SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधिमरण जीवन से भागना नहीं रज्जन कुमार जैन दर्शन के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य है आत्मा के सत्य स्वरूप की प्राप्ति । आत्मा के सत्य स्वरूप को पहचानने लिए साधना की आवश्यकता होती है। आत्मा के स्वरूप पर पड़े कर्मों के आवरण को क्षीण करते हुए आगे बढ़ते जाना साधना की यात्रा है। "उवासगदसाओ" में कहा गया है कि व्यक्ति अपने शरीर की परिपालना सिर्फ इसीलिए करता है कि वह उसके धर्मानुष्ठान में सहायक है।' यह निर्विवाद सत्य है कि न कोई सदा युवा रहता है और न कोई अमर है । युवा वृद्धत्व को प्राप्त करता है, स्वस्थ रुग्ण हो जाता है, सबल दुर्बल हो जाता है। रोग और दुर्बलता के कारण व्यक्ति अपनी धार्मिक क्रियाएँ ( सभी तरह की क्रियाएँ ) करने में असमर्थ हो जाता है । इस परिस्थिति में मन में कमजोरी आ जाती है, उत्साह क्षीण होने लगता है, जीवन भार स्वरूप लगने लगता है। ऐसे समय में जैन दर्शन व्यक्ति को कए मार्ग दर्शित करता है। वह मार्ग है "समाधिमरण" या "सल्लेखना"। समाधिमरण में व्यक्ति शांतचित्त एवं दृढ़तापूर्वक शरीर के संरक्षण का भाव छोड़ देता है। इसके लिए वह आहारादि का त्याग कर निर्विकल्प भाव से एकान्त और पवित्र स्थान में 'आत्म चिन्तन करते हुए मृत्यु के आने का इन्तजार करता है। यही समाधिमरण कहलाता है। इसे सल्लेखना, संथारा, संन्यासमरण, अंतक्रियामरण, मृत्युमहोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। यद्यपि कुछ लोगों ने समाधिमरण को जीवन से भागने वाला व्रत बतलाया है, वस्तुतः ऐसा है नहीं। समाधिमरण जीवन से भागना नहीं अपितु साहसपूर्वक मृत्यु का सामना करना है। सल्लेखना के स्वरूप पर विचार करने पर इस बात की सत्यता का बोध हो जाता है। प्रसिद्ध ग्रन्थ "रत्नकरंडकश्रावकाचार के अनुसार-समाधिमरण का व्रत भयंकर भिक्ष, अकाल, उपसर्ग आदि की स्थिति में, वृद्धावस्था में असाध्य रोग हो जाने की स्थिति में धर्म की रक्षा के लिये शरीर त्याग कर पूरा किया जाता है। "राजवातिक" के अनुसार जरा, रोग, इन्द्रिय व शरीर बल की हानि तथा षडावश्यक का नाश होने की स्थिति में समाधिमरण का व्रत ग्रहण किया जाता है। 'सागरधर्मामृत'४ में १. उवासगदसाओ पृ० ५४ २. उपसर्गे दुभिः जरसि रुजायां च निष्प्रतिकारे । धर्मायतनु विमोचन भाहुः सल्लेखना मार्या: ।। ८११ रत्नकरंड श्रावकाचार ३. जरा रोगेन्द्रिय हानि भिरावश्यक परिक्षये ७।२२ राजवातिक ४. देहादिवैकृतैः सम्यग्निभित्तैश्च सुनिश्चते। मृत्युवाराधनामग्नयतेन्द्ररेन तत्पद ।।८।१०॥ सागरधर्मामृत - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy