष रजोहरण को एक ही बन्ध से बांधता है. तो दूसरा पक्ष दो बन्धसे
बांधता है। ४०. एक पक्ष महानिशीथ सूत्र को प्रमाणभूत मानता है तो दूसरा पक्ष महानिशीथ को
प्रमाणभूत नहीं मानता। ४१. एक पक्ष मस्तक पर कपूर डालता है, तो दूसरा उसका निषेध करता है। ४२. एक पक्ष नेपाल की कम्बल को ग्रहण करता है, तो दूसरा पक्ष नेपाल की कम्बल
को ग्रहण करना अकल्पनीय मानता है। ४३. एक पक्ष में आचार्य स्वयं जिन बिम्ब की पूजा करता है, तो दूसरा पक्ष साधुओं को
पूजा करने का निषेध करता है। ४४. एक पक्ष अक्षसमवसरण में पूजा करता है दूसरा पक्ष ऐसा नहीं मानता । ४५. एक गुरुपरम्परागत मंत्रपटकी पूजा करता है, तो दूसरा पक्ष ऐसा नहीं करता। ४६. श्रावक के पुत्र के नामकरण, विवाह आदि के अवसर पर एक पक्षवाले वासक्षेप
करते हैं. तो दूसरा पक्ष उसका निषेध करते हैं।
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शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति में प्रतिपादित जैनाचार ४७. एक पक्षवाले गद्दी पर बैठते हैं,तो दूसरा पक्ष गद्दी पर बैठना शास्त्र विरुद्ध बताते हैं। ४८. एक पक्ष ऐसा मानता है कि वेदिका में (नन्दि में) रखा हुआ सभी द्रव्य गुरु का हो ___जाता है, दूसरा पक्ष ऐसा नहीं मानता। ४९. एक पक्ष श्रावक पर अक्षत सहित वासक्षेप करता है, तो दूसरा पक्ष अक्षतरहित
वासक्षेप करता है। ५०. एक पक्ष दिन में ही बलि चढ़ाते हैं, तो दूसरा पक्ष रात्रि में भी बलि चढ़ाता है।
एक पक्ष संघ के साथ चलकर तीर्थयात्रा करते हैं, तो दूसरे पक्षवाले स्वतंत्र रूप से चलकर तीर्थ यात्रा करते हैं।
एक गच्छ में आर्याएं श्रावक के हाथ से ही वस्त्र ग्रहण करती हैं, तो दूसरे पक्ष की आर्याएं साधुओं से भी वस्त्र ग्रहण करती हैं।
___ एक पक्षवाले हरिभद्रसूरि द्वारा रचित लग्न शुद्धि के आधार से रात्रि में भी दीक्षा, प्रतिष्ठा आदि करते हैं, तो दूसरे रात्रि में दीक्षा, प्रतिष्ठा आदि का निषेध करते हैं।
एक पक्षवाले अकेली साध्वी का तथा अकेले साधु का विचरना शास्त्र विरुद्ध नहीं मानते हैं, तो दसरा पक्ष अकेली साध्वी का तथा अकेले साध का विचरना शास्त्र विरुद्ध मानते हैं।
इस प्रकार की अनेक आचरणाएँ उस समय जैन समाज में प्रचलित थीं।
इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में कई ऐतिहासिक घटनाएँ भी मिलती हैं। जैसे गिरनार पर्वत पर वस्त्ररहित प्रतिमाएँ हैं जिन्हें श्वेताम्बर भी मानते हैं। प्राचीन समय में वायड में मुनिसुव्रत भगवान् की तथा जीवन्त स्वामी की प्रतिमाएँ वस्त्रयुक्त थीं। मुनिचन्द्रसूरि साध के लिए बनाये गये उपाश्रय में नहीं रहते थे। वि० सं० १२२९ में कुमारपाल राजा ने तीर्थयात्रा संघ निकाला था। हेमचन्द्राचार्य भी उस संघ में सम्मिलित थे। उस समय हेमचन्द्राचार्य ने तथा वायड मंत्री ने देवसूरि से कुमारपाल राजा की तीर्थयात्रा संघ में सम्मिलित होने की प्रार्थना की थी। देवसूरि ने उनसे कहा-महानिशीथ सूत्र में साधु के लिए तीर्थयात्रा संघ के साथ तीर्थयात्रा करने का निषेध किया गया है। अतः हम आपके तीर्थयात्रासंघ में नहीं आ सकते ।
इस ग्रन्थ में बृहद् गच्छ ( वडगच्छ ) का इतिहास भी दिया गया है। वह इस प्रकार है
नानक गाँव में नानकगच्छ में सर्वदेवसूरि हुए। इनके गुरु चैत्यवासी थे। सर्वदेवसूरि बाल्यावस्था में बड़े बुद्धिमान् थे । इनके गुरु ने इन्हें संस्कृत, प्राकृत, न्याय आदि ग्रन्थों के साथसाथ आगम ग्रन्थों का भी अध्ययन करवाया था। इनकी प्रतिभा को देखकर गरुजी ने 'आवि और 'हातली' नामक गाँव के बीच वट वृक्ष के नीचे राख का वासक्षेप डालकर इन्हें आचार्यपद पर अधिष्ठित किया । इनका गच्छ “वडगच्छ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस गच्छ में कई प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे, अतः यह गच्छ बृहद् गच्छ कहलाया।
इन्हीं सर्वदेवसूरि की परम्परा में यशोदेव नामके उपाध्याय हो गये। उनके शिष्य आचार्य जयसिंह सूरि ने अपने नौ विद्वान् शिष्यों को चन्द्रावती नगरी में महावीर स्वामी के मन्दिर में एक ही समय में आचार्य पद पर अधिष्ठित किया। नौ आचार्यों में शान्तिसरि भी एक थे उन्होंने पिप्पलिया गच्छ की स्थापना की। देवेन्द्रसूरि नाम के आचार्य से संगम खेडिया नामक गच्छ चला । अन्य शिष्यों में चन्द्रप्रभसूरि, शीलगुणसूरि, पद्मदेवसूरि एवं भद्रेश्वरसूरि
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रूपेन्द्र कुमार पगारिया
भी थे । इन चार आचार्यों से वि० सं० ११४९ में पूनमिया गच्छ की चार शाखाएँ निकलीं । मुनिचन्द्रसूरि से देवसूरि की परम्परा चली । श्री बुद्धिसागरसूरि से श्रीमालीगच्छ निकला तथा श्री मलयचन्द्रसूरि से आशापल्ली गच्छ चला ।
श्री जयचन्द्रसूरि के शिष्य विजयचन्द्रोपाध्याय ने अपने मामा शीलगुणसूरि के साथ पूनमिया गच्छ स्वीकार किया। उन्होंने आगम ग्रन्थों का सविशेष अध्ययन किया । आ० जयचन्द्रसूरि इन्हें गच्छाचार्य के पद पर अधिष्ठित करना चाहते थे । उस समय उनके गच्छ में मालारोपण आदि अनेक शास्त्र विरुद्ध परम्पराएँ प्रचलित थीं । उन्हें शास्त्र विरुद्ध प्रवृत्तियाँ अच्छी नहीं लगती थीं, अतः उन्होंने आचार्य पद लेने से इनकार कर दिया। तब उन्हें उपाध्याय पद से विभूषित किया गया । मुनिचन्द्रसूरि एवं विजयचन्द्रोपाध्याय एक ही गुरु के शिष्य थे ।
विजयचन्द्रोपाध्याय के शिष्य यशचन्द्रगणि थे । मुनिचन्द्रसूरि के सांभोगिक रामदेव सूरि ने पावागढ़ के समीप मन्दारपुर में भगवान् पार्श्वनाथ के मन्दिर में उन्हें श्रीचन्द्र आदि श्रावकों तथा बडोदरा, खंभात आदि के संघों के समक्ष वि० सं० १२०२ में आचार्य पद पर अधिष्ठित किया और उनका नाम जयसिंह सूरि रखा ।
वि० सं० ११६९ विजयचन्द्रोपाध्याय ने विधिपक्ष की स्थापना की ।
विजयचन्द्रोपाध्याय का जन्म सं० ११३९, दीक्षा सं० ११४२, स्वर्गवास १२२६ में
हुआ था ।
श्री जयसिंहसूरि का जन्म ११७९ में, दीक्षा ११९७ में, आचार्यपद १२०२ मैं स्वर्गवास १२५८ में ।
प्रथम शतपदी के कर्ता धर्मघोषसूरि का जन्म १२०८ में, दीक्षा १२१६ में, आचार्यपद १२३४ में, स्वर्गवास १२६८ में हुआ ।
इस प्रकार शतपदिका प्रश्नोत्तर पद्धति ग्रन्थ धार्मिक सामाजिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्व का है ।
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पउमचरियं के हिन्दी अनुवाद में कतिपय त्रुटियाँ
(पूर्वार्धमात्र)
विश्वनाथ पाठक प्राध्यापक श्री शान्तिलाल म० वोरा ने प्राचीन जैन रामायण पउमचरियं का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर साहित्य की श्लाघ्य सेवा की है। प्राकृत ग्रन्थ परिषद् से मूल प्राकृत-पाठ के साथ प्रकाशित उक्त अनवाद में अनेक स्थलों पर कछ त्रटियाँ रह गई हैं। अतः उन त्रटियों का मार्जन आवश्यक है। प्रस्तुत निबन्ध में त्रुटिग्रस्त स्थलों के विवेचन के साथ-साथ संगत अर्थ-संघटन का भी प्रयास किया गया है। आशा है सुधीजन मेरे सुझावों का समुचित मूल्यांकन करेंगे।
सर्वप्रथम हम राक्षसवंशाधिकार शीर्षक प्रकरण की निम्नलिखित गाथा पर विचार करते हैं
आवत्तवियडमेहा उक्कडफुडदुग्गहा महाभागा।
तवणायवलियरयणा कया य रविरक्खससुएहिं ॥ ५॥२४८ उक्त संस्करण में इसका अनुवाद इस प्रकार दिया गया है-"आवर्त विकट नामक मेघ से युक्त विस्तीर्ण विशद एवं शत्रुओं के द्वारा दुर्ग्रह तथा किनारों से टकराने वाली पानी की लहरों में बह कर आये रत्नों से व्याप्त द्वीपों में रविराक्षस के पुत्रों ने भी सन्निवेश बसाये।" इस अनुवाद को तारकांकित कर नीचे यह पादटिप्पणी दी गई है-"मूल में 'तवणायवलियरयणा' पाठ है । इस पद का अर्थ बहुत खींच-तान करने पर भी बराबर नहीं बैठता । रविषेण ने मूल में जो भी पाठ रहा हो उसका अनुवाद 'तटतोयावलीरत्न द्वीपाः' किया है और वह सन्दर्भ के अनुरूप भी प्रतीत होता है । अतः उसी का अनुवाद यहाँ दिया गया है।' इस टिप्पणी के अनुसार अनुवादक ने मूलपाठ को ही उपेक्षित कर दिया है । उन्होंने केवल रविषेण के अनुवाद का अनुवाद देकर संन्तोष कर लिया है। अतः इस गाथा के खोये हुए वास्तविक अर्थ पर सम्यक विचार आवश्यक है।
हिन्दी अनुवादक ने आवत्तवियडमेहा' का अर्थ 'आवर्तविकट नामक मेघ से युक्त' किया है। अब प्रश्न यह है कि यदि 'आवत्तवियडमेह' का अर्थ 'आवर्त विकट नामक मेघ' है तो अनुवादक को उसी पर रुक जाना चाहिये था। 'आवर्तविकट नामक मेघ से युक्त' यह अर्थ कहाँ से आ गया। देवदत्त कहने पर देवदत्त से युक्त अर्थ व्यवहार में कहीं नहीं आता है। साथ ही साथ यदि 'आवर्त विकट' संज्ञा या विशेष्य है तब तो प्रस्तुत पद्य में सन्दर्भ लभ्य सन्निवेश पद का अभाव होने के कारण अन्य पद उसी के विशेषण हो जायेंगे। अतः उक्त अर्थ अविश्वसनीय है।
___ 'आवत्तवियडमेहा' का सीधा सा अर्थ इस प्रकार है-'आसमन्ताद् वृत्ता उत्पन्नाः विकटाः सुन्दराः मेघाः घनाः येषु' अर्थात् जिनमें चारों ओर सुन्दर मेघ उत्पन्न होते रहते थे या
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विश्वनाथ पाठक
मँडराते रहते थे। 'उक्कइफुडदुग्गहा' की व्याख्या इस प्रकार होगी-उत्कटैः प्रबलैरर्थाद् बलवद्भिः शत्रुभिः स्फुटतया दुर्ग्रहाः स्पष्टदुर्जेयाः अर्थात् प्रबल शत्रुओं के द्वारा कठिनाई से जीतने योग्य । 'तवणायवलियरयणा' इस पद में 'लिय' शब्द के अर्थ पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। इस शब्द का प्रयोग गाथासप्तशती की निम्नलिखित गाथा में उपलब्ध होता है--
थोरंसुएहिं रुण्णं सवत्तिवग्गेण पुप्फवइआए।
भुअसिहरं पइणो पेछि ऊण सिरलग्ग तुप्पलिअं ॥५२८ ॥ टीकाकार गङ्गाधर ने 'लिअ' का अर्थ इस प्रकार दिया है—“तुप्पं वर्णघतं तेन लिप्तं तुप्पलिअं।" 'प्राकृतसर्वस्व' और 'पाइअसद्दमहण्णव' भी इस अर्थ का समर्थन करते हैं । अतः 'तवणायवलियरयणा' की संस्कृत छाया 'तपनातपलिप्तरत्नाः' होगा, इसकी व्याख्या इस प्रकार होगी
_ 'तपनस्य सूर्यस्य आतपेन लिप्तानि व्याप्तानि अनुरञ्जितानि वा रत्नानि येषु' अर्थात् जिनमें सूर्य के प्रकाश से रत्न अनुरंजित होते रहते थे या चमकते रहते थे। इस सम्पूर्ण गाथा का अनुवाद यह होना चाहिये
रविराक्षस के पुत्रों ने भी ऐसे सन्निवेश बसाये जिन में चारों ओर सुन्दर मेघ उत्पन्न होते रहते थे (या छाये रहते थे) जो प्रबल शत्रुओं के द्वारा स्पष्टतया दुर्ग्राह्य थे और जिन में सूर्य की किरणों से रत्न चमकते रहते थे।
_ 'यदि तवणायवलियरयणां--इस पाठ को अशुद्ध मानें और इसके स्थान पर 'तवणीयवलियरयणा'—यह पाठ स्वीकार करें तो व्याख्या इस प्रकार करनी पड़ेगी
'तपनीयेषु सुवर्णेषु वलितानि खचितानि रत्नानि येषु । अर्थात् जिन में सुवर्णों के भीतर रत्न जड़े थे। 'दशमुखपुरी प्रवेश' नामक उद्देश में यह गाथा द्रष्टव्य है
अह रक्खसाण सेन्नं चक्कावत्तं व भामियं सहसा ।
जक्खभडेसु समत्थं दिळं चिय दहमुहेण रणे ।। ८।९९ इसका अनुवाद इस प्रकार किया गया है
"इसके अनन्तर सहसा अपने सैन्य को चक्र की भाँति घुमाकर दशमुख उसे रण भूमि में यक्ष सुभटों के समक्ष ले आया।' यह अर्थ ठीक नहीं है क्योंकि मूल पाठ में देखना' (दिठ्ठ) क्रिया प्रयुक्त है 'ले आना' नहीं। प्रसंगानुसार इसमें यक्षों के द्वारा राक्षसवाहिनी के पीड़ित हो जाने का वर्णन है । अतः इस गाथा का उपयुक्त अर्थ यह हो सकता है
अन्वय-अह दहमुहभडेण रणे जक्खभडेसु समत्थं चिय रक्खसाण सेन्नं, चक्कावत्तं व सहसा भामियं दिटुं। यहाँ 'जक्खभडेसु' में विद्यमान सप्तमी, तृतीया के अर्थ में प्रयुक्त है
द्वितीयातृतीययोः सप्तमी-हैमशब्दानुशासन ८।२।१३५ - अब सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है
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पउमचरियं के हिन्दी अनुवाद में कतिपय त्रुटियाँ 'इसके पश्चात् युद्ध में वीर दशमुख (रावण) ने यक्षभटों के द्वारा चक्र की भाँति घुमायी गई सम्पूर्ण राक्षसों की सेना को देखा।
रावण यज्ञ करते हुये मरुत से पूछता है-'तुमने कौन-सा कार्य आरम्भ किया है ? नाना प्रकार के पशु किस लिये बँधे हैं ? ये सभी बाह्मण यहाँ किसलिये आये हैं ? इसके अनन्तर यह गाथा आती है
संवत्तएण भणिओ विप्पेण किं न याणसे जन्नं ।
मरुय नरिन्देण कयं परलोयत्थे महाधम्म ॥११।७१ इसका अनुवाद इस प्रकार किया गया है
"यज्ञ का संचालन करने वाले ब्राह्मण ने कहा कि क्या तुम नहीं जानते कि मरुत राजा ने परलोक के लिये महान् धर्मप्रदायी ऐसा यह यज्ञ शुरू किया है।"
यहाँ 'संवत्तअ' का अर्थ 'यज्ञ का संचालन करने वाला' नहीं है। मरुत-यज्ञध्वंस का प्रकरण वाल्मीकि-कत रामायण में भी है। उत्तरकाण्ड के अट्ठारहवें सर्ग के अनुसार मरुत का उक्त यज्ञ बृहस्पति के भाई संवर्त ने कराया था। इस पुराण-प्रसिद्ध घटना का वर्णन रामायण में इस प्रकार है
संवर्तो नाम ब्रह्मर्षिः साक्षाद् भ्राता बृहस्पतेः ।
याजयामास धर्मज्ञः सर्वदेव गणैर्व तः । वा० रा० उ० का० १८०३ यज्ञविध्वंसक रावण से युद्ध करने के लिये समुद्यत मरुत को संवर्त ने मना कर दिया था
रणाय निर्ययौ क्रद्धः संवों मार्गमावणोत् ।
सोऽब्रवीत् स्नेहसंयुक्तं मरुतं तं महानृषिः ।। १८।१५ महाभारत के 'आश्वमेधिक पर्व' में भी संवर्त के द्वारा मरुत का यज्ञ सम्पन्न कराये जाने का सविस्तार वर्णन है। अतः प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'संवत्तअ' शब्द वाल्मीकि कृत रामायण के इसी प्रसंग से सम्बद्ध बृहस्पति के भाई संवर्त का वाचक है। 'संवट्टएण भणिओ विप्पेण' का अर्थ होगा-संवर्तक नामक ब्राह्मण के द्वारा कहा गया।
'मनोरमा परिणयन प्रकरण' में कहा गया है कि जब रावण ने अपनी पुत्री मनोरमा के विवाह का विचार किया तब मन्त्रियों ने मथुरा के राजा हरिवाहन के पुत्र मधुकुमार को कन्या देने का प्रस्ताव रखा। इसी बीच संयोगवश हरिवाहन अपने पुत्र के साथ रावण-सभा में आ पहुँचा । रावण मधुकुमार को देखकर सन्तुष्ट हो गया। इसके पश्चात् आने वाली यह गाथा देखिये
हरिवाहणस्स मंती भणइ तओ इय पहु निसामेहि ।
एयस्स सूलरयणं दिन्नं असुरेण तुटेणं ॥ १२॥६ इस गाथा का अनुवाद इस प्रकार दिया गया है-"तब हरिवाहन को मन्त्रियों ने इस प्रकार कहा-हे प्रभो ! आप सुनें । तुष्ट असुर रावण ने इस मधुकुमार को एक शूल-रत्न दिया
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विश्वनाथ पाठक
है।" यहाँ असुर का अर्थ रावण किया गया है और कहा गया है कि असुर अर्थात् रावण ने मधुकुमार को शूल-रत्न दिया था। पुनः मधुकुमार-पूर्वभव प्रकरण के प्रारम्भ में आनेवाली गाथा इस प्रकार है
एयन्तरम्मि पुच्छइ गणनाहं सेणिओ कयपणामो।
दिन्नं तिसूलरयणं केण निमित्तेण असुरेणं ।।१२।९ इसके अनुवाद में भी असुर शब्द का अर्थ रावण दिया गया है, अनुवाद द्रष्टव्य है
"इसके पश्चात् श्रेणिक ने प्रणाम करके गणनाथ गौतम से पूछा कि असुर रावण ने त्रिशूल-रत्न क्यों दिया था।"
अब विचारणीय यह है कि क्या वास्तव में रावण ने मधुकुमार को त्रिशूल दिया था ? इस प्रश्न का उत्तर 'मधुकुमार पूर्वभव' प्रकरण की निम्नलिखित कथा में विद्यमान है
'प्रभव और सुमित्र दो मित्र थे। सुमित्र की पत्नी को देखकर प्रभव मोहित हो गया। यह बात जानने पर सुमित्र ने अपनी पत्नी वनमाला को प्रभव के घर भेज दिया। इस घटना से प्रभावित होकर प्रभव ने उसे लौटा दिया तथा ग्लानिवश कृपाण से अपना शिर काटने का प्रयत्न किया, परन्तु उसी समय वहीं छिपे सुमित्र ने हाथ पकड़ लिया। समझा-बुझाकर उपशान्त किया। कालान्तर में सुमित्र ने प्रव्रज्या-ग्रहण कर लिया और वह मर कर ईशानकल्पवासी देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर हरिवाहन-पुत्र मधुकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ। उधर मिथ्यात्व-मोहित-मति प्रभव मरकर भवप्रवाह में बहता हुआ अन्त में भवनपति चमर के रूप में उत्पन्न हुआ। चमर ने अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव के मित्र सुमित्र को मधुकुमार के शरीर में पहचान लिया और पूर्वोपकार के बदले उसे त्रिशूलरत्न प्रदान किया। इसका वर्णन उसी प्रकरण में इस प्रकार आया है--
काऊण समणेधम्म सणियाणं तत्थ चेव कालगओ। जाओ भवणाहिवई चमर कुमारो महिड्ढीओ ॥ १२॥३३ अवहिविसएण मित्तं नाऊण पुराकयं च उवयारं ।
महुरायस्स य गन्तु तिसूलरयणं पणामेइ ।। १२।३४ आश्चर्य तो यह है कि उसी प्रकरण में शूल-प्राप्ति की पूरी कथा का स्पष्ट उल्लेख होने पर भी अनुवादक ने चमर के द्वारा मधुकुमार को शूल दिये जाने की घटना पर ध्यान नहीं दिया और रावण द्वारा त्रिशूल दिये जाने की कल्पना कर ली । हो सकता है, उन्होंने असुर को राक्षस का पर्याय समझने की भूल की हो । वस्तुतः दोनों भिन्न-भिन्न जातियाँ हैं। वेदों में असुर शब्द देव-वाचक है । अमरकोश में असुरों और राक्षसों को पृथक्-पृथक् श्रेणियों में स्थान दिया गया है। पाइयसद्दमहण्णव में असुर का अर्थ भवनपति देव लिखा है। पउमचरियं में चमर के लिये भवनपति और असुर दोनों शब्दों के प्रयोग मिलते हैं क्योंकि असुर शब्द देव वाचकहै । कविराज स्वयंभूवदेव ने अपभ्रंश महाकाव्य पउमचरियं में चमर को अमर (देव) कहा है
१. अनुवादक ने यहाँ 'समण' का अर्थ श्रावक किया है।
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पउमचरियं के हिन्दी अनुवाद में कतिपय त्रुटियाँ
जसु चमरें अमरें दिण्णु वरु । सूलाउह सयलाउहपवरु
यहाँ भी चमर के द्वारा मधुकुमार को त्रिशूल प्रदान करने का वर्णन है । अत: 'असुर रावण ने मधुकुमार को शूल रत्न दिया था।' अनुवादक का यह कथन भ्रामक है । इसके अतिरिक्त 'हरिवाहणस्स मंती भणइ, इसका अर्थ भी ठीक नहीं है क्योंकि इस में रावण के मंत्रियों द्वारा हरिवाहन को कोई बात नहीं बतायी गयी है बल्कि हरिवाहन का ही मन्त्री रावण को अपने राजकुमार की योग्यता से परिचित करा रहा है । इस प्रकार उद्धृत गाथा का पूरा अनुवाद अशुद्ध है, अतः इसका संशोधन होना चाहिये ।
वज्रकर्ण उपाख्यान में लिखा है कि राम और लक्ष्मण क्रमशः भ्रमण करते हुये एक तापसाश्रम में पहुँचे । आश्रम का वर्णन इस प्रकार है
नाणा संगहियफलं अकिट्टधण्णेण रुद्धपहमग्गं । उम्बरफणसवडाणं समिहासंघायकयपुंजं ॥ ३३॥२
इसका अनुवाद यों है - " वह आश्रम नानाविध फलों से परिपूर्ण था । उदुम्बर, पनस और बड़ के पत्तों के न हटाये जाने से उसके रास्ते रुक गये थे और उसमें इकट्ठी की हुई समिधों का ढेर लगा था ।" इस अनुवाद में 'अकिदुधपणेण रुद्धपहमग्गं' को उचित रूप से नहीं समझाया गया है। उसका अर्थ यह करना चाहिये - अकृष्टेन धान्येन रुद्धपथमार्गम् । सम्पूर्ण गाथा का शुद्ध अर्थ यह है
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उस आश्रम में नाना प्रकार के फलों का संग्रह था, वहाँ का मार्ग बिना जोते-बोये उगने वाले धान्यों से अवरुद्ध था और वहाँ गूलर, कटहल तथा बरगद की समिधाओं का ढेर
लगा था।
इसका अर्थ यों उद्यान में ठहरे हुये हैं कहूँगा ।" इस अर्थ में
।
यों समझें
तृषाकुल राम के लिये लक्ष्मण अकेले जल लेने जाते हैं । कल्याणमाल नामक राजकुमार उन्हें अपने घर ले जाता है और उनका वृत्तान्त पूछता है । लक्ष्मण कहते हैं
सो भइ विप्पउत्तो महभाया चिट्ठए वरुज्जाणे ।
जाव न तस्स उदं तं वच्चामि तओ कहिस्से हं ||३४|७
किया गया है - " उसने कहा- मेरे भाई मुझ से वियुक्त होकर उत्तम यावत् उनके पास पानी नहीं है, अतः मैं वह लेकर जाता हूँ । बाद में मैं 'जाता हूँ' के पहले 'वह लेकर' बाहर से
जोड़ना पड़ता है । अतः इसे
‘जाव' अव्यय अवधारण या निश्चय के अर्थ में प्रयुक्त है ( पाइयसद्दमहण्णव ) ।
'उदं तं' को एक साथ उदंतं पढ़िये । अब उदंतं की व्याख्या इस प्रकार कीजिये - उत् + अन्तम् = उदन्तम् । उत् का अर्थ समुच्चय है और अन्त का अर्थ है अब निकट । अब उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार कीजिये
उसने कहा- मेरे भाई वियुक्त होकर उत्तम उद्यान में ठहरे हैं और मैं निश्चय ही उनके पास जाता हूँ। उसके पश्चात् कहूँगा । ऐसा अर्थ करने पर पूर्वार्ध में स्थित 'विप्पउत्त' शब्ब
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४८
विश्वनाथ पाठक उत्तरार्ध में स्थित 'वच्चामि' क्रिया का हेतु-वाचक हो जायेगा क्योंकि लक्ष्मण के जाते ही विरही और अकेले राम को ढाढ़स मिल जायेगा। 'वियोगी राम के पास जल लेकर जाता हूँ' की अपेक्षा 'प्यासे राम के पास जल लेकर जाता हूँ' यह कहना अधिक सार्थक है क्योंकि पूर्वोक्त अनुवाद में जलानयन को ही प्राधान्य दिया गया है। मन्दोदरी सीता को रावण से प्रेम करने की सलाह देती हुई कहती है-.
जे रामलक्खणा वि हु तुज्झ हिए निययमेव उज्जुत्ता।
तेहिं वि किं कीरइ विज्जापरमेसरे रुटे ।। ४६।४० इसका अर्थ देखिये-“जिन राम और लक्ष्मण ने तुम्हारे हृदय में स्थान प्राप्त किया है वे भी विद्याधरेश रावण के रुष्ट होने पर क्या करेंगे?'' 'राम और लक्ष्मण ने तुम्हारे हृदय में स्थान प्राप्त किया है' यह उक्ति नितान्त असंगत है क्योंकि सीता के हृदय में केवल राम ने स्थान प्राप्त किया था, लक्ष्मण ने नहीं। यहाँ हिअ का अर्थ हित है और उज्जुत्त(उद्युक्त)का संलग्न (उत्+युक्त) । अतः गाथा का अर्थ इस प्रकार होना चाहिये-तुम्हारे हित (कल्याण) में निश्चय ही संलग्न जो राम और लक्ष्मण हैं उनके द्वारा भी विद्यापरमेश्वर रावण के रुष्ट होने पर क्या किया जा सकता है।
सीता के वियोग में व्यथित रावण की विक्षिप्तावस्था के वर्णन के तुरन्त बाद ही यह गाथा आती है
अच्छउ ताव दहमुहो मंतीहिं समं विहीसणो मंतं ।
काऊण समाढत्तो भाइसिणेहउज्जय मईओ ॥४६३८५ इसका यह अनुवाद है-"रावण को रहने दो-यह सोचकर भ्रातृस्नेह से उद्यत बुद्धि वाला विभीषण मन्त्रियों से परामर्श करने लगा।" परन्तु यह विभीषण के सोचने का प्रसंग नहीं है । वस्तुतः यहाँ रचनाकार विमल सूरि 'अच्छउ ताव दहमुहो (आस्तां तावद् दशमुखः) कह कर प्रकरणान्तर की अवतारणा कर रहे हैं।
खरदूषण का वध हो जाने के पश्चात् संभिन्न नामक राक्षस-मंत्री की उक्ति का उदाहरण प्रस्तुत है
सुहकम्मपहावेणं विराहिओ लक्खणस्स संगामे । सिग्धं च समणुपत्तो वहमाणो बन्धवसिणेहं ॥ ४६१८८ चलिया य इमे सव्वे कइद्धया पवणपुत्तमाईया।
काहिन्ति पक्खवायं ताणं सुग्गीवसन्निहिया ॥ ४६।८९ हिन्दी अनुवाद --"शुभकर्म के उदय से लक्ष्मण के संग्राम में बन्धुजन के स्नेह को धारण करने वाला विराधित शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचा है। सुग्रीव के पास रहने वाले हनुमान आदि ये सब चंचल कपिध्वज उसका पक्षपात करते हैं।"
- संभिन्न की उक्ति में शुभकर्म के साथ कोई सम्बन्धवाचक शब्द न होने के कारण यह अर्थ निकलता है कि राक्षसों के ही शुभ कर्मोदय से विराधित लक्ष्मण के संग्राम में
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पउमचरियं के हिन्दी अनुवाद में कतिपय त्रुटियाँ
४९ आ पहुँचा है । इस अनुवाद को पढ़ने पर ऐसा नहीं लगता कि खरदूषण का वध हो चुका है क्योंकि 'आ पहुँचा है' यह उल्लेख सूचित करता है कि अभी विराधित लक्ष्मण से मिला ही है, इस मिलन के अनन्तर घटने वाला वृत्तान्त अर्थात् खरदूषण का वध नहीं हुआ है। यहाँ है, क्रिया भ्रम उत्पन्न करती है, उसके स्थान पर 'था' होना चाहिये। प्रथम गाथा को इस प्रकार समझें । अन्वय-बन्धवसिणेहं वहमाणो विराहिओ लक्खणस्स सुहकम्मपहावेण संगामे सिग्धं समणुपत्तो । अर्थात् लक्ष्मण के शुभकर्म के प्रभाव से संग्राम में बान्धवस्नेह को धारण करता हुआ विराधित शीघ्र आ पहुंचा था। . इस अर्थ में यह ध्वनि है कि लक्ष्मण के शुभ कर्मों का उदय हो गया था कि खरदूषण के युद्ध में उनकी सहायता के लिये विराधित आ गया। नहीं तो वे क्या खरदूषण का वध कर लेते!
द्वितीय गाथा में 'काहिन्ति ताणं पक्खवायं' का अर्थ 'उसका पक्षपात करते हैं' असंगत है। 'ताणं 'बहुवचन है और 'काहिन्ति' भविष्यत्कालिक क्रिया है। अतः कथा-सूत्र को सुरक्षित रखने के लिये यह अर्थ होगा
उनका (अर्थात् राम और लक्ष्मण का) पक्षपात करेंगे। अभी सुग्रीवादि से राम का परिचय ही नहीं हुआ है। आगे सुग्रीवाख्यान पर्व आने वाला है । अतः भविष्यत्कालिक क्रिया के स्थान पर वर्तमानकालिक क्रिया रख देने पर कथा सूत्र में विसंगति उत्पन्न हो जायेगी। हनुमत्प्रस्थान पर्व की इस गाथा का भी अर्थ ठीक नहीं है
तत्तो सो सिरि भूई संपत्तो सिरिपुरं रयणचित्तं ।
पविसइ हणुयस्स सहा तावन्तं पेच्छई दूयं ॥ ४९।१ अर्थ-"तब वह सिरिभूति रत्नों से विचित्र ऐसे श्रीपुर में पहुँचा और हनुमान की सभा में प्रवेश किया।"
इस अर्थ में 'तावन्तं पेच्छई दूयं' को छोड़ ही दिया गया है। इस गाथा को समझने के लिये पहले इस प्रकार अन्वय करना होगा
तत्तो सो संपत्तो सिरि भूई रयणचित्तं सिरिपुरं पविसइ, ताव हणयस्स सहा एन्तं दूयं पेच्छइ।
अर्थात् इसके पश्चात् वह आया हुआ (सम्प्राप्त) श्रीभूति रत्नों से विचित्र श्रीपुर में प्रवेश करता है । तब हनुमान की सभा आते हुये दूत को देखती है।
यहाँ वर्तमान भूतार्थक है। यह अर्थ करने पर स्पष्ट प्रथमान्त सहा शब्द को बलात् । द्वितीयार्थक लुप्तविभक्तिक पद बनाने की क्लिष्ट कल्पना नहीं करनी पड़ेगी।
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कवि हरिराजकृत प्राकृत मलयसुंदरीचरियं
Prakrit Malayasundaricariyam of Kavi Hariraj डा० प्रेम सुमन जैन
मध्ययुगीन प्राकृत कथासाहित्य में से जो रचनाएं अब तक अप्रकाशित एवं अप्रसिद्ध हैं उनमें मलयसुन्दरीचरियं भी है। इस प्राकृत कथाग्रन्थ की तीन पाण्डुलिपियों का परिचय हमने पहले प्रस्तुत किया था ।" इसका सम्पादन कार्य करते समय भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना में हमने जो मलयसुंदरीचरियं की पाण्डुलिपि देखी है, उसका परिचय हाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । इस पाण्डुलिपि का उल्लेख डॉ० एच० डी० वेलणकर ने किया हैर एवं एच० आर० कापडिया ने भी इसको अपनी ग्रन्थसूची में स्थान दिया है । किन्तु अन्य ग्रन्थभण्डारों एवं उनकी प्रकाशित ग्रन्थ सूचियों में कवि हरिराजकृत इस मलयसुंदरीरियं की दूसरी प्रति होने की कोई सूचना प्राप्त नहीं है ।
अद्यावधि मलयसुंदरीचरियं से सम्बन्धित संस्कृत, हिन्दी, गुजराती जो अनुवादादियुक्त संस्करण प्रकाशित हुए हैं, उनकी चर्चा हमने अपने है । गतवर्ष भी इस कथा से सम्बद्ध दो हिन्दी कृतियाँ सामने आयी हैं । इस मूल प्राकृत रचना को अज्ञातकर्तृक ही माना गया है। एकमात्र पूना की इस प्रति में ही रचनाकार के रूप में कवि हरिराज की प्रशस्ति प्राप्त होती है । अतः इस विषय में अनुसन्धान आवश्यक प्रतीत होता है । कवि एवं इस पाण्डुलिपि के सम्बन्ध में अन्य विवरण देने के पूर्व इस प्रति का आदि एवं अन्तिम अंश यहाँ उद्धत है—
मलयसुंदरीचरियं (प्राकृत)
[ हरिराज, सं० १६२८ ] पूनाप्रति (१४०४ )
१. जैन, प्र ेम सुमन, 'मलयसुन्दरीचरियं की प्राकृत पाण्डुलिपियां' नामक लेख, वैशाली इन्स्टीट्यूट रिसर्च बुलेटिन नं० ४ (१९८४) में प्रकाशित, पृ० ४९-५२
२. वेलणकर, एच० डी०, जिनरत्नकोश (१९४४), पूना, पृ० ३०२ एवं ३०५
३. कापडिया, एच० आर०; डिस्क्रिप्टिव कैटलाग ऑफ मेनुस्क्रिप्ट्स, भाग १९, सेक्शन I, पार्ट II (१९७७), संख्या -१४०४
एवं जर्मन भाषा के पूर्व लेख में कर दी इन सभी कृतियों में
४. (i) धामी, मोहनलाल सी०; 'महाबल मलयासुन्दरी', अनु - मुनि दुलहराज, चूरु, १९८५ (ii) जैन रोशनलाल, मलयसुन्दरी, जयपुर (१९८७)
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कवि हरिराजकृत प्राकृत मलयसुंदरीचरियं प्रारम्भिक अंश :॥ श्री वीतरागाय नमः ।।
पणय-पयकमल सुरयण-किंनर-नरविंद नह खयर'....। ... ... ... .''पडिय, णमो णमो तुज्झ जिणइसा ॥१॥ धवलं वरसोयरे वीणाकर जासु पुत्थिया हत्थे । गायंती महुरं.. ... ... ... ... ... 'सरसइ मज्झु ॥ २॥ वीरस्स पढमगणहरु पयडो दायार-लद्धि सिद्धीए। सो गोयम् समरंतो अप्पउ कल्याणं सुहकव्वे ॥३॥ वुहिपणयण-पयकमलं पणमउ हरसेण पुव्वसुरीणं । मुढइह इय सव्वं पसाउ जिणभत्ति कयसत्ति ॥४॥ पाइय वंधे कव्वे पुव्वकयं सोइऊण अमीयं सगं ।। तो मह परिसइच्छाउ पत्तिअ कव्व-आरंभे ॥५॥ धम्म अपकित्ति-हरणं धम्म उक्किट्ठ-मंगलं भणियं ।। संसार-सारधम्म, धम्म धुअ-सिवपहे सत्थं ॥ ६ ॥ चउविहधम्माभणिउ जिणदेवेहिं चउम्महे पयडो । दाणवहोरो तह सीलं तव भावेण नामए अमलं ॥ ७ ॥ नाणं दंसण-चरण रयणत्तयं जीववोहयं हवइ। तह कहियं पि हु सम्मं नाणपहाणं विक्खइहिं ॥८॥ लोयण तइयं नाणं नाणं दीवंत मोह-रसयलं । नाणं तिहुयणसूरं नाणं अप्पाणं मल-दहणं ॥९॥ नाणं धरइ सम्म जीवं पडियं महापया मज्झे । जह सई य मलयसुंदरि वोहए गोसिलो गव्वे ॥१०॥ अत्थि इह भरहवासे पसिद्ध चंदावाइ पुरी नामे । कणय-मणि-मंदिरेहिं पायारगं तुंग-सिहरेहिं ॥ ११ ॥ दयासहिओ जहि लोए महाजणो वसइ जत्थ वरसिद्धा। इंदपुरी सारिच्छा मढजिणवरविहं अच्छरियं ॥ १२॥ सिरिवीरधवल नामे अत्थि निवो तत्थ केसरी सरिसो।
मायंग अरि-नरिंदाण जेण कुंभत्थलं दलिअं॥ १३ ॥ अंतिम अंश :
जह सीलु धवलु पाविउ मलया सई पतिसंकडे पडिओ। तिम हो भव्वयणं तुम्हं रक्खंतह सुह फलं होइ ॥ ७९३ ॥ तह तवि महावलेणं सहिओ उवसग्ग-पामियओ मुक्खो। तिम जे निचल ठाणं लहंति ते भविय संसिद्धि ॥ ७९४ ॥
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डो० प्रेम सुमन जैन जह तिवयं कीयं जेयइ-गुरुमाणि पाविओ मुक्खो। जं कुणहि भविय ते पुणो लहंति सिववास निच्छयइओ ॥ ७९५ ॥ पुवकहाअनुसरिरइयं हरीराज मलयावरचरियं ।
हेमस्स छेउ सुक्खं हेमप्पह वीरजिणचंदो ।। ७९६ ॥ साटक
सोऊणं भवपुव्वदिक्खमहिया सुरेणं वीरेणे वा । काऊणं कम्मखयं गया सिवपयं पच्छासु पउमा सुयु ॥ लद्ध णं मलयामहत्तरपयं जाइगयं सासिवं । हेमप्पहरिया कियं पडलए सुक्खं चउहिंकारा ॥ ७९७ ॥
संवत् १६२८ चेतवदि ९ सोम । पाण्डुलिपि-परिचय :
पूना भण्डार की इस प्रति में कुल २८ पृष्ठ हैं। प्रत्येक पृष्ठ पर लगभग १४ पंक्तियां हैं एवं प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४० शब्द हैं । प्रति की स्थितिअच्छी है। किन्तु भाषा की दृष्टि से प्रति काफी अशुद्ध है । संयुक्त अक्षरों को प्रायः सरल अक्षरों में ही लिखा गया है । यथा-अस्थि -- अथि, तत्थ = तथ, जत्थ= जथ, हुत्तो-हुतो, पिच्छेइ -- पिछेइ इत्यादि।
इस पाण्डुलिपि में ग्रन्थ को चार भागों में विभक्त किया गया है। मलयसुन्दरी के जन्म-वर्णन तक की कथा १३० गाथाओं तक वर्णित है। इसे प्रथम स्तवक कहा गया है।' इसके बाद उसका यौवन-वणित किया गया है। आगे ३८३ गाथाओं तक मलयसुन्दरी के पाणिग्रहण का वर्णन है। इसे द्वितीय स्तवक कहा गया है। इसके आगे की गाथाओं में ५२७ गाथा तक महाबल एवं मलयसुन्दरी के अपने नगर एवं गृह में प्रवेश करने का वर्णन है । इसे तृतीय पडल कहा गया है । अन्तिम चतुर्थ स्तवक को चतुर्थ पडल कहा गया है, जो ७९७ गाथा पर समाप्त हुआ है। इसमें मलया के शिवपद की प्राप्ति तक की कथा वर्णित है। इस तरह यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत रचना मूल प्राकृत मलयसुंदरीचरियं का संक्षिप्त रूप है। क्योंकि मूल ग्रन्थ में लगभग १३०० प्राकृत गाथाएँ हैं जबकि इसमें कुल ७९७ गाथाएँ हैं।
प्रस्तुत पाण्डुलिपि की अंतिम प्रशस्ति में इसका रचना या लेखन समय सं० १६२८ चैत वदि ९ सोमवार दिया हुआ है। इससे यह पाण्डुलिपि विशेष महत्त्व की हो गयी है। यह अलग बात है कि सं० १६२८ को रचनाकाल माना जाय या लेखनकाल ? इसका समाधान ग्रन्थकार के परिचय पर विचार करने से हो सकेगा।
१. सुश्रावकश्रीहेमराजार्थे कविहरिराजविरचिते ज्ञानरत्नउपाख्याने मलयसुन्दरीचरिते मलयसुन्दरी
जन्मवर्णनो नाम प्रथमः स्तवकः । लद्धण मलयामहत्तरपयं जाइगयं सा सिवं । हेमप्पहरिया कियं पडलए सुक्खं चउहिंकारा ॥७९७॥
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afa हरिराजकृत प्राकृत मलयसुंदरीचरियं
कवि परिचय -
इस पाण्डुलिपि में, जो चार स्तवक या पडल हैं बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं । चारों में कवि ने अपने सम्बन्ध के आधार पर प्राकृत मलयसुन्दरी के रचनाकार के होता है ।
उनमें जो पुष्पिकाएँ दी गयी हैं वे कुछ नई बातें बतायी हैं । इस सामग्री सम्बन्ध में निम्न विवरण उपलब्ध
कवि नाम - ग्रन्थकार ने स्वयं को हरिराज, कवि हरिराज, हरि कवि आदि नाम से अभिहित किया है । प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पडलं की पुष्पिका लगभग समान है । यथा
सुश्रावकश्रीहेमराजार्थे कवि हरिराजविरचिते ज्ञानरत्नोपाख्याने सुन्दरीचरिते पाणिग्रहण वण्णनो नाम द्वीती स्तवकः समाप्तः ।
इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ का कर्ता कवि हरिराज है । उसने प्रथम पुष्पिका में स्वयं को हरिराज एवं तृतीय पडल में हरी कवि भी कहा है अन्तिम प्रशस्ति में हरीराज उच्चारण है । अन्त में हेमप्रभआर्य नाम भी कवि के लिए या उसके गुरु के लिए प्रयुक्त लगता है
हेम पहरिया कियं पडलए सुक्खं चउहंकारा । गाथा ७६७। इसका अर्थ 'हेमप्रभ आर्य के द्वारा ( अथवा के लिए) इस चतुर्थ पडल में सुख का वर्णन किया गया' यदि किया जाय तो व्याकरण की दृष्टि से 'हेमप्पहरिया कियं' शुद्ध पाठ नहीं प्रतीत होता है । अन्य प्रति के मिलने पर इसका निर्णय हो सकेगा ।
मलया
मध्ययुगीन जैन साहित्य में हरिराज या हरि कवि नाम सुज्ञात नहीं रहा है । फिर भी जन ग्रन्थ भण्डारों की ग्रंथसूचियों में हरिकवि का कुछ विवरण प्राप्त है । १४ वीं शताब्दी में उत्पन्न वज्रसेन के शिष्य हरि मुनि ने 'कर्पूरप्रकर' नामक सुभाषित ग्रन्थ संस्कृत में प्रणीत किया है । इस हरिमुनि की अन्य रचना नेमचरित भी है । इनके कर्पूरकर की एक प्रति वि० सं० १६५० की उपलब्ध है ।" इस हरिमुनि को 'हरिकवि' भी कहा गया है। अतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि कर्पूरप्रकर के हरिकवि ही इस मलयसुंदरीचरियं ( प्राकृत ) के हरिकवि या हरिराज हों । प्राकृत की यह रचना भी वि० सं० १६२८ में लिखी गयी है । अतः सम्भव है १६ वीं शताब्दी के आस-पास हरिकवि या हरिराज का समय रहा हो ।
१. जे अत्थे हरिराइ गाहसरसे संखेइ वित्थारिओ । गा० १३१
२. आएसो कमलासिणी हरी कवि कीया कहा सुंदरी ।
मस्सग्गह पुवदिसि हरे से संखेचि वित्थारिया || गा० ५२९
३. पुव्वकहा अनुसरि रइयं हरीराज मलयावरचरियं । गा० ७९६
४. देसाई, एम० डी०; जैनसाहित्यनो इतिहास, पृ० ३३६ टिप्पण ३६६
५. मुनि पुण्यविजय; कैटलाग आफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैनुस्क्रिप्ट, पार्ट IV (१९६८), पृ० १५६ ६. मुनि पुण्यविजय, जैसलमेर कलेक्शन, अहमदाबाद (१९७२), पृ० २०२, २५९ एवं २६०
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डा० प्रेम सुमन जैन कविवंश परिवार
मलयसुन्दरीचरियं की प्रथम पुष्पिका में कहा गया है कि 'श्रीमाल' के विशाल निर्मल कुल में श्री हंसराज के पुत्र ( अंगत कवि ) हरिराज ने सरस गाथाओं में विस्तार को संक्षेप में प्रस्तुत किया है
श्री भाषस्य विशालवंशविमले श्री हंसराजांगजो।
जे अत्थं हरिराइ गाह-सरसे संखेइ वित्थारिओ ॥ इससे ज्ञात होता है कि कवि हरिराज श्रीमाल वंशीय हंसराज के पुत्र थे। श्रीमाल कुल जैनपरम्परा में प्रसिद्ध कुल है। एक उल्लेख के अनुसार सं० १५५० में हंसराज नामक एक श्रावक हुए थे, जिनके भाई एकादे ने षडावश्यक अवचूरि की प्रति तैयार की थी। अतः १५-१६ वीं शताब्दी में हंसराज नाम प्रचलित था।। ... कवि हरिराज ने कहा है कि ज्ञान-दर्शन-चारित्र के गुणों की निधि और शील के लिए विख्यात मलया का जो चरित है वह प्रथम जन्म लेने वाले ( बड़े भाई ) हेम के लिए सुखकारी हो ।' आगे भी कवि ने सुश्रावक श्री हेमराज के लिए इस रचना को लिखने का तीन बार उल्लेख किया है
सुश्रावक श्री हेमराजार्थ कवि हरिराज विरचिते।
इससे स्पष्ट है कि हेमराज कवि के बड़े भाई ही नहीं अपितु इस रचना के निर्माण में प्रेरणादायक भी थे। इस तरह एक ही परिवार में हंसराज (पिता), हेमराज (भ्राता) एवं हरिराज ( कवि ) का होना स्वाभाविक लगता है। तीनों की नामराशि एक है और 'राज' शब्द प्रत्येक नाम के अन्त में जुड़ा हुआ है।
यह हेमराज नाम भी १५-१६ वीं शताब्दी में प्रचलित था। बृहदनगर ( बडनगर ) में देवराज, हेमराज एवं पाटसिंह तीनों भाई श्रीमंत एवं सुश्रावक थे। देवराज ने सोमसुन्दरसूरि को सूरिपद प्रदान किया था। इस हेमराज और कवि के भ्राता सुश्रावक हेमराज में कोई सम्बन्ध बनता है या नहीं, यह अन्वेषणीय है। एक अन्य उल्लेख में पाटण के श्रीमाल कुल के हेमा का परिचय प्राप्त होता है, जिसका भाई देवो १५०८ में पातशाह महमूद के राज्य में राज्याधिकारी था। यह हेमा 'हेमराज' से सम्बन्धित नहीं हो सकता। क्योंकि इसका कुल तो श्रीमाल ही है, लेकिन पिता का नाम हंसराज न होकर मदनदेवसिंह है।
१. जैनसाहित्यनो इतिहास, पैराग्राफ ६६७ २. णाण-दसण-चरिणोगुणनिही सीलस्स विक्खातओ ।
सो मलयाचरियं सुजम्म-पढमे हेमस्स सुक्खंकरो ॥ गा० १३१ ३. जैनसाहित्यनो इतिहास, पृ० ४५३ ४. वही, पृ० ५०३, टिप्पण संख्या ४७१
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कवि हरिराजकृत प्राकृत मलयसुंदरीचरियं - इसके अतिरिक्त अंतिम प्रशस्ति में एक पंक्ति आयी है-हेमस्स देउ सुक्खं, हेमप्पह वीरजिणचंदो । गा. ७९६ । वीर जिनेन्द्र हेम एवं हेमप्रभ के लिए सुख प्रदान करें। यहाँ प्रथम हेम को हेमराज सुश्रावक माना जा सकता है। किन्तु हेमप्रभ कौन है, यह विचारणीय है। अगली गाथा में इस हेमप्रभ का उल्लेख है।' कहीं यह कवि हरिराज के गुरु का नाम तो नहीं है ? अन्य पाठभेदों की प्राप्ति से ही इस पर कुछ कहा जा सकेगा। रचना वैशिष्ट्य :
मलयसुंदरीचरियं को कवि ने पूर्वकथा के अनुसार लिखने की बात कही है। किन्तु संकेत नहीं किया कि उन्होंने प्राकृत कथा का आधार लिया है या संस्कृत कथा का। चूंकि कवि हरिराज का समय सं० १६२८ के लगभग है अतः उन्होंने अब तक रचित मलयसुंदरीकथा सम्बन्धी प्राकृत एवं संस्कृत रचनाओं का अवश्य अवलोकन किया होगा। इस समय तक गुजराती में भी मलयसुंदरीरास शीर्षक रचनायें की जा चुकी थीं। मलयसुंदरीकथा के परवर्ती किसी लेखक ने कवि हरिराज का उल्लेख या संकेत नहीं किया। इससे लगता है कि प्रस्तुत रचना अधिक प्रसिद्ध नहीं थी । कवि ने इसका अपर नाम ज्ञानरत्नउपाख्यान' भी दिया है। जयतिलकसूरि (सं० १४५६ ) ने भी अपनी रचना का यह अपर नाम दिया है।
इस कथा के नायक महाबल एवं नायिका मलयासुंदरी दोनों ही ज्ञान के रत्न थे। सम्भवतः इसी कारण उनके कथानक को 'ज्ञानरत्नोपाख्यान' नाम कवियों ने दिया है। जयतिलकसूरि एवं कवि हरिराज दोनों ने प्रारम्भ में रत्नत्रय एवं ज्ञान के महत्त्व को प्रकट किया है।
यथा-तृतीय लोचनं ज्ञानमदृष्टार्थप्रकाशनम् ।
द्वितीयं च रवेबिम्बं दृष्टेतरतमोऽपहम् ॥ ज्ञानं निष्कारणो बन्धुर्ज्ञानं मानं भवाम्बुधौ। ज्ञानं प्रस्खलतां यष्टिर्ज्ञानं दीपस्तमोभरे ॥
-जयतिलकसूरि, म० सुं० श्लोक १७-१८ लोयण तइयं नाणं नाणं दीवंतमोह-रसयलं । नाणं तिहुयणसूरं नाणं अप्पाणं मल-दहणं ।।
-हरिराज, म० सुं०च० गाथा ९ इससे प्रतीत होता है कि कवि हरिराज ने जयतिलकसूरि कृत मलयसुंदरीकथा शीर्षक संस्कृत रचना का अवलोकन कर इस प्राकृत कथा को संक्षेप में प्रस्तुत किया है। इन दोनों
१. हेमप्पहारि येण (कियं) पडलए सुक्खं चउहिंकारा ।। गा० ७९७ २. सं० १५४३ में कवि उदयधर्म का 'मलयसुन्दरीरास' एवं सं० १५८० में चारुचन्द्र का 'महाबल मलय
सुन्दरीरास' की कई प्रतियां प्राप्त हैं। ३. शर्मा, डा० ईश्वरानन्द; 'कवि जिनहर्षकृत मलयसुन्दरी चरित्र एक पर्यवेक्षण' नामक लेख, मरुधरकेशर
अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ३५२-३६१ ४. जैसलमेरकलेक्शन-सं० मूनि पूण्यविजय, पृ० २००, रावीं पोथी में संख्या १७५ की प्रति
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डा० प्रेम सुमन जैन
रचनाओं के अन्तःसाक्ष्य से स्थिति अधिक स्पष्ट हो सकेगी कि इस प्राकृत रचना पर पूर्ववर्ती कवियों का कितना प्रभाव है।
__ कवि हरिराज के अनुसार उन्होंने सरस्वती का आदेश मानकर इस रचना का प्रणयन किया है और मलया सती का चरित्र अच्छे छन्दों ( पद्यों) में प्राकृत में कहा गया है। शील के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए, सज्जनों और प्रियजनों के संयोगजन्य आनन्द हेतु सुश्रावक श्री हेमराज के लिए उनके आग्रह पर अपनी बुद्धि से कवि ने इसकी रचना की यद्यपि कवि ने प्राकृत भाषा में कथा लिखने का संकल्प किया है। किन्तु कई स्थानों पर उन्होंने संस्कृत के प्रयोग द्वारा कथानक को आगे बढ़ाया है । यथा
विक्रीता भूरिद्रव्येण तेन सा पि महासती। वस्त्ररंजनकारेण क्रीता निःकरुणेन हि ॥ ५५४ ॥
एवं
रतिं न लभते क्वापि लटुंती निसि भूतले ।
संदिष्टो दुष्टसर्पण निग्रतेन कुतोऽपि सा ॥ ६१३ ॥३ संस्कृत का प्रयोग सूक्तियों आदि के लिए भी किया गया है । यथा
वरं मृत्यु न शीलस्य भंगो येनाक्षतं व्रतम् ।
देवत्वं लभते वा नरकं च क्षतं व्रतः ।। ४७८॥ तथा
सतीनां शीलविध्वंसः हतो लोकेऽत्र निश्चितम् ।
अकीर्ति कुरुते काम तीव्रदुःखं ददाति च ।। ५८० ॥ ग्रन्थ की भाषा पर गुजराती आदि क्षेत्रीय भाषाओं का भी प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। कवि ने स्वयं ऐसे पद्यों को 'दोहडा' कहा है। महासती मलया के शील पर संकट आने के प्रसंग में कवि उस पर कुदृष्टि रखने वाले को लक्ष्य कर कहता है--
परि विय पिक्खिय जे पुरिससुरयसुहं इच्छंति।। ते रावण दुक्खं निव फल पचक्ख लहंति ।। ५८३ ॥
भदंतो मलयासईय चरित्रं सुछंद-पाइक्कए। अप्पाणे बहीमाण विय पडलं योहावणमेवाणिय ।। श्री हेमग्गह-कारण हरिकवि सीलस्स माहप्पड,
चाहे सज्जण-संगमे पियजणेमेलं च आणंदणे ॥३८५।। २. मलयसुंदरीचरियं (पूना पाण्डुलिपि), पत्र पृष्ठ ३९ ३. वही, पत्र पृष्ठ ४४ ४. वही, पत्र पृष्ठ ४२ ५. वही,
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कवि हरिराजकृत प्राकृत मलयसुंदरीचरियं
५७
जब मलया और महाबल का बहुत दिनों के बाद संयोग हुआ तो उन्हें अतिशय आनन्द हुआ । कवि कहता है कि प्रियजनों के मिलाप का आनन्द जिनेन्द्र के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं
जानता
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वल्लह जणमेलावउ जं सुह हिमडइ होइ ।
तिहि पमाणु जिणवर कहइ अवर न जाणइ कोइ ।। ६५४ ॥
मलयसुंदरीचरियं की प्राकृत की तीन पाण्डुलिपियों का परिचय हमने जो पहले लेख में दिया था, उससे पूना की यह प्रति भिन्न है । बम्बई, आगरा, लींबड़ी, जैसलमेर और सूरत के ग्रन्थभण्डारों में इस कथा की जिस प्राकृत पाण्डुलिपियों के होने का संकेत है, वे अभी प्राप्त नहीं की जा सकी हैं । उन्हें देखने पर ही ज्ञात होगा कि पूना की प्रति से उनका कोई सम्बन्ध है या नहीं । यदि पूना की यह प्रति अकेली भी हो तो भी इसका कई दृष्टियों से महत्त्व है | मलयसुंदरीचरियं के सम्पादन के साथ इसे भी प्रकाश में लाने का प्रयत्न हम करेंगे ।
१. मलयसुंदरीचरियं (पूना पाण्डुलिपि) पत्र पृष्ठ ४४ २. जिनरत्नकोश, पृ० ३०२ एवं ३०५ आदि ।
विभागाध्यक्ष जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय
उदयपुर (राज० )
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अनुयोगद्वारसूत्र और वैदिक व्याख्यान पद्धति की तुलना
कानजी भाई पटेल
वेदों में विचारों की पुनरुक्ति, शब्दों की व्युत्पत्ति और पर्याय देकर समझाने के अतिरिक्त व्याख्यान का कोई अंश दिखाई नहीं देता । ब्राह्मण और उपनिषदों में किसी एक विचार पर बल देने के लिए पुनरुक्ति, शब्दों का विश्लेषण, व्युत्पत्ति और उपमा आदि अलंकारों का स्थान है। दुर्ग के कथनानुसार यास्क द्वारा दी गई व्याख्यान-पद्धति में उद्देश, निर्देश और प्रतिनिर्देश का समावेश होता है । स्वयं दुर्ग ने तत्त्व पर्याय, भेद, संख्या, संदिग्ध, उदाहरण और निर्वचन - ये सात व्याख्यान - लक्षण गिनाए हैं । पतंजलि ने बताया है कि उदाहरण, प्रतिउदाहरण, और नए-नए वचनों का उन्मेष ही व्याख्यान है । वात्स्यायन ने उद्देश, लक्षण और परीक्षा इन तीन बातों को स्वीकार किया है । इन तीन के उपरान्त 'विभाग' भी एक अंग माना गया होगा । श्रीधर ने इस त्रैविध्य का प्रतिवाद करके शास्त्र - प्रवृत्ति को उद्देश - लक्षण रूप से द्विविध बताया है । अंत में तो पदच्छेद, पदार्थोक्ति, विग्रह, वाक्य-योजना और पूर्वापर समाधान इन पाँच बातों को स्वीकार किया गया है ।
वैदिक व्याख्यान पद्धति और अनुयोगद्वार सूचित व्याख्यान पद्धति में कुछ बातें समान हैं जैसे कि - ब्याख्या में निरुक्त, व्याख्या में शास्त्र का प्रयोजन, सामान्य और विशेष व्याख्या, त्रिविध शास्त्र प्रवृत्ति, व्याख्यान के सात द्वार, भाषा, विभाषा, वार्तिक, व्याख्यायें शास्त्र का उल्लेख, उपक्रम का स्वरूप, अनुगम आदि ।
अनुयोगद्वारसूत्र में समुदयार्थ और अवयवार्थ निरूपण की जो पद्धति मिलती है वह दुर्ग ने जिसे सामान्य और विशेष प्रकार की व्याख्या कही है, उसके अनुरूप है । निरुक्त में प्रारम्भ में निरुक्त के प्रयोजन की चर्चा है; अनुयोगद्वारसूत्र में अध्ययन शब्द के निक्षेप के प्रसंग में शास्त्र का प्रयोजन वर्णित है । वेद की व्याख्या में निरुक्त का जो स्थान है वैसा ही स्थान आगमिक व्याख्या में नियुक्ति का है ।
वात्स्यायन उद्योतकर, और जयंत ने शास्त्र के उद्देश, लक्षण और परीक्षा इस त्रिविध प्रवृत्ति का पक्ष स्थिर किया है उसमें तत्त्व उद्देश के समकक्ष है । स्वयं दुर्ग ने उद्देश, निर्देश और प्रतिनिर्देश का उल्लेख यास्क की व्याख्या शैली के संदर्भ में किया है। दुर्ग ने सूत्र, वृत्ति, और वार्तिक ऐसे जो क्रम बनाए हैं उसकी तुलना आचार्य जिनभद्र और आचार्य संघदास भाषा ( सूत्र ) की विभाषा ( वृत्ति ) और वार्तिक के साथ की जा सकती है ।
अनुयोग में जिस अर्थ में उपक्रम शब्द का प्रयोग हुआ है वही अर्थ दुर्ग को भी मान्य है । महाभाष्य के अनुसार उदाहरण, प्रत्युदाहरण और वाक्याध्याहार होने पर ही व्याख्यान होता है । व्याख्यान की यह परिभाषा आचार्य संघदासगणि और जिनभद्र की वार्तिक की व्याख्या जैसी है ।
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अनुयोगद्वारसूत्र और वैदिक व्याख्यान पद्धति की तुलना अनुयोगद्वारसूत्र में जो अनुयोग द्वार है उसका तात्पर्य सूत्र के अर्थ का निर्णय करना है। निरुक्त में भी कहा गया है कि शास्त्र के शब्दों का अगर कोई गलत अर्थ करता है तो उसमें पुरुष का दोष है, शास्त्र का नहीं।
व्याख्यान के बारे में सही साम्य तो दोनों परम्परा में स्वीकृत अनुगम के पाँच और छः अंगों के बारे में है। वैदिक मंत्रों के जो पाठ पढ़ाए जाते हैं उसकी तुलना अनुयोगद्वार निर्दिष्ट अनुगम के साथ की जाये तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनुगम पद्धति वैदिक धर्म में प्रचलित विधि जैसी ही है। दोनों पद्धतियों की तुलना इस तरह की जा सकती है। वैदिक
जैन १. संहिता ( मंत्र पाठ)
१ संहिता ( मूल पाठ) २. पदच्छेद ( जिसमें पद, क्रम, जटा आदि
२ पद विविध आठ प्रकार की आनुपूर्वियों का
समावेश होता है। .३. पदार्थ ज्ञान
३ पदार्थ ४. वाक्यार्थ ज्ञान
४ पद विग्रह ५. तात्पर्यार्थ निर्णय
५ चालन
६ प्रत्ययस्थान ( प्रसिद्धि) वैदिक परंपरा में मूल सूत्र को पहले शुद्ध और अस्खलित रूप से सिखाया जाता है। तदनन्तर उसके पदों का विश्लेषण और उसके बाद मीमांसा का प्रश्न आता है। इस तरह प्रथम पद का अर्थज्ञान, उसके बाद वाक्य का अर्थज्ञान और अंत में साधक-बाधक चर्चा से तात्पर्य का निर्णय किया जाता है। उसी प्रकार अनुयोगद्वार में अनुगम के छः अंग बनाए गए हैं।
शेठ एम० एन० सायन्स कालेज और श्री एन्ड श्रीमती पी० के० कोटावाला आर्ट्स कालेज, पाटन ( उ० गु०)
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जैन दर्शन में हेतु लक्षण
धर्मचन्द जैन* भारतीय दर्शन में जहाँ अनुमान प्रमाण की चर्चा है वहाँ हेतु की भी चर्चा है। हेतु शब्द का प्रयोग जैनागमों में प्रमाण के अर्थ में भी हुआ है, किन्तु यहाँ न्यायशास्त्र में प्रयुक्त उस प्रसिद्ध हेतु की चर्चा की जायेगी, जो साध्य का गमक होता है। भारतीय दर्शन में हेतु के स्थान पर लिंग, साधन, व्याप्य, गमक आदि शब्दों का भी प्रयोग होता रहा है।
हेतु को साध्य का गमक स्वीकार करने में दार्शनिकों के मध्य कोई विवाद नहीं है किन्तु हेतु के स्वरूप का निर्धारण करने के संबंध में तीन परम्परायें हैं—१. त्रैरूप्य परम्परा, २. प्यच-रूप्य परम्परा, तथा ३. जैन एवं मीमांसक परम्परा । यद्यपि इनके अतिरिक्त द्विरूप२ षड्प एवं सप्तरूप हेतु का प्रतिपादन करने वाली परम्पराओं के भी संकेत प्राप्त होते हैं किन्तु ये परम्पराएं इतनी प्रसिद्ध न हो सकी जितनी त्रैरूप्य, पांचरूप्य एव अविनाभावित्व मात्र का प्रतिपादन करने वाली परम्परायें प्रसिद्ध हुईं।
रूप्य परम्परा-इस परम्परा में हेतु के तीन रूप अथवा उसकी तीन विशेषतायें मानी गई हैं-पक्षधर्मत्त्व, सपक्षसत्त्व । एवं विपक्षसत्त्व । इस परम्परा के प्रतिपादक हैं-वैशेषिक, सांख्य एवं बौद्ध । वैशेषिकदर्शन में उसी हेतु को अनुमेय का अनुमापक स्वीकार किया गया है जो पक्ष-धर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षव्यावृत्ति रूपों से युक्त हो, जैसाकि प्रशस्तपाद (५वीं सदी) ने कहा है
यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते ।
तदभावे च नास्त्येव तल्लिगमनुमापकम् ॥५ अर्थात् जो लिंग अनुमेय से सम्बद्ध हो, सपक्ष में प्रसिद्ध हो तथा विपक्ष में विद्यमान न हो वही अनुमेय का अनुमापक होता है। यथा 'पर्वत में अग्नि है, क्योंकि वहाँ धूम है" इस
१.
शिक्षक शोधार्थी (टीचर रिसर्च फेलो ), संस्कृत विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपूर । पा० वि० शोध संस्थान स्वर्ण जयन्ती अधिवेशन में पुरस्कृत लेख स्थानांगसुत्र -"हेऊ चउबिहे पन्नत्ते तं जहा—पच्चक्खे अनुमान उवमे आगमे" सूत्र ३३८ न्यायवार्तिक, १-१-३४ हेतुबिन्दु, पृ० ६८ एवं हेतुबिन्दुटीका पृष्ठ २०५ ( गायकवाड ओरियन्टल सिरीज, बड़ौदा) षडलक्षणो हेतुरित्यपरे। त्रीणि चैतानि अबाधितविषयत्वं विवक्षितैकसंख्यत्वं ज्ञातत्वं च। न्यायविनिश्चयविवरण ( वादिराजकृत ) २१५५, पृष्ठ १७८-१८० यथा-"अन्यथानुपपन्नत्वादिभिश्चतुभिः पक्षधर्मत्वादिभिश्च सप्तलक्षणो हेतुरिति त्रयेणेति
किम् ।" प्रशस्तपादभाष्यम्-अनुमानप्रकरण
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जैन दर्शन में हेतु लक्षण
अनुमान वाक्य में पर्वत “पक्ष" है, अग्नि “साध्य" है तथा धूम "हेतु" है। धूम हेतु, पक्ष
त में विद्यमान है, “सपक्ष" महानस आदि में प्रसिद्ध है तथा विपक्ष जलाशय आदि में उपलब्ध नहीं होता है अतः त्रैरूप्यवान् होने के कारण धूम हेतु अग्नि रूप साध्य का गमक है।
__ वैशेषिकों के समान सांख्यदर्शन में भी हेतु के त्रिरूपत्व का निरूपण किया गया है, किन्तु सांख्यदर्शन में इसकी विशेष चर्चा नहीं है।
हेतु के त्रिरूपत्व की सर्वाधिक प्रसिद्धि बौद्धदर्शन में हुई। बौद्धों ने हेतु के रूप्य पर जितना विशद एवं विस्तृत प्ररूपण किया उतना भारतीय दर्शन में अन्यत्र नहीं हुआ। दिङ्नाग (४८०-५४०) अथवा उनके शिष्य शंकरस्वामी प्रणीत “न्यायप्रवेश' में त्रैरूप्य का प्रतिपादन करते हुए कहाहै "हेतु स्त्रिरूयम्-किं पुनस्त्रैरूप्य, पक्षधर्मत्वं, सपक्षे सत्त्वं, विपक्षे चासत्त्वमिति ।२ महान् बौद्ध नैयायिक धर्मकीर्ति ( ७वीं सदी) त्रिरूपता में संभावित दोषों का निराकरण करने हेतु अवधारणार्थक ‘एव' शब्द का भी यथास्थान प्रयोग करते हुए 'न्यायबिन्दु' में कहते हैं-त्रैरूप्यं पुलिङ्गस्यानुमेये सत्त्वमेव, सपक्ष एव सत्त्वमसपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम्'३ अर्थात् लिंग अनुमेय (पक्ष ) में होता ही है, सपक्ष में ही होता है तथा विपक्ष ( असपक्ष ) में होता ही नहीं है। ये तीनों रूप जिसमें निश्चित हों वही लिंग है। हेतु की त्रिरूपता का निरूपण तीन हेत्वाभासों का निराकरण करने के लिए किया गया है। पक्षधर्मत्व के द्वारा "असिद्ध" सपक्ष सत्त्व के द्वारा "विरुद्ध एवं विपक्षासत्त्व के द्वारा “अनेकान्तिक ( व्यभिचारी) हेत्वाभास का निराकरण किया गया है। वैशेषिक दर्शन में अनेकांतिक के स्थान पर “संदिग्ध' शब्द का प्रयोग किया गया है।" पांचरूप्य परम्परा
पांचरूप्य परम्परा के प्रस्तावक एवं समर्थक गौतमीय नैयायिक ( उद्योतक ६ठीं शती) के पूर्व पांचरूप्य का उल्लेख नहीं मिलता है। पांचरूप्य हैं-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व, अबाधितविषयत्व एवं असत्प्रतिपक्षत्व। न्याय-परम्परा में हेतु को द्विलक्षण एवं त्रिलक्षण भी माना गया है।६ साध्य में व्यापक तथा उदाहरण में विद्यमान होने से उसे द्विलक्षण तथा अनुदाहरण अर्थात् विपक्ष में अविद्यमान होने से उसे त्रिलक्षण कहा गया है,
४.
१. सांख्यकारिका-माठरवृत्ति का. ५ २. न्यायप्रवेश, गायकवाड ओरियन्टल सिरीज, बड़ौदा, पृ० १ ३. न्यायबिन्दु, २१४
हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः ।
असिद्ध विपरीतार्थ व्यभिचारिविपक्षतः ।—प्रमाणवार्तिक, बौद्ध भारती सं० ३।१५ विपरीतमतो यत्स्यादेकेन द्वितयेन वा। विरुद्धासिद्ध संदिग्धमल्लिगं काश्यपोऽब्रवीत् ॥–प्रशस्तपादभाष्य, अनुमान प्रकरण न्यायवार्तिक ( उद्योतकर ) १११।३४ एवं ११११५ डॉ दरबारीलाल कोठिया ने इसे उद्धत किया है-"जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार", पृ० १९०
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धर्मचंद जैन किन्तु न्यायदर्शन में पंचलक्षण हेतु को स्थान मिलने के पश्चात् द्विलक्षण एवं विलक्षण परम्परा लुप्त-सी हो गयी। यही नहीं अपितु बौद्धदर्शन सम्मत त्रैरूप्य में अव्याप्ति दोष दिखलाकर उसका खंडन भी किया गया है। न्यायदार्शनिकों का मानना है कि हेतु प्रत्यक्ष एवं आगम से बाधित भी नहीं होना चाहिए तथा उसका कोई प्रतिपक्षी हेतु भी नहीं होना चाहिये। इन पाँच रूपों का प्रतिपादन वे पाँच प्रकार के हेत्वाभावों का निराकरण करने हेतु करते हैं । बौद्धों के द्वारा सम्मत हेत्वाभासों के अतिरिक्त ये कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास का अबाधितविषयत्व द्वारा तथा प्रकरण हेत्वाभास का असत्प्रतिपक्षत्व द्वारा निराकरण करते हैं। पंचलक्षण हेतु से ही परोक्ष साध्य का ज्ञान होता है, ऐसा जयन्तभट्ट ( ९वीं शताब्दी) ने "न्यायमंजरी' में प्रतिपादित करते हुए कहा है
पंचलक्षणकाल्लिगाद् गृहीतान्नियमस्मृतेः ।
परोक्षे लिंगिनि ज्ञानमनुमानं प्रचक्षते ॥२ अर्थात् पंचलक्षण हेतु के गृहीत होने से व्याप्ति नियम की स्मृति होती है तथा उससे जो परोक्ष लिंगी अर्थात् साध्य का ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं ।
न्यायदर्शन में हेतु के तीन प्रकार हैं--अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयी एवं केवलव्यतिरेकी । उनमें मात्र अन्वयव्यतिरेकी हेतु में ही पंचरूप होते हैं। केवलान्वयी एवं केवलव्यतिरेकी हेतु में चार रूप ही पाये जाते हैं क्योंकि केवलान्वयी हेतु में विपक्षासत्त्व तथा केवलव्यतिरेकी हेतु में सपक्षसत्त्व रूप उपलब्ध नहीं होते।
मीमांसक मत-मीमांसादर्शन में त्रैरूप्य, पांगरूप्य आदि का प्रतिपादन नहीं किया गया। वहाँ तो हेतु को नियाम्य ( व्याप्य ) तथा साध्य को नियामक ( व्यापक) कहकर उनमें व्याप्ति का प्रतिपादन किया गया है, जिससे दार्शनिकों का कोई विरोध प्रतीत नहीं होता है।
जैन मान्यता
जैनदर्शन में हेतु के स्वरूप का निरूपण सर्वथा अनूठा है। इसमें हेतु का एक लक्षण अंगीकार किया गया है और वह है, उसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव । जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि साध्य के साथ अविनाभाव अथवा अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का एकमात्र लक्षण है। यदि हेतु में अविनाभावित्व है तो वह त्रैरूप्य एवं पांचरूप्य के अभाव में भी साध्य का गमक होता है और यदि उसमें अविनाभावित्व नहीं है तो त्रैरूप्य एवं पांचरूप्य के होने पर भी साध्य का गमक नहीं होता।
उदयन एवं जयन्तभट्ट की रचनाओं में देखा जा सकता है २. स्याद्वादरत्नाकर, भाग ३, पृ० ५२३ पर उद्धृत ३. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः, परीक्षामुख ३।११
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जैन दर्शन में हेतु लक्षण रूप्य निरास एवं अविनाभावित्व समर्थन
रूप्य की निरर्थकता सिद्ध करते हुए जैन दार्शनिकों ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है-"गर्भस्थ मैत्रीतनय श्याम वर्ण होगा, मैत्री का पुत्र होने से, उसके अन्य पुत्रों के समान"। उस उदाहरण में विद्यमान "मैत्रीपुत्रत्वात्" हेतु गर्भस्थ पुत्र पक्ष में विद्यमान है। मैत्री के अन्य पुत्र रूप सपक्ष में विद्यमान हैं तथा अन्य स्त्री के गौरवर्ण पुत्र रूप विपक्ष में विद्यमान नहीं है। इस प्रकार इस हेतु में पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व तीनों रूप विद्यमान हैं तथापि यह साध्य के साथ अविनाभावी नहीं होने के कारण सहेतु नहीं है, हेत्वाभास है।'
बौद्ध दार्शनिक भी इस हेतु को साध्य के साथ प्रतिबंध अथवा अविनाभाव युक्त न होने के कारण हेत्वाभास मानते हैं जैसा कि धर्मोत्तर (७वीं-८वीं शताब्दी ) के कथन से ज्ञात होता है- "तथा च सति स श्यामः तत्पुत्रत्वाद् दृष्यमानपुत्रवद् इति तत्पुत्रत्वं हेतुः स्यात् । तस्मान् नियमवतोरेवान्वयव्यतिरेकयोः प्रयोगः कर्तव्यो येन प्रतिबन्धो गम्येत साधनस्य साधनेन ।' इसीलिये धर्मकीर्ति (७वीं शती) ने अविनाभाव के द्योतक “एव" शब्द का प्रयोग किया है"विपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम् ।" हेतुबिन्दु प्रकरण में भी धर्मकीर्ति ने अविनाभाव नियम के अभाव में हेतुओं को हेत्वाभास कहा है। यह बात भिन्न है कि ये पक्षधर्मत्व आदि तीन रूपों में ही “एव" का प्रयोग कर त्रिविध हेतु की साध्य के साथ अविनाभाविता स्वीकार करते हैं।
न्यायदार्शनिक भी "तत्पुत्रत्व" हेतु को औपाधिक संबंध के कारण हेत्वाभास मानते हैं। ये साध्य के साथ लिंग का स्वाभाविक सम्बन्ध होने पर ही लिंग को साध्य का गमक सिद्ध करते हैं।
स्वाभाविक संबंध का अर्थ है व्याप्ति । और वह व्याप्ति जैनदर्शन में प्रस्तुत "अविनाभाव" का समानार्थक शब्द है । जयन्तभट्ट ने तो स्पष्ट शब्दों में पंच लक्षण हेतु में अविनाभाव का समापन कहा है-"एतेषु पंचलक्षणेषु अविनाभावः समाप्यते।"5
१. जैसा कि कहा है—स श्यामस्तत्पुत्रत्वाद् दृष्टा श्यामा यथेतरे ।
इति लक्षणो हेतुर्न निश्चित्य प्रवर्तते ॥ तत्त्वसंग्रह (शांतरक्षित ) कारिका १३६९-जैन दार्शनिक पात्रस्वामी के मत के रूप में
प्रस्तुत । __ न्यायबिन्दु टीका २-५ की व्याख्या, पृ० ११०, साहित्य भंडार, मेरठ प्रकाशन पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः । अविनाभावनियमात् हेत्वाभासास्ततोऽपरे ।।-हेतुबिन्दु प्रकरण पृ० ५२ एवं प्रमाणवार्तिक ३.१ स्वाभाविकश्च सम्बन्धो व्याप्तिः, तर्कभाषा अनुमाननिरूपण, पृ० ७६ ( विश्वेश्वर सिद्धांतशिरोमणि संपादित ), चौखम्भा संस्कृत संस्थान, १९७७ ई० सं० वाचस्पतिमिश्र ने भी न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका में कहा है-यद्यप्यविनाभावः पंचषु चतुर्ष वा लिंगस्य समाप्यत इत्यविनाभावेनैव सर्वाणि लिंगरूपाणि संगृह्यन्ते-न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका १।१।५, पृ० १४८
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धर्मचंद जैन
अतः यह स्पष्ट है कि साध्य के साथ अविनाभाव के बिना हेतु साध्य का गमक नहीं होता । यदि अविनाभाव है एवं त्रैरूप्य नहीं है तो भी हेतु साध्य का गमक होता है यथा- " एक मुहूर्त के अनंतर शकट नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि अभी कृत्तिका नक्षत्र का उदय हुआ है" इस अनुमान वाक्य में कृत्तिकोदय हेतु शकटोदय साध्य का गमक है । यहाँ इसमें पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व रूप त्रिरूपता का अभाव है तथापि जैन दार्शनिकों के अनुसार कृत्तिकोदय की शकटोदय के साथ पूर्वचर रूप में क्रमभाव अविनाभाविता है ।" अतः कृत्तिकोदय शकटोदय का गमक है । इस प्रकार अविनाभावित्व ही प्रधान लक्षण है । उसके अभाव में त्रिरूपता आदि का कथन व्यर्थ है, इसीलिए जैन नैयायिक पात्रस्वामी ने त्रिलक्षणदर्शन ग्रंथ में प्रबल शब्दों में कहा है
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अन्यथानुपपन्नत्व शब्द अविनाभावित्व का ही पर्याय है । जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व है वहाँ पक्ष धर्मत्व आदि रूपत्रय से क्या प्रयोजन ? तथा जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है वहाँ भी रूपय निरर्थक है । जैन दार्शनिक पात्रस्वामी द्वारा की गयी यह आलोचना भारतीय दार्शनिक जगत् में खलबली पैदा कर गयी इसलिए न केवल जैन दार्शनिकों ने इस कारिका को अपने न्यायग्रंथों में उद्धृत किया है अपितु शांतरक्षित जैसे बौद्ध नैयायिकों को भी अपनी लेखनी पात्रस्वामी के इस कथन को उद्धृत करने हेतु उठानी पड़ी।
पांचरूप्य निरास -
त्रैरूप्य के समान पांचरूप्य भी जैन दार्शनिकों द्वारा अनुपपन्न ठहराया गया है । यथा "यह धूम अग्निजन्य है, सत्त्व होने के कारण पूर्वोपलब्ध धूम के समान इस वाक्य में "सत्त्व " हेतु पक्षीकृत धूम में विद्यमान है, पूर्वदृष्ट धूम रूप सपक्ष में विद्यमान है, विपक्ष में अविद्यमान है, धूम का अग्नि से उत्पन्न होना प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भी बाधित नहीं है तथा धूम का अग्नि के अभाव में उत्पन्न होने का साधक प्रतिपक्षी हेतु भी अविद्यमान है, इस प्रकार पाँच रूप विद्यमान है तथापि सत्त्वात् " हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव नहीं है इसलिए यह हेतु धूम के अग्निजन्यत्वरूप साध्य का गमक नहीं, फलतः हेत्वाभास है । इसलिए विद्यानन्द ने पात्रस्वामी का अनुसरण करते हुए पांचरूप्य की खण्डन विधायिनी कारिका का निर्माण किया है
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥
१. माणिक्यनन्दि ने दो प्रकार का अविनाभाव बतलाया है— सहभाव एवं क्रमभाव । यथा-सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः - परीक्षामुख, ३|१६
इस ग्रन्थ का उल्लेख अनन्तवीर्यकृत सिद्धिविनिश्चय टीका ६।२, पृ० ३७१-७२ में हुआ है ।
द्रष्टव्य तत्त्वसंग्रहकारिका, १३६८
स्याद्वादरत्नाकर, भाग ३, पृ० ५२५
२.
३.
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जैन दर्शन में हेतु लक्षण अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं रूपः किं पंचभिः कृतम् ॥' यदि साध्य के साथ हेतु का अन्यथानुपपन्नत्व निश्चित है तो पाँचरूप्य के अभाव में भी कृत्तिकोदय हेतु शकटोदय साध्य का गमक हो जाता है तथा अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है तो सत्त्वात् हेतु के समान पाँचरूप्य भी निरर्थक है । जैन हेतु लक्षण
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि साध्य के साथ अविनाभावित्व हुए बिना हेतु साध्य का गमक नहीं होता। हेतु को परिभाषित करते हुए जैन दार्शनिकों ने सर्वत्र यही प्रतिपादित किया है । सिद्धसेन (५वीं शती) रचित न्यायावतार में कहा गया है- अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोलक्षणमीरितम्, अर्थात् हेतु का लक्षण अन्यथानुपपन्नत्व है । प्रसिद्ध जैन नैयायिक अकलंक (८वीं शती) ने कहा है-“साधनं प्रकृताऽभावेऽनुपपन्नत्वम्" ३ अर्थात् साध्य के अभाव में हेतु का होना अनुपपन्न है। वे स्वयं प्रमाणसंग्रह की वृत्ति में इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं-“साध्यार्थाऽ सम्भवाभावनियमनिश्चयैकलक्षणो हेतुः" अर्थात् साध्य अर्थ के अभाव में जिसका अभाव होना निश्चित है ऐसा एक लक्षण वाला हेतु है। भद्र कुमारनन्दि के हेतु लक्षण को विद्यानन्द ने उद्धत किया है--अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते ।
हेतु लक्षण की यही सरणि माणिक्यनन्दि (११वीं शती) एवं देवसूरि (१२वीं शती) द्वारा भी अपनायी गयी है किन्तु वे अकलंक की प्रमाणसंग्रह वृत्ति की भाँति निश्चय शब्द का भी प्रयोग करते हैं। माणिक्यनन्दि के शब्दों में साध्य के साथ जिसका अविनाभावित्व निश्चित हो वह हेतु है तथा देवसूरि के शब्दों में निश्चित अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षण वाला हेतु है। हेतुलक्षण का हेतु भेदों में सामंजस्य--
जैन दार्शनिकों ने हेतु के अनेक भेद प्रतिपादित किये हैं। माणिक्यनन्दि एवं देवसूरि १. प्रमाणपरीक्षा; वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, पृ० ४९
विद्यानन्द ने पांचरूप्य हेतु का खंडन करने हेतु स श्यामस्तत्पुत्रत्वादितस्तत्पुत्रवत" उदाहरण दिया है जो अन्य पात्रस्वामी आदि दार्शनिकों ने त्रैरूप्य के खंडन में प्रस्तुत किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि पात्रस्वामी के समय तक पांचरूप्य परम्परा को विशेष स्थान नहीं मिला था, अत: उनके द्वारा पांचरूप्य परम्परा का खंडन नहीं किया गया। यदि किया जाता तो त्रैरूप्य खंडन के समान वह भी उद्धृत होता। न्यायावतार, २२
प्रमाणसंग्रहकारिका-२१ एवं न्यायविनिश्चयकारिका, २६९ ( दोनों अकलंकग्रन्थत्रय में हैं ) ४. प्रमाणपरीक्षा, पृ० ४३, ( वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट ) ५. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः, परीक्षामुख, ३।११ ६. निश्चितान्यथानुपपत्येकलक्षणो हेतु:----प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३।११
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धर्मचंद जैन तो क्रमशः बाईस' एवं पच्चीस भेदों का प्रतिपादन करते हैं किन्तु अकलंक से प्रारंभ कर देवसूरि तक जैनदर्शन में जिन विशिष्ट एवं नवीन हेतुओं का प्रतिपादन हुआ है, वे हैं-कारणहेतु, पूर्वचरहेतु, उत्तरचरहेतु एवं सहचरहेतु । ये चारों नाम जैन दार्शनिकों की अपनी उपज है। 'कारणहेतु' प्राचीन न्यायवैशेषिक दर्शन में कल्पित पूर्ववत् हेतु का संशोधित रूप है एवं पूर्वचरहेतु मीमांसा श्लोकवार्तिक में कथित कृत्तिकोदय हेतु पर आधृत है। तथापि ये जैन दार्शनिकों द्वारा बलवत्तर रूप में प्रस्तुत एवं पुष्ट किये गये हैं।
यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत हेतु लक्षण इन नवीन हेतुओं में कहाँ तक सामंजस्य बिठाता है।
कारण हेतु कार्य से कारण का अनुमान जितना अव्यभिचरित देखा जाता है, उतना कारण से कार्य का अनुमान नहीं।" कारण से कार्य का अनुमान करना व्यभिचारयुक्त होता है। इसीलिए बौद्ध दार्शनिकों ने कारण हेतु को स्वीकार नहीं किया है। न्याय दार्शनिकों ने भी उत्तरवर्ती साहित्य में इसे महत्त्व नहीं दिया है। जैन दार्शनिकों ने कारण हेतु की मान्यता में दोष तो देखा किन्तु उसे समाप्त नहीं करके उसे निर्दिष्ट बनाने का प्रयास किया फलतः ऐसे कारण को हेतु कहा जो अप्रतिबंधक सामर्थ्य से युक्त हो अर्थात् वही कारण हेतु हो सकता है जिसके द्वारा कार्य की उत्पत्ति निश्चित हो किन्तु इस हेतु की सिद्धि में जिन उदाहरणों को प्रस्तुत किया जाता है वे सर्वथा व्यभिचार मुक्त प्रतीत नहीं होते। यथा"अस्त्यत्र छाया छत्रात्" अर्थात् 'यहाँ छाया है क्योंकि छत्र है'। इस उदाहरण में रात्रि में रखे छत्र से छाया का अनमान करना तथा इसी प्रकार बादलों से वर्षा का अनुमान करना व्यभिचरित देखा जाता है।
___कारण के द्वारा कार्य का अनुमान करने में अथवा कारण को हेतु मानने में सबसे बड़ी बाधा यह खड़ी
खडी होती है कि कारण कार्य के अभाव में भी रह सकता है जब कि जैन दार्शनिकों के अनुसार हेतु साध्य के अभाव में नहीं रहता। अतः कारण को हेतु मानने में स्पष्टतः साध्य के साथ निश्चित अविनाभाविता रूप लक्षण का उल्लंघन होता है जो विचारणीय है।
पूर्वचर हेतु-पूर्वचर कृत्तिका नक्षत्र को उत्तरचर शकटनक्षत्र के उदय का हेतु मानने में भी यही दोष आता है। कृत्तिकानक्षत्र शकटनक्षत्र के उदय के अभाव में भी उदित हो सकता है। अर्थात् साध्य शकटोदय के अभाव में भी हेतु कृत्तिकोदय देखा जाता है।
१. परीक्षामुख, परि. ३; सूत्र ५३ से ८९ २. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३१५४-१०९ ३. कृत्तिकोदयमालक्ष्य रोहिण्यासत्तिक्लप्तिवत्- मीमांसाश्लोकवार्तिक, अनुमानपरिच्छेद,
कारिका १३ द्रष्टव्य-प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ० ३८९-३९९ एवं स्याद्वादरत्नाकर, भाग-३, पृ० ५८६-९४
नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति । ६. परीक्षामुख. ३५६
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जैन धर्म में हेतु लक्षण
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उत्तरचर हेतु-उत्तरचर हेतु में तो फिर भी यह दोष नहीं आता है क्योंकि उसमें साध्य के होने पर ही हेतु होता है, उसके अभाव में नहीं अर्थात् शकटोदय हेतु के पूर्व कृत्तिकोदय साध्य विद्यमान रहता है।
सहचर हेतु-सहजर वस्तुओं में कौन साध्य है तथा कौन हेतु, यह निश्चित नहीं रहता है, बस उसकी सहचरिता के कारण एक के द्वारा दूसरे का अनुमान कर लिया जाता है। यथा आम्रफल में रूप है क्योंकि रस है। इस उदाहरण में रस द्वारा रूप का अनुमान किया गया है किन्तु सहचरिता के कारण रूप द्वारा रस का भी अनुमान किया जाना संभव है इस प्रकार कौन साध्य है एवं कौन हेतु, इस प्रकार की निश्चितता नहीं होती है तथापि एक के अभाव में दूसरे का अभाव दृष्टिगोचर होने से इसे हेतु रूप में स्वीकार करना हेतु लक्षण से अव्याप्त नहीं रहता।
माणिक्यनंदि ने यद्यपि सहभाव एवं क्रमभाव रूप से अविनाभाव के दो भेद करके सहभाव अविनाभाव में सहचर, व्याप्य एवं व्यापक हेतुओं को समाविष्ट करने का प्रयास किया है तथा क्रमभाव अविनाभाव में कार्य, कारण, पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतुओं को समायोजित करने का प्रयत्न किया है । तथापि कारण एवं पूर्वचर हेतु में इसकी सफलता साध्याविनाभावित्व नियम का अपकथन किये बिना संभव नहीं है।
जैन दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत अन्यथानुपपन्नत्व अथवा अविनाभावित्व लक्षण यद्यपि जैनेतर दार्शनिकों द्वारा गृहीत विपक्षव्यावृत्ति रूप व्यतिरेक से साम्य रखता है तथापि जैन दार्शनिक इसी एक लक्षण द्वारा अन्वय एवं व्यतिरेक दोनों रूपों का ग्रहण कर लेते हैं। जैन दार्शनिकों ने साध्याविनाभावित्व लक्षण से तथोपपत्ति रूप भी फलित कर लिया है। यही कारण है कि जैन दर्शन में हेतु प्रयोग दो प्रकार का प्रतिपादित किया जाता है-अन्यथानुपपत्ति एवं तथोपपत्ति ।' साध्य के अभाव में हेतु का अभाव अन्यथानुपपत्ति प्रयोग है। तो साध्य के होने पर ही हेतु का होना तथोपपत्ति है। यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि न्यायदर्शन में जहाँ अन्वय प्रयोग में हेतु के होने पर साध्य का होना निश्चित किया जाता है वहाँ जैनदर्शन में तथोपपत्ति प्रयोग में साध्य के होने पर ही हेतु का होना निश्चित बतलाया जाता है। व्यतिरेक प्रयोग एवं अन्यथानुपपत्ति प्रयोग में पूर्ण साम्य है।
१.
सहक्रमभाव नियमोऽविनाभावः । सहचारिणोः व्याप्यव्यापकयोश्च सहभाव:
पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः।- परीक्षामुख, ३।१६, १७, १८ २. सिद्धसेन, न्यायावतार कारिका १७--
__ "हेतुस्तथोपपत्त्या वा प्रयोगोऽन्यथापि वा।
द्विधान्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ।। सत्ये प्रमाणनयतत्त्वालोक-३।३१"सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्तिः असति साध्ये हेतोरनुपपत्ति रेवाऽन्यथानुपपत्तिः ।
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जैनधर्म में ईश्वर विषयक मान्यता का अनुचिन्तन
डा० कृपाशंकर व्यास मनुष्य के वैयक्तिक जीवन में मनोभावों की प्रधान भूमिका होती है जबकि सामाजिक जीवन में धार्मिक और आर्थिक व्यवहार की प्रधानता होती है। मनोभावों और व्यवहार का एकीकरण ही मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन एवं अस्तित्व को प्रतिष्ठित करता है। इसलिये मनुष्य इस एकीकरण को एक अलौकिक शक्ति में केन्द्रित कर उसपर युग-युगान्तर से चिन्तन-मनन करता आ रहा है। बोधार्थ उस शक्ति को "ईश्वर" नाम से अभिहित किया जाता है। जिसके प्रति अथर्ववेद' में कथन है-"वदन्तीर्यत्र गच्छन्ति तदाहुाह्मणं महत्" उस सर्वशक्तिमान् ईश्वर का मानव-मन से अति निकट का संबंध है। यही कारण है कि प्रत्येक युग में प्रत्येक धर्म-दर्शन के मनीषियों ने इस असीम शक्तिमान् ईश्वर के संबंध में अपने विचार व्यक्त करने का उपक्रम किया है।
ईश्वर संबंधी दार्शनिक चिन्तन :-दार्शनिकों के अनुसार सृष्टि में विषय और विषयी प्रायः एक संस्थान के रूप में संयुक्त होने से पृथक् नहीं हैं। इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से अथवा मानसिक प्रत्ययों से उत्पन्न सुख-दुःख रूप विषयों का अनुभवकर्ता जीव है। इसे दार्शनिकों ने विषयी या द्रष्टा के रूप में नित्य स्वीकारा है जबकि विषयों को परिवर्तनशील क्षणभंगुर या जड़ पदार्थों से जन्य होने के कारण कुछ दार्शनिकों को छोड़कर शेष सभी ने अनित्य माना है। इसे अजीव भी कहा जाता है। जीव, अजीव कब और कैसे संयुक्त होकर सृष्टि में को प्राप्त हुये-यही गहन समस्या दार्शनिकों के समक्ष आदिकाल से बनी हुई है। जिसका समाधान सभी (भारतीय तथा पाश्चात्य) मनीषियों ने यथाशक्य स्वमतानुसार किया है। यह भिन्न बात है कि अद्यतन सर्व-सम्मत हल नहीं निकल सका है। - 'ईश्वर' की मान्यता को केन्द्र बिन्दु बनाकर भारतीय दर्शन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम वह भाग जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है यथा-न्यायवैशेषिक, योग, एवं उत्तर मीमांसा, पूर्वमीमांसा, एवं जैन कुछ सीमा तक तथा भिन्न अर्थ में ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करते है । द्वितीय वह भाग जो ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार नहीं करता, यथा-चार्वाक, बौद्ध तथा सांख्य (पुरुष ही सब कुछ है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं)।
१. अथर्ववेद-१०।८।३३
अ) ईश्वरवाद बनाम पुरुषार्थवाद-डा० कृपाशंकर व्यास, जैनदिवाकर स्मृति ग्रन्थ पृ० ५०१
भारतीय ईश्वरवाद--पं० रामावतार शर्मा पृ० १-५० मेधा--मीमांसा और जैनदर्शन का अन्य दर्शनों से ईश्वर विषयक मतभेद-पृ० ७१-८० "सद्दव्वं वा" भगवतीसूत्र ८।९ पंचाध्यायी पूर्वार्ध श्लोक ८
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जैनधर्म में ईश्वर विषयक मान्यता का अनुचिन्तन 'ईश्वर' और 'ईश्वरवाद' (Theism) को समझने के लिये आवश्यक है कि इन शब्दों का प्रयोग किस अर्थ में होता है-यह समझा जाये । 'ईश्वर'' शब्द 'ईश्' धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ-स्वामी होना, आदेश देना, अधिकार में करना है। 'ईश्' धातु का विशेषण ही 'ईश्वर' है जो कि शक्ति सम्पन्नता की ओर इंगित करता है। अतः यह कहना औचित्यपूर्ण है कि जीव से परे जो भी सत्ता है वही 'ईश्वर' है। आज के समाज में 'ईश्वर' से सम्बन्धित सिद्धान्त 'ईश्वरवाद' का प्रयोग व्यापक एवं सीमित दोनों अर्थों में किया जाता है। व्यापक अर्थ में 'ईश्वरवाद' उस सिद्धान्त को कहते हैं जो ईश्वर को सत्य मानता है। इस अर्थ की परिधि में
संबंधी सभी सिद्धान्त समाहित हैं। इस सिद्धान्त को स्वीकार करने वालों में न केवल भारतीय मनीषी हैं अपितु पाश्चात्य भी हैं, जिनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय डेकाटें (Descartes) बर्कले ( Berkeley ), काण्ट (Kant), जेम्सवार्ड (James Ward), सी इ. एम जॉड (C. E. M. Joad), प्रिंगल पैटिसन (Prengle Patitisan) हैं। सीमित अर्थ में - ईश्वरवाद उस सिद्धान्त को कहते हैं जो कि एक व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर का समर्थन करता है। इस सिद्धान्त का समर्थन विशेषत; जैनधर्म तथा अन्य सगुणोपासक धर्मों ने किया है। इसी मत के पक्ष में पाश्चात्य विद्वान् फ्लिण्ट (Flient) का कथन है कि "वह धर्म जिसमें एक व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर आराधना का विषय रहता है-- ईश्वरवादी धर्म कहा जाता है। व्यक्तित्व रहित ईश्वर की अपेक्षा व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर धार्मिक भावना की संतुष्टि करने में अधिक सक्षम है। धार्मिक चेतना के लिये आवश्यक है कि उपासक और उपास्य के मध्य निकटता रहे । इस नैकटय भाव को बनाये रखने के लिये यह अनिवार्य है कि उपासक के हृदय में उपास्य के प्रति श्रद्धा, आदर, और भक्तिभाव बना रहे ( जैन दर्शन एवं धर्म में सिद्धान्ततः भक्तिभाव को कोई स्थान नहीं है, किन्तु व्यावहारिक जगत् में जैन समाज तीर्थंकरों के प्रति भक्तिभाव से पूरित है) और इसी प्रकार उपास्य भी उपासक के लिये करुणा, क्षमा, दया और सहानुभूतिभाव से युक्त रहे । 'ईश्वर' उपास्य है और मनुष्य उपासक ।
ईश्वरवाद वस्तुतः व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की स्थापना करके उपासक मनुष्य का उससे निकट का संबंध स्थापित करता है । ईश्वर में यदि व्यक्तित्व का अभाव हो तो वह अपने उपासक के प्रति किसी भी प्रकार से अपने कारुणिक भाव को प्रकट नहीं कर सकता है।
१. (अ) संस्कृत हिन्दी कोश-वा० व० आप्टे पृ० १७९-१८०
(ब) वाचस्पत्यम्-द्वितीय भाग पृ० १०११-१०४८ ईश्वरवादी सिद्धान्त के प्रतिपादकों में-स्पिनोजा, जॉन कॉल्विन, जॉन ढोलेण्ड, तिण्डल, लाइबनिज, ब्रडले, रायस, हॉविसन, आदि के लिए (धर्म और दर्शन ) द्रष्टव्य-ईश्वर संबंधी मत, डा० रामनारायण व्यास, पृ० ९४-१३२
(ब) भारतीय ईश्वरवाद-पं० शर्मा ३. The Idea of God in Recent Philosophy. 8. Theistic religion is a religion in which the one personal and perfect God is the
objective of worship--Flient p. 50 (Theism). ५. भारतीय दर्शन भाग १ पृ० ३०३-डॉ० राधाकृष्णन्
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डा कृपाशंकर व्यास
इस प्रकार स्पष्ट है कि ईश्वरवाद व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की स्थापना करके मानव-मानस की धार्मिक-संतुष्टि करता है। यहाँ यह कहना असमीचीन न होगा कि सभी ईश्वरवादा मनीषियों ने ईश्वर शब्द का प्रयोग किया अवश्य है पर उनमें मतैक्य नहीं, अर्थ भिन्नता है।
_इस सन्दर्भ में भारतीय दार्शनिक उदयनाचार्य' का कथन विशेष औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है कि ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह करना ही व्यर्थ है, क्योंकि कौन ऐसा मनुष्य है जो किसी न किसी रूप में 'ईश्वर' को न मानता हो- यथा उपनिषदों के अनुयायी 'ईश्वर' को शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव के रूप में; कपिल अनुयायी 'आदि विद्वान् सिद्ध' के रूप में; पतंजलि अनुयायी क्लेश-कर्म विपाक, एवं आशय (संस्कार) से रहित रूप में; पाशुपत सिद्धान्तानुयायी 'निर्लेप तथा स्वतंत्र रूप में; शैव 'शिव' रूप में; वैष्णव 'विष्णु' रूप में; पौराणिक 'पितामह' रूप में, याज्ञिक "यज्ञपुरुष' रूप में; सौगत 'सर्वज्ञ' रूप में; दिगम्बर 'निरावरण मूर्ति' रूप में; मीमांसक 'उपास्य देव' के रूप में; नैयायिक और वैशेषिक 'सर्वगुणसम्पन्न परम ज्ञानी चेतन' के रूप में; चार्वाक 'लोकव्यवहार; सिद्ध' के रूप में-जिसका चिन्तन, मनन व पूजन करते हैं वही तो इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी चिन्तकों ने 'ईश्वर' संबंधी अपनी भावना को यथाशक्य मूर्त रूप देने का प्रयास किया है यद्यपि 'ईश्वर' के स्वरूप के संबंध में उनके विचारों में पर्याप्त भिन्नता है।
__ जगत् में जीव-अजीव के संयुक्त होने में न्याय-वैशेषिकादिर दर्शनों ने ईश्वर, प्रकृतिपुरुष-संयोग, काल, स्वभाव, यदृच्छा आदि को कारण माना है। इन दर्शनों के अनुसार जीव को शुभाशुभ कर्मफल की प्राप्ति ईश्वरादि के द्वारा होती है। इससे विपरीत मत जैन दार्शनिकों का है । उनके अनुसार जीव कर्म करने में स्वतंत्र है और फल भोगने में कर्मतंत्र है। हाँ यह अवश्य है कि जैन दार्शनिकों ने इसके साथ ही साथ काल, स्वभाव, और कर्म को भी सृष्टि में कारण स्वरूप माना है तथा यदृच्छावाद का पुरजोर खंडन किया है ।
यदृच्छावाद का खंडन :-ईश्वर में “कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुम् समर्थः' शक्ति मानने से ईश्वर किसी को सुखी और किसी को दुःखी बना सकता है। इससे ईश्वर की स्वैरवृत्ति और
१. (अ) न्याय कुसुमाञ्जलि-१-१
| भारतीय दर्शन-उमेश मिश्र पृ० २२४ । भारतीय ईश्वरवाद-पं० शर्मा
) प्रशस्तपादभाष्य (सृष्टिसंहारप्रकरण) (ब) सांख्य कारिका-२१ (स) न्यायसूत्रभाष्य-४/१।२१
(द) गीता–५।१४ ३. "आसवदि जण कम्मं परिणामेणप्पणो स निण्णेयो ।
भावासवो जिणुत्तो कम्मा सवणं परो होदि" ॥ (द्रव्य सं० २९) ४. (अ) षड्दर्शन समुच्चय-(तर्क रहस्य टीका सहित) पृ० १८२-१८६
(ब) मेधा "पृ० ७२ (मी० जै० दर्श "ईश्वर विषयक मतभेद)
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स्वतंत्रता ही सिद्ध होती है । इसी प्रकार यदृच्छावाद के कारण निमित्त के बिना भी कार्य की प्राप्ति होने लगेगी, परिणामस्वरूप 'कारण कार्यवाद' सिद्धान्त पर प्रश्नचिह्न लग जायेगा तथा सर्वत्र अव्यवस्था हो जायेगी। कोई भी कार्य नियमानुसार न होगा। जबकि दृश्य जगत् में सभी कार्य नियमानुसार ही दिखलायी देते हैं-यथा अग्नि का उष्ण होना, आम के वृक्ष से आम की प्राप्ति आदि । अतः सृष्टि में कारणभूत माने गये यदृच्छावाद और ईश्वर को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
जैन दर्शन द्वारा ईश्वर के स्रष्टा-रूप का खंडन :-न्यायादि' दर्शनों के पुरस्कर्ता घटादि कार्यों के कर्ता रूप में जिस प्रकार कुम्भकार आदि को स्वीकारते हैं उसी प्रकार जगत् रूप कार्य को देखकर उसके कर्ता रूप में ईश्वर को भी स्वीकारते हैं। जगत् रूपी कार्य जड़ परमाणुओं को गतिशील बनाये बिना संभव नहीं है। इसके लिये ईश्वर की इच्छा तथा प्रेरणा आवश्यक है। जड़ परमाणुओं में गतिशीलता होने पर ही सृष्टि संभव है और गतिशीलता के लिये ईश्वर का कारण होना अनिवार्य है । जैन दर्शन जगत् को किसी का कार्य नहीं मानता है। उसके मतानुसार अजीव तत्त्व जगत् भी जीव के समान ही नित्य है। नैयायिकों के इस कथन से कि पृथ्वी आदि के अवयवभूत परमाणु जगत् के समवायी कारण हैं, अतः पृथिव्यादि के सावयव होने के कारण कार्यत्व की सिद्धि हो जाती है। इस मत से जैन आचार्य सहमत नहीं हैं। उन्होंने अनेक विकल्पों तथा तर्कों द्वारा यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी आदि कार्य नहीं हैं । अतः इनके कर्ता के रूप में 'ईश्वर' की सिद्धि संभव नहीं है। जैन दार्शनिकों का मत है कि यदि कर्ता के रूप में ईश्वर को स्वीकार कर भी लिया जाये तो पूनः प्रश्न यह उपस्थित होता है कि कर्ता एक है या अनेक । यदि कर्ता एक माना जाये तो यह मान्यता अनुचित है, कारण कि विचित्र जगत् के निर्माण में महल आदि के निर्माण के समान अनेक कर्ताओं की आवश्यकता होगी। एक कर्ता के द्वारा विचित्र विश्व का निर्माण संभव नहीं है। यदि ईश्वरवादी जगत् सृष्टि के लिये अनेक कर्ताओं को स्वीकार करते हैं तो उनमें परस्पर मतभेद की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता । एक वस्तु के भिन्न-भिन्न रूप हो जायेंगे फलतः सर्वत्र अव्यवस्था हो जायेगी।
इस प्रकार जैन दर्शन जीव और अजीव के संयोग से होने वाली सृष्टि में ईश्वर की कारण रूपता का खंडन करके जीवों के कर्मों को ही सृष्टि में साधकतम कारण मानता है। जैन दर्शन उस मान्यता को भी निराधार एवं काल्पनिक सिद्ध करता है जिसके अनुसार जड और चेतन का संबंध कर्मानुसारी नहीं होता।
जैन दर्शन में फल प्रदाता ईश्वर का खण्डनः-कतिपय' चिन्तकों के मतानुसार ईश्वर फल प्रदाता है। कर्म चूंकि जड़ हैं अतः कर्म चेतना की प्रेरणा के बिना कथमपि फल देने
१. (अ) सर्वदर्शन संग्रह-(आर्हत दर्शन)
(ब) षड्दर्शन समुच्चय-पृ० १६६-१८७ २. षड्दर्शन समुच्चय पृ० १८२-१८३
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में समर्थ नहीं हैं। सभी प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों का फल सुखद ही चाहते हैं। अतः वे स्वयं अपने कर्मों के सुख दुःखात्मक फलों को निष्पक्षता से ग्रहण नहीं करेंगे। इस कारण से भी फल प्रदाता के रूप में निष्पक्ष ईश्वर की अपेक्षा की जाती है। इस मान्यता के संबंध में पूर्व में ही कथन कर दिया गया है कि कर्म की उत्पत्ति चैतन्य के द्वारा ही अतः जीव के संबंध के कारण ही कर्म में ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है जिससे कर्म अपने सुखद व दुःखद विपाकों को यथासमय जीव के प्रति प्रकट कर देता है। कर्मवाद पर आस्था रखने वाले कर्म को पूर्णतया जड़ नहीं मानते। कारण कि जीव (चैतन्य) की क्रिया के द्वारा उत्पन्न कर्म (संस्कार), क्रिया के समाप्त हो जाने पर भी जीवाश्रित बने रहते हैं। ये संस्कार चूंकि द्रव्य से उत्पन्न होते हैं अतः इन्हें दव्य कर्म कहते हैं तथापि वे जीवाश्रित शक्ति रूप होने से जीव द्वारा अवश्यमेव भोक्तव्य हैं। विशिष्ट ज्ञानयक्त जीव निष्पक्ष होकर स्वकृत कर्मों को निर्लिप्त भाव से भोगता है जबकि सामान्य ज्ञानयुक्त जीव तत्काल सुखद-परिणामतः और दुःखद बाह्य पदार्थों के भोगानुभव को एकत्रित करते हैं फलतः उसके अनुरूप ही उसकी बुद्धि हो जाती है । इस बुद्धि के द्वारा इच्छा न रहते हुये भी जीव को स्वकृत कर्मों का अशुभ फल भोगना ही पड़ता है ।
सर्वदर्शन' संग्रह में वीतराग स्तुति में प्रयुक्त 'स्ववशः' विशेषण यदि ईश्वर का माना जाये तो ईश्वर अपनी कारुणिकता के कारण सभी प्राणियों को सुखी बनायेगा, दुःखी नहीं। ईश्वर यदि प्राणियों के कृतकों से प्रेरित हो प्राणियों को सुखी या दुःखी बनाता है तो ईश्वर की कर्तृत्व शक्ति एवं स्वतंत्रता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। कर्म की अपेक्षा रखने पर ईश्वर का सर्वेश्वरत्व सिद्ध नहीं होता है कारण कि कर्मों को ईश्वर नियंत्रित नहीं कर पायेगा । जीव स्वयं के कर्मों के अनुरूप ही सृष्टि करने एवं तदनुरूप फल भोगने में स्वतंत्र है। जीव और कर्मों का संबंध :-उपर्युक्तविवेचन से स्पष्ट है कि इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर
जगत की सष्टि में यदच्छा, माया. भ्रम, प्रकृति आदि भी कारण नहीं हैं।२ जीब ही इस सृष्टि का कर्ता एवं स्वकृत कर्मों के फल का भोक्ता है। जीव और कर्मों का संबंध अनादि है । कर्मों के कारण ही सकषाय जीव सृष्टि का कारण बनाता है। कर्मों के निरोध के फलस्वरूप कर्मों का अभाव होने पर जीव मुक्त हो जाता है, फिर भी यह सृष्टि अन्यों (जीवों) के बनी रहती है।
जैन दर्शन और ईश्वर --कालान्तर में वैदिक साहित्य द्वारा प्रतिपादित कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड सामान्य वर्ग के लिये सहज गम्य एवं प्राप्य न रहा और परिणामतः ६ठी ईसापूर्व में इस अबोधगम्यता की प्रतिक्रिया स्वरूप वैचारिक परिवर्तन आया । इस परिवर्तन की विशेषता यह थी कि जीवन के रहस्य को जानने के लिये किसी ज्ञान विशेष की आवश्यकता पर बल नहीं १. कर्ताऽस्ति कच्चिज्जगतः स चैकः, स सर्वज्ञ. स स्ववशः स नित्यः । (सर्वदर्शन संग्रह-आर्हत दर्शन) २. (अ) श्लोक वा० सम्बन्धा १०९-११४
(ब) तत्त्वार्थसूत्र (सर्वार्थ) ९७
(स) तत्त्वार्थसूत्र-८।३, ८२ ३ (अ) संस्कृति के चार अध्याय-दिनकर पृ० ८१-९५, १०० -१२१
(व) भारतीन ईश्वरवाद---पं० शर्मा २८४-३२१
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जैनधर्म में ईश्वर विषयक मान्यता का अनुचिन्तन दिया गया था, अपितु यह माना गया कि मनुष्य अपने आचार, शील व शुद्धता के माध्यम से ही जीवन के चरमसत्य को सहज में पा सकता था। इस सरल बुद्धिगम्य मार्ग को सामान्य जन-मानस तक प्रेषित करने के लिये तत्कालीन जन-भाषा (लोक-भाषा) को ही माध्यम बनाया गया । फलतः इस परिवर्तन का जन-मानस ने स्वागत किया। इसी परिस्थिति का तीर्थंकर महावीर ने यथाशक्य लाभ लेने का प्रयास किया और सफल भी हुये।
महावीर ने समयानुरूप निष्काम शुद्धाचरण की शिक्षा का प्रतिपादन किया। उनकी मान्यता थी कि निष्काम शुद्धाचरण से व्यक्ति वीतराग रूपी ईश्वरपद को प्राप्त कर सकता है। उन्होंने अपने युग में मानव को ईश्वरत्व की कोटि तक पहुँचाने का महनीय कार्य किया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। उनके इसी महत्तर कार्य के कारण ही उन्हें जैनधर्म के २४वें तीर्थंकर जैनधर्म के प्रस्तोता रूप में समादृत स्थान दिया गया है।।
कालान्तर में (७वीं शती में) जैन राजा कुन के शैवमत में दीक्षित हो जाने के फलस्वरूप महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्मदर्शन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वैष्णव व शैवमतों से वैचारिक भिन्नता के कारण भी जैनधर्म दर्शन की स्थिति सुखद नहीं रही। इस कारण स्थिति को यथावत् सुदृढ़ करने के लिये आवश्यक हो गया था कि मान्यताओं में समयानुरूप परिवर्तन किया जाये ताकि जन-मानस पुनः धर्म की ओर आकर्षित हो सके। यही कारण है कि महावीर द्वारा प्रतिपादित 'ईश्वर' संबंधी सिद्धान्त को वैष्णव व शैव के अनुरूप ही स्वीकृति दी गई । परिवर्तन की अपेक्षा से ही तीर्थङ्करों को जिनेन्द्र ईश्वर के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया तथा अन्य धर्मों के समान ही इन तीर्थङ्करों के प्रति अपनी भक्तिपूर्ण आदराञ्जली भी देने की स्वतंत्रता दे दी गई। भक्त अपने जिनेन्द्र की देवरूप में अर्चना करने लगे। ये जिनेन्द्र ही सर्वज्ञ रूप में निरूपित किये गये । कालान्तर में इसी भक्तिपूर्ण भावन पुष्टि कर दी गई। यह अवश्य है कि जैन धर्म-दर्शन का ईश्वर मनुष्य से भिन्न नहीं है- केवल आवश्यकता इस बात की है कि वह केवल-ज्ञान व दर्शन प्राप्त करे तभी वह मानवत्व से देवत्व की कोटि तक पहुँच सकता है। वस्तुतः मानव के पुरुषार्थ की इति ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है। इस ईश्वरत्व की अवस्था में मानव परमात्मभाव को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य को कुछ भी अप्राप्तव्य नहीं है । मात्र यही अपेक्षा है कि ज्ञानार्जन कर कर्म बन्धन को निःशेष करने हेतु प्रयासशील हों। यह प्रयास ही व्यक्ति को मानवीय चेतना के चरमविकास ईश्वरत्व तक पहुँचा सकता है । कथन भी :
"ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः"
१. भारतीय ईश्वरवाद-पं० शर्मा पृ० २८४-३३३ २. उत्तराध्ययन २५।४५ ३. (अ) चिन्तन की मनोभूमि-(ईश्वरत्व) पृ० ३३,
(ब) "णाणं णरस्स सारो' दर्शन पाहुड ३३ कुन्दकुन्दाचार्य पृ० ५०-५६
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डा कृपाशंकर व्यास
इसी ज्ञानरूपी पुरुषार्थ से मानव विश्व में सर्वोपरि एवं वन्दनीय बन सकता है। मानव ईश्वर की सृष्टि नहीं है बल्कि ईश्वर ही मानव की सृष्टि है । साधारण से साधारण व्यक्ति भी चरम सोपान ईश्वर पद पर पहुँच सकता है। यही है जैन दर्शन का ईश्वर दर्शन । किसी कवि ने उचित ही कहा है
"बीज बीज ही नहीं, बीज में तरुवर भी है। मनुज मनुज ही नहीं, मनुज में ईश्वर भी है।"
(चिन्तन की मनोभूमि पृ० ५०)
डॉ० कृपाशंकर व्यास . ८ A महाकाल सिंधीकालोनी, सांवेर रोड़
उज्जैन-४५६०१०
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चित्र-अद्वैतवाद का जैनदृष्टि से तार्किक विश्लेषण
डा० लालचन्द्र जैन
बौद्धदर्शन के विज्ञानवादी दार्शनिक सम्प्रदाय के कुछ दार्शनिक चित्र-अद्वैतवाद के पुरस्कर्ता हैं । चित्राद्वैत का अर्थ है कि जिस तरह चित्र अनेक रंगों से युक्त होता है उसी प्रकार ज्ञान भी अनेक आकार वाला होता है। चित्र-अद्वैतवादी ज्ञान-अद्वैतवाद में विश्वास नहीं करते हैं । उनका सिद्धान्त है कि एकमात्र अनेक आकार वाले चित्र-ज्ञान की ही सत्ता विद्यमान है। विभिन्न रंगों से युक्त चितकबरी गाय की तरह ज्ञान में वस्तु के नील-पीत आदि अनेक आकार होते हैं। विज्ञान-अद्वैतवादी बौद्ध ज्ञान में होने वाले इन नीलादि आकारों को असत्य मानता है और चित्राद्वैतवादी सत्य मानता है यही दोनों में अन्तर है। __इस सिद्धान्त का उल्लेख धर्मकीर्ति, आ० विद्यानन्द, वादिराज, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, यशोविजय आदि ने पूर्वपक्ष के रूप में किया है। उक्त आचार्यों के ग्रंथों में उपलब्ध चित्रअद्वैत का स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है।
. चित्राकार ज्ञान को ही सत्ता है :-चित्राद्वतवादी कहते हैं कि नील, सुख आदि अनेक आकारों से युक्त चित्र-आकार वाला ज्ञान ही एक मात्र तत्त्व है। इसके अलावा अन्य कोई तत्त्व नहीं है। बाह्य पदार्थ नहीं हैं—चित्राद तवादी बाह्य पदार्थों के अस्तित्व का निराकरण करता है। इस विषय में उसका कहना है कि कोई भी प्रमाण बाह्य पदार्थों के अस्तित्व को सिद्ध नहीं करता है, इसलिए बाह्य पदार्थों की सत्ता गधे के सींग की तरह नहीं है। यह सभी दार्शनिक मानते हैं कि प्रमेय के अस्तित्व की सिद्धि प्रमाणों से होती है जिसके अस्तित्व को सिद्ध करने वाला प्रमाण नहीं होता है, उसका अस्तित्व भी नहीं होता है। अपने कथन को स्पष्ट करते हुए चित्र-अद्वैतवादी तर्क करते हैं कि यदि बाह्य पदार्थ के अस्तित्व को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण है तो बाह्य वस्तुवादियों को बतलाना होगा कि वह प्रमाण १. (क) धर्मकीर्ति ( ६३५-६५० ई० ) : प्रमाणवार्तिक, द्वितीय परिच्छेद, कारिका २०८-२३८
पृ० १६३-१७२ (ख) आ० विद्यानन्द (वि० ९ वीं शताब्दी) : __ I तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रथम अध्याय, प्रथम आह्निक, कारिका १५५-१६४, पृ० ३५-३६ ।
II अष्टसहस्री, कारिका ७, पृ० ७६-७९ (ग) वादिराज [ वि० ११ वीं शती ] : न्यायविनिश्चयविवरण प्रथम प्रस्ताव, कारिका ९३-९४,
पृ० ३८३-३८९ । (घ) आ० प्रभाचन्द्र (ई० सन् ९८०-१०६५) ___I न्यायकुमुदचन्द्र, १/५, पृ० १२५-१३०; II प्रमेयकमलमार्तण्ड, ११५, पृ० ९५-९६ । (ङ) वादिदेवसूरि [वि० १२ वीं शती] : स्याद्वादरत्नाकर, १/१६, पृ० १७२-१७९ (च) यशोविजय [वि० १८ वीं शती] शास्त्रवार्तासमुच्चय टीका,
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डा० लालचन्द्र जैन
साकार है अथवा निराकार ?' निराकार प्रमाण जड़ पदार्थ का साधक नहीं है-निराकार प्रमाण बाह्य वस्तु की सत्ता को नहीं सिद्ध कर सकता है, क्योंकि वह निराकार प्रमाण सर्वत्र समान रूप रहेगा। इसलिए वह प्रत्येक पदार्थ की व्यवस्था का साधक हेतु नहीं हो सकता है।
___ साकार-प्रमाण से चित्राकार ज्ञान की सत्ता सिद्ध होती है-अब यदि यह माना जाय कि बाहरी पदार्थों की सत्ता सिद्ध करने वाला प्रमाण आकार वाला है, तो इससे नीलादि अनेक आकारों वाला एक चित्रज्ञान ही सिद्ध होता है। इस चित्र ज्ञान से भिन्न जड़ पदार्थ की सिद्धि इस साकार प्रमाण से भी नहीं होती है, क्योंकि जड़ पदार्थ की व्यवस्था का साधक हेतु कुछ भी नहीं है।
आकार विशिष्ट ज्ञान बाहरी जड़ पदार्थों की व्यवस्था का कारण नहीं है -चित्राद्वैतवादी अपने कथन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आकार विशिष्ट ज्ञान को बाह्य पदार्थों की व्यवस्था का कारण नहीं माना जा सकता है क्योंकि वह अपने आकार के अनुभव मात्र से कृतकृत्य हो जाता है। प्रमाणवार्तिक ३ में धर्मकीर्ति ने कहा भी है “यदि ज्ञान ( बुद्धि ) नीलादि रूप नहीं है तो बाह्य पदार्थ के होने में क्या कारण (प्रमाण ) है और यदि बुद्धि नीलादि रूप है तो बाह्य पदार्थ के होने में क्या प्रयोजन है ?" कहने का तात्पर्य यह है कि यदि बुद्धि (ज्ञान ) अनीलादि रूप है तो उसके द्वारा नील आदि बाह्य पदार्थ की सिद्धि कैसे होगी? क्योंकि उसको सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। यदि ज्ञान नील आदि रूप है तो फिर बाह्य पदार्थों के मानने का कोई प्रयोजन नहीं है अर्थात् उन्हें मानना निरर्थक है। क्योंकि नील आदि बाह्य आकार मात्र ज्ञान में पाया जाता है।
पूर्वभावी, उत्तरभावी एवं समकालभावी आकार विशिष्ट ज्ञान बाह्य पदार्थ की व्यवस्था नहीं कर सकता-चित्राद्वैतवादी अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए बाह्य पदार्थों की सत्ता मानने वालों से जानना चाहते हैं कि यदि आकार विशिष्ट ज्ञान पदार्थ की व्यवस्था करता है तो बतलाना होगा कि प्रमेय से पहले उत्पन्न होने वाला ज्ञान बाहरी पदार्थों की व्यवस्था करेगा या उत्तर काल में होने वाला ज्ञान अथवा सहभावी ज्ञान ?
