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चित्र-अद्वैतवाद का तार्किक विश्लेषण किया गया प्रमेय से पूर्वकाल में होने वाला ज्ञान प्रमेय के बिना उत्पन्न हो जाता है इसलिए वह सन्निकर्षजन्य नहीं होता है। अतः उससे बाह्य पदार्थों की व्यवस्था नहीं हो सकती है। . प्रमेय से उतरकाल में होने वाले ज्ञान को बाह्य पदार्थों का व्यवस्थापक मानने पर दो विकल होते हैं --(१) 'प्रमाण से पहले प्रमेय की विद्यमानता है' – इसे ( पूर्वकाल वृत्ति को) किसी ने जाना है अथवा नहीं? यदि "प्रमाण से पहले प्रमेय की विद्यमानता है" इसे नहीं जाना है तो वह ज्ञान का सद् विषय कैसे होगा ? क्योंकि यह नियम है कि जो सद् व्यवहार ( सत्य ) का विषय होता है वह किसी से जाना जाता है। जो किसी से जाना नहीं जाता है वह सद् व्यवहार ( सत्य ) का विषय नहीं होता हैं, जैसे आकाश का कमल किसी से नहीं जाना गया इसलिए वह ज्ञान का सद् विषय नहीं होता है। (२) प्रमाण से प्रमेय की पूर्वकाल वृत्ति है"-ऐसा भी किसी से नहीं जाना गया है। अतः प्रमेय से उत्तरकाल में उत्पन्न होने वाले ज्ञान को बाह्य पदार्थों का व्यवस्थापक नहीं माना जा सकता है।
अब यदि बाह्य पदार्थवादी यह मानें कि 'प्रमाण से पूर्व प्रमेय की विद्यमानता है और इसे किसी से जाना गया है, तो उन्हें बतलाना होगा कि वह किससे जाना गया है-स्वतः अथवा परतः ?' यदि स्वतः जाना गया है, तो बाह्यार्थ और ज्ञान में भेद नहीं होगा क्योंकि स्वतः प्रकाशमान होने से वह पूर्ववर्ती प्रमेय ज्ञान रूप हो जायगा। यह नियम है कि जो स्वतः प्रसिद्ध है वह ज्ञान से भिन्न नहीं है जैसे ज्ञान का स्वरूप। ज्ञान से पूर्व में होने वाला प्रमेय भी स्वतः प्रसिद्ध है। उस पूर्ववर्ती प्रमेय की जानकारी प्रतिपत्ति ) पर से नहीं हो सकती है क्योंकि प्रमाण से भिन्न दसरा पदार्थ प्रमेय की व्यवस्था का कारण नहीं है। एक बात यह भी है कि प्रमेय की पूर्वकाल वृत्ति को उत्तरवर्ती प्रमाण प्रकाशित नहीं कर सकता, क्योंकि प्रमेयकाल में प्रमाण नहीं रहता है। जो जिस काल में नहीं है वह उसका प्रकाशक नहीं होता है जैसे अपनी उत्पत्ति से पूर्वकालवर्ती काल में नहीं होने वाले पदार्थ का दीपक प्रकाशक नहीं होता है। पूर्वकाल विशिष्ट प्रमेय का वर्तमान ज्ञान भी नहीं होता है, इसलिए वह उसका प्रकाशक नहीं हो सकता है।
अब यदि प्रमाण (ज्ञान) और प्रमेय (ज्ञेय) को समकालीन माना जाय तो जिस प्रकार गाय के बायें और दायें सींग एक साथ उत्पन्न होने पर वे ग्राह्य-ग्राहक रूप नहीं होते हैं, उसी प्रकार समान काल में उत्पन्न ज्ञान और ज्ञेय में भी ग्राह्य-ग्राहक भाव नहीं बनेगा।
अब यदि बाह्य पदार्थों की सत्ता मानने वाले ऐसा कहें कि "बाह्य पदार्थों के बिना ज्ञान में नीलादि आकारों की प्रतीति नहीं हो सकती है इसलिए नीलादि आकारों का अनुरंजक बाह्य पदार्थ भी है" तो इसके उत्तर में चित्राद्वैतवादी कहते हैं कि उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि स्वप्न अवस्था में बाह्य पदार्थों के अभाव में भी बाहरी पदार्थ की
१. अथ प्रतिपन्नम् क स्वतः परतो वा?-न्यायकुमुदचन्द्र , पृ० २५ २. समकालत्वे तु ज्ञानज्ञेययो: ग्राह्यग्राहक भावाभावः ।
(क) न्या० कु. च०, पृ० १२५ (ख) स्या० र०, पृ० १७२
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