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प्रा० डॉ० एच० यु० पण्डया हैं।' औपपातिक सूत्र में पाँच कक्षाएँ हैं-८, १२, १६, २४ और ३१ ग्रास प्रमाण । वहाँ ग्रास को कुक्कुट-अंड-प्रमाण बताया है, जिस पर विश्वामित्र कल्प का असर है। मुनि आपस्तंब गहस्थ के लिए ३२ ग्रास और मुनि के लिए ८ ग्रास भोजन का विधान करते हैं। इससे स्पष्ट है कि जैन परंपरा कुछ अधिक उदार है।
औपपातिक सूत्र (३०) में एक पात्र, एक वस्त्र और एक उपकरणरूप द्रव्य अवमौदर्य को (जो अन्न से संबंधित नहीं है ) भी अंतर्भूत करके अवमौदर्य के अर्थ को और विस्तृत किया था। क्रोध, मान, माया, लोभ, शब्द और कलह की अल्पता को भाव अवमौदर्य कह कर इस तप का संबंध मन से जोड़ दिया, एवं अवमौदर्य के स्थूल अर्थ को चित्त शुद्धि की दिशा में आगे बढ़ाकर सूक्ष्म किया। भाव अवमौदर्य पर गीता का असर है ऐसा अनुमान कर सकते हैं क्योंकि गीता भी बाह्याचार की अपेक्षा आंतर शुद्धि पर अधिक बल देती है।
३. वृत्तिपरिसंख्यान-इसका ध्येय आशानिवृत्ति है। औपपातिकसूत्र में अभिग्रहा संबंधी ३० प्रभेद बताये हैं। मनुस्मृति भी यति को भिक्षा के बारे में हर्ष-शोक रहित रहने को कहती है।"
४. रस परित्याग-उमास्वाति स्पष्ट करते हैं कि मद्य, मांस, मधु, मक्खन आदि रख विकृतियों का ( वृष्य अन्न का ) त्याग आवश्यक है, जबकि मनुस्मृति में गाँव में लभ्य चावला यव आदि आहार का त्याग करके केवल शाक, मूल एवं फल के आहार का विधान है। यहां दोनों परंपराओं का ध्येय एक है, फिर भी जैन मत कुछ उदार सा दीखता है।
५. विविक्त शय्या-आसन-जहाँ यतिधर्म में बाधा न पहुँचे ऐसा एकान्तस्थान वा विविक्त शय्यासन है, जिसकी तुलना गीता सम्मत एकान्त देश का सेवन एवं जनसंपर्क में अरुणि ( ज्ञान का लक्षण ) के साथ की जा सकती है। औपपातिक सूत्र में युति संलीनता के चा. प्रभेदगत एक प्रभेद विविक्त शय्यासन है। वहाँ इन्द्रिय प्र०, कषाय प्र० और योग प्र० काकी अंतर्भाव करके बाह्यतप के अर्थ को अधिक विस्तृत किया है। इन्द्रिय प्र० गीता संमत इन्द्रिय के विषय में वैराग्य (ज्ञान का लक्षण ) और इन्द्रियों का अनासक्ति पूर्वक उपयोग है। क्रोधा कषाय प्र० की तुलना गीता संमत काम, क्रोध एवं लोभ के त्याग के साथ की जा सकती है। योग प्र० का एक प्रभेद मनोयोग प्र० गीता संमत मानसिक तप है; वचोयोग प्र० गीता संम
१. तत्त्वार्थसूत्र ९-१९ स्वोपज्ञभाष्य २. औपपातिकसूत्र ३० । कुक्कुटाण्डप्रमाणं तु ग्रासमानं विधायते । विश्वामित्रकल्प उद्धृत आहिर
सूत्रावलि पृ० २११ ३. अष्टौ ग्रासा मुनेर्भक्ष्याः षोडशाऽरण्यवासिनः ।
द्वात्रिंशत्तु गृहस्थस्य ह्यमितं ब्रह्मचारिणः ॥ आपस्तंब उद्धृत आन्हिकसूत्रावलिः २१५ ४. मनुस्मृति ६-५७ ५. तत्त्वार्थसूत्र ९-१९; मनुस्मृति ६-३, ५ ६. तत्त्वार्थसूत्र ९-१९, सर्वार्थसिद्धि ९-१९; भगवद्गीता १३-१०
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