प्रमेय से पहले काल में होने वाले ज्ञान को बाह्य पदार्थों का व्यवस्थापक मानना ठीक नहीं है। क्योंकि यह इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होगा। प्रमेय पदार्थों के होने पर ही ज्ञान का सन्निकर्ष हो सकता है, किन्तु प्रमेय से पूर्वभावी ज्ञान की उत्पत्ति प्रमेय के बिना ही होती है। जो ज्ञान प्रमेय के बिना ही उत्पन्न हो जाता है, वह इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होता है, जैसे आकाश कमल का ज्ञान इन्द्रियार्थक सन्निकर्षजन्य नहीं होता है, इसी प्रकार बाह्य पदार्थ के व्यवस्थापक के रूप में स्वीकार
१. (क) न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १२४
(ख) स्याद्वादरत्नाकर, पृ० १७२ २. नचाकारविशिष्टज्ञानमेव तदव्यवस्थाहेतु, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १२४ ३. प्रमाणवार्तिक २/४३३ ४. (क) तथाहि तद्वयवस्थापकं प्रमाणं कि 'समकालभावी... स्याद्वादरत्नाकर, पृ० १७२
(ख) न्या. कु. च०, पृ० १२५
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चित्र-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण किया गया प्रमेय से पूर्वकाल में होने वाला ज्ञान प्रमेय के बिना उत्पन्न हो जाता है इसलिए वह सन्निकर्षजन्य नहीं होता है। अतः उससे बाह्य पदार्थों की व्यवस्था नहीं हो सकती है। . प्रमेय से उतरकाल में होने वाले ज्ञान को बाह्य पदार्थों का व्यवस्थापक मानने पर दो विकल होते हैं --(१) 'प्रमाण से पहले प्रमेय की विद्यमानता है' – इसे ( पूर्वकाल वृत्ति को) किसी ने जाना है अथवा नहीं? यदि "प्रमाण से पहले प्रमेय की विद्यमानता है" इसे नहीं जाना है तो वह ज्ञान का सद् विषय कैसे होगा ? क्योंकि यह नियम है कि जो सद् व्यवहार ( सत्य ) का विषय होता है वह किसी से जाना जाता है। जो किसी से जाना नहीं जाता है वह सद् व्यवहार ( सत्य ) का विषय नहीं होता हैं, जैसे आकाश का कमल किसी से नहीं जाना गया इसलिए वह ज्ञान का सद् विषय नहीं होता है। (२) प्रमाण से प्रमेय की पूर्वकाल वृत्ति है"-ऐसा भी किसी से नहीं जाना गया है। अतः प्रमेय से उत्तरकाल में उत्पन्न होने वाले ज्ञान को बाह्य पदार्थों का व्यवस्थापक नहीं माना जा सकता है।
अब यदि बाह्य पदार्थवादी यह मानें कि 'प्रमाण से पूर्व प्रमेय की विद्यमानता है और इसे किसी से जाना गया है, तो उन्हें बतलाना होगा कि वह किससे जाना गया है-स्वतः अथवा परतः ?' यदि स्वतः जाना गया है, तो बाह्यार्थ और ज्ञान में भेद नहीं होगा क्योंकि स्वतः प्रकाशमान होने से वह पूर्ववर्ती प्रमेय ज्ञान रूप हो जायगा। यह नियम है कि जो स्वतः प्रसिद्ध है वह ज्ञान से भिन्न नहीं है जैसे ज्ञान का स्वरूप। ज्ञान से पूर्व में होने वाला प्रमेय भी स्वतः प्रसिद्ध है। उस पूर्ववर्ती प्रमेय की जानकारी प्रतिपत्ति ) पर से नहीं हो सकती है क्योंकि प्रमाण से भिन्न दसरा पदार्थ प्रमेय की व्यवस्था का कारण नहीं है। एक बात यह भी है कि प्रमेय की पूर्वकाल वृत्ति को उत्तरवर्ती प्रमाण प्रकाशित नहीं कर सकता, क्योंकि प्रमेयकाल में प्रमाण नहीं रहता है। जो जिस काल में नहीं है वह उसका प्रकाशक नहीं होता है जैसे अपनी उत्पत्ति से पूर्वकालवर्ती काल में नहीं होने वाले पदार्थ का दीपक प्रकाशक नहीं होता है। पूर्वकाल विशिष्ट प्रमेय का वर्तमान ज्ञान भी नहीं होता है, इसलिए वह उसका प्रकाशक नहीं हो सकता है।
अब यदि प्रमाण (ज्ञान) और प्रमेय (ज्ञेय) को समकालीन माना जाय तो जिस प्रकार गाय के बायें और दायें सींग एक साथ उत्पन्न होने पर वे ग्राह्य-ग्राहक रूप नहीं होते हैं, उसी प्रकार समान काल में उत्पन्न ज्ञान और ज्ञेय में भी ग्राह्य-ग्राहक भाव नहीं बनेगा।
अब यदि बाह्य पदार्थों की सत्ता मानने वाले ऐसा कहें कि "बाह्य पदार्थों के बिना ज्ञान में नीलादि आकारों की प्रतीति नहीं हो सकती है इसलिए नीलादि आकारों का अनुरंजक बाह्य पदार्थ भी है" तो इसके उत्तर में चित्राद्वैतवादी कहते हैं कि उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि स्वप्न अवस्था में बाह्य पदार्थों के अभाव में भी बाहरी पदार्थ की
१. अथ प्रतिपन्नम् क स्वतः परतो वा?-न्यायकुमुदचन्द्र , पृ० २५ २. समकालत्वे तु ज्ञानज्ञेययो: ग्राह्यग्राहक भावाभावः ।
(क) न्या० कु. च०, पृ० १२५ (ख) स्या० र०, पृ० १७२
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غرف
डा० लालचन्द्र जैन प्रतीति होती है। स्वप्न अवस्था में होने वाले हाथी, घोड़ा आदि सम्बन्धी ज्ञान में बाह्य पदार्थ अनुरंजक नहीं होता है। अन्यथा स्वप्न ज्ञान और (प्रकाशित) जाग्रत ज्ञान में कोई भेद नहीं रहेगा। इसलिए सिद्ध है कि अर्थनिरपेक्ष ज्ञान ही अपनी सामग्री से अनेक आकार वाला होकर जाग्रत अवस्था में उसी प्रकार उत्पन्न होता है, जिस प्रकार स्वप्नदशा में उत्पन्न होता है।
अनेक आकार वाले ज्ञान में एकत्व का विरोध नहीं है : यदि कोई चित्राद्वैतवादी से ऐसा पूछे कि अनेक आकारों के रूप में प्रतिभासित होने वाली बुद्धि में एकत्व किस प्रकार संभव है ? तो इसके उत्तर में चित्राद्वैतवादी कहते हैं कि बुद्धि (ज्ञान) में प्रतिभासित होने वाले अनेक आकारों का पृथक्करण नहीं होने से उसमें एकत्व का विरोध नहीं है।' अनेक आकारों से प्रतिभासित होने वाली बुद्धि (ज्ञान) एक ही है अनेक रूप नहीं है, क्योंकि वह बाह्य आकारों (चित्रों) से विलक्षण होती है। बाह्य आकारों से वह विलक्षण इसलिए है कि बाह्य चित्र ( नाना आकार ) का पृथक्करण संभव है, किन्तु बुद्धि के नील-पीत आदि आकारों का पृथक्करण संभव नहीं है अर्थात् 'यह बुद्धि (ज्ञान) है और ये नील-पीत आदि आकार हैं' इस प्रकार पृथक्-पृथक् विभाजन बुद्धि में नहीं हो सकता है।'
चित्रपट आदि में चित्ररूपता की जो प्रतीति होती है उसमें ज्ञान धर्मता कैसे संभव है ? इसके उत्तर में चित्राद्वैतवादी कहता है कि उसमें अर्थ धर्मता नहीं बन सकती है। इसके अलावा एक यह भी विकल्प होता है कि चित्रपट आदि एक अवयवी रूप निरंश वस्तु है अथवा उसके विपरीत सांश?३
चित्रपट आदि को निरंश वस्तु मानने में दोष :-चित्र-अद्वैतवादी कहते हैं कि यदि चित्रपट आदि को एक अवयवी रूप निरंश वस्तु माना जायेगा तो नील भाग के ग्रहण करने पर पीत आदि भागों का ग्रहण नहीं होगा, क्योंकि उन पीत आदि भागों का उससे भेद हो जायेगा यह एक नियम है कि जिसके ग्रहण करने पर जो गृहीत नहीं होता है वह उससे भिन्न है । जैसे मेरु पर्वत के ग्रहण करने पर विन्ध्याचल गृहीत नहीं होता, इसलिए वे भिन्न-भिन्न हैं । इसी प्रकार नील भाग के ग्रहण करने पर पीत आदि भागों का ग्रहण नहीं होता है। एक बात यह भी है कि विरुद्ध धर्मों की प्रतीति (अध्यास) होने के कारण अवयवी में भी एकरूपता नहीं बन सकती है। जिसमें विरुद्ध धर्मों का अध्यास होता है. उसमें एकरूपता नहीं होती है. जैसे जल, अग्नि आदि । अवयवी में भी ग्रहण-अग्रहण रूप विरुद्ध धर्मों का अध्यास होता है, इस लिए उसमें भी एकरूपता नहीं है। यदि नील भाग पीत आदि भाग रूप है तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि पीत आदि के अग्रहण में नील आदि का भी अग्रहण होगा। क्योंकि जो जिस रूप होता है उसके अग्रहण में वह भी ग्रहीत नहीं होता है। जैसे पीत आदि के अग्रहण में उसके स्वरूप का भी ग्रहण नहीं होता है। नील भी पीत आदि रूप है, इसलिए पीत आदि अग्रहण में नील आदि का भी ग्रहण नहीं होगा। १. प्रमाणवार्तिक, २।२२० और भी देखें न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १२५-१२६; स्याद्वादरत्नाकर पृ० १७३ २. (क) वही
(ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ९५ ३. न्या० कु० च०, पृ० १२६
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चित्र-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण
चित्रपट आदि को सांश एक वस्तु मानने में दोष :-यदि चित्रपट आदि को निरंश एक वस्तु न मानकर उससे विपरीत सांश वस्तु माना जाय भी तो उसमें, विभिन्न आश्रयों में रहने वाले नील-पीत आदि की तरह, स्वयं चित्रता का अभाव सिद्ध हो जायेगा। इसलिए चित्रता अर्थ का धर्म नहीं है, किन्तु ज्ञान का धर्म है। अपने कारण-कलाप से उत्पन्न विज्ञान (बुद्धि) अनेक आकार युक्त (खचित) ही उत्पन्न होता है और अनुभव में आता है। इसलिए चित्राकार ज्ञान ही एक तत्त्व है। इस प्रकार चित्राद्वैत सिद्ध होता है।
. चित्र-अद्वैतवादी सांख्य दार्शनिकों के इस मत का निराकरण करते हैं कि सुखादि में ज्ञान स्वरूपता का अभाव होने से चित्र प्रतिभास वाला ज्ञान ही एकमात्र तत्त्व कैसे हो सकता है ? अतः चित्राद्वैतवाद सिद्ध नहीं होता है। चित्र-अद्वैतवादी कहते हैं कि सुखादि भी ज्ञान के अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने के कारण ज्ञान रूप ही है। अतः सुखादि ज्ञानात्मक हैं, ज्ञान के अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने के कारण ज्ञानान्तर की तरह । इसी बात को प्रमाणवार्तिक में कहा भी है- "तद् रूप पदार्थ तद्रूप हेतुओं से उत्पन्न होते हैं और अतद्रूप पदार्थ अतद्रूप हेतुओं से उत्पन्न होते हैं। अतः विज्ञान (बुद्धि) से अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने के कारण सुखादि अज्ञान रूप कैसे हो सकते हैं ?
चित्राद्वैतवाद की मीमांसा :-न्याय-वैशेषिक आदि भारतीय दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिक भट्ट अकलंकदेव, आ० विद्यानन्द, वादिराज, प्रभाचन्द्र, वादिदेव सूरि, यशोविजय आदि ने चित्राद्वैतवाद का तर्कपूर्ण निराकरण किया है।
जैन दार्शनिक सर्वप्रथम चित्राद्वैतवादियों से कहते हैं कि बाह्य पदार्थ की सत्ता साकार एवं निराकार ज्ञान से सिद्ध होती है। जैन दर्शन में केवल साकार ज्ञान को ही प्रमाण नहीं माना गया है।५ निराकार ज्ञान भी योग्यता के द्वारा प्रत्येक कार्य की व्यवस्था में हेतु होता है। इसलिए चित्राद्वैतवाद का यह कथन असत्य है कि निराकार ज्ञान सर्वत्र समान होने से प्रत्येक कर्म या पदार्थ की व्यवस्था में हेतु नहीं हो सकता। १. वही। २. (क) वही (ख) एकं चित्रं बहिरिह यतो वस्तुभूतं न किञ्चिन्मानारूढं कथमपि घटाकोटिमायाति तस्मात् ।
चित्रामिकां धियमनूभवेनैव संवेद्यमानां मुक्त्वा मिथ्याभिमतिमधुना किं न भो स्वीकुरुध्वे । चित्राकारामेकां बुद्धि बाह्यार्थमन्तरेणापि इत्थं मे प्रतिपन्ना: सम्प्रति तेषामियं शिक्षा ।
स्याद्वादरत्नाकर, १/१६, कारिका १६५-१६६ पृ० १७४ ३. न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १२६ पर उद्धृत ।
आ० विद्यानंद तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १/१ पृ० ३६-३८; प्रभाचन्द : न्यायकुमुदचन्द्र १/५ पृ० १२६-१३० । प्रभाचन्द : प्रमेयकमलमार्तण्ड, १/५ पृ० ९५-९८ । वादिदेव सूरि : स्याद्वादरत्नाकर, १/१६ पृ० १७४-१७९ ।
वादिराज सूरि : न्यायविनिश्चय विवरण प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव १/९६, पृ० ३९३-३९४ । ५. देखें-कैलाशचन्द्र शास्त्री जैन न्याय, पृ०८८ ६. (क) न्यायकुमुदचन्द्र, १/५, पृ० १२६
(ख) न्याय विनिश्चयटीका १५/१२७
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डा० लालचन्द्र जैन
एक बात यह भी है कि जो प्रकाशक होता है उसमें पूर्वभाव, उत्तरभाव और सहभाव का नियम नहीं होता है । उदाहरणार्थ कहीं पर पूर्व में विद्यमान अपने पश्चात् होने वाले का प्रकाशक होता है । जैसे सूर्य बाद में उत्पन्न होने वाले पदार्थों का प्रकाशक होता है । कहीं पर पूर्व में विद्यमान पदार्थों का उनके पश्चात् होने वाला प्रकाशक होता है जैसे मकान के अन्दर स्थित घट आदि पदार्थों का बाद में होने वाला दीपक प्रकाशक होता है । कहीं पर सहभावी भी पदार्थों का प्रकाशक होता है । जैसे कृत्कत्वादि अनित्य आदि के प्रकाशक होते हैं। इसलिए प्रमाण पूर्वापर सहभाव नियम निरपेक्ष होकर वस्तु को प्रकाशित करता है क्योंकि वह सूर्य की तरह प्रकाशक है । अतः चित्राद्वैतवादियों का यह प्रश्न ठीक नहीं है कि प्रमेय से पूर्वकाल में होने वाला ज्ञान पूर्वकालवर्ती बाह्य अर्थ का प्रकाशक है अथवा उत्तरकालवर्ती अथवा सहभावी । अशक्य पृथक्करणत्व क्या है : - आचार्य विद्यानन्द, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि चित्रअद्वैतवादियों से प्रश्न करते हैं कि आपने जो यह कहा है कि बुद्धि (ज्ञान) के आकारों का पृथक्करण करना संभव नहीं है तो आप बतलायें कि ऐसा क्यों है ? अर्थात् अशक्य पृथक्करण क्या है ? क्या वे नीलादि आकार ज्ञान से अभिन्न हैं ? अथवा ज्ञान के साथ उत्पन्न नील आदि आकारों का ज्ञानान्तर ( दूसरे ज्ञान ) को छोड़कर उसी ज्ञान से अनुभव होना है ? अथवा भेदपूर्वक ( भेद करके ) विवेचन के अभावमात्र का होना ही अशक्य पृथक्करण है !" उपर्युक्त तीन विकल्पों में से प्रथम विकल्प - नील आदि आकार ज्ञान से अभिन्न होने के कारण उन्हें ज्ञान से अलग करना असम्भव है, ऐसा मानने पर हेतु भी साध्य के समान असिद्ध है । क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि नील आदि ज्ञान से अभिन्न हैं, क्योंकि वे उससे अभिन्न हैं । यहाँ पर साध्य 'ज्ञान से अभिन्नता' को ही हेतु बनाया गया है । अतः यह असिद्ध हेतु साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता है । इसलिए इससे अशक्य पृथक्करण सिद्ध नहीं होता है ।
“सहोत्पन्न नील आदि ज्ञान का ज्ञानान्तर को छोड़कर उसी ज्ञान से अनुभव होना अशक्य पृथक्करणत्व है' ऐसा माना जाय तो अनेकान्तिक दोष होगा । जो हेतु पक्ष की तरह विपक्ष में रहता है वह अनैकान्तिक हेत्वाभास कहलाता है । चित्र - अद्वैतवादियों द्वारा दिया गया अशक्य विवेचनत्व हेतु इसलिए अनैकांतिक है कि सम्पूर्ण सुगत के ज्ञान के साथ उत्पन्न हुआ है और ज्ञानान्तर ( दूसरे ज्ञान ) का परिहार करके उसी सुगत के ज्ञान से ग्राह्य भी है। किन्तु उस सम्पूर्ण संसार के ज्ञान के साथ सुगत के ज्ञान का एकत्व नहीं है । अतः जो बुद्धि में प्रतिभासित होता है वह उससे अभिन्न है । यह कथन अनैकांतिक दोष से दूषित है ।
दूसरी बात यह है कि यदि सुगत के साथ सम्पूर्ण संसार का एकत्व ( एकपना ) मानने पर सुगत (बुद्ध) भी संसारी रूप हो जायेगा एवं सम्पूर्ण संसारी प्राणियों में सुगतपना (सुगतत्व) हो जायेगा । इस प्रकार सुगत को संसारी रूप में और असंसारी रूप में मानने पर ब्रह्मवाद मानना पड़ेगा ।
चित्राद्वैतवादी यह नहीं कह सकता है कि सुगत के साथ कोई उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए सुगत के संसारी होने या संसारी प्राणियों का सुगत रूप होने का दोष नहीं आ सकता १. ( क ) न्यायकुमुदचन्द्र १५, पृ० १२७
(ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ९५-९६
२. विपक्षेऽप्यविरुद्धबृत्ति रनैकान्तिकः । अनन्तवीर्यः प्रमेय रत्नमाला, ६/३०
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चित्र-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण
८१ है। क्योंकि प्रमाणवार्तिक में कहा गया है कि "जिन पर महती कृपा होती है, वेसुगत के अधीन होते हैं।" इस कथन से स्पष्ट है कि सुगत के सत्ताकाल में सर्वत्र ऐसे प्राणी वर्तमान थे। अन्यथा सुगत की कृपा किस पर होती। इसी प्रकार विनयी शिष्य आदि प्राणियों के अभाव में मोक्षमार्ग का उपदेश देना भी निर्थरक होगा। इसके अलावा एक बात यह भी है कि सुगत का उपदेश सुनकर कोई सुगत की तरह सुगति (निर्वाण ) भी प्राप्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि आपके सिद्धान्तानुसार सुगत के समय अन्य किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और वह सुगत अंत रहित है।
अब यदि अशक्य पृथक्करण को ज्ञानांतरज्ञान न मान करके सुगत के ज्ञान से उनका अनुभव में आना माना जाय तो यह कथन भी असिद्ध होजायेगा क्योंकि नील-पीत आदि पदार्थ अन्य ज्ञानों से भी जाने जाते हैं ( अनुभव में आते हैं)। यदि नील आदि पदार्थों को ज्ञान रूप माना जाय तो अन्योन्याश्रय नामक दोष आता है। क्योंकि नील आदि पदार्थों में ज्ञानरूपता सिद्ध होने पर ही नील आदि पदार्थों में अन्य ज्ञान का परिहार करके उसी ज्ञान से उनका अनुभव में आना सिद्ध होगा और इस प्रकार अनुभव की सिद्धि होने पर पदार्थों में ज्ञानरूपता की सिद्धि होगी।
अब यदि यह तीसरा विकल्प स्वीकार किया जाय कि भेद नहीं कर सकना अशक्य ही पृथकरण है' तो यह भी असिद्ध है क्योंकि नील आदि पदार्थ बाहर स्थित हैं और उनका ज्ञान अंतरंग में स्थित हैं, इसलिए उनमें पृथक्करण की सिद्धि होती है। इस प्रकार विवेच्यमान एवं पृथकीयमान इन दोनों में विवेचन वा भाव मानना ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार मानने से समस्त पदार्थों के अपह्नव अर्थात् अभाव के निश्चय से सकल शून्यता सिद्ध हो जायेगी, जो चित्राद्वैतवादियों को मान्य नहीं है ।
चित्रज्ञान की तरह बाह्य पदार्थ भी एक रूप है-एक बात यह भी है कि अनेक से व्याप्त अन्तस्तत्त्व ज्ञान का पृथक्करण न कर सकने से यदि एकत्व आकारों का अविरोधी मानते हो तो अवयवी आदि बाहर के तत्त्वों को भी एकत्व का अविरोधी मानना पड़ेगा, क्योंकि दोनों में समानता है। बुद्धि के द्वारा उसके स्वरूप का विवेचन तो अन्यत्र भी समान है। चित्र ज्ञान में भी नील आदि आकारों का अन्योन्य देश का परिहार करके एक देश में स्थित होना समान है। नील आदि आकारों का एक ही देश मानने पर एक आकार में ही अन्य समस्त आकारों का प्रवेश हो जाने से उनमें विलक्षणता (भेद) का अभाव हो जायगा और ऐसा होने पर चित्रता ( नाना आकार ) का विरोध हो जायगा। यह एक नियम है कि जिसका एक देश होता है अर्थात् जो एक ही आधार में रहते हैं, उनके आकर में विलक्षणता नहीं होती है। जैसे नीलाकार चित्र ज्ञान में नील आदि आकार भी एक देश वाले हैं, इसलिये उनमें भी विलक्षणता नहीं है। उसी प्रकार जहाँ आकारों में अविभिन्नता होती है वहाँ चित्ररूपता नहीं होती है, जैसे एक नील ज्ञान मेंस्वीकृत ( अभिमत) नील आदि आकारों में भी आकारों की अविचित्रता है।'
१. न्याय कुमुदचन्द्र, १/५/पृ० १२८
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डा० लालचन्द्र जैन
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___ आकार चित्रज्ञान से सम्बद्ध है या असम्बद्ध ? ---आ० प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवमूरि चित्राद्वैतवादियों से प्रश्न करते हैं कि नील आदि अनेक आकार चित्रज्ञान में सम्बद्ध होकर चित्रज्ञान के कथन के हेतु होते हैं अथवा उसमें असम्बद्ध होकर ही कथन के हेतु ( कारण ) हैं ? असम्बद्ध होकर तो वे आकार चित्रज्ञान के कथन के कारण नहीं हो सकते हैं, नहीं तो अतिप्रसंग का दोष हो जायेगा। क्योंकि कोई किसी से असम्बद्ध होकर भी किसी के कथन हेतु हो जायगा।
___अब यदि सम्बद्ध माना जाय तो बतलाना होगा कि किस सम्बन्ध से वे आकार चित्रज्ञान में सम्बद्ध होकर चित्रज्ञान के कथन में कारण हैं ? तादाम्य सम्बद्ध से वे सम्बद्ध है अथवा तदुत्पत्ति सम्बन्ध से? उन आकारों का चित्रज्ञान से तदुत्पत्ति सम्बन्ध से सम्बन्ध नहीं माना जा सकता है, क्योंकि समकालीन पदार्थों में ऐसी सम्बद्धता असम्भव है। तादात्म्य सम्बन्ध से भी सम्बद्धता नहीं बनती है क्योंकि अनेक आकारों से अभिन्न होने के कारण ज्ञान में एकरूपता के अभाव का प्रसंग आयेगा। जो अनेक आकारों से अभिन्न स्वरूप है वह वैसे ही अनेक है, जैसे अनेक आकारों का स्वरूप । चित्रज्ञान भी अनेक आकारों से अभिन्न है इसलिये उन आकारों में तादात्म्य सम्बद्धता नहीं हो सकती है। एक बात यह भी है कि अनेक आकारों में एक ज्ञानस्वरूप से अभिन्न ( अव्यतिरेक ) होने के कारण अनेकत्व नहीं बन सकता है, क्योंकि जो एक से अव्यतिरेक ( अभिन्न ) है वह अनेक नहीं है जैसे उसी ज्ञान का स्वरूप । अनेक रूप से माने गये नील आदि आकार भी एक ज्ञानस्वरूप से अभिन्न है, इसलिये वे अनेक नहीं है।'
चित्रता अर्थ का धर्म है—चित्र-अद्वैतवादियों का यह कथन भी दोषपूर्ण है कि ग्रहणअग्रहण रूप विरुद्ध धर्मों का अध्यास होने से चित्रता अर्थ का धर्म नहीं है। प्रत्यक्ष से विरोध होने पर अनुमान प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं होती है। अबाधित प्रत्यक्ष ज्ञान में चित्र के आकार बाहरी पदार्थों के धर्मरूप से प्रतिभासित होता है। अतः उसमें ज्ञानधर्मता मानना ठीक नहीं है। जो जिस धर्म से प्रतीत होता है वह उससे अन्य धर्म वाला नहीं है जैसे अग्नि के धर्म रूप से प्रतीत होने वाली उष्णता जल का धर्म नहीं है। चित्रता भी बाह्यार्थ के धर्मरूप प्रतीत होती है इसलिये वह भी ज्ञानधर्मरूप नहीं है। यदि कोई कहे कि चित्रता को का धर्म मानने पर ग्रहण और अग्रहण की उत्पत्ति कैसे बनेगी? इसका उत्तर यह है कि चित्र के ज्ञान (प्रतिपत्ति ) में अनेक वर्गों की प्रतिपत्ति कारण होती है । नीलभाग का ज्ञान होने पर भी पीत आदि भाग से अप्रतिपत्ति में चित्रता का ज्ञान न होना सिद्ध ही है ।
चित्रता को ज्ञान का धर्म मानने पर भी वह विरुद्ध हेतु के समान ही है। क्योंकि यहाँ प्रश्न होता है कि एक ज्ञान अनेक आकार वाला है अथवा उससे विपरीत ? एक चित्रज्ञान
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१. किञ्च एते आकाराः चित्रज्ञाने सम्बद्धाः सन्ताक्तद्वयपदेशहेतव असम्बद्धा वा,
(क) न्या० कु० च० पृ० १२८ (ख) स्या० रत्ना०, १/१६, पृ० १७७, वही । २. तथाहि ज्ञानमेकमनेकारं तद्विपरीतं वा? (क) न्या. कु० च० पृ० १२८
(ख) स्याद्वाद रत्नाकर, पृ० १७७
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चित्र-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण
८३
को अनेक आकार वाला मानना ठीक नहीं है, क्योंकि परस्पर में विरुद्ध अथवा भिन्न (व्यावृत्त) अनेक आकारों का एक अनंश ज्ञान में रहना ( वृत्ति ) संभव नहीं है। जिनकी परस्पर में भिन्नता होती है, उनकी अनंश एक वस्तु में वृत्ति ( अस्तित्व ) या सत्ता नहीं होती है। जैसे गाय, घोड़े आदि परस्पर में भिन्न हैं, इसलिये उनकी एक वस्तु में सत्ता नहीं होती है। इसी प्रकार नील-पीत आदि आकारों की भी परस्पर विरुद्धता या भिन्नता है इसलिये वे भी एक ज्ञान में नहीं रह सकते हैं।
, प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि यह भी कहते हैं कि एक अनंश ज्ञान का परस्पर विरुद्ध आकारों के साथ तादात्म्य ( अभेद सम्बन्ध ) भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक अनंश का परस्पर विरुद्ध आकारों के साथ अभेद सम्बन्ध मानने पर ज्ञान में भी भेद का प्रसंग प्राप्त होगा। उदाहरणार्थ -- जो एक और अनंश है उसका परस्पर विरुद्ध आकारों के साथ तादात्म्य ( अभिन्न ) सम्बन्ध नहीं है जैसे- उत्पन्न क्षण का उत्पत्ति और अनुत्पत्ति से अथवा सत्त्व और विनाश से तादात्म्य सम्बन्ध नहीं होता है। चित्राद्वैतवादियों ने चित्रज्ञान को एक और अनंश माना है। अतः आकारों का ज्ञान के साथ तादाम्य सम्बन्ध मानने पर उनमें भेद मानना भी संभव नहीं हो सकेगा, तब चित्रता कैसे बनेगी।'
यदि चित्र-अद्वैतवादी यह माने कि नील-पीत आदि आकारों की तरह वह ज्ञान भी अनेक है, तो प्रश्न होता है कि वह ज्ञान कथंचित् अनेक हैं। अथवा सर्वथा ?२ चित्रज्ञान को सर्वथा अनेक मानने पर नील आदि आकारों के ज्ञानों में परस्पर में अत्यन्त भेद होने के कारण चित्रता का ज्ञान स्वप्न में भी नहीं होगा। क्योंकि यह नियम है कि जिनमें परस्पर में अत्यन्त भेद होता है, उनमें चित्रता का बोध नहीं होता है; जैसे सन्तानान्तर के विभिन्न ज्ञानों में, आकारों की तरह उनके ज्ञानों में भी परस्पर अत्यन्त भेद है, इसलिए चित्रता संभव नहीं है।
कथंचित् अभेद मानने पर तो ज्ञान की तरह बाह्य अर्थ में भी चित्रस्वभावता मान लेना चाहिए। क्योंकि उसमें भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से तरह-तरह के आकारों से तादात्म्य का अनुभव होता है । दुराग्रह के अभिनिवेश से क्या लाभ होगा? बाह्य चित्रता और अन्तःकरण की चित्रता में आक्षेप और समाधान समान है। प्रमेयकमलमार्तण्ड में कहा भी है कि जिस तरह एक ज्ञान में अक्रम से नील, पीत आदि अनेक आकार व्याप्त होकर रहते हैं, उसी प्रकार क्रम से सुख दुःख आदि अनेक आकार भी उसमें व्याप्त होकर रहते हैं, ऐसा मानना चाहिए।"२ अतः नील आदि अनेक अर्थों का व्यवस्थापक प्रमाता (आत्मा) है और वह कथंचित अक्षणिक है ऐसा सिद्ध होता है। अतः प्रमाता और प्रमेय ऐसे दो तत्त्व सिद्ध हो जाने से चित्र-अद्वैत ही तत्त्व है ऐसा सिद्ध नहीं होता। १. तथाहि ज्ञानमेकमनेकारं तद्विपरीतं या ? (क) न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १२८
(ख) स्याद्वादरत्नाकर, पृ० १७७ २. (क) न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १२९ (ख) स्याद्वादरत्नाकर, पृ० १८७ ३. क्रमेणाप्यनेकसुखद्याकार"दन्तोजलाञ्जलि: । १/५, पृ० ९६ ।
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८४
डा० लालचन्द्र जैन
आचार्य विद्यानन्द' ने भी कहा है कि जिस प्रकार चित्रज्ञान में अनेक आकार होने पर भी ज्ञान की अपेक्षा से वह एक रूप । इसी प्रकार ज्ञान- दर्शन, सुख आदि की अपेक्षा से आत्मा अनेक रूप है और आत्म द्रव्य की अपेक्षा एक रूप है । यदि सुख रूप आत्मा से ज्ञान रूप आत्मा को भिन्न मान कर चित्र अद्वैतवादी आत्मा को एक नहीं मानेगा तो नील रूप आकार से पीत रूप आकार भिन्न होने के कारण चित्रज्ञान भी एक रूप सिद्ध नहीं होगा । एक बात यह भी है कि आत्मा को एक रूप मात्र मानने पर चित्रज्ञान को भी एक ही रूप मानना पड़ेगा । ऐसा मानने पर उसे चित्रज्ञान कहना असंगत हो जायेगा । धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में भी चित्र - ज्ञान में अनेक आकारों का निराकरण करते हुए कहा है कि "क्या एक ज्ञान में अनेक आकार हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं, किन्तु ज्ञान को अनेक आकार अच्छे लगते हैं तो इस विषय में हम क्या कर सकते हैं ?" दूसरे शब्दों में ज्ञान में चित्रता नहीं है फिर भी अज्ञानता के कारण ज्ञान में चित्रता मानने वालों का कोई क्या कर सकता है ? इसी प्रकार यह भी कहा गया है कि चित्र ज्ञान में एकाकारता भी सिद्ध नहीं होती है । अतः चित्रज्ञान में कथंचित् एकाकारता और कथंथित् अनेकाकारता सिद्ध होती है । इसीप्रकार आत्मा आदि तत्त्व भी कथंचित् एक रूप और अनेक रूप हैं ।
सुख आदि ज्ञान रूप नहीं हे : - चित्र - अद्वैतवादी मानते हैं कि सुख आदि ज्ञान रूप हैं किन्तु उनका यह कथन उचित नहीं है । क्योंकि सुख आदि की उत्पत्ति एकान्त रूप से (सर्वथा ) उसी सामग्री से नहीं होती, जिन से ज्ञान की उत्पत्ति होती है । सुख की उत्पत्ति सातावेदनीय नामक कर्म के उदय से होती हैं और ज्ञान की उत्पत्ति ज्ञानावरण नामक कर्म के क्षयोपशम से होती हैं अतः सुख और ज्ञान दोनों के कारण भिन्न-भिन्न है । इस प्रकार सुख आदि की तरह ज्ञान भी आत्मा रूप है । अतः ज्ञान और सुख आदि में कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता होने पर भी यदि उन दोनों में एकता मानी जायगी तो रूप, आलोक आदि को भी ज्ञान रूप मानना पड़ेगा । इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि ज्ञान और सुख आदि सर्वथा एक नहीं हैं । आत्मा की अपेक्षा वे एक हैं और अपने कार्य स्वरूप आदि की अपेक्षा अनेक भी हैं । प्रभाचन्द्र वादिदेवसूरि आदि तर्कशास्त्री कहते भी हैं कि - चित्र - अद्वैतवादियों ने सुख आदि को ज्ञान स्वरूप मानने में जो यह हेतु दिया था, कि सुख आदि ज्ञान उत्पन्न करने वाले अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होते हैं, उसके विषय में यह प्रश्न होता है कि सुख आदि में ज्ञान के अभिन्न हेतु से उत्पन्नत्व सर्वथा स्वीकार है अथवा कथंचित् ? यदि हेतु को सर्वथा माना जाय तो वह असिद्धदोष से दूषित हो जायेगा । क्योंकि सुख आदि साता - असाता वेदनीय के उदय से एवं माला, ता आदि निमित्तों से होते हैं । इसी प्रकार ज्ञान ज्ञानावरण के क्षयोपशम आदि से होता है । दूसरी बात यह है कि यदि सुख आदि का स्वरूप ज्ञान के स्वरूप से भिन्न है, तो अभिन्न हेतु से उत्पन्न होने के कारण यह हेतु असिद्ध सिद्ध होता है । जिनका भिन्न स्वरूप होता है,
१. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १/१ द्वारिका १५९-१६१ पृ० ३५-३६
२. वही ।
३. (क) विद्यानंद: अष्टसहस्रत्री, पृ० १२८ ( ख ) न्यायकुमुदचन्द्र, १ / ५, पृ० १२९ ( ग ) स्याद्वादरत्नाकर १/१६ पृ० १७८ ।
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चित्रं-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण वे सर्वथा अभिन्न हेतु से उत्पन्न नहीं होते हैं, जैसे जल, अग्नि आदि। ज्ञान और सुख आदि में भी विभिन्न स्वरूप पाया जाता है । सुख आनन्द आदि रूप होता है और ज्ञान प्रमेय के अनुभव स्वरूप होता है। इसलिए वे भी एक अभिन्न कारण से उत्पन्न नहीं हैं। अतः विभिन्न स्वरूप वाले पदार्थों का अभिन्न उपादान कारण मानने पर सभी चीजें सभी की उपादान कारण हो जायेंगी । अतः सिद्ध है कि ज्ञान सुख आदि रूप नहीं है।
अब यदि ज्ञान अभिन्न हेतु से उत्पन्न होने के कारण इस हेतु को कथंचित् माना जाय तो रूप, आलोक आदि के द्वारा हेतु विपक्ष में चले जाने से अनैकान्तिक नामक हेत्वाभास से दूषित हो जाता है । क्योंकि जिस प्रकार रूप आलोक आदि से ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार रूप-क्षणान्तर एवं आलोक-क्षणान्तर की भी उत्पत्ति होती है। संक्षेप में रूप-ज्ञान की तरह रूप को भी उत्पन्न करता है । अतः सुख आदि ज्ञान रूप नहीं हैं यह सिद्ध हुआ।
एक बात यह भी है कि आपने सुख आदि में 'ज्ञान से अभिन्न हेतु से उत्पन्न होने के कारण' ऐसा जो हेतु माना है वह किस अपेक्षा से कहा है उपादान कारण की अपेक्षा से अथवा सहकारी कारण की अपेक्षा से? उपादान कारण की अपेक्षा मानने पर यह भी विचारणीय है कि इनका उपादान क्या है, आत्म द्रव्य अथवा ज्ञानक्षण ? आत्म द्रव्य को बौद्धों ने माना ही नहीं है इसलिए वह उपादान हो नहीं सकता है । आत्म द्रव्य मानने पर प्रश्न होता है कि सुखादि में उपादान की अपेक्षा से अभेद सिद्ध करते हैं अथवा स्वरूप की अपेक्षा से ? यदि चित्र-अद्वैतवादी 'सुखादि में उपादान की अपेक्षा अभेद सिद्ध करते हैं'- इस विकल्प को स्वीकार करते हैं तो इसमें सिद्ध-साधन नामक दोष आता है, क्योंकि जैनदर्शन ने भी चेतन द्रव्य की अपेक्षा सुख आदि में अभेद माना है और सुखज्ञान आदि प्रतिनियत (पूर्वनिर्धारित) पर्याय की अपेक्षा से इनमें परस्पर भेद भी माना है। अब यदि यह माना जाय कि 'स्वरूप की अपेक्षा सुख आदि में अभेद है' तो घट. घटी, शराव आदि के समान अनैकान्तिक दोष होता है। क्योंकि अभिन्न उपादान वाले घट, घटी आदि में स्वरूप से अभेद नहीं है।'
_अब यदि ज्ञानक्षण को उपादान मानकर 'विज्ञान से अभिन्न हेतुजत्व' सिद्ध करना चाहते हैं तो यह भी असिद्ध है। क्योंकि आत्मद्रव्य ही सुख आदि में उपादान होता है। पर्यायों का दूसरी पर्यायों की उत्पत्ति में उपादानत्व कभी भी नहीं देखा गया है। अन्तरंग अथवा बाह्य द्रव्य में ही उपादानत्व बनता है। कहा भी है "जो द्रव्य पूर्व और उत्तर पर्यायों में तीनों कालों में वर्तमान रहता है वही द्रव्य माना गया है।" आत्मा पूर्वोत्तर पर्यायों और तीनों कालों में रहने के कारण द्रव्य है।
अब यदि माना जाय कि 'सुखादि में ज्ञान-अभिन्न हेतुजत्व' सहकारी कारण की अपेक्षा से है तो यह भी कथन मात्र है। यहाँ चक्षु आदि के द्वारा अनैकान्तिक दोष का प्रतिपादन होता है। यदि सुख आदि ज्ञान से सर्वथा अभिन्न है तो ज्ञान की तरह सुख आदि को भी अर्थ का
क होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। ज्ञान तो स्व-पर प्रकाशक होता है और सुख आदि अपने स्व-प्रकाश में ही नियत (निश्चित) है, ऐसा सभी को अनुभव होता है । अतः विरुद्ध १. न्यायकुमुदचन्द्र, १/५, पृ० १३२
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डा. लालचन्द्र जैन
धर्मों का अध्यास होने से इनमें अभेद कैसे हो सकता है ? जहाँ विरुद्ध धर्मों का अध्यास है वहाँ अभेद नहीं है। जैसे जल, अग्नि । ज्ञान सुख आदि में भी विरुद्ध धर्मों का अध्यास है, इसलिए उनमें भी अभेद नहीं है । इस प्रकार सुख आदि में ज्ञान रूपत्व सिद्ध नहीं होता है।
इस प्रकार चित्राद्वैतवाद पर विचार करने पर वह तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। इसलिए अन्य अद्वैतवादों की तरह 'चित्राद्वैतवाद' भी ठीक नहीं है ।
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जैन दर्शन में मन
बच्छराज दूगड़
भारतीय दर्शन का मुख्य रूप तत्त्व दर्शन या मोक्ष दर्शन रहा है। इसलिए उसने विश्व की व्याख्या और मोक्ष के साधक बाधक तत्त्वों की मीमांसा की है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए सभी दर्शनों ने मोक्ष मार्ग का निरूपण किया है। तथा मोक्ष क्या है, इसका भी विस्तार से विश्लेषण हआ है। आचार्य उमास्वाति ने कहा है-"जिसने अहंकार और वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली; मन, वाणी और शरीर के विकारों को धो डाला; जिनकी आशा निवृत हो चुकी, उन सुविहित आत्माओं के लिए यही मोक्ष है।" इस विश्लेषण में भी मन को प्रमुख स्थान देते हुए कहा गया है कि इन्द्रिय और मन का वशीकरण ही मोक्ष मार्ग है।
दूसरी तरफ दर्शनों में ज्ञान मीमांसा का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जब भी ज्ञान मीमांसा की चर्चा होती है, मन का वहाँ रहना आवश्यक हो जाता है। इन्द्रिय और मन के माध्यम से ही ज्ञेय को जानकर हम ज्ञान करते हैं। अतः दर्शन शास्त्र में मन एक ऐसा शब्द है जिसके अस्तित्व को सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया है।
मन के विषय में पाश्चात्य दार्शनिकों ने बहुत कुछ चिन्तन किया है। आधुनिक मनोविज्ञान की शाखा भी वास्तव में पाश्चात्य दर्शन की ही देन है। पर भारतीय दर्शन में भी मन का स्थान कुछ विशिष्टता लिये हुए है। भारतीय दर्शन की तरह मन क्या है, मन का पौद्गलिक वस्तुओं व शारीरिक अंगों के साथ क्या सम्बन्ध है, क्या मन की स में एक है अथवा विभेद है, इत्यादि मौलिक प्रश्नों पर पाश्चात्य दर्शन में भी प्लेटों से लेकर फ्रायड तक ने विचार किया है। पाश्चात्य दार्शनिक मन के अस्तित्व को स्वीकार करने में मुख्य तीन तथ्य मानते हैं -(१) विचार या चिंतन, (२) ज्ञान और (३) भविष्य में लक्ष्य का निर्धारण । जैन दर्शन में मन
जैन दर्शन के अनुसार मन स्वतन्त्र पदार्थ या गुण नहीं है। वह भाव मन के रूप में आत्मा का ही एक विशेष गुण है। मन की प्रवृत्ति भी कर्म और नो-कर्म सापेक्ष है। अतः मन की स्थिति को समझने से पूर्व इस त्रिपुटी को समझना आवश्यक है।
आत्मा-चैतन्य-लक्षण, चैतन्य-स्वरूप और चैतन्यमय पदार्थ का नाम आत्मा है।'' पर चैतन्य का विकास सब आत्माओं में समान नहीं है। इस तारतम्य का निमित्त है कर्म । १. उत्तराध्ययन २८/१०, ११ २. स्थानांग २ ३. भगवती ७/८
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बच्छराज दूगड़ कर्म-आत्मा की प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट तथा उसी के साथ एकरसीभूत बना हुआ पुद्गल कर्म है। कर्म के विचार में नो-कर्म की अपेक्षा रहती है। कर्म विपाक की सहायक सामग्री नो-कर्म है। कर्म विपाक में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अवस्था, पुद्गल आदि बाहरी परिस्थितियों की अपेक्षा रहती है।
मन क्या है ?--मनन करना मन है अथवा जिसके द्वारा मनन किया जाता है, वह मन है। धवला में कहा गया है कि जो भली प्रकार ( ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क अनुमान, आगम आदि पूर्वक ) जानता है, उसे संज्ञा या मन कहते हैं । द्रव्यसंग्रह की टीका में कहा गया है कि मन अनेक प्रकार के संकल्प विकल्पों का जाल है। इन सभी परिभाषाओं का संकलनात्मक रूप जैन सिद्धान्त दीपिका में मिलता है, जिसके अनुसार मन, इन्द्रियों के द्वारा गृहीत विषयों में प्रवृत्त होता है। वह शब्द रूप आदि सभी विषयों को जानता है तथा भूत, भविष्य और वर्तमान का संकलनात्मक ज्ञान करता है।
मन के कार्य स्मृति, चिंतन और कल्पना ही मन के कार्य हैं। यह इन्द्रिय ज्ञान का प्रवर्तक है। नन्दीसूत्र में मन के कार्यों का विभाजन इस प्रकार है-"ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, विमर्श ।' आचार्य सिद्धसेन के अनुसार संशय, प्रतिभा, स्वप्नज्ञान, वितर्क, सुख-दुःख, क्षमा, इच्छादि मन के कार्य हैं।'
मन चेतन या अचेतन—जैन दर्शन के अनुसार मन चेतन द्रव्य और अचेतन द्रव्य के गुण के सम्मिश्रण की स्थिति में ही उत्पन्न होता है। जब आत्मा सर्दथा कर्म मुक्त होती है तो उसमें मन की स्थिति नहीं होती। इसलिए जैन-दृष्टि के अनुसार मन दो प्रकार के होते हैंएक चेतन और दूसरा पौद्गलिक ।
पौद्गलिक मन ज्ञानात्मक मन का सहयोगी होता है। इसके बिना ज्ञानात्मक मन अपना कार्य नहीं कर सकता। उसमें अकेले में ज्ञान-शक्ति नहीं होती दोनों के योग से मानसिक क्रियाएँ होती हैं।
ज्ञानात्मक चेतना ( भावमन ) मस्तिष्क ( पौद्गलिक ) की उपज नहीं हो सकती। मन चैतन्य के विकास का एक स्तर
विकास का एक स्तर है अतः ज्ञानात्मक है पर उसका यह कार्य जिस स्नायु मण्डल, मस्तिष्क और मनोवर्गणा की सहायता से होता है वह पौद्गलिक मन है।
१. जैनसिद्धान्त दीपिका ४/१ २. प्रज्ञापना १७ ३. वही १३ ४. विशेषावश्यकभाष्य गाथा ३५२५ (मणणं व मन्नए वाडणेण)
धवला १/१/१, ४/१५२/३
द्रव्यसंग्रह टीका १२/३०/१ ७. जैनसिद्धान्त दीपिका २/३३ ८. नन्दीसूत्र ३६
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जैन दर्शन में मन
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मन और मस्तिष्क की सापेक्षता - मन और मस्तिष्क में गहरा सम्बन्ध है । इन्द्रियों के द्वारा विषय का ग्रहण होता है, मस्तिष्क उनका संवेदन करता है तथा मन उस पर पर्यालोचन यानि यता - उपादेयता का कार्य करता है । मस्तिष्क मन की प्रवृति का मुख्य साधन अंग है, इसीलिए उसके विकृत हो जाने से मन भी विकृत हो जाता है । फिर भी ये स्वतन्त्र हैं ।'
दर्शन के अनुसार मति-ज्ञान और श्रुत ज्ञान के क्रम इस प्रकार है- व्यञ्जन - ज्ञाता और ज्ञेय सर्व-सामान्य रूप का अवबोध । संशय-वस्तु
मन और इन्द्रियों को सापेक्षता - जैन साधन हैं - इन्द्रियाँ और मन । यहाँ ज्ञान का वस्तु का उचित सन्निधान । दर्शन --वस्तु के स्वरूप के बारे में अनिर्णायक विकल्प । ईहा - वस्तु स्वरूप का परामर्श अर्थात् वस्तु में प्राप्त और अप्राप्त धर्मों का पर्यालोचन । अवाय वस्तु स्वरूप का निर्णय । धारण-- वस्तु स्वरूप का स्थिरीकरण |
इस ज्ञान क्रम में व्यञ्जन तथा दर्शन तक इन्द्रियों की प्रवृत्ति होती है । मन का कार्य अर्थावग्रह से प्रारम्भ होता है । मन सब इन्द्रियों के युगपत् प्रवृत्ति नहीं कस सकता । वह एक काल में एक इन्द्रिय के साथ ही व्यापार कर सकता है । भावमन ज्ञानात्मक चेतना ) उपयोगमय है । वह जिस समय जिस इन्द्रिय के साथ मनोयोग कर जिस वस्तु का उपयोग करता है तब वह तन्मयोपयोग ही हो जाता है । इन्द्रियों के व्यापार की सार्थकता इसी में है कि उसके बाद मन भी अपना कार्य करे । इन्द्रियों के अभाव में मन पंगु हो जाता है । वह उसी विषय पर चिंतन कर सकता है जो कभी न कभी इन्द्रियों से गृहीत हुआ हो । इन्द्रियाँ सिर्फ मूर्त-द्रव्य की वर्तमान पर्याय को ही जानती हैं । मन मूर्त और अमूर्त्त दोनों के त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है, इसलिए मन को सर्वार्थग्राही कहा गया है ।
मन की अप्राप्यकारिता - मन का वस्तु के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता । की प्राप्यकारिता को मानें तो आग के चिंतन से हम जलने लगेंगे और चंदन के शीतलता का अनुभव करने लगेंगे । अतः मन की अप्राप्यकारिता सिद्ध है ।
मन का स्थान - गोम्मटसार के कर्त्ता के कुछ आचार्य मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर को है वहाँ-वहाँ मन है । *
१. सन्मतितर्कप्रकरण, काण्ड - २
२. जैनसिद्धान्तदीपिका २/३३
३. अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग – ६, पृ० ७६-८३
४. योगशास्त्र ५ / २ मनोयत्र
नीरवत् १ ।
मन इन्द्रिय है या नहीं जैन दृष्टि के अनुसार मन अनीन्द्रिय है । इसका अर्थ यह है कि मन इन्द्रिय की तरह प्रतिनियत अर्थ को जानने वाला नहीं है । इसलिए इन्द्रिय भी नहीं है । इस विषय में धवलाकार का कथन है कि इन्द्र अर्थात् आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं । जिस
यदि मन चिंतन से
अनुसार मन का स्थान हृदय है । पर योग के मानते हैं । उनके अनुसार जहाँ-जहाँ प्राणवायु
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बच्छराज दूगड़ प्रकार शेष इन्द्रियों का बाह्य इन्द्रियों से ग्रहण होता है वैसा मन का नहीं होता। अतः मन अनीन्द्रिय है।' अनीन्द्रिय का अर्थ इन्द्रिय सदृश है।
मन का अधिकारी कौन -मन के व्यक्त चेतनत्व की दृष्टि से गर्भज पंचेन्द्रिय प्राणी ही अधिकारी है। पर संज्ञीश्रुत की अपेक्षा से इत प्राणी भी उसके अधिकारी हैं। हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीव बिना ईहा अपोह के भी ईष्ट की ओर प्रवृत्ति करते हैं और अनिष्ट से निवृत्ति करते हैं । दीर्घकालिकी संज्ञा वाले जीव ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा आदि के सहारे वस्तु के विषय में त्रैकालिक आलोचनात्मक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सम्यग्दृष्टि संज्ञा वाले जीवों में ही मानसिक ज्ञान का यथार्थ और पूर्ण विकास होता है।
मन की विविध अवस्थाएँ-जैन दर्शन के ग्रंथों में मन की अवस्थाओं का वर्णन बहुत कम उपलब्ध होता है पर जैन योग ग्रंथों में मन की विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, योगीदुदेव, शुभचंद्र आदि ने अपने ग्रंथ क्रमशः मोक्षप्राभृत, समाधितंत्र, परमात्मप्रकाश और ज्ञानार्णव में मन के प्रकारों की चर्चा की है। इनमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की चर्चा विस्तार से हुई है। बहिरात्मा मन की वह स्थिति है जिसकी विद्यमानता से व्यक्ति अपने भीतर कुछ भी सार या तत्त्व की अनुभूति नहीं करता। उसे बाह्य पदार्थों में ही सार लगता है। अन्तरात्मा मन की स्थिति में वह अपने भीतर में सार देखने लगता है। वह अपने भीतर सुख आनन्द, शक्ति चैतन्य को बहते हए देखता है। परमात्मा विशुद्ध चैतन्य की स्थिति है वहाँ मन का कोई संबंध नहीं अर्थात् वहाँ मन नहीं होता।
स्थानांगसूत्र में मन के प्रकार एवं मन की अवस्थाओं का निरूपण हुआ है । वहाँ मन के तीन प्रकार बताये हैं-(१) तन्मन-लक्ष्य में लगा हुआ मन, (२) तदन्यमन-अलक्ष्य में लगा हुआ मन, (३) नो-अमनमन का लक्ष्य हीन व्यापार । यहां मन की तीन अवस्थाएं भी प्रतिपादित की गई हैं। (१) सुमनस्कता-मानसिक प्रसन्नता, (२) दुर्मनस्कता-मानसिक विषाद, (३) नो मनस्कता और नो-दर्मनस्कता-मानसिक उपेक्षा भाव या तटस्थता।२
आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में अपने स्वानुभव की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम मन की अवस्थाओं का निरूपण किया है। विक्षिप्तमन यातायात मन, श्लिष्ट मन और सुलीन मन । यहाँ हेमचन्द्राचार्य पर पतंजलि प्रणीत योगदर्शन पर लिखे व्यास भाष्य का प्रभाव परिलक्षित होता है । व्यास ने प्रथम सूत्र की व्याख्या में ही मन के भेदों का इस प्रकार निरूपण किया हैक्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं को समझकर आचार्य श्री तुलसी ने अपने ग्रन्थ मनोनुशासनम् में इन अवस्थाओं का निरूपण किया है । मूढ, विक्षिप्त यातायात, श्लिष्ट, सुलीन और निरुद्ध ।
मूढ़-जो मन मिथ्या दष्टि और मिथ्या आचार में परिव्याप्त होता है, उसे मूढ़ कहते हैं। इस अवस्था में मोह प्रबल होता है और मन केवल बाह्य जगत् और परिस्थिति का ही प्रतिबिम्ब लेता रहता है । इस मन में किसी एकविषय पर स्थिर रहने की योग्यता नहीं होती।
१. धवला १/१/१, ३५/२६०/५ २. स्थानांगसूत्र-३/३५७, १८८
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जैन दर्शन में मन विक्षिप्त--जो मन इधर-उधर विचरता रहता है अर्थात् किसी एक विषय पर निश्चल नहीं रहता, वह विक्षिप्त मन है। इस अवस्था में भीतर की ओर झाँकने की भावना जागृत होती है और इस अवस्था में लगता है कि मन बहुत चंचल है । यह स्थिरता की ओर बढ़ने का प्रथम चरण है।
यातायात-जो मन कभी अन्तर्मुखी बनता है, कभी बहिर्मुखी उसे यातायात मन कहते हैं।
श्लिष्ट-ध्येय में स्थिर हुए मन को श्लिष्ट कहते हैं। पर यहाँ भी ध्याता और ध्येय में पूर्ण एकात्मकता नहीं है।
सुलीन-जो मन ध्येय में सुस्थिर हो जाता है, उसे सुलीन मन कहते हैं । ध्याता, ध्येय में अपना अस्तित्व भुला देता है। फिर भी यहाँ मन की गति समाप्त नहीं होती, क्योंकि उसे ध्येय की पूर्ण स्मृति बनी रहती है।
निरुद्ध-जो मन बाह्य आलम्बन से शून्य हो केवल आत्मपरिणत हो जाता है, वह निरुद्ध मन है। यहाँ पर ध्येय की स्मृति भी समाप्त हो जाती है। तथा इन्द्रिय और मन की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है।'
मनोनिरोध के उपाय-उत्तराध्ययन में केशी और गौतम के संवाद से मन को वश में करने का जो उपाय दिया गया है वह है श्रुत। धर्म शिक्षा के द्वारा मन शान्त हो जाता है। मनोनुशासनम् में मनोनिग्रह के कुछ बाहरी व कुछ आंतरिक उपाय बताये गये हैं। जब चैतन्य का प्रवाह अन्तर्मुखी होता है तब कल्पनाएँ और स्मृतियाँ स्वतः निरुद्ध हो जाती हैं। आत्मज्ञान की निर्मलता ही वैराग्य का रूप लेती है। मन के निरोध का एक दूसरा हेतु श्रद्धा का प्रकर्ष है । श्रद्धा के प्रकर्ष से भी मानसिक एकाग्रता सधती है। ये ही उपाय पातंजल योगदर्शन में भी बताये गये हैं। भगवान् बुद्ध ने भी मन के नियंत्रण पर बल दिया है। उन्होंने कहा है कि मन नियंत्रण में आ जाय तो सभी विषयों से मन को हटाना आवश्यक नहीं है। जहाँ-जहाँ पाप है वहाँ-वहाँ से मन को हटाना है। __ मनोनिरोध के बाह्य उपाय इस प्रकार हैं
शिथिलीकरण-काया की शिथिलता मनोनिरोध का सुन्दर उपाय है । काया की चंचलता ही मन को बढ़ाती है। शरीर की शिथिलता संकल्प और श्वास पर निर्भर है। अतः जितनी संकल्प और श्वास की शिथिलता होगी, मन का निरोध भी सहज हो जायेगा।
ध्यान-ध्यान में मन को किसी विषय पर नियोजित करके मन की चंचलता को कम किया जाता है। उत्तराध्ययन में भी प्रतिपादित किया गया है कि एकाग्रसन्निवेष से चित्त का निरोध होता है। इससे संकल्प-विकल्प का प्रवाह टूट जाता है।
। इस प्रकार जैन दर्शन में मन के अर्थ से लेकर मनोनिरोध तक की पूरी पद्धति बताई गई है। १. मनोनुशासनम् प्रकरण २, पृ० ३३-३८ २. उत्तराध्ययन सूत्र २३/५५-५८ ३. पातंजल योगदर्शन I, १२-१६ ४. संयुक्त निकाय यतो-यतो प्रमुच्चति १/१/२४
न सव्वतो."निवारये १/१/२५ ५. उत्तराध्ययन २९/२६
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लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण
मुमुक्षु शांता जैन मनुष्य जीवन का विश्लेषण हम जहाँ से भी शुरू करें, आगम सूक्त की अनुप्रेक्षा के साथ पहला प्रश्न उभरेगा- 'अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे'१ मनुष्य अनेक चित्त वाला है यानि वह बदलता हुआ इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व है। विविध स्वभावों से घिरे मनुष्य को किस बिन्दु पर विश्लेषित किया जाये कि वह अच्छा है या बुरा? क्योंकि देश, काल व परिस्थिति के साथ बदलता हुआ मनुष्य कभी ईर्ष्याल, छिद्रान्वेषी, स्वार्थी, हिंसक, प्रवंचक, मिथ्यावृष्टि के रूप में सामने आता है तो कभी विनम्र, गुणग्राही, निःस्वार्थी, अहिंसक, उदार, जितेन्द्रिय और तपस्वी के रूप में। आखिर इस वैविध्य का तत्त्व कहाँ है ? ऐसा कौन सा प्रेरक बिन्दु है जो न चाहते हुए भी व्यक्ति द्वारा बुरे कार्य करवा देता है ? ऐसा कौन सा आधार है जिसके बल पर एक संन्यासी बिना भौतिक सम्पदा के आनन्द के अक्षय स्रोत तक पहुँच जाता है और दूसरा भौतिक सम्पदा से घिरा होकर भी प्रतिक्षण अशान्त, बेचैन, कुण्ठित और दुःखाक्रान्त होकर जीता है।
ऐसे प्रश्नों का समाधान हम व्यवहार के स्तर पर नहीं पा सकते । जैन दर्शन ने चित्त के बदलते भूगोल को सम्यक् जानने के लिये और मनुष्य के बाह्य और आन्तरिक चेतना के स्तर पर घटित होने वाले व्यवहार को समझने के लिये लेश्या का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
जैन दर्शन में लेश्या का सिद्धान्त बहत महत्त्वपूर्ण है। कर्म शास्त्रीय भाषा में लेश्या हमारे कर्म बन्धन और मुक्ति का कारण है। यद्यपि आत्मा स्फटिक मणि के समान निर्मल
और पारदर्शी है, पर लेश्या द्वारा आत्मा का कर्मों के साथ श्लेष चिपकाव होता है । २ लेश्या द्वारा आत्मा पुण्य और पाप से लिप्त होती है। कषाय द्वारा अनुरंजित योग प्रवृत्ति के द्वारा होने वाले भिन्न-भिन्न परिणामों को जो कृष्ण, नील आदि अनेक रंग वाले पुद्गल विशेष के प्रभाव होते हैं, लेश्या कही जाती है। आगम में लेश्या की परिभाषा की गयी है- “कषायोदयरंजिता योग प्रवृत्तिलेश्या।"४ कर्म बन्धन के दो कारण हैं-कषाय और योग । कषाय होने पर लेश्या में चारों प्रकार के बन्धन होते हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। प्रकृति और प्रदश बन्ध योग से होता है और स्थिति तथा अनुभाग बन्ध कषाय से होता है । १. आयारो ३/४२ २. षट्खण्डागम (धवला) ७/२/१/३/७ ३. पंचसंग्रह, प्राकृत १/१४२ ४. सर्वार्थसिद्धि २/६, राजवार्तिक २/६/८ ५. गोम्मटसार जीवकाण्ड ४९०
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लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण
कर्मशास्त्रीय भाषा में लेश्या आस्रव और संवर से जुड़ी है। आस्रव का मतलब है दोषों को भीतर आने देने का रास्ता। जब तक व्यक्ति का मिथ्या दृष्टिकोण रहेगा, आकांक्षाएं प्रबल रहेंगी, बुद्धि-विवेक सोया रहेगा, मन, वचन और शरीर पर नियन्त्रण नहीं होगा, रागद्वेष की भावना से मुक्त नहीं बन पाएगा, तब तक वह प्रतिक्षण कर्म-संस्कारों का संचय करता रहेगा। आगमों में लेश्या के लिये एक शब्द आया है -“कर्म निर्जर"१ लेश्या कर्म का है। कर्म का अनुभाव-विपाक होता रहता है। इसलिये जब तक आस्रव नहीं रुकेगा तब तक लेश्याएँ शुद्ध नहीं होंगी, लेश्या शूद्ध नहीं होगी तो हमारे भाव, संस्कार, विचार और आचरण भी शुद्ध नहीं होंगे। इसलिये संवर की जरूरत है। संवर भीतर आते हुए दोष प्रवाह को रोक देता है। बाहर से अशुभ पुद्गलों का ग्रहण जब भीतर नहीं जाएगा, राग-द्वेष नहीं उभरेंगे, तब कषाय की तीव्रता मन्द होगी, कर्म बन्ध की प्रक्रिया रुक जाएगी।
हम दो व्यक्तित्वों से जुड़े हैं-१. स्थूल व्यक्तित्व, २. सूक्ष्म व्यक्तित्व। इस भौतिक शरीर पौद्गलिक शरीर से जो हमारा सम्बन्ध है, वह स्थूल व्यक्तित्व है। इसको जानने के साधन हैं- इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि । पर सूक्ष्म व्यक्ति को इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि द्वारा नहीं जाना जा सकता। जैन दर्शन में स्थूल शरीर को औदारिक और सूक्ष्म शरीर को तैजस तथा कार्मण शरीर कहा है । आधुनिक योग साहित्य में स्थूल शरीर को फिजिकल बॉडी (Physical body) और सूक्ष्म शरीर को एथरिक बॉडी (Etheric body) तथा तैजस शरीर को एस्ट्रल बॉडी ( Asteral body ) कार्मण शरीर कहा है। लेश्या दोनों शरीर के बीच सेत का काम करती है। यही वह तत्त्व है जिसके आधार पर व्यक्तित्व का रूपान्तरण, वृत्तियों का परिशोधन और रासायनिक परिवर्तन होता है।
लेश्या को जानने के लिये सम्पूर्ण जीवन का विकास क्रम जानना भी जरूरी है। हमारा जीवन कैसे प्रवृत्ति करता है ? अच्छे, बुरे संस्कारों का संकलन कैसे और कहाँ से होता है ? भाव, विचार, आचरण कैसे बनते हैं ? क्या हम अपने आपको बदल सकते हैं ? इन सबके लिये हमें सूक्ष्म शरीर तक पहुँचना होगा।
आगम साहित्य में सूक्ष्म व्यक्तित्व से स्थूल व्यक्तित्व तक आने के कई पड़ाव हैं, जिनमें सबसे पहला है-चैतन्य (मूल आत्मा) उसके बाद कषाय का तन्त्र, फिर अध्यवसाय का तन्त्र । यहाँ तक स्थूल शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं है। ये केवल तैजस शरीर और कर्म शरीर से ही सम्बन्धित हैं। अध्यवसाय के स्पन्दन जब आगे बढ़ते हैं तब वे चित्त पर उतरते हैं, भावधारा बनती है, जिसे लेश्या कहते हैं । लेश्या के माध्यम से भीतरी कर्म रस का विपाक बाहर आता है तब पहला साधन बनता है, अन्तःस्रावी ग्रन्थि तंत्र ।
अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के जो स्राव हैं वे कर्मों के स्राव से प्रभावित होकर आते हैं। भीतरी स्राव जो रसायन बनकर आता है उसे लेश्या अध्यवसाय से लेकर हमारे सारे स्थूल तंत्र तक यानी अन्तःस्रावी ग्रंथियों और मस्तिष्क तक पहुँचा देती है। ग्रंथियों के हार्मोन्स रक्त
१. उत्तराध्ययन-अध्ययन ३४ टीका पृ० ६५०
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शांता संचार तंत्र के माध्यम से नाड़ी तंत्र के सहयोग से अन्तर्भाव, चिन्तन, वाणी, आचार और व्यवहार को संचालित और नियन्त्रित करते हैं । इस प्रकार चेतना के तीन स्तर बन गए -
: जो अति सूक्ष्म शरीर के साथ काम करता है । : जो विद्युत शरीर- तैजस शरीर के साथ काम करता है । : जो स्थूल शरीर के साथ काम करता है ।"
१. अध्यवसाय का स्तर २. लेश्या का स्तर
३. स्थूल चेतना का स्तर
सूक्ष्म जगत् में सम्पूर्ण ज्ञान का साधन अध्यवसाय है स्थूल जगत् में ज्ञान का साधन मन और मस्तिष्क को माना है । मन मनुष्य में होता है, विकसित प्राणियों में होता है, जिनके सुषुम्ना है, मस्तिष्क है पर अध्यवसाय सब प्राणियों में होता है । वनस्पति जीव में भी होता है । कर्मबन्ध का कारण अध्यवसाय है । असंज्ञी जीव मनशून्य, वचनशून्य और क्रियाशून्य होते हैं फिर भी उनके अठारह पापों का बन्ध सतत होता रहता है, क्योंकि उनके भीतर अविरति है, अध्यवसाय है । लेश्या बिना स्नायविक योग के क्रियाशील रहती है । इसलिये लेश्या का बाहरी और भीतरी दोनों स्वरूप समझकर व्यक्तित्व का रूपान्तरण करना होता है ।
लेश्या के दो भेद हैं-- द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या पुद्गलात्मक होती है और भाव लेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है । मन के परिणाम शुद्ध-अशुद्ध दोनों होते हैं और उनके निमित्त भी शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं । निमित्त को द्रव्य लेश्या और मन के परिणाम को भाव लेश्या कहा है । इसीलिये लेश्या शुद्धि के भी दो कारण बतलाये हैं-निमित्त कारण और उपादान कारण । उपादान कारण है - कषाय की तीव्रता और मन्दता । निमित्त कारण है पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण । दूसरे शब्दों में लेश्या का बाहरी पक्ष है योग, भीतरी पक्ष है कषाय । मन, वचन, काया की प्रवृत्ति द्वारा पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण होता है । जिसमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सभी होते हैं । वर्ण/रंग का मन पर सीधा प्रभाव पड़ता है । रंगों की विविधता के आधार पर मनुष्य के भाव, विचार और कर्म सम्पादित होते हैं । इसलिये रंग के आधार पर लेश्या के छः प्रकार बतलाए गये हैं
१. कृष्ण लेश्या, २. नील लेश्या, ३. कापोत लेश्या, ४ तैजस लेश्या, ५. पद्म लेश्या और ६. शुक्ल लेश्या । *
कृष्ण लेश्या वाले प्राणी में काले रंग की प्रधानता होती है । उसका दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता । उसमें प्रबल आकांक्षा होती है । प्रमाद अधिक होता है । शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं पर उसका नियन्त्रण नहीं होता है । स्वभाव से वह हिंसक, क्रूर; प्रकृति सेक्षुद्र बना रहता है। बिना सोचे-समझे काम करना, इन्द्रियों पर विजय न पाना उसकी पहचान बन जाती है ।
१. आभामण्डल - युवाचार्य महाप्रज्ञ पृ० १३, ४१
२. सूत्रकृतांग ४ / १७
३. भगवतीसूत्र १२/५/१६
४. भगवतीसूत्र १९/१/१; स्थानांग ६/५०४; प्रज्ञापना १७ /४/३१
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नील लेश्या वाले प्राणी में नील रंग की प्रधानता अधिक होती है । वह ईर्ष्यालु, असहिष्णु, आग्रही, अज्ञानी, मायावी, निर्लज्ज, द्वेष बुद्धि से युक्त, रसलोलुप, सुखेच्छु होता है ।
कापोत लेश्या वाले प्राणी में कापोत वर्ण की प्रधानता अधिक होती है । उसमें वाणी की वक्रता, आचरण का दुहरापन, अनेक दोषों को छुपाने की मनोवृत्ति होती है । मखौल करना, कटु-अप्रिय वचन बोलना, चोरी करना, मात्सर्यभाव रखना उसके विशेष लक्षण होते हैं ।
तैजस लेश्या के प्राणी में लाल रंग की प्रधानता होती है । लाल रंग प्रधान व्यक्ति विनम्र, धैर्यवान, अचपल, आकांक्षा-रहित, जितेन्द्रिय, पापभीरु होता है । उसमें मुक्ति की गवेषणा होती है, पर - हितैषी होता है ।
पद्म लेश्या में पीला रंग प्रधान होता है । क्रोध, मान, माया, लोभ की मनोवृत्ति अत्यन्त अल्प हो जाती है । उसमें चित्त की प्रसन्नता, आत्म-नियन्त्रण, अल्पभाषिता और जितेन्द्रियता का विकास होता है ।
शुक्ल लेश्या श्वेत प्रधान होती है । शुक्ल लेश्या वाला प्राणी जितेन्द्रिय, प्रशान्तचित्त वाला होता है । उसके मन, वचन और कर्म में एकरूपता होती है । "
रंग को न केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से व्याख्यायित किया गया है अपितु आज विज्ञान की सभी शाखा प्रशाखाओं में रंग के महत्त्व पर प्रकाश डाला जा रहा है। भौतिकवादियों, रहस्यवादियों, मंत्र - शास्त्रियों, शरीर-शास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों ने अलग-अलग रूप से रंग का अध्ययन कर यह सिद्ध किया है कि यह चेतना के सभी स्तरों पर जीवन में प्रवेश करता है । रंग को जीवन का पर्याय माना गया है ।
वैज्ञानिकों ने स्पेक्ट्रम के माध्यम से सात रंगों की व्याख्या की है। उनके अनुसार प्रकाश तरंग के रूप में होता है और प्रकाश का रंग उसके तरंग दैर्ध्य ( Wave length ) पर आधारित है। तरंग दैर्ध्य और कम्पन की आवृत्ति (frequency) परस्पर में न्यस्त प्रमाण ( inverse proportion ) से सम्बन्धित हैं । यानि तरंग दैर्ध्य के बढ़ने के साथ कम्पन की आवृत्ति कम होती है और उसके घटने के साथ बढ़ती है। सूर्य का प्रकाश त्रिपार्श्व कांच ( prism ) में गुजरने पर प्रकाश विक्षेपण के कारण सात रंगों में विभक्त दिखाई देता है । उस रंग पंक्ति को वर्णपट - स्पेक्ट्रम ( Spectrum ) कहते हैं । स्पेक्ट्रम के सात रंग हैं-लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, जामुनी और बैगनी । इसमें लाल रंग की तरंग दैर्ध्य सबसे अधिक होती है, बैगनी ( violet ) की सबसे कम । दूसरे शब्दों में लाल रंग की कम्पन आवृत्ति सबसे कम और बैगनी रंग की सबसे अधिक होती है । दृश्य प्रकाश में जो विभिन्न रंग दिखाई देते हैं, वे विभिन्न कम्पनों की आवृत्ति या तरंग दैर्ध्य के आधार पर होते हैं ।
रंग और प्रकाश दो नहीं । प्रकाश का ४९वाँ प्रकम्पन रंग है प्रकाश का महासागर जो सूर्य से निकलता है वह शक्ति और ऊर्जा का महास्रोत होता है ।
१. उत्तराध्ययन ३४/२१-३२
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रहस्यवादियों ́ Occult Scientists ) की दृष्टि में रंग की एकरूपता जो हम सृष्टि में चारों ओर देखते हैं वह ( Divine mind ) की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है । यह प्रकाश तरंगों के रूप में ( one life principle ) की ब्रह्माण्डीय प्रस्तुति है । "
ओकल्ट साइंस ( Occult Science ) ने सात रंगों के आधार पर सात किरणें मानी है, जिन्हें वे जीवन विकास के आरोहण क्रम में स्वीकार करते हैं । प्रत्येक किरण को विकासवादी युग का प्रतीक माना है । सात किरणें सृष्टि के सात युगों को दर्शाती हैं । आध्यात्मिक ज्ञान, जिसे ( Lords of light ) माना जाता है और विकास का मार्गदर्शन करता है उसे सात किरणों की आत्मायें भी कहा जाता है । उनकी मान्यता है कि किरणें अनन्त शक्ति और उद्देश्य की पूर्णता हैं जो कि Supreme Source से निकलती हैं और जिसे सर्वशक्तिमान प्रज्ञा द्वारा निर्देशन मिलता है । सात ब्रह्माण्डीय किरणों में तीन प्रथम किरणों - लाल, नारंगी और पीली से सम्बन्धित प्रथम तीन युग बीत गए हैं। अब हम चौथे युग यानी हरे रंग में जी रहे हैं, जो बीच का रंग है । या यूँ कहें कि एक ओर संघर्ष, कटु अनुभव का निम्न युग और दूसरी ओर आत्मिक विकास तथा गुणों का श्रेष्ठ युग जिसके बीचोबीच हरा रंग है । इससे आगे भावी दृष्टिकोण नीली किरणों के उच्च प्रकम्पनों की ओर आगे बढ़ा है और यह विकास अधिकाधिक श्रेष्ठ स्थिति में Indigo और Violet तरंगों तक विकसित होता जाएगा, जब तक सप्तमुखी किरण विभाजन के अन्त तक हम नहीं पहुँच जाएँगे ।
रंगों के आधार पर मनुष्य की जाति, गुण, स्वभाव, रुचि, आदर्श आदि की व्याख्या करने की भी एक परम्परा चली। महाभारत में चारों वर्णों के रंग भिन्न-भिन्न बतलाएँ हैं । ब्राह्मणों का श्वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला और शूद्रों का काला । ४
५
जैन साहित्य में चौबीस तीर्थंकरों के भिन्न-भिन्न रंग बतलाए गए। पद्मप्रभु और वासुपूज्य का रंग लाल; चन्द्रप्रभु और पुष्पदन्त का श्वेत; मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि का रंग कृष्ण; मल्लि और पार्श्वनाथ का रंग नीला और शेष सोलह तीर्थंकरों का रंग सुनहरा माना गया है। ज्योतिष विद्या के अनुसार ग्रह मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं । उनकी विपरीत दशा में सांसारिक और आध्यात्मिक अभ्युदय में विविध अवरोध उत्पन्न होते हैं । इन अवरोधों को निष्क्रिय बनाने के लिये ज्योतिष शास्त्री अमुक ग्रह को प्रभावित करने वाले अमुक रंग के ध्यान का प्रावधान बताते हैं, विभिन्न रंगों के रत्न व नगों के प्रयोग के लिये कहते हैं । शरीर शास्त्री मानते हैं कि रंग हमारे जीवन की आन्तरिक व्याख्या है अनेक प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात किया जा चुका है कि रंगों का व्यक्ति के रक्तचाप, नाड़ी और श्वसन गति एवं १. The Power of the Rays SGJ Ouseley P. 43
२. Colour Meditations, SGJ Ouseley P. 15
. ३ महाभारत शान्तिपर्व २८८/५
४. अभिधान चिन्तामणि १ / ४९
५. Colour in the Treatment of Disease, J. Dodson Hesse
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लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण
मस्तिष्क के क्रियाकलापों पर अन्य जैविकी क्रियाओं पर विभिन्न प्रभाव पड़ता है। प्रो० एलेक्जेन्डर रॉस का मानना है कि रंग की विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा किसी अज्ञात रूप में हमारी पिच्यूटरी (Pituitary) और पीनियल (Pineal) ग्रंथियों तथा मस्तिष्क की गहराई में विद्यमान हायपोथेलेमस (Hypothalamus) को प्रभावित करती है। वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे शरीर के ये अवयव अन्तःस्रावी ग्रंथि तन्त्र का नियमन करते हैं जो स्वयं शरीर के अनेक मूलभूत प्रतिक्रियाओं का नियन्त्रण करते हैं । रंग हमारे शरीर, मन, विचार और आचरण से जुड़ा है। सूर्य किरण या रंग चिकित्सा के अनुसार शरीर रंगों का पिण्ड है। हमारे शरीर के प्रत्येक अवयव का अलग-अलग रंग है । सूक्ष्म कोशिकाएं भी रंगीन हैं। वाणी, विचार, भावना सभी कछ रंगीन है। इसीलिये जब कभी शरीर में रंगों के प्रकम्पनों का संतुलन बिगड जाता है तो व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है। रंग चिकित्सा पुनः रंगों का सामंजस्य स्थापित करके स्वस्थता प्रदान करती है।
आज के मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि व्यक्ति के अन्तर्मन को, अवचेतन मन को और मस्तिष्क को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला तत्त्व है-रंग । रंग स्वभाव को बतलाने का सही मार्गदर्शक है। मनोविज्ञान ने रंगों के आधार पर व्यक्तित्व का विश्लेषण किया है। मुख्यतः व्यक्तित्व के दो प्रकार हैं
१ बहिर्मुखी, २. अन्तर्मुखी। रंग विशेषज्ञ एन्थोनी एल्डर का कहना है कि बहिर्मुखी जीवन लालिमा प्रधान होता है । अन्तर्मुखी जीवन में नीलाकाश जैसी उदात्त मनःस्थिति होती है। पीले रंग को कर्मठता, तत्परता और उत्तरदायित्व निर्वाह की भाव चेतना का प्रतीक माना है। हरे रंग को बुद्धिमत्ता और स्थिरता का प्रतिनिधि माना है । एल्डर कहते हैं कि स्वभावगत विशेषताओं को घटाने-बढ़ाने के लिये उन रंगों का उपयोग करना चाहिए, जिनमें अभीष्ट विशेषताओं का समावेश है।
एस० जी० जे० ओसले के अनुसार-रंग के सात पहलू बताए गए हैं : रंग-१. शक्ति देता है, २. चेतनाशील होता है, ३. चिकित्सा करता है, ४. प्रकाशित करता है, ५. आपूर्ति करता है, ६. प्रेरणा देता है तथा ७. पूर्णता प्रदान करता है।
हेल्थ रिसर्च पब्लिकेशन, केलिफोर्निया द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में यह सिद्ध किया है कि बहिर्मखी लोग गर्म रंग पसन्द करते हैं । अन्तर्मुखी लोग ठण्डे रंग पसन्द करते हैं क्योंकि उनको बाहरी उत्तेजकों की आवश्यकता नहीं होती है। भावना प्रधान व्यक्ति रंग के प्रति मुक्तरूप से प्रतिक्रिया करते हैं। भावनाहीन व्यक्ति को प्रायः रंग से आघात पहुँचता है । ये कठोर व्यक्तित्व वाले होते हैं और रंग के श्रेष्ठ व सूक्ष्म प्रकम्पनों से अप्रभावित रहते हैं । ३
१. Colour Meditations SGJ Ouseley, P. 17 २. Colour Healing From "the Aura & What it Means to You" ३. प्रज्ञापना १७/४/४७; स्थानांग ३/४/२२०
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कौन-सा रंग हमारे व्यक्तित्व पर कैसा प्रभाव डालता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि रंग किस प्रकार का है । भावों को समझने के लिये भगवान् महावीर ने लेश्या को शुभअशुभ, रूक्ष-स्निग्ध, ठण्डा-गर्म, प्रशस्त-अप्रशस्त बतलाया है। आज के रंग विज्ञान में भी लेश्या का संवादी सूत्र उपलब्ध होता है । रंग के दो प्रकार बतलाए हैं-चमकदार-धुंधले, अन्धकारमय-प्रकाशमय, गर्म-ठण्डे । लेश्या की प्रकृति व्यक्तित्व की व्याख्या करती है। कृष्ण, नील व कापोत वर्ण यदि प्रशस्त है, चमकदार है तो वे शुभ माने जाएंगे और पीला, लाल और सफेद रंग यदि अप्रशस्त, धुंधले होंगे तो वे अशुभ माने जाएंगे । शुभता और अशुभता रंगों की चमक पर निर्भर है।
नमस्कार मंत्र के जप के साथ जिन रंगों की कल्पना की जाती है उनसे भी यही तथ्य सामने आता है । जैसेणमो अरिहन्ताणं
श्वेत रंग, णमो सिद्धाणं
लाल, णमो आयरियाणं
पीला, णमो उवज्झायाणं
हरा, णमो लोए सव्व साहूणं
काला।२ लेश्या के सन्दर्भ में कृष्ण लेश्या को सर्वाधिक निकृष्ट माना गया है पर मुनि धर्म के साथ जुड़ा कृष्ण वर्ण प्रशरत रंग का वाचक है । वैदिक साधना पद्धति से ब्रह्मा की उपासना लाल रंग से की जाती है क्योंकि लाल रंग निर्माता का रंग है। विष्णु की उपासना काले रंग से की जाती है क्योंकि काला रंग संरक्षण का माना गया है। महेश की श्वेत रंग से क्योंकि श्वेत रंग संहार करने वाला है। इसीलिये ध्यान करते समय रंग-श्वास में चमकदार रंगों का श्वास लेने और उनसे अपने आपको भावित करने की बात कही जाती है ।
जैन आगमों में लेश्या शुद्धि के लिये कई साधन बतलाए हैं। उनमें ध्यान विशेष उल्लेखनीय है। प्रेक्षाध्यान पद्धति में भाव परिवर्तन के लिये, चेतना के जागरण के लिये रंगों का ध्यान महत्त्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि रंग का हमारे पूरे जीवन पर प्रभाव पड़ता है। प्रेक्षाध्यान साधना पद्धति इस आधुनिक ध्यान पद्धतियों में एक है। उसमें युवाचार्य महाप्रज्ञ ने लेश्याध्यान को एक महत्त्वपूर्ण अंग माना है।
ध्यान में साधक चैतन्य केन्द्रों पर चित्त को एकाग्र कर वहाँ निश्चित रंगों का ध्यान करता है । ध्यान की पृष्ठभूमि में वह कायोत्सर्ग, अन्तर्यात्रा, दीर्घश्वास, शरीर-प्रेक्षा, चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा आदि को भी अच्छी तरह से साध लेता है।
चैतन्य केन्द्र हमारी चेतना और शक्ति की अभिव्यक्ति के स्रोत हैं। ये जब तक नहीं जागते, तब तक कृष्ण, नील, कापोत तीन प्रशस्त लेश्याएं काम करती रहती हैं। व्यक्तित्व
१. नवकारसारस्तवन, गाथा,७ २. लेश्या ध्यान-युवाचार्य महाप्रज्ञ पृ० ५३
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लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण
बंदलाव के लिये हमें इन लेश्याओं का शुद्धीकरण करना होगा। रंग ध्यान द्वारा चैतन्य केन्द्रों को जगाना होगा क्योंकि केन्द्र (चक्र) रंग शक्ति के विशिष्ट स्रोत हैं। प्रत्येक चक्र भौतिक वातावरण और चेतना के उच्च स्तरों में से अपनी विशिष्ट रंग किरणों के माध्यम से प्राण ऊर्जा की विशिष्ट तरंग को शोषित करता है।
लेश्या ध्यान में आनन्द केन्द्र पर हरे रंग का, विशुद्धि केन्द्र पर नीले रंग का, दर्शन केन्द्र पर अरुण रंग का, ज्ञान केन्द्र पर पीले रंग का तथा ज्योति केन्द्र पर सफेद रंग का ध्यान किया जाता है।
कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं अशुभ हैं इसलिये उन्हीं केन्द्रों पर विशेष रूप से ध्यान किया जाता है जिनसे तैजस, पद्म और शुक्ल लेश्याएं जागती हैं। इसलिये तीन शुभ लेश्याओं का दर्शन केन्द्र, ज्ञान केन्द्र और ज्योति केन्द्र पर क्रमशः लाल, पीला और सफेद रंग का ध्यान किया जाता है । इन तीनों को प्रशस्त रंगों के रूप में स्वीकार किया गया है।
तेजोलेश्याः ध्यान तेजोलेश्या का ध्यान जब किया जाता है तो हम दर्शन केन्द्र पर बाल सूर्य जैसे लाल रंग का ध्यान करते हैं। लाल रंग अग्नि तत्त्व से संबंधित है जो कि ऊर्जा का सार है। यह हमारी सारी सक्रियता, तेजस्विता, दीप्ति, प्रवृत्ति का स्रोत है।
दर्शन केन्द्र पिच्यूटरी ग्लैण्ड (Pituitarygland) का क्षेत्र है, जिसे मास्टर ग्लैण्डर(Master gland ) कहा जाता है, जो अनेक ग्रंथियों पर नियन्त्रण करती है। पिच्यूटरी ग्लैण्ड सक्रिय होने पर एड्रीनल ग्रंथि नियन्त्रित हो जाती है, जिसके कारण उभरने वाले काम वासना, उत्तेजना, आवेग आदि अनुशासित हो जाते हैं ।
दर्शन केन्द्र पर अरुण रंग का ध्यान करने से तैजस लेश्या के स्पन्दनों की अनुभूति से अन्तर्जगत् की यात्रा प्रारम्भ होती है । आदतों में परिवर्तन शुरू होता है। मनोविज्ञान बताता है कि लाल रंग से आत्मदर्शन की यात्रा शुरू होती है। आगम कहता है-अध्यात्म की यात्रा तेजोलेश्या से शुरू होती है। इससे पहले कृष्ण, नील व कापोत तीन अशुभ लेश्याएं काम करती हैं, इसलिये व्यक्ति अन्तर्मुखी नहीं बन पाता।
तैजस लेश्या/तैजस शरीर जब जगता है तब अनिर्वचनीय आनन्दानुभूति होती है । पदार्थ प्रतिबद्धता छूटती है। मन शक्तिशाली बनता है। ऊर्जा का ऊर्ध्व गमन होता है। आदमी में अनुग्रह विग्रह ( वरदान और अभिशाप ) की क्षमता पैदा होती है। सहज आनन्द की स्थिति उपलब्ध होती है। इसलिये इस अवस्था को “सुखासिका" कहा गया है। आगमों में लिख कि विशिष्ट ध्यान योग की साधना करने वाला एक वर्ष में इतनी तेजोलेश्या को उपलब्ध होता है जिससे उत्कृष्टतम भौतिक सुखों की अनुभूति अतिक्रान्त हो जाती है। उस आनन्द की तुलना किसी भी भौतिक पदार्थ से नहीं की जा सकती। १. आभामण्डल-युवाचार्य महाप्रज्ञ पृ० ८५ २. भगवती १५/२३/७२६ ३. भगवती १४/९/१२/७०७ ४. स्थानांग ४/७०
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तेजोलेश्या और अतीन्द्रिय ज्ञान का भी गहरा संबंध है। तेजोलेश्या की विद्युत धारा से चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं और इन्हीं में अवधि ज्ञान अभिव्यक्त होता है।
पद्मलेश्याः ध्यान-पद्मलेश्या का रंग पीला है। पीला रंग न केवल चिन्तन, बौद्धिकता व मानसिक एकाग्रता का प्रतीक है, बल्कि धार्मिक कृत्यों में की जाने वाली भावनाओं से भी संबंधित है। पीला रंग मानसिक प्रसन्नता का प्रतीक है। भारतीय योगियों ने इसे जीवन का रंग माना है । सामान्य रंग के रूप में यह आशावादिता, आनन्द और जीवन के प्रति संतुलित दृष्टिकोण को बढ़ाता है।
___ मनोविज्ञान मानता है कि पीले रंग से चित्त की प्रसन्नता प्रकट होती है और दर्शन शक्ति का विकास होता हैं । दर्शन का अर्थ है-साक्षात्कार ।
लेश्याध्यान में पीले रंग का ध्यान केन्द्र पर किया जाता है। ज्ञान केन्द्र शरीर शास्त्रीय भाषा में बृहत् मस्तिष्क (Cortex) का क्षेत्र है । हठयोग में जिसे सहस्रार चक्र कहा जाता है। जब हम चमकते हुए पीले रंग का ध्यान करते हैं तब जितेन्द्रिय होने की स्थिति निर्मित होती है। कृष्ण और नील लेश्या में व्यक्ति अजितेन्द्रिय होता है। पद्मलेश्या के परमाणु ठीक इसके विपरीत हैं। पद्मलेश्या ऊर्जा के उत्क्रमण की प्रक्रिया है। इसके जागने पर कषाय चेतना सिमटती है । आत्म नियन्त्रण पैदा होता है ।
शुक्ल लेश्याः ध्यान-शुक्ल लेश्या का ध्यान ज्योति केन्द्र पर पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसे श्वेत रंग में किया जाता है । श्वेत रंग पवित्रता, शान्ति, सादगी और निर्वाण का द्योतक है। शुक्ल लेश्या उत्तेजना, आवेश, आवेग, चिन्ता, तनाव, वासना, कषाय, क्रोध आदि को शान्त करती है।
लेश्या ध्यान का लक्ष्य है--आत्मसाक्षात्कार । शुक्ल लेश्या द्वारा इस लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ से भौतिक और आध्यात्मिक जगत् का अन्तर समझ में आने लग जाता है। आगम के अनुसार शुक्ल ध्यान की फलश्रुति है-अव्यथ चेतना, अमूढ़ चेतना, विवेक चेतना और व्युत्सर्ग चेतना।
शरीर शास्त्रीय दृष्टि से ज्योति केन्द्र का स्थान पिनियल ग्रंथि (Pineal gland) है। मनोविज्ञान का मानना है कि हमारे कषाय, कामवासना, असंयम, आसक्ति आदि संज्ञाओं के उत्तेजन और उपशमन का कार्य अवचेतन मस्तिष्क हायपोथेलेमस (Hypothalamus) से जो होता है उसके साथ इन दोनों केन्द्रों का गहरा संबंध है। हाइपोथेलेमेस का सीधा संबंध पिच्यूटरी और पिनियल के साथ है।
विज्ञान बताता है १२-१३ वर्ष की उम्र के बाद पिनियल ग्लैण्ड निष्क्रिय होना शुरू हो जाता है जिसके कारण क्रोध, काम, भय आदि संज्ञाएं उच्छृखल बन जाती हैं। अपराधी मनोवृत्ति जागती है। जब ध्यान द्वारा इस ग्रन्थि को सक्रिय किया जाता है तो एक सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
१. प्रज्ञापना १७/४/३२
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लेश्या द्वारा व्यक्तित्व रूपान्तरण
१०१ शुक्ल लेश्या का ध्यान शुभ मनोवृत्ति की सर्वोच्च भूमिका है। प्राणी उपशान्त, प्रसन्नचित्त और जितेन्द्रिय बन जाता है। मन, वचन और कर्म की एकरूपता सध जाती है। सदैव स्वधर्म और स्व-स्वरूप में लीन रहता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि लेश्या ध्यान से रासायनिक परिवर्तन होते हैं। पूरा भाव संस्थान बदलता है । उसके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सभी कुछ बदलता है । व्यक्ति जब तक मूर्छा में जीता है, तब तक उसे बुरे भाव, अप्रिय रंग, असह्य गन्ध, कड़वा रस, तीखा स्पर्श बाधा नहीं डालते, पर जब मूर्छा टूटती है, विवेक जागता है तब वह अशुभ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से विरक्त होता है, उन्हें शुभ में बदलता है।
यद्यपि लेश्या ध्यान हमारी अन्तिम मंजिल नहीं। हमारा अन्तिम उद्देश्य तो लेश्यातीत बनना है, पर इस तक पहुँचने के लिये हमें अशुभ से शुभ लेश्याओं में प्रवेश करना होगा, जिसके लिये लेश्याध्यान आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।
ध्यान की एकाग्रता, तन्मयता और ध्येय-ध्याता में अभिन्नता प्राप्त हो जाने पर ही आत्मविकास की दिशाएं खुल सकती हैं।
जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) ३४१३०६
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आचार्य कुंदकुंद की आत्मदृष्टि एक चिंतन
हुकुमचंद संगवे
आचार्य कुंदकुंद की गणना उच्चस्तरीय, शीर्षस्थ, युग-प्रधान जैनाचार्यों में की जाती है । महावीर भगवान् और गणधर गौतम को मंगल कहा गया | आचार्य कुंदकुंद का नाम भी गौतम गणधर के अनन्तर मंगलरूप में आता है । क्योंकि उन्होंने आत्मा को विश्वजीवन का केन्द्र बिन्दु मानकर अपनी समस्त कृतियों का सृजन किया है । आचार्य कुंदकुंद ने आत्मा-स्वरूप का विभिन्न दृष्टिकोणों से कथन किया है । दृष्टिकोणों के अनुरूप ही स्वरूप का निरूपण भी किया है । अनादिकाल से कर्ममलों से युक्त आत्मा को उन्होंने संसारी आत्मा कहा है, और यह भी कहा कि यही संसारी आत्मा समस्त कर्मफल से रहित होकर शुद्धात्मा की निर्मल दशा को प्राप्त कर सकता है । अनेक संसारी जीव अनादिकाल से कर्मों से संयुक्त हैं । वे सब संसारी आत्मा अपने पुरुषार्थं से कर्ममल को दूर कर सकते हैं । संसारी आत्मा परमात्मरूप शुद्धात्मस्वरूप को प्राप्त कर सकता है । आत्मा अनन्तानन्त गुणों से युक्त है । आत्मा के गुणों की प्रकटता, समस्त कर्मों की निर्जरा होने पर स्वतः ही होती है । संसारी आत्माओं को उन्होंने भव्य और अभव्य इन दो भेदों में वर्गीकृत किया है ।" भव्यात्मा वे हैं जिनमें यह क्षमता है कि वे समस्त पूर्व कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष को प्राप्त कर सकें । अभव्य आत्माएं वे हैं जो किसी भी काल में, किसी भी देश में अथवा किसी भी अवस्था में मोक्ष या सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं कर सकते हैं । इस प्रसंग में उन्होंने सम्यक् दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का प्ररूपण किया है । व्रत, संयम, गुप्ति, समिति, शील एवं तप पर ही जिसकी दृष्टि स्थिर है और जो ये बाह्य क्रियाएं ही करता है उसकी दृष्टि मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि मोक्षादि तत्त्वों पर वह श्रद्धा नहीं करता है । वह भगवान् द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों पर अपनी दृष्टि स्थिर नहीं करता । मोक्षतत्त्व की यथार्थ दृष्टि संपादित करने के लिए सम्यग्दर्शन का होना आवश्यक माना गया है । अभव्य जीव अज्ञानी है। और भव्यजीव ज्ञानी है । वही मुमुक्षु है । संसार का आवागमन चक्र शुद्धोपयोगरूप धर्म में श्रद्धान करते हुए सांसारिक भोग उपभोग में लीन होना है वह जो कर्म क्षय के कारणभूत शुद्धोपयोग में स्थिर नहीं होता, शुद्धोपयोगरूपधर्म में श्रद्धा नहीं करता है, इसलिए उसका संसार में आनाजाना बना रहता है ।
अभव्य जीव धर्मश्रवण, जिनोपदेश को ग्रहण तो करता है परंतु अपनी वह मिथ्या मान्यता को, मिथ्यात्व स्वभाव को त्यागता नहीं है । इसलिए आचार्य कहते हैं कि उसका यह व्यवहार ठीक वैसा ही है जैसे गुड़ मिश्रित दूध का सेवन करने वाले सर्प का । क्योंकि वह कभी भी विष
१. पंचास्तिकाय: गा० १२०
२. वही गा० १०६.
