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नयचक्र में उद्धत आगम-पाठों की समीक्षा
जितेन्द्र शाह
द्वादशार नयचक्र एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ है । जिसके कर्ता आचार्य मल्लवादी ने (छठीं उत्तरार्ध) एवं टीकाकार आचार्य सिंहसूरि ने ( सातवीं उत्तरार्ध ) कुछ आगमों के वाक्यों को उद्धृत किया है । नयचक्र मूल एवं टीका में उद्धृत आगम पाठों की वर्तमान में प्रसिद्ध आगम पाठों से तुलना करने पर भिन्नता पाई जाती है । जिसका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत लेख में किया गया है ।
नयचक्र मूल में आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ) के पाठों को उद्धृत किया गया है । टीका में आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, नंदीसूत्र, जीवाभिगमसूत्र, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वारसूत्र आदि जैनागमों के जाक्यों को उद्धृत किया गया है । जिसमें पाठक्रमों की भिन्नता के अलावा भाषाकीय भिन्नता पाई जाती है । यद्यपि यह सत्य है कि वर्तमान काल में पाये जाने वाले आगमों के भी अनेक पाठभेद प्राप्त होते हैं तथापि यह सब पाठ-भेद प्रायः भाषाकीय परिवर्तनों के आधार पर ही है ।
जागृत, सुप्त, सुषुप्त एवं तुरीय – ये चार अवस्थाएँ इनका निपरूण करते हुए नयचक्र द्वितीय विधि अर में आचारांग के एक वाक्य को उद्धृत किया गया है, जो इस प्रकार हैसुत्ता अमुणी सया, मुणीणो सया जागरंति । जबकि वर्तमान प्राप्त आगम में --
'सुत्ता अमुणी, मुणिणो सययं जागरंति' पाठ मिलता है । उक्त दोनों पाठों की तुलना करने पर अन्तर पाया जाता है । उपलब्ध आगम पाठ में प्रथम सया पद का लोप हो गया है और दूसरे सया पद की जगह सययं पद मिलता है । इसी प्रकरण में टीकाकार सिंहसूरि ने भगवतीसूत्र का एक वाक्य उद्धृत किया है, यथा
णो सुत्ते सुमिणं पासति, सुत्त जागरियाए वट्टमाणे सुमिणं पासति । वर्तमान काल में प्राप्त व्याख्याप्रज्ञप्ति में -
'गोयमा ! नो सुत्ते सुविणं पासइ, नो जागरे सुविणं पासइ, सुत्त जागरे सुविणं पासइ ।' - यह पाठ मिलता है जिसमें 'नो जागरे सुविणं पासइ', पाठ अधिक है तथा नयचक्रके वट्टमाणे पद का लोप हो गया है । सुत्त जागरियाए के स्थान पर सुत्तजागरे पाठ मिलता है । सुमिण के स्थान पर सुविण मिलता है । आचार्य हेमचन्द्र ने आठवें अध्याय में इ: स्वप्नादौ १ / ४६ सूत्र से स्वप्न आदि शब्दों के आदि अ का इ करके सिविण या सिमिण शब्द को साधा है उक्त सूत्र की वृत्ति में 'आ उकारोऽपि' कहकर सुमिण शब्द को आर्ष माना है । इससे यह सिद्ध होता है कि सुमिण शब्द अधिक प्राचीन है । पासति के स्थान पर पासइ पाठ मिलता है जिसमें क्रिया प्रत्यय ति में से 'त' का लोप पाया जाता है । व्यंजन का लोप होना महाराष्ट्रीय प्राकृत का लक्षण है, न कि प्राचीन प्राकृत का ।
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