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________________ जैन शिक्षा दर्शन में गुरु की अर्हताएँ गुरु के लक्षण विद्यार्थी के लिए सद्गुरु का होना अत्यन्त आवश्यक होता है। सद्गुरु के अभाव में विद्यार्थी कितनी ही कुशाग्र बुद्धि का हो, वह उसी प्रकार प्रकाशित नहीं हो सकता जिस प्रकार बिना सूर्य के चन्द्रमा । किन्तु प्रश्न उपस्थित होता है कि सद्गुरु की संगति कैसे की जाए, उसकी क्या पहचान है ? उसके लक्षण क्या हैं ? जिसे देखकर यह समझा जाए कि यह सद्गुरु है या असद्गुरु । आदिपुराण में सद्गुरु के निम्नलिखित लक्षण बताये गये हैं - - १. सदाचारी, २ स्थिरबुद्धि, ३. जितेन्द्रियता, ४. अन्तरंग और बहिरंग सौम्यता, ५. व्याख्यान शैली की प्रवीणता, ६ सुबोध व्याख्याशैली, ७. प्रत्युत्पन्न मतित्व, ८. ताकिकता, ९. दयालुता, १० विषयों का पाण्डित्य, ११. शिष्य के अभिप्राय को अवगत करने की क्षमता, १२. अध्ययनशीलता, १३. विद्वत्ता, १४ वाङमय के प्रतिपादन की क्षमता, १५. गम्भीरता, १६. स्नेहशीलता, १७. उदारता, १८. सत्यवादिता, १९. सत्कुलोत्पन्नता, २०. अप्रमत्तता, २१. परहित साधन की तत्परता आदि । गुरु की अर्हताएं जीवन के निर्माण में गुरु एक महान् विभूति के रूप में प्रस्तुत होता है। परन्तु उस महान विभूति का योग्य होना भी आवश्यक है। क्योंकि यदि गुरु ही अयोग्य होगा तो शिष्य योग्य कैसे बन सकता है । अतः व्यवहार-सूत्र में आचार्य पद को प्राप्त करने की योग्यताओं के विषय में कहा गया है कि जो कम से कम पाँच वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला, श्रमणाचार में कुशल, प्रवचन में प्रवीण, प्रज्ञाबुद्धि में निष्णात, आहारादि के उपग्रह में कुशल, अखण्डाचारी, सबल दोषों से रहित, भिन्नता रहित आचार का पालन करने वाले, निःकषाय चरित्र वाले, अनेक सूत्रों और आगमों आदि में पारंगत श्रमण आचार्य अथवा उपाध्याय पद को प्राप्त करने के योग्य हैं। - आचार्य के गुणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि आचार्य को संग्रह-अनुग्रह में कुशल, सूत्र के अर्थ में विशारद, कीर्ति से प्रसिद्धि को प्राप्त तथा चरित्र में तत्पर होना चाहिए। साथ ही ग्राह्य और आदेय वचन बोलने वाला, गम्भीर, दुर्धर्ष, शूर, धर्म की प्रभावना करने वाला, क्षमागुण में पृथ्वी के समान, सौम्यगुण में चन्द्रमा के समान और निर्मलता में समुद्र के समान होना चाहिए।" आचार्य के छत्तीस गुण __ आचारत्व आदि आठ गुण, अनशनादि बारह तप, आचेलक्यादि दशकल्प और सामा१. आदिपुराण १.१२६-१३३, पृ० १९ २. व्यवहारसूत्र ३.५ ३. संगहणुग्गहकुसलो सुत्तत्थविसारओ पहियकित्तो। किरिआचरणसुजुतो गाहुयआदेज्जवयवो य ॥ --मूलाचार १५८, पृ० १३३ ४. गंभीरो दुहरिसो सूरो धम्मप्पहावणासीलो। खिदिससिसायरसरसो कमेण तं सो दु संपत्तो ॥ .-मूलाचार १५९, पृ० १३३-१३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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