३. समयसार : गा० १७३.
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आचार्य कुदकुद की आत्मदृष्टि : एक चितन
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रहित नहीं हो सकता।' दूध तो पीता है, जिन भगवंत-उपदेश का तो करता है अपितु सर्प की भांति गरल, मिथ्यारूप विषको को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। अभव्यात्मा के विपरीत पूर्णतः भव्यात्मा है । वह सम्यक् भावना से युक्त होकर भगवंत का उपदेश सुनता है। उसके अनुरूप आचरण करता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों का क्षय करते हुए आत्मा के स्वाभाविक अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतबल और अनंतसुख को प्राप्त करता है। कर्मफल से विमुक्त होने पर यह आत्मा परमात्मा बन जाता है। आचार्य द्वारा प्रतिपादित यह वर्गीकरण, (भव्य-अभव्य आत्मा) यह दर्शाता है कि यह संसार कभी भी जीवों से खाली नहीं होता । भव्यात्मा मुमुक्षु मोक्ष प्राप्ति करने में समर्थ है, अन्य नहीं ।
सामान्यतः जीव का लक्षण इस प्रकार से करते हैं-इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वासप्राण से जो युक्त है वह जीव है । यह लक्षण बाह्य या व्यवहार दृष्टि से योग्य है निश्चय से चेतना और उपयोग से जो युक्त है, उसे जीवद्रव्य कहते हैं। उपर्युक्त चारों प्रायः व्यवहार की अपेक्षा से जीव के लक्षण हैं। निश्चय से तो चेतना और उपयोग ही लक्षण है। निश्चय से मुक्तात्मा इन प्राणों द्वारा जीवित नहीं रहता अपितु उसमें जीवद्रव्य का असद्भाव नहीं रहता । अर्थात् जो बल, इन्द्रिय, आयु और श्वासोच्छवास प्राणों से वर्तमान में जीवित है, भविष्य में जीवित रहेगा और भूत में वह जीवित था, वह जीव है। इस लक्षण से आचार्य यह बतलाना चाहते हैं कि, जीव या आत्मा अनादि तथा अन्त रहित है ये लक्षण तो व्यवहार से आत्मा में चेतना और उपयोग है मुक्तावस्था में स्थित आत्मा में रहता ही है। . चार प्राणों से युक्त जीव 'पहले जीवित था' इससे आचार्य यह सूचित करना चाहते हैं कि "मुक्तावस्था के पूर्व यह जीव चार प्राणों द्वारा जीवित था, क्योंकि मुक्तावस्था में जीव के इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास प्राण नहीं होते।" आचार्य ने अपने ग्रंथों में जीव तथा आत्मा शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया है और विभिन्न स्थलों पर जीव एवं आत्मा के लक्षण, स्वरूप और भेदों का प्रतिपादन किया है । इस विवेचन के आधार पर हमें यह जान लेना चाहिए कि जीव एवं आत्मा एकार्थवाचक हैं और एक ही जीवद्रव्य की अभिव्यक्ति की है, तथापि पर्यायवाची इन शब्दों का उपयोग कुछ स्थलोंपर संदर्भानुरूप किया गया है। एकेन्द्रियजीव, द्वीन्द्रियजीव का उल्लेख मिलता, परंतु एकेन्द्रिय-आत्मा, द्वीन्द्रिय आत्मा ऐसा प्रयोग देखने में नहीं आता। उपदेशपरक कथन में भी यही देखने को मिलता है कि अपना उपयोग आत्मा में स्थिर करो, किंतु अपने जीव में उपयोग केन्द्रित करो ऐसा देखने को नहीं मिलता। आत्मसाधना एवं आत्मचिंतन ही जीव का अन्तिम लक्ष्य है। इससे यही लक्षित होता है कि जीव शब्द चार प्राणों के धारक संसारी जीव के लिए प्रयुक्त हुआ है और मुक्तात्मा में इनके न होने के कारण 'आत्मा' शब्द का प्रयोग ही देखने में आता है। जीव की दृष्टि सांसारिक मानी जाय तो
१. भावपाहुड : गा० १३८. २. पंचास्तिकाय : गा० १६३. तत्त्वदीपिका टीका ३. तत्त्वार्थराजवार्तिक : १४७. ४. प्रवचनसार : गा० २।५५. ५. अष्टपाहुड : पृ० ५१-५२, सुत्तपाहुड : गा० १५-१६, प्रवचमसार: गा० २११०८.
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इसमें कोई भी अतिशयोक्ति नहीं हो सकती । 'आत्मा' शुद्धात्मा के लिए कहा गया है। आचार्य ने आत्मा को लक्ष्य या साध्य के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया है। मुमुक्ष-जीव की समस्त शुभ-शुद्ध क्रियाओं को इस लक्ष्य-साध्य की प्राप्ति में साधनभूत कहा है। आचार्य जीव को बार-बार संबोधित करते हैं कि अपना उपयोग आत्मा में केन्द्रित करो, परसमय का त्याग कर स्वसमय में लीन रहो । वास्तव में देखा जाय तो जीव और आत्मा में कोई अन्तर नहीं । कथन मात्र से भेद मालम होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा जीव की सर्वोच्च स्थिति का परिचायक है। उसकी प्राप्ति करना जीव की परम साधना का इष्ट है। जीव कर्म से युक्त है और शुद्धात्मा कर्मफल से मुक्त है।
आचार्य कुंदकुंद आत्मा के अस्तित्व के बारे में कहते हैं कि वह स्वतः सिद्ध है । अपने अस्तित्व का ज्ञान प्रत्येक जीवों को सदैव रहता है । जीव स्व और पर को जानता है, देखता है। सुख चाहता है, दुःख से वह भयभीत है । वह शुभ या अशुभ भाव और कर्म का करता है और शुभाशुभ क्रियाओं को भोगता है।' जीव यही जानता है कि मैं देह से भिन्न हूँ। मेरा शरीर, मेरा घर है, मैं यह कर रहा हूँ। यह मैं और मेरा सर्वनाम जीव का अस्तित्व सिद्ध करने में स्वतः समर्थ है । प्रकारान्तर से आचार्य कहते हैं "जो चैतन्य आत्मा है, निश्चय से वह "मैं हूँ" इस प्रकार आत्मा, अपनी प्रज्ञा द्वारा ग्रहण योग्य है और समस्त भाव मुझसे भिन्न हैं, परे हैं । यह ज्ञान स्व और पर के विभाजन के बिना नहीं हो सकता। जीव अजीव से भिन्न है। वह जड़ नहीं है। वह चेतनामय एवं उपयोगमय है।' जीव शुद्ध और अशुद्ध दशा में क्यों न हो, वह प्रत्येक दशा में चेतनारूप उपयोग में परिणमन करता है। उन्होंने जीव की चेतना को तीन प्रकार की मानी है—ज्ञान चेतना, कर्म चेतना और कर्मफल चेतना।
स्वपर भेद लिये हुए जीव का जीव, अजीव, आस्रव, संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप पदार्थों का उस उस स्वरूप में जानना ज्ञान है। आत्म का जो ज्ञानभाव रूप परिणाम है उसे 'ज्ञानचेतना कहा है । जीव के द्वारा किये गये सभी भाव कर्म कहलाते हैं । जीव पुद्गल कर्म के निमित्त से प्रत्येक समय में जो शुभाशुभ भाव--भावकर्मरूप परिणमन करते हैं उसे कर्म चेतना कहा गया है। सुख और दुःख कर्म का फल है। फल कर्म के अनुभवन में होता है उसे कर्मफल चेतना को कहा गया है ।४ कर्मफल चेतना द्वारा आत्मा की उपस्थिति जानी जा सकती है । इंद्रियाँ आत्मा का बहिरंग रूप प्रकट करती हैं । द्रव्य और भाव रूप से कर्म के दो भेद हैं। भावकर्म और द्रव्यकर्म दोनों अन्योन्यरूप में प्रकट हैं । भाव कर्म की अनुपस्थिति में "मैं आत्मा हूँ" यह जानना भी संभव नहीं हो सकता। शरीर और इन्द्रिय से भिन्न मन के माध्यम से देखने और जानने वाला “मैं हूँ”—यह ज्ञान भाव एवं कर्म से ही होगा। संकल्प तो भावरूप है। इन्द्रियों की तुलना में यह भाव सूक्ष्म है। १. पंचास्तिकाय : गा० १२२ २. प्रवचनसार : गा० २।३५ ३. वही : गा० २।३१ ४. वही : गा० २।३२ और पंचास्तिकाय : गा० ३८
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आचार्य कुदकुद की आत्मदृष्टि : एक चिंतन
१०५ भावरूप आत्मा का अनुभव करते समय आत्मा और शरीर में भेद अपने-आप स्थापित हो जाता है । भावकर्मचेतना स्वसंवेदनगोचर है । इसी स्वसंवेदनगोचरता से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। स्वतः उसकी सत्ता का अवबोध उसे होता है। अपनी शद्धत भावकर्मों एवं द्रव्यकर्मों से संपूर्णतः रहित है। इसी अवस्था में केवलज्ञान प्रकट होता है । उसे परमात्मा कहा गया है। इसी दृष्टि से आचार्य ने ज्ञानचेतना का परिणमन करने वाले जीव को परमात्मा कहा है।' आत्मा चेतना और उपयोगमय है। आत्मा के चैतन्य मनुभव को उपयोग कहा है। हम इस प्रकार जान सकते हैं-वस्तु का स्वरूप जानने के लिए जीव का जो भाव है वह उपयोग है। उपयोग, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग रूप दो प्रकार का है।३ आत्मा का उपयोग स्वयं में शुद्ध होता है। इसी उपयोग को मोह का उदय मलीन करता है। उसे अशुद्धोपयोग कहते हैं। शुभ और अशुभरूप अशुद्धोपयोग कर्मबंध का कारण माना गया है। अतएव आत्मा के साथ परद्रव्य के संयोग में यही उपयोग कारणभूत है।
बंध से यक्त जीव शरीरधारी है। वह संसारी जीव कहलाता है। उसके विपरीत जो जीव कर्मबंध से मुक्त है और जिसने अपनी सहज स्वभाव शुद्धता प्राप्त कर ली है वही आत्मा संसार चक्र से विमुक्त है, सिद्धजीव है। संसारी और मुक्त जीवों का विभाजन जैन दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। संसारी जीव के पुनः दो भेद देखने में आते हैं एक स्थावर और दूसरा त्रस । एकेन्द्रिय को स्थावर कहा है और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय को त्रस । त्रस जीव के देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति और नरकगति चार भेद हैं। संसारी जीव सतत संसरण करता रहता है और भावी गति का बंध वर्तमान पर्याय को छोड़ने के पूर्व ही कर लेता है। वर्तमान पर्याय की आयु का क्षय हो जाने पर तैजस और कार्मण शरीर के साथ दूसरी पर्याय अथवा गति में गमन करता है। इस प्रकार एक अवस्था छोड़ दूसरी पर्याय धारण करता है और दूसरी पर्याय को छोड़कर अन्य पर्याय को धारण करता है । इस प्रकार जीव उत्पाद और व्यय के साथ ही साथ जीव द्रव्य का ध्रौव्य बना हता है। आत्मा का यह संसारभ्रमण अनादि काल से चला आ रहा है। जैन दार्शनिकों ने सीव को अनादि अनन्त माना है। इसी अनादि चक्र का अन्त करने में जो जीव समर्थ है, वही मारमा परमात्मस्वरूप धारण करने में भी समर्थ है। - यदि जीव को अनादि न माना जाय तो अनवस्था दोष उत्पन्न होगा और उसे अनंत न मानने पर द्रव्य का ध्रौव्य गुण नष्ट हो जाएगा। संसारी और मुक्त जीवों में द्रव्य दृष्टि से देखा जाय तो कोई अंतर नहीं है। पर्याय दृष्टि से उनमें जरूर अंतर है। हाँ, यह अंतर वह अपनी पुरुषार्थ से मिटा सकता है। आत्मा परमात्मा बन सकता है। प्रत्येक जीव अपनेअपने विकास क्रम में अपने कर्म के स्तर के अनुरूप स्वयं ही ज्ञाता, भोक्ता और कर्ता होता है। जीव उपयोगमय, अमूर्त, कर्ता, भोक्ता, स्वदेहपरिमाण, संसारी, सिद्ध तथा ऊर्ध्वगमनवाला है। इन्ही विशेषणों से युक्त आत्मा का जो प्रतिपादन आचार्य ने किया, उससे अपने आप चार्वाक, वैशे१.पंचास्तिकाय : पृ० ३८-३९ २. सर्वार्थसिद्धि : २।८. उभय निमितवशादु' १३. पंचास्तिकाय : गा० ४०
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षिक, नैयायिक, सांख्य, माण्डलिक इतर दार्शनिक मतों का अपने आप खंडन हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि आत्मा अपने गुणों से एक क्षणमात्र पृथक् नहीं रह सकता। द्रव्य के अभाव में गुण और गुण के अभाव में द्रव्य का अस्तित्व मानना संभव नहीं है । आत्मा में ज्ञान और ज्ञान में आत्मा सहज है । समवाय संबंध से नहीं है। संसारी जीवों द्वारा इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को परोक्ष और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान कहा जाता है।
इस प्रकार आत्मज्ञान और आत्मदृष्टि का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि निश्चयदृष्टि से देखा जाय तो आत्मा विशुद्ध है । वह समस्त द्रव्यों से पूर्णतः मुक्त है, वह अपने ही चतुष्टय में स्थित है । उसकी एक अपनी स्वतंत्र सत्ता है। वह अपनी शुद्धावस्था में ज्ञाता, द्रष्टा है। इच्छा, आशा, कामना आदि समस्त संकल्प-विकल्प से रहित है । इसी स्थिति में यह आत्मा अपने ज्ञान गुण में स्थित है । संसारी आत्मा एवं मुक्तात्मा में इस दृष्टि से कोई फरक नहीं है। दोनों का वैभव और ज्ञान की महत्ता समान है। अन्तर केवल यह है कि मुक्तात्मा के गुण पूर्णतः व्यक्त है, जब कि संसारी आत्मा के गुण कर्मावरण के कारण अत्यंत अंश रूप में प्रकट हैं। पुद्गलादि समस्त परद्रव्य का जीव के साथ संयोग संबंध होता है। तादात्म्य संबंध नहीं है । वे जीव से सर्वथा भिन्न हैं। उन्हें एकत्व के रूप में मानना मिथ्या-मान्यता है । आचार्य कुंदकुंद ने आत्मा को विभिन्न वर्गों में बांटा है। यह वर्गीकरण अपेक्षाकृत है । मोक्ष प्राप्ति की अपेक्षा से जीव को भव्यजीव एवं अभव्यजीव-दो प्रकार का कहा है । संसारी और मुक्तजीव को शुद्ध-अशुद्ध अवस्था की अपेक्षा से वर्गीकृत किया गया है, जीव दस प्राणों से जाना जाता है अतः प्राणों की अपेक्षा से दस भेद हो गये हैं । इन्द्रियों की अपेक्षा से पाँच भेद किए गये हैं। संसारी जीव को त्रस एवं स्थावर अशुद्धात्मक अवस्था के कारण दो प्रकार का कहे हैं। हेय क्या और उपादेय क्या ? इसकी चर्चा करते हए-बहिरात्मा अन्तरात्मा एवं परमात्मा-ये जीवों के तीन भेद गिनाए हैं। शद्ध उपयोग. अशद्ध उपयोग, शभोपयोग की अपेक्षा से भी तीन भेद देखने में आते हैं। इन भेद-उपभेदों पर दृष्टि डालने पर ऐसा लगता है कि आचार्य ने व्यवहारनय का आधार लेते हुए जीव के वास्तविक स्वरूप को बोधगम्य बनाया है । आचार्य ने व्यवहारनय को अयथार्थ और निश्चयनय को यथार्थ कहा है । कारण कि निश्चयनय से आत्मा के स्वभाव पर्याय का ज्ञान होता है और व्यवहारनय की दृष्टि विभाव पर ही स्थिर रहती है। अपने द्वारा अपना स्वभाव ही उपादेय है। विभाव हेय है । यही उन्हें बतलाना है। क्योंकि जीव संसारी है। संसारी जीवों के सन्मुख शुद्धात्मस्वरूप का प्रतिपादन करना ही उनका प्रयोजन है। इससे संसारी आत्मा विशुद्धात्मा के स्वरूप को जान सके । आत्मा अनंतगुणी है।। समस्त गुणों का वर्णन करना असंभव है । आत्मा के स्वरूप को अनिर्वचनीय कहा है।
आचार्य ने अपनी समस्त कृतियों में तत्त्व, अर्थ-पदार्थों का निरूपण जैन दार्शनिक दृष्टियों से करते हुए आत्म-स्वभाव का निरूपण प्रधान रूप से किया है । वही उन्होंने उपादेय माना है ।। 'शेष द्रव्य जानें या न जानें इससे अपनी स्वभाव की प्राप्ति नहीं होती। स्वद्रव्य का स्वसमय में रहना और जानना प्रमुख है। परसमय की उन्हें चिन्ता नहीं थी। सम्यग्दर्शन-ज्ञान का प्ररूपण करते हुए उन्होंने कहा-आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानना ही सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान है ।। इन्हीं दो का प्ररूपण करते समय वे सम्यक्चारित्र का प्रतिपादन करना भूले नहीं, क्योंकि सम्यक्चारित्र के अभाव में मोक्ष लाभ होना असंभव है। अतएव आचार्य कुंदकुंद सम्यग्दर्शन
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आचार्य कुरंदकुद की आत्मदृष्टि : एक चिंतन
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ज्ञान, चारित्र की युगपत् प्राप्ति को मोक्ष मार्ग मानते हैं । वे यह सब वर्णन करते तो हैं परन्तु इससे हमें यह ज्ञात होता है उन्हें आत्मा के वास्तविक स्वरूप की ओर जीव को उन्मुख करना ही इष्ट है । आत्म-स्वरूप वर्णन प्रमुख और शेष वर्णन या विवेचन गौण है । उनकी रचनाओं का हम अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनका एकमात्र उद्देश्य आत्मलाभ ही है । आत्म स्वरूप विवेचन एवं उसके भेद-प्रभेद के वर्गीकरण के माध्यम से आत्म निरूपण ही उनका प्रमुख उद्देश्य रहा है । आत्मा को जो जानता है वह सब जानता है । यही उनकी दृष्टि रही होगी । आचार्य ने षड्द्रव्यों को प्रथमतः बहुप्रदेशी एवं एकप्रदेशी अस्तित्व वाले द्रव्यों में वर्गीकृत किया है । काल द्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्य बहुप्रदेशी हैं । समस्त लोक का निर्माण पंचास्तिकाय से होने के कारण आचार्य इन्हें "समय" भी कहते हैं उन्होंने पंचास्तिकाय का समापन करते हुए पंचास्तिकाय संग्रह को 'प्रवचनसार' कहा है । इसके प्रति सम्यक् श्रद्धान से आत्मज्ञान हो सकता है । यही विशुद्ध ज्ञान आत्मज्ञान है । समय या आत्मा ही लोक में सारभूत है
आचार्य कुंदकुंद ने अपने समस्त कृतियों में आत्मा का प्रतिपादन प्रधान रूप से किया है । वही एकमात्र जानने योग्य है । उन्होंने यही कहा है कि जो एक आत्म तत्त्व को जानता है वह विश्व तत्त्वों की समस्त पर्यायों को जानता है । जो इसी एक आत्मा को नहीं जानता वह और किसी को भी नहीं जानता ।
आचार्य कुंदकुंद ने अपनी कृतियों में आत्मप्रतिपादन निश्चय और व्यवहारनय से किया है । उन्होंने बड़ी कुशलता से व्यवहार और निश्चय का प्रतिपादन करते हुए आत्मतत्त्व का निरूपण किया है और अन्त यही कहा है कि आत्मा उपादेय है और शेष य है । सद् द्रव्य ध्रुव है, असत् का कभी भी उत्पात नहीं होता । इसी कारण उन्होंने नियम को माना है । अतीत, अनागत एवं वर्तमान पर्याय हैं, वे सब ज्ञेय हैं, इसे आत्मा जाता है । ये सब सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय है । ज्ञान और द्रष्टा रहना यह ज्ञाता आत्मा का परम लक्ष्य है। उन्होंने केवली को ज्ञाता द्रष्टा कहा है वे अपने निजस्वरूप अर्थात् अपने आत्मतत्त्व को जानते हैं । अन्य पदार्थों के वे ज्ञाता हैं, लेकिन यह व्यवहार कथन मात्र है । वास्तव में केवल आत्मज्ञ है, सर्वज्ञ है । आत्मा ही उपादेय है । यही आत्मतत्त्व स्वरूपनिरूपण में वे मानते आए हैं । आचार्य कुंदकुंद ने आत्म-ज्ञान को परमज्ञान माना है ।
I
१. पंचास्तिकाय : गा० १७३. २. नियमसार : गा० १५८.
अर्धमागधी विभागाध्यक्ष बालचन्द कला व विज्ञान महाविद्यालय सोलापुर-२
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गीता, उसका शांकरभाष्य और जैन-दर्शन
डा० रमेशचन्द जैन
गीता हिन्दू परम्परा के अनुसार श्रीकृष्ण की वाणी कही जाती है। जैन दर्शन का मूल स्रोत साक्षात् तीर्थंकर भगवान् की बाणी है । गीता के भाष्यकर्ता शङ्कराचार्य भारत की प्रवृत्ति विचारधारा की अपेक्षा निवृत्ति विचारधारा से अधिक प्रभावित रहे, अतः गीता तथा उसके शाङ्करभाष्य का जैन परिप्रेक्ष्य में यहाँ अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है ।
शङ्कराचार्य के अनुसार पुण्य-पाप दोनों बढ़ते रहने के कारण अच्छे-बुरे जन्म और सुख दुःखों की प्राप्ति रूप संसार निवृत्ति नहीं हो पाती ।' आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार के पुण्यपापाधिकार में इसे बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया है । वे कहते हैं
अशुभ कर्म को कुशील और शुभकर्म को सुशील जानो, परन्तु जो जीव को संसार में प्रवेश कराता है, वह सुशील कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है और सुवर्ण की भी बेड़ी बाँधती है, इसी प्रकार किया हुआ शुभ अथवा अशुभ कर्म जीव को बाँधता है । अतः दोनों कुशील से राग मत करो अथवा संसर्ग भी मत करो; क्योंकि कुशील के संसर्ग और राग से स्वाधीनता का विनाश होता है । २
शाङ्करभाष्य में शोक और मोह को संसार का बीज कहा गया है । ' आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में मोह और क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को साम्यभाव कहा है तथा उनके मत में साम्यभाव ही धर्म है । धर्म मोक्ष का बीज है । गीता का सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक आत्मज्ञान की प्राप्ति " ही समयसार की परमार्थप्राप्ति है । जो मनुष्य परमार्थ से बाह्य हैं । वे व्रत और नियमों को धारण करते हुए तथा शील और तप को करते हुए भी मोक्ष नहीं पाते । परमार्थ रूप जीव ही शुद्ध, केवली, मुनि, ज्ञानी आदि नाम पाता है, उसी का निर्वाण होता है । "
गीता में ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा का अलग-अलग वर्णन है । आत्मा में जन्मादि छह विकारों का अभाव होने के कारण आत्मा अकर्ता है । यह सांख्यबुद्धि है । कर्मयोग से होने १. तत्र एवं सति धर्माधर्मापचयाद् इष्टानिष्टजन्मसुखदुःखप्राप्तिलक्षणः संसारः अनुपरतो भवति । गीता - शाङ्करभाष्य २०१०
२. समयसार - १४५ - १४७
३. संसारबीजभूतो शोकमोहौ —– गीता शाङ्कभाष्य २।१०
४. प्रवचनसार-७
५. तयोः च सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकाद् आत्मज्ञानात् न अन्यतो निवृत्तिः ॥ गीता - शाङ्करभाष्य २।१०
६. समयसार - १५३
७. समयसार - १५२
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गीता, उसका शाङ्करभाष्य और जैन-दर्शन
वाली निष्ठा योगबुद्धि है। समयसार में ज्ञाननिष्ठा का निश्चय की दृष्टि से और कर्म निष्ठा का व्यवहार की दृष्टि से निरूपण है। शङ्कर के अनुसार ज्ञान और कर्म इन दोनों का जहाँ एक पुरुष में होना असम्भव है, वहाँ जैन दर्शन के अनुसार इन दोनों का एक ही पुरुष में होना सर्वथा असम्भव नहीं है, कथंचित् सम्भव है।
गीता के अनुसार शरीरधारी आत्मा की इस वर्तमान शरीर में जैसे कौमार-बाल्यावस्था यौवन-तरुणावस्था और जरा-वृद्धावस्था ये परस्पर विलक्षण तीन अवस्थायें होती हैं, वैसे ही आत्मा को देहान्तर की प्राप्ति अर्थात् इस शरीर से दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। बुद्धिमान् पुरुष इस विषय में मोहित नहीं होता।
मात्रा अर्थात् शब्दादि विषयों को जिनसे जानी जाय ऐसी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषयों के साथ उनके संयोग शीत-उष्ण और सुख दुःख देने वाले हैं। शीत कभी सुख रूप होता है, कभी दुःख रूप, इसी तरह उष्ण भी अनिश्चित रूप है, परन्तु सुख और दुःख निश्चित रूप हैं, क्योंकि उनमें व्यभिचार नहीं होता। इसलिए सुख-दुःख से अलग शीत और उष्ण का ग्रहण किया गया है। चंकि वे मात्रा-स्पर्शादि (इन्द्रियाँ और उनके संयोग ) उत्पत्ति और विनाशशील हैं, इसलिए अनित्य हैं । अतः उन शीतोष्णादि को तू सहन कर । सुख और दुःख को समान समझने वाले अर्थात् जिसकी दृष्टि में सुख-दुःख समान हैं, ऐसे धीर बुद्धिमान् पुरुष को ये शीतोष्णादि विचलित नहीं कर सकते। जैन दर्शन गीता के उपर्युक्त कथन से पूर्ण सहमत है। प्रवचनसार में श्रमण का लक्षण करते हुए कहा गया है
समसत्तुबन्धुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो।
समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो॥४१॥ अर्थात् जिसे शत्रु और मित्रों का समूह एक समान हो, सुख और दुःख एक समान हों, प्रशंसा और निन्दा एक समान हों, पत्थर के ढेले और सुवर्ण एक समान हों तथा जो जीवन और मरण में समभाव वाला हो, वह श्रमण अर्थात् साधु है। गीता में इस समत्व की भावना का स्थान-स्थान पर प्रतिपादन किया गया है
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ २/३८ १. ज्ञानकर्मणोः कर्तृत्वाकर्तृत्वैकत्वानेकत्वबुद्ध्याश्रययोः
एकपूरुषाश्रयत्वासंभवं पश्यता । गीता-शाङ्करभाष्य २०१० २. देहिनोस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्ति/रस्तत्र न मुह्यति ।। गीता २।१३ ३. मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ २॥१४ यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुष पूरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ गीता २०१५
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रमेशचन्द जैन - सुख और दुःख को समान समझकर तथा लाभ-हानि और जय-पराजय को समान समझकर तू युद्ध के लिए चेष्टा कर, इस तरह युद्ध करता हुआ तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ २/४८ हे धनञ्जय ! योग में स्थित होकर आसक्ति रहित होकर कर्म कर। सिद्धि और असिद्धि में सम होकर कार्य करना समत्व योग कहा जाता है।
. समत्व योग को धारण करने वाले को ही गीता में स्थितप्रज्ञ तथा जैन दर्शन में सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। जब मनुष्य सब मनोगत कामनाओं को छोड़कर आत्मा में स्वयं सन्तुष्ट होता है, तब स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि अपने अन्तरात्मस्वरूप में ही किसी बाह्य लाभ की अपेक्षा न रखकर अपने आप सन्तुष्ट रहने वाला अर्थात् परमार्थदर्शन रूप अमृत रस-लाभ से तृप्त, अन्य सब अनात्म पदार्थों से अलंबुद्धि वाला तृष्णारहित पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है। अर्थात् जिसकी बुद्धि आत्म-अनात्म के विवेक से उत्पन्न हुई स्थित हो गयी है, वह स्थितप्रज्ञ यानी ज्ञानी कहा जाता है।२ छहढाला में भी कहा गया है
आतम अनात्म के ज्ञानहीन जे जे करनी तन करत छीन ।
आत्मा और अनात्मा के ज्ञान बिना जो-जो क्रियायें की जाती हैं, वे सब शरीर और इन्द्रियों को क्षीण करने वाली हैं।
पुत्र, धन और लोभ की समस्त तृष्णाओं को त्याग देने वाला संन्यासी ही आत्माराम, आत्मक्रीड और स्थितप्रज्ञ है।३ छहढाला में कहा गया है
सुत दारा होय न सीरी सब स्वारथ के हैं भीरी । जल-पय ज्यों जिय तन मेला पै भिन्न २ नहीं भेला ।
तौ प्रगट जुदे धन धामा क्यों ह इक मिल सुत रामा ॥ जो दुःखों में उद्विग्न नहीं होता और सुखों में जिसकी स्पृहा नहीं है एवं राग, भय तथा क्रोध जिसके नष्ट हो गए हैं, वह व्यक्ति स्थितधी कहा जाता है। रागी के विषय में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपण्णो।
एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥ समयसार-१५० रागी जीव कर्म को बाँधता है और वैराग्य को प्राप्त हुआ कर्म से छूटता है। यह जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश है, इसलिए कर्मों में राग मत करो। १. प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ २१५५ २. गीता-शाङ्करभाष्य २०५५ ३. गीता-शाङ्करभाष्य २१५५ ४. दुःखेष्वनुद्विग्ना सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ॥ गीता २०५६
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गीता, उसका शाङ्करभाष्य और जैन दशन समयसार गाथा २२८ में कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव चूंकि शङ्का रहित होते हैं। इसलिए निर्भय हैं और चूंकि सप्तमय से रहित हैं, इसलिए शङ्कारहित हैं।'
गाथा १८१ में कहा है कि उपयोग में उपयोग है, क्रोधादिक में कोई उपयोग नहीं है। क्रोध में क्रोध ही है, निश्चय से उपयोग में क्रोध नहीं है।
गीता में कहा गया है कि जो मुनि सर्वत्र अर्थात् शरीर, जीवन आदि में भी स्नेहरहित हो चुका है तथा उन शुभ या अशुभ को पाकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष ही करता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है। जब यह ज्ञान निष्ठा में स्थित हुआ संन्यासी कछुए के अङ्गों की भांति अपने अङ्गों को संकुचित कर लेता है। उसी तरह सब विषयों से, सब ओर से इन्द्रियों को खींच लेता है। भली भाँति रोक लेता है। तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है। ज्ञानार्णव में कहा गया है
संवृणोत्यक्षसैन्यं यः कर्मोऽङ्गानीव संयमी । - स लोके दोषपङ्काढ्ये चरन्नपि न लिप्यते ।। ज्ञानार्णव २०१३७
जिस प्रकार कछुआ अपने अङ्गों को समेट लेता है, उसी प्रकार जो संयमी मुनि इन्द्रियों की सेनासमूह को संवर रूप करता है, अर्थात् संकोचता या वशीभूत करता है, वही मुनिदोष रूपी कर्दम से भरे दोष रूपी कर्दम से विचरता हुआ भी दोषों से लिप्त नहीं होता। : आचार्य कुन्दकुन्द ने इन्द्रिय विषयों को दुःखकारी बतलाया है--
. सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं।
- जं इन्दिएहिं लद्धं तं सव्वं दुक्खमेव तहा ।। प्रवचनसार-७६ ___ जो सुख पाँच इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह पराधीन है, बाधा सहित है, बीच में नष्ट हो जाने वाला है, बन्ध का कारण और विषम हानि वृद्धि रूप है, इसलिए दुःख ही है।
इन्द्रियजन्य दुःखों का कारण होने से प्रवचनसार में शुभोपयोग और अशुभोपयोग को समान बतलाया है
वारणारयतिरियसुरा भजति जदि देहसंभवं दुक्खं । किध सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ॥ प्रवचनसार १७२
जब कि नारकी, तिर्यंच और देव-चारों ही गति के जीव शरीर से उत्पन्न होने वाला दुःख भोगते हैं । तब जीवों का वह उपयोग शुभ अथवा अशुभ कैसे हो सकता है ? ..
पुण्य और पाप में विशेषता नहीं है, ऐसा जो नहीं मानता है, वह मोह से आच्छादित हुआ भयानक और अन्तरहित संसार में भटकता रहता है। १. सम्मादिठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण ।
सत्तभयविप्पमुक्का जह्मा तह्मा दु णिस्संका । समयसार-२२८ २. यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। २।५७ ३. गीता-शाङ्करभाष्य २।५८ ४. प्रवचनसार १७७
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रमेशचन्द जैन
गीता में कहा गया है कि जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और इस आत्मा को नष्ट हुआ मानता है, वे दोनों ही अनभिज्ञ हैं; क्योंकि यह आत्मा न तो किसी को मारता है और न मारा जाता है।'
समयसार के बन्ध अधिकार में कहा गया है
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ २४७ ॥
जो पुरुष ऐसा मानता है कि मैं परजीव को मारता हूँ और परजीवों के द्वारा मैं मारा जाता हूँ, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है, वह ज्ञानी है।
गीता में कहा गया है कि जिस प्रकार पुराने कपड़ों को छोड़कर मनुष्य दूसरे वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार पुराने शरीर को छोड़कर देही अन्य शरीर को धारण कर लेता है। इसी अभिप्राय को आचार्य पूज्यपाद ने समाधितन्त्र में इन शब्दों में व्यक्त किया है
जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं न जीणं मन्यते तथा। जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीणं मन्यते बुधः ॥६४॥ समाधितन्त्र
जैसे वस्त्र के पुराने पड़ने पर बुद्धिमान् व्यक्ति अपने आपको पुराना नहीं मानता है, उसी प्रकार अपने शरीर के जीर्ण होने पर आत्मा को जीर्ण नहीं मानता है।
गीता में कहा गया है कि इस आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं और न अग्नि जला सकती है। जल इसे भिगो नहीं सकता तथा वायु इसका शोषण नहीं कर सकता। जिसने जन्म लिया, उसका मरण निदिचत है और जो मर गया, उसका जाम ध्रव है । अतः अपरिहार्य वषय के निमित्त शोक नहीं करना चाहिए। जैनदर्शन का भी यही मन्तव्य है।
गीता में कहा गया है कि निराहारी के विषयों से निवृत्ति हो जाती है तथा ब्रह्म या आत्मज्ञान होने पर सूक्ष्म आसक्ति भी निवृत्त हो जाती है।
प्रवचनसार में मुनि को निराहारी कहा गया है। मुनि की आत्मा परद्रव्य का ग्रहण न करने से निराहार स्वभाव वाली है। वही उसका अन्तरङ्ग तप है, मुनि निरन्तर उसी अन्तरङ्ग तप की इच्छा करते हैं और एषणा के दोषों से रहित जो भिक्षावृत्ति करते हैं, उसे सदा अन्य अर्थात भिन्न समझते हैं। अतः वे आहार ग्रहण करते हुए भी निराहार हैं ।।
गीता में कहा गया है कि राग और द्वेष से रहित तथा अपने वश में की हुई इन्द्रियों
१. गीता २११९ २. वही २०२२ ३. वही २।२३ ४. वही २।२७ ५. वही २०५९ ६. जस्स अणेसणमप्पा तं पि तओ तप्पडिच्छगा समणा ।
अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा । प्रवचनसार ३१२७
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गीता, उसका शाङ्करभाष्य और जैन-दर्शन
११३ द्वारा अनिवार्य विषयों को ग्रहण करता हुआ प्रसाद को प्राप्त होता है। नियमसार में रागादि पर विजय प्राप्त करने वाले को ही योगी कहा है
रागादी परिहारे अप्पाणं जो दु जुजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य कह हवे जोगो ॥ नियमसार-१३७
जो साधु अपने आपको रागादि के परिहार में लगाता है अर्थात् रागादि विकारी भावों पर विजय प्राप्त करता है। वही योगभक्ति से युक्त होता है। अन्य साधु के योग कैसे हो सकता है ?
जो मुनि राग रूप परिग्रह से युक्त हैं और जिनभावना से रहित केवल बाह्य रूप से निर्ग्रन्थ हैं, नग्न हैं, वे पवित्र जिनशासन में समाधि और बोधि को नहीं पाते हैं ।
गीता के अनुसार प्रसन्नता को प्राप्त होने पर यति के समस्त दुःखों की हानि होती है तथा प्रसन्नचित्त वाले की बुद्धि स्थिर हो जाती है ।
ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जिस मुनि का चित्त स्थिरीभूत है, प्रसन्न है और ज्ञान की वासना सहित है। उस मुनि के साध्य अर्थात् स्वरूपादि की प्राप्ति आदि कार्य सिद्ध ही हैं। अतएव उस मुनि को बाह्य तपादिक से काय को दंड देने से कोई लाभ नहीं है।
गीता के अनुसार अपने-अपने विषय में विचरने वाली इन्द्रियों में से जिस जिसके पीछे मन जाता है, वह उसकी प्रज्ञा को हर लेता है, जिस प्रकार जल में नौका को वायु हर लेता है* 1 ज्ञानार्णव में भी कहा गया है कि जिनका आत्मा विषयों से ठगा गया है अर्थात् विषयों में मग्न हो गया है। उनकी विषयेच्छा तो बढ़ जाती है और सन्तोष नष्ट हो जाता है तथा विवेक भी विलीन हो जाता है।
गीता में जिसने इन्द्रियों को अपने विषयों में जाने से सब प्रकार से रोका है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित कही गयी है। ज्ञानार्णव में भी चित्त को स्थिर करने (या बुद्धि को प्रतिष्ठित करने) का उपदेश दिया गया है
त्वामेव वञ्चितुं मन्ये प्रवृत्ता विषया इमे।
स्थिरीकुरु तथा चित्तं यथतैर्न कलक्यते ॥ २७।२७ हे आत्मन् ! ये इन्द्रियों के विषय तुझको ही ठगने के लिए प्रवृत्त हुए हैं, ऐसा मैं मानता हूँ, इस कारण चित्त को ऐसा स्थिर करो कि उन विषयों से कलङ्कित न हो।
गीता का यह पद्य अत्यन्त प्रसिद्ध है१. गीता ६४ २. भावपाहुड-७२ ३. भगवद्गीता ६५ ४. ज्ञानार्णव २२।२७ * भगवद्गीता २०६७ ५. ज्ञानार्णव २०१४
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रमेशचन्द जैन या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी।
यस्यां जागति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। २।६९ जो (परमार्थ तत्त्व) संसार के प्राणियों के लिए रात्रि है, उसमें संयमी जागता है तथा जिस (अविद्या में) संसार के प्राणी जागते हैं। वह परमार्थ तत्त्व को जानने वाले मुनि के लिए रात्रि है। आचार्य पूज्यपाद ने इसी अभिप्राय को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है
व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागात्मगोचरे।
जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे । समाधितन्त्र ७८ जो व्यक्ति (तन, धन आदि सम्बन्धी) व्यवहार विषय में सोता है, वह आत्म विषय में जागता है तथा जो व्यवहार में जागता है । वह आत्मविषय में सोता है।
गीता में कहा गया है- जो समस्त कामनाओं को छोड़कर निःस्पृह होकर विचरता है, ममता तथा अहङ्कार से रहित वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
इसकी टीका में शङ्कराचार्य ने कहा है कि जो संन्यासी पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं और भोगों को अशेषतः त्यागकर के दल जीवनमात्र के निमित्त ही चेष्टा करने वाला होकर विचरता है तथा जो स्पृहा से रहित हुआ है अर्थात् जीवनमात्र में जिसकी लालसा नहीं है, ममता से रहित है अर्थात् शरीर जीवनमात्र के लिए आवश्यक पदार्थों के संग्रह में भी यह मेरा है' ऐसे भाव से रहित है तथा अहङ्कार से रहित है अर्थात् विद्वत्ता आदि के सम्बन्ध से होने वाले आत्माभिमान से भी रहित है, ऐसा वह स्थितप्रज्ञ ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी संसार के सब दुःखों की निवृत्ति रूप मोक्ष नामक परमशान्ति को प्राप्त होता है । ज्ञानार्णव में भी कहा गया है
विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् ।
निर्ममत्वं यदि प्राप्तस्तदा ध्यातासि नान्यथा ॥ ३॥२३ यदि तुम काम भोगों से विरक्त होकर तथा शरीर में स्पृहा को छोड़ कर निर्ममता को प्राप्त हुए हो तो ध्याता हो सकते हो, अन्यथा नहीं।
निर्ममत्व के विषय में इष्टोपदेश में भी कहा है कि ममता युक्त जीव बँधता है तथा ममतारहित मुक्त हो जाता है, अतः समस्त प्रयत्न से निर्ममत्व का चिन्तन करो ।
गीता में कहा गया है कि कर्मों में अभिमान और आसक्ति का त्याग करके जो नित्यतृप्त है तथा आश्रय से रहित है। वह कर्म में प्रवृत्त होने पर भी कुछ नहीं करता है। समयसार में भी कहा है कि ज्ञानी सब द्रव्यों में राग को छोड़ने वाला है, इसलिए कर्मों के मध्यगत होने पर भी कर्मरूपी रज से उस प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार कीचड़ के बीच में पड़ा हुआ १. भगवद्गीता-शाङ्करभाष्य २०७१ २. गीता २।७१ शाङ्करभाष्य ३. इष्टोपरेश २६
त्यक्त्वा कर्मफलासगं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यप्रवृत्तोऽभिनव किञ्चित्करोति स: ।। गीता ४।२०
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गीता, उसका शाङ्करभाष्य और जैन-दर्शन सोना । परन्तु अज्ञानी सब द्रव्यों में रागी है, अतः कर्मों के मध्यगत होता हुआ कर्म रूपी रज से उसी प्रकार लिपा होता है, जिस प्रकार कीचड़ के मध्य में पड़ा हुआ लोहा है। जिस प्रकार यद्यपि शङ्ख विविध प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का भक्षण करता है तो भी उसका श्वेतपना काला नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार यद्यपि ज्ञानी विविध प्रकार के सचित्त. अचित्त और मिश्र द्रव्यों का उपभोग करता है, तो भी उसका ज्ञान अज्ञानता को प्राप्त नहीं कर सकता और जिस समय वही शंख उस श्वेत स्वभाव को छोडकर कृष्णभाव को प्राप्त हो जाता है, उस समय वह जिस प्रकार श्वेतपने को छोड़ देता है, उसी प्रकार ज्ञानी जिस समय उस ज्ञान स्वभाव को छोड़ कर अज्ञान स्वभाव से परिणत
, उस समय अज्ञानभाव को प्राप्त हो जाता है।
गीता में कहा गया है जिसकी समस्त आशायें दूर हो गयी हैं और जिसने चित्त और शरीर को भली-भाँति वश में कर लिया है तथा जिसे समस्त परिग्रह का त्याग है, वह शरीर स्थिति मात्र के लिए किए जाने वाले कर्मों को करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता। यहाँ किल्विष शब्द का अर्थ शङ्कराचार्य ने पाप के साथ पुण्य को भी लिया है। उनके अनुसार बन्धनकारक होने से धर्म भी मुमुक्षु के लिए पाप है। इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द ने दृष्टान्त देकर समझाया है -
जिस प्रकार इस लोक में कोई पुरुष आजीविका के निमित्त राजा की सेवा करता है तो राजा भी उसके लिए सुख उपजाने वाले विविध प्रकार के भोग देता है। इसी प्रकार जीव नामक पुरुष सुख के निमित्त कर्म रूपी रज की सेवा करता है, तो वह कर्म रूपी रज भी उसके लिए सुख उपजाने वाले विविध प्रकार के भोग देता है। जिस प्रकार वही पुरुष वृत्ति के निमित राजा की सेवा नहीं करता है तो राजा उसके लिए सुख उपजाने वाले विविध प्रकार के भोग नहीं देता है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव विषयों के लिए कर्म रूपी रज की सेवा नहीं करता है तो वह कर्म रूपी रज भी उसके लिए सुख उपजाने वाले विविध प्रकार के भोग नहीं देता ।
गीता में कहा गया है कि जो अपने आप मिले हुए पदार्थ से सन्तुष्ट है, जो (शीतोष्णादि) द्वन्द्वों से अतीत है अर्थात् द्वन्द्वों से जिसके चित्त में विषाद नहीं होता, जो ईर्ष्या से रहित है एवं सिद्धि तथा असिद्धि में समान है । वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता। प्रवचनसार में कहा गया है कि इसलोक से निरपेक्ष और परलोक की आकांक्षा से रहित साधु कषायरहित होता हुआ योग्य आहार विहार करने वाला होता है। मुनि की आत्मा परद्रव्य का ग्रहण न करने से निराहार स्वभाव वाली है। वही उनका अन्तरङ्ग तप है । मुनि निरन्तर १. समयसार-२१८-२१९ २. निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ गीता ४।२० किल्बिषम् अनिष्टरूपं पापं धर्म च । धर्मः अपि मुमुक्षोः किल्विषम् एव बन्धापादकत्वात् ॥ वही
शाङ्करभाष्य ४. समयसार-२२४-२२७
३.
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रमेशचन्द जैन उसी अन्तरङ्ग तप की इच्छा करते हैं और एषणा के दोषों से रहित जो भिक्षावृत्ति करते हैं, उसे सदा अन्य अर्थात् भिन्न समझते हैं, इसलिए वे आहार ग्रहण करते हुए भी निराहार हैं।
गीता के शाङ्करभाष्य में 'श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञान यज्ञः ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् उद्धरण द्वारा द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठता बतलाई गई है। ज्ञान को पाकर परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। गीता में देवयज्ञ के साथ ज्ञानयज्ञ का भी निरूपण है। योगीजन समय रूपी अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं अर्थात् इन्द्रियों का संयम करते हैं। आचार्य रविषण ने ज्ञानयज्ञ का धर्मयज्ञ के रूप में निरूपण किया है। तदनुसार आत्मा यजमान है, शरीर वेदी है, सन्तोष साकल्य है। मस्तक के बाल कुशा हैं, प्राणियों की रक्षा दक्षिणा है । शुक्लध्यान प्राणायाम हैं। सिद्ध पद की प्राप्ति होना फल है, सत्य बोलना स्तम्भ है, तप अग्नि है। चंचल मन पशु हैं और इन्द्रियाँ समिधायें हैं। इन सबसे यज्ञ करना चाहिए, यही धर्मयज्ञ है।
इस प्रकार गीता की विचारधारा और जैनदर्शन में अनेकविध साम्य दृष्टिगोचर होता है।
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जैन एवं काण्टीय दर्शनों की समन्वयवादी शैली
डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा
जैन दर्शन भारतीय दर्शन की प्रमुख धाराओं में से एक है । उसी तरह काण्ट का चिन्तन पाश्चात्य दर्शन में मूर्धन्य है । जैन दर्शन प्राचीन माना जाता है जबकि काण्ट का दर्शन अर्वा - चीन। फिर भी दोनों की पद्धतियाँ (Methodologies) एक जैसी ही हैं। हाँ ! इतना अन्तर अवश्य है कि जैन दर्शन ने अपना समन्वयवाद तत्त्वमीमांसा के माध्यम से प्रस्तुत किया है, जबकि काण्ट ने ज्ञानमीमांसा के माध्यम से समन्वयवाद की प्रतिष्ठा की है ।
जैन दर्शन
दर्शन में सत् (Reality) के सम्बन्ध में एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि वह क्या है ? वह सामान्य है अथवा विशेष, नित्य है अथवा अनित्य । इस समस्या के समाधान स्वरूप विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त मिलते हैं, जैसे- बौद्ध दर्शन यह मानता है कि सत् विशेष है और अनित्य है, अद्वैत वेदान्त मानता है कि सत् सामान्य है और नित्य है । जैन दर्शन इन दोनों को एकांगी बताते हुए यह मानता है कि सत् या द्रव्य या पदार्थ सामान्य भी है और विशेष भी, नित्य है और अनित्य भी । ऐसा करके वह दोनों विरोधी मतों के बीच समन्वय स्थापित करता है । किन्तु ये मत-मतान्तर अपने-अपने प्रतिपादकों द्वारा जिन-जिन प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रस्तुत किए गये हैं, उन्हें हम निम्न प्रकार से जान सकते हैं-
बौद्ध दर्शन
क्षणिकवाद बौद्धदर्शन का प्रसिद्ध एवं मौलिक सिद्धान्त है । इसके आधार पर ही इसके अनात्मवाद आदि सिद्धान्त विकसित हुए हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार क्षणिकता या परिवर्तनशीलता या प्रवाह ही सत्य है । यदि परिवर्तनशीलता सत्य है तो इसका मतलब है कि विशेष सत्य है । क्योंकि विशेष वहीं होता है जहाँ परिवर्तनशीलता होती है और वहीं पर अनित्यता भी होती है । इस तरह बौद्ध दर्शन अपने को विशेष और अनित्यता का पक्षधर मानता है और सामान्य को सत् के रूप में मानने वालों का विरोध करता है । बौद्ध दर्शन के अनुसार सामान्य का तो बोध ही नहीं हो सकता । यदि किसी के एक हाथ में पाँच अंगुलियाँ है और उनमें वह एक सामान्य अंगुली को भी देखना चाहता है तो यह कार्य वैसा ही होगा जैसा कि अपने सिर पर सींग को देखना अर्थात् सामान्य का बोध नहीं हो सकता है । सामान्य की सत्ता का खंडन करने के लिए बौद्ध दर्शन निम्न तर्क भी प्रस्तुत करता है
(क) सामान्य की उत्पत्ति तो विशेषों से ही होती है । अतः सामान्य को विशेष से अलग नहीं देखा जा सकता है ।
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डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा
(ख) सामान्य को एक माना जा सकता है अथवा अनेक ? यदि सामान्य एक है तो वह या तो व्यापक है या व्यापक नहीं है ?
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(i) सामान्य यदि व्यापक है तो उसे दो वस्तुओं के बीच रहना चाहिए लेकिन वह तो दो में होता है, दो के बीच नहीं होता ।
(ii) यदि वह एक है और व्यापक है तब तो उसे घट-घट में व्याप्त रहना चाहिए । (iii) यदि वह व्यापक नहीं है, तब उसे विशेष कहा जा सकता है, सामान्य नहीं ।
(ग) किसी भी वस्तु को अर्थक्रियाकारित्व से जाना जाता है । दूध दुहने का कार्य गोत्व से नहीं होता, बल्कि किसी विशेष गाय से होता है ।
(घ) सामान्य को यदि एक न मानकर अनेक माना जाता है तब तो वह विशेष ही माना जाएगा, सामान्य नहीं । अतः विशेष की ही सत्ता है सामान्य की नहीं ।
अद्वैत वेदान्त
इस दर्शन में सिर्फ ब्रह्म को ही सत्य माना गया है । ब्रह्म के अतिरिक्त जो भी हैं वे माया हैं, भ्रम हैं । ब्रह्म एक होता है । वह नित्य तथा अपरिवर्तनशील होता है । ये सभी सामान्य के लक्षण हैं । इससे यह प्रमाणित होता है कि अद्वैतवेदान्त सामान्य की सत्ता को स्वीकार करता है और सामान्य के अतिरिक्त जो भी है उनकी सत्ता में वह विश्वास नहीं करता। इतना ही नहीं बल्कि सामान्य की सत्ता को प्रमाणित तथा विशेष की सत्ता को असिद्ध करने के लिए विभिन्न तर्क भी प्रस्तुत करता है
(क) पदार्थ या द्रव्य का द्रव्यत्व एक होता है, जिसे छोड़कर किसी द्रव्य को जाना नहीं
जा सकता ।
(ख) किसी विशेष वस्तु का विशेषत्व ही उसका स्वभाव होता है । अतः विशेषत्व यानी सामान्य के बिना उस विशेष वस्तु का बोध नहीं होता ।
(ग) अनुवृत्ति या व्यावृत्ति क्रमशः सामान्य और विशेष की सूचक हैं । अनुवृत्ति से एकता तथा अभेद का बोध होता है जबकि व्यावृत्ति से अनेकता तथा भेद की जानकारी होती है । किन्तु किसी वस्तु के भेद अथवा निषेध को पूर्णतः जानने के लिए उस वस्तु के अतिरिक्त दुनिया की जितनी भी चीजें हैं, उन्हें जानने की जरूरत होती है । किसी सर्वज्ञ के लिए ही यह संभव है कि वह दुनिया की सारी चीजों को जाने । अतः सर्वज्ञता के अभाव में व्यावृत्ति या निषेध की सिद्धि न तो तर्क से हो सकती है और न किसी अनुभव से ही । तात्पर्य यह है कि विशेष की सत्ता प्रमाणित नहीं हो सकती है ।
(घ) व्यावृत्ति को सत् माना जाए या असत् ? यदि यह असत् है तब तो आगे कोई प्रश्न ही नहीं उठता । यदि यह सत् है तो प्रश्न बनता है कि यह एक है या अनेक । यदि व्यावृत्ति सत् है तो क्या सभी विशेष निषेधों में एक ही व्यावृत्ति है ? यदि व्यावृत्ति अनेक है, अलगअलग हैं, तो इससे ऐसा समझा जा सकता है कि एक व्यावृत्ति में दूसरी, दूसरी में तीसरी और तीसरी में चौथी व्यावृत्ति है, तो इस तरह अनवस्था दोष आ जाता है ।
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जैन एवं काण्टीय दर्शनों की समन्वयवादी पद्धतियाँ
११९ इन तर्कों के आधार पर अद्वैत वेदान्त सामान्य को प्रतिष्ठित करता है और विशेष की सत्ता को खण्डित करता है। न्याय-वैशेषिक
ये दर्शन मानते हैं कि सामान्य सत्य है और विशेष भी। किन्तु दोनों ही अलग-अलग होते हैं, निरपेक्ष होते हैं। दोनों में स्वभावतः कोई सम्बन्ध नहीं होता। यदि ये सम्बन्धित होते हैं तो समवाय के कारण, जो कि एक नित्य सम्बन्ध होता है। जैनदर्शन का समन्वयवाद
यह दर्शन उपरोक्त सभी दर्शनों के मतभेद को मिटाने का प्रयास करता है । पहले तो यह इन विचारों को एकांगी घोषित करता है। फिर नय की दृष्टि से इन्हें विभिन्न नयों का समर्थक मानता है । जैन दर्शन के अनुसार जो लोग सामान्य को ही सत् मानते हैं, वे संग्रहनय का समर्थन करते हैं। जो मत विशेष को महत्त्व देते हैं, वे पर्यायार्थिक नय के पक्षधर होते हैं तथा सामान्य-विशेष दोनों की ही सत्ताओं को स्वीकार करते हैं, वे नैगम नय को प्रधानता देते हैं। इस तरह इनके मत एकपक्षीय हैं। दरअसल सामान्य-विशेष दोनों ही सत्य होते हैं परन्तु अलग-अलग नहीं होते । दोनों निरपेक्ष नहीं बल्कि सापेक्ष होते हैं।
जैन दर्शन अपनी तत्त्वमीमांसा में यह मानता है कि वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं (अनन्तधर्मकं वस्तु)। उन धर्मों में से कुछ तो स्थायी होते हैं और कुछ अरथायी। स्थायी रहने वाले धर्म को गुण तथा अस्थायी धर्म को पर्याय कहते हैं। गुण की दृष्टि से वस्तु सामान्य होती है तथा पर्याय की दृष्टि से विशेष । अतः सामान्य और विशेष दोनों द्रव्य में साथ ही रहते हैं और एक दूसरे के सापेक्ष होते है, निरपेक्ष नहीं होते।
(क) जब कोई व्यक्ति मनुष्यत्व' कहता है तो उसके सामने मनुष्य के सभी लक्षण आ जाते हैं । साथ ही उसे मनुष्य का गाय, भैंस, हाथी आदि से भिन्नता का भी बोध हो जाता है । तात्पर्य यह है कि सामान्य के साथ विशेष का भी बोध हो जाता है।
(ख) यदि कोई व्यक्ति कहता है- 'राम' तो यहाँ पर एक विशेष व्यक्ति का बोध होता है किन्तु राम कहने के साथ ही उसमें जो मनुष्यत्व है उसका भी बोध हो जाता है । अर्थात् विशेष के साथ ही सामान्य का भी बोध हो जाता है।
(ग) सामान्य और विशेष बिल्कुल भिन्न नहीं होते। सामान्य का विशेष के साथ जिस हद तक तादात्म्य होता है, उस हद तक दोनों अभिन्न होते हैं और जिस सीमा तक दोनों में तादात्म्य नहीं होता है, उस सीमा तक दोनों भिन्न होते हैं।
इस प्रकार सामान्य और विशेष दोनों ही सत्य होते हैं। दोनों एक साथ होते हैं। दोनों एक दूसरे पर निर्भर होते हैं, क्योंकि सामान्य के बिना विशेष का और विशेष के बिना सामान्य का बोध नहीं होता। जिस तरह कोई वस्तु सामान्य और विशेष दोनों ही रूपों में देखी जा सकती है उसी तरह वह नित्य और अनित्य भी समझी जा सकती है। गुण की दृष्टि से किसी वस्तु में नित्यता होती है और पर्यायों की दृष्टि से अनित्यता। इसी आधार पर कुछ उदाहरण प्रस्तुत
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डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा करके जैनदर्शन ने नित्यानित्यवाद को और स्पष्ट करने का प्रयास किया। दीपक और आकाश को क्रमशः अनित्य और नित्य माना जाता है। चूंकि दीपक जलता है, बुझता है इसलिए उसे अनित्य मानते हैं । आकाश सदा एक जैसा दिखाई पड़ता है इसलिए उसको नित्य कहते हैं। किन्तु इस सम्बन्ध में जैनाचार्य मानते हैं कि दीपक मात्र अनित्य नहीं बल्कि नित्य भी है । उसी तरह आकाश मात्र नित्य ही नहीं बल्कि अनित्य भी है। दीपक जब जलता है-प्रकाश हो जाता है और जब बुझ जाता है तो अन्धकार हो जाता है। इसको ऐसे भी कहा जा सकता है कि प्रकाश का होना दीपक का जल जाना है और अन्धकार का हो जाना दीपक का बुझ जाना। जैन दर्शन के अनुसार प्रकाश और अन्धकार अग्नि या तेजतत्व के दो पर्याय हैं जो एक के बाद दूसरे आते रहते हैं । अग्नि का अग्नित्व या तेजत्व हमेशा स्थिर रहता है सिर्फ पर्याय बदलते रहते हैं। इस तरह गुण की दृष्टि से दीपक नित्य है और पर्यायों की दृष्टि से अनित्य । आकाश का धर्म है आश्रय देना । वह हमेशा ही सब किसी को आश्रय देता है । आश्रय देना आकाश का
है। किन्तु वह किसी खास व्यक्ति या वस्तु को जो आश्रय देता है, जब व्यक्ति स्थान परिवर्तन करता है तो वह आश्रय बनता है, नष्ट होता है, विशेष व्यक्ति या वस्तु को आश्रय देना आकाश का पर्याय है। अतः यह भी प्रमाणित होता है कि आकाश अपने गुण की दृष्टि से नित्य तथा पर्याय की दृष्टि से अनित्य है।
काण्ट दर्शन । आधुनिक पाश्चात्य दर्शन की दो प्रसिद्ध धारायें हैं- बुद्धिवाद तथा अनुभववाद । आधुनिक चिन्तकों के सामने यह समस्या थी कि किस प्रकार दर्शन को मध्ययुगीन धार्मिक दासता से मुक्त किया जाए। इसी के समाधान स्वरूप इन दोनों दार्शनिक शाखाओं का प्रारम्भ हुआ। युग और समस्या में समता होते हुए भी बुद्धिवाद तथा अनुभववाद में भीषण विषमताएँ देखी जाती हैं, जिनके बीच सामंजस्यता स्थापित करने का सफल प्रयास आधुनिक युग के ही जर्मन दार्शनिक काण्ट ने किया है। बुद्धिवाद
- रेने देकार्त (Rene Descartes), जिन्हें आधुनिक पाश्चात्य दर्शन का जनक माना जाता है, ने ही बुद्धिवाद का श्रीगणेश किया। वे प्रसिद्ध दार्शनिक ही नहीं बल्कि गणितज्ञ और वैज्ञानिक भी थे। गणितज्ञ होने के कारण उन्हें गणित की निश्चयात्मकता में पूरा विश्वास था। वे ऐसा मानते थे-'गणित की नींव सुदृढ़ है और दर्शन की नींव बाल की बनी है।" किन्तु ऐसा मानकर वे चुप नहीं रहे, अपितु दर्शन को सुदृढ़ता प्रदान करने का प्रयास किया।
देकार्त ने यह माना है कि सत्य के दो रूप होते हैं स्वतःसिद्ध तथा प्रमाण जन्य । जो सत्य स्वतःसिद्ध होता है उसे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि वह प्रमाणों के द्वारा प्रमाणित नहीं होता है। वह तो स्वयं प्रमाणों को प्रमाणित करता है। प्रमाण किसी की सत्ता को प्रमाणित करते हैं या अप्रमाणित । प्रमाण का यह कार्य सविकल्प बुद्धि के द्वारा होता
१. पाश्चात्य दर्शन, डॉ० चन्द्रधर शर्मा, पृ० ८२
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जैन एवं काण्टीय दर्शनों की समन्वयवादी पद्धतियां
१२१ है और सविकल्पक बुद्धि का आधार वह ज्ञान होता है जो स्वतः सिद्ध होता है। यदि स्वतः सिद्ध ज्ञान न हो तो, एक के बाद दूसरे, तीसरे, चौथे प्रमाण आते रहेंगे । इसके फलस्वरूप अनवस्था दोष आ जायेगा। इसलिए बुद्धि के मौलिक नियमों को स्वतःसिद्ध निर्विकल्पक और अतीन्द्रिय माना जाता है। प्रमाण जनित ज्ञान का साधन सविकल्पक बुद्धि होती है। निर्विकल्पक या स्वतःसिद्ध सत्य के लिए कोई प्रणाली नहीं निश्चित की गई है किन्तु सविकल्पक सत्य के लिए निगमन पद्धति को अपनाया गया है। इस पद्धति में पूर्व प्रमाणित ज्ञान के आधार पर विश्लेषण करके किसी नए ज्ञान की प्राप्ति होती है।
इस तरह देकार्त ने यह प्रतिपादित किया है कि ज्ञान उस प्रत्यय के आधार पर होता है जो सहज, स्वाभाविक, सार्वभौम, अतीन्द्रिय या अनुभव निरपेक्ष ( Apriori ) तथा स्वतः सिद्ध होता है। साथ ही उन्होंने जिस प्रणाली को अपनाया है, वह निगमनात्मक ( Deductive ) तथा विश्लेषणात्मक ( Analytic) है। इन्हीं मान्यताओं को बेनेडिक्ट्स स्पिनोजा ( Benedictus Spinoza ), लाइबनिज़ ( Gottfried W. Leibnitz ) आदि बुद्धिवादी दार्शनिकों के चिन्तन में प्रश्रय मिला है। अनुभववाद
अनुभववाद के प्रतिष्ठापकों में पहला नाम जॉन लॉक ( John Lock ) का आता है। उन्होंने बुद्धिवाद की इस मान्यता को पूर्णतः गलत बताया है कि ज्ञान जिस साधन से प्राप्त होता है वह सहज एवं अतीन्द्रिय है। न कोई सहज प्रत्यय होता है और न स्वाभाविक ज्ञान ही। जो भी ज्ञान प्राप्त होते हैं, वे इन्द्रियानुभूति के माध्यम से होते हैं। अपने इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए उन्होंने सहज प्रत्यय का विभिन्न तर्कों के आधार पर खंडन किया है-- (क) यदि ज्ञान के स्रोत को हम सहज मान लेते हैं तो ऐसा कहा जा सकता है कि
ज्ञान सम्बन्धी सही खोज करने से हम कतराते हैं। (ख) यदि ज्ञान सहज है तो उसकी प्रतीति पागलों, मूों तथा बालकों को भी होनी
चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता। (ग) सभी देश के लोगों को एक ही जैसा ज्ञान होना चाहिए परन्तु ऐसा भी
नहीं होता। (घ) यदि बुद्धि जन्मजात या स्वाभाविक होती, तो ईश्वरवाद, अनीश्वरवाद आदि धर्म
के विभिन्न सिद्धान्त नहीं होते, धर्म सम्बन्धी एक ही मान्यता होती। (ङ) नीतिशास्त्र में भी अलग-अलग सिद्धान्तों के समर्थन नहीं प्राप्त होते। सहज
बुद्धि के आधार पर सबके विचार एक जैसे होते और जैसा विचार वैसा आचार, अर्थात् सभी व्यक्तियों के आचरण एक जैसे होते । किन्तु अलग-अलग लोगों के
अलग-अलग आचार देखे जाते हैं। उपरोक्त तर्कों के आधार पर लॉक ने यह प्रमाणित कर दिया कि सहज प्रत्यय या जन्मजात बुद्धि नहीं होती है। तब यह समस्या उठी कि आखिर ज्ञान होता कैसे है ? इसका
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डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा
उत्तर देते हुए लॉक ने कहा कि संवेदन ( Sensetion ) और स्वसंवेदन ( Reflection ) से विज्ञान ( Ideas ) बनते हैं और विज्ञान से ज्ञान की प्राप्ति होती है, अर्थात् हमारा ज्ञान इन्द्रियानुभव पर आधारित है। इस तरह बुद्धिवाद के विरोध में उन्होंने यह घोषित किया कि ज्ञान का आधार अतीन्द्रिय अनुभूति नहीं बल्कि इन्द्रियानुभूति है । सभी ज्ञान इन्द्रियानुभवप्रसूत ( Aposteriori ) होते हैं तथा उन्हें प्राप्त करने की प्रणाली आगमनात्मक ( Inductive) एवं संश्लेषणात्मक ( Synthetic) होती है। इन्हीं मान्यताओं को जार्ज बर्कले (George Berkeley ) तथा डेविड ह्य म ( David Hume ) ने भी अंगीकार किया।
काण्ट का समन्वयवाद
अपने पूर्वगामियों को दो खेमों में बँटा देखकर इमान्युएल कॉण्ट ( Immannual Kant) के मन में संभवतः दर्शन के उचित विकास की प्रक्रिया में बाधा उपस्थित होने की आशंका
। फलतः उन्होंने दोनों विरोधी धाराओं ( बुद्धिवाद तथा अनुभववाद ) की आलोचना की, उनके दोषों पर प्रकाश डाला। तदोपरान्त ज्ञान के लिए बुद्धि और अनुभव दोनों की ही अनिवार्यता को सिद्ध किया। इस तरह उनका जो समन्वयवादी दर्शन प्रतिष्ठित हुआ उसे "आलोचनात्मक ( Critical ) अतीन्द्रिय ( Transcendental ) विज्ञानवाद ( Idealism )" के नाम से जाना गया।" इस नाम का 'आलोचनात्मक' शब्द काण्ट के समन्वयवाद के पूर्व पक्ष को इंगित करता है जिसमें उन्होंने बुद्धिवाद तथा अनुभववाद के दोषों को बताया है। 'अतीन्द्रिय' शब्द बुद्धिवाद का प्रतीक है तथा 'विज्ञानवाद' अनुभववाद का द्योतक है। इन्हीं दो के बीच की सामंजस्यता काण्ट का समन्वयवाद है ।
बद्धिवाद तथा अनुभववाद की आलोचना करते हए काण्ट ने कहा है कि इन दोनों में से किसी ने भी ज्ञान की उत्पत्ति, प्रामाण्य तथा सीमा को सही रूप में नहीं समझा है। लॉक ने यदि ज्ञान के क्षेत्र में काम किया भी है, तो वह सिर्फ मनोवैज्ञानिक है। काण्ट की दृष्टि में बुद्धिवाद में निम्नलिखित दोष है(क) यद्यपि बुद्धिवाद में एक ही पद्धति तथा एक ही आधार है, किन्तु बुद्धिवादी
दार्शनिक अलग-अलग परिणामों पर पहुँचते हैं। (ख) दर्शन में वस्तुवादी मान्यता है, जबकि गणित में नहीं है, तो भी बुद्धिवादी गणित
पर आस्था रखते हैं। (ग) रेखागणित जिसे बुद्धिवाद ने प्रधानता दी है, अनुभव की अपेक्षा रखता है। (घ) बुद्धि को जिसकी स्पष्ट प्रतीति प्राप्त हो, वह सत्य है। बुद्धिवाद का ऐसा कहना
भी बहुत तर्कपूर्ण नहीं है। बुद्धिवाद ने पूर्णतः अनुभव की उपेक्षा की तथा बौद्धिक कल्पनाओं का सहारा लिया। इसलिए बुद्धिवाद का पर्यवसान अन्धविश्वास में हुआ ।
१. पाश्चात्य दर्शन, पृ० १५९
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जैन एवं काष्टीय दर्शनों की समन्वयवादी पद्धतियाँ
पुनः काण्ट ने अनुभववाद पर आक्षेप किया
(क) इन्द्रियानुभव में जो कुछ प्राप्त होते हैं वे संवेदन क्षणिक होते हैं, साथ ही अव्यवस्थित भी होते हैं । अतः उनसे कोई निश्चित ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती । बल्कि उन्हें ज्ञान की कोटि में लाना भी उचित नहीं लगता ।
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(ख) इन्द्रियानुभव यानी संवेदनों से तो ईश्वर और आत्मा जैसे अतीन्द्रिय तत्त्वों की जानकारी करना तो दूर है, उनसे बाह्य जगत् की सत्ता भी प्रमाणित नहीं हो सकती है।
(ग) न तो इन्द्रियानुभव से कार्य कारण जैसे सार्वभौम नियम बन सकते हैं और न इससे सन्देहवाद की स्थापना ही हो सकती है ।
इस तरह अनुभववाद सिर्फ अनुभव को अपना आधार मानकर आत्मघाती बन गया है ।
बुद्धिवाद और अनुभववाद को काण्ट ने एकांगी रूपों में पाया, किन्तु उन दोनों की कुछ मान्यताएँ उन्हें सत्य जान पड़ी । बुद्धिवाद ने यह प्रतिपादित किया है कि ज्ञान में जो सार्वभौमता, निश्चितता, असंदिग्धता एवं अनिवार्यता होती है उन्हें बुद्धि के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, बिल्कुल ठीक है । अनुभववाद की यह धारणा कि कोई ज्ञान यथार्थं तभी हो सकता है जब उसकी सामग्री संवेदनों के माध्यम से प्राप्त हुई हो, सर्वथा उचित है । जब काण्ट को यह ज्ञात हुआ कि बुद्धिवाद और अनुभववाद पूर्ण रूप में गलत तो नहीं है बल्कि आंशिक रूप में सही है तब उन्होंने दोनों के सही अंशों को समन्वित करने का प्रयास किया । उन्होंने यह बताया कि किसी भी चीज की उत्पत्ति के लिए ये दो तत्त्व अनिवार्य होते हैं- स्वरूप ( Form ) तथा सामग्री ( Matter ) । उदाहरण स्वरूप हमारे सामने जो कुर्सी है, जिसमें चौड़ाई तथा ऊँचाई हैं - जिनसे उसका स्वरूप जाना जाता है और कुर्सी लकड़ी अथवा लोहे की बनी है यह उसका द्रव्य या उसकी सामग्री है । इसी तरह ज्ञान में भी स्वरूप होता है और सामग्री होती है। ज्ञान की सामग्री अनुभव से प्राप्त होती है तथा स्वरूप बुद्धि । संवेदन से जो कुछ व्यक्ति पाता है, मात्र वे ही ज्ञान नहीं होते, जबतक कि वे बुद्धि के ढाँचे में ढल नहीं जाते । ज्ञान के लिए बुद्धि तथा अनुभव दोनों ही अपेक्षित है । अतः काण्ट ने अपने समन्वयवाद की प्रतिष्ठा करते हुए कहा --
"इन्द्रिय संवेदनों के बिना बुद्धि विकल्प पंगु या शून्य है और बुद्धि विकल्पों के बिना इन्द्रिय संवेदन अंध है ' ।
इस प्रकार जैन एवं काण्ट दोनों ने अपने-अपने देश एवं काल के अनुसार वैचारिक जगत् के मतभेदों को मिटाने का प्रयास किया है । वैचारिक सामंजस्यता हो जाने पर व्यावहारिक सद्भाव का समाज में विकास होना बहुत हदतक संभव होता है । इसलिए हम कह सकते हैं कि समन्वयवाद का प्रतिपादन करके जैनाचार्यों एवं काण्ट ने समाज का बहुत बड़ा उपकार किया । किन्तु पाश्चात्य समाज ने काण्ट को जो श्रेय प्रदान किया, वह भारतीय समाज के द्वारा जैनाचार्यों को नहीं मिला । काण्ट ने बुद्धिवाद और अनुभववाद में जो सामंजस्यता स्थापित १. पाश्चात्य दर्शन, पृ० १६०
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डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा की, उसे एक ऐसी क्रान्ति के रूप में स्वीकार किया गया जैसी क्रान्ति भूगोल-खगोल के क्षेत्रे में कॉपरनिकस के द्वारा लाई गयी थी।' काण्ट के कार्य को बहुत ही सराहा गया और उन्हें दर्शन जगत् में एक अतिश्रेष्ठ स्थान दिया गया। काण्ट से बहुत पहले जैनाचार्यों ने अपनी विशिष्ट चिन्तन प्रणाली से भारतीय समाज को वैचारिक समन्वय एवं व्यवहारिक सद्भाव के सूत्रों में बाँधने की प्रशंसनीय कोशिश की, लेकिन समाज से उन्हें आलोचना तथा अवहेलना के सिवा कुछ न मिला।
दर्शन विभाग काशी विद्यापीठ वाराणसी
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१. कॉपरनिकस से पूर्व यह मान्यता थी—पृथ्वी स्थिर है और सूर्य चलता है किन्तु कॉपरनिकस ने या
प्रमाणित कर दिया है कि सूर्य स्थिर रहता है पृथ्वी चलती है।
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जैनधर्म और इस्लाम में अहिंसा : तुलनात्मक दृष्टि
डॉ० निज़ामउद्दीन
दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है
तत्थिमं पढमं ठाणं महावीरेणं देसियं । अहिंसा निउणादिट्ठा सव्वभूएस संजमो ॥ सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥
अर्थात् व्रतों में अहिंसा का सर्वप्रथम ज्ञान महावीर द्वारा उपदिष्ट है । महावीर के द्वारा अहिंसा सूक्ष्म रूप से प्रकट की गई है । सब प्राणियों के प्रति करुणाभाव रखना ही अहिंसा है सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की नहीं, अतः संयत व्यक्ति उस पीड़ादायक प्राणवध का परित्याग करते हैं । गहराई से देखा जाये तो अहिंसा मानव जीवन की चेतना है, किसी प्राणी की हिंसा का त्याग ही अहिंसा नहीं, बल्कि सभी प्राणियों से प्रेम करना अहिंसा है । अहिंसक आत्मदर्शी होता है, सकल संसार के जीवों को आत्मवत् देखता है । 'कूर्मपुराण' (७६-८०) में उल्लेख है कि सर्वदा सर्व प्राणियों को मन, वचन, कर्म से पीड़ित न करना, परम ऋषियों की दृष्टि में अहिंसा है-
कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा । अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसा परमर्षिभिः ॥
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यही बात 'उत्तराध्ययनसूत्र' (८, १०) में इस प्रकार प्रस्तुत की गई है। जगनिस्सिएहि भूएहि, तसनामेहि नो सिमारंभे दंड, मणसा वयसा
थावरेहि च । कायसा चैव ॥
मन-वचन-काय तथा कृतकारित अनुमोदना से किसी दशा में त्रस स्थावर जीवों को दुःख न पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा सब को त्राण देने वाली है । यह शील का परिग्रह है और मानवता का सच्चा धर्म है । अहिंसा हिंसा का निषेध है, इसे निषेधरूप कहा जा सकता है । विधि-रूप में प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव अहिंसा है । अहिंसक सब प्राणियों का हित चाहता है-हदीस में कहा गया है – 'खैरुन्नासि मँय्यनफाउन्नास' यानि उत्तम पुरुष वह है जो दूसरे मनुष्यों को लाभ पहुँचाये ।
अल्लाह न्याय, भलाई करने का आदेश देता है ( नहल, ९० ) जब मनुष्य असावधानी बरतता है, या प्रमाद करता है तो हिंसा का जन्म होता है । तत्त्वार्थसूत्र' में उमास्वामी कहते हैं-
प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ( :, १३ )
जब मनुष्य सावधानी बरतता है, विवेक से काम लेता है तो उस समय हिंसा कम होती है
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डॉ० निज़ामउद्दीन और सावधानी बरतने पर, विवेकशील होने पर जो हिंसा होती है, आचार्यों ने उसे हिंसा नहीं कहा और ऐसी हिंसा से मनुष्य पाप का भागी भी नहीं बनता । आचार्य कुंदकुद के प्रवचनसार ( ३, १७) की गाथा है -
___ मरदु व जीवदु जीवो अजदाचारस्स पिच्छिदा हिंसा।
पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥ संसार में सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय है, सुखप्रिय है, कोई दुःख नहीं चाहते, सब जीना चाहते हैं--
सव्वे पाणा पियाउआ, सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा । पियजीविणो जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं ॥
__ --आचारांग जैनधर्म की अहिंसा भावों पर निर्भर है, जिसके मन में दूसरों को सताने, कष्ट देने का भाव उत्पन्न हुआ तो वह हिंसा करने वाला होगा जिसने अपने को संयत कर लिया उससे हिंसा नहीं होगी, या कम होगी।
___इस्लाम धर्म अम्नो-आशती का धर्म है। इस्लाम शब्द 'सलम' से निकला है जिसका अर्थ है सलामती, बंदगी, तस्लीम । यहाँ भी भाव या नियत का बड़ा दख्ल है। नियत खराब होना कुछ विद्वानों की दृष्टि में गुनाह का मुखकिब होना है। यह भी माना जाता है कि जब तक बुराई सरज़द न हो तो गुनाह नहीं माना जा सकता। कुरआन में बार-बार अल्लाह का आदेश है कि तुम में सब से अच्छा वह व्यक्ति है जो मुत्तकी और परहेजगार है। मत्तकी या परहेजगार होना संयमी होना है, सावधानी बरतना है। 'दशवैकालिक' (१११) के प्रथम अध्याय की प्रथम गाथा में उसे ही धर्म और उत्कृष्ट मंगल माना गया है जो अहिंसा संयम और तपमय हो, ऐसे मंगलमय धर्म में जो लीन रहता है, उसका देवता भी वंदन करते हैं। धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है और वह आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग दर्शाता है। यही आचार या चारित्र धर्म है। धमें विचार तथा आचार दोनों में होना चाहिए । अतः सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों मोक्षमार्ग कहे गये हैं।
- इस्लाम में रोजा-नमाज़ का महत्त्व बहुत है, लेकिन साथ में यह भी माना गया है कि ऐसी नमाज से या रोजे से क्या लाभ जो व्यक्ति को बुराइयों से पाक न करे उसके आचरण को न सुधारे, उसे संयमी तथा परहेज़गार न बनाये, उसे नफसपरस्ती या इन्द्रियानुराग से न रोके । जैनधर्म की भाँति इस्लाम में भी नफस पर काबू पाने या इन्द्रियनिग्रह करने पर विशेष बल दिया है। कुरआन में 'रहीम' और रहमान शब्दों का प्रयोग अनेक वार किया गया है । इनसे मतलब है दयालुता, अहिंसा, रहम करना। ये खुदा के विशेषण भी हैं लेकिन अल्लाह जहाँ 'रहमान' तथा 'रहीम' है वहाँ वह 'कहारु' भी है गजब ढाने वाला भी है, जालिम को सजा देने वाला भी है।
जैनधर्म में राग-द्वेष से ऊपर उठने पर ही आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है। रागद्वेष के रहते ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, आत्मा परमात्मा नहीं बन सकता। कुरआन का
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जैनधर्म और इस्लाम में अहिंसा : तुलनात्मक दृष्टि कहना भी यही है कि जो अपने क्रोध को जब्त नहीं करता, या जिसमें जब्ते-नफस नहीं है, वह जन्नत को प्राप्त नहीं कर सकता। इस्लाम में धर्म के मामले में जोर-जबरदस्ती का आदेश नहीं है - और सूरे बकर से फितना-फसाद को कत्ल करने से भी सख्त माना है
धर्म के विषय में कोई जबरदस्ती नहीं, दुनिया में फसाद पैदा मत करो। फसाद, शरारत कत्ल से अधिक सख्त हैं।
"जिसने बिना कारण किसी को कत्ल किया, फसाद फैलाया, उसने तमाम आदमियों को कत्ल कर डाला।" और जिसने किसी व्यक्ति को बचा लिया, गोया उसने तमाम इन्सानों को बचा लिया।
'कुरआन' में स्पष्ट उल्लेख है कि खुदा के, रहमान के बन्दे वे हैं जो जमीन पर नर्म चाल चलते हैं और नाहक किसी जीव को हलाक नहीं करते।
शर, फितना, फसाद, कत्ल तशदुद सभी हिंसा की श्रेणी में आने वाले शब्द हैं। उर्द में साधारण बोलचाल में हम ‘अद्म तशदुद' को अहिंसा का समानार्थक मान सकते हैं, लेकिन अहिंसा शब्द अधिक व्यापक तथा बहुआयामी है। इस्लाम में ज्यादती या हिंसा के विषय में कहा गया है कि 'जो तुम पर ज्यादती करे तो तुम भी उन पर ज्यादती करो, जैसी उसने तुम पर ज्यादती की है
लेकिन माफ करने को इस्लाम में बदला लेने से अच्छा समझा गया है । जैनधर्म में भी क्षमा को धर्म के उत्तम लक्षणों में स्थान दिया गया है । लेकिन "जालिम का जुल्म सहन करना जुल्म को बढ़ाना है, इसलिए जालिम का मुकाबला भी करना चाहिए।" (हजरत उमर) जैनधर्म की अहिंसा का अर्थ यह नहीं है कि अन्याय, अत्याचारी के सामने आदमी समर्पण कर दे । आत्मरक्षा के लिए, देशरक्षा के लिए एवं मानवता की सुरक्षा के लिए हिंसा करना न्यायोचित है और ऐसे शत्रु की हत्या, हत्या नहीं कही जा सकती, हिंसा नहीं मानी जा सकती। सेना का शत्रु सेना पर आक्रमण करना हिंसा की श्रेणी में नहीं आयेगा, यदि शत्र हम पर आक्रमण करेंगे तो हम शत्रु पर आक्रमण करेंगे। 'यशस्तिलक' (पृ० ९६) में भी ऐसा ही कहा गया है
यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्याद् यः कण्टको वा निमंडलस्य ।
अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपयन्ति न दीनकानीशुभाशयेषु ॥ अर्थात् अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर युद्ध-भूमि में जो शत्रु बन कर आया हो, या अपने देश का दुश्मन हो, उसी पर राजागण अस्त्र प्रहार करते हैं, कमजोर, निहत्थे, कायरों तथा सदाशयी पुरुषों पर नहीं । अनेक क्षत्रिय जैन राजाओं ने इसीलिए शत्रुओं से युद्ध किये।
शौर्य आत्मा का गुण है, जब वह आत्मा के द्वारा प्रकट किया जाता है तब वह अहिंसा कहलाता है और जब वह शरीर के द्वारा प्रकट किया जाता है तब वीरता कहलाता है । (जैनधर्म, पृ० १८२)।
पैगम्बर मुहम्मद साहब ने कई जंगें की, लेकिन लड़ने में पहल कभी नहीं की और न ही यह आदेश दिया कि शत्रु पर पहले वार करो, उन्होंने कहा कि जबतक शत्रु तुम पर
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आक्रमण न करे तुम भी उस पर आक्रमण न करो। उन्होंने मक्का पर विजय पाई तो अपने शत्रुओं से कोई बदला नहीं लिया, उन्हें अभयदान दिया । क्षमा वीरों का भूषण है - 'क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल है दिनकर ) ।" महावीर की क्षमा भी यही थी । वे अहिंसा की मूर्ति और क्षमा की प्रतिमा दोनों थे ।
पशु-पक्षियों पर, बेजबान जानवरों पर रहम करने की बात कुरान और हदीस में बार-बार कही गई है । पैगम्बर साहब का फरमान है - बेजबान जानवरों के मामले में अल्लाह का तकवा करो, उन पर सवारी करो जब वे अच्छी दशा में हों और उनको बतौर खुराक प्रयोग में लाओ जब वे अच्छी दशा में हों ।" अबूदाऊद कहते हैं, एक व्यक्ति को इसलिए बख्श दिया गया कि उसने एक प्यासे कुत्ते के प्राण बचाये, अपने मोजे में पानी भर कर उसे पिलाया और इसके विपरीत एक नमाजी स्त्री को इसलिए नहीं बख्शा गया कि उसने बिल्ली को बन्द करके भूखा-प्यासा मारा ।
(१) बुरे इरादे से पशु को, मनुष्य को रस्सी से बाँधना, पालतू पशु को ऐसे बाँधना कि आग लगने पर भी प्राणरक्षार्थ भाग न सके ।
(२) डंडे या कोड़े से निर्ममता से मारना ।
(३) निर्दयता से हाथ-पैर काटना ।
(४) क्रोधावेश में पशु या मनुष्य को उसकी सामर्थ्य से अधिक भार डालना, अधिक काम लेना बुरा है । उनसे उचित समय पर काम लेना चहिए और उचित आराम देना चाहिए ।
(५) उनका खाना-पीना नहीं रोकना चाहिए, ऐसा न हो कि उनकी जान निकल
जाए ।
(६) दूसरों को पहले खिलाना चाहिए ।
(७) पड़ोसी के साथ सद्व्यवहार करना चाहिए ।
(८) नौकर को भी वही खिलाये, पहनाये जो मालिक स्वयं खाता-पीता है । ऐसा करने से समता भाव आयेगा और वैर-भाव समाप्त होगा । (हदीस)
एक बार एक व्यक्ति पैगम्बर मुहम्मद साहब के उसने जंगल में पक्षियों के बच्चों का स्वर सुना तो उन्हें फड़फड़ाती आई । हुजूर ने फरमाया कि उन्हें गठरी पहुँचाओ । उस व्यक्ति ने वैसा ही किया ।
से
सामने उपस्थित हुआ और कहा कि पकड़ लिया, उनकी माँ पीछे-पीछे निकालो और उनकी माँ के पास
पैगम्बर साहब का आदेश है कि मजदूर को पसीना सूखने से पहले उसकी मजदूरी दो । जब उन्होंने ऐसा कहा तो इसके पीछे भी अहिंसा का भाव छिपा है यानी मजदूर का दिल नहीं दुःखाना चाहिए जरा-सी देर के लिए भी । उन्होंने दासप्रथा को इसलिए खत्म कराया कि दासों के साथ बहुत अन्याय तथा अत्याचार होता था, अमानवीय व्यवहार किया जाता था । उन्होंने मिस्कीनों, यतीमों को उनका हक देने का आदेश दिया, यह सब अहिंसा की श्रेणी में आयेगा । कम तोलना, किसी का हक मारना, चीजों में मिलावट करना सब हिंसा के काम हैं, आर्थिक शोषण यही है ।
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जैनधर्म और इस्लाम में अहिंसा : तुलनात्मक दृष्टि
१२९ पैगम्बर मुहम्मद ने सेना को आदेश दिया कि जंग में बूढ़े, बच्चों और स्त्रियों का कत्ल न करना, हरेभरे खेतों को न उजाड़ना। उन्होंने वृक्षारोपण को भी सदका और खैरात की श्रेणी में रखा । जाहिर है वृक्ष जहाँ छाया देते हैं, पक्षियों को आश्रय देते हैं वहां वायु-प्रदूषण को भी रोकते हैं ? उन्होंने पशुओं के दागने को बहुत बुरा कहा और उस हिंसात्मक रीति को बंद करा दिया । आत्महत्या को भी इस्लाम में बुरा माना गया है । 'सूरेनिसा' (२९) में फरमाया है - अपनी जानों को कत्ल मत करो अल्लाह तुम पर बड़ा मेहरबान है।" एक हदीस है कि आत्महत्या करने वाला नरक में जायेगा।
इस्लाम में 'जिम्मो' की रक्षा करना फर्ज माना है और यह आदेश दिया है कि जो जिम्मी' पर हमला करे तुम उससे लड़ो। (मरातिबुल इज्मा)
ईर्ष्या-द्वेष न करने का भी आदेश हदीस में है (बुखारी, अबुदाऊद) कि आपस में जलन न रखो, न पीठ मोड़ो। अल्लाह के बंदे आपस में भाई-भाई हैं। किसी को भयभीत न करो। महावीर ने भी निर्भय रखने का आदेश दिया था। "हदीस तिर्मिज़ी" में उल्लेख है कि अपने शत्रु से द्वेष किसी सीमा तक रखो, हो सकता है वह किसी दिन तुम्हारा मित्र बन जाए। "असभव नहीं कि अल्लाह उसके दिल में प्रेम-मैत्री का भाव उत्पन्न कर दे, अल्लाह बड़ा 'गफरुर्रहीम' है, क्षमा करने वाला है।"
इस्लाम में चुगली करना बहुत बुरा माना गया है, इतना बुरा जैसे किसी ने अपने मुर्दा भाई का मांस खाया हो (हुजुरात १२१) इसी सूरत में एक जगह फरमाया है कि 'भाइयों के बीच सुलह-सफाई करा दो, अल्लाह से डरो ताकि तुम पर रहम किया जाए। (हुजुरात १०)
जैनधर्म में मधु, मांस, मदिरा, मछली, अंडा सभी का निषेध है। जीवहत्या प्रमादावस्था में की जाए तो वह हिंसा है. भाव हिंसा है। जैन धर्म में हिंसा दो प्रकार:
द्रव्य हिंसा और (२) भाव हिंसा । खेतीबाड़ी में या चलने-फिरने में सावधानी बरतने पर जो हिंसा हो जाती है, वह हिंसा नहीं, जानबूझकर किसी को मारना, सताना, तन-मन-धन से कष्ट पहुँचाना हिंसा है। यदि किसी को मारने या कष्ट पहुँचाने तथा हानि पहुँचाने का भाव मन में उत्पन्न हो गया तो वह भाव 'भावहिंसा' की कोटि में आयेगा। हिंसा का विचार आना भी हिंसा है। जैनधर्म में हिंसा भावों या विचारों पर निर्भर है और गृहस्थ तथा साधु की हिंसा में अन्तर है। गृहस्थ पूर्णरूप से अहिंसाव्रत का पालन नहीं कर सकता, अहिंसा उसके लिए 'अणुव्रत' है, महाव्रत' नहीं, साधु के लिए वह 'महाव्रत' है । ऐसा अन्तर इस्लाम में नहीं है। वहाँ सभी के लिए संयम बरतने का - समान रूप से उसे व्यवहृत करने का आदेश है। हिंसा चार प्रकार की मानी जा सकती है(१) संकल्पी-बिना अपराध के, जानबूझकर किसी प्राणी का वध करना संकल्पी
हिंसा है। (२) उद्योगी-खेतीबाड़ी, नौकरी, सेना में जीवन-निर्वाह के लिए जो हिंसा हो जाती
है, उसे उद्योगी हिसा कहेंगे। (३) आरम्भी-सावधानी बरतने पर भोजन आदि करने में जो हिंसा होती है उसे
आरम्भी हिंसा माना जायेगा।
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डॉ० निज़ामउद्दीन
(४) विरोधी - अपने या दूसरे की रक्षा करने के लिए जो हिंसा होती है, उसे विरोधी हिंसा कहेंगे ।
'प्रवचनसार' में कहा गया है कि सावधानी बरतने पर पैर के तो मनुष्य को मारने का पाप नहीं लगता । इस प्रकार का विभाजन फिर भी वहाँ दया रहम का क्षेत्र पशु-पक्षी तक फैला हुआ है ।
जैनधर्म में शाकाहार पर अत्यधिक जोर दिया जाता है इसलिए मांसाहार का पूर्णतः निषेध है, इस सम्प्रदाय में तो रात्रिभोजन का भी निषेध है । इस्लाम में मांसाहार एवं रात्रिभोजन का निषेध नहीं है । इस्लाम की दृष्टि से अल्लाह के नाम पर जो पशु-पक्षी का वध किया जाता है, उसे हिंसा नहीं माना जाता, न वह नाजाइज समझा जाता है । नाजाइज वह है जिसे बिना अल्लाह का नाम लिए मारा जाता है, खाया जाता है । कुरआन में हराम, हलाल का कई जगह वर्णन आया है
" जो पाक चीजें हमने (अल-बकर, १७२) कुरआन के और हराम का स्पष्टीकरण है
नीचे जीव मर जाता है इस्लाम धर्म में नहीं है,
तुम्हें बख्शी है उन्हें खाओ और अल्लाह का शुक्र अदा करो” । सूर: 'अल - अनाम' (१४६) और 'सूर : माइदा' (३) में भी हलाल । सूरः माइदा में कहा गया है
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"तुम पर ये चीजें हराम की गई हैं- मुरदार, खून, सुअर का मांस व जानवर जो खुदा के सिवाय किसी और के नाम पर जिब्ह किया गया हो, वह जानवर जो गला घुट कर या चोट खाकर या बुलन्दी से गिर कर या टक्कर खाकर मरा हो या जिसे किसी दरिंदे ने फाड़ा हो, सिवाय इसके कि तुमने उसे जिंदा पाकर स्वयं जिन्ह किया हो, और जो किसी आस्ताने पर जिन्ह किया गया हो ।" (सूरे माईदा )
वास्तव में खाद्यपदार्थ तथा वस्त्र आदि का प्रयोग प्राकृतिक और भौगोलिक परिवेश पर अधिक निर्भर करता है । मरुस्थल में रहने वालों और सागरतट पर रहने वालों तथ पर्वतों पर रहने वालों की वेशभूषा एवं खान-पान में बहुत अंतर है ।
जहाँ तक मांसाहार के प्रयोग की बात है, अकबर ने कई पर्वों में इसका निषेध किया था विशेषकर हिन्दू पर्वो पर और उसने इन पर्वो पर शिकार का भी निषेध किया था। अकबर के बाद जहांगीर ने भी यह रीति अपनाई ।
सूफी लोगों ने शाकाहार का प्रयोग किया है। कबीर ने स्पष्ट कहा था- "उनको बिहिश्त कहां से होई, सांझे मुर्गी मारे"। वे मासांहार के, जीवहत्या के विरोधी थे । इसी प्रकार कश्मीर में ऋषि परम्परा के प्रवर्तक शेखनूरुद्दीन वली नूरानी (१४वीं शताब्दी) शाकाहारी थे और उनकी परम्परा के अनेक मुस्लिम संत शाकाहारी थे । बटमालो साहब के उर्स के ३ दिनों में उनके अनुयायी मांस का प्रयोग नहीं करते थे ।
अहिंसा की अवधारणा में यहाँ दोनों धर्मों में काफी अन्तर है, लेकिन सहिष्णुता, दया, करुणा, नफस पर काबू पाना, परहेज़गारी और संयम की दृष्टि से बहुत कुछ समानता है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । 'सूत्रकृतांग' में कहा गया है कि “जो अपने मत की प्रशंसा
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जैनधर्म और इस्लाम में अहिंसा : तुलनात्मक दृष्टि और दूसरे की निंदा करते हैं, सत्य को भ्रमित करते हैं, वे संसार में भटकते रहेंगे।" पैगम्बर मुहम्मद साहब ने भी कहा है कि तुम दूसरों के पैगम्बरों को, उनके धर्मग्रन्थों को बुरा मत कहो । अहिंसा आज के युग में बहुत आवश्यक है। आतंक और हिंसा के सागर में डूबते मनुष्य को अहिंसा त्राण दे सकती है जैसा कि 'प्रश्नव्याकरण' में कहा गया है-"समुद्दमज्ञ व पोतवहणं" । आज मनुष्य मनुष्य से भयभीत रहता है, आज का परिवेश आतंक, भय, हिंसा, क्रोध, घृणा से भरा है और उससे निकलने का एकमात्र उपाय है अहिंसा । अहिंसा की भावना को जीवन में उतारना, अहिंसामय जीवन जीना। मनुष्य का मनुष्य पर भरोसा नहीं, वह उसपर विश्वास नहीं करता, उससे प्रेम नहीं करता, उससे डरता है
ए आसमाँ तेरे खुदा का नहीं है खौफ, डरते हैं ए जमीं तेरे आदमी से हम ।
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जैन शिक्षा दर्शन में गुरु को अर्हताएँ
विजय कुमार जैन दर्शन ने हमारे देश की शिक्षा के स्वरूप-निर्धारण में बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उस योगदान के पीछे हमारे जैन आचार्यों और गुरुओं की अहम भूमिका रही है। प्राचीनकाल में गुरु को सामाजिक विकास का सूत्रधार माना जाता था। समाज की आकांक्षाओं, आवश्यकताओं और आदर्शों को व्यावहारिक रूप में परिणत करने का कर्तव्य गुरु को ही निभाना पड़ता था।
भारत की इस पावन धरती पर महान् ज्ञानी, ध्यानी तथा ऋषि आदि उत्पन्न हुए जिन्होंने अपने ज्ञान की दिव्य ज्योति से व्यक्ति और समाज में व्याप्त अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने का प्रयास किया। इसी कारण जब भी अध्यापक अथवा अध्यापन के विषय में चर्चा होती है तो किसी न किसी रूप में हम अपने उन प्राचीन गुरुओं को आदर्श रूप में स्वीकार व हैं। चाहे वह अध्यापन कार्य का विषय हो या चरित्र अथवा ज्ञान के आविष्कार का विषय हो सभी क्षेत्रों में हमें गुरु की आवश्यकता पड़ती ही है। अतः जीवन को सार्थक बनाने में गुरु का सर्वोच्च स्थान है। 'गुरु' का शाब्दिक अर्थ
_ 'गुरु' शब्द की व्युत्पत्ति 'ग' धातु में 'कु' और 'उत्व' प्रत्यय लगने से होती है । 'गणाति उपदिशित धर्म गिरति अज्ञानं वा गुरुः' । अर्थात् जो अज्ञान को नष्ट कर ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है, अन्तर्मन में धर्म की ज्योति प्रज्ज्वलित करता है, धर्म का उपदेश देता है, वही गुरु है। व्याकरण के अनुसार 'गृणातीति गुरुः', जो 'ग' निगरणे धातु से निष्पन्न है और जिसका अर्थ होता है-'जो भीतर से कुछ निकालकर दे वह गुरु है।'
___ इस प्रकार 'गुरु' शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ से 'गुरु' एक धर्मोपदेशक तथा पथप्रदर्शक दृष्टिगोचर होते हैं । किन्तु आजकल सामान्यतया 'गुरु' शब्द का अर्थ शिक्षक से लिया जाता है। जो हमें स्कूल या कालेजों में किसी विषय का विधिवत् ज्ञान कराता है। जैन ग्रन्थों में ऐसे गुरु : के लिए आचार्य, बुद्ध, पूज्य, धर्माचार्य, उपाध्याय आदि शब्दों के भी प्रयोग देखने को मिलते. हैं । आचार्य को परिभाषित करते हुए अभयदेव सूरि ने कहा है जो सूत्र और अर्थ दोनों के ज्ञाता हों, उत्कृष्ट कोटि के लक्षणों से युक्त हों, संघ के लिए मेढ़ि के समान हों, जो अपने गण, गच्छ अथवा संघ को समस्त प्रकार के संतापों से पूर्णतः विमुक्त रखने में सक्षम हों, तथा जो अपने शिष्यों को आगमों के गुढ़ार्थ सहित वाचना देते हों, उन्हें आचार्य कहते हैं।'
१. भगवतीसूत्र ११११ (अभयदेववृत्ति)
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जैन शिक्षा दर्शन में गुरु की अर्हताएँ गुरु के लक्षण
विद्यार्थी के लिए सद्गुरु का होना अत्यन्त आवश्यक होता है। सद्गुरु के अभाव में विद्यार्थी कितनी ही कुशाग्र बुद्धि का हो, वह उसी प्रकार प्रकाशित नहीं हो सकता जिस प्रकार बिना सूर्य के चन्द्रमा । किन्तु प्रश्न उपस्थित होता है कि सद्गुरु की संगति कैसे की जाए, उसकी क्या पहचान है ? उसके लक्षण क्या हैं ? जिसे देखकर यह समझा जाए कि यह सद्गुरु है या असद्गुरु । आदिपुराण में सद्गुरु के निम्नलिखित लक्षण बताये गये हैं -
- १. सदाचारी, २ स्थिरबुद्धि, ३. जितेन्द्रियता, ४. अन्तरंग और बहिरंग सौम्यता, ५. व्याख्यान शैली की प्रवीणता, ६ सुबोध व्याख्याशैली, ७. प्रत्युत्पन्न मतित्व, ८. ताकिकता, ९. दयालुता, १० विषयों का पाण्डित्य, ११. शिष्य के अभिप्राय को अवगत करने की क्षमता, १२. अध्ययनशीलता, १३. विद्वत्ता, १४ वाङमय के प्रतिपादन की क्षमता, १५. गम्भीरता, १६. स्नेहशीलता, १७. उदारता, १८. सत्यवादिता, १९. सत्कुलोत्पन्नता, २०. अप्रमत्तता, २१. परहित साधन की तत्परता आदि । गुरु की अर्हताएं
जीवन के निर्माण में गुरु एक महान् विभूति के रूप में प्रस्तुत होता है। परन्तु उस महान विभूति का योग्य होना भी आवश्यक है। क्योंकि यदि गुरु ही अयोग्य होगा तो शिष्य योग्य कैसे बन सकता है । अतः व्यवहार-सूत्र में आचार्य पद को प्राप्त करने की योग्यताओं के विषय में कहा गया है कि जो कम से कम पाँच वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला, श्रमणाचार में कुशल, प्रवचन में प्रवीण, प्रज्ञाबुद्धि में निष्णात, आहारादि के उपग्रह में कुशल, अखण्डाचारी, सबल दोषों से रहित, भिन्नता रहित आचार का पालन करने वाले, निःकषाय चरित्र वाले, अनेक सूत्रों और आगमों आदि में पारंगत श्रमण आचार्य अथवा उपाध्याय पद को प्राप्त करने
के योग्य हैं।
- आचार्य के गुणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि आचार्य को संग्रह-अनुग्रह में कुशल, सूत्र के अर्थ में विशारद, कीर्ति से प्रसिद्धि को प्राप्त तथा चरित्र में तत्पर होना चाहिए। साथ ही ग्राह्य और आदेय वचन बोलने वाला, गम्भीर, दुर्धर्ष, शूर, धर्म की प्रभावना करने वाला, क्षमागुण में पृथ्वी के समान, सौम्यगुण में चन्द्रमा के समान और निर्मलता में समुद्र के समान होना चाहिए।" आचार्य के छत्तीस गुण
__ आचारत्व आदि आठ गुण, अनशनादि बारह तप, आचेलक्यादि दशकल्प और सामा१. आदिपुराण १.१२६-१३३, पृ० १९ २. व्यवहारसूत्र ३.५ ३. संगहणुग्गहकुसलो सुत्तत्थविसारओ पहियकित्तो। किरिआचरणसुजुतो
गाहुयआदेज्जवयवो य ॥ --मूलाचार १५८, पृ० १३३ ४. गंभीरो दुहरिसो सूरो धम्मप्पहावणासीलो।
खिदिससिसायरसरसो कमेण तं सो दु संपत्तो ॥ .-मूलाचार १५९, पृ० १३३-१३४
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१३४
विजयकुमार यिकादि छः आवश्यक ये छत्तीस गुण आचार्य के कहे गये हैं।' इन छत्तीस गुणों का विवेचन निम्नलिखित हैआचारत्व आदि आठ गुणआचारवान्--जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार आदि
पाँच आचारों का स्वयं पालन करे और शिष्यों से पालन करवावे, वही
आधारवान्--जो श्रुत ज्ञान का भली भाँति ज्ञाता हो। व्यवहारवान्-जो प्रायश्चित्तशास्त्र का ज्ञाता हो । प्रकर्तृत्व--आचार्य में इतनी कर्तृत्वशक्ति होनी चाहिए कि संकट का समय उपस्थित
होने पर संघ की पूर्ण रक्षा कर सके । अपायोपायवर्शी--अर्थात् गुण-दोष का समुचित निर्णय करने वाला हो। अवपीड़क-यदि शिष्य अपने दोषों को न कहे तो उसे डाँट-फटकारकर दोष कहलवाने
में समर्थ हो। अपरिस्रावी-जो किसी भी शिष्य द्वारा कहे गये दोषों को बाहर प्रकट नहीं करता हो । सुखावह-समाधिमरण स्वीकार करने वाले साधु को परीषहों से पीड़ित होने पर
उसकी बाधाओं को दूर करते हुए उसका सम्यक् प्रकार से समाधिमरण
कराने में सक्षम हो। अतः इन आठ गुणों से युक्त व्यक्ति ही गुरु के योग्य माना जाता है। बारहतप
अनशन-आहार का त्याग करना अनशन तप है। ऊनोदरी-भूख से कम खाना ऊनोदरी कहलाता है। भिक्षाचारी नियमपूर्वक, पवित्र उद्देश्य से और शास्त्र सम्मत विधि-विधान के साथ
भिक्षा ग्रहण करना। रस-परित्याग तप-स्वादिष्ट भोजन घी, दही, दूध आदि रसमय वस्तुओं का त्याग
करना। कायक्लेश तप-शरीर को कष्ट देना कायक्लेश तप है। इसके दो प्रकार होते हैं
(१) प्राकृतिक रूप से स्वयं आना-जैसे गर्मी में लू के थपेड़े। (२) उदी.
