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एवं संस्कृति के विभागों में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत और पालि भाषाओं की जानकारी आवश्यक मानी जानी चाहिए। इसी प्रकार भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन और हिन्दी, बंगला, गुजराती आदि भाषाओं के विभागों में भी प्राकृत भाषाओं का ज्ञान आवश्यक रूप से होना चाहिए, क्योंकि उसके अभाव में भाषा के विकास की सही प्रक्रिया को समझ पाना कठिन होता है । यह सब इसलिए आवश्यक है कि बिना इसके हम सही रूप में न तो भारतीय संस्कृति के धरोहर को समझ पायेंगे और न अपनी संस्कृति के जीवन मूल्यों को परख पायेंगे । आज प्राकृत भाषा और जैन धर्म एवं दर्शन के अध्ययन की उपेक्षा क्यों है ? इस प्रश्न का उत्तर सहज नहीं । हमें इसके लिये आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के इतिहास तक जाना होगा । जैन धर्म की प्रकृति का विचार करना होगा । भगवान् महावीर और बुद्ध समकालीन थे। किन्तु दोनों की प्रकृति में जो भेद देखा जाता है वही भेद जैन और बौद्ध धर्म में भी है । जैन धर्म साधकों का धर्म है । उसमें प्रचार गोण है । बौद्ध धर्म साधकों का धर्म हो कर भी साधना के समान ही उसमें प्रचार का भी महत्व है । भगवान् महावीर ने तीर्थङ्कर बन कर विहार करके जैन धर्म का प्रचार किया यह सच है । किन्तु प्रचार में उन्होंने इस बात पर विशेष ध्यान दिया कि साधक अपनी साधना में रत रहे, दुनिया से दूर रहे और अपना कल्याण करे। किंतु उनका यह उपदेश नहीं रहा कि धर्म प्रचार के कार्य में उतना ही ध्यान दे जितना अपनी साधना में । यही कारण है कि त्रिपिटक में बुद्ध के 'चरथ भिक्खवे चारिकां बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' जैसे वाक्य मिलते हैं किन्तु जैन आगमों में ऐसे वाक्य नहीं मिलते। परिणाम स्पष्ट है कि बुद्ध के समय का एक प्रभावशाली धर्म होकर भी जैन प्रचार की दृष्टि से पिछड़ गया । स्वयं पिटक इस बात के साक्षी हैं कि जहाँ कहीं बुद्ध गये प्रायः सर्वत्र बड़े-बड़े नगरों में प्रभावशाली निर्ग्रन्थ उपासकों से उनका मुकाबला हुआ और अन्त में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा |
प्रचार को प्राधान्य नहीं होने से जैन धर्म बौद्ध धर्म के समक्ष अपना प्रभाव कायम न रख सका किन्तु साहित्य निर्माण की दृष्टि से भी यह पिछड़ गया यह बात नहीं है । त्रिपिटक और उनकी अट्ठकथा के अतिरिक्त पालि में अन्य बौद्ध साहित्य नहीं बना है जब कि प्राकृत में जैन साहित्य निर्माण की अविच्छिन्न धारा बीसवीं शताब्दी तक कायम रही है । बौद्ध धर्म का महायानी साहित्य संस्कृत में लिखा गया और जैन धर्म का भी साहित्य संस्कृत में लिखा गया । चौदहवीं शताब्दी के बाद बौद्ध संस्कृत साहित्य प्रायः नहीं लिखा गया जब कि जैन संस्कृत साहित्य का निर्माण आज भी हो रहा है । बौद्ध साहित्य सीलोनी, तिब्बती, चीनी आदि भारतीयेतर भाषाओं में अपने प्रचार क्षेत्र के कारण लिखा जाता रहा जब कि जैन साहित्य अपभ्रंश और तज्जन्य प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में मर्यादित रहा ।
जैन और बौद्ध दोनों धर्मों का प्रतिवाद करने के लिए वैदिक विद्वान् सन्नद्ध थे किन्तु अपनी संस्कृतभक्ति और अपभ्रंशद्वेष के कारण जैन आगमों और पालि पिटकों से वैदिक विद्वान् प्रायः अनभिज्ञ ही रहे । ऐसा अभी एक भी प्रमाण देखने में नहीं आया जिससे स्पष्ट सिद्ध हो कि प्राचीन काल के वैदिक विद्वानों ने प्राकृत या पालि के ग्रन्थ देखकर उनकी विस्तृत आलोचना की हो । वैदिकों द्वारा आलोचना तब ही संभव हुई जब जैन और बौद्ध ग्रन्थों का निर्माण संस्कृत में होने लगा ।
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