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________________ कवि हरिराजकृत प्राकृत मलयसुंदरीचरियं ५७ जब मलया और महाबल का बहुत दिनों के बाद संयोग हुआ तो उन्हें अतिशय आनन्द हुआ । कवि कहता है कि प्रियजनों के मिलाप का आनन्द जिनेन्द्र के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं जानता --- वल्लह जणमेलावउ जं सुह हिमडइ होइ । तिहि पमाणु जिणवर कहइ अवर न जाणइ कोइ ।। ६५४ ॥ मलयसुंदरीचरियं की प्राकृत की तीन पाण्डुलिपियों का परिचय हमने जो पहले लेख में दिया था, उससे पूना की यह प्रति भिन्न है । बम्बई, आगरा, लींबड़ी, जैसलमेर और सूरत के ग्रन्थभण्डारों में इस कथा की जिस प्राकृत पाण्डुलिपियों के होने का संकेत है, वे अभी प्राप्त नहीं की जा सकी हैं । उन्हें देखने पर ही ज्ञात होगा कि पूना की प्रति से उनका कोई सम्बन्ध है या नहीं । यदि पूना की यह प्रति अकेली भी हो तो भी इसका कई दृष्टियों से महत्त्व है | मलयसुंदरीचरियं के सम्पादन के साथ इसे भी प्रकाश में लाने का प्रयत्न हम करेंगे । १. मलयसुंदरीचरियं (पूना पाण्डुलिपि) पत्र पृष्ठ ४४ २. जिनरत्नकोश, पृ० ३०२ एवं ३०५ आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only विभागाध्यक्ष जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राज० ) www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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