रणा करके लेना, जैसे-केशलुंचन। प्रतिसंलीनता तप--बहिर्मुखी आत्मा को अन्तर्मुखी बनाने का प्रयत्न ही प्रतिसंलीनता
तप कहलाता है। प्रायश्चित्त तप-दोष अथवा अनुचित कार्य की विशुद्धि के लिए जो क्रिया ( तपस्या
अपनायी जाती है वह प्रायश्चित्त तप है। १. आयारवमादीया अट्ठगुणा दस विधो च ठिदिकप्पो ।
बारस तव छावासय छतीसगुणा मुणेयव्वा । -भगवती आराधना, भाग-१, ५२८
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जैन शिक्षा दर्शन में गुरु की अर्हताएँ विनय तप-आभ्यन्तर तप को ही विनय तप कहते हैं। इससे मन, वचन और काय
तीनों में कोमलता और मृदुता का वास होता है। वैयावत्य तप-धर्म की साधना तथा आत्मविकास में परस्पर एक दूसरे का सहयोग
करना वैयावृत्य तप है। स्वाध्याय तप-मर्यादापूर्वक शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय तप कहलाता है। ध्यान तप-मन की एकाग्रता का नाम ध्यान तप है। व्युत्सर्ग तप--धर्म और आत्मसाधना के लिए अपने आपको उत्सर्ग करने की विधि ही
व्युत्सर्ग तप कहलाता है। उपर्युक्त बारह प्रकार के तपों का पालन करना आचार्य या गुरु के लिए आवश्यक बतलाया गया है। दस कल्प
आचेलक्य-समस्त परिग्रह के त्याग को आचेलक्य कहते हैं। औद्देशिक--श्रमणों के उद्देश्य से बनाये गये भोजनादि को औद्देशिक कहते हैं। शय्यागृह का त्याग--शय्या और गृह दोनों का दूसरों के लिए त्याग करना। राजपिण्ड-राजा का पिण्ड अर्थात् जिस पिण्ड का वह स्वामी है उसका ग्रहण न करना
राजपिण्ड कहलाता है। कृतिकर्म--चारित्र में स्थित साधु के द्वारा भी महान् गुरुओं की विनय-सेवा करना
कृतिकर्म है। प्रतारोपणत्व - जीवों के भेद-प्रभेद को जाननेवाले को ही नियम से व्रत देना चाहिए। व्रत ज्येष्ठता -चिरकाल दीक्षित और पाँच महाव्रतों से युक्त आर्यिका से तत्काल
दीक्षित पुरुष भी ज्येष्ठ होता है। प्रतिक्रमण-अचेलता आदि कल्प में स्थित साधु को यदि अतिचार लगता है तो उस
अतिचार का परिहार करना प्रतिक्रमण है। मास-छः ऋतुओं में से एक-एक महीना ही एक स्थान पर रहना और अन्य समय में
विहार करना नवम स्थितिकल्प है। पर्युषणा-वर्षाकाल के चार मासों में भ्रमण त्यागकर एक ही स्थान पर निवास करना
पर्युषणा है। इस प्रकार इन दस प्रकार के कल्पों का धारक एवं शिष्यों से इनका पालन करवाने में सक्षम व्यक्ति ही आचार्य या गुरु है। छः आवश्यक
(१) सामायिक--राग-द्वेष से रहित समभाव को सामायिक कहते हैं। (२) चतुविंशतिस्तव--ऋषभ आदि चौबीस तीर्थङ्करों के जिनवरत्व आदि गुणों के
ज्ञान और श्रद्धापूर्वक चौबीस स्तवनों को पढ़ना चतुविशतिरतव कहलाता है।
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विजयकुमार .. (३) वन्दना-रत्नत्रयसे सहित आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक और स्थविर मुनियों के
गुण-अतिशय को जानकर श्रद्धापूर्वक अभ्युत्थान और प्रयोग के भेद से
दो प्रकार की विनय में प्रवृत्ति को वन्दना कहते हैं । (४) प्रतिक्रमण-प्रमादवश शुभयोग से च्युत होकर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद
पुनः शुभयोग को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। (५) कायोत्सर्ग-ध्यान के लिए शरीर की निश्चलता को कायोत्सर्ग कहते हैं। (६) प्रत्याख्यान-आगामी काल में मैं यह काम नहीं करूँगा, इस प्रकार के संकल्प को
प्रत्याख्यान कहते हैं। अतः उपर्युक्त छत्तीस प्रकार के गुणों से युक्त आचार्य ही सच्चे गुरु माने गये हैं।
इसी प्रकार महामुनि उपाध्याय अमरमुनि ने सामायिक सूत्र में आचार्य के निम्नलिखित छत्तीस गुण बताये हैं - "जो पाँच इन्द्रियों के वैषयिक चांचल्य को रोकने वाला, ब्रह्मचर्य व्रत की नवविध गुप्तियों को धारण करने वाला, क्रोधादि चार कषायों से मुक्त, अहिंसादि पांच महाव्रतों से युक्त, पाँच आचार का पालन करने में समर्थ, पाँच समिति और तीन गुप्तियों को धारण करने वाला श्रेष्ठ साधु ही गुरु है।"१ गुरु के प्रकार :.. जैनागमों में आचार्य के कई प्रकार बताये गये हैं। राजप्रग्नीयसूत्र में तीन प्रकार के आचार्यों के वर्णन मिलते हैं --
१. कलाचार्य, २ शिल्पाचार्य और ३. धर्माचार्य । जो बहत्तर कलाओं की शिक्षा देते हैं, वे कलाचार्य, जो विज्ञान आदि का ज्ञान कराते हैं, वे शिल्पाचार्य तथा जो धर्म का प्रतिबोध देने वाले हैं, वे धर्माचार्य कहलाते हैं । परन्तु स्था. नांग सूत्र में ज्ञान एवं कार्य की अपेक्षा से आचार्य चार प्रकार के बताये गये हैं(१) उद्देशनाचार्य-जो आचार्य शिष्यों को पढ़ने का आदेश देते हैं, किन्तु वाचना देने
वाले नहीं होते, वे उद्देशनाचार्य कहलाते हैं।। (२) वाचनाचार्य-जो आचार्य वाचना देने वाले होते हैं किन्तु अध्ययन-अध्यापन का
— आदेश देने वाले नहीं होते हैं, वे वाचनाचार्य कहलाते हैं । (३) उद्देशनाचार्य-वाचनाचार्य-जो आचार्य आदेश भी देते हैं और वाचना भी
देते हैं, वे उद्देशनाचार्य-वाचनाचार्य हैं। (४) न उद्देशनाचार्य न वाचनाचार्य-जो आचार्य न आदेश ही देते हैं और न
वाचना ही देते हैं, किन्तु धर्म का प्रतिबोध देने वाले होते हैं। १. सामायिकसूत्र, ३/१/२ २. राजप्रश्नीयसूत्र-१५६/३४२ ३. स्थानांगसूत्र-४/३/४२३
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जैन शिक्षा दर्शन में गुरु की अर्हताएँ
१३७ पुनः करण्डक की उपमा देकर आचार्य के चार प्रकार बताये गये हैं- . . (१) चाण्डाल अथवा चर्मकार के करण्डक तुल्य-जो आचार्य षट्काय प्रज्ञापक का
धारक एवं विशिष्ट क्रियाहीन है वह उसी प्रकार निकृष्ट है जिस प्रकार चर्म
आदि रखे रहने से चाण्डाल का करण्डक । (२) वेश्या के करण्डक तुल्य-जो आचार्य ज्ञान अधिक न होने पर भी वाग आडम्बर
से व्यक्तियों को प्रभावित कर लेता है वह वेश्या के करण्डक के समान है। (३) गहपति के करण्डक तुल्य-जो आचार्य स्वसमय, परसमय के जानकार हों तथा
चरित्र सम्पन्न हों, वे गृहपति के करण्डक के तुल्य शोभित होते हैं। (४) राजा के करण्डक तुल्य-आगम में वर्णित आचार्य के समस्त गुणों से सम्पन्न
आचार्य उसी प्रकार सर्वश्रेष्ठ है जिस प्रकार बहुमूल्य रत्नों से भरा राजा का
करण्डक श्रेष्ठ है। गुरु का महत्व :
गुरु का स्थान हमारे समाज में अतीव पूजनीय है । दशवकालिक सूत्र में आचार्य की गरिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है
"जिस प्रकार प्रातःकाल देदीप्यमान सूर्य समस्त भरतखण्ड को अपने किरण समूह से प्रकाशित करता है, ठीक उसी प्रकार आचार्य भी श्रुत, शील और बुद्धि से युक्त हो उपदेश द्वारा जीवादि पदार्थों के स्वरूप को यथावत् प्रकाशित करता है तथा जिस प्रकार स्वर्ग में देव सभा के मध्य इन्द्र शोभता है, उसी प्रकार साधु-सभा के मध्य आचार्य शोभता है।"२
पुनः चन्द्रमा की उपमा देते हुए कहा गया है--
"जिस प्रकार कौमुदी के योग से युक्त तथा नक्षत्र और तारों के समूह से घिरा हआ चन्द्रमा, बादलों से रहित अतीव स्वच्छ आकाश में शोभित होता है, ठीक उसी प्रकार आचार्य भी साधु-समूह में सम्यक्तया शोभित होते हैं।"३
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन वाङ्मय में आचार्य की अर्हताएँ अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी हैं। सचमुच जिसकी ज्ञानदृष्टि सूर्य के किरणों की भाँति तीक्ष्ण हो तथा जो चन्द्रमा की तरह लोगों को शीतलता प्रदान करे वह कितना महान् है। जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाशित करता है उसकी महानता को शब्दों में व्यक्त करना मानों सूर्य को दीपक दिखाना है।
१. स्थानांगसूत्र ४/४/५४१ २. जहा निसंते तवणच्चिमाली पभासई केवल भारहं तु।
एवायरिओ सूअसीलबुद्धिए, विरांयई सुरमज्झेव इंदो ॥ -दशवैकालिक-१४/२/९ ३. जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो, नक्खत्ततारागण परिबुड़प्पा ।
खे सोहई विमले अब्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ॥ -वही १५/२/९
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विजय कुमार
१३८
जैनदर्शन में गुरु की महत्ता को जाति, कुल या वर्ण से नहीं आँका गया है बल्कि उसकी महत्ता गुणों के आधार पर निर्धारित की गयी है, उदाहरणार्थं उत्तराध्ययनसूत्र में चाण्डाल को भी शिक्षा पाकर महर्षि बनना बताया गया है ।"
१. सोवागकुलसंभूओ, गुणत्तरधरो मुणी ।
हरिएसबलो नाम, आसि भिक्खू जिइन्दिओ || -उत्तराध्ययन १२ / १
शोधछात्र दर्शन विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी
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तप
प्रा० डॉ० एच० यु० पण्डया तपस् शब्द तप धातु से निष्पन्न हुआ है। यह धातु दाह [ ग. १०]; संताप [ग.१ और ऐश्वर्य [ ग.४ ] परक अर्थों में है। ऋग्वेद में यह धातु तीनों अर्थों में प्रयुक्त हुई है, इन में से दाह' और सन्ताप* अर्थ सायण ने स्पष्ट रूप से बताए हैं किन्तु ऐश्वर्य अर्थ स्पष्ट रूप से नहीं बताया है, [फिर भी तपोजाँ न्) ऋषीन्... । या च गाः अङ्गिरसः तपसा चक्रुः और ऋतं सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत" आदि में ऐश्वर्य परक अर्थ देखा जा सकता है।
इसके अलावा यह धातु ऋग्वेद में पीड़ा, विनाश', तापप्रद', संस्कारक (विशुद्धि), प्रकाशक° और गरम करना आदि विभिन्न अर्थों में भी है। ये सभी अर्थ तपश्चर्या के साथ जुड़े हुए हैं।
इस धातु से निष्पन्न हुए तपस्. तपस्वान्१२, तपुः१३, तपुषि'४, तपुष्१५, तपिष्ठ",
पी. वी. रिसर्च इन्स्टीट्यूट के उपक्रम में फर्स्ट ऑल इन्डिया कोन्फरेन्स ऑफ प्राकृत एण्ड जैन स्टडीज, दि० २-५ जनवरी १९८८ में पढ़ा गया पेपर । १. तप-दह...६-५-४, ६-२२-८ २. तपः सन्ताप: ७-८२-७ ३. ऋग्वेद १०-१५४-५ ४. तपसा --पशुप्राप्तिसाधनेन चित्रयागादि लक्षणेन-सायण १०-१६९-२ ५. ब्रह्मणा पुरा सृष्टयर्थं कृतात् तपसः --सायण-मानस और वाचिक सत्य तप से उत्पन्न हुए, उससे
रातदिन उत्पन्न हुए.'ऋ १०-१९०-१ ६. तपो-बाधस्व, ३-१८-२ ७. तपः-क्षपय ३-१८-२ ८. तपः--तपसा-तापनेन, १०-१०९-१; तपस्व-तप्तं कुरु १०-१६-४ ९. तपतु-संस्करोतु १०-१६-४ १०. तपतु-प्रदीप्यताम् (सूर्यः) ८-१८-९ ११. तपस्व-तप्तं कुरु १०-१६-४ १२. ऋ० ६-५-४ १३. तपुः तप्यमानः-७-१०४-२ १४. तापयति अनेन अन्यम् १-४२-४, १५. तापक ८-२३-१४ १६. तापयिता ३-३०-१६, ७-५९-८; १०-८९-१२;
तप्यमान १०-८७-२०
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१४०
प्री० डॉ० एच० यु० पण्डयाँ तपनी', तपन, आदि शब्द भी ऋग्वेद में तेजस्वी, तापक और तप्यमान अर्थ में प्रयुक्त
ऋग्वेद में तपस् शब्द तेज, उष्णप्रद, यज्ञादि साधन, तपश्चर्या (चान्द्रायणादिव्रत), व्रत आदि विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। इसके आधार पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि वैदिक युग में तप के दो स्वरूप थे-१. यज्ञरूप तप और २. चान्द्रायणादिव्रत रूप तप ।
- तप के प्रति श्रद्धा-रामायण, महाभारत, भागवत, बुद्धचरित आदि ग्रन्थों में तप के प्रति आदर की अभिव्यक्ति की गई है जैसे-रामायण में तप को उत्तम और अन्य सुखों को व्यर्थ कहा है। इतना ही नहीं तप रूप धर्म को ही चार युगों का व्यावर्तक लक्षण माना है, जैसे कि सत्ययुग में केवल ब्राह्मण, त्रेता में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय, द्वापर में उन दोनों के उपरान्त वैश्य तप करते थे, और कलियुग में उन तीनों के उपरान्त शूद्र भी तप करेंगे।
महाभारत आदि में कहा गया है कि ब्रह्मादि देव, देवर्षि, ब्रह्मर्षि एवं राजर्षियों ने कठोर तपस्या करके इष्टसिद्धि प्राप्त की थी। तप पवित्रकर्ता है और वह भ उत्पन्न हुआ है।'' वह भगवान् का हृदय एवं आत्मा है, तपोबल से वे सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं।' तप से भगवद् प्रीति१२, बल१४ और सिद्धियाँ १५ मिलती हैं। स्वर्ग१६ और वैराग' आदि उत्तम लोक में गति होती है इतना ही नहीं ईश्वर प्राप्ति भी होती
१. तापकारिणी २-२३-१४ २. सन्तापक: २-२३-४; १०-३४-७ ३. ६-५-४ ४. १०-१०९-१ ५. तपसा-यागादिरूपेण साधनेन १०-१५४-२; १०-१८३-१ ६. तपसा--कृच्छ्रचान्द्रायणादिना युक्ताः सन्त: १०-१५४-२, तपश्चरणाय १०-१०९-४ ७. तपसः-दीक्षारूपात् व्रतात् १०-१८३-१ ८. उत्तरकांड ८४-९ ९. उत्तरकाण्ड ७४-१० से २७ १०. महाभारत वनपर्व २१३-२८ ११. भगवद्गीता १०-५ १२. भागवत २-९-२२; २३ तथा ६-४-४६ १३. वही ३-९-४१ १४. वही ३-१०-६ १५. वही ९-६-३९ से ४८ १६. ऋ० १०-१५४-२; १०-१६७-१; बुद्धचरित ७-२० १७. उत्तररामचरित २-१२ पृ. ४८
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तर्प
૧૪૧ है ।' तपस्वी के सिर से सधूम अग्नि निकलती है, जिससे पृथ्वी क्षुब्ध हो जाती है । इसके आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीन काल से ही समाज में तप के प्रति अत्यन्त आदर था ।
तप की दो धाराएँ - मुंडकोपनिषद् में ज्ञान को तप कहा है । शंकराचार्य स्पष्ट कहते हैं कि सर्वज्ञ रूप ज्ञान ही तप है, तप आया सरूपस नहीं है । इसके आधार पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि वैदिक युग में तप की दो धाराएँ अस्तित्व में आ चुकी थीं - ( १ ) शरीर कष्टप्रद तप और (२) ज्ञान रूप तप । प्रथम धारा मुख्यतः शरीरकेन्द्री है और दूसरी धारा मनःकेन्द्री एवं आत्मकेन्द्री है । प्रथम धारा में परम्परया मन का आत्मा से सम्बन्ध जुड़ता है, जबकि दूसरी धारा मन एवं आत्मा को सीधा स्पर्श करती है । इन दो धाराओं में से प्रथम धारा को अधिक प्राचीन मानना पड़ेगा, क्योंकि ( १ ) तपस् शब्द का मूल / तप् धातु है; (२) उपनिषद्, गीता, जैन और बौद्ध परम्परा प्रथम धारा में सुधार लाने का प्रयास करती है, (३) फिर भी प्रथम धारा आज तक अक्षुण्ण चलती आ रही है ।
१. शरीर कष्टप्रद तप- रामायण, महाभारत, पुराण एवं काव्य में इस धारा का निरूपण दूसरी धारा से अधिक मात्रा में पाया जाता है, जैसे-
रामायण के अनुसार विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षिपद की प्राप्ति के लिये हजारों वर्ष तक फल मूल का ही भोजन करके उग्र तपस्या की थी । मांडकण मुनि ने जल में बैठकर वायु का ही भोजन (प्राणायाम) किया था । सप्तजन ऋषि अपना सर नीचा रखते हुए हर सातवीं रात्रि को वायु का भोजन ( कुंभक प्राणायाम) करते थे । शूद्रक ने अधोमुख लटक कर सरोवर में तप किया था । " कुंभकर्ण मनोनिग्रह करके ग्रीष्म में पंचाग्नितप, वर्षा में शिलानिवास और शीत में जलवास करता था । विभीषण सूर्य की दिशा में, हाथ ऊँचा रखते हुए एक पैर पर खड़ा रहकर स्वाध्याय करता था और रावण दश हजार वर्ष तक निराहार रहा था । "
९
महाभारत में शिलोंछावृत्ति, जलाहार, वायुभोजन, पंचाग्नितप, एकपाद स्थिति, शीर्णपर्ण भोजन, ऊर्ध्वबाहु, पादांगुष्ठाग्रस्थिति आदि ० तपों का निरूपण है । त्रिरात्रि को आहार, पन्द्रह दिनान्ते आहार आदि" तपों का असर जैन अट्ठम उपवास आदि पर देखा जा
१. भागवत ३-१२-१८; १९
२. भागवत ७-३-२; ४
३. यः सर्वज्ञः सर्वविद् यस्य ज्ञानमयं तपः । मु० १ १ ९; ज्ञानविकारमेव सार्वज्ञ लक्षणं तपो नायास
लक्षणं······मु ं०–शांकरभाष्य १-१ ९ पृ० २२
४. रा० बालकांड ५७-३
५. वायुभक्षो जलाशयः - रा० अरण्यकांड ११-१२.
६. रा० किष्किंधाकांड १३-१८; १९.
७. रा० उत्तरकांड ७५-१४
८. वही १० - ३ से १०
९. म० आदिपर्व ८६ - १४ से १७
१०. म० वनपर्व १०६-११ ११. वही
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प्रा० डॉ० एच० यु० पण्डया सकता है । भागवत के समय से तप प्रचलित रहे हैं।' पद्मपुराण में इन तप भेदों के अतिरिक्त
लगने पर कुशाग्र नीर बिदु पान, एक दिन कुंभक प्राणायाम, एक मास कुंभक, चतुर्मासव्रत, ऋतु के अंत में जलाहार, उपवास, छः मास उपवास, वर्षा निमेषत्य, वर्षाजल का आहार, वृक्षवत् स्थिति आदि तप भेदों का उल्लेख मिलता है। ऐसे तपस्वी के शरीर पर वल्मीक हो जाता है, केवल स्नायु एवं हड्डियाँ ही बचती हैं, जटा पक्षियों का निवास बन जाती है और शरीर पर घास भी उगती है वैदिक एवं जैन मत छः मासिक उपवास को स्वीकृति देते हैं।
बुद्ध चरित में शिलोंछवृत्ति, तृण-पर्ण-जल-फल-कन्द-वायु-आहार, जल निवास, पत्थर से पीस कर खाना, दाँतों से छिल कर खाना, अतिथि के भोजन के बाद यदि अवशिष्ट रहे तो खाना आदि तपभेदों का उल्लेख मिलता है ।
रघुवंश में सीतात्याग प्रसंग में (सीता संदेश में) सीता सूर्य निविष्ट दृष्टि तप का निर्णय करती है जिसका उल्लेख रामायण में नहीं है। इसके आधार पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि कालिदास के काल में सूर्य त्राटक की महिमा थी। भगवतीसूत्र के अनुसार गोशालक सूर्यत्राटक से तेजोलेश्यासिद्धि प्राप्त करता है। कुमारसंभव में पार्वती अग्निहोम, पंचाग्नितप, शीत में जलवास, वर्षा में शिलावास, शीर्णपर्णाहार, अयोचित जल का पान, पर्णाहारत्याग, वृक्षवत् स्थिति आदि कठिन तप करती है। किरातार्जुनीयम् में अर्जुन उपवास, एकपाद स्थिति आदि तप करता है । महाभारत में अर्जुन की कठोर तपस्या का विशद वर्णन है, किन्तु भारवि ने, आवश्यकता होने पर भी, अति संक्षिप्त वर्णन किया है, संभव है भारवि कठोर तप की ओर कम रुचि रखता हो। दूसरी ओर उत्तररामचरित में शम्बूक को धूम भोजी बताया है जिसका उल्लेख रामायण में नहीं है।' इससे ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि समाज में दोनों धाराएँ चलती रही थीं।
इन सभी तप भेदों का अंतर्भाव चार विभाग में किया जा सकता है-१. होम, २. प्राणायाम, ३. उपवास और ४. पंचाग्नि--जलनिवासादि अन्य दुष्कर तप । इनमें से होम और प्राणायाम का जैनमत में अस्वीकार इसलिए किया गया कि वे दोनों जैनमत के अन थे क्योंकि होम से अग्निकाय के और प्राणायाम से वायुकाय के जीवों की विराधना होती थी।
१. भागवत २-९-८; ४-२३-४ से ११, ७-३-२. २. पद्मपुराण; उद्धृत शब्दकल्पद्रुम कोश ३. बुद्धचरित ७-१४ से १७ ४. रघुवंश १४-६६ सारं तपः सूर्यनिविष्टदृष्टि; ....... ५. रामायण उत्तरकांड ४८-३ से १९. ६. कुमारसंभव ५-८ से २९ ७. किरातार्जुनीयम् ३-२८; ६-१९, २६; १२-२ ८. म० वनपर्व ३८-२३ से २४ ९. उत्तररामचरित अंक २ पृ० ४६ १०. रामायण उत्तरकांड ७५-१४
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तप
१४३ यद्यपि वैदिक परंपरा में गीता में प्राणसंयम (प्राणायाम) को तप की संज्ञा नहीं दी गई, किन्तु एक विशिष्ट यज्ञ के रूप में उसे अवश्य स्वीकार किया गया।' पतंजलि ने अष्टांगयोग के चतुर्थ अंग में उसे स्थान दिया और हठयोग में तो वह केन्द्र-स्थान में ही जा बैठा। यद्यपि जैन मत में मध्यकाल में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में प्राणायाम को चित्तस्थैर्य का एक उपाय माना। किन्तु उससे प्राचीन आवश्यक नियुक्ति के समय में उसके प्रति अरुचि बताई गई थी। परवर्ती काल में भी यशोविजयजी ने स्पष्ट रूप से कहा कि प्राणायाम इन्द्रियजय का निश्चित उपाय नहीं है किन्तु ज्ञानरूप राजयोग ही निश्चित उपाय है।
जैन परम्परा में उपवास के प्रति बड़ी श्रद्धा देखी जाती है। इस परम्परा ने पंचाग्नितप, जलशयन, कन्दमूल आहार आदि बहत से तपभेदों को छोड़ दिया, जो स्वमत के अनकल नहीं थे और चान्द्रायणव्रत, वृक्षवत् स्थिति स्वाध्याय, अमुक ही अन्न का स्वीकार आदि कुछ तप भेदों को स्वीकार किया, जो स्वमत के अनुकूल थे।
२. ज्ञानरूप तप-इस विचारधारा का मत है कि ध्येयसिद्धि शरीर को बिना कष्ट दिये भी संभव है। इस धारा का प्रारम्भ उपनिषद् काल में ही हआ था। आगे बताया गया है कि मुंडकोपनिषद् में ज्ञान को तप माना है। भगवद्गीता में तप को तीन विभागों में विभक्त किया है- शारीरिक, वाचिक और मानसिक। देव ब्राह्मण, गुरु एवं विद्वान् का सत्कार, शौच, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शारीरिक तप है। सत्य, प्रिय, हितकारी एवं अनुद्वेगकर (उद्वेगरहित) वाक्य वाचिक तप है और मन की प्रसन्नता, मौन, आत्मसंयम एवं भावशुद्धि मानसिक तप है। इससे स्पष्ट है कि गीता पंचाग्नितप आदि घोर तप का अंतर्भाव इन तपभेदों में नहीं करती है, इतना ही नहीं उसने घोर तप की निंदा भी की है। जैसे "घोर तप से शरीरगत ईश्वर को पीड़ा पहुँचती है। ऐसे तपस्वी असुर हैं आदि"।" इन तीन भेदों के प्रत्येक के तीन-तीन भेदं हैं- सात्त्विक, राजसिक और तामसिक । इस तरह गीता में कुल नौ भेद बताये हैं। योग भाष्य में चित्त की प्रसन्नता में बाधा नहीं पहुँचाने वाले तप को स्वीकार किया है। इस तरह वैदिक परम्परा में दोनों धाराएँ स्वीकृत हुई हैं और आज भी चलती रही हैं। १. भगवद्गीता ४-२९, ३० २. पा० योगसूत्र २-२९ ३. योगशास्त्र ५-१ से ३१ ४. न च प्राणायामादि हठयोगाभ्यासश्चित्तनिरोधे परमेन्द्रियजये च निश्चितउपायोऽपि, ऊसासं ण णिरुंभई [ आ० नि० १५१० ] इत्याद्यागमेन योगसमाधिविघ्नत्वेन बहुलं तस्य निषिद्धत्वात्...... पा० यो० सू० यशोविजयकृत वृत्ति २-५५ पृ० ३८ ५. कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
मां चैवान्तः शरीरस्थं तान् विद्धयासुरनिश्चयान् ॥ भगवद्गीता १७-६ ६. भगवद्गीता १७-१४ से १९.६१ ७. तच्च चित्तप्रसादनमबाधमानम् .. पा० यो० व्यासभाष्य २-१
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प्रा० डॉ० एच० यु० पण्डया
बौद्ध परम्परा कष्टप्रद तप की निंदा करती है। अतः वह दूसरी धारा की ही समर्थक है। यद्यपि जैन परम्परा ने उपवास का एवं अमुक अन्य तप भेदों को स्वीकार किया है फिर भी उसका झुकाव ज्ञानरूप तप की ओर है, अतः वह मुख्यरूपेण दूसरी धारा की समर्थक रही है, क्योंकि अनशन, कायक्लेश आदि को उसने बाह्यतप कहा है।
तप की व्यवस्था-प्राचीन काल में तप स्वतंत्ररूप में था। जैसे कि केनोपनिषद् में दम, कर्म, वेद और शिक्षादि वेदांगों की तरह तप को भी स्वतंत्र बताया है। महाभारत में धर्म, विद्या इन्द्रिय संयम, विविध प्राणायाम, नियत आहार, द्रव्ययज्ञ, योग, स्वाध्याय, ज्ञान, दान, दम, अहिंसा, सत्य, अभ्यास और ध्यान से तप को स्वतंत्र बताया है। गीता के काल में यज्ञ, दान, और तप की महिमा अधिक थी, क्योंकि ये तीनों पवित्र करने वाले होने से इनको अनिवार्य माना गया था। अतः इन तीनों का विशद निरूपण करने के लिए गीता में एक स्वतंत्र अध्याय (१७) रखा गया है।।
इस स्वतन्त्र उपायरूप तप को अन्य से संलग्न करने का प्रयास वैदिक और जैन दोनों परम्पराओं में हआ है : जैसे-- यद्यपि पतंजलि ने तप और समाधि को सिद्धि प्राप्ति
प में स्वतन्त्र बताया है, फिर भी उन्होंने मुख्यरूपेण तप को अष्टांगयोग के द्वितीय अंग (नियम) में और प्राणायाम को चतुर्थ अंग में समाविष्ट किया और तप, स्वाध्याय एवं क्रियायोग को समाधि के लिए आवश्यक माना।
जैन परम्परा में स्थानांग के समय में तप के मुख्य दो भेद स्वीकृत हुए- बाह्य और आभ्यंतर । बाह्य तप के छः भेद हैं-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायवलेश । आभ्यंतर तप के भी छ: भेद हैं-प्रायश्चित्त, - विनय वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ।' उमास्वाति ने धर्म के दस अंगों में तप का अंतर्भाव करके तप का संबंध धर्म से जोड़ दिया और यथाशक्ति तप को स्वीकृति देकर' एवं अग्नि प्रवेशादि को बालतप ( जो तप देवायुस्थ का आस्रव है ) कहकर१२ सुधारणा की प्रवृत्ति के १. गोतमो सब्बं तपं मर्हति"दीघ निकाय १-१६१; संयुत्त ४-३३०, उद्धृत पालि इंग्लिश डिक्शनरी
लंडन १९५९ २. केन०४-८ ३. महाभारत वनपर्व २१३१२९ ४. भगवद्गीता ४-२; ४-२६ से ३०; ६-४६; १२-१२; १६-१ से ३ ५. वही १८-३, ५ ६. जन्मौषधिमंत्रतपःसमाधिजा सिद्धयः । पातञ्जल योगदर्शन ४-१ ७. पातञ्जल योगदर्शन २-२९, ३० ८. वही २-१ ९. ठाणांग ५११ १०. तत्त्वार्थसूत्र ९-६ ११. वही ६-२३ १२. वही ६-२०
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आगे बढ़ाया। उन्होंने बारहविध तप का विशेष स्पष्टीकरण किया और आभ्यंतर तप के छः भेदों एवं उनके प्रभेदों का निरूपण करके तप के अर्थ को और विस्तृत किया। अकलंक ने गीता सम्मत मौन का अंतर्भाव कायक्लेश में किया किन्तु उसे बाह्य तप क्यों माना वह चिन्त्य है। यद्यपि मौन का सम्बन्ध मन से है, फिर भी इसकी संगति इस ढंग से बिठाई जा सकती है कि मौन में जिह्वानियंत्रण शारीरिक है। औपपातिकसूत्र में द्वादशविधि तप भेदों के बहुत से प्रभेद पाये जाते हैं। इस तरह प्रभेदों की संख्या बढ़ती गई और तप का अर्थ धीरेधीरे अत्यन्त विस्तृत बनता गया। इस तरह हम देख सकते हैं कि वैदिक परंपरा में तप समाधि का एक अंग है, जब कि जैन परंपरा में ध्यान (समाधि) तप का एक अंग है। अर्थात् जैन परंपरा में तप का अर्थ वैदिक परंपरा की अपेक्षा अत्यधिक विस्तृत है।
जैन सम्मत तपभेद-जैनाचार्यों ने अन्य बहुत से तप-प्रभेदों का अंतर्भाव स्थानांगगत बारह भेदों में ही किया है। इनमें से बहुत से भेद-प्रभेद वैदिक विचारणा से खूब मिलते-जुलते हैं। यहाँ मुख्यतः बारह भेदों की ही तुलना अभिप्रेत है
बाह्य तप
१. अनशन-वैदिक और जैन दोनों परंपराओं में चतुर्थ भक्त से लेकर छः मास के उपवास का विधान है। जैन सम्मत चतुर्थ भक्त और अष्टम भक्त मनुस्मृति सम्मत चतुर्थकालिक और अष्टम कालिक है।३ उमास्वाति ने उपवास के ध्येय को स्पष्ट किया। अकलंक ने एक भुक्त को भी अनशन की कोटि में रखा। अकलंक की इस सुधारणा पर गीता और बौद्ध मंतव्य का असर देखा जा सकता है, क्योंकि ये दोनों धाराएँ एकान्त अनशन को अस्वीकार करती हैं। एक भुक्त का उल्लेख उमास्वाति, पूज्यपाद और औपपातिक सूत्र में नहीं है। अकलंक का यह प्रयास आगे नहीं बढ़ सका, क्योंकि श्री महावीर ने दीर्घकाल तक उपवास किया था। अतः जैन समाज में आज भी उपवास के प्रति गहरी श्रद्धा देखी जाती है, उतना ही नहीं, वह साधनरूप होने पर भी उसे आज साध्य माना जाता है जो दुःखद है।
२. अवमौदर्य-यह गीतासम्मत युक्ताहार है। मनु और आयुर्वेद भी मिताहार के समर्थक हैं। उमास्वाति अवमौदर्य की तीन कक्षाएँ बताते हैं और ३२ ग्रास को पूर्ण आहार कहते
१. पं० दलसुख मालवणिया जी का सुझाव है। २. औपपातिकसूत्र ३० पृ०४६ । ३. चतुर्थकालिको वा स्यात् स्याद्वाप्यष्टमकालिकः । मनुस्मृति ६-१९; .... अष्टमकालिको वा भवेत्
त्रिरात्रमुपोष्य चतुर्थस्य अह्नो रात्रो भुजीत। ...."सायंप्रातर्मनुष्याणामशनं देवनिर्मितमिति
कुल्लकभट्टविरचितवृत्ति ६-१९। ४. तत्रावधूतकालं सकृद्भोजनं, चतुर्थभक्तादि..... तत्त्वार्थवार्तिक ९-१९-२ ५. भगवद्गीता ६-१६ | ६. भगवद्गीता ६-१६, १७, मितभुक-आयुर्वेद । मनुस्मृति २-५७
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प्रा० डॉ० एच० यु० पण्डया हैं।' औपपातिक सूत्र में पाँच कक्षाएँ हैं-८, १२, १६, २४ और ३१ ग्रास प्रमाण । वहाँ ग्रास को कुक्कुट-अंड-प्रमाण बताया है, जिस पर विश्वामित्र कल्प का असर है। मुनि आपस्तंब गहस्थ के लिए ३२ ग्रास और मुनि के लिए ८ ग्रास भोजन का विधान करते हैं। इससे स्पष्ट है कि जैन परंपरा कुछ अधिक उदार है।
औपपातिक सूत्र (३०) में एक पात्र, एक वस्त्र और एक उपकरणरूप द्रव्य अवमौदर्य को (जो अन्न से संबंधित नहीं है ) भी अंतर्भूत करके अवमौदर्य के अर्थ को और विस्तृत किया था। क्रोध, मान, माया, लोभ, शब्द और कलह की अल्पता को भाव अवमौदर्य कह कर इस तप का संबंध मन से जोड़ दिया, एवं अवमौदर्य के स्थूल अर्थ को चित्त शुद्धि की दिशा में आगे बढ़ाकर सूक्ष्म किया। भाव अवमौदर्य पर गीता का असर है ऐसा अनुमान कर सकते हैं क्योंकि गीता भी बाह्याचार की अपेक्षा आंतर शुद्धि पर अधिक बल देती है।
३. वृत्तिपरिसंख्यान-इसका ध्येय आशानिवृत्ति है। औपपातिकसूत्र में अभिग्रहा संबंधी ३० प्रभेद बताये हैं। मनुस्मृति भी यति को भिक्षा के बारे में हर्ष-शोक रहित रहने को कहती है।"
४. रस परित्याग-उमास्वाति स्पष्ट करते हैं कि मद्य, मांस, मधु, मक्खन आदि रख विकृतियों का ( वृष्य अन्न का ) त्याग आवश्यक है, जबकि मनुस्मृति में गाँव में लभ्य चावला यव आदि आहार का त्याग करके केवल शाक, मूल एवं फल के आहार का विधान है। यहां दोनों परंपराओं का ध्येय एक है, फिर भी जैन मत कुछ उदार सा दीखता है।
५. विविक्त शय्या-आसन-जहाँ यतिधर्म में बाधा न पहुँचे ऐसा एकान्तस्थान वा विविक्त शय्यासन है, जिसकी तुलना गीता सम्मत एकान्त देश का सेवन एवं जनसंपर्क में अरुणि ( ज्ञान का लक्षण ) के साथ की जा सकती है। औपपातिक सूत्र में युति संलीनता के चा. प्रभेदगत एक प्रभेद विविक्त शय्यासन है। वहाँ इन्द्रिय प्र०, कषाय प्र० और योग प्र० काकी अंतर्भाव करके बाह्यतप के अर्थ को अधिक विस्तृत किया है। इन्द्रिय प्र० गीता संमत इन्द्रिय के विषय में वैराग्य (ज्ञान का लक्षण ) और इन्द्रियों का अनासक्ति पूर्वक उपयोग है। क्रोधा कषाय प्र० की तुलना गीता संमत काम, क्रोध एवं लोभ के त्याग के साथ की जा सकती है। योग प्र० का एक प्रभेद मनोयोग प्र० गीता संमत मानसिक तप है; वचोयोग प्र० गीता संम
१. तत्त्वार्थसूत्र ९-१९ स्वोपज्ञभाष्य २. औपपातिकसूत्र ३० । कुक्कुटाण्डप्रमाणं तु ग्रासमानं विधायते । विश्वामित्रकल्प उद्धृत आहिर
सूत्रावलि पृ० २११ ३. अष्टौ ग्रासा मुनेर्भक्ष्याः षोडशाऽरण्यवासिनः ।
द्वात्रिंशत्तु गृहस्थस्य ह्यमितं ब्रह्मचारिणः ॥ आपस्तंब उद्धृत आन्हिकसूत्रावलिः २१५ ४. मनुस्मृति ६-५७ ५. तत्त्वार्थसूत्र ९-१९; मनुस्मृति ६-३, ५ ६. तत्त्वार्थसूत्र ९-१९, सर्वार्थसिद्धि ९-१९; भगवद्गीता १३-१०
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वाविक तप है और काययोग प्र० गीता सम्मत स्थितप्रज्ञ का एक लक्षण है। दोनों में कछुए का उदाहरण दिया है। अतः हमें स्वीकार करना होगा कि औपपातिक सूत्रगत इस निरूपण का उद्देश्य आभ्यंतर तप की ओर गति करते हुए व्यापक एवं सूक्ष्म अर्थ करना है।
६. कायक्लेश-जैनाचार्यों ने कायक्लेश के विभिन्न उदाहरण दिये हैं, जिनमें से कुछ उदाहरण वैदिक परंपरा से मिलते-जुलते हैं जैसेजैन परंपरा
वैदिक परंपरा १. वीरासन, उत्कडुकासन,
.- पातंजल योग एवं हठयोग संमत एकपार्श्वशयन दंडायतशयन
योगासन २. आतापन
- सूर्यताप ३ अप्रावृत
- कौपीनवान् ४. निरावरण शयन
- अनिकेत ५. वृक्षमूले निवास
- वृक्षमूले निवास (ख) आभ्यंतर तप
उमास्वाति ने आभ्यंतर तप के छः भेदों के प्रत्येक के अनुक्रम से ९, ४, १०, ५, २ और ४ प्रभेद बताकर अर्थ को अधिक विस्तृत किया है, जबकि औपपातिक सूत्र में प्रायश्चित्त और विनय के सिवाय अन्य प्रभेद समान हैं। वहाँ प्रायश्चित्त के १० और विनय के ७प्रभेद बताये हैं इतना ही नहीं, आभ्यंतर तप के इन सभी प्रभेदों के भी बहुत से प्रभेद बताये हैं, जिनकी विचारणा यहाँ अप्रासंगिक है, यहाँ केवल मुख्य छः भेदों की ही तुलना अभिप्रेत है।
१. प्रायश्चित्त -अकलंक ने प्रायश्चित्त शब्द के दो अर्थ दिये हैं--(क) प्रायः साधुलोकः तस्य यस्मिन् कर्मणि चित्तम् इति । (ख) प्रायः अपराधः, तस्य चित्तं शुद्धिः इति । इनमें से दसरा अर्थ वैदिक परंपरा में भी है, जैसे-प्रायः पापं समुद्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् ।' हेमाद्रि एक अन्य अर्थ भी बताता है कि प्रायो नाम तपो प्रोक्तं चित्तं निश्चय इष्यते । अकलंक ने प्रथम अर्थ जैन विचारधारा के अनुकूल ( प्रायः = साधुलोकः ) दिया है ऐसा मानना पड़ेगा। प्रायश्चित्त के नौ प्रभेदगत आलोचन, प्रतिक्रमण और तदुभय वैदिक परंपरा सम्मत पाप प्रकटीकरण एवं अनुतापन है।' १. भगवद्गीता १३।८; ३।७, १६।२१, २२, १७।१५; १६ २. औपपातिक सत्र ३० । यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा
प्रतिष्ठिता। भगवद्गीता २।५८ ३. तत्त्वार्थसूत्र ९।१९; त. सर्वार्थसिद्धि ९।१९; तत्त्वार्थवार्तिक ९।१९ ४. मनुस्मृति ६।२६; ४३; ४४ भगवद्गीता १२-१९ ५. वही ६. वही ७. तत्वार्थसूत्र ९।२१ से ४६; औपपातिक सूत्र ३० ८. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२२।१ ९. शब्दकल्पद्रुम १०. संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी-आप्टे ११. ख्यापनेनानुतापेन. मनुस्मृति ११।२२७
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प्रा० डॉ० एच० यु० पण्डेया २, ३. विनय एवं वैयावृत्त्य वैदिक परंपरासंमत आचार्योपासनरूप ज्ञान का एक __ लक्षण है।' ४. स्वाध्याय गीता सम्मत वाचिक तप है। ५. व्युत्सर्ग में बाह्य वस्तुओं एवं क्रोधादि दोषों का त्याग है, जो वैदिक परंपरा
सम्मत है। ६. चतुर्विध ध्यानगत पृथक्त्व वितर्क और एकत्व वितर्क पातंजलयोग की संप्रज्ञात
समाधि है।
इस विचारणा के आधार पर हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि जैनाचार्यों ने वैदिक परंपरा के इस मार्ग का, बिना किसी पूर्वाग्रह के, तलस्पर्श अभ्यास करके, जो बातें अपने मत के अनुकल थीं, उनको स्वीकार करके, परंपरा प्राप्त एतद्विषयक विचारों का क्रमशः स्पष्टीकरण, शुद्धीकरण एवं विस्तृतीकरण करते हुए, तप का संबंध मन एवं आत्मा के साथ जोड़ने का सजग तथा सयुक्तिक परिश्रम किया है। अस्तु ( औपपातिक सत्र का तपनिरूपण विभाग तत्वार्थसूत्र के बाद के समय का है)।
TET
सन्दर्भ ग्रंथ सूची आह्निक सूत्रावली - निर्णय सागर प्रेस-चतुर्थ संस्करण उत्तररामचरितम् - नाटकम् औपपातिक सूत्र - संपादक श्री मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ऋग्वेद सं
- सायण भाष्य-वैदिक संशोधन मंडल, पुणे, द्वितीय संस्करण किरातार्जुनीयम् - भारवि-मल्लिनाथ कृतव्याख्या-निर्णय सागर प्रेस ई० सं० १९४२ कुमारसंभवम् - कालिदास केनोपनिषद् - शांकरभाष्य-गीता प्रेस, गोरखपुर, प्रथम संस्करण गीता
- भगवद्गीता ठाणांग तत्त्वार्थसूत्र - तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्-स्वोपज्ञभाष्य-बंगाल एशियाटिक सोसायटी,
कलकत्ता, संवत् १९५९ तत्त्वार्थसर्वार्थसिद्धि - जैनेन्द्र मुद्रणालय, कोल्हापुर, द्वितीय संस्करण तत्त्वार्थवार्तिक
- राजवार्तिक-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ई० सं० १९४४ पातंजलयोगसूत्र - योगदर्शन तथा योगविंशिका-संपादक पं० सुखलालजी, जैन
आत्मनन्द सभा, भावनगर, ई० सं० १९५२ पातंजलयोगसूत्र - योग दर्शन-व्यासभाष्य-व्याख्याकार ब्रह्मलीन मुनि, चौखम्बा
प्रकाशन ई० सं० १९७०
१. भगवद्गीता १३१७ २. पातंजल योगदर्शन, यशोविजयकृत वृत्ति १११७-१८
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पालिइंग्लिश डिक्शनरी - लंडन
बुद्धचरितम्
भागवतम् मनुस्मृति महाभारतम् मुंडकोपनिषद् योगशास्त्र
रघुवंश
रामायण
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अश्वघोष - प्रकाश व्याख्या, चौखम्बा प्रकाशन ई० स० १९७२ मूलमात्र - गीता प्रेस, गोरखपुर, प्रथम संस्करण कुल्लूक भट्टवृत्ति - निर्णय सागर प्रेस, ई० स० १९२५
मूलमात्र - गीता प्रेस, गोरखपुर सं० २०१३-१४
तर्प
गीता प्रेस, गोरखपुर, शांकरभाष्य, प्रथम संस्करण
हिन्दी अनुवाद, नेमिचंद्रजी, निग्रंथ साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम आवृत्ति
कालिदास
शब्दकल्पद्रुम संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी सिद्धान्तकौमुदी
वाल्मीकि रामायण - हिन्दी भाषान्तर - गीता प्रेस, गोरखपुर, द्वितीय संस्करण
चौखम्बा प्रकाशन - सं० २०२४
आप्टे- मोतीलाल बनारसीदास ई० स० १९६५ उत्तरारार्ध - पं० सीताराम शास्त्री, बनारस सं० १९९०
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णायकुमारचरिउ के दार्शनिक मतों की समीक्षा
जिनेन्द्र कुमार जैन भारतीय साहित्य में अनेक ऐसे काव्य ग्रन्थ लिखे गये हैं, जिनमें जीवन के विभिन्न पक्ष प्रतिपादित हुए हैं। विभिन्न युगों के धार्मिक एवं दार्शनिक जीवन को प्रतिबिम्बित करने की प्रवृत्ति मध्ययुग के भारतीय साहित्य में अधिक देखने को मिलती है। गुप्तयुग के बाद प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत भाषाओं में जो जैन साहित्य लिखा गया है उसमें काव्य तत्त्व के साथ-साथ धार्मिक एवं दार्शनिक जीवन को भी अंकित किया गया है। १०वीं शताब्दी की अवधि में लिखे गये जैन साहित्य में धर्म तथा दर्शन की बहुमूल्य सामग्री छिपी पड़ी है। पुष्पदन्त के ग्रंथ इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रस्तुत निबन्ध में पुष्पदन्तकृत णायकुमारचरिउ के कतिपय दार्शनिक मतों की समीक्षा प्रस्तुत की गई है।
नागकुमार का जीवनचरित जैन लेखकों में प्रिय रहा है । यद्यपि कथा का प्रारम्भ स्वाभाविक ढंग से होता है। फिर भी नागकुमार के उस लोकोत्तर रूप को वर्णित करना, जो उसे श्रुतपंचमी व्रत के पुण्य स्वरूप प्राप्त हुआ है, पाठकों के मन को आकर्षित किए बिना नहीं रहता। पौराणिक काव्यरूढ़ियों के साथ-साथ इस ग्रन्थ में अन्य तत्कालीन दार्शनिक एवं धार्मिक मतों के खण्डन-मण्डन की पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है । यद्यपि जैनधर्म विरक्तिमूलक सिद्धान्तों पर आधारित है, तथापि इसमें (प्रेमाख्यानक कथा काव्यों में ) धर्म के अनुष्ठानों को फलभोगों की प्रचुर उपलब्धि बताया गया है। किन्तु कथा के अंत में नायक भोगों को भोगकर दीक्षा ग्रहण करके परम मोक्ष को प्राप्त होता है।
जैन दर्शन का स्वरूप-पुष्पदन्त की काव्य रचना का मुख्य उद्देश्य जिनभक्ति व जैनधर्म का प्रचार-प्रसार रहा है । इसीलिये उन्होंने कथा के बीच-बीच में मुख्य कथानक को रोककर जैनधर्म एवं दर्शन के सिद्धान्तों की विस्तृत व्याख्या की है । तत्त्वमीमांसा, आचारमीमांसा के साथ-साथ पदार्थ-विवेचन, कर्मसिद्धान्त, अहिंसा, त्रिरत्न, स्याद्वाद आदि पक्षों पर उन्होंने विशेष प्रकाश डाला है।
पदार्थ की अनेकान्तिकता सिद्ध करने के लिए अथवा वस्तु अनेक धर्म वाली है यह सिद्ध करने के लिए सप्तभंगी या स्याद्वाद सिद्धान्त का निरूपण जैन दर्शन के अन्तर्गत किया गया है।। वस्तु किसी दृष्टि से एक प्रकार की होती है, और किसी दृष्टि से दूसरे प्रकार की । अतः उसके, शेष अनेक धर्मों (गुणों) को गौण बताते हुए, गुण विशेष को प्रमुख बनाकर प्रतिपादित करना स्याद्वाद है । पुष्पदन्त ने महापुराण' तथा णायकुमारचरिउरे में इसका उल्लेख किया है । गुण
१. महापुराण-३।२।७ २. णायकुमारचरिउ–११९
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तथा पर्याय से युक्त वस्तु द्रव्य कहलाती है। जीव, अजीव ( पुद्गल ) धर्म, अधर्म एवं आकाश द्रव्य को अस्तिकाय तथा काल द्रव्य को अनास्तिकाय के रूप में प्रस्तुत किया है।
जीव को मोक्ष प्राप्त करने के लिए त्रिरत्न-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का आश्रय लेना अति आवश्यक है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मविकास की १४ अवस्थाएँ होती हैं जिन्हें गुणस्थान कहते हैं। इन्हीं अवस्थाओं का क्रमिक विकास होने से आत्मा धीरेधीरे कर्मबन्ध से मुक्त होकर समस्तमलरहित, पूर्ण निर्मल या केवल ज्ञान की स्थिति में पहुँच जाता है, जिसे मोक्ष कहा गया है। सम्यक् दर्शन व ज्ञान को प्राप्त करने के बाद ही सम्यक् चारित्र की आराधना सम्भव है। इसके सकल और विकल दो भेद हैं। ५ महाव्रतों को (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य) पालने वाले मुनियों के चारित्र सकल हैं और विकल चारित्र वाले गृहस्थ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रतों का पालन करते हैं।
__ कवि इस जगत् की नश्वरता का अनुभव करते हुए संसार के प्रपंच को छोड़कर कहीं ऐसे स्थान पर जाने की कामना करता है, जहाँ न नींद हो, न भूख हो, न भोग-रति हो, न शारीरिक सुख हो और न नारी दर्शन हो । अर्थात् वह मोक्ष की कामना करता है।
जैनधर्म संसार की प्रत्येक वस्तु में जीव-स्थिति मानता है। प्रत्येक श्रावक या गृहस्थ के लिए अणुव्रत का जो विधान है, उसमें अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। अहिंसक रहने के लिए यत्नपूर्वक मद्य, मांस, मधु आदि का त्याग तथा मूली, अदरक, नीम के पुष्प आदि का भी त्याज्य आवश्यक है। मनुष्य के आत्म विकास में जिस शक्ति के कारण बाधा उपस्थित होती है, उसे कर्म कहते हैं । कर्म का आत्मा से सम्पर्क होने पर जो अवस्था उत्पन्न होती है वह बन्ध कहलाता है। आत्मा का बन्ध करने वाले इन कर्मों के आस्रव को अवरुद्ध करने के लिए संवर की आवश्यकता होती है। संवर द्वारा समस्त कर्मों के आस्रव के द्वारों का निरोध करने पर नवीन कर्मों का प्रवेश रुक जाता है तथा पुराने कर्म क्रमशः क्षीण होते चले जाते हैं यही निर्जरा है और कर्मों का पूर्ण क्षय ही मोक्ष है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में जैनधर्म के विभिन्न सिद्धान्तों के वर्णन के साथ-साथ वैदिक, चार्वाक, बौद्ध एवं सांख्यदर्शन तथा अन्य भारतीय मिथ्या एवं दूषित धारणाओं पर कवि ने प्रश्न-चिह्न लगाये हैं । वैदिक धर्म की यज्ञप्रधान-धार्मिक क्रियाओं, चार्वाक दर्शन के भौतिकवाद, बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद व प्रतीत्यसमुत्पाद एवं सांख्यदर्शन के पुरुष व प्रकृति के सम्बन्ध आदि की समीक्षा पुष्पदन्त ने विभिन्न दलीलों और प्रमाणों के आधार पर की है।
१. "गुणपर्यायवद् द्रव्यं"-तत्त्वार्थसूत्र, ५।३७ ५. णायकुमारचरिउ-१।१२।२ एवं महापुराण-८९।७।१-२ ३. णायकुमारचरिउ-९।१३।४ ४. णायकुमारचरिउ-१।१२।३ एवं महापुराण-१८७, ६।४।७ ५. णायकुमारचरिउ-१।११।१०-११ ६. समीचीनधर्मशास्त्र-४।१९ ७. णायकमारचरिउ-संधि ९, सम्पादक-डॉ० हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी।
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जिनेन्द्र कुमार जैन वैदिक दर्शन की समीक्षा-महाकवि पुष्पदन्त ने प्रस्तुत ग्रन्थ में याज्ञिकी हिंसा, मांसभक्षण एवं रात्रि भोजन को पुण्य का प्रतीक मानने वाले वेद पुराण सम्बन्धी ब्राह्मणों की मान्यता की आलोचना करते हुए कहा है कि--"मृगों का आखेट करने वाला जो मांस-भक्षण से अपना पोषण करता है, वह अहिंसा की घोषणा क्या कर सकता है ? ( पुरोहित ) मद्यपान और मांसभक्षण करता है तथा रात्रिभोजन को पुण्य कहता है, जिह्वा का लोलुपी होता हुआ तनिक भी विचार नहीं करता । अतः जगत् में वेद प्रमाण नहीं हो सकते। क्योंकि बिना जीव के कहीं (प्रमाणभूत ) शब्द की प्राप्ति हो सकती है ? बिना सरोवर के नया कमल कहाँ से उत्पन्न हो सकता है।"२ कवि ने हिंसा के खण्डन के लिए अपना लक्ष्य मुख्यतः उन ब्राह्मणों को बनाया है, जो यज्ञों में पशुबलि करते हैं तथा मांस-भक्षण करते हैं। उनकी मान्यता है कि देवों और पूर्वजों की संतुष्टी के लिए पशुबलि करना उचित है और इसको करने वाले स्वर्ग के अधिकारी होते हैं । इसी प्रसंग में ब्राह्मणमत का खण्डन करते हुए कवि कहता है कि-यज्ञ में पितविधि का बहाना लेकर, तीक्ष्ण कटार से काटकर विशेष प्रकार के मांस रस का भक्षण करते हए समस्त जीवों का भक्षण कर डाला अर्थात् सबको सच्चे धर्म से भ्रष्ट कर दिया। रुद्र ब्रह्म आदि सब देवों को स्वयं देखा तथा ब्रह्मचर्य एवं वेदविहित क्रियाकाण्ड का स्वयं पालन किया, किन्तु जल से धोने मात्र से कोयला श्वेत होता है ? या मनुष्य-देह पवित्र हो सकता है।
महापुराण एवं जसहरचरिउ में भी वैदिक दर्शन के इस हिंसात्मक मत की समीक्षा मिलती है-"पशुओं का वध करके पितृपक्ष पर द्विज पंडित मांस खाते हैं। अतः हिंसा-दंभ तो इनसे पूर्णतः लिपटे हैं, तब देह को जल से धोने से क्या होगा ? कहीं अंगार दूध से होने से श्वेत हो सकता है। जसहरचरिउ में कवि ने पशुबलि के सम्बन्ध में कहा है कि जगत में धर्म का मूल वेद-मार्ग है। वेद में देव-तुष्टि के लिए पशुबलि करना उचित माना गया है और इसको करने वाले स्वर्ग के अधिकारी होते हैं । इसकी समीक्षा करते हुए कवि कहता है किचाहे कोई पुण्य अर्जन हेतु मंत्र-पूजित खड्ग से पशुबलि करे, यज्ञ करे अथवा अनेक दुर्धर तपों का आचरण करें। परन्तु जीव दया के बिना सब निष्फल है। कोटि शास्त्रों का सार यही है कि जो पाप है वह हिंसा है। जो धर्म है वह अहिंसा है। इसीलिए कवि ने प्राणिबध को आत्मबध के समान माना है।
वैदिक मान्यतानुसार तत्त्व एक ही है, वह है-'ब्रह्म' जो नित्य है। इस मान्यता की समीक्षा करते हुए कवि कहता है कि-"यदि ऐसा होता तो एक जो देता है, उसे दूसरा कैसे १. णायकुमारचरिउ-०८1१ २. णायकुमारचरिउ-९।८।६-९
__णायकुमारचरिउ-९।९।७-१० ४. महापुराण-७१८१९-१३ ५. जसहरचरिउ–२।१८ ६. पाणिबहु भडारिए अप्पबहु-जसहरचरिउ-२।१४।६ ७. णायकुमारचरिउ-९।१०।३
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लेता है ? एक स्थिर खड़ा रहता है और अन्य ( दूसरा) दौड़ता है। एक मरता है तो दूसरे अनेक जीवित रहते हैं। जो नित्य है, वह बालकपन, नवयौवन तथा वद्धत्व कैसे प्राप्त करेगा।'
___कवि ब्राह्मण धर्म के सामान्य विश्वासों की समीक्षा के साथ-साथ उनके देवताओं की भी समीक्षा करता है । शिव के सम्बन्ध में कहता है कि ---"जो कामदेव का दहन करता है, वह महिला ( पार्वती) में आसक्त कैसे हो सकता है ? ज्ञानवत्त होते हुए मदिरा-पान भी करते हैं। निष्पाप (निस्पृह ) होकर ब्रह्मा के सिर का छेदन करते हैं। जो सर्वार्थसिद्ध है उसे बैल रखने से क्या प्रयोजन ? जो दयालु है उसे शूल धारण से क्या लाभ ? जो आत्म संतोष से ही तृप्त हैं, उन्हें भिक्षा के लिये कपाल क्यों ? अस्थिमाल धारण करके भी वे पवित्र होते हैं। नित्य ही मद और मोह से उन्मत्त व रोष से परिपूर्ण पुरुष को लिंग-वेश की आवश्यकता क्यों ?२
महापुराण में भी कहा गया है कि जो शिव नृत्य-गान करते हैं, डमरू बजाते हैं, पार्वती के समीप रहते हैं तथा त्रिपुर आदि रिपुवर्ग को विदीर्ण करते हैं, वे मानव समुदाय को संसारसागर से कैसे पार कर सकते हैं । इसीलिए कवि वैदिक मत की उपयोगिता मूढ़ मनुष्यों के लिए बतलाता है।
चार्वाक दर्शन की समीक्षा--केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने वाले जड़वादी या भौतिकवादी दर्शन ( चार्वाक दर्शन ) सुख को ही जीवन का परम लक्ष्य मानते हैं। इसीलिए चार्वाक दर्शन में निम्न उक्ति को विशेष महत्त्व दिया गया है
यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत ।
भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनम् कुतः ॥ "प्रबोध चन्द्रोदय" नामक रूपक के द्वितीय अंक में कृष्ण मिश्र ने जड़वादी (चार्वाक) दर्शन का परिचय इस प्रकार दि
__ "लोकायत ही एकमात्र शास्त्र है, जिसमें प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ही एकमात्र तत्व है।
और वायु ही एकमात्र तत्व है। और काम ही पुरुषार्थ है। भूतों (पृथ्वी आदि).से चैतन्य उत्पन्न होते हैं, कोई परलोक नहीं है, मृत्यु ही निर्वाण है।'५ लेकिन कवि इस सिद्धांत का खण्डन करते हुए कहता है कि-"जल और अग्नि अपने-अपने स्वभाव से परस्पर विरोधी हैं, १. एक्कु णिच्चु किं तच्चु भणिज्जइ, एक्कु देइ अण्णो किं लिज्जइ ।
एक्कु थाइ अण्णेक्कु वि धावइ एक्कु मरइ अण्णेक्कू वि जीवइ । णिच्चहो कहिं लभइ बालत्तणु णवजोव्वणु पुणरवि बुड्ढतणु ।
–णायकुमारचरिउ-९।१०।३-५ २. णायकुमारचरिउ-९।७।४-९ ३. महापुराण-६५।१२।६-७ ४. 'लोइयवेइय मूढ़ताणाई'-णायकुमारचरिउ-४।३।३ ५. "सर्वलोकायतमेव शास्त्रं, यत्र प्रत्यक्षमेव प्रमाण पृथिवत्यपप्तेजोवायुरीतितत्वानि, अर्थकामो पुरुषार्थो
भ्रतान्येव चेतयन्ते । नास्ति परलोकः मृत्यु रेवायवर्गः।"
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जिनेन्द्र कुमार जैन फिर वे एक स्वरूप होकर कैसे रह सकते हैं ? पवन चंचल है और पृथ्वी अपनी स्थिरता लिए हुए स्थिर है ।' यदि जीव का जीवत्व कृत्रिम है और वह चारभूतों के संयोग से उत्पन्न हुआ है, तो मेरा कहना है कि भोगों का उपयोग करने वाले त्रैलोक्य के जीवों का स्वभाव एक सा क्यों नहीं है ? शरीर एक सा क्यों नहीं है ? अतः यह सब पण्डितों का वितण्डामात्र है।
महापुराण में राजा महाबल के मंत्री महामति द्वारा चार्वाक दर्शन के तात्त्विक सिद्धान्त का समर्थन किया गया है। तब इसका खण्डन करते हुए अन्य मंत्री स्वयंबुद्ध कहता है कि"भूतचतुष्टय के सम्मिलन मात्र से जीव ( चैतन्य ) किसी भी प्रकार उत्पन्न नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता तो औषधियों के क्वाथ ( काढ़ा ) से किसी पात्र में भी जीव उत्पन्न हो जाते, परन्तु ऐसा नहीं होता।
जैन, बौद्ध और न्यायदर्शन जहाँ अनुमान को भी प्रमाण मानकर चलते हैं वहाँ चार्वाक दर्शन केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है । इसीलिये जैन, बौद्ध, ब्राह्मण आदि मतों के आचार्यों ने इस भौतिकवादी दर्शन का विरोध किया है।"
जसहरचरिउ में भी तलवर (कोतवाल) एवं मुनि के संवादों में चार्वाक दर्शन के “प्रत्यक्ष ही प्रमाण है" इस मत की समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
बौद्ध-दर्शन की समीक्षा :- बौद्ध दर्शन जगत् की समस्त क्रियाओं का मूल आत्मा को मानता है। किन्तु उसकी पृथक् एवं नित्य सत्ता को स्वीकार न करते हुए, उसे अनित्य मानता है। क्योंकि वह जगत् को क्षणविध्वंशी मानता है। प्रत्येक वस्तु है, यह एक मत है, तथा प्रत्येक वस्तु नहीं है यह दूसरा एकान्तिक दृष्टिकोण है। इन दोनों ही एकातिक दृष्टिकोणों को छोड़कर बुद्ध मध्यममार्ग का उपदेश देते हैं। मध्यम सिद्धान्त का सार है कि "जीवन सम्भूति ( Becoming ) है, भावरूप है। संसार की प्रत्येक वस्तु अनित्य धर्मों का संघात मात्र है। अतः प्रत्येक वस्तु एकक्षण को ही रहती है। बौद्धदर्शन पदार्थों की उत्पत्ति कारण कार्य से मानता है। जिसे 'प्रतीत्यसमुत्पाद ( Dependent Origination ) कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार एक वस्तु से एक ही कार्य होता है और अगले ही क्षण दूसरा कार्य होता है । अथवा
१. णायकुमारचरिउ-९।११।१-२ २. णायकुमारचरिउ-९/१११४-६ ३. महापुराण-२०१७
महापुराण-२०।१८।१०-११ ५. रामायण (वाल्मीकि) अयोध्याकाण्ड-१००।३८
सद्धर्मपुण्डरीक-परिच्छेद १३,
आदिपुराण (जिनसेन) ५।७३ ६. जसहरचरिउ-३।२२।१७, ३।२३।५-९, ३।२४।१-२ ७. णायकुमारचरिउ-९।५।२ ८. संयुत्तनिकाय-१७
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णायकुमारचरिउ के दार्शनिक मतों की समीर्मा
१५५ कार्य बिल्कुल नहीं होता । तब उस पहले कार्य की वस्तु का (कारणका) अस्तित्व समाप्त समझना चाहिए । अतः एक वस्तु (कारण) से एक क्षण में एक ही कार्य हो सकता है।' - प्रस्तुत प्रतीत्यसमुत्पाद की समीक्षा करते हुए पुष्पदंत कहते हैं कि-'यदि क्षणविनाशी दार्थों में कारण-कार्यरूप धारा प्रवाह, जैसे-गाय ( कारण ) से दूध ( कार्य ) एवं दीपक कारण) से अंजन ( कार्य ) की प्राप्ति माना जाये तो गौ एवं दीपक ( कारण) के विनष्ट हो जाने पर दुग्ध एवं अंजन ( कार्य ) की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसी प्रकार यदि क्षणिकवाद 'Momenterism) सिद्धान्त के अनुसार कहा जाये कि क्षण-क्षण में अन्य जीव उत्पन्न होते रहते हैं, तो प्रश्न उठता है कि जो जीव घर से बाहर जाता है, वही घर कैसे लौटता है ? जो वस्तु एक ने रखी उसे दूसरा नहीं जान सकता ।। । महापुराण में राजा महाबल के एक सम्भिन्नमति नामक मंत्री द्वारा क्षणिकवाद का समर्थन किया गया है। किन्तु मंत्री स्वयंबुद्ध ने उसके क्षणिकवाद को खण्डित करते हुए कहा है कि --"यदि जगत् को क्षणभंगुर माना जाये तो किसी व्यक्ति द्वारा रखी गई वस्तु प्राप्त न होकर अन्य व्यक्ति को प्राप्त होनी चाहिए। इसी प्रकार द्रव्य को क्षणस्थायी मानने से वासना (जिसके द्वारा पूर्व रखी गई वस्तु का स्मरण होता है ) का भी अस्तित्व नहीं रह जाता।
सांख्य दर्शन को समीक्षा-सांख्य दर्शन की मान्यतानुसार इस सृष्टि का निर्माण पुरुष आत्मा) और प्रकृति (समस्तपदार्थ) के सहयोग से हुआ है। सृष्टि विकास में सहयोगी सांख्यपत के २५ तत्त्वों के नाम कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में गिनाए हैं। सांख्य दर्शन प्रकृति को जड़, सक्रिय, एक तथा त्रिगुणात्मक (सत्व, रज व तमोगुणों से युक्त) एवं पुरुष (आत्मा) को चेतन, नष्क्रिय, अनेक तथा त्रिगुणातीत मानता है। निष्क्रिय पुरुष अथवा जड़ प्रकृति अकेले, सृष्टि का 'नर्माण नहीं कर सकते । इन दोनों के संयोग से ही इस सृष्टि का निर्माण सम्भव है। अन्धे एवं लंगड़े के दृष्टान्तानुसार निष्क्रिय पुरुष एवं सक्रिय प्रकृति सृष्टि निर्माण में परस्पर सहयोग करते हैं। किन्तु यह बात कवि को उचित प्रतीत नहीं होती, इसीलिये वह कहता है किक्रयारहित निर्मल एवं शुद्ध पुरुष, प्रकृति के बन्धन में कैसे पड़ सकता है ? क्रिया के बिना मन, वचन और काय का क्या स्वरूप होगा ? बिना क्रिया के जीव ( पुरुष ) पाप से कैसे बंधेगा? और उससे कैसे मुक्त होगा? यह सब विरोधी प्रलाप किस काम का? पांचभूत, पांच गुण, रांच इन्द्रियाँ तथा पांच तन्मात्राएँ एवं मन, अहंकार और बुद्धि इनका प्रसार करने के लिये पुरुष प्रकृति से कैसे संयोग कर बैठा ? ६
सांख्य दर्शन के सृष्टि विकास के सिद्धान्त का मनन करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जब प्रकृति जड़ है तो वह सक्रिय कैसे हो सकती है ? तथा पुरुष (आत्मा) चैतन्ययुक्त होते १. रामनाथ शर्मा--भारतीय दर्शन के मूल तत्त्व, पृ० १५३ २. णायकुमारचरिउ-९।५।८-११ ३. महापुराण-२०।१९।८-१० ४. महापुराण-२०१२०१४-५ ५. भूयइ पच पंच गुणइ, पंचिन्दियइ पंच तन्मत्तउ । मणुहंकारबुद्धिपसरु कहीं पयईए पुरिसु संजुत्तउ ।
-णायकुमारचरिउ'-९।१०।१२-१३ ६. णायकुमारचरिउ-९।१०।९-१३
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जिनेन्द्र कुमार जैन हुए भी निष्क्रिय कैसे हो सकता है ? और भी जड़ एवं सक्रिय प्रकृति का चेतन एवं निष्क्रिय पुरुष से संयोग कैसे हो सकता है ? इन परस्पर विरोधी गुणों के होने उनमें संसर्ग या निकटता संभव नहीं है। इसलिए कवि कहता है कि -"यह लोक कणाद, कपिल, सुगत (बुद्ध) तथा द्विज शिष्य (चार्वाक) आदि उपदेशकों द्वारा भ्रान्ति में डाला गया है।'
अन्य मतों की समीक्षा-उपयुक्त दार्शनिक मतों के अतिरिक्त कवि ने न्याय, वैशेषिक, शैव दर्शन एवं कुछ मिथ्या धारणाओं तथा अंधविश्वासों पर भी चर्चा की है। न्याय एवं वैशेषिकदर्शन की चर्चा कवि ने अवतारवाद की आलोचना करते हुए इस प्रकार की है-"जिस प्रकार उबले हुए जौ के दाने पुनः कच्चे जौ में परिवर्तित नहीं हो सकते, उसी प्रकार सिद्धत्व को प्राप्त जीव पुनः देह कैसे धारण कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता । पक्षपाद-(न्यायदर्शन के प्रणेता) तथा कणधर (वैशेषिक दर्शन के प्रणेता, कणाद) मुनियों ने शिवरूपी गगनारविंद (आकाशकुसुम-असम्भववस्तु ) को कैसे मान लिया? और उसका वर्णन किया।
कवि ने शैव अनुयायी कौलाचार का वर्णन करते हुए कहा है कि वे अपनी साधना में मद्य, मांस, मत्स्य, मृदा तथा मैथुन का प्रयोग करते हैं। शैव मतवादी अन्य देवों की मान्यताओं को मिथ्या मानते हैं, तथा आकाश को शिव कहते हैं ।३।।
गाय और बैलों को मारा जाता है, ताड़ा जाता है, फिर भी गौवंश मात्र को देव कहा जाता है। पुरोहितों द्वारा याज्ञिकीहिंसा (यज्ञ में पशुबलि करना) की जाती है एवं मृगों को मार कर मगचर्म धारण करना पवित्र माना जाता है। चूंकि इनसे जीव हिंसा होती है फिर भी अंधविश्वासी लोग इसके एक पक्ष को ही ध्यान में रखते हैं।। .. कवि ने अपने अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं दार्शनिक समस्याओं पर प्रकाश डाला है। कुवलयमालाकहा, धर्मपरीक्षा, चन्द्रप्रभचरित, यशस्तिलकचम्पू, शान्तिनाथचरित आदि सम कालीन प्रतिनिधि जैन ग्रन्थ हैं, जिनमें जैन धर्म एवं दर्शन के सिद्धान्तों की चर्चा करते हुए। परमत खण्डन की परम्परा देखने को मिलती है।
___ इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में धार्मिक एवं दार्शनिक मतों की समीक्षा विभिन्न प्रमाणों सहित प्रस्तुत करके जनसमुदाय को सच्चे धर्म एवं सदाचार के पथ की ओर चलने के लिए प्रेरित किया गया है तथा दुष्कर्म के पथ पर चलनेसे रोका गया है। यह कहना अतिशयोक्तिपी होगा कि यह काव्य अपने समय का प्रतिनिधि काव्य है, जिसमें तत्कालीन धार्मिक एवं दार्शल निक सामग्री पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती है।
शोध-छात्र
जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया वि० वि०, उदयपुर १. णायकुमारचरिउ-९।११७ २. सित्थुजाइ किं जवणालत्तहो घड किं पुण विजाइ दुद्वत्तहो ।
सिद्धभमइ किं भवसंसार गयि विमुक्क कलेवर भारए । अक्खवाय कणयमुणि मण्णिउ सिवमयणारबिंदु किं वष्णिउ ।
-णायकुमारचरिउ-९।७।१-३ ३. णायकुमारचरिउ-९।६।३ ४. णायकुमारचरिउ-९।९।१-३,५
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योग का अधिकारी : हरिभद्रीय योग के संदर्भ में
कुमारी अरुणा आनन्द भारतीय संस्कृति की यह अवधारणा है कि सभी प्राणियों को परमात्मपद मोक्ष की उपलब्धि नहीं होती। विविध योनियों में जन्म-मरण के अनन्त आवों को पार करता हआ प्राणी जब कर्म-भूमि में मनुष्य योनि प्राप्त करता है तभी उसे अध्यात्म साधना के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का अवसर सुलभ होता है अन्यथा नहीं। मनुष्य योनि में भी सभी प्राणियों को मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता। असंख्य मनुष्यों में कोई विरला ही प्राणी अध्यात्म-साधना की ओर उन्मुख होता है । मनुष्य की स्वाभाविक योग्यता एवं कर्म-सिद्धान्त के आधार पर जैन परम्परा में मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार केवल भव्य जीव' १. गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषः सुरत्वात् ॥ विष्णु पुराण २।३।२४ तुलना, स्थानांगसूत्र ३-३
(ख) भागवतपुराण ५/७/११ २. इयं हि योनिः प्रथमा यां प्राप्य जगतीपते ।
आत्मा वै शक्यते तातं कर्मभि: शुभलक्षणः ॥ महाभारत, शान्तिपर्व, २९७/३२
(ख) भागवतपुराण ११/९/२९ ३. गीता ७/३ ४. (क) अर्हद्भिः प्रोक्ततत्त्वेषु प्रत्ययं संप्रकुर्वते ।
श्रद्धावन्तश्च तेष्वेव रोचन्ते ते च नित्यशः ।। अनादिनिधने काले निर्यास्यन्ति त्रिभिर्युताः । भव्यास्ते च समाख्याता हेमधातुसमाः स्मृताः।
वराङ्गचरित, २६/१०-११ सम्यग्दर्शनादिभिर्व्यक्तिर्यस्य भविष्यतीति भव्यः ।
सर्वार्थ सिद्धि ८/६ । भव्या : अनादिपारिणामिकभव्यभावयुक्ता ।
नन्दीसूत्र हरिभद्रवृत्ति, पृ० ११४ (घ) भव्वा जिणेहि भणिया इह खलु जे सिद्धिगमणजोगाउ । ते पुण अणाइपरिणामभावओ हुंति णायव्वा ।
श्रावकप्रज्ञप्ति, ६६
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कु० अरुणा आनन्द को प्रदान किया गया है अभव्य' को नहीं । जिस प्रकार मूंग में कोई दाना ऐसा होता है जिसे 'कोर
इस 'कोरडु' का ऐसा स्वभाव है कि चाहे कितना ही प्रयत्न कर लिया जाए, परन्तु वह पकता नहीं है । इसी प्रकार अभव्य जीव में भी मोक्ष प्राप्त करने योग्य परिणामों की सम्भावना नहीं होती।
सभी मनुष्य एक जैसे स्वभाव के नहीं होते। जिन मनुष्यों में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता विद्यमान होती है उनमें कुछ विशिष्ट प्रकार के गुण अपेक्षित होते हैं ।
गीता में कहा गया है कि सात्त्विक गुणों से अलंकृत व्यक्ति ही मोक्ष साधना में सफल हो सकते हैं । अध्यात्म-साधना की पात्रता प्राप्त करने के लिए वहाँ तीव्र वैराग्य, श्रद्धा, आत्मतत्त्व तथा मोक्ष प्राप्ति की जिज्ञासा आदि गुणों का होना अनिवार्य बताया गया है । पातंजलयोगसूत्र में भी योग-साधना का सर्वप्रथम ( उपाय प्रत्यय) अधिकारी बनने के लिए मनुष्य में श्रद्धा ( योग-साधना के प्रति आस्तिकता व सम्मान का भाव ) वीर्य, साधना के प्रति अभि. रुचि एवं उत्साह, स्मृति ( अपने लक्ष्य एवं गन्तव्य मार्ग का अविस्मरण) समाधि (एकाग्रता की सामर्थ्य) और प्रज्ञा (हेय और उपादेय के विवेक से युक्त बुद्धि) आदि गुण अपेक्षित बताए गए हैं।
जैन परम्परा में भी अध्यात्म साधना के अधिकारी भव्य जीवों में श्रद्धा, धर्मश्रवण की जिज्ञासा एवं संयम पुरुषार्थ की क्षमता का होना अनिवार्य समझा गया है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त गुण सामान्य व्यक्ति को लक्ष्य करके निरूपित किये गये हैं । जो व्यक्ति पूर्व जन्म में साधना की विशिष्ट कोटि में पहुँच जाने पर भी परम लक्ष्य १. (क) अश्रद्दधाना ये धर्मं जिनप्रोक्तं कदाचन ।
अलब्धतत्त्वविज्ञाना मिथ्याज्ञानपरायणाः ।। अनाद्यनिधना सर्वे मग्नाः संसारसागरे । अभव्यास्ते विनिर्दिष्टा अन्धपाषाणसन्निभाः ।।
वराङ् चरित २६-८-९ सम्यग्दर्शनादिभिर्व्यक्तिर्यस्य भविष्यतीति भव्यः यस्य तु न भविष्यति सोऽभव्यः ।
स० सि. ६।६. अभव्याः अनादि पारिणामिका भव्यभावयुक्ता:
नन्दीसूत्र हरिभद्रवृत्ति, पृ० ११४ ) विवरीया उ अभव्वा न कयाइ भवन्नवस्स ते पारं। गच्छिसु जंति व तहा तत्तु च्चिय भावओ नवरं ।।
-श्रावकप्रज्ञप्ति ६७. २. (क) निर्वाण पुरस्कृतो भव्यः । तद्विपरीतोऽभव्यः ।
-धवलापुस्तक पृ० १५०-१५१ (ख) भव्यत्वं नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वमनादिपारिणामिको भावः । ललितविस्तरा, पृ० २४.
(ग) पञ्चसूत्र हरिभद्रवृति पृ० ३, धर्मबिन्दु, मुनिचन्द्रवृति २०६८ ३. ऊवं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्तिं राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ।।
गीता १४॥१८ ४. वही ६।३६ ५. गोम्मटसार जीवकाण्ड ६५२
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को प्राप्त नहीं कर पाते, ऐसे योग-भ्रष्ट व्यक्ति को अगले जन्म में अपने पूर्व जन्म के विशिष्ट संस्कार स्वतः प्राप्त हो जाते हैं। इसलिए उनके लिए वर्तमान जन्म में उक्त गुणों की अनिवार्यता नहीं होती। ऐसे साधकों को पातंजल-योगसूत्र में 'भवप्रत्यय' के नाम से अभिहित किया गया है । इनसे भिन्न 'उपाय प्रत्यय' अधिकारी में ही उपरोक्त गुणों की अपेक्षा होती है। क्योंकि चित्त की एकाग्रता एवं समाधि की सिद्धि के लिये उन्हें जो विशिष्ट प्रयास करना पड़ता है वह उक्त गुणों के बिना सम्भव नहीं होता।
. जैन परम्परानुरूप योगसाधना का वास्तविक अधिकारी चारित्र सम्पन्न व्यक्ति होता है । वहाँ चारित्र से सम्पन्न होने के लिए जीव का सम्यग्दृष्टि तथा तत्त्वज्ञानी ( सम्यग्ज्ञानी) होना अनिवार्य माना गया है । सम्यग्दृष्टि ( सम्यग्दर्शन ) की पात्रता के लिए यह आवश्यक है कि कर्मों का आवरण इतना मन्द पड़ जाए कि जीव द्वारा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु किये जा रहे पुरुषार्थ की सफलता निश्चित हो जाए अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति का नियत काल समुपस्थित हो गया हो । उक्त काल तभी सम्भव है जब जीव के संसार-भ्रमण का काल अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परावर्तन जिसे आचार्य हरिभद्र ने चरमावर्त या चरम पुद्गलावर्त ५ के नाम से अभिहित किया है, मात्र शेष रह गया हो ।
आचार्य हरिभद्र प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने उक्त तथ्य को अनुभव किया है और अपने सभी धार्मिक, दार्शनिक एवं योग ग्रन्थों में उसकी चर्चा की है। उनके मतानुसार योग का अधिकारी होने के लिए यह आवदयक है कि तीव्र कर्मबन्ध की स्थिति न हो, क्योंकि कर्मबन्ध की तीव्र या उत्कृष्ट स्थिति वाले जीव में अन्तर्मुखी प्रवृत्ति की सम्भावना नहीं होती । ऐसे जीव को आचार्य हरिभद्र ने 'अपुनर्बन्धक' नाम से अभिहित किया है। इसे शुक्लपाक्षिक भी
१. पा० यो० सू० १११९ २. वही ११२० ३. तत्त्वार्थसूत्र ११; उत्तराध्ययनसूत्र २५।२९; भगवतीआराधना ७३५ ४. जीव द्वारा लोक-व्याप्त समस्त पुद्गलों को एक बार ग्रहण व त्याग करने में जितना समय लगता
है उसे पुद्गल परावर्त कहते हैं, इसमें कुछ ही काल कम हो तो उसे अर्ध-पुद्गल परावर्त कहा
जाता है। ५. चरम पुद्गलावर्त या चरमावर्त अनादि संसार का वह सबसे छोटा व अन्तिम काल है जिसे भोगने
के पश्चात् जीव पुन: जन्म-मरण के चक्र में नहीं पड़ता। ६. जैन शास्त्रों में मिथ्यात्व (मोहनीय कर्म) बन्ध की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण तथा जघन्य स्थिति अन्त: कोड़ा-कोड़ी सागरोपम मानी गई है।
-गोम्मटसार १०६ पर कर्णाटक वृत्ति ७. योगबिन्दु १०१; योगशतक १०
तुलना पा० यो० सू० २।१७, १८. ट: योगबिन्दु-१७८
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कहा गया है' । क्योंकि इसमें मोहनीयकर्म के तीव्र भाव की कालिमा रूपी कृष्णपक्ष का अन्धकर नष्ट हो जाता है और आत्मा के स्वाभाविक गुणों के आविर्भाव रूप शुक्लपक्ष का प्रकाश उदित होने लगता । उक्त स्थिति सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पूर्व की है । इसीलिये अपुनबन्धक को सम्यग्दृष्टि से भिन्न समझना चाहिये ।
प्रारम्भिक योगाधिकारी की अनिवार्य योग्यता
जिस प्रकार, किसी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व आवश्यक तैयारी के रूप में उस कार्य को करने की योग्यता अर्जित करनी पड़ती है उसी प्रकार अध्यात्म / योग-साधना प्रारम्भ करने से पूर्व भी प्रारम्भिक योग-साधक को कुछ ऐसे कर्तव्यों का पालन करना चाहिए जिनसे योग-साधना के लिये योग्य मनोभूमि तैयार हो जाए । प्रायः ऐसा देखा जाता है कि कभी-कभी मनुष्य आध्यात्मिकता के नाम पर अवश्य आचरणीय सामाजिक कर्तव्यों को जानबूझ कर छोड़ देता है, जिससे आध्यात्मिक मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । इसलिये आचार्य हरिभद्र ने योग-साधना प्रारम्भ करने से पूर्व सामान्य गृहस्थ साधक के लिए आचरणीय कुछ आवश्यक नियमों का विधान किया है जो योगबिन्दु में पूर्व सेवा, योगदृष्टिसमुच्चय में योग बीज तथा योग शतक में लौकिक धर्म" के नाम से वर्णित हैं । पूर्वसेवा में उक्त नियमों का इतना व्यापक एवं स्पष्ट रूप से चित्रण हुआ है कि योग बीज एवं लौकिक धर्म में उल्लिखित कर्तव्य कर्म भी उसी में अन्तर्भूत हो जाते हैं । पूर्व सेवा में गुरुदेवादि पूज्य वर्ग की सेवा, दीन जनों को दान देना, सदाचार, तप और मुक्ति के प्रति अद्वेष भाव आदि क्रियाएँ समाविष्ट हैं । ६
इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
( १ ) देव- गुरु पूजन
योग के साधक के लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि शास्त्रों द्वारा केवल योग के सैद्धान्तिक पक्ष का ज्ञान होता है । योग के व्यावहारिक पक्ष को जानने के लिए योग्य गुरु का सान्निध्य अपेक्षित है ।
१. योगबिन्दु — ७२; योगदृष्टिसमुच्चय २४
२. कृष्णपक्षे परिक्षीणे शुक्ले च समुदञ्चति ।
द्योतन्ते सकलाध्यक्षाः पूर्णानन्दविधोः कलाः ।। ज्ञानसार १८.
३. योगबिन्दु १०९-१४९
४. योगदृष्टिसमुच्चय २२, २३, २७, २८
५. योगशतक २५, २६
६. ( क ) पूर्वसेवा तु तन्त्रज्ञैर्गुरुदेवादिपूजनम् ।
सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वषश्चेह प्रकीर्तिता ।। योगबिन्दु १०९
(ख) पढमस्स लोगधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं । दीणदाणाइ
गुरुदेवातिहिया
अहिगिच्च ॥ योगशतक - २५
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१६१ गिरति अज्ञानम् इति गुरुः- इस नियुक्ति के अनुसार जो अज्ञान का नाश करता है वह गुरु है।' आचार्य हरिभद्र के शब्दों में "गणाति शास्त्रार्थम इति गरुः अर्थात शास्त्र के अर्थ को कहने वाले अथवा शास्त्रानुसार उपदेश देने वाले को "गुरु" कहते हैं। जैन शास्त्रों के अनुसार यद्यपि कल्याण मार्ग के उपदेशक भगवान् जिनेन्द्र ही साक्षात् गुरु हैं तथापि परवर्ती छद्मस्थ ज्ञानवान् व्यक्ति भी अपने विशिष्ट गुणों के कारण कल्याण मार्ग के उपदेशक होने से "गुरु" की श्रेणी में गिने जाने योग्य हैं। आचार्य हरिभद्र ने गुरु वर्ग में मातापिता कलाचार्य ( लौकिक विद्यायें एवं अन्य कलाएँ सिखाने वाला ), सम्बन्धी, विप्र, वृद्धपुरुष, तथा धर्मोपदेष्टा--इन सभी को परिगणित किया है और योगसाधक को यह निर्देष दिया है कि वह केवल अपने धर्म-गुरु को ही गुरु मानकर उनकी सेवा करने की अपेक्षा इन सब के प्रति भी गुरु-भाव रखे क्योंकि ये सभी किसी न किसी रूप में मनुष्य का मार्ग निर्देश करते हैं।
"गुरु" पद का क्षेत्र व्यापक है। इसमें तीर्थंकर, अर्हन्त, आचार्य, साधु और देवपांचों अर्थ समाहित हैं। उक्त सभी परमेष्ठी देव साधक के लिए आराध्य, आदरणीय, पूजनीय व उपास्य हैं । ५ “देव" शब्द का अर्थ है-दीव्यन्ते स्तूयन्ते जगत्त्रयेण अपि इति देवाः६ अर्थात् जो तीनों लोकों में दीप्यमान है, पूज्य है, स्तुत्य है वह देव है। आचार्य हरिभद्र ने "देव" को एक ऐसा आधारभूत तत्त्व माना है जिस पर किसी दर्शन व धर्म विशेष का अन्य धर्म से मौलिक भेद आश्रित है।'
आध्यात्मिक/योग-मार्ग के पथिक के लिए आचार्य हरिभद्र ने यह उपदेश दिया है कि सभी देव समान रूप से आदरणीय एवं पूजनीय होते हैं। अतः किसी देव-विशेष में आस्था होने पर भी अन्य देवों के प्रति द्वेष-भाव नहीं रखना चाहिए। आचार्य हरिभद्र के उक्त 1. द्रष्टव्य-वाचस्पत्यम् कोष २. आवश्यक नियुक्ति, हरिभद्र वृत्ति १७९; नन्दीसूत्र, हरिभद्र वृत्ति, पृ० ३; श्रावकप्रज्ञप्ति गा० १
पर स्वोपज्ञ वृत्ति, उत्तराध्ययनचूणि पू०२ ३. लाटी संहिता, ४/१४२-४४; पंचाध्यायी २१६२०-२१ 1. माता-पिता कलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा ।
वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ।। योगबिन्दु ११० 1. रत्नकरण्ड श्रावकचार ११९, १३७; योगशास्त्र (हेमचन्द) २१५, ३।१२२-१३०;
योगदृष्टिसमुच्चय २३,२६ 1. उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य टीका (पत्र ६।६) .. षड्दर्शनसमुच्चय, कारिका
गुणाधिक्य-परिज्ञानाद् विशेषेप्येतदिष्यते । अद्वषेण तदन्येषां, वत्ताधिक्यं तथामनः ।। अविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत् सर्वे देवा महात्मनाम् ॥ सर्वान्देवान्नमस्यन्ति, नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दूर्गाण्य तितरन्ति ते ॥ योगबिन्दु १२०, ११७, ११८
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कु० अरुणा आनन्द अभिमत से भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में देवों के नाम पर होने वाले मतभेद को दूर करने का सर्वसमन्वय सूचक मार्ग प्रशस्त होता है ।
गुरु एवं देव को यहाँ पूजनीय बताया गया है परन्तु वह पूजन किस प्रकार का होता है। इस सम्बन्ध में यह जानना आवश्यक है कि पूजन दो प्रकार का होता है - द्रव्यतः और भावतः । विशिष्ट वस्तु के उपचार से किसी देव का पूजन करना द्रव्य पूजा है और भावपूर्वक मन में उनको स्थान देना भाव पूजा है। अपना सर्वस्व देव को अर्पित करना और यथासामर्थ्य उनकी भक्ति करना, पुष्पादि द्रव्यों अथवा भाव पुष्पों से उनकी पूजा करना-- ये सब देव पूजन के अन्तर्गत आते हैं।' धन को तीर्थादिक शुभ स्थान में व्यय करना, देव के लिए सुन्दर मन्दिर बनवाना, बिम्ब स्थापित करवाना आदि भी देवपूजन कहलाते हैं । (२) दान
साधक के मन में त्याग की भावना जागृत करने के लिए "दान' भी एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक कर्तव्य है। आचार्य हरिभद्र के अभिमतानुसार रोगी, अनाथ, निर्धन आदि निस्सहाय वर्ग को उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ देकर उनकी सहायता करनी चाहिए। परन्तु दान देते समय यह ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है कि पुण्य के लोभ में बिना विचारे दान देने में अपने आश्रित जनों की उपेक्षा न होने लगे।४।। (३) सदाचार
योग के साधक के लिए नीति के उत्तम नियमों का पालन करना भी अत्यन्त आवश्यक है। आचार्य हरिभद्र ने योग-साधक के लिए अनुसरणीय कुछ नियमों का उल्लेख किया है। जिन्हें सदाचार भी कहा जाता है। ये नियम हैं-सब प्रकार की निन्दा का त्याग करना साधु पुरुषों का गुणगान करना, विपत्ति के समय भी दीनता अंगीकार न करना और सम्पत्ति होने पर भी अभिमान न करना, समयानुकूल बोलना, सत्य बोलना और वचन का पालन करना, अशुभ कार्यों में धन और पुरुषार्थ न लगाना, कुल-क्रमागत धार्मिक कृत्यों का अनुसरण करना, प्रमाद का त्याग करना, लोक-व्यवहार में उपयोगी और लोक-व्यवहारानुसार, यथा। योग्य नियमानुकूल विनय, नमन, दान इत्यादि का परिपालन करना, निन्दनीय कार्य न करना इत्यादि।५ उक्त नैतिक गुणों का पालन करने वाला व्यक्ति ही योग का वास्तविक अधिकारी बनने योग्य होता है। योगाधिकारी नैतिक दृष्टि से तनिक भी पतित नहीं होता। (४) तप
तप में चित्त को योग-साधनार्थ समर्थ बनाने की शक्ति निहित है। इसलिए आचा १. योगबिन्दु १११-११६; योगदृष्टिसमुच्चय २२, २३, २६, २९, २. योगबिन्दु ११५ ३. योगबिन्दु १२३ ४. पोष्यवर्गाविरोधेन न विरुद्धं स्वतश्चयत् । ५. योग बिन्दु-१२६-१३०
योगबिन्दु १२
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योग का अधिकारी हरिभद्र ने योग-साधना की पूर्वावस्था में तप को अनिवार्य रूप से आचरणीय माना है। उन्होंने तप के अन्तर्गत जैनेतर परम्परा' में प्रचलित कृच्छ्र, चान्द्रायण, मृत्युघ्न और पापसूदन आदि व्रतों को भी सम्मिलित कर दिया है। ऐसा करने में सम्भवतः उनके मन में यह विचार उद्भत हआ हो कि यदि जैन परम्परा में अणव्रत महाव्रतों का पालन करने वाले को बती कहा जाता है तो जैनेतर परम्परा के चान्द्रायणादि व्रतों को करने वाला भी व्रती क्यों नहीं हो सकता अर्थात् उसे भी व्रती कहना चाहिए। (५) मोक्ष के प्रति अद्वेष भाव
मोक्ष के प्रति द्वेष-भाव न रखना अर्थात् मोक्ष के प्रति प्रेम करना एक अत्यन्त अनिवार्य कर्तव्य कर्म है जिसकी योग साधना में बहुत आवश्यकता अनुभव की गई है। योग मोक्ष का हेतु है। मोक्ष भोग और सुख से रहित होता है, परन्तु कुछ भवाभिनन्दी जीवों का संसार में इतना राग होता है कि वे संसार में ही अनुरंजित रहते हैं, उसे ही अपना सर्वस्व मानने लगते हैं। ऐसी रागयुक्त अवस्था में संसार से मोह का त्याग सम्भव नहीं। अतः मोक्ष से द्वेष होना स्वाभाविक है। ऐसी अवस्था में जीव जन्म-मरण के चक्र में फंसकर संसार-वर्धन करने में लगे रहते हैं। मोक्ष के प्रति द्वेष-भाव का त्याग कर उसको प्राप्त करने की जिज्ञासा तथा तत्प्राप्ति के उपायों में रुचि लेना अत्यन्त अनिवार्य कर्तव्य कर्म है। इसीलिए इसकी गुरुदेव पूजन से भी अधिक महत्ता स्वीकार की गई है।
उपयुक्त नियमों का पालन किये बिना साधक को योग-साधना के अग्रिम सोपानों पर चढ़ने की योग्यता प्राप्त नहीं होती, इसलिए आचार्य हरिभद्र ने इन्हें योग-साधना की प्रारम्भिक भूमिका/प्राथमिक योग्यता के रूप में अनिवार्य माना है। उक्त सभी क्रियाओं का समावेश पतंजलि के नियम ( जिसमें क्रियायोग भी समाहित है ) के अन्तर्गत हो जाता है। अन्तर इतना ही है कि पतंजलि ने इन्हें स्पष्ट रूप से पूर्व-भूमिका के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया। वस्तुतः यम और नियम दोनों ही योग की आधार-भूमि हैं। इसीलिए पतंजलि ने इन्हें प्रथम और द्वितीय योगांग के रूप में चित्रित किया है अन्यथा वे इन्हें प्रत्याहार के पश्चात् स्थान देते।
आचार्य हरिभद्र ने अपने योग-ग्रन्थों में योग की आधार-भूमि के रूप में उक्त प्राथमिक योग्यताओं पर इसलिए विशेष बल दिया है क्योंकि उनके समय में यम-नियम को छोड़कर षडंग योग की परम्परा चल पड़ी थी और आसन-प्राणायाम जैसी क्रियाओं को ही योग के रूप में प्रचारित किया जा रहा था। साम्प्रदायिक भेद इतने बढ़ गये थे कि सामान्य जनता १. व्रतानि चेषां यथायेषं कृच्छचान्द्रायण सान्तापनादीनि । पा० यो० सू० २।३४ २. तपोऽपि च यथाशक्ति कर्तव्यं पापतापनाम् ।
तच्च चान्द्रायणं कृच्छ मृत्युघ्नं पापसूदनम् ॥ योगबिन्दु १३१ ३. योगबिन्दु, १३६ ४. वही, १३९ ३. वही, १४९
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कु० अरुणा आनन्द दिग्भ्रमित होने लगी थी। प्रज्ञाबल असीम होने पर भी प्रसिद्ध योगियों का आचार-पक्ष शून्य होता जा रहा था। ऐसी स्थिति में आचार्य हरिभद्र ने बड़ी सूझबूझ से काम लिया और योग के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए योग का अभिनव स्वरूप जनता के समक्ष रखा जो साम्प्रदायिक भेद से रहित तथा सर्वसमन्वयभाव का सूचक था। प्रारम्भिक योगाधिकारी का चित्रण कर, योग की प्राथमिक योग्यताओं के रूप में कुछ अनिवार्य नियमों का निर्धारण कर उन्होंने साधक के लिए मनोभूमि तैयार की है । नींव दृढ़ होने पर ही भवन भी सुदृढ़ होता है अतः योग के उच्च शिखर पर पहुँचने के लिए उनके द्वारा तैयार की गई योग्य मनोभूमि बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। वर्तमान में प्राथमिक योग्यता की प्रासंगिकता
. वर्तमान स्थिति भी आचार्य हरिभद्र कालीन सामाजिक व धार्मिक स्थिति जैसी ही है। आज योग का यथार्थ स्वरूप लुप्त हो चुका है। योग का केवल बाह्य रूप ही प्रकाशित हो रहा है। योग केवल आसन, प्राणायाम, शारीरिक-शिक्षा, व्यायाम अथवा प्रदर्शन की कला नहीं है अपितु मनुष्य की बाह्याभिमुखी चित्तवृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाने तथा आत्मस्वरूप की उपलब्धि कराने का परमोत्कृष्ट साधन है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले योग का प्रचार कम होता है जबकि आज अपने प्रचार के लिए योग के बाह्य स्वरूप का ही सहारा लिया जा रहा है। परिणामस्वरूप योग भ्रांत हो रहा है। अतः हरिभद्र द्वारा निर्धारित योग की प्राथमिक अनिवार्य योग्यता का पूर्वसेवा के रूप में जो मौलिक चिन्तन हुआ है वह वर्तमान युगीन मानव के लिए अत्यन्त उपयोगी एवं अनिवार्य लोक व्यवहार है और योगी बनने से पूर्व साधक के भावों एवं आचरण को पवित्र बनाने में अत्यन्त सहायक है इसलिए अनिवार्य रूप से पालनीय है।
शोध सहायिका बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी
दिल्ली।
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आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार का मल्यांकन
अनिल कुमार मेहता संसार में आज जितने देश हैं उतनी ही संस्कृतियाँ हैं। प्रत्येक संस्कृति एक ममतामयी माँ है और हर देश या राज्य का प्रत्येक प्राणी उस स्नेही माता की संतान है। केवल मनुष्य ने ही अपनी संस्कृति को वास्तविक रूप में पहचान कर उसकी रक्षा समृद्धि के लिए प्रयत्न किए हैं।
भारतीय संस्कृति के इतिहास के अध्ययन से हमें रोचक बातें ज्ञात होती हैं। जैन धर्म भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है और इसका प्राकृत भाषा के साथ प्रारम्भ से ही घनिष्ठ सम्बन्ध है और उस समय जन-साधारण में प्रचलित भाषा को प्राकृत कहा जाता था। प्राकृत भाषा के अस्तित्व को वैदिक सूत्रों की रचना के समय में भी स्वीकार किया गया है। अतएव भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म एवं प्राकृत भाषा के उल्लेखनीय योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता।।
___ जैन साहित्य के अन्तर्गत प्राकृत भाषा में आगम, टीका, कथा, चरित्र, काव्य, पुराण आदि अनेक रचनायें हैं। यह सम्पूर्ण साहित्य लिखित रूप में महावीर के निर्वाण के पश्चात् का ही है। जैन साहित्य में प्राकृत कथा साहित्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। अधिकांश कथा साहित्य धर्म-भावना से प्रेरित होकर ही लिखा गया है। आगम युग से लेकर १६-१७ वीं शताब्दी तक प्राकृत भाषा में अनेक जैन कथाकारों ने सैकड़ों रचनाओं का प्रणयन किया इनमें पादलिप्तसूरि, विमलसूरि, हरिभद्रसूरि, उद्योतनसूरि, कौतूहल कवि, नेमिचन्द्रसूरि, जिनहर्षगणि आदि प्रमुख हैं।
वडगच्छीय आचार्य नेमिचन्द्रसूरि, ग्यारहवीं शताब्दी के प्रमुख कथाकार थे। इन्होंने सन् १०७३ से १०८३ के मध्य आख्यानकमणिकोश नामक कथा ग्रन्थ की रचना की। इनकी अन्य चार कृतियों के नाम इस प्रकार हैं :
(१) उत्तराध्ययनवृत्ति (२) रत्नचूड-कथा (३) महावीर-चरियं और (४) आत्मबोधकुलक अथवा धर्मोपदेश-कुलक ।
आख्यानकमणिकोश में मूलतः ५२ गाथाएँ ही हैं। प्रथम गाथा में मंगलाचरण और द्वितीय गाथा में प्रतिज्ञात वस्तु का निर्देश है। शेष ५० गाथाओं में विभिन्न १४६ आख्यानों का संकेत-मात्र है। २० आख्यानों की पुनरावृत्ति हो जाने के कारण वास्तविक कथाएँ १२६ ही हैं। मूल गाथाओं में प्रतिपादित विषय से सम्बन्धित आख्यान के कथानायक या नायिका का नाम ही बताया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ये कथाएँ पूर्ववर्ती और समकालीन १. डा० कत्रे, -प्राकृत भाषायें और भारतीय संस्कृति में उनका अवदान पृ. ५९ २. जैन, जगदीशचन्द्र-प्राकृत साहित्य का इतिहास पृ० ३६०
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अनिल कुमार मेहता अन्य जैन ग्रन्थों में भी उपलब्ध थीं। लेखक ने उन आख्यानों को सरलता से याद रखने वे उद्देश्य से गाथाओं में संक्षिप्त किया है। उदाहरण के लिए २४ वें अधिकार की एक गाथा प्रस्तुत है--
रागम्मि वणियपत्ती दोसे नायं ति नाविओ नंदो।
कोहम्मि य चंडहडो मयकरणे चित्तसंभूया ॥' इस गाथा में कहा गया है कि राग के विषय में वणिक्-पत्नी का, द्वेष के विषय में नाविक नंद का, क्रोध के विषय में चंडभट का और अहंकार के विषय में चित्र-सम्भूति का आख्यान है।
इन मूल गाथाओं के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए सन् ११३४ में आम्रदेवसूरि ने एक बहदवत्ति की रचना की । यह वृत्ति आचार्य नेमिचन्द्रसूरि के आदेश से सिर्फ नौ माह में जयसिंह देव के शासन काल में धोलका-गुजरात में पूर्ण की गयी। वृत्ति का अधिकांश भाग महाराष्ट्री प्राकृत में है किन्तु १० आख्यान संस्कृत और २ आख्यान प्राकृत भाषा में भी हैं। कहीं-कहीं पर संस्कृत एवं प्राकृत गद्यों का भी प्रयोग हुआ है। वृत्ति के अन्तर्गत १२६ आख्यान ४१ अधिकारों में विभक्त हैं । यहाँ २४ वें रागाद्यनर्थपरम्परावर्णन नामक अधिकार का मूल्यांकन प्रस्तुत है।
इस अधिकार का मुख्य केन्द्रबिन्दु यह है कि राग-द्वष, क्रोध आदि कषाय तप, संयम, त्याग आदि पवित्र अनुष्ठानों को नष्ट करते हैं। अतः इन्हें प्रयत्नपूर्वक जीतना चाहिये। इन कषायों के दुष्परिणामों को बताने के लिए वणिक्-पत्नी, नाविकनंद, कृषक चंडभट, चित्रसम्भूति नामक चांडालपुत्रों, मायादित्य, लोभनंदी एवं नकुलवणिक् भ्राताओं की कथाएँ वर्णित हैं।
आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार की उक्त कथाओं के बिषय पूर्ववर्ती ग्रन्थों से ग्रहण किये गये हैं। कुछ कथाओं को लौकिक आधार भी प्रदान किया गया है। चंडभट एवं नकूल वणिक् की कथाएँ मौलिक प्रतीत होती हैं । सम्भवत; वृत्तिकार ने स्वयं इन कथाओं की रचना की है क्योंकि इनके मूल स्रोत प्राकृत साहित्य में अन्यत्र अनुपलब्ध हैं, तथापि इन कथाओं के अभिप्रायों से समानता रखने वाली कथाएँ जैन साहित्य में प्राप्त हो जाती हैं। प्रस्तुत अधिकार की वणिक्-पत्नी-कथा के सूत्र जैनागमों की व्याख्याओं से ग्रहण किये गये हैं। इस कथा का उल्लेख हरिभद्र द्वारा रचित आवश्यकवृत्ति, जिनदासगणि महत्तर की आवश्यकचणि और वानरमुनि की गच्छाचारप्रकीर्णकवृत्ति में भी हुआ है। १. आख्यानकमणिकोशवृत्ति, (सम्पादक : मुनि पुण्यविजय जी) पृ० २१८ २. (क) शास्त्री, देवेन्द्र मुनि, महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं, पृ० ७९,
(ख) कुवलयमालाकहा (चंडसोम एवं लोभदेव की कथा)-सम्पादक-उपाध्ये ए० एन० ३. (क) आवश्यकवृत्ति पृ० ३८८, आगमोदय समिति, बम्बई, १९१६-१७.
(ख) आवश्यकणि भाग-१, पृ० ५१४, रिषभदेव केसरीमल, रतलाम-१९२८. (ग) गच्छाचारप्रकीर्णकवृत्ति, पृ० २६, आगमोदय समिति, बम्बई, १९२३.
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आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार का मूल्यांकन
१६७ प्रस्तुत अधिकार की नाविक नन्द की कथा विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकचूणि, आवश्यकवृत्ति और धर्मोपदेशमालाविवरण से ली गयी है।' चित्र-सम्भूति का आख्यान मूल रूप में उत्तराध्ययनसूत्र के तेरहवें अध्याय में आया है। बौद्ध कथाओं में चित्र-सम्भूत नामक जातक में भी यह कथा वर्णित है। इन दोनों कथाओं में अत्यधिक समानता है । शान्टियर ने अपनी पुस्तक "द उत्तराध्ययनसूत्र' में इन दोनों कथाओं की गाथाओं में भी समानता बताई है। इन दोनों में से उत्तराध्ययन की कथा को प्राचीन माना गया है। आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने इसे अपनी अन्यतम कृति सुखबोधावृत्ति में सम्पूर्ण रूप से प्रस्तुत किया है। उत्तराध्ययनसूत्र की व्याख्याओं तथा सूत्रकृतांगचूणि एवं आवश्यक चूर्णि में भी इस कथा के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसकी कथावस्तु से साम्य रखती हुई और भी कथाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें से हरिकेशीय की कथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । यह कथा आख्यानकमणिकोशवृत्ति के ३२वें अधिकार तथा जातक के चौथे खण्ड के मातंग जातक में और उत्तराध्ययन के १२वें अध्ययन में विस्तार से वर्णित है। अतः यह तथ्य सुस्पष्ट है कि २४वें अधिकार की इस कथा को अन्य ग्रंथों से ग्रहण कर संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
मायादित्य कथा आगम और उसके व्याख्यात्मक साहित्य में अनुपलब्ध है । आठवीं सदी में उद्योतनसुरि द्वारा रचित प्राकृत-चम्पूकाव्य "कुवलयमालाकहा" में इस कथा का विस्तार से वर्णन हआ है।" यह कथा कुवलयमाला में तो गद्य-पद्यात्मक शैली में लिखित है, परन्तु कमणिकोश-वृत्ति में केवल पद्यात्मक शैली में ही लिखी गयी । यद्यपि दोनों कथाओं की कथावस्तु में विशेष अन्तर नहीं है तथापि भाषा एवं काव्य-गुणों की दृष्टि से अनेक विभिन्नताएँ दृष्टिगत होती हैं। फिर भी यह सुनिश्चित है कि वृत्तिकार में कुवलयमाला की मायादित्य-कथा के आधार पर ही नवीन मौलिकता के साथ इस कथा की रचना की है। १. (क) विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३५७५ रिषभदेव केसरीमल, रतलाम, १९३६,
(ख) आवश्यकचूणि भाग -१, पृ० ५१६-५१७ रिषभदेव केसरीमल, रतलाम, १९२८. (ग) आवश्यकवृत्ति, पृ० ३८९-३९०.
(घ) धर्मोपदेशमालाविवरण, पृ० २११, सिंघीजैनग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २८. २. जातक, चतुर्थ खण्ड, संख्या ४९८, पृ० ६००. ३. घाटगे, ए० एम०-एनल्स ऑफ द भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, भाग-१७,
पृ० ३४२. ४. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० १३, २१३-२१४, (ख) उत्तराध
१० ३७४-७५, देवीचन्द लालभाई सीरीज, बम्बई, १९१६. (ग) उत्तराध्ययनवृत्ति, (नेमिचन्द्र), (कमलसंयम) पृ० २५४, लक्ष्मीचन्द जैन पुस्तकालय, आगरा,
१९२३. पृ० १८५-८७, पुष्पचन्द्र खेमचन्द्र, बलाड़, १९३७. (ध) सूत्रकृतांगचूणि, पृ० १०९. रिषभदेव केसरीमल, रतलाम, १९४१.
(ङ) आवश्यचूर्णि भाग-१, पृ० २३१, रिषभदेव केसरामल, रतलाम, १९२८-२९. ५. उपाध्ये, ए० एन०-कुवलयमालाकहा-द्वितीय प्रस्ताव, पृ० १८.
