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रज्जन कुमार भी कुछ ऐसी ही अवस्थाओं में समाधिमरण ग्रहण करने के विधान का वर्णन मिलता है। ऐसी सुनिश्चित देहादिक विकारों के होने पर अथवा ऐसे कारण उपस्थिति हो जाने पर जिससे यह शरीर नहीं ठहर सकता तो समाधिमरण व्रत ग्रहण करने पर मोक्ष या कैवल्य की प्राप्ति होती है।
समाधिमरण का व्रत बलपूर्वक या किसी के भय से नहीं की जाती है यह व्रत सर्वदा व्यक्ति, साधक, क्षपक (मुनि, व्यक्ति जो समाधिमरण ग्रहण करता है) के स्वतः प्रेरणा पर निर्भर है । वह निश्चय करता है कि समाधिमरण का व्रत ग्रहण करें तथा धर्म की रक्षा के लिये अपने शरीर का त्याग करे । "सर्वार्थसिद्धि" तथा "राजवार्तिक" दोनों ही ग्रंथों में बलपूर्वक समाधिमरण कराने का निषेध किया गया है। इन ग्रंथों के अनुसार समाधिमरण बलात् नहीं कराई जा सकती है । प्रीति के रहने पर ही यह व्रत पूर्ण होता है।'
संयम की रक्षा नहीं होने पर व्यक्ति समाधिमरण का व्रत ग्रहण करता है। लेकिन सिर्फ संयम की रक्षा के लिये ही प्राण त्याग करना समाधिमरण नहीं कहलाएगा। संयम रक्षा के साथ-साथ धर्म की रक्षा भी अनिवार्य है। धर्म की रक्षा से तात्पर्य है- ब्रह्मचर्य के पालन में बाधा, शरीर के सभी अंगों का काम नहीं करना, उपसर्ग, दुभिक्ष आ जाने पर भयंकर कष्ट होना
और इन कष्टों को नहीं सह पाना । इसके अलावा ऐसी स्थिति पैदा हो जाना कि प्राण रक्षा संभव न हो। इन्हीं परिस्थितियों में संयम की रक्षा के लिये प्राण त्याग किया जा सकता है और यह प्राण त्याग ही समाधिमरण कहलाएगा। इसी का समर्थन जैन ग्रंथों और जैन मुनियों के द्वारा संभव है।
समाधिमरण व्रत ग्रहण करने के पहले कषायों को क्षीण करना आवश्यक है। कषायों को क्षीण करने के लिये समाधिमरण व्रत ग्रहण करने वाला साधक अपने शरीर को कृष करता है। शरीर को कृष करने के प्रयास में वह नाना प्रकार के उपायों का प्रयोग करता है। "भगवती आराधना"२ के अनुसार साधक सर्वप्रथम अनशन करके तप करने का समय बढ़ाकर शरीर को कृष करता है। वह एक नियम लेता है और उसी के अनुसार एक दिन उपवास तदुपरांत बृत्ति संख्यान आदि अनशनों को करते हुए शरीर को कृष करता है। साधक नाना प्रकार के रस वजित, अल्प, रूक्ष, आचाम्ल भोजन अपने सामर्थ्य के अनुसार लेकर शरीर को कृष करता है। अगर साधक की शारीरिक शक्ति अभी काफी ज्यादा रहती है तो वह बारह भिक्षु प्रतिमाओं को स्वीकार करके अपने शरीर को कृष करता है।
जैन मुनि, श्रावक, व्रती की दृष्टि में आत्मा ( आत्मिक गुणों) का अधिक महत्त्व है और शरीर का कम । शरीर या भौतिक दृष्टि को गौण और आध्यात्मिक दृष्टि को मुख्य उपादेय माना जाता है। अतः जैन मुनि उपसर्गादि संकटावस्थाओं में जो साधारण जनों को १. न केवलिमिन सेवनं परिगृह्यते कि तहिप्रीत्यर्थोऽपि । यस्यादसत्या प्रौती बलांत सल्लेखना कार्यतो ।।
७।२२।४१ सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक ७।२२।४।५५०।२६ २. भगवती आराधना गाथा २४६-४९
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