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जैन धर्म में हेतु लक्षण
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उत्तरचर हेतु-उत्तरचर हेतु में तो फिर भी यह दोष नहीं आता है क्योंकि उसमें साध्य के होने पर ही हेतु होता है, उसके अभाव में नहीं अर्थात् शकटोदय हेतु के पूर्व कृत्तिकोदय साध्य विद्यमान रहता है।
सहचर हेतु-सहजर वस्तुओं में कौन साध्य है तथा कौन हेतु, यह निश्चित नहीं रहता है, बस उसकी सहचरिता के कारण एक के द्वारा दूसरे का अनुमान कर लिया जाता है। यथा आम्रफल में रूप है क्योंकि रस है। इस उदाहरण में रस द्वारा रूप का अनुमान किया गया है किन्तु सहचरिता के कारण रूप द्वारा रस का भी अनुमान किया जाना संभव है इस प्रकार कौन साध्य है एवं कौन हेतु, इस प्रकार की निश्चितता नहीं होती है तथापि एक के अभाव में दूसरे का अभाव दृष्टिगोचर होने से इसे हेतु रूप में स्वीकार करना हेतु लक्षण से अव्याप्त नहीं रहता।
माणिक्यनंदि ने यद्यपि सहभाव एवं क्रमभाव रूप से अविनाभाव के दो भेद करके सहभाव अविनाभाव में सहचर, व्याप्य एवं व्यापक हेतुओं को समाविष्ट करने का प्रयास किया है तथा क्रमभाव अविनाभाव में कार्य, कारण, पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतुओं को समायोजित करने का प्रयत्न किया है । तथापि कारण एवं पूर्वचर हेतु में इसकी सफलता साध्याविनाभावित्व नियम का अपकथन किये बिना संभव नहीं है।
जैन दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत अन्यथानुपपन्नत्व अथवा अविनाभावित्व लक्षण यद्यपि जैनेतर दार्शनिकों द्वारा गृहीत विपक्षव्यावृत्ति रूप व्यतिरेक से साम्य रखता है तथापि जैन दार्शनिक इसी एक लक्षण द्वारा अन्वय एवं व्यतिरेक दोनों रूपों का ग्रहण कर लेते हैं। जैन दार्शनिकों ने साध्याविनाभावित्व लक्षण से तथोपपत्ति रूप भी फलित कर लिया है। यही कारण है कि जैन दर्शन में हेतु प्रयोग दो प्रकार का प्रतिपादित किया जाता है-अन्यथानुपपत्ति एवं तथोपपत्ति ।' साध्य के अभाव में हेतु का अभाव अन्यथानुपपत्ति प्रयोग है। तो साध्य के होने पर ही हेतु का होना तथोपपत्ति है। यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि न्यायदर्शन में जहाँ अन्वय प्रयोग में हेतु के होने पर साध्य का होना निश्चित किया जाता है वहाँ जैनदर्शन में तथोपपत्ति प्रयोग में साध्य के होने पर ही हेतु का होना निश्चित बतलाया जाता है। व्यतिरेक प्रयोग एवं अन्यथानुपपत्ति प्रयोग में पूर्ण साम्य है।
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सहक्रमभाव नियमोऽविनाभावः । सहचारिणोः व्याप्यव्यापकयोश्च सहभाव:
पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः।- परीक्षामुख, ३।१६, १७, १८ २. सिद्धसेन, न्यायावतार कारिका १७--
__ "हेतुस्तथोपपत्त्या वा प्रयोगोऽन्यथापि वा।
द्विधान्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ।। सत्ये प्रमाणनयतत्त्वालोक-३।३१"सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्तिः असति साध्ये हेतोरनुपपत्ति रेवाऽन्यथानुपपत्तिः ।
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