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अमित कुमार मेहता
लोभनंदी की कथा का वर्णन आवश्यकचूर्णि में हुआ है । इसमें भी जिनदास को एक निःस्वार्थी श्रावक बतलाया गया है साथ ही जितशत्रु राजा का उल्लेख भी आया है ।' लोभकषाय को लेकर प्राकृत कथा साहित्य में कई कथाओं की रचना हुई है ।
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काव्यात्मक मूल्यांकन इन कथाओं में अनेक काव्यात्मक तत्त्वों का प्रयोग हुआ है । विभिन्न वस्तु व्यापारों के अन्तर्गत विशेषक, शालिग्राम, बलिचन्द आदि ग्रामों तथा हस्तिनापुर, वाराणसी, क्षितिप्रतिष्ठित, साकेत, उज्जयिनी और वसन्तपुर नामक नगरों के उल्लेख हैं मायादित्य कथा में काशी जनपद का बहुत सुन्दर आलंकारिक शैली में वर्णन हुआ है । प्राकृतिक दृश्यों, ऋतुओं, पर्वतों, नदियों आदि के संक्षिप्त विवरण भी देखने को मिलते हैं । यात्रा के वर्णन भी संक्षेप में ही प्रस्तुत किये गये हैं ।
पात्रों के चरित्र-चित्रण में मनुष्य वर्ग में अच्छे-बुरे व्यक्तित्व वाले एवं निम्न, मध्यम और उच्च तीनों स्तर के पात्रों को प्रस्तुत किया गया है । पुरुष पात्रों में अरिहमित्र, नंद, चंडभट, चन्द्रावतंसक, चित्र, सम्भूति, नमुचि, गंगादित्य, स्थाणु, जितशत्रु, शिव, शिवभद्र, लोभनंदी, जिनदास एवं धर्मरुचि के चरित्रों पर प्रकाश डाला गया है । नारीपात्रों में अरिहन्न की पत्नी, शिव - शिवभद्र की बहिन और उनकी माँ को उपस्थित किया गया है किन्तु इनके नाम नहीं बताएं गये हैं ।
इन कथाओं में आर्याछंद का ही प्रयोग हुआ है । अलंकारों की दृष्टि से उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, लाटानुप्रास आदि अलंकारों के उदाहरण प्राप्त होते हैं । इन कथाओं के संक्षिप्त होने के कारण इनमें रस के विभिन्न प्रयोगों को अवसर नहीं मिला है । कुछ छोटेछोटे संवाद भी प्राप्त होते हैं, इनमें से स्थाण्- मायादित्य, शिव- शिवभद्र, जिनदास - जितशत्रु आदि के संवाद महत्त्वपूर्ण हैं । इसी प्रकार सदाचार, अर्थ, लक्ष्मी, काम, गुप्त बातों की रक्षा और रागादि कषायों को जीतने के विषय से संबंधित संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के सुभाषित पद्यों का प्रयोग हुआ है। अर्थ के विषय में प्रयुक्त हुआ एक सुभाषित पद्य द्रष्टव्य है— जाई रूवं विज्जा तिन्नि वि निवडंतु गिरिगुहाविवरे । अत्थो च्चिय परिवड्ढउ जेण गुणा पायडा हुंति ॥
अर्थात् जाति, रूप और विद्या तीनों ही पर्वत की गुफा के छिद्र में भले ही गिर जायें, केवल अर्थ को ही बढ़ाने का प्रयत्न किया जाय क्योंकि उसीसे गुण प्रकट होते हैं ।
भाषात्मक विश्लेषण प्रस्तुत अधिकार की कथाओं की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है अतः इनमें महाराष्ट्री प्राकृत की लगभग सभी विशेषताएं मिलती हैं और इसीलिये स्वर एवं व्यंजन के परिवर्तन, समीकरण, लोप, आगम, आदि महाराष्ट्री प्राकृत के नियमानुसार ही हैं । यद्यपि व्याकरण के प्रयोगों में वृत्तिकार ने पूर्ण कुशलता का परिचय दिया है तथापि इस अधि
१. आवश्यकचूर्णि, भाग -१, पृ० ५२२, ५२५.
२. जैन, जगदीशचन्द्र, प्राकृतजैनकथा साहित्य.
३. आख्यानकमणिकोश - वृत्ति, २४।७६.१-५.
४. वही २४ । ७८.३२, २१, २२, ४१।७७. १३, १५/८० के बाद दो
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कार की कथाओं में कुछ विभक्तियों एवं क्रियाओं के विभिन्न रूपों के प्रयोगों का अभाव है । विशेषणों, कृदन्तों, अव्ययों एवं तद्धितों के पर्याप्त प्रयोग मिलते हैं । इस अधिकार की मूल गाथाओं की व्याख्या संस्कृत भाषा में है । आख्यान प्राकृत भाषा में ही प्रस्तुत किये गये हैं, संस्कृत भाषा के केवल तीन सुभाषित पद्य ही प्राप्त होते हैं । यद्यपि अपभ्रंश भाषा का प्रयोग इन कथाओं में नहीं हुआ है तथापि देशी शब्दों का कहीं-कहीं उपयोग किया गया है ।
सांस्कृतिक महत्त्व : - इस अधिकार में वर्णित कथाओं में तत्कालीन भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि विवरण प्राप्त होते हैं, इनसे उन कथाओं का सांस्कृतिक महत्त्व स्पष्ट होता है, अतएव उक्त विवरणों को यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत करना आवश्यक है ।
भौगोलिक वर्णन के अन्तर्गत विभिन्न नगरों, ग्रामों, पर्वतों, नदियों, आदि के कुछ प्रसंग आये हैं । इनकी स्थिति एवं ऐतिहासिकता आदि के संबंध में रोचक तथ्य प्राप्त होते हैं । ' इनमें गंगा एवं गंधवती नदियों के संक्षिप्त वर्णन मिलते हैं । अंजनपर्वत और विंध्याचलपर्वत के भी उल्लेख हैं साथ ही शिशिर एवं वसंत ऋतु का उल्लेख क्रमशः नंद एवं चित्र सम्भूत की कथाओं में हुआ है ।
ऐतिहासिक एवं राजनैतिक संदर्भों में चित्र सम्भूति - कथा में उल्लिखित सनत्कुमार को हस्तिनापुर का चक्रवर्ती बताया गया है । यह बारह चक्रवर्तियों में से चौथा था । २ वाराणसी, साकेत एवं वसंतपुर के शासकों के नाम क्रमशः शंख, चन्द्रावतंसक और जितशत्रु थे । नाविक नंद का भी अपने छठें जन्म में वाराणसी के राजा के रूप में उत्पन्न होने का प्रसंग आया है । " एक अज्ञात नाम भील सेनापति, ग्राम प्रमुख और सैनिकों के उल्लेख हुये हैं । प्रान्तीय व्यवस्था में जनपदों, नगरों, ग्रामों आदि की व्यवस्था थी । न्याय प्रणाली में अपराधियों को दिये जाने वाले मृत्यु-दण्ड, कारागृह निवास शारीरिक यातना व देश- निष्कासन आदि दण्डों का वर्णन हुआ है साथ ही पुरस्कार देने के प्रावधान भी बताये गये हैं । "
इन कथाओं में अनेक सामाजिक तथ्यों का संकलन हुआ है । कर्मगत वर्ण-व्यवस्था के आधार पर वर्गीकृत चार वर्णों में से क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के पात्रों का उल्लेख हुआ है । जनजाति में भील; अन्त्यज जाति में चाण्डाल; कर्मकार जाति में कृषक, खनक, स्वर्णकार, मछुआरे, नाविक आदि का वर्णन है । इन कथाओं से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय सामूहिक परिवार में रहने की प्रथा प्रचलित थी । समस्त मानव वर्ग विभिन्न वर्ण एवं जातियों में विभक्त था । नारियां प्रायः कामुक एवं लोभीवृत्ति की होती थीं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
१. आख्यानकमणिकोशवृत्ति के २४वें अधिकार का सानुवाद मूल्यांकन, पृ० ७८, अनिल कुमार मेहता २. आवश्यकचूर्णि भाग-१, पृ० ४२९.
३. आख्यानकमणिकोशवृत्ति २४।७५.१६
४. वही २४ ७६. १२, ७७.७, ७७.२७, ७९.१४.
4. आख्यानकमणिकोशवृत्ति २४।७९. १२.
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अनिल कुमार मेहता इन चारों पुरुषार्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान था, समाज अनेक विकारों से ग्रस्त था। लोग कर्मसिद्धान्त पर विश्वास करते थे।
आर्थिक विवरणों में "अर्थ अनर्थ की जड़" इस उक्ति को चरितार्थ करने वाले अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए नंद नाविक और धर्मरुचि का प्रसंग द्रष्टव्य है। मायादित्यकथा में अर्थ से संबंधित दो सुभाषित पद्य प्रयुक्त हुये हैं। इसी कथा में अर्थोपार्जन के लिये जुआ, चोरी, लूट-पाट आदि को गहित' तथा कृषि, धातुवाद, देव-आराधना, राजा की सेवा, सागर-सन्तरण आदि धर्मसम्मत उपाय बतलाये गये हैं। अर्थ-प्राप्ति हेतु उस समय लोग हत्या जैसे घृणित कार्य करने में भी संकोच नहीं करते थे। धन के स्थानान्तरण हेतु नकुलक (बटुए) आदि के उपयोग का भी प्रसंग है। क्रय-विक्रय आदि के वर्णन संक्षिप्त हैं।
धार्मिक एवं दार्शनिक महत्त्व : जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है कि इन कथाओं को धार्मिक भावना से प्रेरित होकर लिखा गया है। अत; स्वाभाविक है कि इनमें धर्म, दर्शन
और अध्यात्म के वर्णन निश्चित रूप से हुये ही हैं। इन कथाओं का प्रमुख उद्देश्य मानव में नैतिक सिद्धान्तों का संचरण करना और उसे मानसिक एवं वैचारिक दृष्टि से शुद्ध बनाना है। इस अधिकार के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि इसमें राग आदि अनर्थ परम्पराओं का वर्णन हुआ है। इन कथाओं में कषायरूपी राग-द्वेषात्मक उत्तापों के विस्तृत रूपों क्रोध, मान, माया एवं लोभ को ही मुख्य रूप से चित्रित किया गया है। इन कषायों के दुष्परिणामों के वर्णन के उद्देश्य से ही इन उपदेशप्रद कथाओं की रचना हुई है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभ के प्रतिनिधित्व करने वाले पात्रों के नाम क्रमश; वणिक्-पत्नी, नाविक नंद और धर्मरुचि साधु, चंडभट, चित्र-सम्भूति, मायादित्य, लोभनंदी और शिव-शिवभद्र तथा उनकी बहिन है। यद्यपि इन कषायों में प्रवृत्ति रखने वाले इन पात्रों को दुःख-प्राप्ति होना ही बताया है तथापि तप-संयम, पश्चात्ताप आदि द्वारा उनके लिये पुनः मुक्ति-प्राप्ति भी बताई गयी है। सारांश इन कषायों पर विजय प्राप्ति के लिये ही मानव को प्रेरित किया गया है।
इसके अतिरिक्त इन कथाओं में कर्म-सिद्धान्त का भी मुख्य रूप से प्रतिपादन हुआ है। प्रत्येक पात्र, चाहे वह सत्कर्मी हो या दुष्कर्मी, उसको अपने कर्मानुसार परिणामों के प्राप्ति होना अवश्य बताया गया है। उदाहरणार्थः- वणिक-पत्नी, नंद नाविक आदि के अपने दुष्कर्मों के कारण अनंत संसार का भागी बताया गया है। दूसरी ओर गंगादित्य प्रायश्चित्त कर लेने व धर्मरुचि मुनि द्वारा अपने पूर्वकृत कर्मों की प्रत्यालोचना कर लेने पर उन्हें स्वर्ग प्राप्त होना भी बताया गया है।
इसी प्रकार वणिक् पत्नी, नाविक नंद एवं चित्र-सम्भूति की कथाओं में निदानफर अर्थात् सकाम कर्म करने के परिणाम के संबंध में भी वर्णन प्राप्त होता है। निदान बाँधने कारण ही अरिहन्न की पत्नी व नंद नाविक राग एवं द्वेष भाव के कारण संसार में परिभ्रम करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त इन कथाओं में और भी अनेक धार्मिक एवं दार्शनिक तथ्यों को
१. (क) वही पृ० २२३ गाथा २६-२७,
(ख) कुवलयमालाकहा, पृ० ५७ अनुच्छेद १६-१७.
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आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार का मूल्यांकन
१७१ समावेश हुआ है, किन्तु समयाभाव के कारण उन सबका विस्तार से वर्णन कर सकना संभव नहीं है। फिर भी कुछ दार्शनिक शब्दों के नाम प्रस्तुत कर देना आवश्यक है, यथा-जातिस्मरण, नीच-गोत्र, पुनर्जन्म, प्रायश्चित्त, शुक्लध्यान, लेश्या आदि । कषाय-विजय, कर्मफल के अतिरिक्त धर्मोपदेश, आलोचना-प्रतिक्रमण, गंगास्नान आदि धार्मिक प्रसंग भी इस अधिकार में रोचकता उत्पन्न करते हैं।
निष्कर्ष यह है कि आख्यानकमणिकोश के २४वें अधिकार की कथाएँ जैन धर्म के कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती हुई मानवता को जागृत करने में पूर्ण सक्षम हैं। जिससे व्यक्ति-व्यक्ति एवं राष्ट्र की नैतिकता की सुदृढ़ता को ठोस आधार मिलता है। ये कथाएँ अनेक प्राचीन सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक विवरणों को प्रस्तुत करती हैं, साथ ही प्राकृत कथा साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान प्रतिपादित करते हुए रोचक एवं धार्मिक कथानकों के माध्यम से लोगों का मनोरंजन भी करती हैं। प्राकृत कथा साहित्य के अन्य ग्रंथों से आख्यानकमणिकोश की इन कथाओं से तुलना करने पर और भी रोचक तत्त्वों और इनकी मौलिकता के बारे में नवीन जानकारी प्राप्त होगी। अतः इस क्षेत्र में शोध कार्य करने की आवश्यकता से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता।
शोध छात्र, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, मौलिक विज्ञान एवं मानविकी-संस्थान, (नव परिसर), सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर-३१३००१ (राज.)
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जैन-जैनेतर दर्शनों में अहिंसा
रत्नलाल जैन भगवान् महावीर की मंगलमय वाणी है
धम्मो मंगलमुक्किट्ठ....."मणो' । धर्म सर्वोत्कृष्ट मंगल है; अहिंसा, संयम और तप धर्म का वास्तविक स्वरूप है, जिस व्यक्ति का मन सदा धर्म में लीन रहता है, देवता भी उसे नमस्कार करते हैं।
सभी धर्म दर्शनों में, अहिंसा को परम धर्म स्वीकार किया गया है। महाभारत में लिखा है
अहिंसा परमो धर्मस्तथा अहिंसा परमो दमः।
अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमसुखम् ।। -अहिंसा उत्कृष्ट धर्म है, परम मित्र है, परम सुख है। एक मनीषी का कथन है
परस्पर-विवादानां धर्मग्रन्थानामहिंसा इत्यत्र एकरूपता । —जो विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में अनेक विषयों में मतभेद है, वहाँ अहिंसा धर्म के विषय में सब में एकरूपता है सहमति है।
भगवान् महावीर ने मन, वचन और काया-तीनों करणों पर संयम धारण करने के आदर्श को प्रतिष्ठित किया है
तेसिं अच्छणजोएण, निच्चं होयव्वयं सिया ।
मणसा काय वक्केण, एवं हवइ संजए॥ मन, वचन और शरीर-इन में से किसी एक के द्वारा किसी प्रकार से भी जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है। अन्यत्र इसी भाव की पुष्टि की है
कर्मणा मनसा, वाचा, सर्वभूतेषु सर्वदा ।
अक्लेशजननं प्रोक्तमहिंसात्वेन योगिभिः ॥ -मन, वचन और कर्म से प्राणियों को कष्ट न पहुंचाना-इसे ही योगियों ने अहिंसा कहा है।
१. दशवकालिक १:१ २. महाभारत, अनुशासन पर्व ११६:३८-३९ ३. दशवैकालिक ८।३
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महाभारत का पावन सन्देश है
जैन - जैनेतर दर्शनों में अहिंसा
कर्मणा न नरः कुर्वन्, हिंसा पार्थिव सत्त्वम् । वाचा च मनसा चैव ततो दुःखात् प्रमुच्यते ॥ '
परम योगी पतंजलि ने मैत्री भाव - अनभिद्रोह को अहिंसा कहा हैतत्र अहिंसा सर्वदा सर्वभूतेषु अनभिद्रोह: ।
तीर्थंकर महावीर ने संयमपूर्ण व्यवहार को अहिंसा की संज्ञा दी है-अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो ।
अधिक सूक्ष्म रूप में
अन्यत्र राग-द्वेष के भावों का सर्वथा अभाव ही अहिंसा कहा गया है । भगवान् बुद्ध ने जंगम और स्थावर जीवधारियों का प्राणघात स्वयं न करने, दूसरों से न करवाने तथा इसका अनुमोदन न करने के भाव को अहिंसा माना है
पाणेन हाने न च घातयेय न चानुमन्याहनतं परेसं । सव्वेसु भूतेसु निधाय दण्डं, ये थावरा ये च वसन्ति लोके ॥ ४
एक अंग्रेज दार्शनिक ने अपनी काव्यमयी भाषा में इसे सर्वश्रेष्ठ धर्म माना है -
The best religion is naught
To injure by word, action or thought.
अहिंसा महाव्रत को समुद्र की उपमा दी गई है, तथा अन्य सभी व्रत नदियों के समान भगवती अहिंसा में ही समा जाते हैं
सव्वओ विनईओ, कमेण जह सायरम्मि निवडति । तह भगवई अहिंसा, सव्वे धम्मा सम्मिलति ॥ भगवती अहिंसा का माहात्म्य
भगवती अहिंसा की महिमा का गुणगान भी अनुपम है
एसा सा भगवती अहिंसा जा सा भीयाण विव सरणं । ... अहिंसा तस थावर सव्व भूय - खेमंकरी ॥
अहिंसा संसार रूपी मरुस्थल में अमृत का झरना है, अहिंसा कल्याणकारी माता के समान है
अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः । ७
१. महाभारत, अनुशासन पर्व १७६ । ३
२. पातंजल योगदर्शन २३०
३. दशवैकालिक ८६ ९
४. सुत्तनिपात धम्मिक-सुत्त
५. सम्बोधसन्तरी ५
६. प्रश्नव्याकरण संवर-द्वार १
७. योगसारशास्त्र २०५०
१७३
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रत्नलाल जैन महर्षि पतंजलि ने वैर-त्याग का उपाय अहिंसा को ही कहा है
___ अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर-त्यागः' । अहिंसा को मनोकामनाओं की सिद्धि करने वाली कामधेनु की संज्ञा दी गई है
दीर्घायुः पर रूपमारोग्यश्लाघनीयता।
अहिंसायाः फलं सर्वं किमन्यत्कामदैव सा ॥ गोस्वामी जी के शब्दों में अहिंसा के साधकों-आराधकों के दर्शन मात्र से जन्म-जन्मान्तर के पाप भी नष्ट हो जाते हैं।।
तनकर, मनकर वचनकर देत न काहु दुख ।
तुलसी पातक झरत है, देखत वाको मुख ॥३ आचार्य हेमचन्द्रजी ने समता और अहिंसा का जीवन जीने वाले भगवान् महावीर के पावन चरण-कमलों में नमस्कार किया है
पन्नगे च सुरेन्द्रे च कौशिके पाद-संस्पृशि।
निविशेषमनस्काय श्री वीरस्वामिने नमः ॥ अनेक महोत्सवों पर देवेन्द्र शक्रेन्द्र के द्वारा श्रद्धा-सुमन अर्पित करने पर राग नहीं तथा चण्ड कौशिक आदि पर द्वेष नहीं; ऐसे समदृष्टि वीर भगवान् को नमस्कार ।
गली आर्य समाज, जैन धर्मशाला के पास, हाँसी (हरियाणा)
१. पातंजलयोगदर्शन २।३५ २. योगशास्त्र २।३५ ३. दोहावली तुलसीदास ४. योग-शास्त्र हेमचन्द्राचार्य
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समाधिमरण जीवन से भागना नहीं
रज्जन कुमार जैन दर्शन के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य है आत्मा के सत्य स्वरूप की प्राप्ति । आत्मा के सत्य स्वरूप को पहचानने लिए साधना की आवश्यकता होती है। आत्मा के स्वरूप पर पड़े कर्मों के आवरण को क्षीण करते हुए आगे बढ़ते जाना साधना की यात्रा है। "उवासगदसाओ" में कहा गया है कि व्यक्ति अपने शरीर की परिपालना सिर्फ इसीलिए करता है कि वह उसके धर्मानुष्ठान में सहायक है।' यह निर्विवाद सत्य है कि न कोई सदा युवा रहता है और न कोई अमर है । युवा वृद्धत्व को प्राप्त करता है, स्वस्थ रुग्ण हो जाता है, सबल दुर्बल हो जाता है। रोग और दुर्बलता के कारण व्यक्ति अपनी धार्मिक क्रियाएँ ( सभी तरह की क्रियाएँ ) करने में असमर्थ हो जाता है । इस परिस्थिति में मन में कमजोरी आ जाती है, उत्साह क्षीण होने लगता है, जीवन भार स्वरूप लगने लगता है। ऐसे समय में जैन दर्शन व्यक्ति को कए मार्ग दर्शित करता है। वह मार्ग है "समाधिमरण" या "सल्लेखना"।
समाधिमरण में व्यक्ति शांतचित्त एवं दृढ़तापूर्वक शरीर के संरक्षण का भाव छोड़ देता है। इसके लिए वह आहारादि का त्याग कर निर्विकल्प भाव से एकान्त और पवित्र स्थान में 'आत्म चिन्तन करते हुए मृत्यु के आने का इन्तजार करता है। यही समाधिमरण कहलाता है। इसे सल्लेखना, संथारा, संन्यासमरण, अंतक्रियामरण, मृत्युमहोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। यद्यपि कुछ लोगों ने समाधिमरण को जीवन से भागने वाला व्रत बतलाया है, वस्तुतः ऐसा है नहीं। समाधिमरण जीवन से भागना नहीं अपितु साहसपूर्वक मृत्यु का सामना करना है।
सल्लेखना के स्वरूप पर विचार करने पर इस बात की सत्यता का बोध हो जाता है। प्रसिद्ध ग्रन्थ "रत्नकरंडकश्रावकाचार के अनुसार-समाधिमरण का व्रत भयंकर भिक्ष, अकाल, उपसर्ग आदि की स्थिति में, वृद्धावस्था में असाध्य रोग हो जाने की स्थिति में धर्म की रक्षा के लिये शरीर त्याग कर पूरा किया जाता है।
"राजवातिक" के अनुसार जरा, रोग, इन्द्रिय व शरीर बल की हानि तथा षडावश्यक का नाश होने की स्थिति में समाधिमरण का व्रत ग्रहण किया जाता है। 'सागरधर्मामृत'४ में १. उवासगदसाओ पृ० ५४ २. उपसर्गे दुभिः जरसि रुजायां च निष्प्रतिकारे । धर्मायतनु विमोचन भाहुः सल्लेखना मार्या: ।। ८११
रत्नकरंड श्रावकाचार ३. जरा रोगेन्द्रिय हानि भिरावश्यक परिक्षये ७।२२ राजवातिक ४. देहादिवैकृतैः सम्यग्निभित्तैश्च सुनिश्चते।
मृत्युवाराधनामग्नयतेन्द्ररेन तत्पद ।।८।१०॥ सागरधर्मामृत
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रज्जन कुमार भी कुछ ऐसी ही अवस्थाओं में समाधिमरण ग्रहण करने के विधान का वर्णन मिलता है। ऐसी सुनिश्चित देहादिक विकारों के होने पर अथवा ऐसे कारण उपस्थिति हो जाने पर जिससे यह शरीर नहीं ठहर सकता तो समाधिमरण व्रत ग्रहण करने पर मोक्ष या कैवल्य की प्राप्ति होती है।
समाधिमरण का व्रत बलपूर्वक या किसी के भय से नहीं की जाती है यह व्रत सर्वदा व्यक्ति, साधक, क्षपक (मुनि, व्यक्ति जो समाधिमरण ग्रहण करता है) के स्वतः प्रेरणा पर निर्भर है । वह निश्चय करता है कि समाधिमरण का व्रत ग्रहण करें तथा धर्म की रक्षा के लिये अपने शरीर का त्याग करे । "सर्वार्थसिद्धि" तथा "राजवार्तिक" दोनों ही ग्रंथों में बलपूर्वक समाधिमरण कराने का निषेध किया गया है। इन ग्रंथों के अनुसार समाधिमरण बलात् नहीं कराई जा सकती है । प्रीति के रहने पर ही यह व्रत पूर्ण होता है।'
संयम की रक्षा नहीं होने पर व्यक्ति समाधिमरण का व्रत ग्रहण करता है। लेकिन सिर्फ संयम की रक्षा के लिये ही प्राण त्याग करना समाधिमरण नहीं कहलाएगा। संयम रक्षा के साथ-साथ धर्म की रक्षा भी अनिवार्य है। धर्म की रक्षा से तात्पर्य है- ब्रह्मचर्य के पालन में बाधा, शरीर के सभी अंगों का काम नहीं करना, उपसर्ग, दुभिक्ष आ जाने पर भयंकर कष्ट होना
और इन कष्टों को नहीं सह पाना । इसके अलावा ऐसी स्थिति पैदा हो जाना कि प्राण रक्षा संभव न हो। इन्हीं परिस्थितियों में संयम की रक्षा के लिये प्राण त्याग किया जा सकता है और यह प्राण त्याग ही समाधिमरण कहलाएगा। इसी का समर्थन जैन ग्रंथों और जैन मुनियों के द्वारा संभव है।
समाधिमरण व्रत ग्रहण करने के पहले कषायों को क्षीण करना आवश्यक है। कषायों को क्षीण करने के लिये समाधिमरण व्रत ग्रहण करने वाला साधक अपने शरीर को कृष करता है। शरीर को कृष करने के प्रयास में वह नाना प्रकार के उपायों का प्रयोग करता है। "भगवती आराधना"२ के अनुसार साधक सर्वप्रथम अनशन करके तप करने का समय बढ़ाकर शरीर को कृष करता है। वह एक नियम लेता है और उसी के अनुसार एक दिन उपवास तदुपरांत बृत्ति संख्यान आदि अनशनों को करते हुए शरीर को कृष करता है। साधक नाना प्रकार के रस वजित, अल्प, रूक्ष, आचाम्ल भोजन अपने सामर्थ्य के अनुसार लेकर शरीर को कृष करता है। अगर साधक की शारीरिक शक्ति अभी काफी ज्यादा रहती है तो वह बारह भिक्षु प्रतिमाओं को स्वीकार करके अपने शरीर को कृष करता है।
जैन मुनि, श्रावक, व्रती की दृष्टि में आत्मा ( आत्मिक गुणों) का अधिक महत्त्व है और शरीर का कम । शरीर या भौतिक दृष्टि को गौण और आध्यात्मिक दृष्टि को मुख्य उपादेय माना जाता है। अतः जैन मुनि उपसर्गादि संकटावस्थाओं में जो साधारण जनों को १. न केवलिमिन सेवनं परिगृह्यते कि तहिप्रीत्यर्थोऽपि । यस्यादसत्या प्रौती बलांत सल्लेखना कार्यतो ।।
७।२२।४१ सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक ७।२२।४।५५०।२६ २. भगवती आराधना गाथा २४६-४९
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समाधिमरण जीवन से भागना नहीं
१७७ विचलित कर देने वाली होती है, से अविचलित रहते हुये आत्मीय गुणों की रक्षा करते हुए शरीर का त्याग कर देते हैं । प्रसिद्ध ग्रंथ "सागारधर्मामृत' में कहा गया है कि शरीर नाश होने पर पुनः प्राप्त हो सकता है लेकिन आत्म-धर्म या आत्मीय गुणों का नाश होने पर इसका पुनः प्राप्त होना असंभव है।'' अतः आत्मा और अनात्मा (शरीर) के भेद को समझकर व्यक्ति को समाधिमरण का अवलम्बन लेकर आत्मा से परमात्मा की ओर बढ़ना चाहिये ।
भ्रान्तिवश लोग समाधिमरण को आत्महत्या मानते हैं। इसे जीवन से भागने वाला व्रत बताते हैं। उनके अनुसार समाधिमरण द्वारा अभिप्राय पूर्वक आयु का विनाश किया
है। अतः यह आत्महत्या है। इस प्रकार का दोषारोपण समाधिमरण के मर्म से अनभिज्ञ लोग ही करते हैं। वे हिंसा के लक्षण को नहीं जानते हैं, हिंसा तो वहीं होती है जहाँ प्रमादवश प्राण का नाश किया जाता है। "तत्त्वार्थवार्तिक" में कहा गया है- “राग द्वेष, क्रोधादिक पूर्वक प्राणों का नाश किये जाने पर वह अपघात कहलाता है। लेकिन समाधिमरण में न तो राग है, न द्वेष है और न ही प्राणों के त्याग का अभिप्राय है। साधक जीवन और मरण दोनों के प्रति अनाशक्त रहता है।" २
पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने 'धर्मामृत' ( सागर )२ में कहा है आत्महत्या राग-द्वेष से युक्त होती है तथा राग द्वेष से मुक्त मृत्यु को अपघात से अलग कहा है। एक और विद्वान् आत्महत्या को अहिंसा से जोड़ते हुए अहिंसा का लक्षण बताया है। उनके अनुसार जहाँ राग द्वेष भाव की उत्पत्ति नहीं होती है वहाँ अहिंसा है तथा राग-द्वेष से युक्त भाव पैदा होने पर वहाँ हिंसा होती है। समाधिमरण करने वाला व्यक्ति राग द्वेष के नाश के अभिप्राय से एवं वीतराग भाव पूर्वक अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है। अतः यहाँ आत्मवध का दोष नहीं रह जाता।
जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने घर में अग्नि लगते देखकर यह जान जाता है कि मेरा घर अग्नि के कारण जलने से नहीं बच पाएगा और वह घर में रखी हुई अमूल्य वस्तुओं की रक्षा में तत्पर हो जाता है । उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति इस तथ्य से अवगत होकर कि अब मेरा शरीर अधिक जीर्ण-शीर्ण हो चुका है और यह शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है, वह अपनी इस भौतिक और क्षणिक शरीर की चिंता न करके उस शरीर में रखे हुये अमूल्य आत्मिक गुणों की रक्षा के लिए राग-द्वेष, मोहादि का नाश करता है। इसके अलावा अंतकाल को अमूल्य समझकर समाधिमरण का आश्रय लेकर चिर शान्ति को प्राप्त करता है।
१. नावश्य नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः ।
देहा नष्ट: पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्त दुर्लभः ॥ ८७ ।। सागरधर्मा० २. तत्त्वार्थवार्तिक भाग २, पृ० ७३७ ३. धर्मामृत (सागार) पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ० ३१२ ४. जैनमित्र वर्ष ५७, पृ० १३९ ५. धर्मांमृत (सागार) पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ० ३१२
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रज्जन कुमार
पं० सुखलाल जी संघवी ने समाधिमरण की नैतिकता के ऊपर ध्यान आकृष्ट कराया है ।' उनके अनुसार जैन धर्म लौकिक या आध्यात्मिक दोनों प्रकार की सामान्य स्थितियों में प्राणान्त करने का अधिकार नहीं देता है । लेकिन जब शरीर ( लौकिक ) और आध्यात्मिक सद्गुणों में से किसी एक को चुनने का प्रश्न उपस्थित हो जाए तो देह का त्याग करके भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचाने का निर्णय करना चाहिए। जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर शरीर नाश के द्वारा भी अपने सतीत्व की रक्षा करती है। यदि देह और संयम दोनों की समान भाव से रक्षा हो सके तो दोनों की ही रक्षा परम कर्तव्य है, परन्तु जब एक की ही रक्षा का प्रश्न आए तो सामान्य व्यक्ति शरीर की रक्षा पसन्द करेगा और आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेगा, जबकि समाधिमरण का अधिकारी संयम की रक्षा को महत्त्व देगा । जीवन तो दोनों ही है - दैहिक और आध्यात्मिक । आध्यात्मिक जीवन जीने के लिये प्राणान्त या अनशन की अनुमति है । भयंकर दुष्काल आदि आपत्तियों में शरीर रक्षा के निमित्त से संयम में पतित होने के अवसर आए या अनिवार्य रूप से प्राणान्त करने वाली बीमारियाँ हो जाएँ । इस कारण.. स्वयं को और दूसरों को निरर्थक परेशानी तथा संयम और सद्गुण की रक्षा संभव न हो तो मात्र समभाव की दृष्टि से समाधिमरण ग्रहण करने का विधान है ।
१७८
जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन गीता भी करती है । इसमें कहा गया है कि यदि जीवित रहकर ( आध्यात्मिक सद्गुणों के विनाश के कारण ) अपकीर्ति की सम्भावना हो तो ऐसे जीवन से मरण ही श्रेष्ठ है ! काका कालेलकर ने भी समाधिमरण का समर्थन किया है । " " समाधिमरण" को उन्होंने "इच्छितमरण" कहा है। इच्छितमरण को नैतिक दृष्टि से समर्थन देते हुए उन्होंने कहा है निराश होकर, कायर होकर या डरके मारे शरीर त्याग करना एक प्रकार की हार है, जीवन से भागना है । हम इसे जीवनद्रोह भी कह सकते हैं । लेकिन जब व्यक्ति यह सोचता है कि उसके जीवन का प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता नहीं रही तब वह आत्म साधना के अन्तिम रूप में अगर शरीर त्याग करता है तो यह उसका अधिकार है और प्रशंसनीय भी है ।
समकालीन विचारकों में धर्मानन्द कोसम्बी और महात्मा गाँधी ने भी मनुष्य को प्राणान्त करने के अधिकार का समर्थन नैतिक दृष्टि से किया था। गाँधी जी का कथन है कि जब मनुष्य पापाचार का वेग बलवत्तर हुआ देखता है और आत्महत्या ( इच्छितमरण ) बिना अपने को पाप से नहीं बचा सकता, तब होने वाले पाप से बचने लिये उसे " इच्छित मरण" करने का अधिकार है । कोसम्बी ने भी स्वेच्छामरण का समर्थन किया था और उसकी भूमिका में पं० सुखलाल जी ने कोसम्बी की इच्छा को भी अभिव्यक्त किया था ।
१. दर्शन और चिंतन खण्ड २ पृ०, ५३३-३४
२. अकीर्ति चापि भूतानि कथमिष्यन्ति तेऽण्ययामा |
सम्यावितस्य
चाकीर्तिर्म रणाइतिरिच्यते ।। २३४ ॥ गीता
३. परमखसा मृत्यु- - त्काका कालेलकर पृ० ४३
४. वही, पृ० ४१
५. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग-२ डॉ० सागरमल जैन पृ०
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समाधिमरण जीवन से भागना नहीं
भारतीय नैतिक चिन्तन में जीने की कला के साथ-साथ मृत्यु की कला पर भी व्यापक चर्चा हुई है। मृत्यु की कला को जीने की कला से अधिक महत्त्व दिया गया है । जीने की कला की तुलना विद्यार्थी जीवन के अध्ययन काल से तथा मरने की कला की तुलना परीक्षा के काल से की गई है। इसी कारण भारतीय नैतिक चिन्तकों ने मरण काल में अधिक सजग रहने का निर्देश दिया है क्योंकि यहाँ चूक जाने पर पश्चात्ताप ही होता है । मृत्यु का अवसर ऐसा अवसर है जहाँ व्यक्ति अपने भावी जीवन का चुनाव करता है। जैन परम्परा में खंदक मुनि ने अपने जीवन काल में कितने ही साधक शिष्यों को मुक्ति दिलाई और स्वयं ही अंतिम समय क्रोध के कारण अपनी साधना पथ को बिगाड़ लिया। वैदिक परंपरा में भरत का कथानक भी यही बतलाता है कि इतने महान् साधक की भी मरण बेला में हिरण पर आसक्ति के कारण पशु योनि में जाना पड़ा।'
___ डा० फलचन्द्र जैन बरैया ने भी समाधिमरण का समर्थन किया है। इनके अनुसार समाधिमरण आत्महत्या नहीं आत्मरक्षा है। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये कहते हैं कि जैन मुनियों ने इस शरीर को केवल हाड़-मांस का पिंजरा न समझकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र का दिव्य प्रकाश पुंज माना है। मानव पर्याय को समस्त पर्यायों से मूल्यवान् माना है, क्योंकि इसी पर्याय में दुःख की अंतिम निवृत्ति हो सकती है । अतः इस महान् दुर्लभ मानव शरीर को पाकर इस मरण के दुःख से छुटकारा पाया जा सकता है। मृत्यु कब और किस समय आ जाए इसका कोई निश्चित समय नहीं है। अतः इस पर्याय को सफल बनाने के लिए सर्वदा कठोर व्रत, तप आदि की ओर उन्मुख होना चाहिए और आगमानुसार समाधिमरण व्रत का पालन करते हुए शरीर का त्याग करना चाहिए।
बहुत से विचारकों ने समाधिमरण को आत्महत्या की कोटि में रखकर इस पर आक्षेप लगाए हैं। डॉ० ईश्वरचन्द्र जीवनमुक्त व्यक्ति के स्वेच्छामरण को आत्महत्या नहीं माना है लेकिन समाधिमरण को आत्महत्या की कोटि में रखकर उसे अनैतिक बताया है। इस संबध में उन्होंने तर्क भी दिए हैं। उनका पहला तर्क है कि समाधिमरण लेने वाला जैन मुनि जीवनमुक्त एवं अलौकिक शक्तियों से युक्त नहीं होता है। अपूर्णता की इस स्थिति में अनशन का जो व्रत उसके द्वारा लिया जाता है वह नैतिक नहीं हो सकता । अपने तर्क के दूसरे भाग में समाधिमरण में जो स्वेच्छामृत्यु ग्रहण किया जाता है उसमें यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर का होना बताया है।३ डॉ० सागरमल जैन समाधिमरण का समर्थन करते हुए निम्न तर्क प्रस्तुत किए हैं. ४ डॉ० जैन के अनुसार जीवनमुक्त एवं अलौकि व्यक्ति ही समाधिमरण का अधिकारी नहीं है । वस्तुतः स्वेच्छामरण उस व्यक्ति के लिए आवश्यक नहीं है जो जीवनमुक्त है और जिसकी देहासक्ति समाप्त हो गयी है, वरन् उस व्यक्ति के लिए जिसमें देहासक्ति शेष है।
१. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० ४४३ २. जैन मित्र वर्ष ५७, पृ० १३६ ३. पश्चिमीय आवार बिज्ञान का आलोचनात्मक अध्ययन पृ० २७३ ४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ० ४४४-४५
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रज्जन कुमार
क्योंकि समाधिमरण इसी देहासक्ति को समाप्त करने के लिए है। समाधिमरण एक साधना है, इसीलिए यह जीवनमुक्त के लिए आवश्यक नहीं है । जीवनमुक्त को तो समाधिमरण सहज ही प्राप्त होता है। जहाँ तक इस आक्षेप की बात है कि समाधिमरण में यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर ही अधिक परिलक्षित होता है, उसमें आंशिक सत्यता अवश्य हो सकती है, लेकिन इसका संबंध समाधिमरण के सिद्धांत से नहीं, वरन् उसके वर्तमान में प्रचलित विकृत रूप से है। लेकिन इस आधार पर इसके सैद्धांतिक मूल्य में कोई कमी नहीं आती है। यदि व्यावहारिक जीवन में अनेक व्यक्ति असत्य बोलते हैं तो क्या उससे सत्य के मूल्य पर कोई आँच आती है ? वस्तुतः समाधिमरण के सैद्धांतिक मूल्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
संभवतः आलोचकों द्वारा समाधिमरण को अनैतिक और जीवन से पलायन करने वाला व्रत कहा गया है। यह समाधिमरण और आत्महत्या के मूल अंतर को नहीं समझ पाने के कारण ही है। आत्महत्या जहाँ भावना से ग्रसित रहती है वहीं समाधिमरण में भावना का कोई स्थान नहीं है। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने के कारण प्राण-त्याग करता है। इस तरह वह जीवन से पलायन करता है। आत्महत्या करने वाले की कोई सीमित योग्यता नहीं होती । इसे वृद्ध, जवान, बच्चे, स्त्री, पुरुष सभी ग्रहण करते हैं। लेकिन समाधिमरण में सर्वप्रथम अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं आदि को साधना, तप के द्वारा शांत किया जाता है । भावना पर विजय प्राप्त की जाती है। इसके बाद मृत्यु का सहर्ष स्वागत करते हुए उसे अंगीकार कर लिया जाता है। समाधिमरण करने के लिए योग्यता की भी आवश्यकता होती है। वृद्ध, असाध्यरोग से ग्रस्त तथा अनिवार्य मरण की स्थिति से पीड़ित व्यक्ति ही समाधिमरण ग्रहण कर सकता है। बच्चे, जवान, स्वस्थ व्यक्ति समाधिमरण नहीं ग्रहण कर सकते है। थोड़े से में यही कहा जा सकता है कि मरण की अनिवार्य स्थिति में समाधिमरण ग्रहण किया जाता है। यह जीवन से पलायन नहीं है । वस्तुतः समाधिमरण मृत्यु का साहसपूर्ण एवं अनासक्त भाव से किया गया स्वागत है।
vahinaries
बी० एल०-रिसर्च एसोसिएट c/o पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान :
वाराणसी५
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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान
प्रो० नन्दलाल जैन
भारतीय संस्कृति में धर्म को एक विशेष प्रकार की जीवनपद्धति माना गया है । यही कारण है कि इसमें गर्भ से मृत्युतक, पूर्वजन्म से उत्तर-जन्मतक, प्रातःकाल से दूसरे सूर्योदय तक के सभी भौतिक और आध्यात्मिक विषय चार वर्गों में (कथा पुराण, आचार शास्त्र, लौकिक विद्यायें और गणित ) विभाजित कर संक्षेप से लेकर अतिविस्तार तक प्रतिपादित किये गये हैं । इसका केन्द्रबिन्दु मुख्यतः मानव-जाति है पर मानवेतर समुदायों की चर्चा भी इसमें पर्याप्त मात्रा में है । विश्व में विद्यमान मानव एवं मानवेतर समुदायों की समग्र संज्ञा 'जीव' है । पहले जीव और जीवन शब्दों में विशेष अन्तर नहीं माना जाता था, 'सव्वेसिं जीवनं पियं', पर अब जीव ( Living ) को सादि सान्त ( संसारी ) और जीवन ( Life ) अनादि - अनन्त कहते हैं । हम यहाँ जीव की एक अनिवार्य आवश्यकता आहार के विषय में चर्चा करेंगे क्योंकि इसके बिना वह संसार में अधिक दिनों तक नहीं टिक सकता । धर्म और अध्यात्म को भी विकसित नहीं कर सकता । संसार की कष्टमयता के वर्णन के बावजूद भी प्रत्येक प्राणी उसके बाहर नहीं जाना चाहता । शास्त्रों में जीव में मृत्यु के प्रति निर्भयता का दृष्टिकोण विकसित किया गया है, पर सामान्य मानव प्रकृति अभी भी मृत्यु को टालना ही चाहती है । इसलिये वह उसके कारणों पर विजय प्राप्त कर अतिजीविता को प्रश्रय देता लगता है । ये प्रयत्न इस बात के प्रतीक हैं कि वह संसार और उसके परिवेश को दुःखमय मानने की शास्त्रीय शिक्षा को तात्त्विक महत्त्व नहीं देता दिखता । लगता है, उसे यहाँ सुख अधिक और दुःख कम प्रतीत होते हैं । वह अंतस् से स्वामी सत्यभक्त की ऐसी मान्यता से अधिक प्रभावित लगता है । "
आहार की दृष्टि से जीवों की दो श्रेणियाँ माननी चाहिये : प्रथम श्रेणी में सभी प्रकार की वनस्पति आते हैं । ये अपना आहार स्वयं बनाते हैं (स्वयं पोषी ) । दूसरी श्रेणी में त्रसजीव आते हैं । ये अन्य जीवों को अपना आहार बनाते हैं (परपोषी । आहार सभी जीवों के अस्तित्व एवं अतिजीविता के लिये अनिवार्य आवश्यकता है । इसके विषय में जैन शास्त्रों में पर्याप्त विवरण मिलता है । वहाँ इसे आहार वर्गणा, आहार पर्याप्ति, आहारक शरीर, आहार प्रत्याख्यान, आहार परीषह, आहार दान आदि के रूप में सहचरित किया गया है । ये पद आहार के विभिन्न रूपों व फलों को प्रकट करते हैं। प्रारंभ में, समाज के मार्ग दर्शक साधु एवं आचार्य होते थे । वे प्रायः साधुधर्म का ही उपदेश करते थे । इसीलिये प्राचीन शास्त्रों में साधुआचार की ही विशेष चर्चा पाई जाती है । आचारांग, दशवैकालिक, मूलाचार, भगवती आराधना आदि श्रावकाचार के विषय में मौन हैं। तथापि अनेक आचार्यों ने श्रावकधर्म पर ध्यान दिया है। उन्होंने उसे द्वादशांगी में उपासकदशा नामक सप्तम अंग बताया है । यह स्पष्ट है कि साधुओं की तुलना में श्रावकों की स्थिति द्वितीय है, अतः उनसे सम्बन्धित उप
१. स्वामी सत्यभक्त, संगम, मई १९८७
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प्रो० नन्दलाल जैन
देशों को अमृत चन्दसूरि' तक ने निग्रहस्थानी माना है । फिर भी, कुन्दकुंद ने चरित्रप्राभृत में ६ गाथाओं में श्रावकों के चारित्र का ११ प्रतिमाओं और १२ व्रतों के रूप में उल्लेख किया है । उसमें कुछ परिवर्धन करते हुए उमास्वामी ' ने तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय के १८ सूत्रों में इसका वर्णन किया है । आचार्य समंतभद्र ने 'न धर्मो धार्मिक विना' के आधार पर श्रावक पर सर्वप्रथम ग्रन्थ 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार लिखा । उसके बाद अनेक आचार्यों ने इस विषय पर ग्रन्थ लिखे हैं । इन ग्रंथों की तुलना में साधु आचार पर कम ही ग्रन्थ लिखे गये हैं ( सारिणी १ ) । मूलाचार और भगवती आराधना के बाद
४
सारिणी १ श्रावकाचार के प्रमुख जैन ग्रन्थ
क्रमांक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८
९.
१०.
११.
१२.
आचार्य
कुन्दकुंद उमास्वामी
समन्तभद्र
आचार्य जिनसेन
सोमदेव
अमृतचन्द्रसूरि अमितगति-२
वसुनन्दि पद्मनन्दि
पं० आशाधर
पं० दौलतराम कासलीवाल
आ० कुंथूसागर
समय
१- २री सदी
२- ३री सदी ५वीं सदी
८वीं सदी
१०वीं सदी
१०वीं सदी
१०-११वीं सदी
११वीं सदी
११वीं सदी
१२- १३वीं सदी १६९२-१७७२ २०वीं सदी
ग्रन्थनाम
चारित्रप्राभृत तत्त्वार्थ सूत्र
रत्नकरंड श्रावकाचार
आदिपुराण
उपासकाध्ययन
पुरुषार्थसिद्धयुपाय अमितगतिश्रावकाचार
वसुनन्दिश्रावकाचार पद्मनन्दिपंचविंशतिका
१३ वीं सदी का अनगार धर्मामृत ही आता है । इससे यह स्पष्ट है कि विभिन्न युगों के आचार्यों ने श्रावकों के आचार की महत्ता स्वीकार की है | श्रावक वर्ग न केवल साधुओं का भौतिक दृष्टि से संरक्षक है, अपितु वही श्रमणवर्ग का आधार है क्योंकि उत्तम श्रावक ही उत्तम साधु बनते हैं । श्रावक श्रमणधर्म की प्रतिष्ठा के प्रहरी एवं रक्षक हैं । वर्तमान श्रावक भूतकालीन परम्परा से अनुप्राणित होता है और भविष्य की परम्परा को विकसित करता है ।" अतः आचार्यों ने उनके विषय में ध्यान दिया, यह न केवल महत्त्वपूर्ण है, अपितु प्रशंसनीय भी है ।
सागारधर्मामृत जैनक्रिया कोष श्रावकधर्म प्रदीप
१. शास्त्री, पं० कैलाशचंद्र, सागार धर्मामृत (सं०), भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७८, पृ० ४० २. कुरूंदकुद, अष्टपाहुड, दि० जैन संस्थान, महावीर जी, १९६७, पृ० ६९-७७
३. उमास्वामी; तत्त्वार्थ सूत्र, वर्णी ग्रन्थ माला, काशी, १९४९, पृ० ३३७-५८
४. समन्तभद्र रत्नकरंड श्रावकाचार, एस० एल० जैन ट्रस्ट, भेलसा, १९५१
५. जैन, डा० सागरमल; श्रावक धर्म की प्रासंगिकता का प्रश्न, पा० वि०, १९८३, पृ० १२
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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान
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आहार को परिभाषा
श्रावक या मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण अनेक कारकों से होता है : परम्परा, संस्कार, मनोविज्ञान, परिवेश, समाज, आहार-विहार आदि। इनमें आहार प्रमुख है। "जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन", "जैसा पीवे पानी, वैसी बोले बानी" आदि लोकोक्तियाँ इसी तथ्य को प्रकट करती हैं । यद्यपि ये देशकाल सापेक्ष हैं, फिर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ।' धार्मिक दृष्टि से पल्लवित कर्मवाद के अनुसार आहार शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बंधन, संघात, संस्थान एवं संहनन नामकर्म के उदय में निमित्त होता है। यह शरीरान्तर ग्रहण करने हेतु एकाधिक समय की विग्रहगति में भी होता है। वस्तुतः आहार शब्द की अवधारणा हैं आ --समन्तात-चारों ओर या परिवेश से, हरति-गृह्णाति-ग्रहण किये जाने वाले द्रव्यों के आधार पर स्थापित है। पूज्यपाद और अकलंक ने तीन स्थूल शरीर और उनको चालित करने वाली ऊर्जाओं ( सात पर्याप्तियों) के निर्माण के लिए कारणभूत पुद्गल वर्ग
ल, द्रव, गैस व ठोस द्रव्य ) के अन्तर्ग्रहण को आहार कहा है। फलतः वर्तमान में आहार या भोजन के रूप में ग्रहण किये जाने वाले सभी द्रव्य तो आहार हैं ही। इसके अतिरिक्त, जैनमत के अनुसार, ज्ञान, दर्शन आदि कर्म और हास्य, दुःख, शोक, मन, घृणा, लिंग, इच्छा, अनिच्छा आदि नोकर्म भी ऊर्जात्मक सूक्ष्म द्रव्य हैं । अतः इनका भी परिवेश से अनाग्रहण आहार कहलाता है। इस दृष्टि से जैनों की 'आहार' शब्द की परिभाषा, आज की वैज्ञानिक परिभाषा से, पर्याप्त व्यापक मानना चाहिये। इसमें भौतिक द्रव्यों के साथ भावनात्मक तत्त्वों का अन्तर्ग्रहण भी समाहित किया गया है। इसलिए आहार के शारीरिक प्रभावों के साथ मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी, जैन शास्त्रों में प्राचीनकाल से ही माने जाते रहे हैं । आहार विशेषज्ञों ने आहार के भावनात्मक प्रभावों से सह-संबंधन की पुष्टि पिछली सदी के अन्तिम दशक में ही कर पाये हैं। आहार की आवश्यकता लाभ या उपयोग : वैज्ञानिक परिभाषा
जैन आचार्यों ने प्राणियों के लिये आहार की आवश्यकता प्रतिपादित करने हेतु अपने निरीक्षणों को निरूपित किया है। उत्तराध्ययन में बताया है कि आहार के अभाव में शरीर का जंघा तृण के समान दुर्बल हो जाता है, धमनियां स्पष्ट नजर आने लगती हैं। भूखे रहने पर प्राणी की क्रिया क्षमता घट जाती है । मूलाचार के आचार्य ने देखा कि आहार की आवश्यकता दो कारणों से होती है : (i) भौतिक और ( ii ) आध्यात्मिक । वस्तुतः भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति से ही आध्यात्मिक लक्ष्य सधता है, "शरीरमाद्यम् खलु धर्म साधनं"। इन्हें निम्न प्रकार सारिणीबद्ध किया जा सकता है१. जैन, डा० नेमीचंद्र (सं०); तीर्थंकर, जनवरी १९८७ २. भट, अकलंकः तत्त्वार्थ राजवातिक, खं० २, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९५७, पृ० ५७६ ३. वही; खण्ड १, पृ० १४० ४. उत्तराध्ययन, मन्मति ज्ञानपीट, आगरा १९७२, पृ० ११ ५. आचार्य वट्टके र; मूलाचार, भारतीय ज्ञानपीठ १९८४, पृ० ३६९-७१
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प्रो० नन्दलाल जैन
सारिणी २ : आहार के शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक लाभ ( अ ) भौतिक लाभ : शास्त्रीय दृष्टिकोण वैज्ञानिक दृष्टिकोण
(i) शरीर में बल ( ऊर्जा ) बढ़ता है। (i) आहार शरीर की मूलभूत एवं विशिष्ट (ii) जीवन का आयुष्य बढ़ता है। क्रियाओं में सहायक होता है। (iii) शरीर-तन्त्र पुष्ट ( कार्यक्षम ) (ii) यह शरीर कोशिकाओं के विकास, __ रहता है।
___संरक्षण व पुनर्जनन में सहायक होता है । (iv) शरीर की कान्ति बढ़ती है। (iii) यह रोग प्रतीकार क्षमता देता है। (v) जीवन सुस्वादु होता है।
(iv) शरीर की कार्य प्रणाली को संतुलित (vi) भूख की प्राकृतिक अभिलाषा शांत एवं नियन्त्रित करता है। __ होती है।
(v) यह शारीरिक क्रियाओं को आवश्यक (vii) दशों प्राण संघारित रहते हैं।
ऊर्जा प्रदान करता है। (viii) आहार औषध का कार्य भी
करता है। (ix) इससे संयमपूर्वक चलन-फिरन
क्रिया होती रहती है। (x) इससे तप और ध्यान में सहा
यता मिलती है। ( ब ) आध्यात्मिक लाभ
(i) यह चरम आध्यात्मिक लक्ष्य ( मोक्ष ) प्राप्ति का साधन है। ( ii ) यह धर्मपालन के लिए आवश्यक है। (ii) इससे ज्ञान प्राप्ति में सहायता मिलती है।
आशाधर' के अनुसार शरीर की स्थिति के लिए आहार आवश्यक है । स्थानांग में आहार से मनोज्ञता, रसमयता, पोषण, बल, उद्दीपन और उत्तेजन की बात कही है। शारीरिक बल पुष्टि, कांति और रोगप्रतिकार क्षमता का ही प्रतीक है। स्वामिकुमार तो क्षुधा और तृषा को प्राकृतिक व्याधि ही मानते हैं। उनके अनुसार, आहार से प्राणधारण और शास्त्राभ्यास दोनों संभावित हैं। कुन्दकुंद भी यह मानते हैं कि आहार ही मांस, रुधिर आदि में परिणत होता है। फलतः यह स्पष्ट है कि आहार के शास्त्रीय उद्देश्य वे ही हैं जिन्हें हम प्रतिदिन अनुभव करते हैं। इन्हें यदि आधुनिक भाषा में कहा जावे तो यह कह सकते हैं कि शरीरतन्त्र में सामान्यतः दो प्रकार की क्रियाएँ होती हैं : सामान्य एवं विशेष । सामान्य क्रियाओं में श्वासोच्छवास या प्राणधारण की क्रिया, पाचन-क्रिया आदि तथा विशेष क्रियाओं में आजीविका सम्बन्धी कार्य, लिखना-पढ़ना, श्रम, तप, साधना आदि समाहित हैं। आज १. आशाधर; अनागार धर्मामृत, वही १९७७, पृ० ४९५ २. - ठाणं, जैन विश्वभारती, लाडनूं ३. स्गमि, कुमार; स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, रायचंद्र आश्रम, अगास १९०८, पृ० २६४ ४. कुदकुद; समयसार, सी० जे० पब्लिशिंग हाउस लखनऊ, १९३०, पृ० १०९
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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान
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के आहार - विज्ञानियों ने जीव शरीर की कोशिकीय संरचना और क्रियाविधि के आधार पर सारिणी २ में दिये गये आहार के तीन अतिरिक्त उद्देश्य भी बताये हैं । इनका उल्लेख शास्त्रों में प्रत्यक्षतः नहीं पाया जाता। वैज्ञानिक शरीर की स्थिति के अतिरिक्त विकास, सुधार व पुनर्जन्म हेतु भी आहार को आवश्यक मानते हैं । यह तथ्य मानव की गर्भावस्था से बालक, कुमार, युवा एवं प्रौढ़ावस्था के निरन्तर विकासमान रूप तथा रुग्णता या कुपोषण समय आहार की गुणवत्ता के परिवर्तन से होने वाले लाभ से स्पष्ट होता है ।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही वैज्ञानिकों ने पाया कि कोई कार्य, गति या प्रक्रिया भीतरी या बाहरी ऊर्जा के बिना नहीं हो सकती । शरीर-संबंधित उपरोक्त कार्य भी ऊर्जा के बिना नहीं होते । इसलिये यह सोचना सहज है कि आहार के विभिन्न अवयवों से शरीर के विभिन्न कार्यों के लिये ऊर्जा मिलती है । यह ऊर्जा प्रदाय उसके चयापचय में होने वाले जीवरासायनिक, शरीर क्रियात्मक एवं रासायनिक परिवर्तनों द्वारा होता है । यह ज्ञात हुआ है कि सामान्य व्यक्ति के लिये उपरोक्त लक्ष्यों की पूर्ति के लिये लगभग दो हजार कैलोरी ऊर्जा की आवश्यकता होती है । अतः हमारे आहार का एक लक्ष्य यह भी है कि उसके अन्तर्ग्रहण एवं चयापचय से समुचित मात्रा में ऊर्जा प्राप्त हो। इस प्रकार, वैज्ञानिक दृष्टि से आहार ऐसे पदार्थों या द्रव्यों का अन्तर्ग्रहण है जिनके पाचन से शरीर की सामान्य विशेष क्रियाओं के लिये ऊर्जा मिलती रहे । यह परिभाषा शास्त्रीय परिभाषा का विस्तृत एवं वैज्ञानिक रूप है । इसमें गुणात्मकता के साथ परिमाणात्मक अंश भी इस सदी में समाहित हुआ है ।
आहार के भेद-प्रभेद
जैन शास्त्रों में आहार को दो आधारों पर वर्गीकृत किया गया है : (१) आहार में प्रयुक्त घटक और ( २ ) आहार के अन्तर्ग्रहण की विधि । प्रथम प्रकार के वर्गीकरण को सारिणी ३ में दिया गया है । इससे प्रकट होता है कि मुख्यतः आहार के चार घटक माने गये हैं जिनमें कहीं कुछ नाम व अर्थ में अन्तर है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में आहार के केवल दो ही घटक माने जाते थे । भक्त (ठोस खाद्य पदार्थ) और पान ( तरल खाद्य पदार्थ ) या पान और भोजन ( भक्तपान, पान - भोजन ) । यह शब्द भी कब - कैसे हुआ, यह अन्वेषणीय है । प्रज्ञापनार में सजीव (पृथ्वी, जलदि), निर्जीव ( खनिज, लवणादि ) एवं मिश्र प्रकार के त्रिघटकी आहार बताये गये हैं । इससे प्रतीत होता है कि आहार के घटकगत चार या उससे अधिक भेद उत्तरवर्ती हैं। डा० मेहता ने आवश्यकसूत्र का उद्धरण देते हुए औषध एवं भेषज को भी आहार के अन्तर्गत समाविष्ट करने का सुझाव दिया है । इनमें अशन और खाद्य एकार्थक लगते हैं । पर दो पृथक् शब्दों से ऐसा लगता है कि अशन से पक्वान्न ( ओदनादि ) का और खाद्य से कच्चे ही खाये जाने वाले पदार्थों ( खजूर, शर्करा ) का बोध होता है । पर एकाधिक स्थान में पुआ, लड्डू आदि को भी इसके उदाहरण के रूप में दिया गया है । अतः अशन और खाद्य के अर्थों में स्पष्टता अपेक्षित है । इसी प्रकार अशन, खाद्य और भक्ष्य के अर्थ भी स्पष्टता
१. उत्तराध्ययन, पृ० १५७
२. आर्यश्याम, प्रज्ञापनासूत्र
३. डा० मेहता, मोहन लाल; जैन आचार, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, काशी १९६६, पृ० १६६
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प्रो० नन्दलाल जैन
चाहते हैं । पान, पेय और पानक भी स्पष्ट तो होने ही चाहिये । आशाधर' ने लेप को भी आहार माना है और तैल मर्दन का उदाहरण दिया है। इसमें तेल का किंचित् अन्तग्रहण तो होता ही हैं । बृहत्कल्पभाष्य में साधुओं के लिए तीन आहारों का वर्णन किया है जो स्नेह और रसविहीन आहार के द्योतक हैं। मूलाचार में चार और छह दोनों प्रकार के घटक बताये गये हैं । ऐसे ही कुछ वर्णनों से इसे संग्रह ग्रन्थ कहा जाता है ।
सारिणी ३. आहार के घटकगत भेद
दशवैकालिक
१. अशन
२. पान
३.
खाद्य
४. स्वाद्य
५.
६.
७.
८.
मूलाचार रत्नकरंड
१ २
श्रावकाचार
अशन अशन
पान
पान
खाद्य
खाद्य
स्वाद्य
भक्ष्य
लेह्य
पेय
खाद्य
स्वाद्य
लेह्य
पेय
सागार
धर्मामृत
खाद्य
स्वाद्य
पेय
लेप
अन०
धर्मामृत
अशन
पान
खाद्य
स्वाद्य
उदाहरण
'अशन' कोटि का विस्तृत निरूपण देखने में उपशमन है । इस कोटि में मुख्यतः अन्न या धान्य
नहीं आया है । इसका उद्देश्य क्षुधालिया जा सकता है । यद्यपि श्रुतसागर धान्य के ७ या १८ भेद बताये हैं पर पूर्ववर्ती साहित्य' में २४ प्रकार के धान्यों का उल्लेख है । इनमें वर्तमान में इक्षु और धनिया को धान्य नहीं माना जाता । इसीलिए श्रुतसागर की सूची में भी इनका नाम नहीं है । प्राचीन साहित्य " में पेय पदार्थों के सामान्यतः तीन भेद माने गये हैं पर आशाधर ने सभी को पानक मानकर उसके छह भेद बताये हैं। ( सारिणी ४ ) । व्रतविधानसंग्रह में 'कांजी' जाति को पृथक् गिनाया गया है पर उसे 'पानक' में ही समाहित मानना चाहिए। यह स्पष्ट हैं कि आशाधर के छह पानक पूर्ववर्ती आचार्यो .से नाम व अर्थ में कुछ भिन्न पड़ते हैं । अशन की तुलना में पानकों को प्राणानुग्रही माना जाता है । सारिणी ४ ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है ।
ओदनादि
जल, दुग्धादि
खजूर, लड्डू पान, इलायची मंडकादि लप्सी, , हलुआ जल, दुग्ध तैलमर्दन
१. पंडित, आशाधर
२. मूलाचार १, पृ० ३६१ एवं भाग २, पृ० ६६
३. सेन, मधु; कल्चरल स्टडी ऑफ निशीथचूर्णि, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, काशी, १९७५, पृ० १२५ ४. श्रुतसागर सूरि; तत्त्वार्थवृत्ति, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९४९, पृ० २५१
५. मुनि नथमल (सं० ); दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन, तेरापंथी भ्रातृसभा,
१९६७, पृ० २०७
६. अष्टपाहुड पृ० ३३३
७. आचार्य, शिवकोटि; भगवती आराधना, जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर १९१८, पृ० ४९८
कलकत्ता
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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञानं
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सारिणी ४ अशन/धान्य तधा पानकों के विविध रूप निशीथचूणि श्रुतसागर
षट्पानक
षट्पानक (सा० धर्मामृत)
(भ० आ०) (अ) कार्बोहाइड्रेटी १. गेहँ
१ गेहूँ १ गेहूँ १. धन (दही आदि) स्वच्छ (नींबू रस) २. शालि २ शालि २ शालि २. तरल (अम्ल रस) बहल (फल रस) । ३. व्रीहि
३. लेपि
लेपि (दही) ४. षष्टिक ३ यव ३ यव ४. अलेपि
अलेपि - ५. यव ४ कोद्रव ५. ससिस्थ
ससिक्थ (दूध) ६. कोद्रव ५ कंगु (धान ६. असिक्थ
असिक्थ (मांड) विशेष) ७. कंगु
६ रालक, ८. रालक
७ मठवणक
(ज्वार) (ब) प्रोटीनी
तीन-पेय ९. मूंग ४. मूंग ८ मूंग १ पान
(सुरायें, मद्य) १०. उड़द
५. उड़द ९ उड़द २ पानीय ११. चना ६. चना १० चणक ३ पानक
(फल रसादि) १२. अरहर
७. अरहर ११ अरहर १०. राजमा १४. अतीसंद (मटर)
१२ राजमा (रमासी) १५. मसूर
१३ मकुष्ट (वनमूंग) १६. कालोय (मटर) १६. अगुक (सेम)
१४ सिंवा (सेम) १८. निष्याव (मखनास) १५ की नाश (मसूर)
१९. कुलथी (बटरा) १६ कुलथी (बटरा) (स) वसीय २०. तिल
१७ सर्षप २१. अलसी
१८ तिल २२. त्रिपुड द) विविध २३. इक्षु . ३४. धनियाँ
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प्रो० नन्दलाल जैन अन्तर्गहण-विधि पर आधारित भेद
भगवतीसूत्र और प्रज्ञापना में अन्तर्ग्रहण की विधि पर आधारित आहार के तीन भेद बताये गए हैं-ओजाहार, रोमाहार और कवलाहार। इसके विपर्यास में वीरसेन ने धवला' में छह आहार बताये हैं : ऊष्मा या ओजाहार, लेप या लेप्याहार, कवलाहार, मानसाहार, कर्माहार, नोकर्माहार। वहाँ यह भी बताया गया है कि विग्रहगति-समापन्न जीव, समदघातगत केवली और सिद्ध अनाहारक होते हैं। लोढ़ा ने वनस्पतियों के प्रकरण में ओजाहार को स्वांगीकरण (एसिमिलेशन) कहा है, यह त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है । इस शब्द का अर्थ अन्तर्ग्रहण के बाद होने वाली क्रिया से लिया जाता है जिसे अन्नपाचन कह सकते हैं। वस्तुतः इसे शोषण या एबसोर्शन मानना चाहिए जो बाहरी या भीतरी-दोनों पृष्ठ पर हो सकता है। हमारे शरीर या वनस्पतियों द्वारा सौर ऊष्मा एवं वायु का पृष्ठीय अवशोषण इसका उदाहरण है। लेप्याहार को भी इसी का एक रूप माना जा सकता है। रोमाहार को विसरण या परासरण प्रक्रिया कह सकते हैं। यह केवल वनस्पतियों में ही नहीं, शरीर-कोशिकाओं में निरंतर होता रहता है। कबलाहार तो स्पष्ट ही मुख से लिये जाने वाले ठोस एवं तरल पदार्थ हैं। ये तीनों प्रकार के आहार सभी जीवों के लिये सामान्य हैं। जब भावों और संवेगों का प्रभाव भी जीवों में देखा गया तब विभिन्न कर्म, नोकर्म एवं मनोवेगों को भी आहार की श्रेणी में समाहित किया गया। यह सचमुच ही आश्चर्य है कि भारत में इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का अवलोकन नवीं सदी में ही कर लिया गया था। ये तीनों ही सूक्ष्म या ऊर्जात्मक पुद्गल हैं। अंतरंग या बहिरंग परिवेश से रोमाहार द्वारा इनका अन्तर्ग्रहण होता है और अनरूपी परिणाम होता है। फलतः वीरसेन के अन्तिम तीन आहार सामग्री-विशेष को द्योतित करते हैं, विधि-विशेष को नहीं। अतः अन्तर्ग्रहण विधि पर आधारित आहार तीन प्रकार का ही उपयुक्त मानना चाहिए। घटक-गत भेदों का वैज्ञानिक समीक्षण आधुनिक वैज्ञानिक मान्यतानुसार, आहार के छह प्रमुख घटक होते हैं : नाम
उदाहरण
ऊर्जा १. कार्बोहाइड्रेटी या शर्करामय पदार्थ : गेहूँ, चावल, यव, ज्वार, कोदों, कंगु २. वसीय पदार्थ
: सर्षप, तिल, अलसी ३. प्रोटीनी पदार्थ
: माष, मूंग, चना, अरहर, मटर ४. खनिज पदार्थ
: फल-रस, शाक-भाजी ५. विटामिन-हार्मोनी पदार्थ
: गाजर, संतरा, आंवला ६. जल
: शोधित, छनित जल
१. स्वामी वीरसेन; धवला खंड १-१, एस० एल० ट्रस्ट, अमरावती १९३९, पृ० ४०९ २. लोढ़ा, कन्हैयालाल; मरुधर केसरी अभि० ग्रन्थ, १९६८, पृ० १३७-८४ ३. पाइक, आर० एल० एवं ब्राउन, मिरटिल; न्यूटीशन, बइली-ईस्टर्न, दिल्ली १९७०, अध्याय २-४
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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान
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वैज्ञानिक विभिन्न प्राकृतिक खाद्य पदार्थों को उनके प्रमुख घटक के आधार पर वर्गीकृत करते हैं क्योंकि उनमें इसके अतिरिक्त अन्य उपयोगी घटक भी अल्पमात्रा में पाये जाते हैं । ये अल्पमात्रिक घटक खाद्यों की सुपाच्यता, पार्श्वप्रभावरहितता तथा ऊर्जाप्रभाव को नियन्त्रित करते हैं । यदि हम शास्त्रीय विवरण का इस आधार पर अध्ययन करें, तो प्रतीत होता है कि अशनादि घटक ( अशनः ठोस; पान: द्रव; खाद्यः फल- मेवे; स्वाद्यः विटामिनादि ) विशिष्ट आहार वर्ग को निरूपित करते हैं । उस समय रासायनिक विश्लेषण के आधार पर तो वर्गीकरण सम्भव नहीं था, अतः केवल अवस्था ( ठोस, द्रव एवम् गैसीय अवस्था की धारणा भी नगण्य थी ) के आधार पर ही वर्गीकरण सम्भव था । अशन को धान्य जातिक मानने पर यह देखा जाता है कि उसके 7/18/24 भेदों में वर्तमान वैज्ञानिकों द्वारा मान्य तीन प्रमुख कोटियाँ समाहित हैं । पान को द्रव आहार मानने पर उसमें जल' फल- रस, द्राक्षा-जल, मांड, दूध, दही आदि समाहित होते हैं। इनमें भी वैज्ञानिकों द्वारा मान्य तीनों प्रमुख व अन्य कोटियों के पदार्थ हैं । मांड, द्राक्षाजल कार्बोहाइड्रेट हैं, दही प्रोटीन /वसीय है, नीबू, फल - रस विटामिन खनिज तत्त्वी हैं । द्रवाहार से शरीर क्रियात्मक परिवहन एवं सन्तुलन बना रहता है । वैज्ञानिक जल को छोड़कर अन्य पानकों को उनके प्रमुख घटकों के आधार पर ही वर्गीकृत करते हैं । द्रव घटकों में प्रमुख कोटियों के अतिरिक्त दो अन्य कोटियाँ भी पायी जाती हैं ।
खाद्य घटक के अंतर्गत दिये गये उदाहरणों से इसमें मुख्यतः फल - मेवे और एकाधिक घटकों के मिश्रण से बने खाद्य आते हैं - पुआ, लड्डू, खजूर आदि । स्वाद्य कोटि के उदाहरणों से स्वनिज, ऐल्केलायड तथा अल्पमात्रिक घटकी पदार्थों ( पान, इलायची, लौंग, कालीमिर्च, औषध आदि ) की सूचना मिलती है । इसे वैज्ञानिकों की उपरोक्त ४-५ कोटियों में रखा जा सकता है ।
उपरोक्त समीक्षण से यह स्पष्ट है कि शास्त्रीय विवरण में आहार सम्बन्धी घटकगण वर्गीकरण व्यापक तो है, पर यह पर्याप्त स्थूल, मिश्रित और अस्पष्ट है । इसे अधिक यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है । फिर भी इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि जैन शास्त्रों में वर्णित आहार - विज्ञान में वर्तमान में मान्य सभी घटकों को समाहित करने वाले खाद्य पदार्थ सम्मिलित किये गये हैं । मधुसेन' का यह मत सही प्रतीत होता है कि शास्त्रीय युग में सैद्धान्तिक दृष्टि से आहार वर्तमान पौष्टिकता के सभी तत्त्व परोक्षतः समाहित थे ।
उपरोक्त घटकों के उदाहरणों से एक मनोरंजक तथ्य सामने आता है। इनमें वनस्पतिज शाकभाजी सामान्यतः समाहित नहीं हैं । वे किस कोटि में रखी जावें, यह स्पष्ट नहीं है तथापि शास्त्रों में उनकी भक्ष्यता की दशाओं पर विचार किया गया है ।
आहार का काल
आशाधर ने बताया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल ( ऋतुएँ, दिन ), भाव एवं शरीर के पाचन सामर्थ्य की समीक्षा कर शारीरिक एवम् मानसिक स्वास्थ्य के लिए भोजन करना १. डा० मधुसेन, कञ्चरल स्टडी ऑफ निशीय चूर्णि पा० वि० शोध संस्थान वाराणसी, पृ० १२५ २. अनगार धर्मामृत, पृ० ४०९
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प्रो० नन्दलाल जैन चाहिए। यह तथ्य जितना साधुओं पर लागू होता है, उतना ही सामान्य जनों पर भी। निशीथचूणि (५९०-६९० ई० ) में बताया गया है कि एक ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में आहार-सम्बन्धी आदतें और परम्परायें भिन्न-भिन्न होती हैं। जांगल, अ-जांगल एवं साधारमा क्षेत्र विशेषों के कारण मानव प्रकृति में विशिष्ट प्रकार से त्रिदोषों का समवाय होता है। यह आहार के घटकों का संकेत या नियन्त्रण करता है। विभिन्न ऋतुयें भी आहार की प्रकृति और परिमाण को परिवर्ती बनाती हैं। शरद-वसन्त ऋतु में रूक्ष अन्नपान, ग्रीष्म व वर्षा में शीत अन्नपान, हेमन्त एवं शिशिर ऋतु में स्निग्ध एवं उष्ण आहार लेना चाहिए । उग्रादित्य ने तो दिन के विभिन्न भागों को ही छह ऋतुओं में वर्गीकृत कर तदनुसार खानपान का सुझाव दिया है :
पूर्वाह्न : वसन्त; मध्याह्नः ग्रीष्म; अपराह्नः वर्षा;
आद्यरात्रिः प्रावृट्; मध्यरात्रिः शरद; प्रत्यूषः हेमन्त भगवतीआराधना में कहा गया है कि ऋतु आदि की अनुरूपता के साथ क्षेत्र-विशेष की परम्परा भी आहार-काल व प्रमाण को प्रभावित करती है। मूलाचार तो आहार के व्याधिशामक मानता है। यही नहीं, आहार को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उत्साहवर्धक ए
r: सन्तष्टिकारक भी होना चाहिए। यह प्रक्रिया आहार द्रव्यों और उनके पका की विधि पर भी निर्भर करती है। साधु तो ४६ दोषों से रहित शुद्ध भोजन, विकृति-रहि पर द्रव-द्रव्य युक्त विद्ध भोजन एवं उबला हुआ प्राकृतिक भोजन कर आनंदानुभूति करता। पर सामान्य जन इसके विपरीत भी योग्यायोग्य विचार कर भोजन करते हैं
आयुर्वेदिक दृष्टि से उग्रादित्य का मत है कि भोजन काल तब मानना चाहिए (१) मल-मूत्र-विसर्जन ठीक से हुआ हो (२) अपानवायु निसरित हो चुकी हो (ब शरीर हल्का लगे और इन्द्रियाँ प्रसन्न हों (४) जठराग्नि उद्दीप्त हो रही हो और भूख ला रही हो (५) हृदय स्वस्थ हो और त्रिदोष साम्य में हो। नेमीचन्द्र चक्रवर्ती ने भी मम भावनात्मक क्षुधानुभूति, असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा, आहार-दर्शन से होने वाली र एवं प्रवृत्ति को आहारकाल बताया है। आशाधर ने सूर्योदय से पैंतालिस मिनट बाद से ले सूर्यास्त से पौन घण्टे पहले तक के काल को सामान्य जनों के लिए आहार काल बताया। इसके विपर्यास में, मूलाचार में साधुओं के लिए सूर्योदय से सवा घण्टे बाद तथा सूर्यास्त सवा घण्टे पूर्व के लगभग १० घण्टे के मध्य काल को आहार काल बताया गया है। उद
रुष दिन में एक बार और मध्यम पुरुष उपरोक्त समय सीमा में दिन में दो बार आहार हैं। रात्रिभोजन तो जैनों में स्वीकृत ही नहीं है। इस प्रकार सामान्य मनुष्य का लगा आधा जीवन उपवास में ही बीतता है।
१. उग्रादित्य, आचार्य; कल्याण कारक, सखाराम नेमचंद्र ग्रन्थमाला, शोलापुर १९४० पृ० ५६ । २. भगवती आराधना, पृ०६०७ ३. मूलाचार, पृ० ३७४ ४. कल्याणकारक, पृ० ५५
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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान
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मूलाचार और उत्तराध्ययन के अनुसार, मध्याह्न या दिन का तीसरा प्रहर आहार काल बैठता है । कृषकों के देश में यह काल उचित ही है । पर वर्तमान में आहार काल प्रायः पूर्वाह्न १२ बजे के पूर्व ही समाप्त हो जाता है। महाप्रज्ञ' का मत है कि वास्तविक आहार काल रसोई बनने के समय के अनुरूप मानना चाहिए जो क्षेत्रकाल के अनुरूप परिवर्तनशील होता है।
शास्त्रों में रात्रिभोजन के अनेक दोष बताये गये हैं। प्रारम्भ में आलोकित-पानभोजन के रूप में इसकी मान्यता थी। तैल-दीपी रात्रि में विद्यत की जगमगाहट आ जाने से प्राचीन युग के अनेक दोष काफी मात्रा में कम हो गये हैं। इसलिए यह विषय परम्परा के बदले सुविधा का माना जाने लगा है। फिर भी स्वस्थ, सुखी एवं अहिंसक जीवन की दष्टि से इसकी उपयोगिता को कम नहीं किया जा सकता। इसीलिए इसे जैनत्व के चिह्न के रूप में आज भी प्रतिष्ठा प्राप्त है।
आहार काल और अन्तराल की जैन मान्यता विज्ञान-समर्थित है। आहार का प्रमाण
सामान्य जन के आहार का प्रमाण कितना हो, इसका उल्लेख शास्त्रों में नहीं पाया जाता। परन्तु भगवती आराधना, मूलाचार, भगवती सूत्र, अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों में साधुओं के आहार का प्रमाण बताते हुए कहा है कि पुरुष का अधिकतम आहार-प्रमाण ३२ ग्रास प्रमाण एवं महिलाओं का २४ ग्रास प्रमाण होता है। औपपातिकसूत्र' में आहार के भार का 'ग्रास' यूनिट एक सामान्य मुर्गी के अण्डे के बराबर माना गया है जबकि वसूनंदि ने मुलाचारवत्ति में इसे एक हजार चावलों के बराबर माना है। अण्डे के भार को मानक मानना आगमयुग में इसके प्रचलन का निरूपक है। बाद में सम्भवतः अहिंसक दृष्टि से यह निषिद्ध हो गया और तंडुल को भार का यूनिट माना जाने लगा यह तंडुल भी कौन-सा है, यह स्पष्ट नहीं है। पर तंडुल शब्द से कच्चा चावल ग्रहण करना उपयुक्त होगा। सामान्यतः एक अण्डे का भार ५०-६० ग्राम माना जाता है : फलतः मनुष्य के आहार का अधिकतम दैनिक प्रमाण ३२४५०-१६०० ग्राम तथा महिलाओं के आहार-प्रमाण २८-५०=१४०० ग्राम आता है। बीसवीं सदी के लोगों के लिए यह सूचना अचरज में डाल सकती है, पर पदयात्रियों के युग में यह सामान्य ही मानी जानी चाहिए। इसके विपर्यास में एक हजार चावल के यूनिट का भार १२-१५ ग्राम होता है, इस आधार पर पुरुष का आहार-प्रमाण ३२४१५-४८० ग्राम और महिला का आहार-प्रमाण २८४ १५:४२० ग्राम आता है। यह कुछ अव्यावहारिक प्रतीत होता है। यह 'यूनिट' संशोधनीय है। प्रमाण के विषय में 'ग्रास' के यूनिट को छोड़कर शास्त्रों में कोई मतभेद नहीं पाया जाता।
टार का यह प्रमाण प्रमाणोपेत. परिमित व प्रशस्त कहा गया है। एकभक्त साध के लिए यह एक बार के आहार का प्रमाण है, सामान्य जनों के लिए यह दो बार के भोजन १. महाप्रज्ञ, युवाचार्य (मं०); दशवैकालिक, जैन विश्वभारती, लाडनूं १९७४, पृ० १९५ २. स्थविर; औपपातिक सूत्र, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८२, पृ० ४७, ५२ ३. मूलाचार पृ० २८६
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प्रो० नन्दलाल जैन
का प्रमाण है। चतुःसमयी आहार-युग में यह दैनिक आहार प्रमाण होगा। सन्तुलित आहार की धारणा के अनुसार, एक सामान्य प्रौढ़ पुरुष और महिला का आहार-प्रमाण १२५०१५०० ग्राम के बीच परिवर्ती होता है। आगमिक काल के चतुरंगी आहार में सम्भवतः जल भी सम्मिलित होता था।
शास्त्रों में आहार प्रकरण के अन्तर्गत आहार के विभाग भी बताये गये हैं। मूलाचार में उदर के चार भाग करने का संकेत है। उसके दो भागों में आहार ले, तीसरे भाग में जल तथा चौथा भाग वायु-संचार के लिए रखें। इसका अर्थ यह हुआ कि भोजन का एकतिहाई हिस्सा द्रवाहार होना चाहिए। इससे स्वास्थ्य ठीक रहेगा और आवश्यक क्रियाएँ सरलता से हो सकेंगी। उग्रादित्य ने आहार-परिमाण तो नहीं बताया पर उसके विभाग अवश्य कहे हैं। सर्वप्रथम चिकना मधुर पदार्थ खाना चाहिए, मध्य में नमकीन एवं अम्ल पदार्थों को खाना चाहिए, उसके बाद सभी रसों के आहार करना चाहिए, सबसे अन्त में द्रवप्राय आहार लेना चाहिए। सामान्य भोजन में दाल, चावल, घी की बनी चीजें, कांजी, तक्र तथा शीत/उष्ण जल होना चाहिए। भोजनान्त में जल अवश्य पीना चाहिए । सामान्यतः यह मत प्रतिफलित होता है कि भूख से आधा खाना चाहिए। यह मत आहार की सुपाच्यता की दष्टि से अति उत्तम है। शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि पौष्टिक खाद्य, अधपके खाद्य या सचित्त खाद्य खाने से बात रोग, उदर पीड़ा एवं मदवृद्धि होते हैं ।
सामान्य आहार घटकों में उपरोक्त विभाग निश्चित रूप से आधुनिक आहार विज्ञान के अनुरूप नहीं प्रतीत होता। इसमें सन्तुलित आहार की धारणा का समावेश नहीं है। इसी कारण अधिकांश साधुओं में पोषक तत्त्वों का अभाव रहता है और उनका शरीर तप व साधना के तेज से दीप्त नहीं रहता। वह प्रभावक एवं अन्तःशक्ति गभित भी नहीं लगता। यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टि से यह तथ्य महत्त्वपूर्ण नहीं है, फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से इसकी महान् भूमिका है। भक्ष्याभक्ष्य विचार
जैन शास्त्रीय आहार-विज्ञान में विभिन्न खाद्य पदार्थों की एषणीयता पर प्रारम्भ से ही विचार किया गया है। आचारांग, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, भास्करनन्दि, आशाधर और शास्त्री ने अभक्ष्यता के निम्न आधार बताए हैं, ( सारिणी ५)। इनसे स्पष्ट है कि अभक्ष्यता का आधार केवल अहिंसात्मकता ही नहीं है, इसके अनेक लौकिक आधार भी हैं। मानव के परपोषी होने के कारण इन सभी आधारों पर विचारणा स्वतन्त्र शोध का विषय है।
१. मूलाचार, पृ० ३६८ २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा, पृ० २५५ ३. शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल (अनु०) श्रावक धर्म प्रदीप, वर्णी शोध संस्थान, काशी १९८०
पृ० १०७
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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान
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सारिणी ५. अभक्ष्यता के आधार (शास्त्रीय) आधार कारण
उदाहरण १. सजीव घात
दो या अधिकेन्द्रिय जीवों की पंचोदुम्बरफल, चलितरस, बहुजन्तु योनि स्थान बहु- स्थिति से हिंसा
अचार-मुरब्बादि, मधु, घात/बहुवध त्रस-जीव हिंसा
मांस, द्विदल, रात्रिभोजन २, स्थावर जीव घात प्रत्येक/ अनंतकाय वनस्पति कंदमूल, बहुबीजक, कोंपल ( अनंतकायिक) जीवों की हिंसा
कच्चे फल ३. प्रमाद/मादकतावर्धक आलस्य, उन्मत्तता, चित्त- मद्य, गांजा, भांग, चरसादि
विभ्रम ४. रोगोत्पादकता अनिष्टता स्वास्थ्य के लिए अहितकर ४. अनुपसेव्यता/लोकविरुद्धता
प्याज, लहसुन आदि ६. अल्पफल-बहुविघात, अल्प वनस्पतिघात
गन्ने की गड़ेरी, तेंदू, कलींदा भोज्य-बहु-उज्झणीय
फलीदार पदार्थ, नाली, सूरण ७. अपक्वता/अशस्त्र प्रतिहतता सभी वनस्पति प्रारम्भ में जल अनग्निपक्वता
सजीव रहते हैं, अप्रासुक हैं इन आधारों पर शास्त्रों में अभक्ष्य पदार्थों की बाइस श्रेणियाँ बताई गई हैं। यह संख्या अठारहवीं सदी में स्थिर हुई है। इसके पूर्व शास्त्रों में अभक्ष्यों की कोटियाँ तो बताई गई, पर निश्चित संख्या का संकेत नहीं था। साध्वी मंजुला' के अनुसार, इनका सर्वप्रथम उल्लेख धर्मसंग्रह नामक ग्रन्थ में मिलता है। सारिणी ६ में तीन स्रोतों में प्राप्त बाइस अभक्ष्यों को दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक सची में कुछ अन्तर है ऐसा प्रतीत होता है कि इस सूची में समय-समय पर नाम जोड़े गये हैं, इसीलिए इसमें अनेक नामों/
___ सारिणी ६. विभिन्न स्रोतों में बाइस अभक्ष्य धर्म संग्रह जीव विचार प्रकरण
दौलतराय क्रियाकोष किण्वित मद्य मद्य
मद्य मक्खन मक्खन
मक्खन चलित रस चलित रस
किव्वन-पदार्थ द्विदल
घोल बड़ा दही बड़ा
द्विदल १. साध्वी मंजुला; अनुसंधान पत्रिका-३, १९७५, पृ० ५३ २. शान्तिसूरि; जीव विचार प्रकरण, जैन मिशन सोसाइटी, मद्रास, १९५०, पृ. ५७ ३. दौलतराम, पंडित; जैन क्रिया कोष, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता १९२७
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प्रो० नन्दलाल जैन
मधु
(ब) परिरक्षितः ५. अचार-मुरब्बा अचार-मुरब्बा
अचार-मुरब्बा (स) स-स्थावर जीव घात ६-१० पंचोदुंबर फल पंचोदुंबर फल
पंचोदुबर फल ११. मांस मांस
मांस १२. मधु
मधु १३. अनंतकायिक अनंतकायिक
कंदमूल १४. बहुबीजक बहुबीजक
बहुबीजक १५. बैंगन बैंगन
बैंगन (द) विविध १६. विष विष
विष १७. बर्फ बर्फ
बर्फ १८. ओला ओला
ओला १९- तुच्छ फल
तुच्छ फल २०. अज्ञात फल अज्ञात फल
अज्ञात फल २१. मृत जाति/लवण
कच्चे लवण २२. रात्रि भोजन रात्रि भोजन
रात्रिभोजन कच्ची माटी कोटियों में पुनरावृत्ति भी है। उदाहरणार्थ, चलित रस में मद्य, मक्खन, द्विदल, अचारमुरब्बा समाहित होते हैं और बहुबीजक में बैगन आ जाता है। इन्हें चार कोटियों में वर्गीकृत कर वैज्ञानिक दृष्टि से समीक्षित किया जाना चाहिए। आज अनेक प्रकार के प्राकृतिक एवं संश्लेषित खाद्य पदार्थों का युग है। उनकी भक्ष्याभक्ष्य विचारणा भी आवश्यक है। इस पर अन्यत्र चर्चा की गई है।
१. जैन, एन० एल; जैन शास्त्रों में भक्ष्याभक्ष्य विचार, (प्रेस में)
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श्रमण : महावीर तीर्थ का प्रमुख स्तम्भ
महोपाध्याय विनयसागर श्रमण भगवान महावीर ने तीव्र एवं कठोरतम साधना कर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया। ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् सर्वजनहिताय उन्होंने सदुपदेश दिया। स्वानुभूति के आलोक में कथित उनकी वाणी को सुनकर अनेक लोग प्रभावित हुए । अनेक राजा, महाराजा, उनकी रानियाँ, राजकुमारियाँ, राजकुमार, सार्थवाह, श्रेष्ठ, विद्वर्ग तथा सभी वर्गों एवं वर्णों के नारी-पुरुष उनके शिष्य बने, गणधर आदि बने। अपने विशाल शिष्य समुदाय को दीक्षित कर उन्होंने अपने तीर्थ की स्थापना की। इस तीर्थ को अनुशासित और सुव्यवस्थित रखने के लिये उन्होंने चतुर्विध संघ की व्यवस्था प्रदान की। इसी संघ की पावनता को परख कर ही आप्त शास्त्रकारों ने इसे तीर्थ, महातीर्थ, धर्मतीर्थ, सर्वोदय तीर्थ, अभ्युदयकारी शासन आदि गरिमा मण्डित संज्ञाओं/नामों से अभिहित किया है।
चतुर्विध संघातीर्थ की सुव्यवस्था एवं उत्कर्ष के लिये परवर्ती श्रुतधर तथा आप्त आचार्यों ने गच्छ, कुल, गण व संघ के नाम से उपविभाग भी किये हैं। जिसमें श्रमण ए श्रमणियों (साधु-साध्वियों) की सुविधापूर्वक देख-रेख, शिक्षा-दीक्षा व व्यवस्था सम्पन्न की जा सकती हो, ऐसे समूह को “गच्छ' कहा जाता है और उसके नायक या व्यवस्थापक को "गच्छाचार्य' कहा जाता है। अनेक गच्छों में विभक्त इस समुदाय को "कुल' कहा गया है, अर्थात् अनेक गच्छों का एक कुल होता है। कुल के प्रमुख नायक को "कुलाचार्य कहा गया है। इसी प्रकार अनेक कुलों के समुह को “गण" और उसके अधिपति को "गणाचार्य' तथा अनेक गणों के समुदाय को "संघ" एबं संघाधिपति आचार्य को "गणधर "संघाचार्य' के गौरव से विभूषित किया गया है। यही संघाचार्य चतुर्विध संघ की सुव्यवस्था एवं कार्य-संचालन करते हैं।
कल्पसूत्र-गत स्थविरावली के अनुसार देवधिगणि क्षमाश्रमण के समय तक इस तीर्थ में ८ गण, २७ कुल और ४५ शाखाओं का प्रचलन था और इनके अधिकारी/शासक/व्यवस्थापक वर्ग को क्रमशः गणधर, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणि और गणावच्छेदक पदों से संबोधित किया गया है।
वर्तमान समय में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज में जो भी खरतरगच्छ, तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि गच्छों के नाम से प्रचलित/प्रसिद्ध हैं, वे सब कोटिक गण, चन्द्रकुल और वज्रशाखा के अन्तर्गत आते हैं और खरतर तथा तपा आदि 'विरुद/उपाधि' के धारक हैं । वस्तुतः ये पृथक्-पृथक् गच्छ नहीं हैं। उनका तो सुस्थितसूरि का कोटिक गण, चन्द्रसूरि का चन्द्रकुल एवं आर्यवज्र से निसृत वज्रशाखा ही गण, कुल एवं शाखा है । ये विरुद तो जिनेश्वरसूरि और जगच्चन्द्रसूरि की उत्कृष्ट संयम-साधना को देखकर तत्कालीन नरेशों ने प्रदान किये थे अथवा उनके विशिष्ट गुणों या क्रिया-कलापों से उनकी परम्परा उक्त विरुदों से प्रसिद्ध
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महोपाध्याय विनयसागर
हुई थी। निष्कर्ष यह है कि वर्तमान के समस्त गच्छ एक ही आचार्य की संतानें हैं और इन सबका एक ही गण है और वह है, कोटिक गण ।
___ अधुना गच्छों के व्यवस्थापक नेता भी आचार्य, महोपाध्याय, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, पन्यास एवं गणि पद को सुशोभित करते हैं।
महिला-श्रमणी वर्ग में सुसंचालिका अधिकारिणी पूर्व काल के समान ही आज भी "महत्तरा, प्रवर्तिनी, स्थविरा और गणिनी" पद को विभूषित करने वाली होती हैं।
प्रभु महावीर द्वारा स्थापित तीर्थ-चतुर्विध संघ में श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविका होते हैं एवं ये अपनी विशेषताओं से इस तीर्थ की संस्कृति को संवारते/निखारते हैं।
चतुर्विध संघ के प्रासाद का मुख्य स्तम्भ श्रमण है, अतः इस पर विवेचन अपेक्षित है। श्रमण का अर्थ:
__ श्रमण शब्द की विभिन्न व्युत्पत्तियों के अनुसार पूर्वाचार्यों/शास्त्रकारों ने जो अर्थ परिभाषित किये हैं, वे निम्नांकित हैं१. जो तप करता है. वह श्रमण है। २. जो पाँचों इन्द्रियों और मन को शमित करते हैं अथवा सांसारिक विषयों से उदासीन ___ रहते हैं या तप करते हैं, वे श्रमण हैं । ३. जो स्वयं के श्रम/पुरुषार्थ से भव-बन्धनों को तोड़ता है, स्वयं को मुक्त करता है।
वह श्रमण है। ४. जो स्व-स्वरूप की उपलब्धि के लिये अन्य किसी की अपेक्षा रखे बिना श्रममयी साधना
करता है, वह श्रमण है। ५. जो त्रस-स्थावर रूप समस्त प्राणियों में समानभाव रखते हुए श्रद्धापूर्वक तप का आचरण करता है, वह श्रमण है।
श्रमण शब्द संस्कृत भाषा का है और इसका प्राकृत भाषा का रूप है--"समण"। इसके पारिभाषिक अर्थ प्राप्त होते हैं :१. जो सभी प्रणियों पर समानता का भाव रखता है, वह समण है। २. जो समता भाव का धारक है, वह समण है। ३. जो किसी से द्वेष नहीं करता, जिसको सभी जीव समान भाव से प्रिय हैं, वह समण है। ४. जो सब जीवों के प्रति समान मन/हृदय रखता है, वह समण है। ५. जो सु-मन वाला है, जो कभी भी पापमना नहीं होता, अर्थात् जिसका मन सर्वदा स्वच्छ,
प्रसन्न और निर्मल रहता है, वह समण है। ६. जो स्वजन एवं परजन में, मान एवं अपमान में, प्रशंसा और गाली में सर्वत्र और सर्वदा
समसन्तुलित रहता है, वह समण है। ७. जो शत्रु एवं मित्र में समान रूप से प्रवृत्ति करता है, वह समण है।
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श्रमण : महावीर तीर्थ का प्रमुख स्तम्भ
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८. जिस प्रकार दुःख मुझे प्रिय नहीं लगता है, उसी प्रकार संसार के समस्त जीवों को भी प्रिय नहीं लगता है । ऐसा समझ कर जो न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से करवाता है, सर्वत्र सम रहता है, वह समण है ।
९. सूत्रकृतांग सूत्र १ - १६-२ में समण का सांगोपांग निर्वचन करते हुए कहा गया है :जो सर्वत्र अनिश्चित है, आसक्ति नहीं रखता, किसी प्रकार के सांसारिक भोगोपभोग की अभिलाषा नहीं रखता, किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता, प्राणीमात्र की हिंसा नहीं करता, असत्य नहीं बोलता, काम वासना के विचारों से रहित है, क्रोध मान-माया-लोभराग, द्वेष तथा प्राणातिपात (हिंसा) आदि जितने भी कर्म - बन्धन और आत्मपतन के हेतु हैं उन सभी से निवृत - मुक्त रहता है, इन्द्रियों का विजेता है, शुद्ध संयमशील है और शारीरिक मोह-ममत्व से रहित है, वह समण कहलाता है ।
१०. “ समण" का संस्कृत में एक रूप " शमन" भी होता है; जिसका अर्थ है :- अपनी चंचल मानसिक वृत्तियों का शमन करने वाला या शान्त करने वाला ।
श्रमण का जीवन :
श्रमण उग्र एवं विशिष्टतम साधना के माध्यम से स्व-स्वरूप को उजागर करता हुआ अपने जीवन / व्यक्तित्व को सर्वदा / सर्वत्र निखारता रहता है और साधना से प्राप्त असीम उपलब्धियों द्वारा संस्कृति समाज को संवारता रहता है । साधनामय तपोपूत जीवन से उसका व्यक्तित्व कितना परिष्कृत / विशुद्ध एवं गरिमामय हो जाता है ? गुणोपेत श्रमण का व्यक्तित्व कैसा हो जाता है ? इसका विवेचन करते हुए कहा गया है :
“उरग-गिरि-जलण-सागर - नहतल-तरुगणसमो अ जो होई । भमर-मिय-धरणि जलरुह - रवि-पवणसमो अ सो समणो ॥ "
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१. जो श्रमण " उरगमय" सर्प के समान दूसरे के लिये निर्मित आवास-स्थान में रहता है, अर्थात् स्व के लिये विनिर्मित स्थान में नहीं रहता है ।
२. जो “गिरिसम” पर्वत के समान परीषद् एवं उपसर्गों को निष्कम्प होकर सहन करता है । होता है, अथवा कदापि तृप्त नहीं
३. जो “जलणसम" अग्नि के समान तपसाधना से जाज्वल्यमान / तेजस्वी जैसे अग्नि घास से कदापि तृप्त नहीं होती, वैसे ही जो स्वाध्याय से होता है ।
४. जो "सागरसम" समुद्र के समान ज्ञानादि रत्नों और गाम्भीर्यादि गुणों के धारक होते हैं एवं अपनी साध्वाचार की मर्यादा का कभी भी उल्लंघन नहीं करते हैं ।
५. जो "नहतलसम" आकाश के समान किसी का आलम्बन / आश्रय / सहयोग न लेकर "स्व" के बल पर विचरण करता है ।
६. जो " तरुगणसम" वृक्षों के समान सुख और दुःख में विकार को प्रदर्शित नहीं करता है । ७. जो “भमरसम” भ्रमरों के समान अनियत वृत्ति होता है अर्थात् अनेक गृहों से थोड़ीथोड़ी सी भिक्षा ग्रहण करता है ।
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महोपाध्याय विनसागरय
८. जो " मृगसम " श्रमण-चर्या की साधना में सर्वदा चौकन्ना एवं सरल स्वभावी रहता है । ९. जो " धरणिसम" पृथ्वी के समान समस्त कष्टों / उपद्रवों को सहन करता है । १०. जो " जलरुहसम" कमल के समान निर्लिप्त रहता है ।
११ जो "रविसम" भेदभाव से रहित होकर श्रुतज्ञान का प्रकाश करता है ।
१२. जो " पवन सम" पवन के समान अप्रतिहत गति वाला होकर सर्वत्र विचरण करता है । उक्त बारह गुणों से जो युक्त/समृद्ध होता है, वही श्रमण कहलाता है ।
किस प्रकार के आचरण वाला एवं गुण सम्पन्न मुनि मोक्ष प्राप्त कर सकता है ? इसका उत्तर देते हुए शास्त्रकारों ने कहा है :
"सीह-गय-वसह-मिय-पसु मारुत सुरुवहि-मंदरिन्दु-मणी । खिदि - उरगंबरसरिसा, परमपय विमग्गया साहू ||”
अर्थात् सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कान्तिमान्, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्ब साधु ही परम पद मोक्ष के मार्ग पर चलता है ।
श्रमण के पर्यायवाची शब्द :
से
आगम ग्रन्थों, प्रकरण ग्रन्थों एवं कोषों में श्रमण के पर्यायवाची शब्द भी बहुतायत प्राप्त हैं, जिनमें से मुख्य-मुख्य हैं :
१. निर्ग्रन्थ,
४. अनगार
७. माहण १०. ऋषि
२. भिक्षु ५. मुनि
८. वाचंयम ११. व्रती, आदि
३. यति ६. साधु
उक्त प्रत्येक शब्दों के अर्थ भिन्न-भिन्न होते हुए भी सभी शब्द श्रमण के समानार्थी है और भिन्न-भिन्न दृष्टियों से साधनापरक व्यक्तित्व के द्योतक हैं । इन प्रत्येक शब्दों के व्युत्पत्तिपरक अर्थ निम्नलिखित हैं :--
९. मुमुक्षु
१. निर्ग्रन्थ - धन, धान्यादि नौ प्रकार के बाह्य परिग्रह और राग-द्वेषादि अन्तरंग परिग्रह से रहित होता है
२. भिक्षु
३. यति
आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करता है, अथवा भिक्षा से शरीर निर्वाह करता है ।
समस्त प्रकार के संगों से रहित होता है अर्थात् निस्संग होता है । अथवा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है । अथवा क्षान्ति, ऋजुता, मृदुता आदि दशविध धर्म का पालन करता है ।
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४. अनगार
५. मुनि
६. साधु
९. मुमुक्षु १० ऋषि ११. व्रती
१२. संयमी
श्रमण : महावीर तीर्थ का प्रमुख स्तम्भ
जिसने घर वार का त्याग कर दिया है ।
- राग-द्वेष, ईष्या, निन्दा आदि से रहित होता है । अथवा मौन रहकर स्वाध्याय, ध्यान एवं संयम साधना करता है ।
—
७. माहन हिंसा से निवृत्त होता है अर्थात् त्रिकरण योग से पूर्णतः अहिंसक होता है । ८. वाचंयम- वाणी (भाषा समिति, वचनगुप्ति) पर नियंत्रण रखता है ।
संसार- भवसमुद्र से मुक्त होने की इच्छा रखता है ।
आत्म-तत्त्व का ज्ञाता होता है अथवा आत्मदर्शी होता है ।
पांच महाव्रतों एवं ज्ञानाचारादि पाँच आचारों का पालक होता है ।
सत्रह विध संयम का विशुद्ध रूप से पालन करता है ।
-
-
1
-
श्रेष्ठतम क्षमादि विशिष्ट गुणों से अपनी आत्मा को भावित करता है । अथवा सम्यग् दर्शनादि त्रिरत्नों के माध्यम से परमपद की साधना करता है ।
नामधारी श्रमण :
जैन परम्परा में जिस प्रकार निर्ग्रन्थ को श्रमण शब्द से विभूषित किया गया है उसी प्रकार वैदिक एवं बौद्ध परम्परा में भी ऋषि-मुनियों के लिये श्रमण शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है । प्रवचनसारोद्धार में उल्लेख मिलता है :
निर्ग्रन्थ (जैन साधु), शाक्य ( बौद्ध साधु), तापस (जटाधारी वैदिक ऋषि) गैरुक (लाल वस्त्रधारी संन्यासी) और आजीवक ( गोशालक के अनुयायी साधु) भी श्रमण शब्द से सम्बोधित होते हैं | किन्तु, जैन श्रमण और अन्य श्रमणों में महदन्तर है । जैन मुनि का मन वीतराग वाणी से वासित होता है, यथार्थतः आत्मलक्षी होकर उत्कृष्ट संयम साधना में लीन रहता है, रागादि कषायों का पूर्णतः निरोध करने के लिये सतत प्रयत्नशील है और अपनत्व का त्याग कर देता है, जो अन्य नामधारी श्रमणों में पूर्णतः प्राप्त नहीं होता है । अतः जैनेन्द्र पर्युपासकों के लिये निर्ग्रन्थ श्रमण ही अभीष्ट और आराध्य है, अन्य श्रमण नहीं ।
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श्रमण के भेद :
नामधारी श्रमणों की तरह जैन निर्ग्रन्थ-श्रमणों के प्रतिपादित पाँच भेदों में दो भेद भी वैसे ही हैं, अर्थात् सद्गुरु तो दूर, गुरु की कोटि में भी नहीं आते हैं, वे केवल वेषधारी श्रमण हैं । तत्त्वार्थसूत्र में जो पाँच भेद बताये हैं, वे निम्न हैं :
३. कुशील,
२. बकुश, ५. स्नातक
·
इन पाँचों का सामान्य अर्थ क्रमशः इस प्रकार है :
१. पुलाक
१. पुलाक, ४. निर्ग्रन्थ,
-
मूल गुणों में अपूर्णता और उत्तर गुणों का सम्यक्तया पालन नहीं करते हुए भी आगम- मर्यादा से विचलित नहीं होने वाला पुलाक/पयाल
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२००
२. बकुश
३. कुशील
४. निर्ग्रन्थ
-
महोपाध्याय विनय सागर
अर्थात् निस्सारधान्य के समान इनका जीवन निःसार होता है ।
व्रतों का पालन करते हुए भी शरीर और उपकरणों पर ममत्व होने के कारण उन्हीं को संस्कारित करने वाला, सिद्धि तथा यश-प्रतिष्ठा का अभिलाषी, सुखशील तथा शबल अतिचार दोषों से युक्त ।
इसके दो भेद हैं : --प्रतिसेवना कुशील और कषायकुशील । प्रतिसेवना - इन्द्रियों का वशवर्ती होने से उत्तर गुणों की विराधनामूलक प्रबृत्ति करने वाला ।
कषाय - तीव्र कषाय से रहित होकर भी मन्द कषायों के जाने वाला |
वशीभूत हो
सर्वज्ञता न होने पर भी जिसमें रागादि का अत्यन्त अभाव हो और अन्तर्मुहूर्त के बाद ही सर्वज्ञता प्रकट होने वाली हो ।
जिसमें सर्वज्ञता प्रकट हो गई हो ।
५. स्नातक
उक्त पाँच भेदों में प्रारम्भ के तीन भेद व्यावहारिक श्रमण के बोधक हैं और शेष दो तात्त्विक श्रमण के । अतः अन्तर्दृष्टि से, आत्मिक विशुद्धि की दृष्टि से निर्ग्रन्थ एवं स्नातक भेद ही उपादेय हैं ।
श्रमण का धर्म :
उसके
श्रमण पूर्णतः आस्रवादि का प्रत्याख्यान करता है अतः वह सर्व विरति कहलाता है । 'मुख्य-मुख्य धर्म हैं :
--
१. महाव्रत - पाँच महाव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का उनकी पच्चीस भावनाओं के साथ सम्यक्तया त्रिकरण- त्रियोग के साथ पालन करता है । फलतः वह अनास्रवी, अनारंभी और अनासक्त हो जाता है और संवरोन्मुखी बनकर निर्जरक बनता जाता है ।
२. प्रतिक्रमण - उपयोग / विवेक पूर्वक महाव्रतों का पालन करते हुए कदाचित् अतिचार / दोष लग जाते हैं, उनपर तत्काल या प्रातः - सायं विचार कर प्रायश्चित्त करना । अर्थात् उभयकाल प्रतिक्रमण के माध्यम से उन दोषों की शुद्धि करना ।
३. सामायिक - प्रतिक्षण समभाव; उपशम, शान्ति, क्षमा-भाव से निर्वैर एवं निष्क्रोध रहते हुए संयम गुणों की वृद्धि करना / कषायादि अन्तर्शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना ।
४. चारित्र - सामायिक और छेदोपस्थापन में रहते हुए, अप्रमत्त होकर परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म सम्पराय की प्रगति करते हुए यथाख्यात की प्राप्ति करने का प्रयत्न करना । ५. इन्द्रिय- दमन -- पाँचों इन्द्रियों और उसके २३ विषयों / विकारों पर विजय प्राप्त
करना ।
६. व्यवहार - गीतार्थ बनकर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार व्यवहार / व्यवस्था करना और निर्मायी तथा निश्छल आचरण करना ।
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श्रमण : महावीर तीर्थ का प्रमुख स्तम्भ
२०१ ७. निराहार–संभव हो, शरीर साध्य हो, मानसिक शैथिल्य न आए वहाँ तक समभाव एवं निष्कामना-पूर्वक उग्र तपश्चरण द्वारा पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा करना । शारीरिक क्षमता की दृष्टि ट से निराहार रहना सम्भव न हो तो उनोदरी आदि ६ भेदों वाली बाह्य तपस्या का अवलंबन लेना। संयम-पालन की भावना को प्रधानता देते हुए, शारीरिक क्षुधा को शान्त करने लिये गोचरी के ४७ दोषों को टालते हुए गवेषणापूर्वक मधुकरी प्राप्त करना और अनासक्ति पूर्वक भक्षण करना। उत्सर्ग मार्ग में एकासन और ६ विगय रहित भोजन तो आवश्यक है ही।
८. स्वाध्याय-पठन, पाठन, अर्थ-चिन्तन, सूत्रालापकों की पुनरावृत्ति आदि से शास्त्रों के स्वाध्याय में तल्लीन रहना।
६. ध्यान-योग की प्रणालिका से बाह्य शुद्धि पूर्वक मनोनिग्रह करते हुए, निर्विकल्प समाधि शुक्लध्यान की ओर प्रगति करना।
१०. सेवा-निरभिमानी बनकर तीर्थ एवं तीर्थोपासकों की सेवाशुश्रूषा में संलग्न रहना । शासन की सेवा एवं प्रभावना के लिये सर्वदा कटिबद्ध रहना। यश-कीर्ति से दूर रहना ।
११. परीषह - साधना काल में जो भी अनुलोम या प्रतिलोम परीषह/उपसर्ग/कष्ट आदि को तितिक्षा पूर्वक सहन करते हुए संयम को उज्ज्वल बनाना ।
१२ समिति --संयम-पथ को विशुद्ध बनाने के लिये अष्ट प्रवचन माता-५ समिति एवं ३ गुप्ति का विवेक पूर्वक पालन करना और भाषा-संयम रखते हुए केवल उपदेश देना एवं आदेशात्मक वाणी का पूर्णतः परिहार करना ।
१३. भावना-"सवि जीव करू शासन रसी" जैसी उच्चतम विचार-सरणि रखते हए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, अनित्यादि बारह भावनाओं का सतत चिन्तन करना।
