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टिप्पणक, बालाबोध आदि लिखे जो तत्कालीन प्रचलित "मरुगुर्जर" भाषा में है । इनकी विशेषता यह है कि ये तत्कालीन शब्दों को यथावत् लिखे हैं जिससे उस समय की भाषा का अध्ययन किया जा सकता है। मुनि जिनविजय ने "प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ' में ऐसे कई प्राचीन गद्य रचनाओं को सम्मिलित किया है। तरुणप्रभुसूरि एक विद्वान् लेखक थे जिन्होंने १४वीं शताब्दी में कई रचनाएँ मारुगुर्जर में की हैं। हमने ५०-५५ वर्ष पूर्व अनेक प्राचीन ऐतिहासिक रचनाओं को 'ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह' में प्रकाशित किया है । इसके बाद जेसलमेर भण्डार में मिली कई रचनाओं को और जिनभद्रसूरि स्वाध्याय पुस्तिका में से जो वि० सं० १४९० की प्रति है, कई रचनाओं को प्रकाशित किया है। प्राचीन रास और अन्य रचनाएँ कई अन्य विद्वानों ने भी प्रकाशित करवाई है । गुजरात में इस संबन्ध में काफी प्रयास किया गया है एवं अनेक प्राचीन रास एवं जूनी गुजराती की रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं।
राजस्थान में चित्तौड़, जालोर, जैसलमेर, अजमेर, त्रिभुवनगिरि, चन्द्रावती आदि श्वेताम्बर जैनों एवं विशेषरूप से खरतरगच्छ के उल्लेखनीय केन्द्र थे। यहाँ खरतरगच्छीय साधुओं व श्रावकों आदि द्वारा की गई रचनाएँ बहुत मिलती हैं । वि० सं० १३३२ मे रचित शालिभद्ररास जिनप्रबोधसूरि की रचना है। हेमभूषण कृत जिनचन्द्रसूरिचर्चरी १५ पद्यों की है। वि० सं० १३६३ में प्रज्ञातिलकसूरि ने कारटा मे "कच्छुली रास" को रचना की। यह उल्लेखनीय कृति है। यह आबू के परमार शासकों के राज्य में लिखा गई है। वस्तिग का बीस विहरमानरास वि० सं० १३६८ की रचना है। गणाकरसरि का श्रावकविधिरास और अम्बदेवसरि का समरारास वि० सं० १३७१ की रचना है। धर्मकलश कृत जिनकुशलसूरिपट्टाभिषेकरास (सं० १३७७ की रचना) हमारे अभय जैन ग्रंथालय में हैं जिसे 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित किया है। जिनप्रभसूरि की पद्मावती चौपाई सं० १३६८ में और जिनपद्मसूरि का स्थूलभद्रफाग सं० १३९० में रचित है। पद्म कवि की शालिभद्र काक एवं नेमिनाथ फागुकाव्य १४वीं शताब्दी को रचनाएँ हैं।
अल्लाउद्दीन ने राजस्थान के अधिकांश राज्यों की जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। इसने जैसलमेर, चित्तौड़, जालोर, आबू आदि नगरों के जैन मन्दिरों को नष्ट किया एवं कई ग्रंथ भण्डार समाप्त किये। इनके शिलालेखों को अन्यत्र उसने उपयोग में लिया था। इन शिलालेखों से उस काल की जैन समृद्धि का पता लग सकता है। कुछ वर्षों बाद राजपूतों ने अपने राज्य पुनः जोत लिये । दिल्ली की सत्ता कमजोर होने पर उन्होंने स्वाधीन राज्य स्थापित किये । १५वीं शताब्दी में मेवाड़ और जैसलमेर विशेष रूप उल्लेखनीय हुए। इस काल में जेन श्रेष्ठिवर्ग को अधिक राजकीय मान्यता मिली एवं कई मन्दिरों का निर्माण हुआ। कई रचनाएँ भो इस काल में हुई। वि० सं० १४०९ में आघाट में हलराज ने स्थूलिभद्रफागु रचा। वि० सं० १४१५ में 'जिनोदयसूरिपट्टाभिषेकरास' मुनिज्ञानकलश द्वारा रचित है । वि० सं० १४१२ में विनयप्रभ ने गौतमस्वामीरास लिखा, जिसे अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई। राजस्थान के कई ग्रंथ भण्डारों में इसकी प्रतियाँ उपलब्ध हैं। सं० १४२३ में रचित 'ज्ञानपंचमीचौपाई' ५४८ पद्यों को रचना है। इसके रचयिता श्रावक विद्धणु हैं जो जिनोदयसूरि के शिष्य थे। सं० १४३२ में मेरुनन्दनगणि ने "जिनोदयसूरिगच्छनायकविवाहलउड' की रचना की । यह काव्य छोटा होने पर भी सुन्दर है । सं० १४५५ में साधुहंस ने शालिभद्ररास को २२२ पद्यों में रचना की। जयशेखरसूरि ने ४४८ पद्यों में 'त्रिभुवनदीपकप्रबन्ध'
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