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रज्जन कुमार
पं० सुखलाल जी संघवी ने समाधिमरण की नैतिकता के ऊपर ध्यान आकृष्ट कराया है ।' उनके अनुसार जैन धर्म लौकिक या आध्यात्मिक दोनों प्रकार की सामान्य स्थितियों में प्राणान्त करने का अधिकार नहीं देता है । लेकिन जब शरीर ( लौकिक ) और आध्यात्मिक सद्गुणों में से किसी एक को चुनने का प्रश्न उपस्थित हो जाए तो देह का त्याग करके भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचाने का निर्णय करना चाहिए। जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर शरीर नाश के द्वारा भी अपने सतीत्व की रक्षा करती है। यदि देह और संयम दोनों की समान भाव से रक्षा हो सके तो दोनों की ही रक्षा परम कर्तव्य है, परन्तु जब एक की ही रक्षा का प्रश्न आए तो सामान्य व्यक्ति शरीर की रक्षा पसन्द करेगा और आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेगा, जबकि समाधिमरण का अधिकारी संयम की रक्षा को महत्त्व देगा । जीवन तो दोनों ही है - दैहिक और आध्यात्मिक । आध्यात्मिक जीवन जीने के लिये प्राणान्त या अनशन की अनुमति है । भयंकर दुष्काल आदि आपत्तियों में शरीर रक्षा के निमित्त से संयम में पतित होने के अवसर आए या अनिवार्य रूप से प्राणान्त करने वाली बीमारियाँ हो जाएँ । इस कारण.. स्वयं को और दूसरों को निरर्थक परेशानी तथा संयम और सद्गुण की रक्षा संभव न हो तो मात्र समभाव की दृष्टि से समाधिमरण ग्रहण करने का विधान है ।
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जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन गीता भी करती है । इसमें कहा गया है कि यदि जीवित रहकर ( आध्यात्मिक सद्गुणों के विनाश के कारण ) अपकीर्ति की सम्भावना हो तो ऐसे जीवन से मरण ही श्रेष्ठ है ! काका कालेलकर ने भी समाधिमरण का समर्थन किया है । " " समाधिमरण" को उन्होंने "इच्छितमरण" कहा है। इच्छितमरण को नैतिक दृष्टि से समर्थन देते हुए उन्होंने कहा है निराश होकर, कायर होकर या डरके मारे शरीर त्याग करना एक प्रकार की हार है, जीवन से भागना है । हम इसे जीवनद्रोह भी कह सकते हैं । लेकिन जब व्यक्ति यह सोचता है कि उसके जीवन का प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता नहीं रही तब वह आत्म साधना के अन्तिम रूप में अगर शरीर त्याग करता है तो यह उसका अधिकार है और प्रशंसनीय भी है ।
समकालीन विचारकों में धर्मानन्द कोसम्बी और महात्मा गाँधी ने भी मनुष्य को प्राणान्त करने के अधिकार का समर्थन नैतिक दृष्टि से किया था। गाँधी जी का कथन है कि जब मनुष्य पापाचार का वेग बलवत्तर हुआ देखता है और आत्महत्या ( इच्छितमरण ) बिना अपने को पाप से नहीं बचा सकता, तब होने वाले पाप से बचने लिये उसे " इच्छित मरण" करने का अधिकार है । कोसम्बी ने भी स्वेच्छामरण का समर्थन किया था और उसकी भूमिका में पं० सुखलाल जी ने कोसम्बी की इच्छा को भी अभिव्यक्त किया था ।
१. दर्शन और चिंतन खण्ड २ पृ०, ५३३-३४
२. अकीर्ति चापि भूतानि कथमिष्यन्ति तेऽण्ययामा |
सम्यावितस्य
चाकीर्तिर्म रणाइतिरिच्यते ।। २३४ ॥ गीता
३. परमखसा मृत्यु- - त्काका कालेलकर पृ० ४३
४. वही, पृ० ४१
५. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग-२ डॉ० सागरमल जैन पृ०
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