१४. विहार-गुरु-वृद्ध-ग्लान सेवा के अतिरिक्त सर्वदा अप्रतिबद्ध विहार, भ्रमण करना।
१५. निवास-निर्जन स्थानों-नगर के बाहर वनों, उद्यानों में रहना। जन सम्पर्क एवं कोलाहल के स्थानों से दूर रहना।
१६ मार्ग-सर्वज्ञ वाणी पर अटूट विश्वास निष्ठा रखते हुए उत्सर्ग मार्ग पर चलना । कदाचित् कारणवश अपवाद का अवलंबन लेना पड़े तो तत्काल ही प्रायश्चित्त द्वारा विशुद्धि कर लेना। आचार
सामान्यतः श्रमणों की दो कोटि मानी गई है :
१. जिनकल्प, २. स्थविरकल्प । जिनकल्पी पूर्णतः अचेलक एवं करपात्री होते हैं। जिनकल्प मार्ग कठिनतम एवं उत्कृष्टतम होने के कारण वर्तमान में विच्छिन्न सा है । स्थविरकल्पी मुनि आचारांग एवं कल्पसूत्रादि के अनुसार कम से कम एक और अधिक से अधिक तीन वस्त्र एवं पात्र रखता था। नगर-निवास की प्रक्रिया का प्रारम्भ होने पर साधु के लिये १४ वस्त्रों की मर्यादा पूर्वाचार्यों ने निर्धारित कर दी। नगर-निवास, अत्यधिक जन-सम्पर्क एवं
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महोपाध्याय विनयसागर
दुष्काल आदि अनेक कारणों और व्यवधानों ने शास्त्रीय साधुमार्ग पर प्रबल कुठाराघात किया। इसी के फलस्वरूप शिथिलाचार और अपवाद के आलंबन ने साधु-चर्या को खोखला बना दिया। भेद विज्ञानधारक साधक की वह साधना विलुप्त होती चली गई और रह गई केवल परम्परा और चिह्न । वस्तुतः आत्मसाधक के लिये शिथिलाचार, अपवाद का आलंबन, सर्वज्ञ वाणी के स्थान पर परम्परा एवं वेष का महत्त्व हेय है, त्याग करने योग्य है।।
निष्कर्ष यह है, श्रमण भगवान् महावीर के प्रस्थापित तीर्थ/शासन का प्रमुख अंग श्रमण/निर्ग्रन्थ है । आत्म-साधक मुमुक्षु अनगार यदि शास्त्रीय श्रमण के अर्थ के अनुसार अपने जीवन को ढालते हुए, उक्त श्रमण-धर्म का परिपूर्णतया सम्यक् प्रकार से पालन करता है तो वह प्रभु महावीर का सच्चा श्रमण है, महावीर का अधिकारी है। श्रमण-धर्म का पालन कर वह निश्चयतः निष्पाप, विशुद्धचेता, इन्द्रियजेता बनकर आत्मा की विशुद्धतम स्वाभाविक दशा को प्राप्त कर लेता है, और सच्चा सद्गुरु बन जाता है।
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जैन पुराणकालीन भारत में कृषि
डॉ० देवी प्रसाद मिश्र
किसी भी समाज या सम्प्रदाय का उत्कर्ष उसकी आर्थिक सम्पन्नता पर निर्भर करता है। व्यक्ति के सांसारिक एवं भौतिक सुख का सम्बन्ध अर्थ से नियंत्रित होता है। ऐहिक दृष्टि से मानव के जीवन में अर्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि जैन धर्म निवृत्ति प्रधान है, तथापि इसमें भी अर्थ की उपेक्षा नहीं की गयी है। सांसारिक जीवन को चलाने के लिये जैन ग्रन्थों में यत्र-तत्र सामग्री उपलब्ध होती है। महापुराण में वर्णित है कि अर्थार्जन मनुष्य के जीवन का सदोद्देश्य होना चाहिए।' इसी पुराण में मनुष्य की आजीविका के लिये छः प्रमुख साधनों का उल्लेख हुआ है, जिसमें असि ( शस्त्रास्त्र या सैनिक वृत्ति ), मसि ( लेखन या लिपिक वृत्ति), कृषि ( खेती और पशुपालन ), शिल्प ( कारीगरी और कला-कौशल ), विद्या (व्यवसाय) और वाणिज्य (व्यापार) हैं ।
प्राचीन काल से ही लोगों का प्रधान पेशा कृषि एवं पशुपालन था । उसके बाद ही अन्य व्यवसाय को अपनाया गया। प्राचीन काल से भारत में कृषि होती थी और आज भी भारत
न देश है। प्राचीन काल में कृषि देश के आर्थिक विकास का मलाधार थी। इसी पर लगभग सभी का जीवन आश्रित रहता था। आज भी ८०% लोग कृषि पर अपनी आजीविका निर्भर करते हैं। प्राचीन काल में पर्वतीय एवं ऊँची-नीची भूमि को समतल कर, जंगलों को साफ कर तथा भूमि को खोद कर कृषि कार्य किया जाता था। जैनपुराणों में क्षेत्र शब्द व्यवहृत हुआ है तथा खेत ( भूमि ) को हल के अग्रभाग से जोतने का उल्लेख मिलता है। प्राचीन समय में हल प्रतिष्ठा का द्योतक होता था। उस समय जिसके पास जितनी अधिक संख्या में हल होते थे, वह व्यक्ति उतना ही प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न माना जाता था। जैन ग्रन्थों में चक्रवर्ती राजा भरत के पास एक करोड़ हल होने का उल्लेख मिलता है। ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि सामान्य कृषकों के पास जो भी हल होते थे, वे सभी राजा के हल माने जाते होंगे। जैनेतर ग्रन्थों में हल के अतिरिक्त अन्य कृषि यन्त्रों में हेंगा ( मत्य एवं कोटीश), खनित्र ( अवदारण ), गोदारण ( कुन्दाल), खुरपी, दात्र, लवित्र (असिद), हँसिया आदि का उल्लेख मिलता है। इन्हीं कृषि-यन्त्रों के माध्यम से खेती होती है।
१. महापुराण ४६।५५ २. वही १६।१७९ ३. वही १६।१८१; विष्णुपुराण १।१३।८२; बृहत्कल्पभाष्य ४।४८९१ ४. पद्मपुराण २।३, ३।६७; हरिवंश पुराण ७११७ ५. वही ४।६३; महापुराण ३७।६८ ६. द्रष्टव्य-लल्लन जी पाण्डेय-पूर्वमध्यकालीन उत्तर भारत में कृषि व्यवस्था ( ७००-१२००);
राजबली पाण्डेय स्मृति ग्रन्थ, देवरिया १९७६, पृ. २६५
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डॉ देवी प्रसाद मिश्र
जैन ग्रन्थों में खेतों के दो प्रकारों का वर्णन उपलब्ध होता है : (१) उपजाऊ उपजाऊ भूमि में बीज बोने से अति उत्तम फसल उत्पन्न होती थी । (२) अनुपजाऊ - ऊसर या खिल ( अनुपजाऊ भूमि (खेत) । जैन पुराणों में वर्णित है कि ऊसर भूमि में बोया गया बीज समूल नष्ट हो जाता है । जैनेतर ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ऊसर भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिये राज्य की ओर से पुरस्कार प्रदान किया जाता था । जैनेतर ग्रन्थ अभिधान रत्नमाला में मिट्टी के गुणानुसार साधारण खेत, उर्वर खेत, सर्व फसलोत्पादक खेत, कमजोर खेत, परती भूमि, लोनी मिट्टी का क्षेत्र, रेगिस्तान, कड़ी भूमि, दोमट मिट्टी, उत्तम मिट्टी, नई घासों से आच्छादित भूमि, नरकुलों आदि से संकुल भूमि आदि के लिए पृथक्-पृथक् शब्द व्यवहृत हुए हैं।
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कृषि को सुव्यवस्थित करने एवं अधिक उपज के लिए राज्य की ओर से सहायता भी प्रदान की जाती थी । महापुराण के अनुसार राजा कृषि की उन्नति के लिये खाद, कृषि-उपकरण, बीज आदि प्रदान कर खेती कराता था । इसी पुराण में अन्यत्र उल्लिखित है कि खेत राजा के भण्डार के समान थे । जैन पुराणों में कृषक को कर्षक और हलवाहक को कीनाश" । शब्द से सम्बोधित किया गया है । महापुराण के अनुसार कृषक भोलेभाले, धर्मात्मा, वीतदोष, तथा क्षुधा तृषा आदि क्लेषों के सहिष्णु तथा तपस्वियों से बढ़कर होते थे । कृषक हल, बैल और कृषि के अन्य औजारों के माध्यम से खेती करते थे । खेत की उत्तम जुताई कर, उसमें उत्तम बीज एवं खाद का प्रयोग करते थे । र० गंगोपाध्याय ने एग्रीकल्चर एण्ड एग्रीकल्चरिस्ट इन ऐंशेण्ट इण्डिया में गोबर की खाद को खेती के लिये अत्यन्त उपयोगी माना है । १० इसके अतिरिक्त खेती को सिंचाई की भी आवश्यकता होती थी । महापुराण में सिंचाई के दो प्रकार के साधनों का उल्लेख मिलता है - (१) अदेवमातृका - नहर, नदी, आदि कृत्रिम साधन से, सिंचाई व्यवस्था और (२) देवमातृका - वर्षा के जल से सिंचाई व्यवस्था । ११ वर्षा समयानुकूल
१. पद्मपुराण २७
२. वही ३।७०; हरिवंश पुराण ३।७०
३. नारद स्मृति १४४
४. द्रष्टव्य- लल्लन जी गोपाल - वही, पृ० २५९
५. महापुराण ४२ । १७७
६. वही ५४ १४
७. पद्मपुराण ६।२०८; महापुराण ५४/१२
८. वही ३४।६०
९. महापुराण ५४।१२
१०. लल्लनजी गोपाल - वही, पृ० २६०
११. महापुराण १६ । १५७
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जैन पुराणकालीन भारत में कृषि
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एवं समय से होने पर फसल अच्छी होती थी ।' कुआँ २, सरोवर, तडाग तथा वापी" के जल को सिंचाई के लिये प्रयोग करते थे । उस समय घण्टीतंत्र (अरहट या रहट ) द्वारा कुओं, तालाबों आदि से जल निकालकर सिंचाई करते थे । खेतों की सिंचाई के लिये नहरें अत्यधिक लाभप्रद थीं । नहरों से नालियों का निर्माण कर कृषक अपने खेतों में पानी ले जाते थे । उस समय झील, नदी, कुआँ, मशीन कुआँ, अरहट, तालाब तथा नदी बाँध से सिंचाई की जाती थी । "
कृषक खेत में बीज वपन करने के उपरान्त सिंचाई कर उसकी निराई, गोड़ाई आदि करते थे । इसके अनन्तर पुनः सिंचाई की जाती थी । फसलों के पक जाने पर उसकी कटाई कर उसे खलिहान में एकत्रित करते थे । फिर बैलों से ढँवरी चलाकर मड़ाई की जाती थी । मड़ाई के उपरान्त अनाज और भूसे को पृथक् करने के लिये ओसाई की जाती थी । तदनन्तर अनाज को घर ले जाते थे । खाने के लिये अनाज का प्रयोग करते थे । भूसे को बैल, गाय, भैंस को खिलाने के लिये रखते थे ।
खेती की रक्षा करना परमावश्यक था । बिना खेती की रक्षा के फसल का लाभ नहीं मिल सकता । इसमें कृषक की बालाएँ पशुपक्षियों से खेत की रक्षा करती थीं । १° चञ्चापुरुष का भी उल्लेख महापुराण में हुआ है, जिनको देखकर जानवर भाग जाते थे । ११
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उपलब्ध साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों से उस समय अग्रलिखित अनाज होते थे - ब्रीहि, साठी, कलम, चावल, यव (जौ), गोधूम (गेहूँ), कांगनी (कंगव), श्यामाक ( सावाँ), कोद्र ( कोदो), नीवार, वरफा (बटाने), तिल, तस्या (अलसी), मसूर, सर्षप (सरसों), धान्य
१. महापुराण ४।७९; एपिग्राफिका इण्डिका, जिल्द २०, पृ० ७ पर सिंचाई के साधनों के विषय में विशेष रूप से प्रकाश पड़ता है ।
२. महापुराण ४।७२
३. वही ५। २५९; पद्मपुराण २।२३
४. वही ४।७२
५. वही ५।१०४
६. पद्मपुराण २।६, ९।८२; महापुराण १७।२४; हरिवंश पुराण ४३।१२७
७. महापुराण ३५/४०
८. अपराजितपृच्छा पृ० १८८
९. महापुराण ३।१७९-१८२, १२/२४४, ३५।३० पद्मपुराण २।१५
१०. वही ३५।३५-३६, मनुस्मृति ७।११० पर टीका
११. वही २८।१३०; देशीनाममाला २६
१२ . वही ३।१८६-१८८; पद्मपुराण २१३-८;
हरिवंशपुराण
१४।१६१-१६३, १९।१८, ५८ ३२, ५८।२३५;
जगदीशचन्द्र जैन - जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० १२३ - १३०;
बी० एन० एस० यादव सोसाइटी एण्ड कल्चर इन द नार्दर्न इण्डिया, पृ० २५९; सर्वानन्द पाठक - विष्णु पुराण का भारत, पृ० १९८
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डॉ. देवी प्रसाद मिश्र (धनिया) जीरक (जीरा). मुद्गमाषा (मूंग), ढकी (अरहर), राज (रोसा), माष (उड़द), निष्पावक (चना), कुलित्थ ( कुलथी ), त्रिपुर ( तेवरा ), कुसुम्भ, कपास, पुण्ड्र ( पौड़ो ), इक्षु (ईख), शाक आदि। इस समय के प्राप्त अभिलेखों में भी इस प्रकार के अनाज का उल्लेख यत्र-तत्र उपलब्ध होता है।'
२० डी०, बेली रोड, नया कटरा, इलाहाबाद-२११००२
१. शिवनन्दन मिश्र--गुप्तकालीन अभिलेखों से ज्ञात तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक दशा, लखनऊ,
१९७३, पृ० ८४-८५ ।
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वादिराजसरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण
___ डा० जयकुमार जैन संस्कृत साहित्य के विशाल भण्डार के अनुशीलन से पता चलता है कि भारतवर्ष में सुरभारती के सेवक वादिराज नाम वाले अनेक विद्वान् हुए हैं । इनमें पार्श्वनाथचरितयशोधरचरितादि के प्रणेता वादिराजसूरि सुप्रसिद्ध हैं, जो न्यायविनिश्चय पर विवरण नाम्नी टीका के भी रचयिता हैं। प्रस्तुत निबन्ध में इन्हीं वादिराज को विषय बनाया गया है। उनकी सम्पूर्ण कृतियों का भले ही विधिवत् अध्ययन न हो पाया हो, परन्तु उनके सरस एकीभावस्तोत्र से धार्मिक समाज, न्यायविनिश्चयविवरण से तार्किक समाज और पार्श्वनाथचरित-यशोधरचरितादि से साहित्यज्ञ समाज सर्वथा सुपरिचित है। जहाँ एक ओर उन्हें महान् कवियों में स्थान प्राप्त है, वहाँ दूसरी ओर श्रेष्ठ तार्किकों की पंक्ति में भी उत्तम स्थान पाने वाले हैं।
वादिराजसूरि द्राविड़ संघीय अरुंगल शाखा के आचार्य थे।' द्राविड़ संघ का अनेक प्राचीन शिलालेखों में द्रविड़, द्रमिड़, द्रविण, द्रविड, द्रमिल, दविल, दरविल आदि नामों से उल्लेख पाया जाता है। ये नामगत भेद कहीं लेखकों के प्रमादजन्य हैं तो कहीं भाषावैज्ञानिक विकासजन्य। प्राचीनकाल में चेर, चोल और पाण्ड्य इन तीन देशों के निवासियों को द्राविड़ कहा जाता था। केरल के प्रसिद्ध आचार्य महाकवि उल्लूर एस० परमेश्वर अय्यर दाविड शब्द का विकास मिठास या विशिष्टता अर्थ के वाचक तमिष शब्द से निम्नलिखित क्रमानुसार मानते हैं--तमिष> तमिल > दमिल > द्रमिल> द्रमिड़> द्रविड़ > द्राविड़ ।
महाकवि वादिराज ने किस जन्मभूमि एवं किस कुल को अलंकृत किया—इस सम्बन्ध में कोई भी आन्तरिक या बाह्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। यतः वादिराजसूरि द्राविड़ संघीय थे, अतः उनके दाक्षिणात्य होने की संभावना की जाती है। द्रविड़ देश को वर्तमान आन्ध्र और तमिलनाडु का कुछ भाग माना जा सकता है। जन्मभूमि, माता-पिता आदि के विषय में प्रमाण उपलब्ध न होने पर भी उनकी कृतियों के अन्त्य प्रशस्तिपद्यों से ज्ञात होता है कि वादिराजसूरि के गुरु का नाम श्री मतिसागर और गुरु के गुरु का नाम श्रीपालदेव था। १. श्रीमद्रविडसंघेऽस्मिन् नन्दिसंघेऽस्त्यरुंगल: ।
अन्वयो भाति योऽशेषशास्त्रवारासिपारगैः ।। एकत्र गुणिनस्सर्वे वादिराज त्वमेकतः । तस्यैव गौरवं तस्य तुलायामुन्नतिः कथम् ।।
--जैन शिलालेख संग्रह भाग-२, लेखांक २८८ २. द्रष्टव्य-वही भाग ३ की डा० चौधरी द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ० ३३ ३. द्रष्टव्य-श्री गणेश प्रसाद जैन द्वारा लिखित "दक्षिण भारत में जैन धर्म और संस्कृति" लेख
'श्रमण' वर्ष २१, अंक १, नवम्बर १९६९, पृ० १८ ४. पार्श्वनाथचरित, प्रशस्तिपद्य १-४
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डा. जयकुमार जैन __ यशस्तिलकचम्पू के संस्कृत टीकाकार श्रुतसागरभूरि ने वादिराज और वादीभसिंह को सोमदेवाचार्य का शिष्य बतलाते हुए लिखा है- “स वादिराजोऽपि श्री सोमदेवाचार्यस्य शिष्यः ।" "वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः, वादिराजोऽपि मदीय शिष्यः" इत्युक्तत्वात् ।' इसके पूर्व श्रुतसागरसूरि ने "उक्त च वादिराजेन" कहकर एक पद्य उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है--
कर्मणा कवलितो सोऽजा तत्पुरान्तर जनांगमवाटे ।
कर्मकोद्रवरसेन हि मत्तः किं किमेत्यशुभधाम न जीवः ॥२
यह श्लोक वादिराजसूरिकृत किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलता है और न ही अन्य ग्रंथों में ही। सोमदेवसूरि के नाम से उल्लिखित "वादीभसिंहोऽपि मदीयशिप्यः वादिराजोऽपि मदीयशिष्यः" वाक्य का उल्लेख भी उनकी किसी भी रचना ( यश०, नीतिवा०, अध्यात्मतरंगिणी ) में नहीं है। अतः वादिराज का सोमदेवाचार्य का शिष्यत्व सर्वथा असंगत है। यशस्तिलकचम्पू का रचनाकाल चैत्रशुक्ला त्रयोदशी शक सं ८८१ (९५९ ई० ) है जबकि बादिराज के पार्श्वनाथचरित का प्रणयनकाल शक सं०९४७ (१०२५ ई०) है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों के रचनाकाल का ६६ वर्षों का अन्तर भी दोनों के गुरु-शिष्यत्व में बाधक है।
शाकटायन व्याकरण की टीका "रूपसिद्धि" के रचयिता दयापाल मुनि वादिराज के सतीर्थ ( सहाध्यायी या सधर्मा ) थे। मल्लिषेणप्रशस्ति में वादिराज के सतीर्थों में पुष्पसेन और श्रीविजय का भी नाम आया है। किन्तु इन दोनों का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । हुम्मच के इन शिलालेखों में द्राविड़संघ की परम्परा इस प्रकार दी गई है-~
मौनिदेव
विमलचन्द्र भट्टारक कनकसेन वादिराज ( हेमसेन )
दयापाल
वादिराज
श्रीविजर
पुष्पसेन गुणसेन
श्रेयांसदेव कमलभद्र
अजितसेन (वादीभसिंह) कुमारसेन १. यशस्तिलकचम्पू (सम्पा०-सुन्दरलाल शास्त्री) क्षुतसागरी टीका, द्वितीय आश्वास, पृ० २६५ २. वही, पृ० २६५ ३. शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेष्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेषु गतेषु अंकतः सिद्धार्थसंवत्सरान्तर्गतचैत्रमासमदन
त्रयोदश्याम्...... I -यशस्तिलकचम्पू, पृ. ४८ । ४. पार्श्वनाथचरित, प्रशस्तिपद्य ५ ५. द्रष्टव्य-जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेखांक २१३-२१६ ६. वही भाग ३ की डा० गुलाबचन्द्र चौधरी द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ० ३८ से उद्धृत
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वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण
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यहाँ वादिराज के गुरु का नाम कनकसेन वादिराज ( हेमसेन ) कहा है और अन्यत्र मतिसागर निर्दिष्ट है । इसका समाधान यही हो सकता है कि कदाचित् मतिसागर वादिराज के दीक्षागुरु थे और कनकसेन वादिराज ( हेमसेन ) विद्यागुरु। श्री नाथूराम प्रेमी का भी यही मन्तव्य है ।" साध्वी संघमित्रा जी ने वादिराज के सतीर्थ का नाम अनेक बार दयालपाल लिखा है । जो संभवतः मुद्रण दोष है क्योंकि उनके द्वारा प्रदत्त सन्दर्भ मल्लिषेणप्रशस्ति में भी दयापालमुनि ही आया है ।
वादिराज कवि का मूल नाम था या उपाधि-- इस विषय में पर्याप्त वैमत्य है । श्री नाथूराम प्रेमी की मान्यता है कि उनका मूल नाम कुछ और ही रहा होगा, वादिराज तो उनकी उपाधि है और कालान्तर में वे इसी नाम से प्रसिद्ध हो गये। टी० ए० गोपीनाथ राव ने वादिराज का वास्तविक नाम कनकसेन वादिराज माना है । इसका कारण यह हो सकता है कि कीथ, विन्टरनित्ज आदि कुछ पाश्चात्य इतिहासज्ञों ने कनकसेन वादिराज कृत २९६ पद्यात्मक एवं ४ सर्गात्मक यशोधरचरित नामक काव्य का उल्लेख किया है ।" किन्तु । विभिन्न शिलालेखों में कनकसेन वादिराज और वादिराज का पृथक्-पृथक् उल्लेख हुआ है । एक अन्य शिलालेख में जगदेकमल्ल वादिराज का नाम वर्धमान कहा गया है । ७ वादिराजसूरि द्वारा विरचित एकीभावस्तोत्र ( कल्याणकल्पद्रुम ) पर नागेन्द्रसूरि द्वारा विरचित एक टीका उपलब्ध होती है । टीकाकार के प्रारम्भिक प्रतिज्ञा वाक्य में स्पष्ट रूप से वादिराज का दूसरा नाम वर्धमान कहा गया है
यह भ्रामक
“श्रीमद्वादिराजापरनामवर्धमानमुनीश्वरविरचितस्य
परमाप्तस्तवस्यातिगहनगंभीरस्य
सुखावबोधार्थं भव्यासु जिघृक्षापारतन्त्रं ज्ञनिभूषणभट्टारकै रूपरुद्धो नागचन्द्रसूरिर्यथाशक्ति छायामात्रमिदं निबन्धनमभिधत्ते । " " किन्तु यह टीका अत्यन्त अर्वाचीन है । टीका की एक प्रति झालरापटन के सरस्वती भवन में है । यह प्रति वि० सं० १६७६ ( १६१९ ई० ) में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मण्डलाचार्य यशः कीर्ति के शिष्य ब्रह्मदास ने वैराठ नगर में आत्म पठनार्थ
लिखी थी । "
१. द्रष्टव्य - श्री नाथूराम प्रेमी द्वारा लिखित 'वादिराज सूरि' लेख । जैन हितैषी भाग ८ अंक ११ पृ० ५१५
द्वितीय ),
२. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य ( द्वितीय संस्करण ) वादिगजपंचानन आचार्य वादिराज पृ० ५७०
३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४७८
४. इंट्रोडक्शन टू यशोधरचरित पृ० ५
संस्कृत साहित्य का इतिहास (कीथ, अनु० - मंगलदेव शास्त्री) पृ० ११७ एवं जैनिज्म इन दी हिस्ट्री
ऑफ संस्कृत लिटरेचर — एम० विन्टरनित्ज पृ० १६
६. जैन शिलालेख संग्रह, भाग १ लेखांक ४९३
७. वही, भाग ३ लेखांक ३४७
८. द्रष्टव्य — सरस्वती भवन, झालरापाटन की हस्तप्रति का प्रारम्भिक प्रतिज्ञावाक्य ९. वही अन्त्यप्रशस्ति
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डा. जयकुमार जैन यतः वादिराज ने पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति' तथा यशोधरचरित के प्रारम्भ में अपना नाम वादिराज ही कहा है, अतः जब तक अन्य कोई प्रबल प्रमाण नहीं मिलता है, तब तक हमें वादिराज ही वास्तविक नाम स्वीकार करना चाहिए।
वादिराजसूरि के समय दक्षिण भारत में चालुक्य नरेश जयसिंह का शासन था। इनके राज्यकाल की सीमायें १०१६-१०४२ ई० मानी जाती हैं। महाकवि विल्हण ने चालक्य वंश की उत्पत्ति दैत्यों के नाश के लिए ब्रह्मा की चलका ( चल्ल ) से बताई है। उन्होंने चालक्य वंश की परम्परा का प्रारम्भ हारीत से करते हुए उनकी वंशावली का निर्देश इस प्रकार किया है-मानव्य> तैलप> सत्याश्रय> जयसिंहदेव । जयसिंहदेव के उत्तराधिकारी आहवमल्ल द्वारा अपनी राजधानी कल्याणनगर बसाकर उसे बनाने का उल्लेख विक्रमांकदेवचरित में किया गया है। जिससे स्पष्ट होता है कि उनके पूर्व शासक की राजधानी अन्यत्र थी। पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति में महाराज जयसिंह की राजधानी "कट्टगातीरभूमौ" कहा गया है। किन्तु दक्षिण में कट्टगा नामक कोई नदी नहीं है । हाँ, बादामी से लगभग १८-१९ किमी० दूर एक कट्टगेरी नामक स्थान जरूर है जो कोई प्राचीन नगर जान पड़ता है। ऐसा लगता है कि प्रमादवश "कट्टगेरीतिभूमौ" के स्थान पर हस्तलिखित प्रति में "कट्टगातीरभूमौ" लिखा गया है। कट्टगेरी नामक उक्त स्थान पर चालुक्य विक्रमादित्य (द्वितीय) का एक कन्नड़ी शिलालेख भी मिला है, जिससे स्पष्ट है कि चालुक्य राजाओं का कट्टगेरी स्थान से सम्बन्ध रहा है। यही कट्टगेरी जयसिंहदेव की राजधानी होनी चाहिए।
पार्श्वनाथचरित के अतिरिक्त न्यायविनिश्चयविवरण एवं यशोधरचरित की रचना भी जयसिंह की राजधानी में ही सम्पन्न हुई थी। न्यायविनिश्चयविवरण' में तो इसका उल्लेख किया ही गया है, यशोधरचरित में भी जयसिंह पद का प्रयोग करके बड़े कौशल के साथ इसकी सूचना दी गई है। यथा
"व्यातन्वजयसिंहतां रणमुखे दीर्घ दधौ धारिणीम् ।" __ "रणमुखजयसिंहो राज्यलक्ष्मी बभार ।"
१. पार्श्वनाथचरित प्रशस्तिपद्य ४ (वादिराजेन कथा निबद्धा) २. यशोधरचरित १/६ (तन श्रीवादिराजेन) ३. द्रष्टव्य-कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वंश की वंशावली----फादर हराश एवं श्री गुजर, विक्रमांक
देवचरित भाग २ (हिन्द वि० वि० प्रकाशन ) परिशिष्ट तथा जैन शिलालेख संग्रह भाग ३ की
डा० चौधरी द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ० ८८ ४. विक्रमांकदेवचरित १५८-७९ ५. वही २/१ ६. पार्श्वनाथचरित प्रशस्तिपद्य ५
न्यायविनिश्चय विवरण प्रशस्तिपद्य ५ ८. यशोधरचरित ३/८३ एवं ४/७३
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वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण
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किसी भी आन्तरिक या बाह्य प्रमाण द्वारा वादिराज का जन्म काल ज्ञात नहीं हो सका है । परन्तु यतः उन्होंने पार्श्वनाथचरित की रचना शक सं० ९४७ कार्तिक शुक्ला तृतीया को की थी', अतः उनका जन्म समय ३० - ४० वर्ष पूर्व मानकर ९८५-९९५ ई० के लगभग माना जा सकता है । पंचवस्ति के ११४७ ई० में उत्कीर्ण शिलालेख में वादिराज को गंगवंशीय राजा राजमल्ल ( चतुर्थ ) सत्यवाक का गुरु बताया गया है । यह राजा ९ ७ ई० में गद्दी पर बैठा था । समरकेशरी चामुण्डराय इसका मन्त्री था । अतः वादिराज का समय इससे पूर्व ठहरता है । इन आधारों पर वादिराज का समय ९५०-१०५० ई० के मध्यवर्ती मानने में कोई असंगति प्रतीत नहीं होती है ।
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने पार्श्वनाथचरित का प्रणयन सिंहचक्रेश्वर चालुक्यचक्रवर्ती जयसिंहदेव की राजधानी में शक सं० ९६४ में किया है। उनका यह कथन पार्श्वनाथचरित के नग = सात वाधि = चार और रन्ध्र = नव की विपरीत गणना ( अंकानां वामा गतिः ) ७४७ शक स० विरुद्ध, अतएव असंगत है । एक और बिचित्र बात देखने में आई है कि डा० हीरालाल जैन जैसे सप्रसिद्ध विद्वान् ने भी वादिराज को कहीं दसवीं, कहीं ग्यारहवीं और कहीं-कहीं तेरहवीं शताब्दी तक पहुँचा दिया है । डा० जैन ने यशोधरचरित का उल्लेख करते हुए १०वीं शताब्दी, एकीभावस्तोत्र के प्रसंग में ११वीं शताब्दी पार्श्वनाथचरित के सम्बन्ध में भी ११वीं शताब्दी, तथा न्यायविनिश्चयविवरण टीका के उल्लेख में १३वीं शताब्दी का समय वादिराज के साथ लिखा है । स्पष्ट है कि वादिराजसूरि का १३वीं शती में लिखा जाना या तो मुद्रणगत दोष है अथवा डा० जैन ने काल-निर्धारण में पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति का उपयोग नहीं किया है तथा पूर्वापरता का ध्यान रखे बिना एक ही व्यक्ति को १० वीं से १३ वीं शताब्दी तक स्थापित करने का विचित्र प्रयास किया है ।
अनेक शिलालेखों तथा अन्यत्र वादिराजसूरि की अतीव प्रशंसा की गई है । मल्लिषेणप्रशस्ति में अनेक पद्य इनकी प्रशंसा में लिखे गये हैं । यह प्रशस्ति १०५० शक स ं० ( ११२८ ई०) में उत्कीर्ण की गई थी जो पार्श्वनाथवस्ति के प्रस्तरस्तम्भ पर अंकित है । यहाँ वादिराज को महान् कवि, वादी और विजेता के रूप में स्मरण किया गया है । एक स्थान पर तो उन्हें जिनराज के समान तक कह दिया गया है ।" इस प्रशस्ति के "सिंहसमर्च्यपीठविभवः”
१. शाकाब्दे नगवाधिरन्धगणने
। पार्श्वनाथचरित, प्रशस्तिपद्य ५
२. द्रष्टव्य - " एकीभावस्तोत्र" की परमानन्द शास्त्री द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ० ४ एवं नाथूराम
प्रेमी का "वादिराजसूरि" लेख, जैनहितैषी भाग ८ अंक ११ पृ० ५११
३. संस्कृत साहित्य का इतिहास, प्रथम भाग, काव्य खण्ड, पंचम परिच्छेद पृ० २४५
४. भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म का योगदान पृ० १७१
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५. वही, पृ० १२६
६. वही, पृ० १८८
७. वही, पृ० ८९
८. त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोद्गादिह । जिनराजत एकस्मादेकस्माद् वादिराजतः ॥ — जैन शिलालेख संग्रह भाग-१, लेखांक ५४, मल्लिषेणप्रशस्ति, पद्य ४०
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डा० जयकुमार जैन
विशेषण से ज्ञात होता है कि महाराजा जयसिह द्वारा उनका आसन पूजित था। इतने कम समय में इतनी अधिक प्रशंसा पाने का सौभाग्य कम ही कवियों अथवा आचार्यों को मिला है।
___ काव्य पक्ष की अपेक्षा वादिराजसूरि का तार्किक ( न्याय ) पक्ष अधिक समृद्ध है। आचार्य बलदेव उपाध्याय की यह उक्ति कि "वादिराज अपनी काव्य प्रतिभा के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उससे कहीं अधिक तार्किक वैदुषी के लिए विश्रुत हैं ।'' सर्वथा समीचीन जान पड़ती है। यही कारण है कि एक शिलालेख में वादिराज को विभिन्न दार्शनिकों का एकीभूत प्रतिनिधि कहा गया है
"सदसि यदकलंक कीर्तने धर्मकीर्तिः वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समयगुरुणामेकतः सगतानां
प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः ॥२ अन्यत्र वादिराजसूरि को षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति, जगदेकमल्लवादी उपाधियों से विभूषित किया गया है। एकीभावस्तोत्र के अन्त में एक पद्य प्राप्त होता है जिसमें वादिराज को समस्त वैयाकरणों, ताकिकों एवं साहित्यिकों एवं भव्यसहायों में अग्रणी बताया गया है। यशोधरचरित के सुप्रसिद्ध टीकाकार लक्ष्मण ने उन्हें मेदिनीतिलक कवि कहा है। भले ही इन प्रशंसापरक प्रशस्तियों और अन्य उल्लेखों में अतिशयोक्ति हो पर इसमें सन्देह नहीं कि वे महान् कवि और तार्किक थे ।
वादिराजसूरि की अद्यावधि पाँच कृतियाँ असंदिग्ध हैं-(१) पार्श्वनाथचरित, (२) यशोधरचरित, (३) एकीभावस्तोत्र, (४) न्यायविनिश्चयविवरण और (५) प्रमाण निर्णय । प्रारम्भिक तीन साहित्यिक एवं अन्तिम दो न्याय विषयक हैं। इन पाँच कृतियों के अतिरिक्त श्री अगरचन्द्र नाहटा ने उनकी त्रैलोक्यदीपिका और अध्यात्माष्टक नामक दो कृतियों का और उल्लेख किया है। इनमें अध्यात्माष्टक भा०दि० जैन ग्रन्थमाला से वि० १७७५ (१७९८ ई०) में प्रकाशित भी हुआ था। श्री परमानन्द शास्त्री इसे वाग्भटालंकार के टीकाकार वादिराज
१. संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग १, पंचम परिच्छेद, पृ० २४५ २. जैनशिलालेख संग्रह भाग २, लेखांक २१५ एवं वही भाग ३ लेखांक ३१९ ३. जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेखांक २१३ एवं भाग ३ लेखांक ३१५ ४. वादिराजमनुशाब्दिकलोको वादिराजमनुताकिकसिंहाः ।
वादिराजमनुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनुभव्यसहाया: ।। एकीभाग, अन्त्य पद्य ५. वादिराजकविं नौमि मेदिनीतिलकं कविम् ।
यदीय रसनारंगे वाणी नर्तनमातनीत् ॥ यशोधरचरित, टीकाकार का मंगलाचरण ६. श्री अगरचन्द्र नाहटा द्वारा लिखित "जैन साहित्य का विकास" लेख । जैन सिद्धान्त भास्कर भाग
१६ किरण १ जून ४९ पृ० २८
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वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण
२१३ की कृति मानते हैं। "त्रैलोक्यदीपिका नामक कृति उपलब्ध नहीं है। मल्लिषेण प्रशस्ति के त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोद्गादिह । जिनराजत एकस्मादेकस्माद् वादिराजतः ॥"२ में कदाचित् इसी त्रैलोक्यदीपिका का सकेत किया गया है। श्री नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि सेठ माणिकचन्द्र जी के ग्रन्थ रजिस्टर में त्रैलोक्यदीपिका नामक एक अपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें प्रारम्भ के १० और अन्त में ५८ पृष्ठ के आगे के पन्ने नहीं हैं। सम्भव है यही वादिराजकृत त्रैलोक्यदीपिका हो। विद्वद्रत्नमाला में प्रकाशित अपने एक लेख में प्रेमी जी ने एक सूचीपत्र के आधार पर वादिराजकृत चार ग्रन्थों- वादमंजरी, धर्मरत्नाकर, रुक्मणीयशोविजय और अकलंकाष्टकटीका का उल्लेख किया है। किन्तु मात्र स चीपत्र के आधार पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
इस प्रकार वादिराजसूरि के परिचय, कीर्तन एवं कृतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि वे बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न कवि एवं आचार्य थे। वे मध्ययुगीन संस्कृतसाहित्य के अग्रणी प्रतिभू रहे हैं तथा उन्होंने संस्कृत के बहुविध भाण्डार को नवीन भागराशियों का अनुपम उपहार दिया है । उनके विधिवत अध्ययन से न केवल साहित्य अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय का गौरव समृद्धतर होगा।
प्रवक्ता संस्कृत विभाग एस०डी० स्नातकोत्तर कालेज मुजफ्फरनगर (यू० पी०)
१. एकीभावस्तोत्र, प्रस्तावना, पृ० १६ २. जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, लेखांक ५४, प्रशस्तिपद्य ४० ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४०४ ४. विद्वद्रत्नमाला में प्रकाशित हिन्दी लेख का पार्श्वनाथचरित के प्रारम्भ में संस्कृत में वादिराजसरि
का परिचय ।
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साहित्यिक उन्नयन में भट्टारकों का अवदान
डा० पी० सी० जैन
तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनकी शासन-परम्परा में ऐसे अनेक जैन सन्त, आचार्य और कवि हुए हैं जिनके अगाध अध्ययन और चिन्तन ने भारतीय साहित्य के निर्माण और उसकी समृद्धि में योगदान ही नहीं किया वरन् अपने चारित्रिक गुणों और लोकहितैषी कार्यों द्वारा जन-जन को प्रभावित किया है। महावीर निर्वाण की कुछ शताब्दियों बाद (लगभग वीर निर्वाण सम्वत् की १३वीं शती से ) इस परम्परा में भट्टारकों की परम्परा आ जुड़ती है । इन भट्टारकों को जैन संतों के रूप में स्मरण किया जा सकता है क्योंकि संतों का स्वरूप हमें इन भट्टारकों में देखने को मिलता है । इनका जीवन ही राष्ट्र को आध्यात्मिक खुराक देने के लिए समर्पित हो चुका था तथा वे देश को साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक दृष्टि से सम्पन्न बनाते थे । वे स्थान-स्थान पर विहार करके जन-मानस को पवित्र बनाते थे ।
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ये भट्टारक पूर्णतः संयमी होते थे । इनका आहार एवं विहार श्रमण परम्परा के अन्तर्गत होता था, व्रत विधान एवं प्रतिष्ठा समारोहों में तो इन भट्टारकों की उपस्थिति आवश्यक मानी जाती रही है ।
ये भट्टारक पूर्णतः प्रभुत्व सम्पन्न थे । वैसे ये आचार्यों के भी आचार्य थे क्योंकि इनके संघ में आचार्य, मुनि, ब्रह्मचारी एवं आर्यिकाएँ रहती थीं । साहित्य की जितनी सेवा भट्टारकों ने की है वह तो अपनी दृष्टि से इतिहास का अद्वितीय उदाहरण है । शास्त्रभण्डारों की स्थापना, नवीन पाण्डुलिपियों का लेखन एवं उनका संग्रह, शास्त्र - प्रवचन, अध्ययनअध्यापन आदि सभी इनके अद्वितीय कार्य थे ।
भट्टारकों ने भारतीय साहित्य को अमूल्य कृतियाँ भेंट की हैं। उन्होंने सदैव ही लोकभाषा में साहित्य निर्माण किया । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी आदि भाषाओं में रचनाएँ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । भट्टारकों ने साहित्य के विभिन्न अंगों को पल्लवित किया । वे केवल चरित काव्यों के निर्माण में ही नहीं उलझे अपितु पुराण, काव्य, बेलि, रास, फागु, पंचासिका, शतक, पच्चीसी, बत्तीसी, बावनी, विवाहलो, आख्यान आदि काव्य के पचासों रूपों को इन्होंने अपना समर्थन दिया और उनमें अपनी रचनाएँ निर्मित करके उन्हें पल्लवित होने का सुअवसर दिया । यही कारण है कि काव्य के विभिन्न अंगों में इन भट्टारकों द्वारा निर्मित रचनाएं अच्छी संख्या में मिलती हैं ।
आध्यात्मिक एवं उपदेशात्मक रचनाएँ लिखना इन भट्टारकों का सदा ही प्रिय रहा है । अपने अनुभव के आधार पर जगत् की दशा का जो सुन्दर चित्रण इन्होंने अपनी कृतियों में किया है वह प्रत्येक मानव को सत्पथ पर ले जाने वाला है । इन्होंने मानव को जगत् से भागने के लिए नहीं कहा किन्तु उसमें रहते हुए ही अपने जीवन को समुन्नत बनाने का
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साहित्यिक उन्नयन में भट्टारकों का अवदान
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उपदेश दिया । शांत एवं आध्यात्मिक रस के अतिरिक्त इन्होंने वीर, शृङ्गार एवं अन्य रसों में खूब साहित्य सृजन किया।
महाकवि वीर द्वारा रचित "जम्मूस्वामीचरित' (१०७६) एवं भट्टारक रत्नकीर्ति द्वारा वीरविलास फाग इसी कोटि की रचनाएँ हैं। रसों के अतिरिक्त छन्दों में जितनी विविधताएं इन भट्टारकों की रचनाओं में मिलती हैं उतनी अन्यत्र नहीं। इन भट्टारकों की हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती भाषा की रचनाएँ विविध छन्दों में आप्लावित हैं।
- मेरा तो विश्वास है कि भारतीय साहित्य की जितनी अधिक सेवा एवं सुरक्षा इन जैन भट्टारकों ने की है शायद ही उतनी अधिक सेवा किसी अन्य सम्प्रदाय अथवा धर्म के साधु वर्ग द्वारा की गई है। इन जैन भट्टारकों ने तो विविध भाषाओं में सैकड़ों-हजारों कृतियों का सृजन किया ही किन्तु अपने पूर्ववर्ती आचार्यों, साधुओं, कवियों एवं लेखकों की रचनाओं का भी बड़े प्रेम, श्रद्धा एवं उत्साह से संग्रह किया। एक-एक ग्रन्थ की कितनी ही प्रतियाँ लिखवाकर ग्रन्थ भण्डारों में विराजमान की और जनता को उन्हें पढ़ने एवं स्वाध्याय के लिए प्रोत्साहित किया । भारतवर्ष के हजारों हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डार उनकी साहित्यिक सेवा के ज्वलंत उदाहरण हैं। ये जैन भट्टारक, साहित्य-संग्रह की दृष्टि से कभी जातिवाद एवं सम्प्रदाय के चक्कर में नहीं पड़े किन्तु जहाँ से उन्हें अच्छा, उपदेशात्मक एवं कल्याणकारी साहित्य उपलब्ध हुआ वहीं से उसका संग्रह करके शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत किया । साहित्य संग्रह की दृष्टि से इन्होंने स्थान-स्थान पर ग्रन्थ-भण्डार स्थापित किये । इन्हीं भट्टारकों की साहित्यिक
रिणामस्वरूप भारतवर्ष के जैन ग्रन्थ भण्डारों में ३५ लाख से अधिक हस्तलिखित ग्रन्थ अब भी उपलब्ध होते हैं। ग्रंथ संग्रह के अतिरिक्त इन्होंने जैनेतर विद्वानों द्वारा लिखित काव्यों एवं अन्य गन्थो पर टीकाए लिखकर उनके पठन-पाठन में सहायता पहुँचायी है। १४वीं शताब्दी के भट्टारक
भ० प्रभाचन्द्र-संवत् १३१४-१४०८- वे प्रमेयकमलमार्तण्ड, महापुराण, परमात्मप्रकाश, समयसार, तत्त्वार्थसूत्र आदि अनेक ग्रन्थों के व्याख्याता थे।
भ० पद्मनन्दि-सं० १३८५-१४५०-(१) पद्मनन्दि श्रावकाचार, (२) अनन्त व्रत कथा, (३) द्वादशव्रतोद्यापनपूजा, (४) पार्श्वनाथस्तोत्र, (५) नन्दीश्वर पंक्तिपूजा, (६) लक्ष्मीस्तोत्र, (७) वीतराग स्तोत्र, (८) श्रावकाचार टीका, (९) देवशास्त्र गुरु पूजा, (१०) रत्नत्रय पूजा, (११) भावना चौतीसी (१२) परमात्मराज स्तोत्र, (१३) सरस्वती पूजा, (१४) सिद्धपूजा, (१५) शान्तिनाथ स्तवन ।
इनकी उपरोक्त सभी रचनायें संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं, श्रावकाचार एवं उसकी टीका को छोड़कर बाकी सभी रचनायें पूजास्तोत्र एवं कथापरक हैं। १५वीं शताब्दो के भट्टारक---
भ० सकलकोति-संवत् १४५६-१४९९ : संस्कृत रचनाए--(१) मूलाचारप्रदीप, (२) प्रश्नोत्तरपासकाचार, (३) आदिपुराण, (४) उत्तरपुराण, (५) शान्तिनाथचरित्र, (६) वर्द्धमानचरित्र, (७) मल्लिनाथचरित्र, (८) यशोधरचरित्र, (९) धन्यकुमार चरित्र, (१०) सुकुमाल
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डा. पी० सी० जैन चरित्र, (११) सुदर्शनचरित्र, (१२) सद्भाषितावलि, (१३) पार्श्वनाथचरित्र, (१४) व्रतकथाकोष, (१५) नेमिजिन चरित्र, (१६) कर्मविपाक (१७) तत्त्वार्थसार दीपक, (१८) सिद्धान्तसार दीपक, (१९) आगमसार, (२०) परमात्मराज स्तोत्र, (२१) सार चतुर्विशतिका, (२२) श्रीपालचरित्र, (२३) जम्बूस्वामी चरित्र, (२४) द्वादशानुप्रेक्षा आदि-आदि ।
पूजा ग्रन्थों में--(२५) अष्टाह्निका पूजा, (२६) सोलहकारण पूजा, (२७) गणधरवलय पूजा।
राजस्थानी कृतियों में-(२८) आराधना प्रतिबोधसार, (२९) नेमीश्वर गीत, (३०) मुक्तावलीगीत, (३१) णमोकार फलगी, (३२) सोलहकारण रास, (३३) सारसीरवामणि रास, (३४) शान्तिनाथ फागु।
भ० जिनचन्द्र -१५वीं शताब्दी-रचनाए--(१) सिद्धान्तसार, (२) जिनचतुर्विशति स्तोत्र ।
१६ वीं शताब्दी के भट्टारक
भ० सोमकोति-सम्बत् १५२६ से १५४० : रचनाए-संस्कृत में-(१) सप्तव्यसन कथा, (२) प्रद्युम्न चरित्र, (३) यशोधरचरित्र। राजस्थानी रचनाओं में-(४) गुर्वावलि, (५) यशोधर रास, (६) रिषभनाथ की धूलि, (७) मल्लिगीत, (८) आदिनाथ विनती, (९) त्रेपनक्रिया गीत ।
__ भ० ज्ञानभूषण-सम्वत् १५३०-१५५७, रचनाए-संस्कृत में-(१) आत्मसंबोधन काव्य, (२) ऋषि मण्डल पूजा, (३) तत्त्वज्ञानतरंगिणी, (४) पूजाष्टक टीका, (५) पंचकल्याणक उद्यापन पूजा, (६) भक्तामर पूजा, (७) श्रुत पूजा, (८) सरस्वती पूजा, (९) सरस्वती स्तुति, (१०) शास्त्रमण्डल पूजा । हिन्दी रचनाओं में--(११) आदीश्वर फाग, (१२) जलगाण रास, (१३) पोसह रास, (१४) षट् कर्मरास, (१५) नागद्रा रास।
भ० शुभचन्द्र-सम्वत् १५७३ से १६१३-६० से भी अधिक रचनाएं उपलब्ध हैं, जिनमें मुख्य रूप से इस प्रकार हैं---संस्कृत में - (१) चन्द्रप्रभचरित्र, (२) करकण्डुचरित्र, (३) कात्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, (४) चन्दना चरित्र, (५) जीवन्धर चरित्र, (६) पाण्डवपुराण, (७) श्रेणिक चरित्र, (८) सज्जन चित्त वल्लभ, (९) पार्श्वनाथ काव्य पंजिका, (१०) प्राकृत लक्षण टीका (११) अध्यात्म तरंगिणी, (१२) अम्बिका कल्प, (१३) अष्टाह्निका कथा, (१४) कर्मदहनपूजा (१५) चन्दन षष्टिव्रत पूजा, (१६) गणधरवलय पूजा, (१७) चरित्रशुद्धिविधान, (१८) तीस चौबीसी पूजा, (१९) पंचकल्याणक पूजा, (२०) पल्यव्रतोद्यापन, (२१) तेरहद्वीप पूजा, (२२१ पुष्पाञ्जली व्रत पूजा, (२३) सार्द्धद्वयदीप पूजा, (२४) सिद्धचक्रपूजा । हिन्दी रचनाओं में-(२५॥ महावीर छन्द, (२६) विजयकीर्ति छन्द, (२७) गुरु छन्द, (२८) नेमिनाथ छन्द, (२९) तत्त्वसार। दूहा, (३०) दान छन्द, (३१) अष्टाह्निकागीत, (३२) क्षेत्रपालगीत, पद आदि ।
भ० वीरचन्द्र-सम्वत् १५८२ से १६००-रचनाए-(१) वीरविलास फागु, (२) जम्बूस्वामी विलास, (३) जिन आंतरा, (४) सीमन्धर स्वामी गीत, (५) संबोध सत्ताणु (६) नेमिनाथ रास (७) चित्तनिरोध कथा, (८) बाहुबलि बेलि ।
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साहित्यिक उन्नयन में भट्टारकों का अवदान
२१७ १७ वीं शताब्दी के भट्टारक
भ० रत्नकोति-संवत् १६०० से १६५६-रचनाए-(१)नेमिनाथ फागु, (२) महावीर गीत, (३) नेमिनाथ का बारहमासा, (४) सिद्धधूल, (५) बलिभद्रनी विनती, (६) नेमिनाथ विनती तथा३८ पदों की खोज की जा चुकी है।
__ भ० ललितकीति-सम्वत् १६०३ से १६२२-रचनाए-सस्कृत में-(१) अक्षय दशमी कथा, (२) अनन्तव्रत कथा, (३) आकाशपंचमी कथा, (४) एकावली व्रत कथा, (५) कमेनिर्जरा व्रत कथा, (६) कांजिका व्रत कथा, (७) जिनगुण सम्पत्ति कथा, (८) जिनरात्रि व्रत कथा, (९) ज्येष्ठ जिनवर कथा, (१०) दशपरमस्नान व्रत कथा. (११) दशलाक्षणिक कथा, (१२) द्वादशव्रत कथा, (१३) धनकलश कथा, (१४) पुष्पाञ्जलि व्रत कथा, (१५) रक्षाविधान कथा. (१६) रत्नत्रय व्रत कथा, (१७) रोहिणी व्रत कथा, (१८) षट्रस कथा. (१९) षोडश कारण कथा. (२०) सिद्धचक्रपूजा।
भ० चन्द्रकीति-सम्बत् १६००-१६६०-रचनाए-(१) सोलहकारण रास, (२) जयकुमाराख्यान. (३) चारित्र चुनड़ी, (४) चौरासी लाख जीवनयोनी विनती। इनके अतिरिक्त करीब ४० पद भी उपलब्ध हुए हैं।
भ० अभयचन्द्र–सम्वत् १६८५-१७२१-अब तक इनकी १० रचनाए व २० पद प्राप्त हो चुके हैं।
भ० महीचन्द-रचनाए-(१)-नेमिनाथ समवसरण विधि, (२) आदिनाथ विनती (३) आदित्यव्रत कथा, (४) लवांकुश छप्पय आदि ।
भ० देवेन्द्रकीति --सम्वत् १६६२-१६९० रचनाए-इनके अनेक पद उपलब्ध होते हैं। भ० भवरेन्द्रकीति-सम्वत् १६९१-१७२२-रचनाए-(१) तीर्थंकर चौबीसना छप्पय ।
इसी प्रकार १७ वीं शताब्दी के अन्य भट्टारकों में भ० कुमुदचन्द्र, भ० अभयनंदि, भ० रत्नचन्द्र, भ० कल्याणकीर्ति, भ० महीचन्द्र, भ० सकलभूषण आदि-आदि के नाम लिए जा सकते हैं इन्होंने सैकड़ों ग्रन्थों की रचनाएं की हैं जिनका यहां नामोल्लेख करना भी कठिन कार्य है।
१८ वीं शताब्दी के प्रमुख भट्टारक
१८ वीं शताब्दी के प्रमुख भट्टारकों में-(१) भ० क्षेमकीर्ति-१७२०-१७५७, (२) भ० शुभचन्द्र [द्वितीय] १७२५-१७४८, (३) भ० रतनचन्द्र द्वितीय, (४) भ० नरेन्द्र कीर्ति, (५. भ. सुरेन्द्रकीति-१७२२-१७३३. (६) भ० जगतकीर्ति-१७३३-१७७१, (७) भ० देवेन्द्रकीर्ति-१७७१. १७९२, (८) भ० महेन्द्रकीर्ति१७९२-१८१५-के नाम गिनाये जा सकते हैं।
१९वीं व २०वीं शताब्दी के भट्टारकों में--भ० क्षेमेन्द्रकीर्ति . १८१५-१८२२, भ० सुरेन्द्रकीति - १८२२-१८५२. भ० सुखेन्द्रकीर्ति, भ० चारुकीर्ति, भ० लक्ष्मीसेन. आदि-आदि प्रमुख हैं।
सम्वत् १३५१ से २००० तक इन भट्टारकों का कभी उत्थान हुआ तो कभी वे पतन की ओर अग्रसर हुए लेकिन फिर भी ये समाज के आवश्यक अंग माने जाते रहे । यद्यपि दिगम्बर जैन समाज में तेरापंथ के उदय से इन भटटारकों पर विद्वानों द्वारा कडे
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डा० पी० सी० जैन
प्रहार किये गये तथा कुछ विद्वान् इनकी लोकप्रियता को समाप्त करने में बड़े भारी साधक भी बने, लेकिन फिर भी समाज में इनकी आवश्यकता बनी रही और व्रत-विधान और प्रतिष्ठा समारोहों में इनकी उपस्थिति आवश्यक मानी जाती रही। शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, सकलकीर्ति प्रभाचन्द्र, ज्ञानभूषण जैसे भट्टारक किसी भी दृष्टि से आचार्यों से कम नहीं थे, क्योंकि उनका ज्ञान, तपस्या, त्याग और साधना सभी तो उनके समान थी और वे अपने समय के एकमात्र निर्विवाद दिगम्बर समाज के आचार्य थे। उन्होंने मुगलों के समय में जैन धर्म की रक्षा ही नहीं की अपितु साहित्य एवं सस्कृति की रक्षा में बहुमूल्य योगदान किया।
प्रयुक्त ग्रन्थ सूची १. राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों की सूची के पांचों भाग-सं० डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल २. भटटारक सम्प्रदाय-विद्याधर जोहरापूरकर. ३. प्रभावक आचार्य-डा० विद्याधर जोहरापुरकर एवं डा० कासलीवाल ४. नागोर के ग्रन्थ भण्डारों की सूची प्रथम चार भाग- स० डॉ० पी०सी० जैन ( लेखक ) ५. जैन ग्रन्थ भण्डार्स इन जयपुर एण्ड नागौर-लेखक का ६. राजस्थान के जैन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतित्व ७. अनेकान्त की फाईलें. ८. जैन सिद्धान्त भास्कर की फाईलें, आदि आदि का ।
सहायक प्राध्यापक राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर ( राज०)
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कविवर बनारसीदास और जीवनमूल्य
___ डा० नरेन्द्र भानावत साहित्य का धर्म और अध्यात्म से गहरा सम्बन्ध है। साहित्य के मूल में सहितता और हित का भाव निहित है तो धर्म और अध्यात्म का लक्ष्य प्राणि-मात्र के प्रति प्रेम और मैत्री का भाव स्थापित करते हुए विश्व एकात्मक बोध की आनन्दानुभूति में रमण करना है। यही कारण है कि संत काव्य और भक्ति काव्य में निहित संदेश आज भी संतप्त मानव को तृप्ति प्रदान करता है। रिक्त मन को परिपूर्ण बनाता है और निराशा व कुण्ठा के क्षणों में आशा और आस्था का संचार करता है। भारतीय साहित्य का अधिकांश भाग चाहे वह किसी भी भाषा का हो धर्म और अध्यात्म से अनुप्राणित है और इसीलिए वह चिर जीवित है, लोकमानस में रमा हुआ है।
कविवर बनारसीदास भारतीय धर्म और अध्यात्म चिन्तन-परम्परा के श्रेष्ठ कवि और व्याख्याता हैं। परम्परा का निर्वाह करते हुए भी वे उसका बोझा नहीं ढोते वरन् अवांछित तत्त्वों को काट-छाँट कर उसकी प्रकृत भावधारा को प्रवहमान रखते हैं। उसके भार को प्यार और क्रांति की धार में बदलते हैं। जीवन को वे भव-परम्परा के रूप में देखकर उसके कर्म-चक्र से टकराते हैं, उलझते हैं, उसमें फँसते और धंसते हैं, पर पराभूत नहीं होते। अपने ज्ञान-चक्र की पैनी धार से उसकी पर्तों को कुरेदते हैं, आत्मरस का अनुभव करते हैं।
यों जरा कल्पना कीजिए, उस मनःस्थिति की जिसमें बनारसीदास एक नहीं तीनतीन विवाह करते हैं और जिनके एक नहीं, दो नहीं, नौ संतानें-दो पुत्र और सात पुत्रियाँ होती हैं, पर अन्ततः जीवन में अकेलापन ।
उनका यह मृत्युबोध कितना मार्मिक, यथार्थ और सांसारिक नश्वरता, निस्सारता का द्योतक है :
नौ बालक हुवै मुवै, रहे नारी नर दोइ ।
ज्यौं तरवर पतझर हवै, रहैं ढूठ सो होइ ॥ ५५ वर्ष की अवस्था में कवि जैसे अपने जीवन-उपवन को तटस्थ होकर देखता है और अनुभव करता है कि जिसे उसने अब तक अपना जीवन-उपवन समझा है, वह बासन्ती बयार से युक्त नहीं वरन् पतझड़ की व्यथा से ग्रस्त है और मानव जीवन की सार्थकता 'पर' से ममत्व जोड़ने में नहीं वरन् 'स्व' के सम्मुख होने में है, स्वानुभव में है। यह अनुभव परिग्रह बढ़ाने से नहीं, वरन् घटाने से ही, निस्संग होने से ही सम्भव है। जब व्यक्ति चर्म-चक्षुओं से नहीं वरन् हृदय चक्षु से, ज्ञान चक्षु से संसार के वस्तु स्वरूप को देखने का सामर्थ्य पा लेता है, तब उसे बाहर नहीं, अपने भीतर ही अनन्त वसन्त लहलहाता दिखाई देता है :
तत्त्व दृष्टि जो देखिए, सत्यारथ की भाँति । ज्यौं जाको परिगह घटैं, त्यौं ताकौ उपसांति ॥
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डा० नरेन्द्र भानावत कवि का प्रारम्भिक जीवन परिग्रह-संकुल है। वह आधि-व्याधि से ग्रस्त है। कभी संग्रहणी रोग है तो कभी चेचक का आतंक । कभी चोर डाकुओं का भय है, तो कभी प्राण रक्षा के लिए बनिये होकर भी ब्राह्मण बनने का स्वांग है। कवि व्यापारी है, धन-दौलत के लिए वह नानाविध कठिनाइयों, आपत्तियों, आशंकाओं से घिर कर भी अपना व्यापार-अभियान चलाता है। पर उसमें अभीष्ट सफलता नहीं मिलती। जीवन रत्नाकर में वह पैठता है, हाथ-पांव पछाड़ता है, पर हृदय की आँख खली न होने से अतल गहराई में निहित रत्नों को प्राप्त नहीं कर पाता। उसे चारों ओर झाग ही झाग मिलते हैं, दिखाई देते हैं :
भोंदू भाई ! समुझ सबद यह मेरा। जो तू देखै इन आँखिन सों तामें कछु न तेरा ॥ ए आँवै भ्रम ही सौं उपजी, भ्रम ही के रस पागी। जहँ-जहँ भ्रम, तहँ-तहँ इनको श्रम, तू इन्हीं को रागी॥ ए आँखें दोउ रची चाम की, चाम ही चाम बिलौवें। ताकी ओट मोह निद्रा जुत, सुपन रूप तू जोवै॥ इन आँखिन को कौन भरोसो, ए विनसै छिन मांही।
है इनको पुद्गल सौं परच, तू तो पुद्गल नाही ॥ जब पुद्गल से परे अविनाशी से, 'चाम' से परे अपने 'स्वाम' से सम्बन्ध जुड़ता है, तब सतत प्रकाशमान आत्मगुण-रत्नों से साक्षात्कार होता है। इसके लिए चाहिए हृदय की आंख और उससे देखने की कला--
भोंदू भाई ! देखि हिये की आखें। जै करसैं अपनी सुख संपत्ति, भ्रम की संपत्ति नाखै । जै आंखे अमृत रस बरखें परखै केवलि बानि ।
जिन आंखिन विलोकि परमारथ, होहिं कृतारथ प्राणि ।। - कहना न होगा कि कवि बनारसीदास जी हिये की आँखों से वस्तु, व्यक्ति और पसि स्थिति को देखने का सामर्थ्य प्राप्त करते हैं और उन्हें धर्म के नाम पर प्रचलित ढोंग, आङ म्बर, प्रदर्शन, अन्धविश्वास आदि सब निरर्थक और प्रतिगामी लगते हैं। ये बाह्य वेश-भूषा को महत्त्व न देकर आन्तरिक भावना को महत्त्व देते हैं--'भेष में न भगवान, भगवा में'। शुद्धता ही उनके लिए सिद्ध पद का आधार बनती है --'शुद्धता में वास किये; सिद्ध पद पावै है' । अब वे उपभोक्ता संस्कृति के नहीं; उपयोगमूलक जीवन-दृष्टि के उपासक बन जाते हैं।
कवि बनारसीदास द्वारा रचित 'अर्द्ध कथानक' यों तो १७वीं शती के एक मध्यमवर्गी व्यापारी की आत्म-कथा के माध्यम से तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन का दस्तावेज प्रतीत होता है, उसमें जगह-जगह जीवन की विद्रूपताओं एवं सामाजिक विकृतियों को उभारा गया है। कवि अपनी दुर्बलताओं और मूर्खताओं का बेहिचक चित्रप कर, युगीन सामाजिक विसंगतियों को घनीभूत करता है। इस दृष्टि से 'अर्द्ध कथानक सामाजिक इतिहास लेखकों के लिए जीवंत, विश्वसनीय और प्रामाणिक सामग्री प्रस्तुत करता।
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कविवर बनारसीदास और जीवन-मूल्य
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है। पर मेरी अपनी दृष्टि में कविवर बनारसीदास को शायद यह अभिप्रेत नहीं है। कवि की पकड़ सामाजिक यथार्थ से गुजरती हुई होकर भी आत्मालोचन और अन्तर्निरीक्षण की है। अपनी आत्मकथा के माध्यम से वस्तुतः वह 'पर' से न जुड़कर 'स्व' से ही अधिकाधिक जुड़ता चलता है। आत्मकथा का लेखन एक प्रकार से कवि का प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का जैन-परम्परा में विशेष महत्व है। प्रत्येक श्रमण श्रावक प्रतिदिन की अपनी चर्या में रहे हए छिद्रो को भरने के लिए, अन्तरावलोकन करता है। अपने कृत कर्मों का प्रातः सायं आत्मचिंतन कर उसमें हुए पाप दोषों से निवृत्ति के लिए वह प्रायश्चित्त करता है और भविष्य में दोषों की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए सावधानी बरतने का संकल्प करता है। दूसरे शब्दों में जो-जो अतिक्रमण हए हैं, उसका प्रतिक्रमण कर वह विभाव, विकारों से दूर हट कर, अपने स्वभाव में स्थिर होता है। ज्यों-ज्यों मैं कवि की आत्मकथा 'कथानक' का पारायण करता हूँ, त्यों-त्यों मुझे लगता है कि यह कवि के ५५ वर्ष के जीवन का प्रतिक्रमण है जिसमें वह अपने दोषों विकारों पर स्वयं हँसता है और दूसरों को हँसाता है। इस तरह अपनी मनोग्रन्थियों को निग्रंथ बनाने की कला का उत्कृष्ट रूप हैं यह आत्मकथा। यह कथा संस्मरणात्मक होकर भी प्रतिक्रमणात्मक है और सचमुच बनारसीदास के जीवन का आरसी बन गई है । बना आरसी =बनारसी।
प्रतिक्रमण का भाव अर्थात् पीछे लौटाकर अपने विकारों और कमजोरियों को गुण-दोष को देखने की प्रवत्ति तब ही जागती है जब चित्तवत्ति निर्मल और हदय सरत
और सरल हृदय ही जीवन मूल्यों का निर्माण कर सकता है। जहाँ वक्रता और वंचकता होती है, वहाँ मूल्य अर्थात् वैल्यू का निर्माण नहीं होता। हाँ, वक्र व्यक्ति कीमत अर्थात् प्राइस की दुनिया में अवश्य चलता-फिरता हैं। बनारसीदास धर्म को कीमत अर्थात् प्राइस के रूप में नहीं मूल्य अर्थात् वैल्यू के रूप में स्वीकार करते हैं।
इसीलिए बनारसीदास के लिए समय धर्म नहीं वरन् आत्मा है। वे समय के सार को केवल बाँचते और पढ़ते नहीं, वरन् जीवन में उतारते हैं और सतत जागरूक बने रहते हैं । यह जागरुकता उन्हें समझौतावादी नहीं बनाती,साम्यवादी बनाती है। उनकी दृष्टि में सम्पदा धन-दौलत और जड़ पदार्थ नहीं है। सच्ची सम्पदा वह है जो सम्पदा सम्प (आपसी एकता) दे, सन्तोष दे, समता भाव में रमाये ।
कवि बनारसीदास का सम्पूर्ण जीवन विषमता के खिलाफ संघर्ष करने का जीवन है। आर्थिक विषमता से तो व्यापारी होने के कारण वे जूझते ही रहे। पर समाज सुधारक एवं तत्त्व द्रष्टा के रूप में वे सामाजिक विषतमा एवं धामिक विषमता से भी जझते। कबीर की तरह उन्होंने वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलन्द की और 'कोई जन्म से नहीं, कर्म से महान होता है' भगवान महावीर की इन वाणी को उन्होंने अपने शब्दों में प्रस्तुत किया। उनकी दृष्टि में तिलक, माला, मुद्रा और छाप धारण करने वाला वैष्णव नहीं है। सच्चा वैष्णव वह है जो संतोष का तिलक, वैराग्य की माला, ज्ञान की मुद्रा और श्रुति की छाप धारण करता है
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तिलक तोष माला विरति मुद्रा श्रुति छाप ।
इन लक्षण सो वैष्णव समुझे हरि परताप । मुसलमान वह है जो अपने मन का निग्रह कर उसे खुदा की ओर अभिमुख करता
__ जो मन मुसे आपनो, साहिब के रुख होय।
ज्ञान मुसल्ला गुह टिकै, मुसलमान है सोय ॥ उनकी दृष्टि में हिन्दू और तुरुक में कोई भेद नहीं है। दोनों एक हैं-- मन की द्विविधा मान कर भये एक सौ दोय । यह द्विविधा अर्थात् अज्ञान और भ्रम ही वर्ण-भेद, रंगभेद और ऊँच-नीच का भेद बनाये हुए हैं। बनारसीदास का निम्न कथन सम्पूर्ण मानव जाति को एक सूत्र में बाँधने के लिये आज भी मार्ग-दर्शक और प्रेरणादायक है--
तिनको द्विविधा, जे लखें, रंग-बिरंगी चाम ।
मेरे नैनन देखिये, घट-घट अन्तर राम ।। वस्तुतः कवि ने सतत स्वाध्याय करते हुए, वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्ष्या और धर्म कथा को आत्मसात कर लिया था। धर्म को उन्होंने कहा ही नहीं है बल्कि जीवन में धारण किया है। इसी स्तर पर वे भेद में अभेद और द्वैत में अद्वैत की अनुभूति कर सके। धर्म और अध्यात्म के स्तर पर उनका समता भाव, उन्हें परम प्रेमानुभूति में निमग्न कर गया, जहाँ आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहता
होऊँ मगन मैं दरसन पाय । ज्यों दरिया में बूंद समाय । पिय को मिलौं अपनयो खोय। ओला गल पाणी ज्यों होय ।
पिय मोरे घट मैं पिय माँय। जल तरंग ज्यों द्विविधा नाय । कविवर बनारसीदास के समय में राम, कृष्ण और शिव भक्ति का विशेष बोलबाला था। इनमें परस्पर साम्प्रदायिक निग्रह भी था। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने "रामचरित मानस' में शिव और राम की भक्ति को परस्पर पूरक बताते हुए राम को शिव का और शिव को राम का उपासक-उपास्य बताया है। कवि बनारसीदास में भी यह समन्वयवादी स्वर मुखरित है। एक ओर उन्होंने विराजै रामायण घट मांहि कह कर राम कथा की आध्यात्मिकता को आत्मस्थ किया है तो दूसरी ओर यह प्रतिपादित किया कि जीव ही शिव है अपने विशुद्ध परम चेतन रूप में और शिव पूजा वस्तुतः आत्मपूजा ही है। शिव के स्वरूप का यह रूपकात्मक चित्रण देखिये--
शक्ति विभूति अंग छवि छाजै । तीन गुपति तिरशूल विराजै ।। कंठ विभाव विषम विस सोहे। महामोह विषहर नहिं पौहै ।। संजम जटा सहज सुख भोगी। निहचै रूप दिगम्बर जोगी।
ब्रह्म समाधि ध्यान गृह साजै, तहाँ अनाहत डमरू बाजै ।। तुलसीदास ने अपने आराध्य राम को सर्वोपरि मान कर भी गणेश, सीता, गंगा-जमुवा चित्रकूट आदि सभी की स्तुति की है। पर सबसे मांगी राम-भक्ति ही है
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मांगत तुलसीदास कर जोरे, बसहु राम सिय मानस मोरे ॥
इसी प्रकार बनारसीदास ने शिव आदि की स्तुति करते हुए भी सबका समाहार वीतराग देव की भक्ति में ही किया है ।
वीतराग भक्ति के नाम पर उनके समय में बाह्य कर्म-काण्ड, ढोंग, पाखंड आदि बढ़ गया था । सच्ची साधुता दूषित हो चली थी । पूजा के नाम पर हिंसा और प्रदर्शन प्रधान बन गया था । यही कारण है कि उन्होंने तुलसीदास आदि अन्य कवियों की तरह किसी कथा को लेकर कोई प्रबन्ध काव्य नहीं लिखा और अपनी ही जीवन कथा को ही प्रबन्ध का रूप दिया । यह एक प्रकार से निःशल्य होने की स्वैच्छिक अन्तःशल्य चिकित्सा थी । इसी भावना से बनारसीदास ने साधुता के नाम पर वणिकवृत्ति चलाने वाले यतियों और मुनियों की कटु आलोचना की और सच्ची साधुता का स्वरूप लोक मानस के समक्ष प्रस्तुत किया
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जो सब जीवन को रखवाल । सो सुसाधु बंदुक तिरकाल | मृषावाद नहीं बोले रत्ती । सो जिन मारग सांचा जती ॥ सदय हृदय साधै शिव पंथ । सो तपीश निर्भय निर्ग्रन्थ । दत्त अदत्त न फरसे जोय । तारण तरण मुनीश्वर सोय ॥
पूजा के नाम पर द्रव्य पूजा ही प्रमुख बन गई और उसमें निहित आत्मभाव विसुप्त हो गया । कवि बनारसीदास ने पूजा की पवित्रता की रक्षा के लक्ष्य से उसके प्रतीकार्य को स्पष्ट किया और बताया कि अष्ट प्रकार की जिन-पूजा में जल मन की उज्ज्वलता का, चन्दन स्वभाव की शीतलता का, पुष्प कामदहन का, अक्षत अक्षय गुणों का, नैवेद्य व्याधिहरण का, दीपक आत्मज्ञान का, धू कर्मदहन का और फल मोक्ष पुरुषार्थ का प्रतीक है । एक अन्य स्थल पर कवि ने समरसता को जल, कषाय-उपशम को चन्दन कहा है
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समरस जल अभिषेक करावे । उपशम रस चन्दन घसि सावै । सहजानन्द पुण्य उप जावै । गुण गर्भित जयमास चढ़ावे ॥
कविवर बनारसीदास, धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं काव्य शास्त्र के क्षेत्र में भी समता, समरसता और प्रशांतता के पक्षधर हैं । शृंगार रस के नाम पर व्यक्तियों को उत्तेजित कर विलासिता के रंग 'निमग्न करने वाले शृंगारिक कवियों की भर्त्सना करते हुए कहा
मांस की ग्रन्थि कुच, कंचन कलस कहै, कहै मुख चन्द्र जो सलेषमा को धरू है । हाड़ के दशन माहि, हीरा मोती कहै ताहि, मांस के अधर ओठ, कहे बिंबफरु है । हाड़ दंभ भुजा कहै, कौल नाल काम धुजा, हाड़ ही के थंभा जंघा, कहै रंभा तरू है । यों ही झूठी जुगति बनावे और कहावै कवि, एते पै कहें हमें शारदा को वरू है ।
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अर्थात् मांस ग्रन्थि स्तनों को स्वर्ण कलश कहना, श्लेषमा के घर मुख को चन्द्र कहना, हड्डी के दातों को हीरा - मोती कहना, मांस- पिण्ड ओठ को बिम्बफल कहना, हाड़ के दण्डों रूप भुजा को कमल-नाल और कामदेव की पताका, जंघा को केले का वृक्ष कहना सरासर झूठ है । फिर ऐसे कवियों को सरस्वती का उपासक क्यों कर कहा जाय ? कहा जाता है कि बनारसीदास जी ने स्वयं प्रारम्भ में शृंगारिक रचनाएँ लिखी थीं पर बाद में जब उन्हें वास्तविक बोध हुआ तब उन रचनाओं को गोमदी नदी में फेंक दिया ।
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यथार्थ बोध होने पर कवि बनारसीदास ने काव्य शास्त्र में मान्य स्थायी भावों की नई प्ररूपणा भी की है। उन्होंने शृंगार रस का स्थायी भाव शोभा, हास्य रस का आनन्द, करुण रस का कोमलता, रौद्र रस का संहार, वीर रस का पुरुषार्थ, भयानक का चिन्ता, वीभत्स रस का ग्लानि, अद्भुत रस का आश्चर्य और शान्त रस का वैराग्य माना हैः-
शोभा में सिंगार बसै, वीर पुरुषारथ में, कोमल हिये में करुणा रस बखानिये | आनन्द में हास्य रुण्ड-मुण्ड में बिरज रुद्र. विभत्स तहाँ, जहाँ गिलानि मन आनिये । चिन्ता में भयानक, अथाहता में अद्भुत, माया की अरुचिता में शान्त ये ई नव रस भव रूप ये इनको विलछिण सुरष्टि जागे
रस मानिये ।
भाव रूप.
जानिये ।
कहने की आवश्यकता नहीं कि शृंगार के पारस्परिक स्थायी भाव रति की अपेक्षा शोभा अधिक व्यापक है । इसमें वासना का नहीं, आत्म की शोभा का उल्लास भाव उमड़ पड़ता है । हास्य रस का स्थायी भाव आनन्द, हास की अपेक्षा अधिक मनोवैज्ञानिक है, क्योंकि आनन्द में किसी की विवशता, दुर्बलता या विकृति पर हँसी नहीं फूटती । आन्तरिक आनन्दोल्लास की हँसी का कारण होता है । करुण रस का स्थायी भाव कोमलता, शोक की अपेक्षा अधिक युक्तिसंगत है । शोक में चिन्ता व्याप्त होती रहती है जब कि कोमलता में दया और मैत्री भाव अनुस्यूत रहता है । वीर रस का स्थायी भाव पुरुषार्थ उत्साह की अपेक्षा अधिक मनोवैज्ञानिक है । उत्साह घट-बढ़ सकता है । पर पुरुषार्थ में आन्तरिक वीरत्व सतत बना रहता है । भयानक रस का स्थायी भाव चिन्ता, भय की अपेक्षा अधिक युक्तियुक्त है क्योंकि चिन्ता के अभाव में भय का उत्पन्न होना सम्भव नहीं । इस प्रकार बनारसीदास ने स्थायी भावों के सम्बन्ध में अपना मौलिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जो अधिक मनोवैज्ञानिक एवं स्वाभाविक प्रतीत होता है । नवरसों के पारमार्थिक स्थानों का संकेतबनारसीदास ने इस प्रकार किया है:
गुन विचार सिंगार, वीर उधम उदार रुख । करुणा सम रस रीति, हास हिरदै उछाइ मुख । अष्टकाम दल मलन, रुद्र वरनै तिहि थानक । तन विलेछ वीभच्छ, छन्द मुख दसा भयानक ।
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कविवर बनारसीदास और जीवन-मूल्य
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अद्भुत अनन्त बाल चितवन, सांत सहज वैराग धुव ।
नवरस विलाश परगास, तव, जब सुबोध घट प्रगट हुव । अर्थात् आत्मा को ज्ञान से विभूषित करने का विचार शृगार रस है, कर्म निर्जरा का उद्यम वीर रस है, अपने ही समान सब जीवों को समझना करुण रस है, मन में आत्म-अनुभव का उत्साह हास्य रस है, अष्ट कर्मों को नष्ट करना रौद्र रस है, शरीर की अशुचिता विचारना वीभत्स रस है; जन्म-मरण आदि दुःख चितवन करना भयानक रस है। आत्मा की अनन्त शक्ति चितवन करना अद्भुत रस है, दृढ़ वैराग्य धारण करना शान्त रस है। सो जब हृदय में सम्यक्त्व प्रकट होता है तब इस प्रकार सब रस का विकास प्रकाशित होता है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बनारसीदास का जीवन-दर्शन सरलता, स्पष्टता, सरसता और साहस शीलता पर आधारित है। सचमुच वे सरस्वती के सच्चे उपासक थे। किसी संस्कृत कवि ने ठीक ही कहा है
सरसौ विपरीतश्चेत, सरसत्त्वं न मुच्चति ।
साक्षरा विपरीतश्चेत् राक्षसा एव निश्चिता ॥ अर्थात् जो सरस्वती का उपासक होता है. वह विपरीत परिस्थितियों में भी, अपनी सरलता को नहीं छोड़ता, सरस को उल्टा-सीधा कैसे भी पढ़ो, वह सरस ही बना रहता है, पर जो केवल साक्षर होता है, जिससे ज्ञान को पचाया नहीं है, वह किंचित् विपरीत परिस्थितियाँ आते ही सिद्धान्तविहीन हो जाता है, बदल जाता है. उल्टा हो जाता है अर्थात् राक्षस बन जाता है।
बनारसीदास का जीवन विपरीत परिस्थितियों और विषमताओं से भरा-पूरा जीवन है। पर समभाव से, सहज विनोद वृत्ति से वे उनसे पार होते रहे। कभी उफ तक नहीं किया। सचमुच ज्ञान को उन्होंने अनुभव में उतार लिया था। इसीलिये वे चार सौ वर्ष बीतने पर भी आज सरस बने हुए हैं। ज्यों-ज्यों समय बीतता जायेगा, उनकी सरसता और अधिक स्निग्ध व जाती बनती जायेगी।
सी०-२३५ ए तिलकनगर
जयपुर-३००२०४
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का
तुलनात्मक विवेचन
डा. हरीन्द्र भूषण जैन १. जम्बूद्वीप : वैदिक मान्यता
वैदिक लोगों को जम्बूद्वीप का ज्ञान नहीं था। उस समय की भौगोलिक सीमाएं। निम्न प्रकार थीं-पूर्व की ओर ब्रह्मपुत्र नदी तक गङ्गा का मैदान, उत्तर-पश्चिम की ओर हिन्दूकुश पर्वत, पश्चिम की ओर सिन्धुनदी, उत्तर की ओर हिमालय तथा दक्षिण की ओर विन्ध्यगिरि।
वेद में पर्वत विशेष के नामों में 'हिमवन्त' (हिमालय ) का नाम आता है । तैत्तिरीय आरण्यक ( १७ ) में 'महामेरु' का स्पष्ट उल्लेख है जिसे कश्यप नामक अष्टम सूर्य कभी नहीं। छोड़ता; प्रत्युत सदा उसकी परिक्रमा करता रहता है। इस वर्णन से प्रो० बलदेव उपाध्याय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि महामेरु से अभिप्राय 'उत्तरी ध्रुव' है।'
वेदों में समुद्र शब्द का उल्लेख है, किन्तु पाश्चात्य विद्वानों के मत में वैदिक लोक समुद्र से परिचित नहीं थे। भारतीय विद्वानों की दृष्टि में आर्य लोग न केवल समुद्र से अच्छी तरह परिचित थे अपितु समुद्र से उत्पन्न मुक्ता आदि पदार्थों का भी वे उपयोग करते थे। वे समुद्र में लम्बी-लम्बी यात्राएँ भी करते थे तथा सौ दाड़ों वाली लम्बी जहाज बना लेड की विद्या से भी वे परिचित थे ।
- ऐतरेय ब्राह्मण (८/३ ) में आर्यमण्डल को पांच भागों में विभक्त किया गया है जिसके उत्तर हिमालय के उसपार उत्तरकुरु और उत्तरभद्र नामक जनपदों की स्थिति थी। ऐतरे ब्राह्मण (८/१४ ) के अनुसार कुछ कुरु लोग हिमालय के उत्तर की ओर भी रहते थे जिस 'उत्तरकुरु' कहा गया है। २. जम्बूद्वीप: रामायण एवं महाभारत कालीन मान्यता
रामायणीय भूगोल-वाल्मीकि रामायण के बाल, अयोध्या एवं उत्तरकाण्डों पर्याप्त भौगोलिक वर्णन उपलब्ध है, किन्तु किष्किन्धाकाण्ड के ४२वें सर्ग से ४०वें सर्ग तक सुग्रीव द्वारा सीता की खोज में समस्त बानर नेताओं को वानर-सेना के साथ सम्पूर्ण दिशाओं में भेजने के प्रसंग में तत्कालीन समस्त पृथ्वी का वर्णन उपलब्ध है। १. प्रो. बलदेव उपाध्याय, 'वैदिक साहित्य और संस्कृति' शारदा मन्दिर काशी, १९५५, दशन
परिच्छेद, वैदिक भूगोल तथा आर्य निवास, पृ० ३५५ २. वही, पृ० ३६२ ३. वही, पृ० ३६४
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २२७. वाल्मीकि, जम्बूद्वीप, मेरु तथा हिमवान् पर्वत एवं उत्तर कुरु से सुपरिचित थे :'उत्तरेण परिक्रम्य जम्बूद्वीपं दिवाकरः । दृश्यो भवति भूयिष्ठं शिखरं तन्महोच्छ्रयम्' ( रामा० ४.५०. ५८-४९) 'तेषां मध्ये स्थितो राजा मेरुरुत्तमपर्वतः' ( रामा० ४.४२-३८) 'अन्वीक्ष्य वरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ' ( रामा० ४.४३.१२) 'उत्तराः कुरवस्तत्र कृतपुण्यपरिश्रमाः' ( रामा० ४.४३.२८)
जैन परम्परा में उत्तरकुरु को भोगभूमि कहा गया है। रामायण के तिलक टीकाकार उत्तरकुरु को भोगभूमि कहते हैं-'तत आरभ्य उत्तरकुरुदेशस्य भोग भूमित्व कथनम्' (रामा० ४ ४३.३८ पर तिलक टीका ), जैन साहित्य में भोग भूमि का जैसा वर्णन प्राप्त होता है वैसा ही वर्णन उत्तर कुरु का रामायण के बाईस श्लोकों ( ४.४३.३८ से ६०) में उपलब्ध है। उनमें से कुछ श्लोक इस प्रकार हैं :--
'नित्य पुष्पफलास्तत्र नगाः पत्ररथाकुलाः। दिव्यगन्धरस स्पर्शाः सर्वकामान् स्रवन्ति च ॥ नानाकाराणि वासांसि फलन्त्यन्ये नगोत्तमाः । सर्वेसुकृतकर्माणः सर्वे रतिपरायणाः ।। सर्वे कामार्थ सहिता वसन्ति सहयोषितः ।। तत्र नामुदितः कश्चिन्नात्र कश्चिदसत्प्रियः । अहन्यहनि वर्धन्ते गुणास्तत्र मनोरमाः ।।
( रामा० ४.४३.४३-५२) . प्रो० एस० एम० अली, भूतपूर्व अध्यक्ष, भूगोल विभाग, सागर विश्वविद्यालय मायणीय जम्बूद्वीप की स्थिति पृथ्वी के बीच में मानते हैं जो कि भूगोल की जैन परम्परा पर्याप्त मेल खाती है।'
रामायण के किष्किन्धा काण्ड में जम्बूद्वीप का जो वर्णन उपलब्ध होता है वह इस कार है:-जम्बद्वीप के पूर्व दिशा में क्रमशः भागीरथी, सरयु आदि नदियाँ, ब्र गध आदि देश तत्पश्चात् लवण समुद्र, यवद्वीप ( जावा ), सुवर्णरूप्यक द्वीप (बोनियो), शिर पर्वत, शोणनद, लोहित समुद्र, कूटशाल्मली, क्षीरोद सागर, ऋषभपर्वत, सुदर्शन डाग, जलोदसागर, कनकप्रभपर्वत, उदय पर्वत तथा सौमनस पर्वत, इसके पश्चात् पूर्व दिशा जम्य है। अन्त में देवलोक है।
जम्बूद्वीप के दक्षिण दिशा में क्रमशः विन्ध्यपर्वत, नर्मदा, गोदावरी आदि नदियाँ, खल, उत्कल, दशार्ण, अवन्ती, विदर्भ, आन्ध्र, चोल, पाण्डय, केरल आदि देश, मलय पर्वत, इनपर्णी नदी, महानदी, महेन्द्र, पुष्पितक, सूर्यवान्, वैद्युत एवं कुञ्जर नामक पर्वत, भोगवती री, ऋषभ पर्वत, तत्पश्चात् यम की राजधानी पितृलोक ।
ह,
श्री एस० एम० अली, F. N. I. 'The Geography of the Puranas.' People's PubliE shing House, New Delhi, 1973, Page 21-23. (संक्षिप्त रूप---'Geo. of Puranast
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डॉ० हरीन्द्र भूषण जैन जम्बद्वीप के पश्चिम में क्रमशः सौराष्ट्र, वाह्लीक, चन्द्रचित्र (जनपद), पश्चिम समुद्र, सोमगिरि, पारिपात्र, वज्रमहागिरि, चक्रवात् तथा वराह (पर्वत), प्राग्ज्योतिषपुरम् सर्वसौवर्ण, मेरु एवं अस्ताचल ( पर्वत ) और अंत में वरुणलोक ।
इसी प्रकार जम्बूद्वीप के उत्तर में क्रमशः हिमवान् (पर्वत), भरत, कुरु, मद्र, कम्बोज, यवन, शक (देश), काल, सुदर्शन, देवसखा, कैलास, क्रौञ्च, मैनाक. (पर्वत), उत्तरकुरु देश तथा सोमगिरि और अंत में ब्रह्मलोक ।
महाभारतीय भूगोल महाभारत के भीष्म, आदि, सभा, वन, अश्वमेध एवं उद्योग पर्यों में भारत का भौगोलिक वर्णन उपलब्ध है। तदनुसार जम्बूद्वीप और क्रौञ्चद्वीप मेरु के पूर्व में तथा शकद्वीप मेरी उत्तर में है।
__ महाभारतीय भूगोल में पृथ्वी के मध्य में मेरु पर्वत है। इसके उत्तर दिशा में पूर्व पश्चिम तक फैले क्रमशः भद्रवर्ष, इलावर्त तथा उत्तर कुरु हैं। तत्पश्चात् पुनः उत्तर की ओर क्रमशः नील पर्वत, श्वेत वर्ष, श्वेत पर्वत, हिरण्यक वर्ष, शृङ्गवान पर्वत हैं। पश्चात ऐरावतक और क्षीर समुद्र है। इसी प्रकार मेरु के दक्षिण में पश्चिम से पूर्व तक फैले हुए केतुमाल एवं जम्बूद्वीप हैं । पश्चात् पुनः दक्षिण की ओर क्रमशः निषध पर्वत, हरिवर्ष, हेमकूट या कैला हिमवत वर्ष, हिमालय पर्वत, भारतवर्ष तथा लवणसमुद्र हैं। यह वर्णन जैन भौगोलि परम्परा के बहुत निकट है। ३. जम्बूद्वीप : पौराणिक मान्यता
प्रायः समस्त हिन्दू पुराणों में पृथ्वी और उससे सम्बन्धित द्वीप, समुद्र, पर्वत, न क्षेत्र आदि का वर्णन उपलब्ध होता है। पुराणों में पृथ्वी को सात द्वीप-समुद्रों वाला मा गया है। ये द्वीप और समुद्र क्रमशः एक दूसरे को घेरते चले गए हैं।
इस बात से प्रायः सभी पुराण सहमत हैं कि जम्बूद्वीप पृथ्वी के मध्य में स्थित और लवण समुद्र उसे घेरे हुए है । अन्य द्वीप समुद्रों के नाम और स्थिति के बारे में सभी पुर एकमत नहीं हैं। भागवत, गरुड, वामन, ब्रह्म, मार्कण्डेय, लिङ्ग, कूर्म, ब्रह्माण्ड, अग्नि, देवी तथा विष्णु पुराणों के अनुसार सात द्वीप और समुद्र क्रमशः इस प्रकार हैं
१-जम्बू-द्वीप तथा लवण समुद्र, २-प्लक्ष द्वीप तथा इक्षु सागर, ३-शाल्मली द्वीप सुरा सागर, ४-कुशद्वीप तथा सर्पिष् सागर, ५-क्रौञ्चद्वीप तथा दधिसागर, ६-शक द्वीप क्षीर सागर और ७-पुष्करद्वीप तथा स्वादुसागर ।। ४. जम्बद्धीप-जैन मान्यता
समस्त जैनपुराण, तत्त्वार्थसूत्र (तृतीय अध्याय ), त्रिलोक प्रज्ञप्ति आदि सम। १. श्री एस० एच० अली 'The Greography of the Puranas', पृ० ३२ तथा पृ० ३२-३
#4 # fpera Fig. No. 2. 'The World of the Mahabharat.--Diagrammatic'. २. 'Geo of Puranas'. पृ० २८, अध्याय II Puranic Continents and oceans.
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २२९ विश्व का भौगोलिक वर्णन उपलब्ध होता है। लोक के तीन विभाग किए गए हैं-अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक । मेरु पर्वत के ऊपर ऊर्ध्वलोक, नीचे अधोलोक एवं मेरु की जड़ से चोटी पर्यन्त मध्यलोक है।
मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, जो लवण समुद्र से घिरा है। समुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड नामक महाद्वीप है। धातकीखण्ड द्वीप को कालोदधि समुद्र वेष्टित किए हुए हैं । अनन्तर पुष्करवरद्वीप, पुष्करवरसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। पुष्करवरद्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है जिससे इस द्वीप के दो भाग हो गए हैं । अतः जम्बूद्वीप धातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीप, इन्हें मनुष्य क्षेत्र कहा गया है।
जम्बूद्वीप का आकार स्थाली के समान गोल है। इसका विस्तार एक लाख योजन है। इसके बीच में एक लाख चालीस योजन ऊँचा मेरु पर्वत है। मनुष्य क्षेत्र के पश्चात् छह द्वीपसमुद्रों के नाम इस प्रकार हैं - वारुणीवर द्वीप-वारुणीवर समुद्र, क्षीरवर द्वीप, क्षीरवर समुद्र, घृतवर द्वीप-घृतवर समुद्र, इक्षुवर द्वीप-इक्षुवर समुद्र, नन्दीश्वर द्वीप-नन्दीश्वर समुद्र, अरुणवर द्वीप-अरुणवर समुद्र, इस प्रकार स्वयंभू रमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप समुद्र हैं।
जम्बूद्वीप के अन्तर्गत सात क्षेत्र, छह कुलाचल और चौदह नदियाँ हैं। हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह कुलाचल हैं। ये पूर्व से पश्चिम तक लम्बे हैं। ये जिन सात क्षेत्रों को विभाजित करते हैं उनके नाम हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। इन सातों क्षेत्रों में बहने वाली चौदह नदियों के क्रमशः सात युगल हैं, जो इस प्रकार हैं :- गङ्गा-सिन्धु, रोहित्-रोहितास्या, हरित्-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला तथा रक्ता-रक्तोदा। इन नदी युगलों में से प्रत्येक युगल की पहली नदी पूर्व समुद्र को जाती है और दूसरी नदी पश्चिम समुद्र को।
भरत क्षेत्र का विस्तार पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस (५२६.६) योजन है। विदेह पर्यन्त पर्वत और क्षेत्रों का विस्तार भरत-क्षेत्र के विस्तार से द्विगुणित है। उत्तर के क्षेत्र और पर्वतों का विस्तार दक्षिण के क्षेत्र और पर्वतों के समान है।
जम्बूद्वीप के अन्तर्गत देव कुरु और उत्तर कुरु नामक दो भोग भूमियाँ हैं । उत्तर कुरु की स्थिति सीतोदा नदी के तट पर है। यहाँ के निवासियों की इच्छाओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है। इनके अतिरिक्त हैमवत, हरि, रम्यक तथा हैरण्यवत क्षेत्र भी भोगभूमियाँ हैं। शेष भरत, ऐरावत और विदेह (देवकरु और उत्तर कुरु को छोड़कर) कर्म भूमियाँ हैं।
भरत क्षेत्र हिमवान् कुलाचल के दक्षिण में पूर्व-पश्चिमी समुद्रों के बीच स्थित है। इस क्षेत्र में सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, अश्मक, कुरु, काशी, कलिङ्ग, अङ्ग, बङ्ग, काश्मीर, वत्स, पाञ्चाल, मालव, कच्छ, मगध विदर्भ, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, कोंकण आन्ध्र, कर्नाटक, कोशल, चोल. केरल, शूरसेन, विदेह, गान्धार, काम्बोज, बाल्हीक, तुरुष्का शक, केकय आदि देशों की रचना मानी गयी है।' १. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री-आदि पुराण में प्रतिपादित भारत', गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी, १९६८, पृ० ३६-४४ 'आदिपुराण में प्रतिपादित भूगोल' प्रथम परिच्छेद तथा तत्त्वार्थसूत्र की 'सर्वार्थसिद्धि' टीका, सम्पादक पं० फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९६५ तृतीय अध्याय पृ० २११-२२२
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डा० हरीन्द्र भूषण जैन ५. जम्ब द्वीप एवं आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक
विवेचन
सप्तद्वीप-विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण और ब्रह्माण्ड पुराण प्रभृति पुराणों में सप्तद्वीप और सप्तसागर वसुन्धरा का वर्णन आया है। यह वर्णन जैन हरिवंश पराण और आदिपराण की अपेक्षा बहत भिन्न है। महाभारत में तेरह द्वीपों का उल्लेख है। जैन मान्यतानुसार प्रतिपादित असंख्य द्वीप-समुद्रों में जम्बू, क्रौञ्च और पुष्कर द्वीप के नाम वैदिक पुराणों में सर्वत्र आए हैं।
समुद्रों के वर्णन के प्रसंग में विष्णुपुराण में जल के स्वाद के आधार पर सात समुद्र बतलाये गए हैं। जैन परम्परा में भी असंख्यात समुद्रों को जल के स्वाद के आधार पर सात ही वर्गों में विभक्त किया गया है। लवण सुरा, घृत, दुग्ध, शुभोदक, इक्षु और मधुरइन सात वर्गों में समस्त समुद्र विभक्त हैं । विष्णपुराण में 'दधि' का निर्देश है, जैन परंपरा में इसे 'शुभोदक' कहा है। अतः जल के स्वाद की दृष्टि से सात प्रकार का वर्गीकरण दोनों ही परंपराओं में पाया जाता है।
जिस प्रकार वैदिक पौराणिक मान्यता में अन्तिम द्वीप पुष्करवर है, उसी प्रकार जैन मान्यता में भी मनुष्य लोक का सीमान्त यही पुष्करार्ध है। तुलना करने से प्रतीत होता है कि मनुष्य लोक की सीमा मानकर ही वैदिक मान्यताओं में द्वीपों का कथन किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में मान्य जम्बू, धातकी और पुष्करार्ध, इन ढाई द्वीपों में वैदिक परम्परा में मान्य सप्तद्वीप समाविष्ट हो जाते हैं। यद्यपि क्रौञ्चद्वीप का नाम दोनों मान्यताओं में समान रूप से आया है, पर स्थान-निर्देश की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है।'
बौद्ध परम्परा में केवल चार द्वीप माने गए हैं। समुद्र में एक गोलाकार सोने की थाली पर स्वर्णमय सुमेरु गिरि स्थित है। सुमेरु के चारों ओर सात पर्वत और सात समुद्र हैं। इन सात स्वर्णमय पर्वतों के बाहर क्षीर सागर है और क्षीर सागर में चार द्वीप अवस्थित हैं :--कुरु, गोदान, विदेह और जम्बू । इन द्वीपों के अतिरिक्त छोटे-छोटे और भी दो हजार द्वीप हैं।२
आधुनिक भौगोलिक मान्यता पौराणिक सप्तद्वीपों की आधुनिक भौगोलिक पहिचान ( Identification ) तथा स्थिति के विषय में दो प्रकार के मत पाए जाते हैं। प्रथम मत के अनुसार सप्तद्वीप ( जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौञ्च, शक तथा पुष्कर ) क्रमशः आधुनिक छह महाद्वीप-एशिया, योरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका तथा दक्षिणी अमेरिका एवं एण्टार्टिका ( दक्षिणी ध्रुव प्रदेश ) का प्रतिनिधित्व करते हैं।
द्वितीय मत के अनुसार ये सप्तद्वीप पृथ्वी के आधुनिक विभिन्न प्रदेशों के पूर्वरूप हैं। इसमें भी तीन मत प्रधान हैं१. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री 'आदि पुराण'... 'भारत' पृ० ३९-४० २. एच० सी० रायचौधरी, Studies in Indian Antiquities'. 66, P. T.5
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन
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(क) जम्बू (इण्डिया), प्लक्ष ( अराकात तथा बर्मा ), कुश ( सुन्द - आर्ची पिलागो ), शाल्मली (मलाया प्रायद्वीप ), क्रौञ्च ( दक्षिण इण्डिया ), शक ( कम्बोज ) तथा पुष्कर ( उत्तरी चीन तथा मंगोलिया ) " ।
(ख) जम्बू ( इण्डिया ), कुश ( ईरान ), प्लक्ष ( एशिया माइनर ), शाल्मली ( मध्य योरोप ), क्रौञ्च ( पश्चिम योरोप ), शक ( ब्रिटिश द्वीप समूह ) तथा पुष्कर (आईसलैण्ड) २ (ग) जम्बू (इण्डिया), क्रौञ्च (एशिया माइनर ), गोमेद ( कोम डी टारटरी - Kome die Tartary), पुष्कर ( तुर्किस्तान), शक ( सीथिया), कुश ( ईरान, अरेबिया तथा इथियोपिया), प्लक्ष ( ग्रीस) तथा शाल्मली (सरमेटिया - Sarmatia ? ) 2
किन्तु प्रसिद्र भारतीय भूगोल शास्त्री डॉ० एस० एम० अली उपर्युक्त चारों मतों से सहमत नहीं हैं। पुराणों में प्राप्त तत्तत्प्रदेश की आबहवा ( Climate ) तथा वनस्पतियों (Vegetation) के विशेष अध्ययन से सप्तद्वीपों की आधुनिक पहिचान के विषय में वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचे वह इस प्रकार हैं
जम्बूद्वीप ( भारत ), शकद्वीप (मलाया, श्याम, इण्डो-चीन, तथा चीन का दक्षिण प्रदेश), कुशद्वीप ( ईरान, ईराक) ' प्लक्ष द्वीप ( भूमध्यसागर का कछार ), पुष्करद्वीप (स्केण्डिनेवियन प्रदेश), फिनलैण्ड, योरोपियन रूस का उत्तरी प्रदेश तथा साइबेरिया), शाल्मली द्वीप (अफ्रीका ईस्ट इंडीज, मेडागास्कर ) तथा क्रौञ्चद्वीप (कृष्ण सागर का कछार ) ४
मेरु पर्वत
जैन परम्परा में मेरु को जम्बूद्वीप की नाभि कहा है- 'तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशत सहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीप:' ( तत्त्वार्थसूत्र ३ ९ ), अर्थात् मेरु जम्बूद्वीप के बिल्कुल मध्य में है । इसकी ऊँचाई १ लाख ४० योजन है । इसमें से एक हजार योजन जमीन में है, चालीस योजन की अंत में चोटी है और शेष निन्यानबे हजार योजन समतल से चूलिका तक है । प्रारम्भ में जमीन पर मेरु पर्वत का व्यास दस हजार योजन है जो ऊपर क्रम से घटता गया है । मेरु पर्वत के तीन खण्ड हैं । प्रत्येक खण्ड के अन्त में एक एक कटनी है । यह चार वनों से सुशोभित है - एक जमीन पर और तीन इन कटनियों पर । इनके क्रम से नाम हैं- भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक । इन चारों वनों में, चारों दिशाओं में एक-एक वन में चारचार इस हिसाब से सोलह चैत्यालय हैं । पाण्डुकवन में चारों दिशाओं में चार पाण्डुक शिलायें १. Cot Gerini ‘Researches On Pitolemy's Geography of Eastern Asia' (1909) Page-725
२. F. Wilford - ' Asiatic Researches' Vol. VIII, Page 267-346
३. V. V. Iyer- The Seven Dwipas of the Puranas ' - The Quarterly Journan of the Mythical Society ( London ), 15, No. 1. p. 62, Vol. No. 2, pp 119-127, No. 3. pp. 238-45, Vol. 16, No. 4. pp. 273-82
४. डॉ० एच० एच० अली 'Geo of Puranas' p. 39-46. ( Ch. II. Puranic continents and Oceans).
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डा० हरीन्द्र भूषण जैन हैं जिन पर उस-उस दिशा के क्षेत्रों में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। इसका रंग पीला है।
वेदों में मेरु नहीं है। तैत्तिरीय आरण्यक ( १.७.१.३.) में 'महामेरु' है किन्तु इसकी पहचान के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं है। रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जैन आगम साहित्य में इसके परिणाम तथा स्थान के बारे में प्रायः एक जैसे ही कथन उपलब्ध हैं।
परशियन, ग्रीक, चाइनीज, ज्यूज तथा अरबी लोग भी अपने-अपने धर्मग्रन्थों में मेरु का वर्णन करते हैं। नाम, स्थान आदि के विषय में भेद होते हुए भी केन्द्रीय विचारधारा वही है जैसा हिन्दू पुराणों में इसका वर्णन है। जोरोस्ट्रियन धर्मग्रन्थ के अनुसार अल-बुर्ज ( Al-Burj) नामक पर्वत ने ही पृथ्वी के समस्त पर्वतों को जन्म दिया और इसी से विश्व
जल से आप्लावित करने वाली नदियाँ निकलीं। यही अल-बर्ज, मेरु है। चाइनीज लोगों का विश्वास है कि 'त्सिग लिंग' ( Tsing-Ling ) ही मेरुपर्वत है। इसी से विश्व के समस्त पर्वत और नदियाँ निकलीं।
मेरु के परिमाण और आकार के विषय में विष्णुपुराण में उल्लेख है कि सभी द्वीपों के मध्य में जम्बूद्वीप है और जम्बूद्वीप के मध्य में स्वर्णगिरि मेरु है। इसकी समस्त ऊँचाई एक लाख योजन है, जिसमें से १६ हजार योजन पृथ्वी के नीचे और चौरासी हजार योजन पृथ्वी के ऊपर है। चोटी पर इसका घेरा बत्तीस हजार योजन तथा मूल में सोलह हजार योजन है, अतः इसका आकार ऐसा प्रतीत होता है मानो यह पृथ्वीरूपी कमल का 'कमलगट्टा' (Seedcup) हो । पद्मपुराण के अनुसार इसका आकार धतूरे के पुष्प जैसा घण्टे के आकार (Bellshape) का है। वायुपुराण के अनुसार चारों दिशाओं में फैली इसकी शाखाओं के वर्ण पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में क्रमशः श्वेत, पीत, कृष्ण और रक्त हैं । सीलोन के बुद्धिस्ट लोगों के अनुसार मेरु का घेरा सर्वत्र एक जैसा है। नेपाली परम्परा के अनुसार इसका आकार ढोल जैसा है।
आधुनिक भौगोलिक मान्यता मेरु की उपयुक्त स्थिति को ध्यान में रखते हुए अब हमें उसके वर्तमान स्वरूप और स्थान के विषय में विचार करना चाहिए।
हिमालय तथा उसके पार के क्षेत्र (Himalayan and Trans-Himalayan Zone) में पाँच उन्नत प्रदेश हैं। पुराणों में प्राप्त मेरु के विवरण के आधार पर, इन उन्नत प्रदेशों की तुलना मेरु से की जा सकती है। ये प्रदेश हैं
१-कराकोरम (Karakoram) पर्वत शृङ्खलाओं से घिरा क्षेत्र,
२-धौलगिरि (Dhaulagiri) पर्वत शृङ्खलाओं से घिरा क्षेत्र, १. सर्वार्थसिद्धि-तृतीय अध्याय पृ० २११-२२२ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी २. डॉ० एस० एम० अली Geo of Puranas, ch. III ( The Mountain System of the
Puranas) पृ० ४७-४८
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन
३– एवरेस्ट ( Everest ) पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा क्षेत्र,
४ - हिमालयन आर्क् स (Himalayan Arcs) तथा कुन लुन ( Kun-lun) पर्वत से घिरा हुआ तिब्बत का पठार, तथा
५ - हिन्दूकुश (Hindu-Kush), कराकोरम, टीन-शान ( Tienshan ) तथा अलाह पार पर्वत श्रृंखला (Trans - Alai system) की बर्फ से ढकी चोटियों से घिरा पामीर का उन्नत पठार ।
इन पाँचों उन्नत प्रदेशों में से पामीर के पठार'
सही और युक्तियुक्त प्रतीत होता है ।। पामीर और मेरु पामीर = मेरु ।
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मेरु की तुलना करना और भी अधिक में नाम का भी सादृश्य है
यदि पामीर के पठार से मेरु की तुलना सही है तो पुराणों में प्रतिपादित जम्बूद्वीप के पार्श्ववर्ती प्रधान पर्वतों की भी पहचान की जा सकती है ।
पुराणों के अनुसार मेरु के उत्तर में तीन पर्वत हैं- नील, श्वेत [ जैन परम्परा के अनुसार 'रुक्मी' ] और शृङ्गवान् [ जै० प० शिखरी ], ये तीनों पर्वत, रम्यक, हिरण्मय [ जै० प० हैरण्यवत् ] तथा कुरु [ जै० प० -- ऐरावत् ] क्षेत्रों के सीमान्त पर्वत हैं । इसी प्रकार मेरु के दक्षिण में भी तीन पर्वत हैं - निषध, हेमकूट [ जै० प०- - महाहिमवान् ] तथा हिमवान् । ये तीनों पर्वत, हिमवर्ष [ जै० प० हरि ], किम्पुरुष [ जै० प० - - हैमवत् ] और भारतवर्ष [ जै० प० - भरत ] क्षेत्रों के सीमान्त पर्वत हैं । ये छहों पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवण समुद्र तक फैले हैं ।
इन सभी पर्वतों की तुलना वर्तमान भूगोल से इस प्रकार की जा सकती है
१–शृङ्गवान् [शिखरी] की करा ताउ - किरगीत - केतमान पर्वत शृङ्खला [Kara Tau Krighiz-Ketman Chain] से,
२
- श्वेत [ रुक्मी ] की नूरा ताउ - तुर्किस्तान - अतबासी पर्वत शृङ्खला [Nura Tau Turkistan-Atbasi Chain] से,
३ - नील की जरफशान ट्रान्स- अल्लाह-टीन शान पर्वत श्रृङ्खला से,
४ - निषध की हिन्दूकुश तथा कुनलुन पर्णत
'शृङ्खला से
५ - हेमकूट [ महाहिमवान् ] की लद्दाख - कैलाश - ट्रान्सहिमालयन पर्वत शृङ्खला से तथा ६ - हिमवान् की हिमालय पर्वत श्रृंखला [Great Himalayan range] से ।'
जम्बू द्वीप
जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, पुराणों में मेरु [पामीर्स] नील के उत्तर में क्रमशः तीन पर्वत मालायें हैं जो पूर्व-पश्चिम लम्बी हैं- नील, जो कि मेरु के सबसे निकट और सबसे लम्बी पर्वतमाला है, श्वेत, जो कि नील से कुछ छोटी और उससे उत्तर की ओर आगे है, तथा अन्तिम शृङ्गवान्, जो कि सबसे छोटी तथा श्वेत से उत्तर की ओर आगे है ।
१. डा० एस० एम० अली Geo. of Puranas पृ० ५० से ५३ तक
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डा० हरीन्द्र भूषण जैन
जैन परम्परा के अनुसार भी मेरु के उत्तर में तीन वर्षधर पर्वत हैं- नील, रुक्मी और शिखरी । दोनों (जैन - वैदिक) परम्पराओं में केवल नील पर्वतमाला का ही नाम सादृश्य नहीं है अपितु रुक्मी [ श्वेत] और शिखरी [शृङ्गवान् ] पर्वतमाला का भी नाम सादृश्य है । इन पर्वतों की आधुनिक भौगोलिक तुलना भी हम विभिन्न पर्वतमालाओं से कर चुके हैं ।
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इन पर्वतमालाओं तथा उत्तरी समुद्र [ आर्कटिक ओशन] अर्थात् लवण समुद्र के बीच क्रमशः, नील और श्वेत [ रुक्मी ] के बीच रम्यक या रमणक [जैन परम्परा में रम्यक] वर्ष, श्वेत और शृङ्गवान् [ जै० प० में शिखरी ] के बीच हिरण्यक [ जै० प० में हैरण्यवत् ] तथा शृङ्गवान् और उत्तरी समुद्र लवण समुद्र के बीच उत्तरकुरु या शृङ्गासक [ जैन परम्परा में ऐरावत ] नाम के वर्ष क्षेत्र हैं । "
जम्बू द्वीप का उत्तरी क्षेत्र
सबसे पहले हम रम्यक क्षेत्र को लेते हैं । जैन परम्परा में भी इसका नाम रम्यक वर्षक्षेत्र है । इसके दक्षिण में नील तथा उत्तर में श्वेत पर्वत है । हमारी पहचान के अनुसार नील, नूराउ - तुर्किस्तान पर्वतमालाएँ हैं और श्वेत, जरफशान - हिसार पर्वत मालाएँ हैं ।
यह प्रसिद्ध है कि एशिया के भूभाग में अति प्राचीन काल में दो राज्यों की स्थापना हुई* थी - आक्सस (Oxus River) नदी के कछार में बेक्ट्रिया राज्य (Bactria) तथा जरफशान नदी और कशका दरिया (River Jarafshan and Kashka Darya ) के कछार में सोगदियाना राज्य ( Sogdiana ) आज से २५०० या २००० वर्ष पूर्व ये दोनों राज्य अत्यन्त घने रूप से बसे थे । यहाँ के निवासी उत्कृष्ट खेती करते थे । यहाँ नहरें थीं । व्यापार और हस्तकला कौशल में भी ये राज्य प्रवीण थे ।
ऐसा कहा जाता है कि 'समरकंद' की स्थापना ३००० ई० पू० हुई थी । अतः 'सोगदि याना' को हम मानव संस्थिति का सबसे प्राचीन संस्थान कह सकते हैं । 'सोगदियाना' का नील और श्वेत पर्वतमालाओं से तथा पड़ोसी राज्य, बेक्ट्रिया ( केतुमाल ), जिसका हम आगे वर्णन करेंगे, से विशेष संबंधों पर विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पौराणिक ‘रम्यक' वर्ष प्राचीनकाल का 'सोगदियाना' राज्य है । बुखारा का एक जिला प्रदेश जिसका नाम 'रोमेतन' ( Rometan ) है, संभवतः 'रम्यक' का ही अपभ्रंश
1
दूसरा क्षेत्र, जो कि श्वेत और शृङ्गवान् पर्वतमालाओं के मध्य स्थित है, हिरण्यवत् है । हिरण्यवत् का अर्थ है सुवर्णवाला प्रदेश । जैन परम्परा में इसे 'हैरण्यवत्' कहा गया है। इस क्षेत्र में बहने वाली नदी का पौराणिक नाम है 'हिरण्यवती' । आधुनिक जरफशान नदी इसी प्रदेश में बहती है । जैन परम्परा के अनुसार इस नदी का नाम सुवर्णकला है । यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि हिरण्यवती. सुवर्णकला और जरफशान तीनों के लगभग एक ही अर्थ हैं - हिरण्यवती का अर्थ है - जहाँ सुवर्ण प्राप्त हो, सुवर्णकूला का अर्थ है - जिसके तट पर सुवर्ण हो और जरफ शान का अर्थ है - सुवर्ण को फैलाने वाली ( Sea Heres of gold ).
