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वाविक तप है और काययोग प्र० गीता सम्मत स्थितप्रज्ञ का एक लक्षण है। दोनों में कछुए का उदाहरण दिया है। अतः हमें स्वीकार करना होगा कि औपपातिक सूत्रगत इस निरूपण का उद्देश्य आभ्यंतर तप की ओर गति करते हुए व्यापक एवं सूक्ष्म अर्थ करना है।
६. कायक्लेश-जैनाचार्यों ने कायक्लेश के विभिन्न उदाहरण दिये हैं, जिनमें से कुछ उदाहरण वैदिक परंपरा से मिलते-जुलते हैं जैसेजैन परंपरा
वैदिक परंपरा १. वीरासन, उत्कडुकासन,
.- पातंजल योग एवं हठयोग संमत एकपार्श्वशयन दंडायतशयन
योगासन २. आतापन
- सूर्यताप ३ अप्रावृत
- कौपीनवान् ४. निरावरण शयन
- अनिकेत ५. वृक्षमूले निवास
- वृक्षमूले निवास (ख) आभ्यंतर तप
उमास्वाति ने आभ्यंतर तप के छः भेदों के प्रत्येक के अनुक्रम से ९, ४, १०, ५, २ और ४ प्रभेद बताकर अर्थ को अधिक विस्तृत किया है, जबकि औपपातिक सूत्र में प्रायश्चित्त और विनय के सिवाय अन्य प्रभेद समान हैं। वहाँ प्रायश्चित्त के १० और विनय के ७प्रभेद बताये हैं इतना ही नहीं, आभ्यंतर तप के इन सभी प्रभेदों के भी बहुत से प्रभेद बताये हैं, जिनकी विचारणा यहाँ अप्रासंगिक है, यहाँ केवल मुख्य छः भेदों की ही तुलना अभिप्रेत है।
१. प्रायश्चित्त -अकलंक ने प्रायश्चित्त शब्द के दो अर्थ दिये हैं--(क) प्रायः साधुलोकः तस्य यस्मिन् कर्मणि चित्तम् इति । (ख) प्रायः अपराधः, तस्य चित्तं शुद्धिः इति । इनमें से दसरा अर्थ वैदिक परंपरा में भी है, जैसे-प्रायः पापं समुद्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् ।' हेमाद्रि एक अन्य अर्थ भी बताता है कि प्रायो नाम तपो प्रोक्तं चित्तं निश्चय इष्यते । अकलंक ने प्रथम अर्थ जैन विचारधारा के अनुकूल ( प्रायः = साधुलोकः ) दिया है ऐसा मानना पड़ेगा। प्रायश्चित्त के नौ प्रभेदगत आलोचन, प्रतिक्रमण और तदुभय वैदिक परंपरा सम्मत पाप प्रकटीकरण एवं अनुतापन है।' १. भगवद्गीता १३।८; ३।७, १६।२१, २२, १७।१५; १६ २. औपपातिक सत्र ३० । यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा
प्रतिष्ठिता। भगवद्गीता २।५८ ३. तत्त्वार्थसूत्र ९।१९; त. सर्वार्थसिद्धि ९।१९; तत्त्वार्थवार्तिक ९।१९ ४. मनुस्मृति ६।२६; ४३; ४४ भगवद्गीता १२-१९ ५. वही ६. वही ७. तत्वार्थसूत्र ९।२१ से ४६; औपपातिक सूत्र ३० ८. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२२।१ ९. शब्दकल्पद्रुम १०. संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी-आप्टे ११. ख्यापनेनानुतापेन. मनुस्मृति ११।२२७
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