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आचारांग की समीक्षा एवं उन्हें सुधारने की अनिवार्यता ५. अ-कागज की प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप स्वीकृत ।
ब-कागज की प्रत में उपलब्ध प्राचीन रूप अस्वीकृत । III संपादकों द्वारा की गयी भूल :-अपने से पूर्व के संस्करणों में प्राप्त हो रहे प्राचीन या
उपयुक्त रूप बाद के संस्करणों में कभी-कभी नहीं लिये गये हैं। IV उपलब्ध पाठान्तरों के आधारों से किसी शब्द-रूप की प्राचीनता पुनः स्थापित करने के
विषय में :
समान संदर्भ में विविध प्रतों या संस्करणों में किसी शब्द या रूप के विविध प्रकार से उपलब्ध पाठों के आधार पर उनके अंशों का आधार लेकर उस शब्द या रूप की प्राचीनता पुनः स्थापित की जा सकती हो तो ऐसा क्यों न किया जाय अथवा ऐसा करने में क्या दोष है ? उदाहरणार्थ :(अ) स्वीकृत पाठ :-पव्वहिते जं० १.२.४.८४, पव्वहिए शुं० २.९.२६, आ० पृ० १२७,
अ, जै० १.२.४.९०, पाठान्तर-पव्वधिए, जंबू, की श्वे० प्रत आचारांग)। इस शब्द के प्राचीन रूप की पुनर्स्थापना 'पव्वधिते' (=प्रव्यथितः) में होगी। (ब) सहसम्मुतिया (सह-+सम्मुति+या विभक्ति) के उपलब्ध विविध पाठ और पाठा
न्तर :-सहसम्मुतियाए, सहसम्मुदियाए, सहसम्मुइयाए; सहसम्मदियाते, सहसम्मइयाए; सहसम्मुइए, सहसम्मइए, सहस्समुइए, सहसमुदियाए और सहसमदियाए। इन पाठान्तरों से स्पष्ट है कि शब्दका मूल रूप स्थानान्तर एवं समयान्तर के साथ किस प्रकार परिवर्तित होता गया। उसका विश्लेषण इस प्रकार किया जा
सकता है :
संस्कृत शब्द :-मत, मति, सम्मति । इन्हीं के प्राकृत-पालि रूप 'मुत', 'मुति' (अशोक के शिलालेख) 'सम्मुति' और तृ० ए० व० की विभक्ति के साथ ‘सम्मुतिया' (पालि साहित्य)। अतः 'सहसम्मुतिया' ही शुद्ध एवं प्राचीन रूप है। लेहियों की असावधानी के कारण उसने अनेक रूप धारणा किये जो पाठान्तरों से स्पष्ट हो रहा है।
प्राचीन रूप तो 'सम्मुतिया' ही था जो पालि साहित्य, अशोक के शिलालेखों और अर्धमागधी आगम साहित्य में उपलब्ध हो रहे साक्ष्यों से ही प्रमाणित हो रहा है। परंतु प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से यह प्रचलित रूप स्वीकृत नहीं हो सकता था अतः उसमें 'ए' विभक्ति जोड़कर 'सम्मुतियाए' बनाया गया जबकि मूल शब्द 'सम्मति' के लिए 'सम्मुतिया' जैसा कोई शब्द प्रचलित ही नहीं हुआ। यह तो पालि की 'या' और प्राकृत की 'ए' दो विभक्तिवाला रूप बन गया और वही आज के संस्करणों में प्रचलित है जिसे सुधारकर उस जगह संशोधित पाठ 'सहसम्मुतिया' रखा जाना चाहिए जो परंपरा-प्राप्त प्राचीन रूप है और येन केन प्रकारेण आचारांग के सिवाय अन्य प्राचीन जैन ग्रन्थों में भी सुरक्षित रह सका है।
आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध में उपलब्ध 'सहसम्मुइयाए' पाठ पर कुछ चर्चा, All India Oriental Conference,Calcutta Oct. 24-26, 1986 में प्राकृत एवं जैनिज्म सेक्शन में भेजा गया मेरा संशोधन पत्र ।
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