१. डा० एस ० एम० अली Geo. of Puranas अध्याय ५ Regions of Jambu Dwip - Northern Regions पृ० ७३
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जम्बूद्वीप और आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन २३५ तृतीय क्षेत्र, जो कि शृङ्गवान् पर्वत के उत्तर में है, उत्तरकुरु है। जैन परम्परा में इसे ऐरावत वर्ण कहा गया है। यह प्रदेश आ
रावत वर्ण कहा गया है। यह प्रदेश आधनिक इर्टिश ( Irtysh) दी ओब ( The ob) इशीम ( Ishim ) टोबोल ( Tobol ) नदियों का कछार प्रदेश है। दूसरे शब्दों में आधुनिक भौगोलिक वर्गीकरण के अनुसार यह क्षेत्र साइबेरिया का पश्चिमी प्रदेश है।
इस प्रकार जम्बूद्वीप का यह उत्तरी क्षेत्र एक बहुत लम्बे प्रदेश को घेरता है जो कि
त और केस्पियन सागर से लेकर येनीसाइ नदी ( Yenisei River-US.S.R.) तक तथा तुर्किस्तान-टीन शान पर्वतमाला से लेकर आर्कटिक समुद्र तक जाता है।'
जम्बद्वीप का पश्चिमी क्षेत्र केतुमाल मेरु ( पामीर्स ) का पश्चिम प्रदेश केतुमाल है। जैन भूगोल के अनुसार यह विदेह का पश्चिम भाग है। इसके दक्षिण में निषध और उत्तर में नील पर्वत है। निषध पर्वत को आधुनिक भूगोल के अनुसार हिन्दूकुश तथा कुनलुन पर्वतमाला ( Hindukush-Kunlun ) माना गया है। यह केतुमाल प्रदेश चक्षु नदी ( Oxus River ) तथा आमू दरिया का कछार है। इसके पश्चिम में केस्पियन सागर ( Caspean Sea ) है जिसमें आक्सस नदी बहकर मिलती है। इसके उत्तर-पश्चिम में तूरान का रेगिस्तान है । इस प्रदेश को हिन्दू पुराण में इलावृत कहा गया है । इस प्रदेश में सीतोदा नदी बहती है । इसी प्रदेश में बेक्ट्रिया राज्य था जिसे हम पहले कह चुके हैं।
___ जम्बूद्वीप का पूर्वी क्षेत्र भद्रवर्ष मेरु के पूर्व का यह प्रदेश 'भद्रवर्ष' के नाम से हिन्दूपुराणों में कहा गया है । जैन भूगोल के अनुसार यह विदेह का पूर्वी भाग है । इसके उत्तर में नील ( Tien Shan Renge ) तथा दक्षिण में निषध ( Hindukush-Kunlun ) पर्वतमाला है । इसके पश्चिम में देवकूट और पूर्व में समुद्र है।
आधुनिक भूगोल के अनुसार यह प्रदेश तरीम तथा ह्वांगहो ( Tarim and Hwangho) नदियों का कछार है। दूसरे शब्दों में सम्पूर्ण सिकियांग ( Sikiang ) तथा उत्तर-चीन प्रदेश इसमें समाविष्ट है । यहाँ सीता नदी बहती है ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भद्रवर्ष प्रदेश ( पूर्व विदेह ) के अन्तर्गत उत्तरी चीन, दक्षिणी चीन तथा त्सिगलिंग ( Tsing-Ling ) पर्वत का दक्षिणी प्रदेश आता है। यहाँ के निवासी पीतवर्ण के हैं। आधुनिक भूगोल के अनुसार इस नदी का नाम किजिल सू ( KigilSu ) है।
१. डॉ० एस० एम० अली Geo. of Puranas pp. 83-87 ( chap. v Regions of Jambu
Dwipa : Northern Regions. Ramanaka Hiranmaya and Uttar Kuru. २. वही pp. 88-98 : ( Chap. VI Regions of Jambu Dwipa-Ketumala ३. वही pp. 99-108. Chap. VII Regions of Jambu Dwipa : Bhadravarsa.
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डा० हरीन्द्र भूषण जैन
जम्बूद्वीप का दक्षिणी क्षेत्र जम्बूद्वीप के दक्षिण-प्रदेश का वर्णन मेरु के प्रसंग में किया जा चुका है। तदनुसार मेरु (पामीर्स ) के दक्षिण में निषध, हेमकूट (जैन परम्परा में महाहिमवान् ) तथा हिमवान् पर्वत हैं और इन पर्वतों से विभाजित क्षेत्र के नाम हैं, क्रमशः हिमवर्ष (जैन पर० में हरि) किंपुरुष (जैन पर० में हैमवत और भारतवर्ष ) (जै० परं० में भरत )।
यह सभी प्रदेश मेरु (पामीर्स) से लेकर हिन्दमहासागर तक का समझना चाहिए। भारत के दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम में जो क्रमशः हिन्द महासागर एवं प्रशान्त तथा अरबसागर हैं वहीं लवण समुद्र है।
जम्बूद्वीप और भारतवर्ष : पौराणिक इतिहास विष्णु पुराण (२.१.) के अनुसार स्वयंभू-मनु के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद । प्रियव्रत ने समस्त पृथ्वी के सात भाग (सप्तद्वीप) करके उन्हें अपने सात पुत्रों में बांट दियाअग्निध्र को जम्बूद्वीप, मेधातिथि को प्लक्ष, वपुष्मत् को शाल्मली, ज्योतिष्मत् को कुश, द्युतिमत् को क्रौञ्च, भव्य को शक और शबल को पुष्कर द्वीप।
जम्बूद्वीप के राजा अग्नीध्र के नौ पुत्र थे। उन्होंने जम्बूद्वीप के नौ भाग करके उन्हें अपने नौ पुत्रों में बाँट दिया--हिमवत् का दक्षिणभाग 'हिम' ( भारतवर्ष ) नाभि को दिया। इसी प्रकार हेमकूट किम्पुरुष को, निषध तरिवर्ष को, मेरु के मध्यवाला भाग इलावृत को, इस प्रदेश और नील पर्वत के मध्यवाला भाग रम्य को। इसके उत्तर वाला श्वेत प्रदेश हिरण्यवत् को, शृङ्गवान् पर्वत से घिरा श्वेत का उत्तर प्रदेश कुरु को, मेरु के पूर्व का प्रदेश भद्राश्व को तथा गन्धमादन एवं मेरु के पश्चिम का प्रदेश केतुमाल को दिया।
_नाभि के सौ पुत्र थे उनमें सबसे ज्येष्ठ भरत थे। नाभि ने अपने प्रदेश 'हिम' अर्थात् भारतवर्ष को नौ भागों में विभक्त करके अपने पुत्रों में बाँट दिया । मार्कण्डेय पुराण के अनुसार भारत वर्ष के वे नौ भाग इस प्रकार हैं--इन्द्रद्वोप, कसेरुमान्, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व, वरुण तथा कुमारिका या कुमारी।
जैन परम्परा के अनुसार नाभि और मरुदेवी के पुत्र, प्रथम तीर्थंकर ऋषभ, युग पुरुष थे। उन्होंने विश्व को असि, मसि, कृषि, सेवा, वाणिज्य और शिल्प रूप संस्कृति प्रदान की। उनके एक सौ एक पुत्र थे। इनमें भरत और बाहुबली प्रधान थे। संसार से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व ऋषभ ने सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य अपने समस्त पुत्रों को बाँट दिया। बाहुबली को पोदन का राज्य मिला। भरत चक्रवर्ती सम्राट् हुए, जिनके नाम से यह भारत वर्ष प्रसिद्ध हुआ।
इस पौराणिक आख्यान से तीन बातें स्पष्टतः प्रतीत होती हैं -
(अ) किसी एक मूल स्रोत से विश्व की पुरुष जाति का प्रारम्भ हुआ। यह बात आधुनिक विज्ञान की उस मनोजेनिष्ट थियरी (Monogenist Theory) के अनुसार सही है जो मानती है कि मनुष्य जाति के विभिन्न प्रकार प्राणिशास्त्र की दृष्टि से एक ही वर्ग के हैं।
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जम्बूद्वीप ओर आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन
२३७ (आ) किसी एक ही केन्द्रीय मलस्रोत से निकलकर सात मानव-समूहों ने सात विभिन्न भागों को व्याप्त स्वतन्त्र रूप से पथक-पथक मानव सभ्यता का विकास किया। यह सिद्धान्त भी आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सम्मत है जिसमें कहा गया है कि विश्व की प्राथमिक जातियों ने पृथिवी के विभिन्न वातावरणों वाले सात प्रदेशों को व्याप्त कर तत्तत्प्रदेशों के वातावरण के प्रभाव में अपनी शारीरिक विशिष्ट आकृतियों का विकास किया।
(इ) पश्चात् पृथ्वी के इन सात भागों में से (पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप में ) नौ मानव समूहों ने जो नौ प्रदेशों को व्याप्त किया उनमें भारतवर्ष भी एक है।'
भारतवर्ष भारत वर्ष से प्रायः इण्डिया उपमहाद्वीप जाना जाता है। किन्तु प्राचीन विदेशी साहित्य में समग्र इण्डिया उपमहाद्वीप के लिए कोई एक नाम नहीं है।
वैदिक आर्यों ने पंजाब प्रदेश को 'सप्तसिन्धव' नाम दिया। बोधायन और मनु के समय में आर्यों के कर्म क्षेत्र को 'आर्यावर्त' नाम दिया गया। डेरियस् ( Darius ) तथा हेरोडोटस (Herodotus) ने सिन्धुघाटी तथा गङ्गा के उत्तरी प्रदेश को 'इण्ड' 'या इण्डू' (हिन्दू) नाम दिया। कात्यायन ओर मेगास्थनीज ने सूदूर दक्षिण में पांड्य राज्य तक फैले सम्पूर्ण देश का वर्णन किया है। रामायण तथा महाभारत भी पाण्ड्य राज तथा बंगाल की खाड़ी तक फैले भारतवर्ष का वर्णन करते हैं।
___ अशोक के समय में भारत की सीमा उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश तक और दक्षिण-पूर्व सुमात्रा-जावा तक पहुँच गई थी। कनिङ्घम ने इस समस्त प्रदेश को विशाल भारत (Greater India ) नाम दिया और भारत वर्ष के नवद्वीपों से इसकी समानता स्थापित की।
इस प्रकार आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं के अनुसार जम्बूद्वीप का विस्तार उत्तर में साइबेरिया प्रदेश (आर्कटिक ओशन), दक्षिण मे हिन्दमहासागर और उसके द्वीप समूह, पूर्व में चीन-जापान (प्रशान्त महासागर ) तथा पश्चिम में केस्पियन सागर तक समझना चाहिए।
अन्त में, हम प्रसिद्ध भूगोल शास्त्र वेत्ता, सागर विश्व विद्यालय के भूगोल विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष, डा० एस० एम० अली के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना अपना कर्तव्य समझते हैं, जिनके अतिशय खोजपूर्ण ग्रन्थ (The Geography of the Puranas') से हमें इस निबन्ध के लेखन में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई।
To TOT Geo. of Puraras Page 9-10 (Introduction). २. वही Page 190. chapter VIII Bharat varat varsai Physical
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आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी ( प्रारम्भ से २०बीं शती तक )
हरिश्चन्द्र जैन
भारतवर्ष में चिकित्सा शास्त्र से संबंधित विषय आयुर्वेद है । जैन परम्परा के अनुसार इसका प्रारम्भ भगवान् ऋषभदेव के समय से होता है, क्योंकि भगवान् ऋषभदेव ने इस देश के लोगों को जीवन-यापन के जिन साधनों का ज्ञान प्रदान किया था, उसमें रोगों से जीवन की रक्षा करना भी सम्मिलित था । अतः आयुर्वेद का प्रारम्भ उन्हीं के समय में हुआ होगा, ऐसा माना जा सकता है।
साधना के लिए जीवन एवं स्वास्थ्य रक्षण आवश्यक था । रोगों से बचने का उपाय आयुर्वेद कहलाता है । इस विषय पर चाहे उस समय तक स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं लिखे गये हों, किन्तु जब ज्ञान को लिपिबद्ध करने की परम्परा चली, तो आयुर्वेद पर स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे गये, अन्य ग्रन्थों में प्रसंगवश आयुर्वेद का वर्णन हुआ आज भी प्राप्त है।
आगम के अनुसार चौदहवें प्राणवाद नामक पूर्व में आयुर्वेद आठ प्रकार का है, ऐसा संकेत मिलता है। जिसका तात्पर्य अष्टाङ्ग आयुर्वेदसे है । गोमटसार, जिसकी रचना १हजार वर्ष पूर्व हुई है, में भी ऐसा संकेत है । इसी प्रकार श्वेताम्बर आगमों यथा-अंग-उपांग, मूल-छेद आदि में यत्र तत्र आयुर्वेद के अंश उपलब्ध होते हैं।
भगवान महावीर का जन्म ईसा से ५९९वर्ष पूर्व हुआ था, उनके शिष्य गणधर कहलाते थे उन्हें अन्य शास्त्रों के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान था । दिगम्बर परम्परा के अनुसार आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतवलि ने षटखंडागम नामक ग्रन्थ की रचना की है। दिगम्बर परम्परा में इससे पूर्व का जैन साहित्य उपलब्ध नहीं है । भगवान् महावीर के पूर्व आयुर्वेद साहित्य के जैनमनीषी अवश्य थे, किन्तु उनका कोई व्यवस्थित विवरण नहीं मिलता है । भगवान् महावीर के उपरान्त अनेक जैन आचार्य हुये हैं, उनमें से अनेक आयुर्वेद विद्या के मनीषी थे। जैन ग्रन्थों में आयुर्वेद का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है, किन्तु इसकी गणना पापश्रतों में की है, यह एक आश्चर्य है । स्थानांग सूत्र में आयुर्वेद के आठ अंगों का नामोल्लेख आज भी प्राप्त होता है। आचारांग सूत्र में १६ रोगों का नामोल्लेख उपलब्ध है । इनकी समानता वैदिक आयुर्वेद ग्रन्थों में देखी जा सकती है।
स्थानांग सूत्र में गगोत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है और रोगोत्पत्ति के ९ कारण बताये गये हैं। जैन मनीषी धर्मसाधन के लिए शरीर रक्षा को बहुत महत्त्व देते थे। बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में कहा है :
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आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी
२३९ शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः ।
शरीराच्छ्वते धर्मः पर्वतात् सलिलं यथा ॥ अर्थात् जैसे पर्वत से जल प्रवाहित होता है वैसे ही शरीर से धर्म प्रवाहित होता है। अतएव धर्मयुक्त शरीर की यत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिये ।
शरीर रक्षा में सावधान जैन साधु भी कदाचित् रोगग्रस्त हो जाते थे। वे व्याधियों के उपचार की विधिवत कला जानते थे ।
निशीथचूर्णी में वैद्यकशास्त्र के पंडितों को दृष्टपाठी कहा है । जैन ग्रन्थों में अनेक ऐसे वैद्यों का वर्णन मिलता है, जो कायचिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा में अति निपुण होते थे। वे युद्ध में जाकर शल्य चिकित्सा करते थे, ऐसा वर्णन प्राप्त होता है । आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी–साधु एवं गृहस्थ दोनों वर्गों के थे।
_हरिणेगमेषी द्वारा महावीर के गर्भ का साहरण चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से एक अपूर्व तथा विचारणीय घटना है । आचार्य पद्मनंदी ने अपनी पंचविशतिका में श्रावक को मुनियों के लिये औषध-दान देने की चर्चा की है इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट है कि श्रावक जैन धर्म की समस्त दृष्टियों के अनुकूल औषध व्यवस्था करते थे। इस सम्बन्ध में जैन आयुर्वेद साहित्य के मनीषी विद्वान ही उनके परामर्श दाता होते थे।
यहाँ आयुर्वेद साहित्य के जैनी मनीषी विद्वानों की परम्परा का ऐतिहासिक दृष्टि से विवेचन करना आवश्यक है :--
इस ऐतिहासिक परम्परा का वैदिक आयुर्वेद साहित्य से कोई मतभेद नहीं है । भगवान आदिनाथ से भगवान महावीर स्वामी तक के आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषियों का कोई लिखित साहित्य नहीं है, किन्तु भगवान महावीर के निर्वाण के उपरान्त जब से शास्त्र लिखने की परम्परा प्रारम्भ हुई, उसके बाद जो आचार्य हुये उन्होंने जो आयुर्वेद साहित्य लिखा है, उसका विवरण अवश्य आज भी प्राप्त है, और इनमें अधिकांश का नामोल्लेख शास्त्रों में विकीर्ण मिलता है।
मुझे अब तक आयुर्वेद साहित्य के जिन जैन मनीषियों का नाम, उनके द्वारा लिखित कृति तथा काल का ज्ञान हुआ है, उसे मैं नीचे एक सूची के द्वारा व्यक्त कर रहा हूँ; जिससे सम्पूर्ण जैन आचार्यों का एक साथ ज्ञान हो सके : आचार्य नाम
काल
विषय १-श्रुतकीर्ति २-कुमारसेन
विष एवं ग्रह ३-वीरसेन ४-पूज्यपाद पात्रस्वामी वैद्यामृत
१२वीं० श०
शालाक्यतंत्र ५-सिद्धसेन दशरथ गुरु
बालरोग ६-मेघपाद
बालरोग
ग्रन्थ
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हरिश्चन्द्र जैन
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आचार्य नाम ग्रन्थ
विषय ७-सिंहपाद
बाजीकरण एवं रसायन ८-समन्तभद्र (१) पुष्पायुर्वेद (२) सिद्धान्त रसायन कल्प १०वी० श०
रसायन ९-जटाचार्य १०-उग्रादित्य
कल्याणकारक ९वीं० श०
चिकित्सा ११-बसवराज १२-गोमम्टदेवमुनि मेरुस्तम्भ १३-सिद्धनागार्जुन नागार्जुनकल्प, नागार्जुनकक्षपुट - १४-कीर्तिवर्म
गौ वैद्य १५-मंगराज
खगेन्द्रमणी दर्पण १६-अभिनवचन्द्र
शास्त्र-द्वय १७-देवेन्द्रमुनि
बाल ग्रह-चिकित्सा १८-अमृतनंदी
वैद्यक निघंटु १९-जगदेवमहापंचपाद श्रीधरदेव वैद्यामृत २०-सालव,
रसरत्नाकर वैद्य सांगत्य २१-हर्षकीति सूरि योगचिन्तामणि २२-जैन सिद्धान्त भवन आरा वैद्यसार संग्रह आरोग्य चिन्तामणी __ में उपलब्ध अनाम आरोग्य चिन्तामणी २३-पूज्यपाद अकलंक संहिता, इन्द्रनंदीसंहिता
औषध प्रयोग २४-आशाधर वैद्य अष्टांगहृदयटीका
१३वीं० श० २५-सोमनाथ
कल्याणकारक (कन्नड़) २६-नित्यनाथ सिद्ध रसरत्नाकर
१४वीं० श०
रसायन २७-दामोदर भट्ट आरोग्यचिन्तामणी (कन्नड़) २८-धन्वन्तरी
धन्वन्तरी निघंटुकोश २९-नागराज
योगशतक ३०-कविपार्व कविप्रमोद वि० सं० १७४३
रसशास्त्र ३१-रामचन्द्र वैद्यविनोद वि० सं० १८१०
संग्रह ३२-दीपचन्द्र
बालतंत्र भाषावनिका वि० सं० १९३६ कौमारऋत्य ३३-लक्ष्मीवल्लभ लंघन पथ्य निर्णय काल ज्ञान १८वीं श०
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आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी
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आचार्य नाम
ग्रन्थ काल
विषय ३४-दरवेश हकीम
प्राणसुख
वि० सं० १८०६ ३५-मुनि यशकीर्ति जगसुन्दरी प्रयोगशाला ३६-देवचन्द्र मुष्टिज्ञान
ज्योतिष एवं वैद्यक ३७-नयनसुख
नैद्यक मनोत्सव, सन्तानविधि
सन्निपात कलिका, सालोन्तर रास ३८-कृष्णदास
__ गंधक कल्प ३९-जनार्दन गोस्वामी बालविवेक, वैद्यरत्न १८वीं० वि० सं० ४०-जोगीदास
सुजानसिंह रासो वि० सं० १७६१ ४१-लक्ष्मीचन्द्र ४२-समरथ सूरी
रसमंजरी
वि० सं० १७६४ ऊपर लिखित तालिका में मैंने आयुर्वेद के जैन मनीषियों का नामोल्लेख किया है जिन्होंने आयुर्वेद साहित्य का प्रणयन प्रधान रूप से किया है। साथ ही वे चिकित्सा कार्य में भी निपुण थे। किन्तु प्राचीन जैन साहित्य के इतिहास का परिशीलन करने पर ज्ञात होता है कि बहुत विद्वान् आचार्य एक से अधिक विषय के ज्ञाता होते थे। आयुर्वेद के मनीषी इस नियम से मुक्त नहीं थे। वे भी साहित्य, दर्शन, व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, मंत्र, रसतन्त्र आदि के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान रखते थे। आयुर्वेद के महान शल्यविद् आचार्य सुश्रुत ने कहा है
एक शास्त्रमधीयानो न विद्याद् शास्त्र निश्चियम् ।
तस्माद् बहुश्रुतः स्यात् विष्नानीया चिकित्सकः ॥
कोई भी व्यक्ति एक शास्त्र का अध्ययन कर शास्त्र का पूर्ण विद्वान् नहीं हो सकता है। अतः चिकित्सक बनने के लिए बहुश्रुत होना आवश्यक है।
यहाँ मैं कुछ ऐसे आयुर्वेद के जैन मनीषियों की गणना कराऊँगा, जिनके साहित्य में आयुर्वेद विकीर्ण रूप से प्राप्त है-पूज्यपाद या देवनन्दी, महाकवि धनंजय, आचार्य गुणभद्र, सोमदेव, हरिश्चन्द्र, वाग्भट्ट, शुभचंद्र, हेमचन्द्राचार्य, पं० आशाधर, पं० जाजाक, नागार्जुन, शोठल वीरसिंह,-- इन्होंने स्वतंत्र भी लिखे थे तथा इनके साहित्य में आयुर्वेद के अंश भी विद्यमान हैं ।
यह एक सम्पूर्ण दृष्टि है, जो आयुर्वेद के जैनाचार्यों के लिए फैलाई जा सकती है। वैसे पूर्वमध्य युग अर्थात् ५००-१२०० ई० से पूर्व का कोई जैनाचार्य आयुर्वेद के क्षेत्र में दृष्टिगोचर नहीं होता है। आयुर्वेद के जैन मनीषी सर्वप्रथम आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी को माना जा सकता है।
(१) पूज्यपाद - इनका दूसरा नाम देवनंदी है। ये ई० ५ शती में हुए हैं। इनका क्षेत्र कर्नाटक रहा है । ये दर्शन, योग, व्याकरण तथा आयुर्वेद के अद्वितीय विद्वान् थे । पूज्यपाद अनेक विशिष्ट शक्तियों के धनी एवं विद्वान् थे । वे दैवीशक्ति-युक्त थे। उन्होंने गगन-गामिनी विद्या में
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हरिश्चन्द्र जैन
कौशल प्राप्त किया था। यह पारद के विभिन्न प्रयोग करते थे। निम्न-धातुओं से स्वर्ण बनाने की क्रिया जानते थे। उन्होंने शालाक्यतंत्र पर ग्रन्थ लिखा है। इनके वैद्यक ग्रन्थ प्रायः अनुपलब्ध है किन्तु इनका नाम कुछ आयुर्वेद के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में लिखा है और इनके आयुर्वेद साहित्य तथा चिकित्सा वैदुष्य की चर्चा की है। आचार्य श्री शुभचंद्र ने अपने "ज्ञानार्णव' के एक श्लोक द्वारा इनके वैद्यक ज्ञान का परिचय दिया है :
अपा कुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक् चित्तसम्भवम् ।
कलंकभंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ यह श्लोक ठीक उसी प्रकार का है जैसा पतञ्जली के बारे में लिखा है :
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन ।
याऽपा करोत् तं वरदं मुनीनां पतञ्जलिं प्राज्जलिरानतो सिम् ।। ऐसा लगता है कि पूज्यपाद पतञ्जलि के समान प्रतिभाशाली वैद्यक के ज्ञाता जैनाचार्य थे।
कन्नड कवि मंगराज वि०सं० १४१६ में हुए हैं, जिन्होंने खगेन्द्रमणीदर्पण, आयुर्वेद का
है। उन्होंने लिखा है कि मैंने अपने इस ग्रन्थ का भाग पूज्यपाद के वैद्यक ग्रन्थ से संग्रहीत किया है। इसमें स्थावर विषों की प्रक्रिया और चिकित्सा का वर्णन है। बौद्ध नागाजन से भिन्न एक नागार्जुन और थे, जो पूज्यपाद के बहनोई थे। उन्हें पूज्यपाद ने अपनी वैद्यक विद्या सिखाई थी। रसगुटिका, जो खेचरी गुटिका थी, का निर्माण भी उन्हें सिखाया था। पूज्यपाद रसायनशास्त्र के विद्वान् थे । वे अपने पैरों में गगनगामी लेप लगा कर विदेह क्षेत्र की यात्रा करते थे। ऐसा उल्लेख कथानक साहित्य में मिलता है।
दिगम्बर जैन साहित्य के अनुसार पूज्यपाद आयुर्वेद साहित्य के प्रथम जैन मनीषी थे। वे चरक, एवं पतंजलि की कोटि के विद्वान् थे। जिन्हें अनेक रसशास्त्र,योगशास्त्र और चिकित्सा की विधियों का ज्ञान था। साथ ही शल्य एवं शालाक्य विषय के विद्वान् आचार्य थे।
(२) महाकवि धनंजय--इसका समय वि० सं० ९६० है। इन्होंने 'धनंजय निघंटु' लिखा है, जो वैद्यक शास्त्र का ग्रन्थ है। ये पूज्यपाद के मित्र एवं समकालोन थे, जैसा कि श्लोक प्रकट करता है
प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणं ।
धनंजयकवैः काव्य रत्नमयपश्चिमम् ।। इन्होंने विषापहार स्तोत्र लिखा है, जो प्रार्थना द्वारा रोग दूर करने के हेतु लिखा गया है ।
(३) गुणभद्र--शक संवत् ७३७ में हुए हैं, इन्होंने 'आत्मानुशासन' लिखा है, जिसमें आद्योपान्त आयुर्वेद के शास्त्रीय शब्दों का प्रयोग किया गया है और फिर शरीर के माध्यम से आध्यामिक विषय को समझाया है। इनका वैद्यक ज्ञान वैद्य से कम नहीं था।
(४) सोमदेव--ये ९वीं शती के आचार्य हैं। यशस्तिलक चम्पू में स्वस्थवृत्त का अच्छा वर्णन किया है। उन्हें वनस्पति शास्त्र का ज्ञान था, क्योंकि इन्होंने शिखण्डी तांडव वन की औषधियों का वर्णन किया है। ये रसशास्त्र के ज्ञाता थे ।
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आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी
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(५) हरिश्चन्द्र - ये धर्मशर्माभ्युदय के रचयिता हैं । कुछ वैद्यक ग्रन्थों में इनका नाम भी आता है । कुछ विद्वान् इन्हें खरनाद संहिता के रचयिता मानते हैं ।
(६) शुभचन्द्र - - ११वीं शती के विद्वान् थे । इन्होंने ध्यान एवं योग के सम्बन्ध ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ लिखा है । यह भी आयुर्वेद के ज्ञाता थे ।
(७) हेमचन्दाचार्य -- ये योगशास्त्र के विद्वान् थे ।
(८) शोठल – ये ईसा की १२वीं शती में हुए हैं। इनका क्ष ेत्र गुजरात था । इन्होंने आयुर्वेद के अगदनिग्रह तथा गुणसंग्रह ग्रन्थ लिखे हैं, वे उपलब्ध हैं । प्रायोगिक व्यवहार के लिये उत्तम ग्रन्थ हैं ।
(९) उग्रादित्य-ये ८वीं शती के कर्नाटक के जैन वैद्य थे । धर्मशास्त्र एवं आयुर्वेद के विद्वान् थे । जीवन का अधिक समय चिकित्सक के रूप में व्यतीत किया है । ये राष्ट्रकूट राजा नृपतुरंग अमोघवर्ष के राज्य वैद्य थे। इन्होंने कल्याणकारक नामक चिकित्सा ग्रन्थ लिखा है । जो आज उपलब्ध है । इसमें २६ अध्याय हैं । इनमें रोग लक्षण, चिकित्सा, शरीर, अगदतंत्र एवं रसायन का वर्णन है । ये सोलापुर से प्रकाशित है। रोगों का दोषानुसार वर्गीकरण आचार्य की विशेषता है । इन्होंने जैन आचार-विचार की दृष्टि से चिकित्सा की व्यवस्था में मद्य, मांस और मधु का प्रयोग नहीं बताया है । इन्होंने अमोघवर्ष के दरबार में मांसाहार की निरर्थकता वैज्ञानिक प्रमाणों के द्वारा प्रस्तुत की थी और अन्त में वे विजयी रहे ।
कल्प,
मांसाहार रोग दूर करने की अपेक्षा अनेक नये रोगों को जन्म देता है, यह इन्होंने लिखा है । यह बात आज के युग में उतनी ही सत्य है । जितनी उस समय थी ।
(१०) वीरसिंह - वे १३ वीं शती में हुए हैं । इन्होंने चिकित्सा की दृष्टि से ज्योतिष का महत्त्व लिखा है । वीरसिंहावलोक इनका गन्थ है ।
(११) नागार्जुन - इस नाम के कई आचार्य हुए हैं । जिसमें ३ प्रमुख हैं । जो नागार्जुन सिद्ध नागार्जुन थे, वे ६०० ए० डी० में हुए हैं । वे पूज्यपाद के शिष्य थे । उन्हें रशसात्र का बहुत ज्ञान था । इन्होंने नेपाल - तिब्बत आदि स्थानों की यात्रा की और वहाँ रसशास्त्र को फैलाया था । इन्होंने पूज्यपाद से मोक्ष प्राप्ति हेतु रसविद्या सीखी थी । इन्होंने (१) रस काच पुल और (२) कक्षपुर तम था सिद्ध चामुण्डा ग्रन्थ लिखे थे । भदन्त नागार्जुन और भिक्षु - नागार्जुन बौद्ध मतावलम्बी थे ।
(१२) पण्डित आशाधर – ये न्याय, व्याकरण, धर्म आदि के साथ आयुर्वेद साहित्य के भी मनीषी थे । इन्होंने वाग्भट्ट, जो आयुर्वेद के ऋषि थे, उनके अष्टांग हृदय ग्रन्थ की उद्योतिनी टीका की है, जो अप्राप्य है । इनका काल वि० सं० १२७२ है । ये मालव- नरेश अर्जुन वर्मा के समय धारा नगरी में थे। इनके वैद्यक ज्ञान का प्रभाव इनके " सागारधर्मामृत” ग्रन्थ में मिलता है। अतः ये विद्वान् वैद्य थे । इन्हें सूरि, नयविश्वाचक्षु, कलिकालिकादास, प्रज्ञापुंज आदि विशेषणों से कहा गया है । अतः इनके वैद्य होने में संदेह नहीं है । पण्डित जी ने
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हरिश्चन्द्र जैन
समाज को पूर्ण अहिंसक जीवन बिताते हुए मोक्षमार्ग का उपदेश दिया है, शरीर, मन और आत्मा का कल्याणकारी उपदेश इनके सागारधर्मामृत में हैं । यदि श्रावक उसके अनुसार आचरण करे, तो रुग्ण होने का अवसर नहीं आ सकता है ।
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(१३) भिषक् शिरोमणि हर्षकीर्ति सूरि - इनका ठीक काल ज्ञात नहीं हो सका है ये नागपुरीय तपागच्छीय चन्द्रकीर्ति के शिष्य थे और मानकीर्ति भी इनके गुरु थे । इन्होंने योगचिन्तामणि और व्याधिनिग्रह ग्रन्थ लिखे हैं । दोनों उपलब्ध हैं और प्रकाशित हैं । दोनों चिकित्सा के लिए उपयोगी हैं । इनके साहित्य में चरक, सुश्रुत एवं वाग्भट्ट का सार है । कुछ नवीन योगों का मिश्रण है, जो इनके स्वयं के चिकित्सा ज्ञान की महिमा है । यह ग्रन्थ एक जैन आचार्य की रक्षा हेतु लिखा गया था ।
(१४) डा० प्राण जीवन मणिक चन्द्र मेहता - इनका जन्म १८८९ में हुआ । ये एम०डी० डिग्रीधारी जैन हैं । इन्होंने चरक संहिता के अंग्रेजी अनुवाद में योगदान दिया है । जामनगर की आयुर्वेद संस्था में संचालक रहे हैं ।
इस प्रकार आयुर्वेद साहित्य के अनेक जैन मनीषी हुए हैं। वर्तमान काल में भी कई जैन साधु तथा श्रावक चिकित्सा शास्त्र के अच्छे जानकार हैं किन्तु उन्होंने कोई ग्रन्थ नहीं लिखे हैं । मैंने कई जैन साधुओं को शल्य चिकित्सा का कार्य सफलता पूर्वक निष्पन्न करते हुए देखा है ।
जैन आचार्यों ने आयुर्वेद साहित्य का लेखन तथा व्यवहार समाज हित के लिये किया है । भारतवर्ष में जैन धर्म की अपनी दृष्टि है । उसमें जीवन को सम्यक् प्रकार से जीते हुए मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्ति करना होता है । इसलिये आहार-विहार आदि के लिए उन्होंने अहिंसात्मक समाज निर्माण का विचार एवं दर्शन दिया है । चिकित्सा में मद्य-मांस और मधु के प्रयोग को धार्मिक दृष्टि से समावेश नहीं किया है । वैदिक परम्परा के आचार्यों ने, जो आयुर्वेद साहित्य लिखा है, उससे जैन परम्परा के द्वारा लिखित आयुर्वेद साहित्य में उक्त दोनों परम्पराओं की अच्छी बातों के साथ निजी विशेषताएँ है । वे अहिंसात्मक विचार की हैं जिनका सम्बन्ध शरीर, मन और आत्मा से है । इसका फल समाज में अच्छा हुआ है । आज जैन आचार्यों ने, जो आयुर्वेद साहित्य लिखा है, उसके सैद्धान्तिक एवं व्यवहार पक्ष का पूरा परीक्षण होना शेष है। जैन समाज तथा शासन को इस भारतीय ज्ञान के विकास हेतु आवश्यक प्रयत्न करना चाहिये ।
प्राध्यापक
रात आयुर्वेद विश्वविद्यालय
जामनगर
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व्यासी
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मारवाड़ चित्रशैली एवं जैन विज्ञप्तिपत्र
मधु अग्रवाल किसी भी प्रदेश के युगविशेष की संस्कृति एवं सभ्यता उस काल-विशेष की कला में निहित होती हैं। ये कलाकृतियां बीते युग का दर्पण हुआ करती हैं ।
समस्त मारवाड़ प्रदेश प्राचीनकाल से ही जैन धर्मानुयायियों का उल्लेखनीय केन्द्र रहा है। इन जैन धर्मावलम्बियों की सांस्कृतिक समृद्धि इनके संरक्षण में बनी मूर्तियों, भित्तिचित्रों, ताम्रपत्रों एवं पट्टों में सिमटी है।
राजस्थानी चित्रकला के प्रमुखतया दो स्वरूप मिलते हैं-एक लोककलात्मक एवं दूसरा दरबारी। प्रथम स्वरूप अधिकतर धर्मपीठों एवं जनसमाज में पल्लवित हुआ है तथा दूसरा सामन्ती परिवेश में । निश्चय ही उपयुक्त दोनों स्वरूप अबाधगति से प्रवाहित होते रहे हैं। अधिकांशतः जैन चित्रों को भी हम लोक चित्रों के तहत रखते हैं। जैन विज्ञप्तिपत्रों में भी उस प्रदेश की जैन धार्मिक मान्यताओं, जैन एवं अजैन समाज के तहत रखते हैं। जैन विज्ञप्तिपत्रों में भी उस प्रदेश की जैन धार्मिक मान्यताओं, एवं जैन अजैन समाज के सामान्य जनजीवन की झांकी मिलती है।
विज्ञप्तिपत्र कुण्डलित पट होता है। लम्बे कागज पर खंडों में चित्र बने होते हैं। इसके पीछे महीन कपड़ा लगा रहता है। कुण्डलित पटों की परम्परा पश्चिम भारतीय चित्रों में काफी पहले से चली आ रही है। पन्द्रहवीं शताब्दी के पंचतीथी पट एवं वसन्त विकास ऐसे ही कुण्डलित पट हैं। इन पटों पर चित्रकार स्थान की सीमा में नहीं बँटा होता है। जैन समाज की परम्परानुसार जब कभी जैनाचार्यों या मुनियों को कोई जैन संघ अपने स्थान पर चौमासे के लिए अथवा समाज के धर्मलाभ के लिए बुलाता है, उस समय विनयपूर्वक निमन्त्रण पत्र भेजा जाता है, जिसे विज्ञप्तिपत्र कहा जाता है । जैनियों का अत्यन्त पवित्र पर्व पर्युषण पर्व माना जाता है, जो प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में होता है तथा प्रायः आठ दस दिन तक चलता है। बीते हुए वर्ष में जाने-अनजाने में हुई त्रुटियों या अपराधों के लिए इस अवसर पर अपने मित्रों व अन्य व्यक्तियों को क्षमायाचना पत्र भेजे जाते हैं। जिन्हें क्षमापना पत्र कहा जाता है। इनकी गिनती विज्ञप्ति-पत्रों के वर्ग में ही होती है। इनके आकार-प्रकार में काफी विविधता पायी गयी है। श्री भंवरलाल नाहटा के अनुसार अबतक का ज्ञात सबसे लम्बा विज्ञप्ति पत्र बीकानेर का माना जाता है । यह ९७ फुट लम्बा है, जो ९४ फुट तक चित्रित है। श्री अगरचन्द नाहटा के अनुसार विज्ञप्तिपत्रों में सर्वाधिक लम्बा पयूषण पर्व लेख किशनगढ़ के एक विज्ञप्तिपत्र का है। इस लेख की हस्तलिखित प्रति २५ पन्नों की है। आरम्भ में ऐसे पत्रों में केवल लिखित निमन्त्रण होता था। डॉ० हीरानन्द शास्त्री के अनुसार इन लिखित पत्रों का एक अन्य प्रकार भी होता है। उनमें जैन साधु अपने गुरु को वर्ष भर का लेखा
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मधु अग्रवाल
जोखा भेजते हैं । डॉ० शास्त्री ने इस वर्ग का १६६० ई० का गोधा विज्ञप्ति पत्र प्रकाशित किया है। १७वीं शती से ही इन पर लेखन के साथ-साथ चित्रों को भी स्थान दिया जाने लगा। जिनकी परम्परा २०वीं शती के आरम्भिक दो-तीन दशकों तक रही। ये पत्र साहित्य, कला, इतिहास, सामाजिक स्थिति तथा स्थानीय भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहे हैं। सामान्यतः इन पन्नों पर पूर्ण कलश, अष्ट मांगलिक प्रतीक, तीर्थङ्करों की माताओं द्वारा देखे जाने वाले चौदह मंगल स्वप्न (महासन) तथा तीर्थङ्करों के कायचित्र के अतिरिक्त जिस नगर से विज्ञप्ति पत्र भेजा जाता है वहाँ के मुख्य स्थानों, जैन, अजैन मंदिरों, भवनों, मार्गों, बाजारों, वाहन, राजमहल, देवालय, जलाशय तथा जीवन के चित्र बने होते हैं। इसके बाद मुनि महाराज, अन्य शिष्य, श्रावकों व मुनियों सहित नगर के प्रवेश द्वार के समीप पड़ाव में दिखाये जाते हैं। चित्रों के अतिरिक्त जहाँ से विज्ञप्ति पत्र भेजा जाता है तथा जिस स्थान को भेजा जाता है दोनों का विवरण, निमन्त्रण करने वाले नगर के साधुओं व श्रावकों आदि की वन्दना तथा अपने यहाँ पधारने की विनती लिपिबद्ध की जाती है। ये पत्र विद्वान् मुनियों की काव्य प्रतिभा एवं विद्वत्ता के प्रतीक भी हैं। इनके निर्माण में समय व धन लगता था। इस प्रकार के विज्ञप्ति पत्रों के निर्माण की परम्परा केवल श्वेताम्बर जैन समाज व कला की देन है।
___इन पत्रों को प्रकाशित करने का श्रेय सर्वप्रथम डॉ० हीरानन्द शास्त्री को है। उन्होंने १७७९ ई० में निर्मित सिरोही के १७९७ एवं १८३५ ई०में निर्मित जोधपुर के तथा १७९५ ई० में चित्रित बड़ौदा के विज्ञप्ति पत्रों को प्रकाशित किया। तत्पश्चात् डॉ० यू० पी० शाह ने बड़ौदा म्यूजियम बुलेटिन में "देसूरी विज्ञप्ति पत्र', भँवरलाल नाहटा ने राजस्थान भारती पत्रिका में बीकानेर के विज्ञप्ति पत्र एवं अगरचन्द नाहटा ने राजस्थान में मरु भारती पत्रिका में किशनगढ के विज्ञप्ति पत्र को प्रकाशित किया।
गुजरात के अलावा राजस्थान चित्र शैली में इन पत्रों के चित्रण की परम्परा मुख्य तौर पर मारवाड़, बीकानेर एव किशनगढ़ में पायी गई है। मारवाड़ चित्रशैली ही बीकानेर एवं किशनगढ़ चित्र शैली की जन्मदात्री रही है । इन पत्रों की परम्परा मुगल दरबार में भी रही है। अब तक का ज्ञात पहला चित्रित विज्ञप्तिपत्र जहांगीर के दरबार के मुगल चित्रकार शालीवाहन ने चित्रित किया । अकबर के बाद जहाँगीर मुगल साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु हिन्दुओं की धार्मिक भावना के प्रति अकबर की समन्वय तथा सहिष्णुता की नीति के अर्न्तगत जीवहत्या के निरोध के पक्ष में जहाँगीर नहीं था। फिर भी समकालीन मुनि जिनविजय सूरि के शिष्य विवेकहर्ष तथा उदयहर्ष के नेतृत्व में सम्राट के दरबारी राजा रामदास के साथ एक शिष्ट मण्डल १६१० ई० में जहाँगीर के दरबार में आगरा पहुँचा तथा पर्यषण पर्व के दिनों में जीव हत्या पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए विशेष आग्रह कर शान्ति आदेश का फरमान प्राप्त करने में सफल हो गया। उसी अवसर पर आगरा के जैन समाज की ओर से उक्त पत्र लिखा गया।
निमन्त्रण पत्र होने के कारण ये कल्पसूत्र एवं कालकाचार्य कथा की प्रतियों की भांति समृद्ध नहीं होते। चंकि इन पत्रों का उद्देश्य बिल्कुल भिन्न था। फलतः राजदरबार में
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मारवाड़ चित्रशैली एवं जैन विज्ञप्ति पत्र
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चित्रित होने वाले चित्रों जैसी बारीकी, नफासत एवं भव्यता इनमें नहीं पायी जाती, परन्तु शैलीगत समानता होती ही है । ये समकालीन दरबारी चित्रों से प्रभावित हैं और शैली के विकास की विवेचना में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । दरबार में शैली के उत्तरोत्तर पतन के साथ हम इनका भी ह्रासमान रूप देखते हैं । मारवाड़ चित्रशैली के कालक्रम निर्धारण में मारवाड़ की राजधानी जोधपुर एवं अन्य नगरों से पाये गये इन निमन्त्रण पत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । १९वीं शती के मध्याह्न के बाद अन्य केन्द्रों की भांति मारवाड़ के दरबार में भी चित्रों के प्रति उदासीनता बरती जाने लगी। धीरे-धीरे चित्रकला की परम्परा लुप्त होने लगी है । पतन के इस दौर में २०वीं सदी के पहले दशक तक हासमान रूप में ही सही २००-२५० वर्षों की कला परम्परा की धरोहर इन्हीं पत्रों में कैद है ।
अहमदाबाद के एल०डी० इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डोलोजी, एल०डी० म्यूज्म, देहली जैन उपाश्रय, जैन प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान एवं बी०जे० इंस्टिट्यूट में मारवाड़ शैली के कई पत्र हैं । इनकी सूची एवं चित्र डॉ० यू०पी० शाह ने ट्रेजरार ऑफ जैन भण्डार पुस्तक में प्रकाशित की है। उक्त सूची से ही यहाँ मैने दो विज्ञप्ति पत्रों की शैली की विवेचना की है । ये १८वीं१९वीं सदी में चित्रित हुए । मारवाड़ प्रदेश के जोधपुर एवं अन्य ठिकानों से गुजरात भेजे गये हैं ।
इनके चित्रण में काफी विविधता है । संरक्षकों की रुचि एवं धन व्यय करने के आधार पर इस प्रदेश से पाये जाने वाले विज्ञप्ति पत्रों का भिन्न-भिन्न प्रकार का चित्रण है ।
अहमदाबाद के एल०डी० इंस्टिट्यूट ऑफ इंडोलोजी में संग्रहित एक पत्र ( एल० डी० २७६४७) विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यह सोजत के जैन संघ द्वारा सूरत के उदयसागर सूरि को लिखा गया । सोजत, मारवाड़ का महत्त्वपूर्ण ठिकाना था । यह पूरा पत्र उत्तम अवस्था में है । नीचे इसके लेख की लिपि कई जगह धुँधली हो गयी है । इसे अनुमानतः अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का माना गया था । गत वर्ष इसके लेख की अन्तिम धुंधली पड़ती पक्तियों को ध्यानपूर्वक देखने पर मुझे इस पर तिथि मिली । यह संवत् १८०३ [१७४६ ] चित्रित हुआ था । अन्य विज्ञप्ति पत्रों की तुलना में यह आकार में छोटा है । २०५ सेमी ० लम्बा २२ सेमी० चौड़ा है। इसमें शहर, मार्गों, मन्दिर एवं जुलूस का चित्रण नहीं है ।
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चित्र आठ खंडों में विभाजित है । पहले खण्ड में लाल पृष्ठभूमि में उजले एवं आसमानी रंग के घोड़े हैं । दौड़ते हुए घोड़ों का अत्यन्त उत्कृष्ट चित्रण हुआ है । घुड़सवार का चित्रण नागौरी शबीहों के घुड़सवारी के अनुरूप हुआ है । मारवाड़ के ठिकाने नागौर में कई चित्रों में मुगल प्रभाव के तहत कम घनी नुकीली दाढ़ी का चित्रण हुआ है ।
दूसरे खंड [ चित्र नं १ ] में पताका एवं अठारहवीं शती के प्रायः सभी राजस्थानी चित्रों पूरे पत्र में आंखों का चित्रण जोधपुर के चित्रों से निकट है । सिरोही मारवाड़ एवं मेवाड़ के मध्य स्थित है ।
धारियाँ लेकर जाते अनुचरों की वेषभूषा में सेवकों के अंकन में एक जैसी है । इस बिल्कुल भिन्न है तथा सिरोही के चित्रों के कई बार सिरोही मारवाड़ का
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मधु अग्रवाल अधीनस्थ प्रदेश रहा है। कई विद्वान् सिरोही एवं मारवाड़ के चित्रों को एक ही शैली रखते हैं।
इस पत्र में कई स्थानों पर गुजरात के चित्रों का भी प्रभाव है। आरम्भ से ही मारवार के चित्रों पर गुजरात का प्रभाव पाया गया है। वास्तव में मारवाड़ चित्र शैली गुजरात में ही निकली है। १७वीं सदी के अभिलेख विहीन कई चित्रों के बारे में निश्चित रूप से यह कहना मुश्किल है कि ये मारवाड़ के थे या गुजरात प्रदेश में निर्मित हुए।
दूसरे, तीसरे, चौथे एवं पाँचवें खंडों में पुरुष गायकों एवं नर्तकों का चित्रण हुआ है। इन चारों चित्रों [ चित्र-२] में तारतम्य एवं क्रमबद्धता है। नृत्य संगीत के वातावरण की हलचल, उन्मुक्तता पूरी तरह संप्रेषित हो रही है। इनकी वेषभूषा वातावरण के अनुकूल तीखे रंगों की है। रूपहले रंगों का भी प्रचुरता से प्रयोग हुआ है। चारों खंड ऊपर-नीचे से एक इंच चौड़ी रेखा द्वारा विभाजित किये गये हैं। क्रमशः बैगनी, लाल तथा पीला एवं बैगनी रंगों की पृष्ठभूमि है । रंगों में सामंजस्य है।
छठे खंड [चित्र-३] में हरी पृष्ठभूमि में स्त्रियों के जुलस का दृश्य है। उनका चिया सिरोही चित्रों के अत्यन्त निकट है।
त्रों के अत्यन्त निकट है। गोल भरा-भरा चेहरा. गालों की माडलिंग, गोल ठड्डी आँखें, माथा आदि सिरोही चित्रशैली की परम्परा में है। समकालीन चित्रों की तरह आकृतियाँ गठी हुई, आकर्षक, औसत कद की एवं समानुपातिक संरचना वाली है। इसकाल तक आते आते समकालीन चित्रों के लहंगे भारी भरकम घेर वाले होते हैं। यहाँ कम घेर लहंगे पारदर्शी दुपट्टे के कंगूरे अठारहवीं सदी के प्रारम्भ के चित्रों की भाँति चित्रित हुए हैं। आभूषणों का भी रूढिबद्ध अंकन है। आकृतियाँ स्थिर गतिहीन प्रतीत हो रही हैं।
___ सातवाँ खण्ड १४ इंच लम्बा है। लाल रंग की पृष्ठभूमि में अन्य रंगों का आकर्षक सामंजस्य हुआ है। जैन साधु साध्वियां दीक्षा दे रहे हैं। आकृतियाँ समकालीन चित्रों की परम्परा में हैं। अठारहवीं सदी के मध्य के आस-पास मारवाड़ एक बीकानेर दोनों चित्र शैलियों में इस प्रकार गोल भरे-भरे चेहरे, भारी गर्दन, दोहरी ठुड्डी। हल्के गलमुच्छे, मूछे, एवं पगड़ी चित्रित होती रही है। यहाँ आंखों के चित्रण में अन्तर है.।। जैन साध्वी के समकक्ष बैठा किशोर एवं नीचे औरतों के समूह की ओर आ रहा किशोर भी समकालीन मारवाड़ बीकानेर के चित्रों में प्रायः चित्रित हुआ है। ये तत्त्व मथेन घराने के चित्रकारों की विशिष्ट शैली में है। नेशनल म्यूजियम में संग्रहीत मंथेन रामकिशन द्वारा चित्रित १७७० ई० की रागमाला एव अन्य चित्रों में इस भाँति के किशोर वय की आकृतियां चित्रित हैं।
इन पत्रों पर चित्रकारों का नाम नही मिलता है। शैली के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका चित्रण मंथेन घराने के चित्रकारों ने ही किया होगा। इसे मथेन या मंथेरना दोनों कहते हैं। मथेन जोगीदास म० अखेराज, म० रामकिशन, म० अमैराम, म० सीताराम
ईनाम बीकानेर के हस्तलिखित सचित्र ग्रन्थों में पाये गये हैं। इन नामों से अनुमान होता है कि यह चित्रकारों का एक घराना रहा होगा । इनके बारे में अधिक जानकारी नहीं।
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मारवाड़ चित्रशैली एवं जैन विज्ञप्ति पत्र
२४९ मिल पायी। इनकी शैली मारवाड़ के सचित्र हस्तलिखित ग्रन्थों में भी मिलती है। जोधपुर, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में संग्रहीत १७८८ में चित्रित मारवाड़ के पाली ठिकाने पर चित्रित मधुमालती प्रति में भी मथेन सीवराम का नाम मिलता है। इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है कि ये चित्रकार दोनों स्थानों पर चित्र बनाया करते थे । जयपुर के कुं० संग्राम सिंह के अनुसार जैन सूरि के साथ इस घराने के चित्रकार रहते थे।
इस परे खंड में प्रवचन का शांत स्थिर वातावरण है। साधु-साध्वियों के चेहरे आध्यात्मिक भावों से युक्त हैं। चेहरे गहरे रंग के हैं। मारवाड़ के पोकरण, आसोप आदि ठिकानों में भी चेहरे गहरे वर्ण के चित्रित होते रहे हैं। ___ यह पत्र निश्चित रूप से १८वीं शदी के उत्कृष्ट चित्रों में से एक है। यद्यपि इसमें
- बारीकी एवं नफासत नहीं है फिर भी ये चित्र कुशलता पूर्वक चित्रित किये गये चित्रों के अत्यंत उत्कृष्ट उदाहरण हैं। तकनीकी दष्टि से भी ये काफी परिष्कृत हैं। रेखाएँ सशक्त वेगवान एवं प्रवाहमय हैं। साफ सुथरा पूर्ण चित्रण है। मारवाड़ शैली के विकास एवं विज्ञप्ति पत्रों की परम्परा-दोनों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
१९वीं शती में इनका चित्रण बहत बड़ी संख्या में होने लगता है। इस काल में ऐसे कुछ पत्र मिले हैं जिनमें विशिष्ट आकृतियों के चित्रण पर ही ध्यान दिया गया है । प्रमुख आकृतियों का समकालीन उत्कृष्ट दरबारी चित्रों के समतुल्य चित्रण हुआ है। पर सहायक आकृतियों का अत्यंत सामान्य कोटि का चित्रण हुआ है। सम्भवतः यह प्रतिपालक के आदेश एवं रुचि पर निर्भर करता होगा। अहमदाबाद के ढेहला जैन उपाश्रय भंडार में संग्रहीत विज्ञप्ति पत्र (डी. ए. नं. २००) इस वर्ग का एक उल्लेखनीय उदाहरण है । यह पत्र १८२५ ई० में जोधपुर से अहमदाबाद के श्री विजय जी को लिखा गया था ।
यह महाराजा मानसिंह के काल में चित्रित हुआ है । पत्र में चित्रित जैन साधु (चित्र-४) का भरा गोल चेहरा, ठुड्डी, नुकीली नाक, बड़ी-बड़ी नुकीली आंखें समकालीन नाथ संप्रदाय के नाथ गुरुओं के चित्रों की भांति चित्रित हुई हैं। इस पत्र में प्रमुख चित्रों के अंकन में रेखाएँ सशक्त हैं । भावनापूर्ण चित्रण हुआ है। जैन साधु के मुख पर आध्यात्मिक भावों के साथ-साथ प्रसन्न सहज एवं शांत भाव है। सामने प्रवचन सुन रहे व्यक्तियों के समूह एवं पोछ खड़े सेवक की घनी दाढी, मँछ, गलमुच्छे, बड़ी-बड़ी आँखें, ऊँची पगड़ी का चित्रण दरबार में चित्रित होने वाले लघु चित्रों, हस्तलिखित सचित्र ग्रंथों एवं इन पट्टों में एक जैसा है। यहाँ रेखाएँ कमजोर हैं। इनमें टूट है। इसी खंड में जैन आचार्यों के नीचे के पैनल में चित्रित साधु-साध्वियों का बेजान एवं भावहीन चित्रण हुआ है। सम्मुखदर्शी जैन साधु का चित्रण १८वीं सदी के सिरोही चित्रशैली के उपदेशमाला प्रकरण की प्रति के चित्रों से मिलता है। इनके समक्ष चित्रित स्त्रियों के समूह का विविधतापूर्ण चित्रण हुआ है । यह निम्नकोटि का अनाकर्षक चित्रण है । आकृतियाँ ठिगनी हो गई हैं। सबसे आगे वाली स्त्री की कान तक खिची लम्बी आँखें, भौंहे व चपटे गाल एवं ठड़ी, छोटी नाक परम्पराबद्ध नारी चित्रण से भिन्न है। साधारणतया मारवाड चित्रशैली में लम्बी आंखें ऊपर की ओर उठी होती हैं। अधमुंदी बड़ी-बड़ी घनी पलकों के साथ चेहरे पर सौम्य भाव होते हैं। ठिगनी स्थूल आकृतियाँ इस काल में बहुत कम चित्रित हुई हैं।
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मधु अग्रवाल
यदाकदा चित्रित हुई हैं तो भी उनकी कमर पतली चित्रित की गयी है। यहाँ इन परम्पराओं से परे चौड़ी कमर का चित्रण हआ है। पीछे खड़ी स्त्री की केरीनुमा ऊपर की ओर उठी हुई आँख, अंडाकार चेहरा, लम्बी गर्दन, नुकीली नाक दरबारी चित्रों की परम्परा में है। नुकीली लम्बी नाक एवं चेहरे की लम्बाई पर किशनगढ़ शैली का प्रभाव है। भावहीनता एवं कमजोर रेखांकन के कारण सौंदर्य कुछ हद तक कम हो गया। किशनगढ़, जोधपुर रियासत की ही शाखा थी फलतः दोनों की चित्रशैली में कुछ हद तक समानताएँ थीं। चूंकि नारी सौंदर्य एवं कलात्मकता की दृष्टि से किशनगढ़ के चित्र जोधपुर के चित्रों से अधिक उत्कृष्ट हैं। पीछे बैठी स्त्री का चित्रण १७वीं सदी के जगदीश मित्तल संग्रह एवं जयपुर भागवत दशम स्कंध की प्रति से मिलता है।
नीचे के पैनल से नृत्य-संगीत का उल्लास प्रकट हो रहा है। कमजोर रेखांकन के बावजूद भावाभिव्यक्ति सशक्त है। नर्तकी की मुद्रा एवं वस्त्रों की फहरान से नृत्य की गति का सुन्दर आभास हो रहा है । पुरुष वाद्य-वादकों के चित्रण में मुखाकृति एवं वेशभूषा पर १७वीं सदी के गुजरात में चित्रित होने वाले चित्रों का प्रभाव है।
प्रमुख आकृतियों की उत्कृष्ट चित्रण परम्परा में माता त्रिशला के शयन दृश्य का अत्यंत सफल चित्रण हुआ है। माता त्रिशला एवं सेविकाओं की लम्बी आकृति, अंडाकार चेहरा,
क. पतली कमर. लम्बी स्प्रिगतमा जल्फों का आकर्षक चित्रण समकालीन उत्कृष्ट चित्रों के नारी सौंदर्य के निश्चित मापदण्डों के अनुसार हुआ है। इस काल में ऐसा चित्रण मारवाड़, बीकानेर एवं जयपुर तीनों शैलियों में मिलता है।
मारवाड़ चित्रों में इस काल में चित्रित होने वाले सभी पुरुष आकृतियों के चित्रण में महाराजा मानसिंह की छवि ही चित्रित की गयी है। इस पत्र में भी इसी परम्परा का अनुकरण किया गया है।
इस पत्र की शैलीगत विवेचना में हम नये-पुराने कला तत्त्वों का समावेश पाते हैं। लोक चित्रों के होने के बावजूद ये कई दृष्टियों से दरबारी चित्रों के समकक्ष हैं। चित्रकार ने दरबारी चित्रों की जकड़न से स्वतन्त्र होकर उन्मुक्त चित्रण किया है तथा नये-नये प्रयोग किये हैं । इन चित्रों में लोक संस्कृति की सच्ची झलक है।
ये पत्र तत्कालीन जैन संस्कृति के अमूल्य दस्तावेज हैं जिनमें सिर्फ पीढ़ियों की परम्पराएँ ही नहीं, मारवाड़ के जीवन के सभी पक्ष सुरक्षित हैं।
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एलोरा की जैन सम्पदा
डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव राजनीतिक स्थितियाँ सदा से ही कला एवं स्थापत्य के विकास की नियामक रही हैं। शासकों की धार्मिक आस्था एवं उनकी आर्थिक स्थिति के अनुरूप ही मन्दिरों, गुफाओं एवं देवमूर्तियों का निर्माण व विकास होता रहा। एलोरा ( महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जिले में स्थित ) में तीनों प्रमुख भारतीय धर्मों ( ब्राह्मण, बौद्ध, जैन ) के आराध्य देवों की मूर्तियों की प्राप्ति शासकों की धार्मिक सहिष्णुता की स्पष्ट साक्षी है।' बौद्ध धर्म की गुफाओं के साथ सटी ब्राह्मण धर्म की गुफाएँ हैं और उसके बाद जैन धर्म की कलाकृतियों की; यह कला-त्रिवेणी बहुत अनोखी उतरी है। इस तरह एक साथ होने के कारण तुलनात्मक विवेचन से दर्शकों, शोधप्रज्ञों को तीनों पद्धतियों की खूबियों और खामियों का परिचय मिल जाता है ।
जैन गफाओं ( गफा क्रम संख्या ३० से ३४ ) का निर्माण एवं चित्रांकन दिगम्बर मतावलम्बियों के निरीक्षण से नवीं एवं तेरहवीं शती ई० के मध्य हुआ है। वास्तुकला के दृष्टिकोण से तलविन्यास के आधार पर ही इनमें अन्तर है, जो यहाँ स्थित अन्य धर्मों की गुफाओं से इनमें अन्तर स्पष्ट करता है। इन्द्रसभा के ऊपरी तल में इन्द्र तथा अम्बिका की भव्य प्रतिमा बरबस आकृष्ट करती है। इसके अतिरिक्त पार्श्वनाथ, बाहुबली गोम्मटेश्वर, महावीर आदि जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ उत्कृष्ट हैं। यहाँ के जैन भित्तिचित्र, भित्तिचित्रकला के इतिहास में एक अनमोल कड़ी है।
__एलोरा के जैनमंदिर की इन्द्रसभा में नवीं और दसवीं शती ई० में तीर्थंकर मूर्तियों को बनवाने वाले सोहिल ब्रह्मचारी और नागवर्मा का नाम अंकित है।
गुफा संख्या ३० से ३४ तक जैन गुफाओं में गुफा संख्या ३० का स्थानीय नाम छोटा कैलासमंदिर, गुफा संख्या ३२ का इन्द्रसभा एवं गुफा संख्या ३३ का जगन्नाथ सभा है। एलोरा के जैनलक्षण, लक्षणशिल्प के अंतिमकाल के हैं। तत्त्वग्रहण के आधार पर जैन गुफाएं, बौद्ध तथा ब्राह्मण गुफाओं से भिन्न हैं। प्रतिमा तथा प्रतिमा विज्ञान के आधार पर भी इनमें अंतर देखा जा सकता है। इन्द्रसभा तथा जगन्नाथसभा दो मंजिले हैं। एलोरा की इन गुफाओं में जैनों के सर्वोच्चदेव तीर्थंकरों (या जिनों) का अंकन हुआ है। २४ जिनों में से आदिनाथ (प्रथम) शांतिनाथ (१६वें), पार्श्वनाथ (२३वें) एवं महावीर (२४वें) की सर्वाधिक मूर्तियां है। साथ ही ऋषभनाथ के पुत्र बाहुबली गोम्मटेश्वर की भी कई मूर्तियाँ हैं । यहाँ उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में गोम्मटेश्वर की मूर्तियाँ विशेष लोकप्रिय थीं और एलोरा में उनकी सर्वाधिक मूर्तियाँ १. डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव, एलोरा की शैव प्रतिमाएँ, अप्रकाशित शोध-प्रबंध, का० हि०
वि० वि०, वाराणसी, १९८०८१, पृ० १. २. हरिनन्दन ठाकुर, 'चित्रों का भंडार अभी अलभ्य' आज (साप्ताहिक विशेषांक) ४ सितम्बर १९६०,
पृ० १३-१४. ३. एलोरा गुफाओं के परिचय सूचना पट्ट से उद्धृत ४. वही। ५. के० आर० श्रीनिवासन, टेम्पल्स आफ साउथ इण्डिया, नई दिल्ली, पृ० ७४.
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डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव
बनी । २४ तीर्थंकरों का सामूहिक अंकन भी उत्कीर्ण है । जिनों में सात सर्प- फणों के छत्र वाले पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ सर्वाधिक लोकप्रिय थीं । एलोरा की जैन मूर्तियों में छत्र सिंहासन,प्रभामण्डल जैसे प्रातिहार्यो, लांछनों, उपासकों एवं शासन देवताओं का अंकन हुआ है । इन्द्रसभा व जगन्नाथसभा सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं । इन मंदिरों के सहायक अंग आपस में निकटस्थ अनावश्यक आलंकारिक विवरणों से लदे हैं । इनकी संकुलित जटिलता के प्रदर्शन से दर्शक के नेत्र थक जाते हैं, उदाहरणार्थ इन्द्रसभा के आंगन में ध्वजस्तंभ मंदिर के द्वार और केन्द्रीय मण्डप के इतने पास स्थित हैं कि संपूर्ण अंश जबरदस्ती ठूंसा हुआ एवं जटिलदृष्टिगोचर होता है | आंगन के छोटे मापों एवं उसकी ओर उन्मुख कुछ कक्षों के स्तंभों के छोटेआकार से उपर्युक्त प्रभाव और भी बढ़ जाता है । ये विलक्षणताएं मंदिर के संयोजन में सामजस्य के अनुपात का अभाव प्रकट करती हैं, पर इनके स्थापत्यात्मक विवरण से पर्याप्त उद्यम एवं दक्षता का परिचय मिल जाता है । ऐसे उदाहरणों में कला मात्र कारीगरी रह जाती है, क्योंकि सृजनात्मक प्रयास का स्थान प्रभावोत्पादन की भाव- शून्य निष्प्राण चेष्टा ले लेती है । इन जैन गुफाओं में चार लक्षण उल्लेखनीय हैं, एक तो इनमें कुछ मंदिरों की योजना मंदिर समूह के रूप में है । दूसरी विशेषता स्तंभों में अधिकतर घटपल्लव एवं पर्यकशैलियाँ आदि का प्रयोग करके समन्वय का सराहनीय प्रयास किया गया । तीसरी विशेषता इनमें पूर्ववर्ती बौद्ध एवं ब्राह्मण गुफाओं जैसी विकास की कड़ी नहीं दिखाई देती । जैनों के एलोरा आगमन के पूर्व समूची बौद्ध एवं ब्राह्मण गुफाएं बन चुकी थीं । अतः साधन, सुविधा एवं समय के अनु-सार इन्होंने कभी बौद्ध एवं कभी ब्राह्मण गुफाओं से प्रेरणा ली । चौथी विशेषता यह है कि इन जैन गुफाओं में भिक्षुओं की व्यवस्था नहीं है । इस दृष्टि से ये लक्षण ब्राह्मण मंदिर के निकट हैं ।
एलोरा की जैन गुफाओं का निर्माण अधिकतर राष्ट्रकूट नृपतियों के राज्यकाल हुआ है। एलोरा की जैन मूर्तियाँ अधिकतर उन्नत रूप में उकेरी हैं । यहाँ तीर्थंकरों गोम्मटेश्वर बाहुबली एवं यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ बनीं। एलोरा की जैन मूर्तियों में तीर्थंकरों के वक्षस्थल में 'श्रीवत्स' के अंकन की परिपाटी उत्तरभारत के समान प्रचलित नहीं थी समकालीन पूर्वी चालुक्यों की जैन मूर्तियों में भी यह चिह्न नहीं मिलता । साथ ही अष्ट महाप्रातिहार्यों में से सभी का अंकन भी यहाँ नहीं हुआ है । केवल त्रिछत्र, अशोकवृक्ष, सिंहासन, प्रभामण्डल, चाँवरधर सेवक एवं मालाधरों का ही नियमित अंकन हुआ है। शासन देवताओं में कुबेर या सर्वानुभूति यक्ष तथा चक्रेश्वरी, अंबिका एवं सिद्धायिका यक्षियों सर्वाधिक लोकप्रिय थीं । जिनों के साथ यक्ष-यक्षियों का सिंहासनछोरों पर नियमित अंकन हुआ है । " ज्ञातव्य है कि प्रारम्भिक राष्ट्रकूट जैन चित्रकला का विवरणात्तक ( सातवीं तेरहवीं शती ई०) विशद अध्ययन अभी भी अपेक्षित है ।
६. डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्त, पूर्वनिर्दिष्ट पृ० १० ११
जी० याजदानी, दकन का प्राचीन इतिहास, दिल्ली, १९७७, पृ० ७०३
७.
८. डा० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव, एलोरा की ब्राह्मणदेव प्रतिमाएँ पीएच० डी० शोध प्रम का०हि०वि०वि०, वाराणसी, १९८५ पृ० ११ ।
९ प्रोफेसर कृष्णदत्त वाजपेयी का सुझाव ।
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A Critical Review of the Old Āryā Metre Restored in the Text of Itthiparinnā re-edited by Dr. L. Alsdorf
Dr. K. R. Chandra Prof. L. Alsdorf an eminent scholar of MIA and worthy pupil of Dr. Schubring has done great service to Jaina studies by re-editing the text of Itthiparinna, the fourth chapter of Sūtrakrtānga. He has tried to set right the metre of the text. In his opinion the metre of this text is old Arya which is as rare as it is important for the history of Indian prosody, viz., the older form of the Arya. Later Arya or common Arya is characteristic of the latest stratum of the Jaina canon but completely absent from (the genuine parts of the older layers.
In his opinion the metre in the texts available is spoiled and sometimes it is unrecognisable. There are various corruptions and omissions also. He remarks that no critical text was prepared and his aim is to supply a better text.
For this purpose he made use of the material accessible to him at that time. No manuscript was directly consulted by him. He took help of the following editions :
T: Pu Candrasāgara with Silānka Tika. Sā: First edition of Sāgarānandasūri. ^ } varient readings given in the edition - T. IS C: Cūrni, Ratlam, 1950. V:P. L. Vaidya's edition. H: Hyderabad edition.
The aim of this study is to examine the readings offered by Dr. Alsdorf and to find out how far the metre has been restored. I have been so far able to examine the first section only. I consulted his text from Kleine Schriften, Wiesbaden, 1974, Glasenap Stiftung, Band-10, pp. 193-214. Along with the text there are variant readings, translation and critical notes in it.
In the introduction he admits that the manuscript A and I as well as Cūrni offer better readings partly confirming to his emendations.
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Dr. K. R. Chandra
He defines the old Arya metre as follows:
It has two pādas, every pāda ( feet) has 30 mātrās like later giti but the yati caesura does not fall on the 12th mātrā or on the final mātrā of the third gana but it falls on the syllable next to it which may be small or long and this syllable is independent and here the first half of the pāda closes. This independent syllable constitutes fourth gana with the initial word or words of the second half of every pāda. He further remarks that there are regularly 30 mātrās in each pāda, but sometimes this last syllable of the first half pāda is found to be an additional syllable. The second gana of odd pāda and the sixth gana of even pāda is generally TUT jagana, sometimes having four VVUU short mātrās. He has also given the numerical strength of first to third and fifth to seventh ganas with the mātric scheme that is available in them. He has also given the total number of corrupt and deficient pādas with the variant schemes available in them.
Now my purpose is to examine these corrupt and deficient pādas as well as other verses also of the first section only to see how far they are metrically perfect.
When I examine them from this angle I find that certain corrupt and deficient pādas and ganas can be emended to confirm with the scheme of the old Arya and again I find that there are several other cases where the metre is not regular and many of them can also be regularised, though Dr. Alsdorf is silent about them.
According to Alsdorf there are 9 cases from the first section which are deficient and corrupt. When I examined them I could find that 6 of them could be. corrected on the lines of the method adopted by) Alsdorf himself.
Now let us have some idea of the method employed by him. He has made here and there the following types of alterations at a number of places
He has : 1. lengthened short vowel i ri. 2. shortened long vowel ă = a,i =i.
3. changed the vowel with anusvāra into a vowel with anunāsika, e.g. ań ) = an (3), im = in, him = hin, e = en, o = on.
4. dropped anusvāra. 5. dropped one or two syllables. 6. added one or two syllables. 7. replaced a word by another word.
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A Critical Review of the Old Arya Metre
8. changed grammatical forms, viz., plural into singular, instrumental into locative and so on.
9. done sandhi of an anusvāra with the vowel immediately following it.
The above types of emendations are made not always on the basis of the readings available in the editions referred to by him. He has applied his own imagination on several occasions.
I. Out of the nine pādas which are corrupt and deficient according to Alsodorf, 6 of them can be emended.
II. Over and above that remain still several pādas in the first section which are defective but are not pointed out or discussed by Alsdorf in the introduction or notes given by him. Most of them can be corrected on his own lines of emendation. I have, while suggesting emendations, arranged them in two categories and again under different heads pointing out the type of deficiency observed in them.
Group 1
This category is of the following nine verses : (A) 20 : 1st gana has 3 mātrās only.
3b : 5th gana has 5 mātrās. 3d : is corrupt after 5th gana. 4d : 5th gana is deficient. It has 3 mātrās only. 6d : 5th gana is deficient. It has 3 mātrās only. 7d: is corrupt after 5th gana. 13b : initial moras of even pāda are wanting. 260 : has 5 mātrās in the 2nd gana and an extra syllable in first
half. 31C - 2nd gana has 3 mātrās only.
Group 2
(B) Over and above that deficiencies remain in other stanzas too, but not pointed out by Dr. Alsdorf.
1. (a) lengthening of a vowel is required in 17a, 17c & 22d.
(b) shortening of a vowel is required in 5c-d, 250 & 26c-d.
(C) change in the order of words is required in 16c without disturbing the original meaning.
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2. Emendations by Alsdorf have disturbed the metre.
(a) One mäträ has been reduced in 7a, 8a, 13c, 16a & 21a. (b) One mäträ has been increased and unnecessary postulation of one extra syllable, short or long, is made in 19a-b & 19c-d.
Dr. K. R. Chandra
3. Superfluous changes have been made by Alsdorf.
(a) changing of an anusvära (-) into an anunäsika (): (1) 2a nan for na (ii) 4a & 15c him for hi.
(b) Why at the end of a pada having originally a vowel with an anusvära has been replaced by a vowel with an anunäsika, i. e., a long vowel changed into a short vowel when again it is to be counted as a long mäträ. (c) Change of form was unnecessary in 20a: posehim into posesu. It reduces one mäträ. Why it should not be replaced by posesum if locative plural is to be preferred.
(d) Emendations are required further in 6a ämantiya-ussaviyarn into amantiyaṁ osaviyaṁ va.
To set right the 2nd gana which is defective U U in Alsdorf's text.
4. Postulation of an extra syllable in the first half of a pada is unwarranted. 24 a-b has 31 mätrās and therefore the postulation of one additonal syllable -
Why not cintenti be made cintenti and vaya annam ca to vāyāe ca. 5. One word is occuring twice by oversight in 20a change vasam vasam to single vasam.
6. Deficiency not pointed out (4th gana ) 28c-d (The fourth gana has three mäträs U-only).
I shall not like to discuss all the cases suggesting my emendations but two or three typical cases will serve the purpose.
Category 1, verse no. 136, 26c-d.
Category 2, verse no. 19 a/b, 19c/d, 16 a/b and 10 c/d.
Category No. 1
(1) 13 a-b. Alsdorf's text:
Avi dhūyarahi sunhähim......dhäihim aduva dāsihim.
According to Alsdorf the initial moras of the even pāda are wanting. In this pāda there are 27 mātrās only. In the Cürni, Agamodaya, Vaidya and Hyderabad editions sughāhim and thaihim readings are available but Alsdorf has nasalised him in place of him. Had Aduva been changed to Aduva to restore the missing
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A Critical Review of the Old Ārya Metre
mātrās of the fourth gana there would not have been deficiency. The Aduvā reading is now supported by the Kh-1 manuscript of the Jambū edition though not accepted by him. In the text of Alsdorf Aduvā is available at 1. 21 and 23.
1. 26 C-d Alsdorf's text : 2. Jau-kumbhe jahā uvajjoi/ samvāse vidū vi siejjā.
It has 32 mātrās in all and Alsdorf has accepted 'i' of 'uvajjoi' as an extra long syllable of the first half of the second pāda but the whole pāda is faulty and the second gana has then five mātrās. If we shorten the 'e' of 'kumbhe' into 'enkumbně and 'jahāṁ into 'jaha' then the second gana is of four short mātrās as available in other verses also and the total mātrās come to 30. In verse no. 27a the text is "jaukumbhen, the 'bhen' having short 'eň' and in the verse no. 2d there is 'jah' for 'jahā' which is obtained in the Agamodaya, Vaidya and Hyderabad editions as well as in A and I manuscripts referred to by Alsdorf. Group 2
(1) 19 a-b and c-d Sayan dukkagam ca no vayai / āittho vippakattha bāle Veyānuviyi mā kāsi / coijjanto gilãi se bhujjo.
The first pāda has 31 mātrās because the fourth gana has five mātrās and therefore postulation of one additional syllable 'i' of 'vayai'. Here 'vayai' could be changed to 'vayai' and 'vippakatthai' should be 'pakatthai' only. 'Pakatthai' reading is given by all the editions consulted by Dr. Alsdorf. The first pāda will read as follows: Sayas dukkadaň ca no vayai / äittho pakatthai bāle.
4 5 6 (2) In the second pāda 19c/d there are 32 mātrās and therefore one additional syllable is postulated in it. Here 'si' of 'kāsi' should have been shortened to 'si', i. e., 'kāsi' which is available in the Cūrņi & Kh-1 manuscript of Jambū and Punya editions. There is "manusso'si" at I. lu. and not 'si' in his edition too. The 'to' of 'coijjanto' should have been shortened to 'to' and then no necessity of an extra syllable or two extra mātrās either in 'co' or 'to' of 'coijjanto'.
(3) 16 a/b Alsdorf gives the following readings : Kuvvanti santhavam tāniñ/pabbhatthā samāhi jogehiń.
The ending syllable of a pāda always is to be counted as long then where lies the necessity of nasalising it when 'him' is available ( with an anusvāra ) in all the editions uniformly.
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Dr. K. R. Chandra
(4) 10 c/d Alsdorf offers the following readings : Evas vivegamādāya / saṁvāso na kappaye daviye.
This pāda has 29 mātrās only. If 'ādāya' is changed to 'ādāye' then the fourth gana has four mātrā instead of three and the 30th mātrās is restored. Ādāye' the absolutive form is more popular in Ardhamāgadhi.
This critical analysis reveals that still the text needs revision and the claim of Dr. Alsdorf that he is offering revised text removing the deficiencies and corruptions as regards the metrical regularity can not be admitted wholly.
With regards for and respect to the late Professor, I have to say that how could not all these discrepancies and deficiencies attract his attention.
*Ex. Head, Department of Prakrit
Gujarat University,
Ahmedabad.
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Positive Contents of Jainism
Joharimal Parekh
While introducing his famous book "Gita-rahasya athava Karma-yogaśästra Lokmanya Tilak has vividly described how his mind used to revolt when he started reciting Śrimadbhagavadgitā for his aged sick father. He could not agree with the traditional commentators of Gita that its principal and only prescription is renunciation of activity. Similarly while reading Jaina scriptures some such identical becomes my mental state of affaires qua the interpretation of true nature of Jaina philosophy, because the long established view point is that Jainism mostly teaches abstainment from activity. Whether this charge of negativism is to proved against Gitā or not is a separate question, but with all humility it can be said that it does not survive as far as Jainism is concerned. Therefore the theme of today's talk is to establish that even as per the strict canonical view-point, Jaina religion and its philosophy are much more positive than negative. I may be excused for doing this advocacy entirely on the basis of Jaina Agamas because much credence can not and should not be given to the words of non-omniscients. And naturally for this purpose, I will draw attention heavily on these sacred books and the debate shall become slightly academic and I will not be sorry if at the end of this article some one says that the article is a mere compilation of Agamic quota
tions.
The various schools of religious thought have been classified into four main groups, viz., (i) Kryāvādi (activists), (ii) Akryāvādi (non-activists or passivists), (iii) Vinayavādi ( devotionists or ritualists) and (iv) Ajñānavādi (nescients)'. Jainas take a very definite position that a mundane self goes on acting incessantly till it attains salvation and it means that they fall in the group of Kryävädi philosophies. This proposition should not be challanged by any one. In very unambiguous terms, it has been clearly declared just at the beginning of the first and the foremost canon 'Acārānga", "se āyāvādi logāvādi kammāvādi kiriyāvādi (the name itself suggests prime importance of action). And with reference to the setting as well as literally, the term Kryavādi without any doubt denotes one who knows, believes and carries out activity. The same thing is repeated subsequently in
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Joharimal Parekh
'Ācārānga' (9/1/16), 'that Omniscient Intellectual Giant (Mahāvira ) knowing fully well has made a unique proposition of activity in two varieties." And it has been prescribed for a monk to recite twice a day that, "I accept (enter into ) activity and denounce inactivity".2
Having made the positive statement that it is a philosophy of activity the other three remaining philosophies have been specifically rejected. Akryāvādi is, one who believes in inactivity or rather who does not believe in activity. One can find severe criticism of Kriyā (activity) at more than one places. Afraid of bondage and future etc., Akryāvādis propound inactivity. People who believe in self-inactivity, confronted by others concede there liberation; being involved in violence etc. and deeply engrossed in worldly objects, they do not know the duties which lead to salvation.
Being ignorant, these Akryāvādis make all types of statements in ambiguous language and being confused and unable to reply, they keep mum. At a time they take both the sides and contradictory stands and approve of activity in disguise. Such people whirl endlessly in this world. For them in this unreal and absolutely actionless whole world there is neither sunrise or sunset, nor waxes or wanes of Moon, nor flowing of water, nor blowing of winds. Like a blind man who has lost his eye-sight, cannot see anything even through the lamp, these Akryāvādis also due to perverse attitude cannot perceive activity, though a reality.5
Similarly people engrossed only in Bhakti ( quite different from full faith in true principles ) doing nothing for their salvation have also been criticised.
Many a persons who are Vinayavādis think truth as untruth and bad as good or vice versa and when asked always uphold Bhakti. For real knowledge, they see their salvation in Bhakti alone. So also Ajñānavādi (nescient) philosophy has been totally rejected and reference, can be made to Sūtrakrtānga (1. 1/4146, 12/2 & 14/12,13). Thus it is clear beyond doubt that Jainas have opted for Kryāvāda, 'parasamaya akiriyā' ( theories other than Jaina are inactivists Anuyogadvāra 525 (3), and insist on the putting of knowledge into action? "ähasut. vijjacaranam pamokkham". Bhagavati Sūtra 25 (7) and Aupapātika - 20 prescribe that Kryāvādis should be given all respects and that people born in Karmabhūmi (i.e. land full of activity ) alone can attain Liberation. Daśāśruta Skandha also condemns Akryāvāda and highly praises Kryāvāda ( see chapter 5/3,14-16 and 6/13,15). One more authority may be quoted to crystalise this position : 10
Kryāvādi alone can attain the high stages of pure uncoloured soul (Alesya) right faith (samyagdrsti ), five types of knowledge ( mati-śruta-avadhi-manah
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paryaya-kevalajñāna ), urgelessness ( samjñārahita ), beyond biological feelings (avedanā ), passionless (akaṣāyi ) and freezing of mind, body & speech ( ayogi ) and not the Akryāvādis, Vinayavādis and Ananavādis. Kryävādis world roaming is not limitless but just nearing the end (suklapaksi ). He does not have wrong or perverse faith, nescience or wrong knowledge does not take birth in one sense to four sense beings, animal species, hell, lower categories of heavens like Bhavanvāsi (Asuras ), Vānmantara (Bad spirits ) and Jyotisi (Astronomical stellers ), instead he is born as human being or in high-class planed paradises (Vaimānika deva ) and one day or the other will be emancipated; the case of others three is otherwise.
We have established that Jainas fall in the group of Kryāvādi philosophies but that does not amount to the full endorsement of all other schools.of Kryāvādi thought falling in this group. Amongst Kryāvādis also there are various perverted sects but they have not been approved by Jainas. For example some say that activity does not result in bondage ( Sutra-krtānga I. 1/51 ), while others maintain that activity alone without knowledge is sufficient for salvation ( Sutra-krtānga 1.10/17), still some insist that all the five ingredients, viz., a being, his knowledge, killer's mentality, deliberate effort and resultant death are simultaneously necessary for bondage but all these view-points have been commented upon and discarded.
Proposition : The sin of those who simply intent but do not kill or who committ violence unknowingly is negligible just a touch of bondage.
Reply : These are three distinct modes of committing sins, viz., by doing, getting it done or approving of it.
Proposition : Though these three modes of committing sins are there yet due to purity of emotions one bypasses the bondage. A father, devoid of obstinence (saṁnyama ), but in wise state, kills his son and eats the flesh, even then he is not bound by Karma.
Reply : This is a false proposition. If one has an idea of malice, his mind can not be said to have emotional purity and therefore insets of sins have not been closed by him.
Jaina Kryāvāda has been refined thoroughly well and is a very fine complicated and sophisticated doctrine. It requires very high mental and spiritual calibre to practise it. Even to understand and preach it correctly, is not an easy job. As noted in the outset, exposition of Kryāvāda (i.e., karma-yoga ) in Gitā has not
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been quite clear and meant differently to different people right from Arjuna to Sankarācārya. Therefore the following note of caution has been added for those who want to explain this highly intricate doctrine of Jaina Kryāvāda :
One who knows self and this world, roamings and cessation, permanent and transitory, birth, death and life circle, tortures of hell below, influx and stoppage of Kārmic matter, bondage and its annihilation, alone is capable and fit enough to expound Kryāvāda.'
This preliminery survey cleary reveals that foundations of Jainism have been deeply laid on the strong base of Kryāvāda. Let us now study the strong edifice of activity built upon that active spiritual base.
The debate of 'Pravrti', i.e., to act and 'Nivrti', i.e., to abstain from action is as old as anything ( Sankara Bhāşya on Gitā, p.1). The discussion on this problem has been exhaustively raised at the out set of the 8th chapter of 1st part of Sūtrakrtānga. The questions posed are whether religion consists in activity or it amounts to non-activity — whether one should exert in actions or his efforts should be diverted to renounce them. Characteristic of Bhagavāna Mahāvira's anekānta and syādvāda style, replies that choice is not between activity and non-activity but one has to choose between the various courses of activity open to him. A samnyāsin who has renounced actions physically may still be 'Pramādi' (meaning of the term will be explained herein after ) and thereby incurring bondage, and a person who is active but 'Apramādi' may not become bound by his actions. By stopping the inflow of Kārmic matter one can be liberated." Therefore a wise man should adopt that course of activity which finally results in reduction of bondage; only fools exert in activities, the net result of which is increase in bondage. As the proposition is very important let us read the text :
"Two types of exertions have been propounded. What is the exertion of bold and why is it so called ? Some say that one should exert in activity while others say that one should try hard to renounce all actions. People are seen divided into these two classes. But Bhagavāna has said that (an actionless) Pramatta (Pramādi ) incurrs bondage whereas the position of an active Apramatta may be otherwise. Therefore the exertion which leads to bondage is wrong and one which annihilates or does not lead to it is desirable."12
Exertion of ignorants which results in bondage has thus been described, now hear the exertion of wise which does not result in bondage rather annihilates
it. 13
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With all humility we bow to the above solution of the problem which has engaged the Pundits all over and all along. It is pity that an intelligent man Sankarācārya missed this analysis and took the extreme position of renunciation from all activity.
Again we owe to Jainism that 'Pramāda' has been put on a doctrinal plane. 14 According to them Pramāda is an independent cause of bondage and even if present singularly all alone is sufficient enough to attract the Kārmic matter in the soul region — the remaining four agents of bondage, viz., Mithyātva, Avirati, Kaşāya and Yoga need not to be present. Pramāda is a special term of Jaina vocabulary and has been defined (rather illustrated or classified) by Thānanga : "Chavvihepamāye pannatte-majja, nida, vipaya kaşāya juta padilehanā." (502) but that seems to be an inclusive and not an exclusive definition of the term. Though the full and comprehensive meaning of this word can be a subject matter of research but to say suffice is for our purpose to say that it clearly includes the following - carelessness, lethargy, inactivity, laziness, unalertness, non-vigilance, in-attentiveness, sleeping, slowness, non-utilisation of spiritual faculties and bodily talents, mental passiveness, wastage or killing of time, notion of carefree enjoyment of worldly pleasures (Mauja ) etc, etc. and we should be away from all these.
The above stand vis-a-vis activity finds full support in the following:
"It is better that people, who are irreligious propogate irreligion, not followers of religion, dislike it, interested and engrossed in non-religion, acting irrelegiously and earning their livelihood by such acts, remain asleep, weak and lazy, whereas, for those persons who are religious; follower of it, aspirer of it, propounder of it, interested and engrossed in it, actively religious and earn their livelihood by religious means, it is better that they remain awake strong and active. Because by remaining so they contribute towards the removal of pains, sorrows, sadness ( distress ), tears, troubles, unhappiness and suffering, etc. of many a beings, engage themselves or others or both in various religious plans and programmes, by remaining religiously awoke, they keep their selves always alert and by remaining active they employ themselves in serving preceptors, teachers, old and seniors and learned austeres, sick, teachers, families, groups, society and co-religious beings. *15
'Perseverant person, should prefer activity and not remain inactive, with true perception, the wise should persue the difficult path of religion.*16
"By self sublimation one removes himself away from bad occupations and
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activities and engages himself in good ones and thereby the monk annihilates boundless fierce bondage."17
"Gautama do not be Pramatta even for a moment."18
The Acārānga-sutra insists times out of number on intense efforts on the part of aspirants of liberation ( see 78, 97, 111, 157, 173, 195, 155, 129 ) and so also the Sūtrakrtānga I. (sec. 2 (11,68); 6 (9); 8 (11); 11 (35); 15 (22) ]. In Ācārānga the hammer has fallen heavily - 17 times directly, plus many a times indirectly on Pramāda ( see 33, 65, 85, 106, 107, 108, 109, 123, 133, 152, 156, 158, 197, 230-232, 321 ).
Inspite of all that some people take a purely technical position and say that every activity means bondage and hence should be avoided. But surely it is a suicidal view, totally disregards the bright avenues open in this human life and closes all doors of spiritual progress entirely on theoretical grounds. These impractical people forget the more important principle that unless one makes efforts with full vigours, he can not free himself from bondage — motion is dharma and station is adharma. More so, all throughout his life one can not remain even for a moment without Yoga, i.e., activities of body, mind and speech except for a negligible period of few seconds just before the event of final emancipation. Gitā also supports this view point in 3 (5) and 18 (11) and says: "Na hi dehabhrtā sakyam tyaktum karmāņi aśeşatan".
For all practical purposes one can not save himself even for a moment from bondage if such a microscopic strict view is taken (Acārānga 174, 203; Thāņānga 704; Bhagavati 5/7 (30-36). Even for sustenance of this life and even for attaining salvation activities are necessary19 and therefore 'Parijñā' alone has been recommended (Tattha khalu bhagavatā parinnā paveditā). Parijñā does not mean whole-sole rejection of activity or objects. The word has a heavy knowledge content and the compound should be analysed as renunciation based on knowledge. Something discriminative, as we have seen that nothing is free from bondage altogether, hence like a shrewd businessman we should reconcile the situation -- be rational and practical and weigh the consequences of the proposed activities of body, mind and speech in terms of the net resultant loss of bondage. An activity with less accumulation and more annihilation of Kārmic matter is to be preferred to the one with more accumulation and less annihilation. This business like approach has been approved in discussion with Gośālaka :
Without incurring new bondage and while annihilating the old ones and by
www.jainerary.org
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casting aside wrong mentality (kubuddhi). Bhagavāna Mahāvira has become saviour of all. This is called Moksa schedule and its resultant acquisition Moksa (Nirjarā ) is considered as a gain by him. In words of Gitā (2750), the dexterity lies in so carrying out an activity that old bondage is discarded with no new or little fresh bondage (Yogaḥ karmasu kaušalas ) the same as "kusale punņa nobaddhe no mukke" (Acārānga 104 ), i.e., dexterous neither incurs bondage nor is devoid of activity.
This path of Kryāvāda as we have noted earlier is a difficult and complex one and at each and every step requires the application of decisive faculty of brain and the spirit. There can not be any fixed set of universal rules in general for all eventualities because at times a course may given adverse result as compared to an earlier occasion.
Je āsavā te parisavā, je parisavā te āsavā, Je anāsavā te aparissavā, je aparissava te anāssavā. 20
But this way is not impracticable or utopian because brave ones have treaded it and it has been so propounded by the enlightened. And that is why it is said that every act of a self supporting man is towards self emancipation.22 Like Gitā's sthitaprajña who does no wrong, Jainas also have a subjective approach than mere objective alone and much depend upon the spiritual stage of the doer.
Great men are bold enough but unenlightened and of perverted faith exert wrongly and hence their all activities and efforts result in bondage. Whereas great bold persons who are enlightened and of right faith exert properly and none of their efforts and activities result in bondage 23
An inexpert in the discriminative knowledge ( Viveka ) of speech being ignorant of numerous types thereof does not attain 'Vacanagupti' (talking contraction) even though observes complete silence whereas an expert in the discriminative knowledge of speach being well conversant with various types thereof remains in 'Vacanagupti' although speaks throughout the day. 24
Thus it can safely be concluded that Jainism no where prohibits indulgement in those activities which directly or indirectly result in net annihilation of Kārmic bondage, on the contrary strongly advises to go for them briskly. Those activities which result in bondage only have to be abstained from and this abstenance of sins is advocated by practically all the religious philosophies.
Having examined in detail the theology, philosophy and metaphysics of
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Jainism, we will now proceed to see what activities have been prescribed by Jaina religion. The Jaina religious code of conduct can be grouped under three broad heads, viz., Ahimsā, Saṁyama and Tapa 25
Ahiṁsā group includes in its fold, partness and fellow travellers like truth, nonusurpance etc. The Ahimsā is the most important aspect of Jaina religion and unfortunately in the absence of its proper understanding, the charge of negativism is levelled against Jainism by modern thinkers. In fact Ahiṁsā is purely an active phenomena. It should be very clearly understood that question of violence or nonviolence arises only when one is indulged in activity and otherwise. Ahiṁsā is a rule of Dharmaśāstra and "Ahimsā paramo dharman" obviously stipulates a rule of action. If you are not doing anything and standing still qua all the three agents body, mind and speech, then you are neither violent nor non-violent; but when you walk, you shall walk in such a manner that ants and other insects on the way are not hurt and that is Ahirsā in practice. If you do not fight, no question of violence crops up, but when you do so, the question does arise and we all know that Mahatma Gandhi fought for Indian freedom in a non-violent manner. So also is the crews of Gitā asking Arjuna in its own way to fight in such a manner that no new bondage is caused.
On account of ego if you think I will not fight' vain is your this resolve, your Karma) Prakrti will compell you to fight. On account of delusion what you are unwilling to do will be done by you due to the nature of your Karma bondage 26 Similarly if you do not speak and keep mum, the question to truth or falsehood does not come in the picture. It is only when you speak, you shall speak the truth is the commandment. So also if one is doing no business or dealings, question of corruption, dishonesty etc. remain absent, but when you happen to hold an active public post then an occasion arises to show that you are honest and have neither exploited the situation nor committed theft nor taken a bribe. Thus examples can be multiplied to prove that Ahimsā is not a religion of negation. In Sūtrakstānga (1.2/14) and in Praśnavyākarana also Ahimsā as a positive proposition has been prescribed. Avoiding activity lest there may be killing, may fall in Saṁyama but that is not Ahimsā. On the other hand when you act either by body, mind or speech with Samiti and in such a manner that no or little bondage is caused, then only you are said to have followed the rule of Ahiṁsā.
In Jainism five Samitis and three 'guptis' have been prescribed for promotion of religious activities and complete renouncement of bad activities.27 A recent
www.jainkbrary.org
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precedent may be narrated by way of illustration. At the time of formation of Svatantra party, there was a proposal to name it as 'Freedom Party'. But Rajgopalachari opposed it on the ground that the word 'freedom' has a negative content whereas 'svatantra' is a positive word. So let us be bold enough to declare that when in our daily life we observe the rule of Ahiṁsā, truth, nonstealing, etc., we are following pure religion. For example out of 10 sentences spoken one or two may contain falsehood and in this manner major portion of world activity is carried out in religious manner. I may be excused for quoting the following to show that active public workers are highly rewarded in the next birth.
The king who has discarded sense pleasures, the commander of forces and the administrator all the three if have good conduct, five views, praiseworthy virtues, disciplined life, better resolutions and Poşadhopavāsa shall be borne after death as gods in the highest heaven, namely Sarvārthasiddha.28 Therefore, it should be appreciated that Ahimsā and Yoga are intimately related and as we have seen, Yoga is necessary even for Sadhu Saṁnyäsis also. An important sentence to show the importance of non-violent Yoga will be apposite here :
A monk having (i) no preconditioned schedule and fixed target, (ii) right ception (or faith) and (iii) right activity of mind, body and speech will cross this infinite beginningless and boundless four destiny world-forest.29
Coming to the second group, viz., Saṁyama ( abstinence ) it should be conceded that it is purely a passive item. It clearly postulates the process of limitation of worldly persuits to the minimum possible. It is an easy prescription for abstaining from activities as far as feasible so that no new bondage is caused. In technical language we can say that Gupti is Samyama and Samiti is Ahimsā. The main aim of Samyama is to refrain from sins and in order to be purposeful, it should be a willing deliberation as against an abstainment forced by circumstances or unawarely, otherwise bondage due to Avirati ( want of vow) is not avoided.
One who does not enjoy sensual pleasures by force of circumstances is not called a Saṁnyāsi. But one who turns his back even from the available choicest and agreeable pleasures willingly abstains from enjoyment, is called a Sasnyasi 30
The case of third group of religion, viz., Tapa is still stronger qua activity. According to Jaina metaphysics Kārmic matter already bound with the self but not yet ripe for annihilation can by special effort known as 'tapa' be shed away from the soul region before maturity. Thus tapa is not only an excercise but also a
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positive one in the sense that it is carried out in such a manner that no new bondage is caused and at the same time old bondage is destroyed. 31 This special characteristic of tapa should be appreciated vis-a-vis Ahiṁsā and Saṁyama, both of which are not capable of destroying old bondage.
In order to evaluate the activity aspect of Tapa, it is necessary to know what it does mean and contain. Broadly speaking it consists of 12 items described below :
1. Anasana, i.e., fasting with various stipulations etc. as to time, number and others. It is tuff and in general parlance tapa has become synonymous with it.
2. Avamodirika, i.e., austerity and reduction in the level of consumption and forebearance thereof and limitation of wants in all manners.
3. Vrttisarksepa, i.e., aviodance of possession ( Parigraha ) and accumulations putting various ceilings on properties holding, earning etc.
4. Rasatyāga, i.e., avoiding interest in pleasures of all the five sense objects, viz., sound, sight, taste, smell and touch.
5. Kāyaklesa, i.e., penance and endurance of bodily pains, troubles, exposures, postures, sickness, vagaries of climate, insects etc. Śrama (physical exertion ) is also contemplated.
6. Sanlinatā, i.e., simple life with disciplined strict schedule and various vows like Brahmacarya, awakening and other biological control, vivikta sayanāsana etc.
7. Prāyaścita, i.e., repentence for all wrongs done in the past, disassociation of self from them and resolution to not to repeat them in future.
8. Vinaya, i.e., bhakti (Vandanā, Namaskāra, Respect, Pūjā, Prayer etc.) of Pañcaparamesthi (Tirtharkaras, Liberated, Preceptors, Teachers and Monks ) Sangha (Religious order — Church) and its members.
9. Svādhyāya, i.e., excercise in the field of knowledge like reading, hearing, learning, discussing, removing doubts, understanding, remembering, contemplating on it, teaching and preaching.
10. ( Prasasta ) Dhyāna, i.e., concentration on commendable objectives, i.e., Dharma and Sukladhyāna.
11. Kâyotsarga, i.e., practice in 'Bhedajñāna' as if taking self away from this body even no mineness or attachment towards it.
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12. Vaiyāvrtya, i.e., service.
The very perusal of the above noted exertions will show that it is a hetrogenous mass covering and a very wide field of activity. All the items are equally important and keep one engaged all throughout his life. However, it should be pointed out that Tapa is not a compulsory subject in the syllabus of religion and the option should always be commensurate to one's capacity so that self-bliss is maintained. Some items above mentioned can be interpreted with negative approach, but due to this difficult and tedious nature always partake the form of an activity. More so, slowly and slowly by practice one becomes accustomed and used to those hardships. The most tuff amongst them is Brahmacarya 32 Brahmacarya is the foremost Tapa.
Before closing, I shall like to give some detailed treatment to the last item Vaiyāvrtya because of the present day social need and having regard to the host instruction and its platform.
While dealing with Sūtra 511, Shri Abhayadevasūri in his exegesis of Thanānga says: "Vyāvrta bhāvo vaiyāvrtyam - dharmasādhanārtha annādidānas ( Sampādanaṁ )", spirit of service, e.g., making food and other aids available for the practice of religion. Che spir: of service is the sine-qua-nun of this exercise, because it falls in inner (Abhyantara tapa ) group. The service may be rendered to those who deserve it and the criterion is that it will help the recepient to strive for spiritual upliftment in any manner whatsoever directly or indirectly. Thus terms is vide enough to cover the whole extent of aims, charity, benevolence, philanthrophy, help and altruism in all their facets. Though the conservative schools takes a narrow view of the matter and says that service should be rendered by the monks as well as house-holders to the monks only — service to the house-holders is not covered. But this interpretation is not warranted by the language of the canons, because there is no specific ban as such. A house-holder is entitled for Tapa (there is no doubt or dispute about that ) and thus for vaiyāvrtya, then naturally while interpreting the words Tapasvi (austeric) sick, fellow religious colleague and family group and sangha should reasonably cover householders varieties of these classes and not only the monks, especially when the server is a laity. The very nature of this job and justice can not accomodate any favouratism or discrimination. Not only that but yetis also generally acknowledged as Sādhus then, even prior to Haribhadra period used to render medical and other services both to householders and non-house-holders. With the almost abolition of that institution, may
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be, good points in it have also gone. The subject needs research. Let us take one couplet from Ācārānga :
Esa vire pasansite je baddhe padimoya e uddha ahaṁ tiriyam disāsu se savvatosawa pariņnacāri na lippati chanapadeņa vire. ( Ācārānga - 91,103 )
"That brave one is to be appreciated who works for the release of other bonds; and that talented person having meaningful renunciation, perfect from all the angles and directions incurs no bondage in doing that work. *33
Some one may work for his own upliftmerit but the main operative part of this clause gives distinction to those who work for the emancipation of others. Directly or indirectly helping others in attaining salvation (i.e. permanent removal of miseries ) is the best social service which can be thought of. To illustrate, Tirtharkaras are distinguished from other omniscient Kevalins in this respect. The former after enlightenment work hard for spreading and distributing the gains of their knowledge amongst others so that they may also tread the path of liberation. The value of these services can not be calculated in terms of money or any other worldly measurement. How can it be argued that house-holders and masses in general are not entitled to reap benefit of these preachings and messages ? More than 2,500 years have passed but the light given by Bhagavāna Mahāvira still enlightens us with the same wattage. These leaders of the humanity make it a routine to uplift the beings without any distinction or discrimination whatsoever.34 In exegesis of this sūtra Ācārya Silanka makes a point that even the past efforts of Bhagavāna Mahāvira for his own upliftment before enlightenment are also a part and parcel of subsequent social service because, unless one practises and becomes perfect, his preachings fail to have any impact - rather he is unqualified to preach !! As per the latter part of the above couplet, a monk in all respects, engaged in this type of social service is immune from incurring bondage. It should not be argued that this type of social work on the part of a monk would mean dereliction from his chosen path. On the other hand, Acārānga 196 prescribes a monk to do this work out of compassion. As far as disciples and wards are concerned, a precepter should apply his full energy-day and night -- to train them up. Ācārānga 134, especially Nāgārjuniya rendering, makes it crystal clear that even house-holders engrossed in fierce worldly activity can reap religious benefit out of these services rendered by the monk community.
The above authorities of Acārānga are further reinforced by Sūtrakrtānga I as follows:
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2/69: Savvam naccā ahidvae, dhammatthi uvahāņavirie, guttejuttesadājae Āyapare paramāyathahiye.
11/23 : Bujjhamānāna pānānam, kaccantāna sakammunā; ādhāti sāhutaṁ divas, patihesa pavuccati.
12/12: Te cakkhu logam sihanāyagātu, mggā'nu bhāsanti hitam payānam.
13/19 : Sayaṁ sa meccā aduvā vi soccā, bhāsejjaṁ dhammañ hitadas payanam.
14/5: Samitisu guttisu ya āyapanne viyagaren te ya pudhovаdejjā.
Thus, the above one couplet no. 91/103 is more than sufficient to wide open the gates of social service for monks as well as householders. Bhagavati 5/6 (19) says that these monks generally attain salvation within 2 or 3 lives. Gita also follows this pattern and its Karmayogi works for loka-sangraha, i.e., special service.
The other varieties of social services can be treated as covered by the above thesis because preaching is as good as performing ( doing by speach or approval ). However special mention has been made of the following varieties in Agama texts.
(i) Enjoining amonk to serve the sick, "Imam ca dhammamādāya käsavena paveiyaṁ kujjābhikkhū gilānassa agilāye samāhiye". 35
Daśāśruta ( 28-29 ) goes a step further and says that one who does not serve the sick incurs the bondage of intense Mohaniya karma.
