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जैन शिक्षा दर्शन में गुरु को अर्हताएँ
विजय कुमार जैन दर्शन ने हमारे देश की शिक्षा के स्वरूप-निर्धारण में बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उस योगदान के पीछे हमारे जैन आचार्यों और गुरुओं की अहम भूमिका रही है। प्राचीनकाल में गुरु को सामाजिक विकास का सूत्रधार माना जाता था। समाज की आकांक्षाओं, आवश्यकताओं और आदर्शों को व्यावहारिक रूप में परिणत करने का कर्तव्य गुरु को ही निभाना पड़ता था।
भारत की इस पावन धरती पर महान् ज्ञानी, ध्यानी तथा ऋषि आदि उत्पन्न हुए जिन्होंने अपने ज्ञान की दिव्य ज्योति से व्यक्ति और समाज में व्याप्त अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने का प्रयास किया। इसी कारण जब भी अध्यापक अथवा अध्यापन के विषय में चर्चा होती है तो किसी न किसी रूप में हम अपने उन प्राचीन गुरुओं को आदर्श रूप में स्वीकार व हैं। चाहे वह अध्यापन कार्य का विषय हो या चरित्र अथवा ज्ञान के आविष्कार का विषय हो सभी क्षेत्रों में हमें गुरु की आवश्यकता पड़ती ही है। अतः जीवन को सार्थक बनाने में गुरु का सर्वोच्च स्थान है। 'गुरु' का शाब्दिक अर्थ
_ 'गुरु' शब्द की व्युत्पत्ति 'ग' धातु में 'कु' और 'उत्व' प्रत्यय लगने से होती है । 'गणाति उपदिशित धर्म गिरति अज्ञानं वा गुरुः' । अर्थात् जो अज्ञान को नष्ट कर ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है, अन्तर्मन में धर्म की ज्योति प्रज्ज्वलित करता है, धर्म का उपदेश देता है, वही गुरु है। व्याकरण के अनुसार 'गृणातीति गुरुः', जो 'ग' निगरणे धातु से निष्पन्न है और जिसका अर्थ होता है-'जो भीतर से कुछ निकालकर दे वह गुरु है।'
___ इस प्रकार 'गुरु' शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ से 'गुरु' एक धर्मोपदेशक तथा पथप्रदर्शक दृष्टिगोचर होते हैं । किन्तु आजकल सामान्यतया 'गुरु' शब्द का अर्थ शिक्षक से लिया जाता है। जो हमें स्कूल या कालेजों में किसी विषय का विधिवत् ज्ञान कराता है। जैन ग्रन्थों में ऐसे गुरु : के लिए आचार्य, बुद्ध, पूज्य, धर्माचार्य, उपाध्याय आदि शब्दों के भी प्रयोग देखने को मिलते. हैं । आचार्य को परिभाषित करते हुए अभयदेव सूरि ने कहा है जो सूत्र और अर्थ दोनों के ज्ञाता हों, उत्कृष्ट कोटि के लक्षणों से युक्त हों, संघ के लिए मेढ़ि के समान हों, जो अपने गण, गच्छ अथवा संघ को समस्त प्रकार के संतापों से पूर्णतः विमुक्त रखने में सक्षम हों, तथा जो अपने शिष्यों को आगमों के गुढ़ार्थ सहित वाचना देते हों, उन्हें आचार्य कहते हैं।'
१. भगवतीसूत्र ११११ (अभयदेववृत्ति)
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