(ii) Supportingeach other in remaining stead fast to the religious path.36 (iii) Mutual help and service in needy moments amongst monks.37
(iv) Samavāyānga 91, says that there are 91 types of services but unfortunately except this total, the details have been lost to us, list must have been quite exhaustive.
(v) Cremation and rites are permissible of fellow religious beings. 38
(vi) Thānanga 500, allows consumption of extra food so as to remain fit for service.
(vii) Thānanga 649, clause VIII prescribes that if conflicts have arisen between fellow religious followers, then one should make efforts, attempts and exertions for putting an end to fights disputes and arguments and for establishing amity in an impartial neutral and judicious manner without taking sides. In doing this a monk incurrs no wrong rather abides by his duty. Charity to the deserving has been recommended and Jaina canons are full of precedents when gods in
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heaven have celebrated such befitting occasions. Uttaradhyayana (29/43) says that by the best vaiyavṛtya one becomes Tirthankara in future lives the highest
reward.
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So it can safely be concluded that monks as well as house-holder both can render service and though the service of fellow religious house-holders by the former is a controversial topic yet by the latter quite permissible. Therefore, a Jaina should never shirk from this vaiyavṛtya - a pious action.
Thus for every one dose of inactivity (samyama) two doses of activity (Ahimsa and Tapa) have been prescribed by Jaina religion? And in this way, seen from whatever angle whether theological, philosophical, metaphysical or religious, Jainism is much more positive than negative.
Besides, to any serious student of Jaina Agamas, it would be quite obvious that Bhagavana Mahavira was a hard task master and meant business. He did not spare even the women, untouchables, youngsters, house-holders, etc, from religious excercise, only the under age and the old can take excuses of non-eligibility and disabilities. Consequently this is the most practical approach for him. Vyavahāra-naya (practical view point) is as much truth as Niścaya-naya (theoreti cal view point) is and at times according to him ends justify means. For example a person chased by his would be murderer, hides to my knowledge, even then on being asked the whereabouts of the hiden, I should plead ignorance before the follower because "sadabhyohitam satyam" is the amended version of truth for Jainas. Clearly this liberal, flexible and tolerant attitude would be redundant had the Jaina philosophy not believed in Pravriti, action and positivity. And inspite of this anekanta, if the charge of escapism, negativism and inactivity is labelled against Jainism, it will remain unproved like an earlier charge of heretictity ( Nästikatā). To mention in the end as in the beginning, Tilak, after perusing the manuscript of the book 'Jaina Karma Yoga' written by late Acārya Budhisāgara, opined as under, "Had I known that you are writing your Karma-yoga, I might not have written my karma-yoga". I think no better certificate or any other authority is needed to establish our case.
Reference
1. Thānanga 345, Bhagavati 30-1-1, Sütrakṛtänga 1.12/1.
2. Paggama Sajjhāya.
3. Sütrakṛtānga I. 12/4.
4. Ibid, I. 10/16.
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5. Ibid, 1.12/5-8. 6. Ibid, I. 12/3, 4. 7. Ibid, I. 12/11. 8. Bhagavati-sūtra 30-1 summarised.
9. Sūtrakrtānga l. 1/52-56. 10. Ibid, I. 12/20-21. 11. Ibid, I. 12/15. 12. Ibid, I. 8/1-3. 13. Ibid, I. 8/9. 14. Thānanga 418, Samavāyānga 5. 15. Bhagavati 12/2 ( 7-9). 16. Uttarādhyayana 18/33. 17. Ibid, 29/8. 18. Ibid, 10. 19. Acārānga 7, 13 etc, 20. Ibid, 134. 21. Ibid, 21, Sūtrakrtānga I.2 (21), Acārānga 74, 79. 22. Uttarādhyayana 29/33. 23. Sūtrakrtānga 1.8 (22-23). 24. Daśavaikālika Niryukti, 7th chapter Punyavijaya edition. 25. Dasavaikālika Niryukti, 1/1. 26. Gitā 18/59-60. 27. Uttarādhyayana 24/26. 28. Thānānga 150. 29. Ibid, 136. 30. Dasavaikālika 2/2-3. 31. Thāṇānga 190 and Bhagavati 2.5. 16/26. 32. Sūtrakrtānga I. 6/23. 33. Ācāränga 91/103. 34. Sūtrakrtānga 6/28. 35. Ibid, 3/59, 3/81; see also Thānānga 649/vii, 208. 36. Sūtrakrtānga 2 (48). 37. Ācārānga 219, 227. 38. Thänānga 477.
* Veer Seva Mandir Ravati, Jodhpur, Rajasthan.
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Concept of Liberation and Its Pre-requisites ( According to Pañcasūtrakaṁ of Cirantanācārya )
Dr. S. K. Bharadwaj* Pancasūtrakaṁ is a small but important treatise of the Jaina philosophy written in Prākrt language. Its author is stated to be Cirantanācārya. It is, however not sure whether Cirantanācārya is the real name of its author or this epithet has been attributed to signify the antiquity of the author of this book. Neither the text nor its Saṁskrta commentator, Shri Karibhadra sūri, makes any mention of its author. The name of its author is mentioned in some of the manuscripts in the scribal notes. Some scholars do not consider this work as the creation of one single author because in the scribal notes in some of the manuscripts, plural is used regarding its authorship, i.e., krtaṁ cirantanācāryaih'. However, the style and language of the text instantly reveal without doubt that the work belongs to the single author. The plural use seems to have been made to follow the Indian tradition of showing reverence.
The Pañcasūtraka is so called because of its division into five sections, viz. (1) pāpapratighātagunabijadhānasütraí, (2) sādhudharmaparibhāvanāsūtram, (3) pravrajyāgrahanavidhisūtram, (4) pravrajyāparipālanasūtram and (5) pravrajyāphalasūtram.
In all the principal systems of Indian philosophy, liberation is considered to be the ultimate aim of jiva, the creature. Jainism is also not an exception in this regard. Pañcasūtrakań, which deals mainly with the discipline to be observed by Jaina monks, states in the salutary passage itself where obeisance is paid to the liberated souls that bondage of soul is the real cause of miseries. This bondage is sought to be terminated? Bondage from Eternal Times
Jaina philosophy does not consider it worth pondering over as from what time the soul began to transmigrate in a bonded state. It accepts the bondage of
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soul as a natural certainty from the eternal times. As described in the Pañcasūtrakaṁ, the bonded soul known as jiva is an eternal entity. This theory agrees to what has been propounded in the Sankhya philosophy. This universe has a real entity, as a non-real thing cannot exist". Thus, the real thing should have a real cause and hence the eternality of the causal element. Gitā also speaks in the similar manner when it says that an unreal thing cannot exist and a real thing cannot have its negations.5 Cause of Bondage
Resting on the theory of cause and effect the Jaina philosophy lays down that the association of soul with the deeds is the cause of bondage. The soul in its pristine form must be pure and free from all activities. However, it becomes bonded when it comes into contact with deeds. This contact with deeds is also from eternal times and this also is the cause of constant flow of creation. Though this association is from eternal times, yet it does not mean that it cannot be terminated. By eternality it is meant that we do not know the origin. The bondage of the soul which is the cause of the world is due to the pre-existing cause and that is the association with deeds. Since, the deeds are produced they can have their end also. Apparently the two situations appear to be paradoxical. As propounded by Gitā, whatever is produced has an end and conversely whatever has an end has a beginning also. Thus, there will be no real liberation. A liberated soul can again transmigrate on coming into contact with deeds. This, however, is not the case according to the Jaina philosophy. A liberated soul cannot be subjected to re-birth as on the termination of the deeds there will be no cause to effect the re-birth. Thus the eternality in the case of association of soul with deeds is not absolute but conditional existing only till the state of deedlessness is acquired. Hence, according to Haribhadra sūri, the commentator, there is no contradiction in the two situations
Pancasūtrakam deals with this matter in detail in the fifth section, i.e., pravrajyāphalasūtram. Substantiating the view that the soul is bonded from eternal times, Pañcasūtrakaṁ quotes an example of gold in the ore form. As the gold is found in ore form and cleansed later on to bring it to its pure form, similarly the soul is bonded from the beginningless times and it acquires its pure form after setting aside the association with deeds. Had the soul been un-bound from eternal times and bound later on then there would have been no real liberation as it would have been bound again. With this continuous process of liberation and bondage again and again there would have been no real purpose of liberation.
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Further, had the soul been without bondage from the eternal times then indeed no desire ( didrkṣā) would have existed to get liberation, because desire is the characteristic of bonded soul.
Bondage is Misery
Pancasūtrakaṁ describes the nature of the soul associated with deeds as dukkharuva ( dunkharūpa ), dukkhaphala (duḥkhaphala ) and dukkhānubandha dunkhānubandha). It means that it is of the form of misery, results in misery and bonded in misery. The basic inspiration to get liberation is to get freedom from the pain which the bonded soul constantly feels. The bonded soul according to Haribhadra sūri, the commentator, suffers from such situations as birth, old age, death, disease, shock, etc. That is why it is stated as duḥkharūpa. It is stated as resulting in misery (duḥkhaphala ) because it transmigrates into another birth and the same cycle of experiencing miseries continues. It is stated as bonded in misery ( duḥkhānubandha ) because it has to undergo the rigours of performing actions for the success of the worldly affairs.
The kernel of Indian thought right from the earliest times has been the desire to attain eternality by transcending the state of mortality. The Vedic Saṁhitās abound in the prayers to cross over the state of death. By the time of Upanişads the thought had developed into a full-fledged philosophy of painfulness of this world. The famous dialogue between Naciketā and Yama in Kathopanişad highlights the mundane character of the worldly pleasures. Naciketā was offered by Yama to choose all the pleasures of the world but the former rejected, describing them as subject to decay and the senses, the means of pleasure, and the life itself as of short duration 10. Later, Yama himself described the worldly pleasures as unreal (avidyā ) and stated that the persons engrossed into worldly pleasures wander confused perpetually into various births as a blind is led by a blind." In the Gitā also, the sensual pleasures have been described as painful and transitory, being acquired and destroyed frequently'. The Sänkhya philosophy has emerged just out of the desire of destroying the three-fold miseries." Lord Buddha also went for enlightenment out of the morbid experience of the world.
Jaina philosophy also centres round the above feeling of painfulness of the worldly circle which is sought to be terminated to attain the eternal blissful state.
Termination of Bondage
As the cause of the bondage of soul is its association with deeds, the bondage is terminated by terminating this association. Pancasūtrakam here draw
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a distinction between good deeds and evil deeds. It prescribes the termination only of the evil deeds and not the good deeds, rather it enjoins to perform the good deeds 14. While prescribing the means to attain the capability of acquiring liberation, Pañcasūtrakam enjoins to perform the righteous deeds (sukhadasevanañ ). The cause of bondage lies in evil deeds. The effect of evil deeds is neutralised not only by abstaining from them but by performing good deeds. Repeated study of holy scriptures dissuade a person from evil deeds and persuades him to go for good deeds. Virtuous deeds remove or minimise the effect of evil deeds as the effect of poison is minimised or rendered easy to be removed by the application of proper remedy. The evil deeds in this manner are removed for ever and their effect cannot occur again as the effect of poison, once removed does not recur. 15
Thus, the Jaina philosophy is a positive philosophy. It does not teach abstention from work. Merely to live in reclusion is not helpful to get liberation. One has to render service to the living beings to counter the effect of evil deeds done previously. It agrees with the main Indian stream of thought that the service to others is goodness whereas torturing other is evil (paropakārah punyāya pāpāya parapidanaṁ ). It goes side by side with the message of Gitā which teaches that the obligatory duties (benevolent in nature ) prescribed in scriptures do not cause bondage. Other actions done with a definite desire to attain fruit for himself do cause bondage. The Gitā lays special emphasis on the renunciation of attachment and desire in fruits. Jaina philosophy also purports the same thing as an action can be benevolent only if it is shorn of the desire to get dividend in return.
Pañcasūtrakam specifically lays down that the seed of liberation lies in the realisation by the aspirant that he should become capable of rendering service to others. He should avoid all such actions as are against the interests of the people. He should be kind to them. He should not hurt any living being nor should he covet another's belongings." He should, in fact, be benevolent to everybody (sawa-hiyakari ), because hurting the feelings of others is the real obstacle in the path of attaining liberation.18
State of Liberation
Liberation is the highest achievement. When it is acquired, the soul becomes free from all worldly desires. It becomes pure Brahma, the most powerful entity. It becomes of the form of eternal pleasure. The seed in the form of deeds having been destroyed, the liberated soul becomes free from the states of birth, old age and death. It realises its own true nature. All its activities are ceased. It
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becomes of the form of eternal knowledge and eternal perception.
The liberated soul is not affected by, or is not of the form of the objects of senses such as word, form, odour, taste and touch. It is a formless entity having unlimited powers. It is not fettered by any obstacle. Free from all desires, it becomes absolutely calm. Activity is the cause of miseries. The activity is produced only by contact with other things. The liberated soul removes all such contacts. Hence it becomes calm without any ripple of activity. Therefore the question of any feeling of misery coming to it does not arise. It is all pleasure. It does not require even space for its substratum, because it in itself is the substratum of everything. It is a formless element beyond all perception and thought. The nature of pleasure, which it is, defies all descriptions as it has no comparison. It is an experience only of the liberated soul which becomes omniscient, omnipotent and omnipresent. The blissful state of a liberated soul is infinite because such a siddha is devoid of curiosity and in the absence of curiosity or desire a feeling of pain can never be experienced. Thus the cause, i.e., the lack of curiosity is infinite, its result that is the blissful state is also infinite.19
The abode of a liberated soul is above the universe 20 Pañcasūtrakam mentions plurality of souls. The infinite souls can live in as much place as occupied by one soul. It indicates the subtleness of the liberated soul having no perceptible form. A question arises here as to how the liberated soul rises above the universe without the cause when it is dissociated from actions. Pañcasūtrakaṁ explains that the liberated soul rises above the universe because of its very nature. * means that in a bonded state the soul is laden with the weight of actions. Being weighty with actions it comes downward in the universe but when it is stripped off the actions it goes upwards just in the same manner as the gourd fruit rises upwards on the surface of the water after it is freed from the layers of clay.21
The liberated soul never comes back to the worldly cycle because of its infinite capacity. Any achievement attained with limited capacity is subject to are end after its capacity is over. But the liberation is acquired only by those who acquire the never ending capacity. Therefore, Pañcasūtrakam describes this power, as the most infinite of all infinite entities.22
Pre-requisites of Liberation 1. Preparation
Pañcasūtrakaṁ mentions three means of acquiring the capability ( tatha bhavyatā ) to get liberation. They are :
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(i) causaranagamaṇam, i.e., to take refuge in the four-fold. The four are the arhats, the siddhas, the sādhus and the kevaliprajnaptadharma. The soul has an inherent capability of acquiring liberation. To stimulate that capability one requires proper guidance and environment. Therefore, one should take shelter of the most authenticated persons competent to guide them properly. Realising that the arhats are the lords of the universe; possessed of unparalleled virtues; rid of attachment, hatred and delusion; inconceivable precious jewels; ship for the ocean of the world and the refuge of one and all, one should take their shelter for the whole life.23 Haribhadra sūri defines arhats as worthy of worship.
Thereafter one should take refuge in the siddhas who have acquired liberation. He should realise that the siddhas are beyond the state of bodily changes as old age or death. They have washed off all the stains of deeds. They have destroyed all the obstacles. They are perceivers of the absolute knowledge. Their abode is siddhipur ( above the universe). They enjoy an unparalleled pleasure (not born out of sensual contacts). They have achieved the highest goal.
Then he should go to saints (sādhus ). By sādhus, those holy persons are meant who are far advanced on the path of liberation. They have a tranquil and deep understanding. They have separated themselves from sinful deeds. They know five kinds of conduct. They remain busy with benevolent deeds. They remain unattached with the fruits of the actions as the lotus flower shines over and above the mud and water. They remain constantly engrossed in meditation and study of scriptures: All their actions are pure.
Then he should take refuge in the religious faith which enunciates absolute truth ( kevaliprajñaptadharma ). Such a faith is revered by gods, demons and human beings. It is sun to dispel the darkness of delusion. It is the most efficient mantra to remove the effect of the poison of attachment and hatred. It is the promoter of the welfare of all. It is fire to burn the forest of deeds. It is the means to give liberation.
(ii) dukkadagarinā (duskrtagarhā ), i.e., censure of evil deeds. After having refuge in above he should develop distaste for evil deeds. He should censure all such evil deeds which he might have done knowingly or unknowingly, physically, mentally or by speech towards arhats, siddhas, teachers, saints or any other person in this birth or in other births under the influence of attachment, hatred or delusion. Such a censure indeed is a mental preparation to cleanse himself of sinful thoughts. Purity of thought is the basis of acquiring the highest goal of liberation.
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(iii) sukaḍasevanam (sukṛtasevanam ), i.e., to perform benevolent deeds. After having developed hatred and repentance for evil deeds, the aspirant should make up his mind to perform benevolent deeds. He should generate in himself the feeling of service towards everybody whether he may be the most reverend authority as arhat, siddha, sädhu or teacher or the common man. He should repeatedly announces his promise to render service and perform auspicious deeds. The above means,prepare the aspirant to step on the path of liberation. A seed of destruction of sinful deeds is thus shown and the ground for the process of liberation is prepared.
Righteous Practice
After making preliminary preparations, the aspirant of liberation should lead a life of righteousness. He should reflect on the qualities of virtuous deeds, their inherent goodness, their fruit, their beneficence and their serving as the means of liberation. He should follow the practice prescribed by religious scriptures. He should take a vow to abstain from (i) causing injury to the living beings, (ii) telling lies, (iii) stealing, (iv) sexuality and (v) storing. He should seek and obey the injunctions of righteousness. He should avoid the company of unvirtuous persons. He should abstain from the acts not conducive to the interests of the people. He should be compassionate to human beings. He should renounce all sinful deeds realising that they are the cause of bondage. He should keep the company of. virtuous persons. He should perform the righteous duties of his household. Heshould maintain the purity of mind, speech and actions. He should free himself from emotional impulses such as pain or pleasure. He should free himself from the feeling of attachment because attachment is the cause of bondage.
While practising his household duties in the chaste manner he should awake from the slumbers of worldly delusion. He should realise that the sensual pleasures are without substance and inevitably perishable. He should also keep in mind the all-annihilating and irresistible death noting that only the righteous living can remove the fear of death.
Renunciation of the World
After having performed his household duties the aspirant should resort to asceticism. Realising the cycle of miseries in the process of birth and death and, transitory character of worldly relations, he should renounce the chase for worldly affairs. Resorting to the feet of his preceptor he should maintain equanimity with regard to the pain and pleasure. He should renounce the greed and the sense of difference. He should consider a clod of earth and gold or a friend or foe alike.
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Such a situation brings tranquility and real happiness. Stages of Liberation
Becoming pure and pure the aspirant of liberation gradually terminates the contact with sinful deeds. The virtuous deeds performed without any feeling of attachment do not become the cause of bondage. Thus he becomes free from the association of deeds and acquires liberation. The cause of bondage having been removed for ever and no rebirth is caused.
Jaina philosophy believes in jivana-mukti, i.e., liberation while living. Pañcasutrakaṁ mentions four stages of liberation, i.e., (i) sidhyati, (ii)budhyate, (iii) mucyate and (iv) parinirvāti. When the actions, the seed of bondage, are removed, the soul becomes free from the dirt of the rajas quality of the nature and the aspirant becomes siddha. In this state he acquires all powerfulness. He acquires true knowledge. Indeed he becomes identical with knowledge. Then he is liberated. On acquiring liberation, he causes an end to all sufferings. All these achievements, indeed, are gained at one and the same time.
While comparing the concept of liberation of Jaina philosophy as enunciated by Pancasūtrakaṁ with that described in other systems of Indian philosophy, it is observed that it is a combination of Sankhya, Vedānta and Yoga philosophies. Like Sāńkhya, the Jaina philosophy believes in plurality of souls. It also believes in the continuity and eternality of creation, as Sankhya believes in the eternality of Prakrti. As in Sankhya the soul is the real experiencer of pain and pleasure in the Jaina philosophy. The desire to get liberation is inherent in the individual soul. Jaina philosophy accepts the Brahma of Vedānta and its true form as pure knowledge, but it does not pronounce the world as non-existent or a mere semblance as does the Vedānta. The concept of equanimity (samatva ) and performance of deeds in detached manner is the same as propounded in the Gitā. Jaina philosophy has some resemblance with Yoga philosophy also. Though in Pancasūtrakam powers of a siddha are not described, yet Haribhadra sūri, the commentator, describes the state of a siddha as all powerful equipped with such achievement as animā etc. These powers resemble with the powers described in the Yoga-sutra of Patanjali.
Though the Jaina philosophy has many similarities with the Sānkhya philosophy yet it differs in one important aspect. The Sānkhya philosophy believes that in reality the soul is never bound and it is the nature which is bound by itself, whereas the Jaina philosophy believes the soul as bound from eternal times. The purusa of Sānkhya is an indifferent seer whereas the soul of Jaina philosophy is
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the enjoyer of infinite bliss after liberation. The two statements of Sankhya doctrine that the purusa is an enjoyer (bhoktā ) and at the same time an indifferent seer appear to be inconsistent but the Jaina philosophy has no such ambiguity. The Jaina doctrine, as propounded in Pañcasūtrakaṁ, is not atheistic. Though it does not mention any God as the controller of the Universe but it enjoins obeisance and obedience to the liberated souls giving such epithets as the lord of the universe (paramalokanatha) and Bhagavāna to them. It is a doctrine of righteousness and human service conducive to the worldly existence.
References
1. "Krtam Cirantanācāryairvivṛtam ca jākinimahattarāsūnu śri Haribhadrācāryaiḥ". Pañcasūtrakam, Ed. Muni Jambuvijayaji, p.79, f.n.2.
2. "Iha khalu aṇāi Jive aṇādijivassa bhave aṇādikammasañjogaṇivvattiye, dukkharūve, dukkhaphale, dukkhāṇubandhe." Ibid, p. 3.
3. Ibid, p. 3.
4. "Asadakaraṇādupādānagrahaṇāt, sarvasambhava bhāvāt
śaktasya sakyakaraṇat kāraṇabhāvācca satkāryaṁ." Sankhya-kārikā, 9.
5. "Nasato vidyate bhāvo nābhavo vidyate sataḥ." Gitā, 2.16.
6. "Jātasya hi dhruvo mṛtyurdhruvam janma mṛtasya ca." Ibid, 2. 27 7. "Krtakatve'pi pravāhatstathāvidhakālvat anāditvävirodhāt." Pañcasūtrakaṁ, p. 6. 8. See F. N. 2 above.
9. "Tatra duḥkharupaḥ, janma-jara-maraṇa-roga-śoka rūpatvāt, eteṣāṁ ca duḥkhatvāt, tatha duḥkhaphalaḥ, gatyantare'pi, janmādibhāvāt, tathā duḥkhānubandhaḥ, anekabhavavedaniya karmavahatvāt." Pañcasūtrakaṁ, p. 6. 10. "Śvobhāvā martyasya yadantakaitat sarvendriyāṇāṁ jaryanti tejaḥ.
api sarvam jivitamalpameva tavaiva vāhāstava nṛtyagite.
Kathopanisad, 1. 1. 26.
11. "Avidyāyāmantare vartamānāḥ svayam dhirāḥ panditammanyamānāḥ. Dandramyamānāḥ pariyanti mūḍhā andhenaiva niyamāṇā yathāndhaḥ." Ibid, 1.2.5
12. "Mātrāsparsāstu kaunteya sitoṣṇasukhaduḥkhadā Āgamapayino'nityāstānstitikṣasva bhārata." Gitā, 2.14.
13. Duḥkhatrayābhighātājjijñāsā tadabhighātake hetau." Sankhya-kārikā, 1. 14. Eyassa nam vochhiti sudhadhammão.
Suddhadhammasampatti pāvakammavigamão." Pañcasūtrakam, p. 6.
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Concept of Liberation and its Pre-requisites
15. Kadagabaddhe via vise appaphale sia, suhavanijje siā, apunabhave sia.
Pañcasūtrakam, Shri Jaina Dharma Prasaraka Sabha,
Bhavanagar, Veer Samvat - 2453, p. 10. 16. Ibid, p. 17. 17. Na ginhijja adattam, ibid, p. 17. 18. Sahudharmaparibhavana suttaṁ - 2, Ibid, p. 20. 19. Pancasūtrakam, p. 59. 20. Logantasiddhivāsino. Ibid, p. 59. 21. Ibid, p. 59. 22. Eamaṇamtaņamtayas. Ibid, p. 59. 23. Kninarăgadosamoha acintacintamani bhavajalahipoa egantasarana
saranaṁ. Ibid, p. 2.
*Head, Department of Sanskrit, Pali and Prakrit
M. D. University Rohatak.
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The Idea of Impermanence
Prof. Madhao S. Ranadive
According to Jainism, everything is impermanent' in the worldly existence. One who takes birth in any being, is necessarily destroyed, is the universal rule2. The handsome attractive body is impure and is the source of misery and severe suffering". It becomes ugly by disease and old age". The glorious youth is destroyed like the water dripping from the folded palms". The Goddess of Wealth-Laksmi, like a faithless beloved, does not stay and stable even with meritorious powerful young monarch. She does not feel pleasure in the company of anybody. She only. stays a couple of days and goes to another's house". Wealth is seen as if in dream. All pleasures are destroyed in no time like the streak of lightening'. The sensual enjoyments are not satisfied. They only increase lust. Their result is very dangerous like the poisonous Kimpaka fruit". The living being suffers death in its mother's womb, at the time of birth, in delicate childhood, in the prime of youth or in old age as if it is an unbaked earthen pot". Thus life, youth, wealth, body and all other worldly things are fickle like the water sticking the petals of lotus.10
We find the characteristic of impermanence (Aniccaņuvekkha or Addhuvaņuvekkhā) of Jainism is similar to the reflection of fickleness (Aniccalakkhaṇā) of Buddhism.
According to Buddhism, nothing is everlasting. Everything is momentary and liable to destruction. There is birth and death, growth and decay, union and separation. The worldly pleasures are temporary like the swings. The lives are as fickle as the waves in ocean. The body is similar to the mirage. One's charm, youth, wealth and the union with dear persons are as fickle as the streak of lightening". The mighty lordly elephant, namely cruel Death, without showing pity towards those who are suffering from severe diseases, those who are overpowered by unbearable old age, those who are young delicate maids and youths, those who are small boys and girls, who are yet given to play, incessantly destroys the whole world like the forest conflagration, that burns the entire forest without any break. 12
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The idea of Impermanence
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Though a man sees everything, is impermanent, still he hankers after pleasures, wealth and power. Being lustful towards them, he commits sinful deeds. He has to suffer misery for his inauspicious Karmas. He has no escape from suffering misery for his Karmas 13. Nobody (i.e., his mother, father, son, friend etc.) shares his lot or saves him from suffering misery14.
Human life is like a boat. It is wrecked in the ocean of momentary existence. In order to reach the other safer shore, namely liberation, he has to acquire excellent virtues. For the same he has to follow the best resort, namely religion by means of which he gets released from misery15.
A man, therefore, should lead a life of righteousness to get happiness without the sting of regret. He, who yearns for riches, should receive treasures that are eternal. Truth is wealth and life of truth is happiness. Bodies fall to dust, but the truth prevails. A man must learn to distinguish between self and truth. Self is the cause of selfishness and the source of evil. Truth cleaves to no self. It is universal and leads to justice and righteousness. So he has to take refuge in the truth that is established by the omniscient Arhat or the enlightened Buddha's.
Though we see much similarity in both Aniccānuvekkhā of Jainism and Aniccalakkhanam of Buddhism, there is difference in the main idea.
According to Buddhism, everything is impermanent. Buddhism, says that the duration of the life of a living being is exceedingly brief, lasting only while a thought lasts. As soon as the thought is ceased, the living being is said to have ceased. The being of a past moment of thought has lived; but does not live, nor will it live. The being of a future moment of thought will live; but has not lived, nor does it live. The being of the present moment of thought does live; but has not lived, nor will it live".
But the Jaina theory of object is as follows:
Any object of knowledge that exists is called Artha which must be associated with substance (Dravya ), quality (Guna ) and modification (Paryāya). A substance exists in its own nature and has its own attributes and modifications. Moreover, it is united with origination (utpāda or sambhava ), destruction (Vyaya or Nāśa ) and permanence (Dhrauvya or Sthiti ), which are at one and the same time. One modification of a substance originates and other one vanishes; but the substance remains the same. In other words, the substance, it self changes from one quality to another and one form to another without loosing its existence 18.
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Prof. Madhao S. Ranadive
The modern metaphysics has proved – "Nothing new is created, nothing is destroyed, only modifications appear. Nothing comes out of nothing, nothing altogether goes out of existence; but only substances are modified.
Unlike Buddhist view of a substance, Jaina view is real. As Jainism is a dynamic realism, its doctrine is similar to the views held by the philosophers in the West, especially those belonging to the Realistic School. The Jaina conception of Dravya, Guna and Paryaya is approximately similar to Spinoza's view of substance, attributes and modes. Hegel had a conception of reality similar to the Jaina conception of Dravya. Sattā and Dravya are one and the same as Hegel maintained. Thing in itself and experience are not absolutely distinct. Dravyas refer to facts of experience and Satta refers to existence or reality. The French philosopher Bergson also recognised substance as a permanent thing existing through change. References 1. "Savvaṁ imam aniccas."
(Ed.) A. N. Upadhye 'Kuvalyamāla kahā (Udyotanasūri), Singhi Jaina Shastra Sikshapitha, Bhartiya Vidya Bhavan, Bombay-7, 1959, Para 352.
2. "Jaṁ kinci vi uppannam tassa viņāsa navei niyamena."
(Ed.) Dr. A. N. Upadhye, Kārttikeyānupreksā (Svami Kumar ), Verse 4, Parama Shruta Prabhavaka Mandal, Srimad Rajcandra Ashrama, Agasa, Ilnd edn., 1978.
3. Imam sariram aniccam asuis asuisambhavam. Asāsayavāsaminas Dukkha-kesāņa bhāyaṇam.
(Ed.) Sadhvi Candanā, Uttarādhyayana-sūtra, Virayatana Publication, Agra. 2, 1972, 19/12
4. Taņu layannu vannu khaội khijjai. Kālalu mayarandu va pijjai.
(Ed.) Dr. P. L. Vaidya, Mahāpurāņa (Puspadanta), Bharatiya Jnanapitha Publication ( Murtidevi, S. No. 15), New Delhi, 1979, VII-19.
5. Viyalai jovvanu nam karayalajalu. Ibid. 6. Jā sāsāda ņa lacchi cakkdharāņam pi punnavantānam.
Sā kim bandhadi raidim iyarajanānas Apunnānam. Kattha vi na ramadi lacchi kulina dhire vi pandiyesūre.
Kārttikeyānupreksā (Agasa), Verse - 10, 11.
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The Idea of Impermanence
7. Riddhio savvão siviņayasamdasaṇasamão.
Vijju va cancalaim ditthapanattha savvasokkhāiṁ.
Ed. Pt. Kailash Chandra Siddhantashastri, Bhagavati Ārādhanā (Sivārya) anityānuprekṣā, Jain Sanrakshaka Sangh, Sholapur, 1978.
8. Jaha kimpaga phalaṇam pariņāmo na sundaro. Evaṁ bhuttāṇa bhogānam pariņāmo na sundaro.
Uttaradhyayana-sūtra (Agra), XIX/18.
9. Gabbhe jamme balattane, tasanne therattaṇammi. Jivā samsāre vihadanti, Amamahina bhandaṁ va. Devendragani, Karkaṇḍacariyam.
10. Calu jiviu juvvanu dhanu sariru, jimva kamal dalalaggavilaggu niru.
Ed. Muni Jinavijaya, Kumarpāla-pratibodha (Somaprabha), Central Library, Baroda, 1920, p. 311.
For the above footnotes, please also see
(i) Kārttikeyanuprekṣā (Agas), 4. 22.
(ii) Kuvalayamālā (Bharatiya Vidya Bhavan), Para 352.
(iii) Mahāpurāņa (Jnanapitha Publication).
(iv) Kumārapāla-pratibodha (Baroda ), pp. 311-312. 11. Telakatāna, gāthā, Aniccalakkhaṇam, Verses 29 to 43. 12. Telakaṭāha, Verse 22.
13. Kaḍāṇa kammāņa na mokkha atthi.
Uttaradhyayana-sūtra (Virayatana), 4/3.
14. "Māyā piyā ṇhusā bhāyā bhajjā puttā ya orasā.
Nālam te mama tāṇāya luppantassa sakammuṇā." Ibid, 6/3.
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15. Telakaṭāha gāthā, 30-3, 4; 32, 33-34.
16. Kārttikeyanuprekṣā (Agas), Verses 302 to 489.
17. Ed. Dharmanand Kausambi, Visuddhimagga, Part one, Buddhaghosa, Bharatiya Vidya Bhavan, Bombay (Bharatiya Vidya S. No.1), 1940.
18. (i) Tam pariyāṇāhi davvu tuhum jam guna-pajjaya juttu.
Saha-bhuva jāṇāhi täham guna kama-bhuva pajjau vuttu.
Ed. Dr. A. N. Upadhye, Paramātma-prakāśa (Yogindu), Shrimad Rajchandra Ashrama, Agas, 1915, I. 57.
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Prof. Madhao S. Ranadive
(ii) Dawam sallakkhaniyam uppādavaya dhuvatta sanjuttam. gunapajjäyāsayam vā jam tam bhannanti savvanū.
Ed. Pt. Manohar Lal, Pañcāstikāya (Kundakunda), Parama Shruta Prabhavaka Mandal, Srimad Rajchandra Ashram, Agasa, III, 1969,
Gatha 10. (iii) "Attho Khalu davvamao dawvāni gunappagāni bhanidāni." 2/93
"Apariccattasahāvenuppādawaya dhuvatta sambodhanam gunavam ca sapajjayam jam tam davvam ti vuccanti." 2/95 "Sabbhāvo hi sahāvo gunehim saha paijayahim cittehim. davvassa savvakālam uppādawayadhuvattehim." 2/96 "Sadavatthidam sahave davam davassa ja hi pariņāmo. attessu so sahāvo thidisambhavanā sasambaddho." 2/99 "Ņa bhavo bhangavihino bhango vā natthí sambhavavihiņo. uppāda vi ya bhango na vină dhawena atthena." 2/100 "Uppāda thidibhargā vijjante pajjaesu pajjāya. pavvam hi santi niyadam tamhā davam havadi savvam.” 2/101 "Samavedam khalu davam sambhavāthidi nāsa sanni datthehim. ekkammi ceva samaya tamhā davvam khu tattidayam." 2/102
Pravacana-sāra, Kundakunda, Sahajananda Shastramala, Meerut, 1979.
*57, Ravivara Peth ( Gita Building)
Satara ( Maharashtra ).
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Jaina Asceticism - An Appraisal
Dr. Yugal Kishore Mishra*
Asceticism as a religious creed has been in vogue in India from time immemorial. It has virtually permeated through all chief systems of philosophy and religion. Jaina asceticism has its own peculiarities. It is somewhat rigourous in comparison to others.
In Jainism, the ascetic is referred to as śramana. The term 'sramana' is derived from the root 'śrama' while signifies performing hard austerities. The Prākrit term 'samana' also stands for śramaņa. It is derived from the root 'sam' which means quieting the senses!. In Jaina literature, Lord Mahāvira is widely mentioned as 'samane Bhagavas Mahavire'. The terms samana, bambhana, māhana, etc. are used in the Jaina texts basically in the same sense. Jaina ascetics are also called nigganthas meaning one having no ties with the outside world. Having renounced the world and its interests forever, the ascetic is also designated as anāgāra in Jaina literature.
Asceticism is the by-product of on attitude of mind which denounces and denies all worldly pleasures. This world is supposed to be a hurdle in the attainment of the spiritual perfection and their efore attachment and inclinations to the worldly objects is to be given up to secure the spiritual consummation.
According to asceticism, desires are the worst enemies of human beings. They never die and hence, are insatiable by their very nature. Even if one enjoys the whole earth with all its products, his thirst never ceases. They are the only fetter which bind us to the world. The only way of redemption from the desires is to abandon them, to renounce them. The shedding of worldly desires and earthly possessions is designated non-attachment or renunciation forms the corner-stone of asecticism. Renunciation however, does not so much consist in shunning physical contact with external objects than in avoiding infatuation with them. Renunciation in Jainism is more mental than merely physical. The ascetic has to cease to desire3 objects of sense.
Annulment of desires is possible by removing ignorance and acquisition of right knowledge. It is ignorance which generates attachment to the world which is
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Dr. Yugal Kishore Mishra
inherently bad and clouds the real nature of soul. Worldly attachments cause the influx of Karma-pudgala into the Jiva which in turn bring about delusion about the intrinsic reality of Jiva, which in its pure form is endued with ananta-catustaya and cause bondage. According to Jainism, perfection is not something external to be imparted to the Jiva in bondage. For attaining perfection, one needs to get rid of ignorance or delusion caused by Karma-pudgalas. So, knowledge alone can help to renounce desire. The Jaina ascetic renounces the world from the religious motive of achieving the soul's perfection and in this great effort, he has to take to the life of self-abnegation and austerities. Renunciation leads to
the stoppage of further accumulation of Karmas, i.e., samvara and selfmortification to the shedding of all Karmas already accumulated, i.e., nirjarā. The ascetic practices thus frees the permanent essence, the Jiva from the changing
trammels of matter. So the road to final deliverance is characterized by right knowledge, right faith, right conduct and austerities“. By knowledge he knows things, by faith, he cherishes belief in them without attachment, by conduct he gets freedom from Karma and by austerities he achieves purity. Moksa in Jainism means annihilation of all Karmas which are the product of passions. So Karma is sought to be removed in the Jaina concept of Moksa and to remove Karma, passions have to be done away with.
The whole apparatus of monastic conduct in Jainism, is meant for cleansing Jiva from the Karmic impurity. While the monastic discipline lays down the common course of dispensing with Karma-pudgala , austerity proves to be more effective in tackling the problem of bondage. So the Jaina ethics and asceticism are the logical consequences of its theory of Karma. Ethics finds itself at peak of its practice in asceticism and asceticism is the culmination of Jaina ethics.
The Jaina asceticism consists of non-violence, self-control and austerities. In the rules of conduct for the Jaina ascetics, observance of the five mahāvratas is of foremost importance. The ascetic has to observe these vows in their entirety and quite rigourously. The concept of non-violence in Jainism is very significant and unique and underlies all other vratas, rules and practices of the Jaina ascetic. The ascetic has to abstain from violence to the six ordus of creatures in thought, word and deed and by himself, by restraining others from indulging in violence and by not approving of such others actions. This is a very centralized concept of non-violence, found in Jainism only. For the effective practice of these vratas, the ascetic has to follow the monastic discipline of observing guptis, samitis,
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Jaina Asceticism : An Appraisal
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dharma, anuprekşā, caritra and tapas. Practice of all these aid in the attainment of Moksa from the Karmic bondage.
Samyama and tapas, i.e., self-control and austerities, constitute the negative and positive aspects of virtuous or religious life respectively and aim at the same ultimate object of emancipation of soul from the world of transmigration and misery. Self-control denotes repression of the chief impulses of rāga and dveşa which are the cause of influx of Karma-pudgala in Jiva and the resultant bondage. This is achieved by the pursuit of rigid and hard ascetic life. The Jaina ascetic is enjoined to abide by the 28 mūlagunas to attain soul's emancipation. The perfect asceticism consists in the said course of conduct ever intent on knowledge preceded by faith."
Tapas meaning austerities signifies painful experiences borne voluntarily with a religious motive to supress desires. So tapa is practised only to achieve renunciation. It consists of a hard and painful course of action such as fasting, less eating, renouncing certain delicacies, mortification of the body, confession of sins, penance, etc. Practice of these has the effect of cutting off Karma', the sole cause of bondage. Tapas help both in the process of samvara as well as in nirjarā.
After initiation in the order Lord Mahāvira himself practised self-mortification for twelve years and bore all sorts of hardships. He later discarded even clothes and became naked. Since then acelakatva became a necessary condition of non-attachment or renunciation. It is supposed to be the excellent type of Jaina asceticism. An ascetic is said to adopt a form similar to that in which he is born13. Nakedness is the ideal extension of the vow of non-altachment. This is why nakedness is enjoined in Svetāmbara texts also. 14
But acelakatva, however, connotes a deeper meaning than what is literally derived. The term 'acela' has two meanings. One is naked. This is possible to adopt only in places of seclusion. Another meaning is scantily clothed, which is perhaps enjoined while in sangha. Keeping in view the two meanings aforesaid, nakedness seems to denote a state of non-return to attachment to worldly objects. Absolute non-attachment is the essential condition of Jaina asceticism and all the rules and practices enjoined for an ascetic tend to be subservient to that essential condition. Even the things or outfits possessed by the ascetic are only the dharmopakarana necessary to the performance of religious duties and never his properties.
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The rules with regard to food etc. for the Jaina ascetic is also rigorous. The ascetic has to beg his food as begging is an essential condition of renunciation, The ascetic has to beg only such foods which are not expressly prepared for him.15 He avoids impure and unacceptable food 6 and receives only so much as is sufficient for the sustenance of his life merely.
The ascetic has to remain wandering from place to place except while observing cāturmāsa during the rains. This is also permissible only to avoid injury to living beings and seeds which are originated at the time.
The Jaina ascetic is ordained to practise several austerities among which fasting assumes special importance. It is the most potent means of self-realisation. Fasting in its most extreme form results in sallekhanā which is also designated as Samādhi-marana or Samnyāsa-marana. It is practised in the last moments of the ascetic's life and consists in voluntary submission to peaceful death by overcoming the cardinal passions and attachment to the world. The rigorous asceticism thus practised by the Jaina ascetics is, however, only a mean to an end and not an end in itself.
Asceticism primarily consists in the denial of natural desires with the sole purpose of attaining some ideal set for life. But the customs pertaining to diet, robe, dwelling, etc. connected with the ascetic mode of life also play a significant part in ascetic life. They in their true forms become a means of self-discipline. But devoid of this ascetic motive proper, the customs become completely irrelevant and useless.
Customs ordinarily have the tendency to symbolization and conventionality. The shaving of head, peculiar clothing or even nakedness etc. are mere symbols which were once the expression of an attempt at self-mortification. Fasting etc. aimed at controlling the senses. Even self-torture was intended to distract the thoughts from the external objects. All customs, thus are originally aids in the achievement of the spiritual purpose, which when conventionalized, loose the core spirit behind them. The core ascetic motive in non-attachment and divested of it, customs become irrelevant and meaningless.
So the outward marks of the ascetic have no value of their own, except in so far as they serve the religious purpose. Asceticism should not therefore be identified with some of the outward formalities. In the Jaina scriptures, the external marks of the ascetics are interpreted only as their distinguishing characteristics, useful for religious life." The Tirtharkaras have already declared that it is the right
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Jaina Asceticism : An Appraisal
faith, right knowledge, right conduct and penance which are the true cause of liberation and not the outward marks. 18
The underlying conception of asceticism remains always the achievement of deliverance from Samsāra through renunciation and austerities. Without renunciation asceticism can not be a way of life for the ascetic. The religion of asceticism aims at establishing the reign of righteousness. The monastic rules are only the means. Religion always seeks to realise the spirit within. The spirit behind asceticism is renunciation. One who possesses nothing dwells happily.19
The prime need of the hour today is to inculcate this ascetic value of renunciation to save the humanity from the greatest catastrophe of annihilation which is lurking overhead in the present array of people and nations for establishing the supremacy in power and pelf over the other. Jaina ascetics, aptly called Tirthankaras are compared to boats which take those who adhere to their culture safely across the ocean of life. So the ascetic ideal of renunciation need to be reinforced in the society to lead them to righteousness, and the Jaina order can play a vital role in this respect. References 1. "Samayāye samano hii", Uttarādhyayana-sūtra, 25. 32. 2. "Ichhā u āgāsasamā anantiyā", Ibid, 9. 48. 3. "Evaṁ sasankappa vikappanāṁsu sañjāyai samayabhuvatthiyassa.
Atthe asankappayao taose pahiyaye kāmgunesu tannā." Ibid, 32.107. 4. "Nānam ca damsanam ceva carittaṁ ca tavo tahā.
Es bhaggutti panatto jinehim varadaṁsihiń.“ Ibid, 28. 2. 5. "Nānena jānai bhāve daṁsaņeņa ya saddahe.
Caritteņa niginhāi taveņa parisujjhai." Ibid, 28. 35. 6. "Kitsnakarma vipramokṣo mokṣaḥ." Tattvārtha-sūtra, 10.2. 7. "Dhammo mangala mukkitthaí ahiṁsā sanjamo tavo." Daśavaikālika, 1. 1. 8. "Chajjivakāye (Pudhavikaiyā, āukāiyā teukāiyā vāukālyā vanassaikäiyā, tasa
kāiyā) asamārabhantā." Uttarādhyayana-sūtra, 12. 41. 9. "Tivihenam maņeņarn, vāyāe, käeņaṁ......" ibid. 10. "Ņeva sayar..... Samārambnejjā, nevaannehin samärambhāvejā.
Ņevanne..... samārambham tevi..... samaņujānejjā." Ācārānga, 1/1/6/116. 11. "Caradi nibaddho niccam samano nānammi dansanamuhammi.
payado mūlagunesu yam jo so padipunna samanno." Mülācāra, 1. 14.
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Dr. Yugal Kishore Mishra
12. "Jadhajādarūva dharo." Pravacanasăra, 3. 4. 13. Vide Ācārānga-sūtra, 1.9. 1. 14. Ibid, 1. 6. 2. 3. 15. "Prāsuyaṁ parakaļam piņņam padigahejja sanjaye." Uttarādnyayana, 1. 34. 16. Vide Acārānga-sutra, 1. 8. 1. 19. 17. Vide Uttarādhyayana ( Kesigoyamijam ). 18. "Paccayatthaṁ ca logassa nāņavihavigappañam.
Jattattham gahanattham ca loge lingappaoyanam. Ahabhave painnā u mokkhasabbhūyasāhane.
Nanaṁ ca daṁsanam ceva carittam ceva nicchaye." Ibid, 23. 32-33. 19. "Suhaṁ vasāmo jivāmo jesim mo natthi kincaņa.” Ibid, 9. 14.
*Research Institute of Prakrit, Jainology & Ahimsa
Vaishali.
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Some Remarks on the Ana!ysis of the Sensuous Cognition ( Mati-jñāna ) Process
Piotr Balcerowicz*
In the Tattvārthādhigamabhāsya commenting upon the sūtra l. 15, that deals with the successive stages of mati-jñāna ( sensuous, perceptual cognition), we find a brief description of the cognitive process leading to the finally formed perceptual knowledge (or cognition; mati-jñāna ) acquired with the help of the five senses and a quasi-sense organ or mind'; the four stages are namely — avagraha (perception, sensation), ihā (speculation, stage of hypotheses), apāya? (perceptual judgement ) and dhāranā (retention, memorizing enabling future recollection ). The method employed in the description of the each stage by the author of the T.S.Bhis two-fold : insertion of synonyms of the technical terms concerned, and a definition or a brief characteristic of a given step.
Thus the synonyms of the perceptual judgement, the third stage of the sensuous cognition, given in the Bhāşya are as following : apaya, apagama, apanoda, apavyādha, apeta, apagata, apaviddha and apanutta. It is evident, that we can group them in two sets, each of them numbering four synonyms, and - besides - one can group them into four pairs, each pair derived from the same root or derivative basis, namely — apa Vi, apa Vgam, apa Vnud, apa v vyadh, all meaning etymologically "to destroy; to remove'. The four synonyms of the first division are formed with the help of krt-affixes* denoting nomena agenti or abstract nouns, for instance :
(a) 'apāya' is formed with the help of ac-suffix and therefore it means literary : 'going away; destruction; annihilation' ( the Prākrt form 'avāa' having similar meaning );
(b) 'apagama', being formed with the ap-suffix forming abstract nouns, has therefore, the meaning 'going away; departure; destruction' (the Prākt form has got similar meaning);
(c) 'apanoda' as well as 'apavyādha' take ghan-suffixs and bear the meaning 'removing; taking away' (the Prākt form avanoya' meaning 'eliminating; elimination') and 'piercing; removing; removal', respectively,
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Piotr Balcerowicz
Unlike the active meaning of the words belonging to the first group, the synonyms of the second division are Past Passive Participles. We can, therefore, ask why the author of the Bhāṣya has combined terms grammatically bearing opposite or rather contradictory meaning as synonyms?
In the Jaina epistemology the terms under examination denote rather a cognitive process although their etymological meaning is slightly different. Apaya or perceptual judgement is defined in 'Sarvarthasiddhi" as "comprehending of the true nature on account of the distinctive cognition (nirjñana ) of particular chara cteristics". A closer examination of the definition of the perceptual judgement (apaya) found in T.S. Bh. may lead us to the conclusion that the author upheld the opinion, quoted and criticized by Jinabhadra" as well as by Yasovijaya", which regarded apaya as only excluding the non-existent characteristics: "the perceptual judgement is a removal of the mental process analysing the pros and cons (of the hypothesis dealing with) the real and non-existing (qualities; the hypotheses that were formed previously at the stage of speculation or ihā) after perceiving an object". It is therefore self-explanatory that according to the author of the T. S. Bh. in the apaya stage of the cognitive process the incorrect possibilities are excluded in the course of a deliberate inquiry and only the accurate hypothesis remains. We may also note that the opinion quoted by Yasovijaya in 'Jaina Tarkabhāṣa'12 is testified positively by the set of synonyms, given in the Bhāṣya I. 15, related to dhāraṇā or retention of the resultant cognition.13
Having taken into consideation that the synonyms of apaya of the second group are Past Passive Participles denoting a result of a cognitive operation indicated by the first division of the synonyms, i.e., they are to indicate the hypothesesexcluded due to the examining process of apaya, we may state that to the author of the Bhāṣya the perceptual judgement (apāya) is not a mere process of negative analysis leading to a determinate judgement but it includes, as well, the result of such inquiry: the congnitive process and the final decision are inseparable. The above ascertainment is justified also by a statement found in the Bhasya commenting upon the T.S., I. 11: "sensuous cognition is conditioned by a perceptual judgement and by actual substances."""
We may thus, conclude that according to the T. S. Bh. the cognitive process, namely the perceptual judgement (apaya ) as well as the sensuous cognition (mati-jñāna ), does not exist without its result in the form of a resultant judgement and, as such, the judgement is an inseparable and essential part of the cognitive process.
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Some Remarks on the Analysis of the Sensuous Cognition Process
Besides, the author of the Bhāṣya can be reckoned a supporter of an opinion considering, on the one hand, the perceptual judgement as a negative process excluding non-existent particulars and on the other hand, the retention (dhāraṇā) as a positive process determining the existent characteristics as well as the retaining of the resultant cognition enabling recollection, which distinguishes him from the Agamic tradition.
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References
1. T. S., I. 14.
2. or 'avaya' which is rather a form of 'apaya' inherited form Prākṛt.
3. The authorship of T. S. Bh. ascribed to Umāsvāti is still questionable; vide BRONKHORST, Chronology of the Tattvärtha-sutra, Wiener zietschrift,
BAND XXIX, 1986.
4. Vide Kale, 777ff.
5. See also 'Laghusiddhantakaumudi, No. 905, 906 and 932.
6. S. Si., 1.15.
7. Compare: N.Tatia, p. 41.
8. Vi. Bh. 185; after N.Tatia, p. 41.
9. J. T. Bh., I. (7), 15.
10. Vide N.Tatia, p. 41.
11. T. S. Bh., avagarhite visaye samyag asamyag iti guna-dosa-vicāraṇādhyavasāyapanod'pāyaḥ :
In this connection I would like to point out in order of better understanding. Another possibility of interpreting this passage according to which the opinion expressed in T.-S. Bh. might be unanimous with the Agamic conception of apaya as well as with Jinabhadra's statement concerning the nature of the perceptual judgement: "The perceptual judgement is after perceiving an object (threefold, namely ) a speculation upon and apprehension of the correctness and the inaccuracy (of our earlier hypothesis) as well as removing the uncorrect suggestions or doubts"; but such construction is rather hardly tenable.
12. J. T. Bh., 1/7/15; asadbhūtārtha-viseṣa-vyatirekāvadharaṇam apāyaḥ, sadbhūtārtha-viseṣāvadharanam ca dharaṇā.
13. T. S. Bh., I. 15; dharana pratipattir avadharanaṁ avasthanam niscaye vägamaḥ avabodha ityanarthantaram.
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Piotr Balcerowicz
14. T. S. Bh., l. Il; apāya-sad-dravyatayā mati-jñānam. Bibliography 1. Bronkhorst, Chronology of the Tattvārtha-sūtra, Wienerzeitschrift, Band XXIX,
1986. 2. M. L. Kale, Higher Sanskrit Grammer; Motilal Banarasidass, 1960. 3. Pujyapāda: 'Sarvārtha-siddhi' ed. by Mallinathan, Madras, Published by
B.Gangawal, Jaipur, 1951. (S. Si.) 4. N. Tatia, Studies in Jaina Philosophy, Jaina Cultural Research Society, Banaras,
1951. 5. Varadarāja, Laghusiddhāntakaumudi, ed. by J. R. Ballantyne, Motilal
Banarasidass, 1961. 6. Umāsvāti, Tattvārthādhigama-sūtra & Bhāsya, ed. by K. P. Mody, Asiatic Society
of Bengal, Calcutta 1903. ( T. S. &T. S. Bh. ) 7. Yaśovijaya, Jaina-tarka-bhāsa, ed. by Dr. D. Bhargava, Motilal Banarsidass,
1973. ( J. T. Bh. ) 8. Višesāvasyaka-bhāsya, Yaśovijaya Jaina Granthamala No.35.
*Oriental Studies Department Warsaw University,
Poland.
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Colour: An Innate Property of the Matter
Dr. Anil Kumar Jain
Jaina View about Colour
According to the Jainism, whole universe is made of six ultimate realities known as dravya. They are - Jiva, Pudgal, Dharma, Adharma, Akāśa and Kāla. Out of them, pudgal (matter) is the only dravya which is rūpi. One which possesses the properties of sparsa (touch), rasa (taste), gandha (smell) and varna (colour) is known as rūpi. Matter is the only dravya which is the object of sensuous cognition. Other five dravyas do not possess above four properties. That's why they are arūpi. The term rūpi does not mean visible, but perceivable and signifies the concurrent existence of all the four sense data.
Whether, the matter is in the form of skandha or it is in the form of paramāņu (ultimate particle ), these four innate properties, i. e., touch, taste, smell and colour, will always be with them. Here, we shall discuss about the colour.
Colour is an innate property of matter. These are five elementary colours blue, yellow, red, white and black. A physical body or matter must have atleast one of them. Matter may have more than one colour in the form of mixture, but it is not possible to have a matter without any colour.
As we have said earlier, a paramāņu also possesses any one of the five elementary colours. If we go into the depth of the colours, it may be infinite also. There may be a paramāņu with one unit of blackness, two unit of blackness, up to infinit units of blackness. In this way, there may be infinite types of colours. One thing which is to be noted here is that the intensity of a colour may vary but the colour itself of a paramāņu cannot be other than five elementary colours unless it is going to form a skandha by combining with the other paramāņu.
Two or more paramaņus of different colours when combine altogther, they form skandha. The colour of a skandha may be different from that of the constituent paramānus. It depends upon the intensities of different colours of the constituent paramāņus.
Light and Colour
Modern science explain the phenomenon of colours on the basis of the
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Dr. Anil Kumar Jain
wave theory of light. Light was shown by Maxwell to be a component of the electromagnetic spectrum. Light travels in the form of waves. All these waves are electromagnetic in nature and have same spead ( = 3 x 1010 cm/sec. ) in free space.
Thus, the light is defined here as the radiations that can affect the eye which shows the relative eye sensitivity of an assumed standard observer to radiations of various wavelengths. The lower and upper limits of visible spectrum (wavelength ) are not well defined, but they are about 4300 Å and 6900 Å respectively ( 1 ) = 108 cm). The eye can detect radiation beyond these limits, if it is intense enough. In many experiments in physics, one can use photographic plates or light sensitive electronic detectors in place of human eyes.
Each wavelength of visible spectrum of the electromagnetic radiations corresponds to a definite colour. As this wavelength changes, the colour will also change. The lowest wavelength which one can see corresponds to violet colour and the maximum wavelength which one can see corresponds to red colour.
The normal white light from the sun contains the whole visible spectrum. When white light falls on any material object, it absorbs some of the radiations and reflects the rest. The reflected radiations when reach our eyes, we perceive the colour of that object corresponding to the wavelength of these radiations. Thus, when the light from the sun falls on the grass, it absorbs radiations of all wavelength except one representing green colour. Consequently, only radiation of wavelength representing green colour reaches our eyes. They stimulate the optic equipment and we see the grass as green.
It is obvious that the reflection of wavelength corresponding to green colour and absorption of the rest of the wavelengths by grass is due to its own specific structural properties. Thus, on the basis of scientific theory of colour, it becomes clear that the perception of grass as green or rose as red depends upon the fact as to which wavelength is reflected and not absorbed by the object, and this in turn, is decided by something inherent in the object-some structural peculiarity of the object itself.
We perceive the sense of colour, not only by the reflection of some particular wavelength by an object, but sometimes body itself radiates the light of some specific colour. As the temperature of a body is raised, first of all it emits infra-red radiation, then red light, then yellow light and finally white light. If we could obtain even higher temperature in the laboratory, we could make bodies blue hot as is
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Colour: An Innate Property of the Matter
actually observed with some of the stars. Here one thing is to be noted that the colour of a body may change accordingly. It depends upon the temperature of the body.
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Colours of Quarks and Gluon
According to the modern science, quark and gluon are supposed to be the ultimate particle of the matter. Quarks are the charged particles while gluons are chargeless particles. It was beleived that 'a baryon is made of three quarks which are having equal energies and same direction of motion. But, in principle, particles of equal energies and other similar properties cannot live altogether. To avoid this problem, it was postulated that the quarks and gluons possess any one of the three colours which are red, yellow and blue. In this way, a baryon is made of three quarks of same energies which are moving in the same direction, but they differ in their respective colours. It is experimentally proved that a quark or a gluon possesses one out of three colours, i.e., red, yellow and blue.
Similar to the quarks, there exist anti-quarks which possess anti-colours. When one quark of some particular colour combines with an anti-quark of anticolour, it form a colourless meson.
To explain the colours of fundamental particles in detail, a new dynamics has been developed which is known as 'Quantum Cromodynamics'.
Discussions
In short, we can state the Jaina view about colours like this, that(1) the colour is an innate property of the pudgala (matter), and (2) these colours are five in number. Now we shall discuss both these points on the basis of modern science.
It is well known that there are a number of material objects which do not have any colour. For example, good quality of plain glass (solid), distilled water (liquid) and air (gas) do not possess any colour. Then how can we justify that the colour is an innate quality of matter?
To explain the existence of colours in such type of things, we have to go into detail about the properties of its fundamental particles. Quarks are supposed to be the smallest possible building block of all the material objects. We cannot see it, but according to the modern science, this quark too possesses some colour. When we cannot see the quark, how can we see its colour? Then, what do we mean by saying that 'a quark is red'? What we mean here, is a red quark will
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Dr. Anil Kumar Jain
always vibrate with a frequency corresponding to red colour. But the intensity of the wavelength corresponding to that frequency is so small that we cannot see it.
One thing more is that when one coloured quark combines with an anticoloured anti-quark, it forms a meson which is a colourless particle. In this way, coloured quarks can make a colourless particles.
We can assume that a quark is just like a paramānu and a meson is just like a smallest possible skandha. Thus, according to the modern science, paramānu ( quark ) will always be a coloured particle but a skandha (meson etc. ) may or may not be a coloured one. Hence we can conclude that all the material object are made of number of coloured fundamental particles (so called paramānu ). With this respect, colour is an innate property of the mater. But we have to accept the fact that it is not necessary that all the skandhas should be coloured.
Second point of discussion is that how many colours exist in the Universe ? According to the Jainism, the number of colours are only five. But according to the modern science, it is not the case. Each wavelength of visible region of electromagnetic spectrum is associated with some particular colour. If there is a little change in the wavelength, the colour will also change. In this way, there are a number of colours. In daily life also, we see that there are number of colours. Then, how can be justified that there are only five colours ?
First of all, we have to classify the colours in two forms — (1) primary (or elementary) colours, and ( 2 ) derived colours. There are only five primary colours. Derived colours may be of any number. When we say that a body possesses a colour other than five elementary colours, it is to be understood that the body will certainly have a mixture of five elementary colours only in different proportions.
We can further justify the existence of five primary colours by going into detail of colours of quark the smallest possible building block of matter. As we have said earlier that a quark possesses any one of the three colours. If we assume quark as a paramāņu, then on the basis of science, a paramānu may have any one of the three colours (i.e. blue, yellow and red ). But a skandha may have number of colours depending upon colours of all the constituent paramānus forming that skandha.
But problem is not yet solved. According to the Jainism, there are two more colours, i.e., white and black. According to the science, a body possesses
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Colour : An Innate Property of the Matter
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white colours means it reflects or radiates all the radiation of visible spectrum. Similarly, when we say a body possesses black colour, it means that body absorbs all the radiations of the visible spectrum. Or we can say, white and black are not the colours, but are something special. By upacāra we can say that white and black are also colours.
When white light from the sun passes through a prism, it gives a spectrum of seven main colours. Are these seven colours different from the five primary colours of the paramánu? Light itself is a skandha and whatever we see is nothing but a skandha and not a paramānu. When we see number of colours, it means we are seeing number of colours of skandha in the form of light which is being reflected from the body. The colours of a composite body (skandha ) would thus be determined by the resultant of the frequencies of its components.
Now we can conclude that the smallest possible building block of matter (i.e., paramānu ) will have any one of the three colours, i.e., blue, yellow and red. Two colours, i.e., white and black are said by upacāra. But a skandha may have number of colours or it may be colourless also. It depends upon the colours of their constituent paramānus. Hence, whatever is being said about five colours of matter in Jainism is true with respect to paramāņu only.
*Assistant Director ( Reservoir ), O. N. G. C.,
Ankaleshvar - 393 010 ( Gujarat ).
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Dhruvarāśi Takanika in Jaina Canons
Dr. L. C. Jain* 1. Introduction
At present the commentaries on the Süryaprajñapti are those due to Malayagiri', Amolaka Rşi2 and Ghāsilāla? Kohl had contributed a text which was revised by A. Olz. Similarly, the commentaries of the Candraprajñapti are available". These texts are from the fifth sub-composition ( upānga ) of the Svetāmbara Jaina School, in Ardhamāgadhi Prākrt. According to Jacobi and Schubring they might have taken shape during the third and fourth century B. C. According to Needham and Lingo, they may go back to the latter part of the 1st millennium B.C. Certain descriptions are available in the contents rendered by Weber, Ind. Stud., 10, 254ff. ( 1868 ) and Thibaut?, JASB 40, comp. and also in his 'Astronomie' in the Grundias, p. 20ff., 29.
The 'Tiloyapannatti' was compiled by Yati Vrsabha ( c.5th century A. D. or earlier 18. This is in Sauraseni Prākrt and belongs to the Digambara Jaina School. Similarly in the same school the Dhavală commentary texts were composed by Virasena ( c. 9th century A. D. ) on the Satkhandāgama texts which were composed by Puspadanta and Bhūtabali (c. 2nd century A. D. or earlier ). The Gommatasāra 10 texts of this school form the summary texts of the Satkhandāgama texts, composed by Nemicandra Siddhāntacakravarti (c. 10-11th century A. D.).
The term Dhruvarāsi appears in the above texts except the Gommatasāra in which the term Dhruvahāra has been used. This appears to be an invariant or constant of the equation of motion and has been sometimes used as a parameter for generating a group of events which were periodic in character. The noted periodicity in the five-year yuga system of India was thus tackled through the Dhruvarāśi technique. 2. The Dhruvarāśi Technique in the Tiloyapannatti
In the Tiloypannatti, the technique of Dhruvarāśi has been applied for finding out the distance between the orbits of the moon and those of the sun from the Meru".
Description of the three relevant verses is as follows:
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Dhruvarāśi Takanika in Jaina Canons
ekasatthi gunidā pañcasayājoyanāni dasajuttā / te açadāla vimissā dhuvarāsi nāma cāramahi // 122 11 ekatthisahassā atthavannutaraṁ sadam taha ya/ igisatthie bhajide dhuvarāsi pamānamuddittham // 123/1
31158
61
pannarasehim gunidam nimakarabimbappamānamavanijjam / dhuvarāsido sesaṁ viccālam sayalavihiņam // 124 //
30318
61
Translation of the above verses is as follows:
Verse 122 : On multiplication of five hundred and ten yojanas by sixtyone, and adding forty-eight to the product, the result (as divided by the denominator sixty-one) becomes the extension of the orbital ground called the Dhruvarāsi.
Note: 510– is equal to 31158/61. This has been called the Dhruvarāśi
61 or the orbital field of the sun or the moon.
Verse 123: The quotient obtained on dividing thirty-one thousand and one hundred fifty-eight by sixty-one has been shown as the pole-set or Dhruvarāsi.
Note : The above verse has been elaborated in this verse.
Verse 124 : On multiplying the diameter of the moon by fifteen, the product is subtracted from the dhruvarāśi, the result is the measure of the interval of all the remaining orbits.
Note : Diameter of the moon is 56/61. Hence ( 56/61 ) x 15 = 840/61. Now one can find the interval between the remaining orbits as equal to (31158/ 61) - ( 840/61 ) or equal to ( 30318/61). Further Procedure
In the verse ahead, the following has been worked out. When (30318/61) is divided by 14, one gets the interval between every one of the orbits as
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yojanas.
Now to this amount is added the moon's diameter 56/61 yojanas, getting the common difference
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yojanas.
Thus, the first orbit is at a distance of 44820 yojanas from the Meru. The second orbit is at a distance of
427
44820 + 36 yojanas from the Meru. The third orbit is at a distance of 44820 +2 ( 360 ) yojanas from the Meru.
179
427
This is carried on till the last orbit.
Similarly the method of the Dhruvarāśi in the Dhavalā has been used for confirming the measure of the set of the illusive visioned bias (mithyādrsti jiva rāśi ) through four analytical methods. However, this is altogether a different procedure for the use of the technique of a Dhruvarāśi away from a convention of periodicity. Further, the Dhruvahāra (pole divisor) concept in the Gommațasāra, is given in details 13, where a geometric regression or gunahāni is produced with the Dhruvahāra as common-ratio. 3. The Dhruvarāśi Treatment in the Süryaprajñapti and the Candraprajñapti Commentaries
In various commentaries of the Sūryaprajñapti and the Candraprajñapti, the Dhruvarāśi technique has been applied to calculate requisite sets which usually form an arithmetical or a geometrical sequence.
First of all the method is given to find out the measure of a Dhruvarāśi for solving a particular problem of astronomy. Then the process of obtaining the subsequent progression of desired results is given.
There are as many as twelve examples in which the use of different types of the Dhruvarāsis is given in the commentaries of the above texts. The muhurta is divided into 62 parts and further subdivided into 67 parts. Similarly other units are divided and subdivided. The Vedānga system of time, however, is different for divisions and sub-divisions.
One of the examples may be illustrated as follows:
Suppose it is required to find out the position of the sun when it is in yoga with a constellation at the instant of the end of a requisite parva (half-lunation). For this, the following verses appear in the commentaries 14
Det er
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Dhruvarăsi Takanika in Jaina Canons
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Transcription : Verse 1
"tettisaṁ ca muhuttā visatthibhāgā ya do muhuttassa /
cutti cunniyabhägā pavvikaya rikkhā dhuvarāsi // 1 // Translation
Thirty three muhūrtas (plus) two parts out of sixty-two parts (plus) thirtyfour parts out of sixty-two into sixty-seven parts, is to be known as the half-lunation (parva ) from of the Dhruvarāśi corresponding to the (sun)-constellation (yoga). Trancription : Verse 2
"icchā pavva guņão dhuvarā sio ya sohanaṁ kuņasu /
pūsāiņaṁ kamaso jahā ditthamanantaņāņihir // 2/1 Translation
The Dhruvarāśi is multiplied by whatever is the requisite ( sequential number of the parva (half-lunation ); and then from the product are subtracted (the measure of ) the constellations as pusya, etc., in sequence, according to the omniscient vision. Explanation
Let the problem be as to in which sun-constellation does the first parva ends. For this the Dhruvarāśi is
33 + ( 2/62 ) + (34/(62 x 67 ) } muhurtas. Here the Dhruvarāśi is calculated as follows:
In all there are 124 parvas, out of which 62 are bright halves and 62 dark halves in course of five-year yuga or five sun-constellation yogas. Hence, for one parva (half-lunation ) we get 5/124 sun-constellation part of a yoga. Now this is multiplied by 1830 to convert it into the type of 67 parts getting (5x 1830)/124 or 4575/62. Noting that the sun moves 1830 celestial parts in a muhūrta or moves through 1830 half-mandalas or ahorātras in a five-year yuga, we convert 4575/62 into muhurtas by multiplying it by thirty. Thus, we get ( 4575 x 30 )/62 muhurtas
3+1 2/62) + 34/162 x 67) muhüratas. This is the Dhruvarāśi required for the purpose.
Now we pose the problem for the first parva, hence the Dhruvarāśi is multiplied by one. This product is to be subtracted by the period covered by the pusya constellation. Hence we get 33+ (2/62 ) + {34/( 62 x 67 ) } - 19 + ( 45/62) + {33/ ( 62 x 67 ) } = 13+ (19/62 ) + (1/( 62 x 67 ) ).
This period remains to be covered after the sun has passed over the puşya constellation. Hence the sun remains in the āśleşā for this much period. Just after
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this, the first parva in form of the coming dark 15th of the śravana month comes to an end.
Similarly the succeeding parvas are to be treated. For them the multiples of the Dhruvarāśi are 2, 3, 4, 5,..........., 61, 62 respectively. The products form a geometric progression with the Dhruvarāśi as the common ratio.
In the above system, it may be noted that a muhurta or 48 minutes set was sub-divided into 62 parts and each such part was further sub-divided into 67 parts. This system was slightly finer than the sexagesimal system of dividing an hour into, 60 minutes and each minute into sixty seconds. Concluding Remarks
The above probe into the technique of the Dhruvarāśi (pole-set) appears to have been in use round about the fourth century B.C. when the Süryaprajñapti types of works in the Jaina School were possibly being compiled for the Karanānuyoga group of study. The periodicity of natural phenomena and its calculations needed a group theoretic study and the Dhruvarāśi technique was an attempt towards it. From the several remaining examples it appears that progressions and regressions were the powerful tools for dealing with such periodic phenomena. It also appears that this technique might have played a decisive role in developing the later larger yuga system for the planetary motions whose account has been mentioned to have become extinct by Yativrsabhācārya in his Tiloyapannatti 15. This group theoretic yuga system seems to have been converted into the theory of epicycles in Greek later on. Mention may be made also of the work of Roger Billard on the yuga system of India through the computer16. Acknowledgement
The author is grateful to Dr. A. K. Bag for encouraging this research. Thanks are also due to Prof. S. C. Datt for providing research facilities at the Department of Physics, R. D. University, Jabalpur. References 1. Tika by Malayagiri, (Pr. Sūrapannatti ), Agamodaya Samiti, Bombay, 1919.
This appears to have been compiled in c. 12th century A. D. 2. Sūryaprajñapti Sūtra, ed. Amolaka Rşi with Hindi translation, Sikandarabad
(Dakshin ), c. Virābda 2446. 3. Sūryaprajñapti Sūtram, edited with Suryaprajñapti-prakāśikā, Sanskrit commen
tary of Ghasilal and Hindi, Gujarati translation by Kanhaiyalal, Vol. 1 (1981 ), Vol. 2 (1982), Ahmedabad.
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4. Kohl, J. F., Die Süryaprajñapti, Versuch einer Text geschichtee, Stuttgart,
1937 Revised by Author Olz, 1938. 5. Candraprajñapti Sūtram, edited with Candraprajñapti-prakāśikā, Sanskrit
commentary of Ghasilal by Kanhaiyalal, Rajkot, 1973. 6. Needham, J. and Ling, W., Science and Civilization in China, Cambridge,
1959, Vol. 3. 7. Thibaut, G., Astronomie, Astrologie and Mathematik ( der Inder ) in Grundiss
der Indo-Arischen Philoloie and Altertumskunda, ed. G. Buhler and F. Kielhom,
Bd. 3, Heft 9. 8. Jadivasaha's 'Tiloyapannatti', ed. H. L. Jain and A. N. Upadhye, Part 2,
Sholapur, 1951. 9. The Satkhandāgama of Puşpadanta and Bhūtabali with Dhavalā commentary
of Virasena, Vol. 3 ( 1941 ) and Vol. 4 (1942), ed. H. L. Jain et. al., Amaraoti. 10. Gommatasāra of Nemicandra Siddhāntacakravarti, Vol. 2 (Jivakānda ) with
Karnatakavrtti, Jivatattvapradipikā and Hindi Trans., ed. A. N. Upadhye and
K. C. Shastri, Bharatiya Jnanapith, New Delhi, 1979. 11. Tiloyapannatti, Vol. 2, Ch. 7, V. 122. 12. Jain, L. C., On Certain Mathematical Topics of the Dhavalā Texts, IJHS, Vol.
2, 1976, No. 2, 1976, pp. 85-111. 13. Gommațasāra, op. cit., pp. 628-648. 14. Cf. (5), pp. 394-398, Cf. also (3), pp. 129-133. 15. Tiloyapannatti, op. cit., Ch. 7, V. 458 et seq. 16. Cf. Billard, Roser, L'Astronomic Indienne, E' cole Francaise D'ex treme-Orient,
Paris, 1971. The records are also available in computerized cassette.
*Ex. Professor of Mathematics
677, Sarafa Jabalpur - 482 002
(M.P.)
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Ancient India and South-East Asia as known from
Jaina Sources Dr. M. S. Shukla*
The eastern littoral beyond the Ganges has long been a terra incognita to the Ancient World. How and when it became known to antiquity is a crucial subject for historical and geographical studies. Being situated to its south-east, the issue of this area has to be investigated in relation to India.
The ancient Jaina sources seem to have a significant bearing on the question. The South-East is noted as Suvarnabhūmi in Ancient India. The Jaina texts also take notice of the area with this appellation.
The classical Greek and Roman accounts', the periplus, the works of Promponius Male, Pliny, Ptolemy allude to Chryse, an area which the last mentioned authority notices as Chryse Chora and Chryse chersonesus. These are equivalents of Suvarnabhumi in all. But these notices do not carry us beyond the early centuries of Christian era indicating that trans-Gangetic area was unknown to the Western World before this time.
Several Indian works also focus on the first century of our era. The Milinda Panha, the Niddesa commentary, the Vālmiki Rāmāyana are some of the examples. These works take note of Suvarnabhūmi. From the combined testimony of Indian and Western sources it appears that the eastern littoral beyond the Ganges was widely known to the antiquity in the early first millennium A. D. The moot point yet is whether we can discover the time when the South-East came to be first known to the Ancients.
The Arthaśāstra? of Kautilya referring to products of economic importance enumerates Suvarnabhumi as the source of a variety of sandalwood. We get an indication of the way in which South-East was known in the later first millennium B. C. The Jaina literature also indicates that in this period the trans-Gangetic region formed a part of the known world.
The Uttarādhyayana Niryukti (Gāthā 20 ) alludes to Kalaka's travel to South-East. The author of Vihatkalpabhāşya ( Vibhāga 1 ) citing Vrhatkalpacūrņi
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also refers to Kalaka's travel to the same. The Uttarādhyayana Cūrni also contains and corroborates this. Thus we have a continuous string of references to Kālaka's association with the South-East.
The Jaina sources seem to indicate a fairly early connection between India and Suvarnabhūmi as indicated by the Arthaśāstra. The Jaina works further indicate that such a measure of contact was continued in our era.
The Jaina sources inform us that Jainism was not confined to India but was carried to South-East by savants and missionaries. The story of Kalaka indicates that even before him this process was initiated. We know that Kālaka had gone to Suvarnabhumi to meet śramana Sāgara who was already living there. Is it possible then to suggest that Jaina savants had gone to Suvarnabhūmi even earlier than the time of Kālaka or śramana Sāgara for propagation of Jainism. ?
Dr. R. C. Majumdar citing an Annamite text of 14th century refers to the presence of ca-la-cha-la, i.e., Kālakācārya in Campā. The text probably records the traditional association of Kālakācārya with South-East, an echo of which had survived to its time. The commentators of Varāhamihira-saṁhitā states that the latter has noted the rules of Pravrajya according to Vankālakācārya. If Vankālakācārya and Kalakācārya are the same person, we get an indication of Kālakācārya's association with another South-East Asian area, i, e., the island of Banka, lying between Sumatra and Java.
Kālaka and śramana Sāgara obviously seem to have gone to the SouthEast for a religious mission. The Jaina tradition is suggestive then of the form and mechanism of Indianisation of South-East. The nature of first Indianisation of SouthEast Asia and the manner in which it was taking place is a matter open for opinion. The Jaina. sources seem to have a bearing on the concept of Indianisation and its operation across the Bay of Bengal. It is known that Kālaka flourished in the first century B. C. It seems most probable then that Indianization of South-East started in earnest in the period from the first century B. C. and carried on in to the Christian era. The initiation of the Indianisation process of the South-East may be seen in the light of an expansion of Indian religions outside India. We are reminded of the religious missionaries dispatched by emperor Asoka to the land of gold ( Suvarnabhūmi ).
The texts dealing with Kālaka narrative take into account the maritime trade across the Bay of Bengal. They suggest as such that we should consider the problem of Indianisation of South-East in a context, that included trade and cultural
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relationship with the outside world. From the account of Arthaśāstra it may be well that Suvarnabhūmi entered into known world and found a place in ancient Geography as the sea-route, developed to the east across the Bay of Bengal.
If the Indianisation process tends to be interpreted in terms of an expansion of ancient maritime trade, the beginnings of Indianisation can not be later than 1st century B. C., a fact suggested by the Jaina tradition. The spread of Indian religion was a form of Indianization before the opening of Christian era and Indian savants and missionaries were the mechanics of Indianisation during its early stages. The merchants, besides carrying miscellaneous trade goods and carried art-works and cult objects for the faithful, are facts for common people. Thus merchants and missionaries were at work in the operation of the Indianisation process in the SouthEast from the time of its beginnings.
Before the official introduction of Indian political theory and religious ideas by the ruling states known as self-Indianisation, a form of Indianisation was well under way in the South-East. This process got a fillip in the first millennium A. D.
The Jaina tradition is eloquent on developing state of maritime trade to the South-East in the first century of our era. The Jaina texts like Vasudeva Hindi (300-500 A. D.) refer to Cārudatta's trading voyage to Suvarnabhūmi and reflect the flourishing condition of sea-trade across the Bay of Bengal.
Trade to the South-East was growing in proportion in Northern India in the Gupta period. There was also growing a centre of Jainism in Bengal as an inscription from Paharpur informs us. There seems a connection between the rise of this seat of Jainism and growing sea-trade to the South-East, since eastern India was at this time the nerve centre of trade to the South-East. It is known that Jainism has always been associated with traders in course of its development. The role of Jaina community in forming a connection with South-East and other areas and diffusion of Indian cultural elements there in the early Medieval period may be estimated in the light of Samarāiccakahā° and other writings dealing with external trade relations of India specially with Suvarnadvipa and Mahākatahādvipa.
References 1. D. P. Singhal, India and World Civilization, pp. 84-87.
2. Ibid, p. 85.
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3. Umakant Shah, Suvarṇabhūmi men Kālakācārya, Jaina Cultural Research Society,
Varanasi - 5, 1956, p. 2. 4. Edited R. C. Mazumdar, 'Age of Imperial Unity'. Bhartiya Vidya Bhawan,
Bombay - 7, 1951, p. 650. 5. Shah, op. cit., p. 5. 6. Singhal, op. cit., p. 84. 7. Shah, op. cit., p. 4. 8. Epigraphia Indica, XX, Archeological Survey of India, Janpath, New Delhi, 1983,
p. 59. 9. Haribhadra : Samarāiccakahā, 4, 254; 5, 403, 407, 420, 426-427.
*Department of A. I. H.C. & Archaeology
Banaras Hindu University,
Varanasi - 5.
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Historical Significance of Early Jaina Kadamba
Inscriptions Dr. A. K. Chatterjee*
Jainism had reached Karnataka probably as early as the second century A. D., and we have the evidence of an important non-Jaina text, namely the Bhāgavata' regarding the introduction of Jainism in this Janapada. We have shown elsewhere? that in Tamilnadu, Kerala and Sri-Lanka, Jainism was introduced much earlier, probably in the pre-Mauryan days. But the Digambaras of Northern India, were in all probability, responsible for the introduction of Jainism in Karnataka by the middle of the second century A. D. However, the earliest Jaina epigraph from this state is dated in about 400 A. D. Both the Western Ganges and the Kadambas were the major ruling dynasties in this area at this period, and the kings of both these dynasties had some genuine love for the religion of the Jainas.
The Kadambas, like the Western Ganges, came into the limelight from the middle of the 4th century A. D. Like the latter they too were great patrons of the Jaina religion and culture. The earliest inscription of the dynasty of the founder Mayurasarman is assigned to the middle of the 4th century A. D. The first king of this dynasty, who definitely showed special favour for the Jainas, was Kakutsthavarman whose Halsi grant (Belgaum district, Karnataka ) is dated in the 80th year of the pattabandha of his ancestor Mayurasarman. It has been suggested that the year 80 may also be referred to the Gupta era; in that case the inscription should be assigned to circa 400 A.D., which is also supported by the palaeography of the record.
The inscription begins with an adoration of the holy Jinendra who is represented almost as a theistic deity. Some of the grants of Mrgeśavarman and Ravivarman begin with the same verse. It was issued from Palāśika ( Halsi, Belgaum district) by Kakutsthavarman, who is represented as the yuvarāja of the Kadambas'. By this grant, a field in the village called Khetagrama, which belonged to the holy Arhats, was given to the general Srutakirti as a reward for saving the prince. It is said that the confiscators of the field, belonging to the king's own family or any other family, would be guilty of pañcamahāpātaka. According to the Jainas the
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five sins are — destruction of life, lying, unchastity, stealing and immoderate desire. The inscription ends with the words Rşabhāya naman.
It is apparent from the inscription that the Jinendra temple of the ancient city of Palāśika was built before the date of this inscription and probably som in the 4th century A. D.
Several grants of Mrgesavarman, the grandson of Kakutsthavarman, who ruled in the last quarter of the 5th century A. D.6 are connected with the Jaina religion. The first inscription' found at Banavāsi is dated in the 3rd regnal year. It records a grant of black-soil land ( Krsnabhūmiksetra ) in the village called BrhatParalura to the divine, supreme Arhat 'whose feet are rubbed by the tiara of the lord of gods' for the purpose of the glory of sweeping out the temple, anointing the idol with ghee, performing worship and repairing anything that may be broken. Another piece of land was also granted for decorating the idol with flowers. The term devakula is also used in this connection. The Pattikā is said to have been written by Dāmakirti Bhojaka. We have another Banavāsi grante dated in the 4th year of Mrgeśa's reign which was issued on the 8th of the bright fortnight of varsa, when the king was residing at Vaijayanti. The dating of the inscription was surely due to the Jaina influence", as it was the time of the Nandiśvara or Astāhnika festival. By this grant the dharmamahārāja Sri Vijayasiva Mrgeśavarman made a gift of a village of the name of Kalavanga. It was divided in three equal portions; the first was meant for the temple of Jinendra which was situated at a place called Paramapuskala. The second portion was meant for the Sangha of the Svetapatamahāśramana who followed scrupulously the original teaching of the Arhat, and the third for the use of the Nirgrantha-mahāśramanas.
The reference to the Svetapata sādhus is of great significance. It clearly proves that the Svetāmbaras were equally popular in Karnataka in the 5th century A. D. The statement that they followed the good teaching of the Arhat implies that they were held in special esteem in those days. It is also evident from the inscription that the Jinendra temple mentioned here, was the joint property of the monks of both the sects. Needless to say, these monks belonging to the main branches of Jainism, lived in perfect harmony in the 5th century A. D. The seal of the grant, according to Fleet, bears the device of a Jinendra.
The third inscription of Mrgesavarman, bearing on Jainism, is the Halsi granto dated in the 8th year of that king. It begins like the inscription of Kakutsthavarman with an adoration to Jinendra in exactly the same words. The king Mrgesa
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is further described as Tunga-Gangakulotsadi and Pallavapralayanala which suggest his success over the Western Ganges and Pallavas. Then we are told that, while residing at Vaijayanti, through devotion of his father (Säntivarman), he caused to be built a Jinālaya at the town of Palāśika ( Halsi ) and gave to the holy Arhats thirty three nivartanas of land between the river Mātrsarit and Ingini sangama for the Yāpaniyas, Nirgranthas and Kurcakas The executor of the grant was Bhojaka Dāmakirti. Fleet takes the bhojakas as the official priests in Jaina temples. But who were the Kurcakas mentioned in this inscription ? It appears that they were bearded ascetics" and were distinguished from other Nirgrantha monks, who did not keep any beard. Some other grants of Mrgeśavarman are meant for the Brahmins and other non-Jainas, which show that he was not a converted Jaina'?.
The next king Ravivarman was not only a very able ruler and a great conqueror but also a sincere patron of the Jaina religion. We must at first refer to his Halsi grant'3 dated in the eleventh year of his reign, which refers to his brother Bhānuvarman, who was probably the governor of Palāśikal under Ravivarman. We are told that Bhānuvarman and one Pandara Bhojaka granted land to the Jina at Palāśika, which was situated in a village called Kardamapati. We are further told that the land was given for the purpose of worshiping the Lord Jina on every fullmoon day. We must then refer to two undated Halsi grants of the time of Ravivarman both of which are of great importance.
The first undated Halsi grant15 of Ravivarman records the interesting history of a family that received favour from the days of king Kākutsthavarman. According to it, in former days a Bhoja named Srutakirti, who acquired great favour of Kākutsthavarman named Srutakirti, enjoyed the village of Kheta. We have already taken note of the fact that king Kākutsthavarman granted a field in that village to senapati Srutakirti for serving him. After Srutakirti's death, at the time of Sāntivarman, his eldest son Mrgesa, after taking his father's permission, granted the village to the mother of Dāmakirti. It appears that Dāmakirti was the son of Śrutakirti. The eldest son of Dāmakirti was pratihāra Jayakirti, whose family is said to have been established in the world by an ācārya named Bandhusena. In order to increase his fortune, fame and for the sake of religious merit, Jayakirti, through the favour of king Ravi gave the village of Parukhetaka (probably larger Kheta ) to the mother of his father. This interesting grant further refers to the 8-day festival of Lord Jina at Palāśika in which king Ravivarman himself participated. We are further told that the expenses for this Astāhnika festival in the month of Kārttika should be met from the revenue of the village. The grant further refers to the Yāpaniya
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monks and their chief Kumāradatta. The last few lines of the inscription conclusively show that king Ravivarman did everything to promote the worship of Jina at Palāśika. It further appears that Suri Kumāradatta, mentioned in this inscription, was a celebrated Jaina savant, belonging to the Yapaniya sect and was universally admired for his learning and holiness. We must note carefully the following lines of this inscription "wheresoever the worship of Jinendra is kept up, there is increase for the country, and the lords of these countries acquire strength ( ūrjas ).
The second undated Halsi grant of Ravivarman 16 is historically more important since, it refers to the killing of Visnuvarman, the lord of Kanci. The actual donor was Srikirti, the younger brother of Dāmakirti and the object was to increase the merit of their mother. A copper plate inscription" dated in the 34th year of this king, found from Chitradurga district ( Karnataka) records a grant of land to a Jaina temple.
It should here be remembered that Ravivarman did not favour the Jainas alone; other religious sects also received good treatment from his. This is proved by his inscriptions found from different places. Ravivarman ruled in the closing years of the 5th and the first quarter of the 6th century A. D.19
The Jainas also enjoyed patronage during the rule of Ravivarman, who unlike his father Ravivarman, was not a very strong king. We have two dated Halsi grants of his reign. The first is dated in the 4th year of his reign20. It records that at Uccasrngi, the king at the advice of his uncle ( pitvya ) named Sivaratha, gave the grant of a village to an Arhat temple of Palāśika, which was built by one Mrgesa, the son of senāpati Simha. On behalf of the temple, the grant was received by Candrakānta, who is described as the head of a Kūrcaka Sangha named after Vārisenācārya. It thus appears that a particular member of Kūrcaka sect called Varisenācārya, established, before this date, a particular Sangha, which was named after him. We have already taken note of these Kūrcakas, viho are mentioned in an inscription of the time of Mrgesavarman. The village Vasuntavātka, which was given as grant was situated at Kandura-visaya. The inscription ends with a verse addressed to Vardhamana.
The second Halsi grant of Harivarman's reign is dated in his 5th regnal year. It is interesting that Palāśika is described here as the capital ( adhisthāna ) of this king. We are told that the king, being requested by Sendraka chief Bhānusakti gave the grant of a village called Marade for a Jaina caityālaya of Palāśika, which was the property of Sramana-sangha called Aharişti and who were under Acārya
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Dharmanandin. The Sendrakas were obviously the feudatories of the Kadambas. Harivarman, however, before the end of his reign, became a Saiva2
Another branch of the Kadamba dynasty, who ruled in the southern part of the original Kadamba dominion, also patronised the Jainas. We have a grant, of the time of Kṛṣṇavarman ( c. 475-485 A. D. ), the brother of Santivarman, issued from Triparvata (probably Halebid). By this grant a piece of land at a place called Siddhakedāra, which was in Triparvata division, was granted to the Yapaniya Sangha by Yuvaraja Devavarman, for the maintenance, worship and repair of a caityalaya, which was probably near Siddhakedära.
The above discussion shows the flourishing condition of Jainism in different parts of the Kadamba dominion. It appears that there were a number of Jaina temples at Palasika, which was flourishing town in those days. These inscriptions, as noted above, have disclosed the name of a great number of Jaina savants, some of whom were even respected by the reigning monarchs. The references to different Jaina sects like the Nirgranthas, Svetapatas and Kūrcakas prove that all these schools had their followers in the Kadamba dominion. The lay followers used to celebrate, with great pomp, the various Jaina festivals and needless to say, such festivals made the Jaina religion extremely popular among the masses. The Kadamba kings, it appears, in spite of their religious catholicity, had special love for the Jaina religion. It was mainly because of their patronage that Jainism became a dominant religious force in Karnataka.
References
1. Srimad Bhagavat-Mahapurana, Gita Press, Gorakhpur (India), Ed. Ind, 1982, V, Chapters 3ff.
2. A. K. Chatterjee, A Comprehensive History of Jainism, Firma K. L. M. Pvt. Ltd., 1978, Vol. I, 118 ff.
3. D. C. Sircar, Select Inscriptions, etc., Vol. 1, University of Calcutta, 1942, 4731. 4. See D. C. Sircar, Successors of the Satavahanas etc., University of Calcutta, 1939, p. 255; see also I. A., Vol. VI, p. 23.
5. (Ed.) Jas. Burgess, Indian Antiquity, Vol. VI, Svati Publications, Delhi, 1984, p. 234, fn.
6. (Ed.) R. C. Mazumdar, The Classical Age, Bharatiya Vidya Bhavan, Bombay, 1954, 272.
7. I. A., Vol. VII, 35-36.
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8. Ibid., 37-38.
9. See Sircar, op. cit., 262. 10. I. A., Vol. VI, 24-25. 11. See M. M. Williams, S. E. D., 300. 12. See E. C., Vol. IV, 130; Vol. VIII, 12. 13. I. A., Vol. VI, 28. 14. Sircar, op. cit., 269. 15. 1. A., Vol. VI, 25-26. 16. Ibid., 29-30. 17. M. A. R., 1933, 109 ff. 18. See The Classical Age, 273. 19. 1. A., Vol. VI, 30-31. 20. Ibid., 31-32 21. See E. I., Vol. 14, 165. 22. J. A., Vol. VII, 33. 23. Ibid, Vol. VII, 33.
Reader, Calcutta University. Residence : 24E, Jyotish Roy Road,
Calcutta - 700 053.
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Wall Paintings as Depicted in the Patodi Jaina Temple,
Jaipur Dr. Rita Pratap*
Painting in ancient India was integrated with the social life of man. It was not only a mark of man's personal achievement but it also revealed his cultivated taste. Bharata's Natyaśāstra enjoins the importance of wall paintings in the auditoria :
Samansu jatasobhāsu citrakarma prayojayet // 90 // Varied informations on wall paintings are found in the Purānas. The Chitrasūtra of the Visnudharmottara Purāna offers an encyclopaedic knowledge on painting including the wall painting. The other texts are: The Chitralaksana by Nagnajit, Bhoja's Samarāngana-sūtradhāra, Someśvara's Mānasollāsa, Vatsyāyan's Kāmasūtra and Yasodhara's Jayamangalā, commentary on it also make equally good references.
This tradition of mural painting remained as forceful as in Amber and Jaipur too - the capital city of Kachawāhās. Here the mode of embellishing wall remained in vogue for more than .hree hundred years, i. e., from late 16th century to the present century.
The paper dealt here is on the wall paintings as depicted in the Patodi Jaina Temple, Jaipur. It is apparent from the earliest murals found in Amber and Bairath that wall paintings had begun to received royal patronage from the time of Raja Man Singh ( 1590-1614 A. D. ), when he came in contact with the great Mughal Emperor Akbar - the ambellishing of walls with paintings had become a necessity and also a fashion.
For a number of centuries Amber' and Sängāner? were the Jaina literary centres of the Dhundhar region and Amber remained one of the earliest centres of Bhattārakas too.
After the establishment of the Jaipur city in 1727 A. D., the shifting of Jaina scholars, poets, artists and businessman took place who after migration constructed their own temples, places of importance and established Grantha Bhandāras 5.
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Wall Paintings as Depicted in the Patodi Jaina Temple
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The Digambara Jaina temple ( Patodi ) situated in Maniharo Ka Rasta, Modi Khana, Jaipur, is said to be an example of later Jaina temples in northern India and there is a marked influence of later Mughal structural order and is characterized by artistic degeneration'. The builder of this temple was Jodh Raj Patodi and the idol of God Adinātha installed in it. With the shifting of capital, the Gaddi of Bhattārakas' was also shifted to Jaipur in Sarnvat 1815 and temple of Patodiyan became the centre of their activities.
During the time of Sawai Madho Singh i and Sawai Pratap Singho the Jainas were holding the highest posts of administration in the state, including that of Dewanso
It has always been the fascination of the royality of Jaipur to get their palaces, courtyards, chattries, temples painted. The subject matter in these pertain to the pictorial records of their customs, beliefs, mythology and history. We still find numerous such places as examples". Patodi temple is one of them which has painted dome with the subjects relating to the Jaina themes.
The Painted Themes
As one climbs the stairs to reach the temple complex we come across a open courtyard, towards whose centre the salatial Jaina symbols (Aştamāngalika) are found carved in a brass door. The mid ceiling of the dome has lotus petals, the small petals in between and bigger petals spreading out from it in green and red colour scheme, the extensive floral design in it leaves no place unutilized. Down below in an arch format are 16 panels of the places where Tirthankaras attained liberation'? In between these, there are 16 more marble figures of Gandharva's hanging out and eight Vidyādhars painted in between the above two subjects in a circumference with camvara or morchal in one hand and lotus in the other. Identical dress of Dhoti, Dupattā, Mukuta, Bhuja-Bandh-Mālās and Kanthi are worn. Further below is painted the scenes of 16 dreams of 'Tirtharkara-mātā' and 'Pancakalyānaka'13 that is 'The Garbhāvatarana' (descending of Gods head in the embryo ), Janmābhiseka' ( Birth rights ), 'Diksāgrahanaṁ' (Initiation ) : Kevala jñāna, Enlightenment : Mokşa, 'The Siddhacakra' and 'Neminātha's marriage procession scene', is among the beautiful ones painted with the precision of miniature work. just over the pillars eight long narrow panels and in between another 8 squarish shaped panels where Jaina beliefs and scenes of common people worshipping the Jaina Gods, going to Tirthas and celebrating the sacred occassion are depicted. In few of them the details of the scene depicted has been
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inscribed with red colour on pink coloured wall. The wall facing the idol and behind the door are two identical panels of male figures which seem to be the 'Dvārapālas' holding stiok with both hands, wearing Jāmā, Patakā, Headgear and all ornaments. On top of it are two small panels of Indra's holding stick and plate with a pot. On both sides are two identical bigger panels showing Indra with 4 females dancing on both the hands.
Below it there are 2 subjects relating to Jaina preachings – that is the 'Cosmic tree'. Here symbolically a Banyan tree is shown with a man clinging on its hanging roots. These roots are being constantly cut by white and black coloured rats symbolising the day and night. Over the hanging man there is bee-hives from which honey drops are falling and the man is busy in tasting the nectar of human existence, he is ignoring the inspiration to ride a near by religious vehicle. He is obivious of the fact that once the hanging roots are cut he will fall in the dark regions of hell which are symbolized by serpents below.
On the right side front wall, in an arch is painted the symbolic Jāmuna tree representing 6 different characteristics ( svabhāvas ) of human beings. The black natured man is shown cutting the tree by its root itself. Blue natured man is cutting a whole branch and white natured man is cutting the bigger stems of the tree. These are considered inauspicious svabhāvas. Out of auspicious svabhāva the yellow natured man is busy in plucking the bunch of Jāmuna fruit. Whereas pink omened man is plucking a single fruit and the most well omened man is satisfied in collecting the fallen Jāmuna fruit from the ground. This is a very good depiction of people in the society out of whom some are good omened and some are bad omened. The pillars and ceiling of the temple complex has floral patterns painted in the centre and on four sides with gaudi colours, the pillars have the common lotus design painted. Technique of the Wall Paintings
. The workmanship done in the Patodi temple is on Araish. It is not true fresco but may be called secco that is tempra painting done on a dry fresco ground. (The media in which plaster is prepared with marble powder and lime and allowed to be dried and painted there on ). The pigments in this process do not enter the ground but stay on the dry surface - so quite a number of colour can be applied. We find numerous shades of colours used in painting the temple, the main ones are the natural pigments - Kājala (lamp black) for Black, Nila (indigo) for Blue, Gerū (red stone powderfor red, Kesara ( saffron) for orange, Harbhata (terre
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verte) for green, Safedā or cūnā (lime) for white, hirmich for brown and Pevri ( yellow clay ) for yellow. Further more light and dark shades were also used by mixing white and black to the natural pigments.
Though this temple ( Patodi ) has Jaina subjects painted but the style adopted in depicting the figures, material culture, architecture and landscape is the same as found adopted in the walls of the other havelis and temples of Jaipur 14.
Patodi Temple Jaipur
The only difference is that here Jaina themes have been depicted so as to reinforce the religious aspect of the influential Jaina community. This temple was built at an early date but the paintings depicted seems to have been painted at a later date as one of the panels here depict an Englishman seated on a stool with attendants holding fan and artificial flower, the figures are attired in-coat, trousers and hats (Plate 1). This enables us to date the paintings to early 19th century during the advent of British and Jaipur signing a treaty with them in 1818 A. D.
Today the tradition of painting on Araish wall has almost come to an halt, very few artists are continuing this technique, Padmashri Kripal Singh Shekhawat of Jaipur had painted a mural on the Jaipur Railway Station in the typical Jaipuri style - Ala-Gila's process. in Banasthali Vidyapeeth too, this tradition is followed and training is imparted to students every year by Shri Devaki Nandana Sharma. Some murals in Jaipuri and Italian process are also found painted in the campus of University Maharani's College, Jaipur.
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A panel showing Englishman with attendants.
One finds that the old temple paintings are being repainted in oil colours under the patronage of rich Jaina community. The painters belongs to Bhojaka16 family who are active through out India. References 1. Jagat Siromani temple of Amber is one of the most ancient Jaina temple,
Sānwalā Ji Kā Temple of Samvat 1120 has Blue stone idol of God Neminātha.
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There still exists seven Jaina temples in the vicinity of the Sanganer town - Sri Jaini Bābā kā Temple, Sri Jaina Temple Godikhānā, Sri Jaina Temple Patniyan, Dhai-Pari Temple, Shri Digambara Jaina Temple Sangheeji kā (It was constructed in the 10th century), Shri Digambara Jaina Temple Luhadiyan and Digambara Tholiyan Jaina Temple. Lalita Kirti established the Bhattāraka Gaddi in Amber in samvat 1600 c. f. Kasliwal K. C., Jaina community of Amber, Sāngāner and Jaipur cultural Heritage of Jaipur, 1979, p. 154. Though there are about 180 Jaina temples in Jaipur but the temples famous for there arts and architecture are - Terāpanthi Badā Temple, The Digambara Jaina Temple (Patodi), Tholiyan kā Temple, Sir Moriyan Kā Temple, Darogāji Kā Temple, Sanghije Kā Temple, Jaina Temple Badā Diwānaji, Choote Diwānaji Jaina Temple, Badhi-Chāndji Kā Temple, Bairathiyan Jaina Temple, Maruji Jaina temple, Laskara Jaina Temple etc.
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Wall Paintings as Depicted in the Patodi Jaina Temple
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5. The Grantha Bhandāras of Jaina temple (Pațodi) has 2565 manuscripts in
its collection. A complete catalogue has been prepared and published by Digambar Jaina Atiśaya Ksetra Sri Mahaviraji c. f. Jaina P.C., Jaina Grantha
Bhandāras in Jaipur and Nagaur, p. 79. 6. It is said that the foundation was laid on the same day when the foundation
of Jaipur took place in 1727 A. D. c. f. Jaina Biltiwala Gyan Chand, Jaina Temple and Kala ke Kendra, Jaipur Darshana, Jaipur Adhai Sati Samaroha
Samiti, p. 146. 7. The brackets supporting the chajjās are multiple but thin and unimpressive in size. These are devoid of structural grace or architectural grandeur and
e as feeble carriers of the great heritage of the Jaina temple architecture
c. f. A. Ghosh, Jaina Art and Architecture, Vol. II, New Delhi, p. 337. 8. The installation ceremony of Bhattārka Kșemendra Kirti (Samvat 1815 -
1822 ) took place. Mahārājā Sawāi Pratāpa Singh honoured the Bhattārakas by presenting a
palanquin and whisk whenever they entered the city. 10. The list of Jaina Dewans from the time of Mirza Raja Jai Singh (V. Sarvat
1668 to V. Saṁvat 1724), Sawai Madho Singh II (V. Samvat 1918 to V. Sarnvat 1979) can be seen. cf. Bhanawat, Dr. Narendra, Jaina Sanskriti Aur
Rajasthan, Jaipur Ke Dewan, Jaina Pt. Bhanwar Lal, p. 338-339. 11. The frescoes are found painted in Pundrek Ji Ki Haveli, Pratap Narayan Purohit
Ki Haveli, Jagat Siromani Temple, Samodh Ji Ki Haveli, Dushadh Ji Ki Haveli.
Sisodia Rani Palace, Bhojana Shala, Amber, etc. 12. The Jainas regard these places as their Tirthakşetras or tirtha for example
Girnar, Pavapurji etc. 13. The left side wall of the Sanghiji Kā Temple similar type of Pañcakalyāņaka
theme is found painted. In Jaina temple Siromoriyan too the same subject is shown carved in relief of marble and there on painted. In Digambara Jaina Chatsu Kā, Haldiyon Kā Rāstā has two of these subjects painted on both sides of the front wall of the temple ( Marriage of Neminātha and Janmā
bhiseka). 14. Sawai Jai Singh ( 1699-1743 A. D. ) established the system of thirty six
kharakhanas to organise the management and upkeep of the art treasurers, day to day running of the affairs, maintenance of protocol and other para
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Rita Pratap
phernalia, suratkhānā was one of these kharkhanas where the artists prepared paintings. The artists were also assigned the work of decorating the wall of palaces temples of royality. By the time of Sawai Pratap Singh (1778-1803 A. D.) Jaipur had developed its distinctive style and had matured in a fullfledged school, for details see Vaish Rita, Jaipur Shaili Kā Itihāsa, Akrati Raj Lalit Kala Academy, January 1976, Varsh 10, Vol. 3, p. 26. Pratap Rita, Kachhawāhā Rājā Ke Sanrakşana Me Panapi Citrashaili,
Navabharata Times, 26th Aug. 1986, Das A. K. Marg, Vol. XXX, p. 82. 15. In this Ala-Gila process the painting is done on a wet plaster and artist and
mason has to co-ordinate their work to complete a picture in a single stretch. 16. The artists of Bhojaka families were trained in Raja Ravi Verma's style in oil
painting ( 1848-1906 A. D. ).
*C. 24, Hari Marg, Malaviya Nagar,
Jaipur – 17.
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Caitya Paripāți and Ahmedabad of Early 17th Century
Prof. R. N. Mehta*
Introduction
In the search of Indian history and archaeology, the nineteenth century scholars like Alexender Cunningham used the Chinese records of Si-ju-ki by Juan Chuvang, a pilgrim to India. These records of Tirthayātrā or Caitya Paripāti were pursued for the study of Buddhist settlements, but scepticism about Indian records of Tirthayātrā was also known to exist.
Fortunately various studies of Tirthayātrā records of Paurānic traditions have proved their value and are being used in the study of settlements. The Tirthas noted in Padmapurāna, in Ahmedabad area proved that their record was factual with the use of old mythological symbols.
Encouraged by this experience of Paurānic record, it was thought to study some Jaina record for the city. Fortunataly a good caitya paripāti written in samvat 1667, Māgha 5th, Sunday was available. Caitya Paripāti
This caitya paripati of Lalitasāgara, a disciple of Gayāsāgara Sūri is preserved in a manuscript in the L. D. Institute of Indology. The attention of the present author was drawn towards it by Laxamanabhai Bhojaka. He helped the author by transcribing the text and even identifying some places. This was a great help in the programme of the study of History of Ahmedabad, undertaken by the Department of History and Culture of Gujarat Vidyapith.
The present paper summarises the salient aspects of the work and some important results. The caitya paripāți of Lalitasāgara begins with salutation to Sarasvati and the teacher and recommends Caitya Vandanā in the Jaina prāsādas of Ahmedabad.
The text begins with the Mahāvira temple near Fatah Mehta Pole near Dhikva. This is the present Mahāvira temple on Gandhi road near Patasā ni Pole. Then different Jaina temples with the number of images are described.
While describing the location of these temples, the author clearly mentions that there were sixty temples in the city and twelve under ground temples. In the
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Prof. A. N. Mehta
suburban area the author notes thirty two temples, six underground ones and thirty eight Bhuvanas.
The areas in the city begin from the Mahāvira temple noted above, and include Dosiwādā, Pataki Joga Gadhi, Hājā Patel ni Pole, Timla Pada, Pataka Raja Mehta, Sanghavi Kalani Pole, Pataka Dhānā Suthar, Patak Jamalpur, Patak Devasi Saha, Panjari pole, Patak Kothari, Patak Ksetrapāla, Ghachi ni Pole, Patak Gajipur, Jalalpur.
The suburban areas are Asaul, Elampur, Navapura, Rajpur, Premapur, Sarangpur, Rupapari, Kalupur, Doshi Jasa ni Pole, Dhana Mehta ni Pole, Bibipur, Habadipur, Sakandrapur, Najampur, Baghinpur, Raktapur, Naroda.
The suburbs on the western side of Sabarmati are noted as Vadijapur, Kashampur, Usmanpur, Vajirpur, Shekhpur, Maedalpur, Kochab.
The text runs in fifty five units of Gujarati verse. The last verse is a colophon and gives the information about the author, the period of composition etc. Comments
This is an important document for the study of the Jaina Prāsādas, icons in particular and the history of city in general. Significantly the Mahāvira Prasad noted in the text exists at the place noted in the text. Its wooden structure was pulled down in the last decade of the 19th century and replaced by the present day stone temple. The stone work reflects the older wooden order, but raises also an issue of a possible renovation after the period of Jahāngira, during whose rule the Paripāti is composed. Such examples could be multiplied but they are not discussed in this small paper due to the time factor.
The urban analysis on the basis of this Paripāti suggests the Jaina nuclii in the city and also suggests the main area of the city. The urban study of Ahmedabad indicates that the administrative and religious centre of sultanas extended from Bhadra to the Jami Mosque. The other areas like the old Ashawal and the newly developed places were to the east of Jami Mosque. This is amply supported by this Paripāti, which indicates that the nucleus of habitation specially of the Jainas was in the area of Fatah Mehta Pole, Zawari ni Pole, Panjarā Pole, Dhānā suthär ni Pole, etc. The situation has not changed within last three hundred and eighty one years.
But, the suburban areas show continuity and change. Some suburbs like Vadaj, Usmanpur, Kocharab exist, but others like Kashimpur, Vajirpur have disap
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Caitya Paripati and Ahmedabad of Early Seventeenth Century
peared and new use of these areas have developed. Similarly some Tirthas also have disappeared with the passage of time.
However, when a longer view of the growth of the Jaina Tirthas is taken by the analysis of the new Paripāti and the building activity of the temples, the progress of Jaina tirthas becomes clear.
In the Jaina caitya paripāti of samvat 2035 ( 1978 A. D. ) one records 136 temples, 67 associated temples and 106 house temples. These figures show the rise of about three times within the period of Lalitsāgara and the present. Conclusions
From the study of the Paripāți of Lalit sāgara as well as the Sthala Puranas like Nagar Khand, Kaumārika Khand etc., that deal with the Tirthas of our country, it is clear that they preserve their tradition, history etc. When dated Paripātis are considered as a source of history, they are as effective as the diaries of Chinese travellers and other travelogues. The difference being, the Paripāti gives detailed information of the Tirthas. When the anonymous and undated literature of Tirthayātra is used, it is also found to be equally effective after an analysis of its chronology on the basis of internal and external examination of the text.
*Retired Professor and Head Department of Ancient History,
Gujarat Vidyapitha,
Ahmedabad.
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