________________
धर्मचंद जैन
अतः यह स्पष्ट है कि साध्य के साथ अविनाभाव के बिना हेतु साध्य का गमक नहीं होता । यदि अविनाभाव है एवं त्रैरूप्य नहीं है तो भी हेतु साध्य का गमक होता है यथा- " एक मुहूर्त के अनंतर शकट नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि अभी कृत्तिका नक्षत्र का उदय हुआ है" इस अनुमान वाक्य में कृत्तिकोदय हेतु शकटोदय साध्य का गमक है । यहाँ इसमें पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व रूप त्रिरूपता का अभाव है तथापि जैन दार्शनिकों के अनुसार कृत्तिकोदय की शकटोदय के साथ पूर्वचर रूप में क्रमभाव अविनाभाविता है ।" अतः कृत्तिकोदय शकटोदय का गमक है । इस प्रकार अविनाभावित्व ही प्रधान लक्षण है । उसके अभाव में त्रिरूपता आदि का कथन व्यर्थ है, इसीलिए जैन नैयायिक पात्रस्वामी ने त्रिलक्षणदर्शन ग्रंथ में प्रबल शब्दों में कहा है
६४
अन्यथानुपपन्नत्व शब्द अविनाभावित्व का ही पर्याय है । जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व है वहाँ पक्ष धर्मत्व आदि रूपत्रय से क्या प्रयोजन ? तथा जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है वहाँ भी रूपय निरर्थक है । जैन दार्शनिक पात्रस्वामी द्वारा की गयी यह आलोचना भारतीय दार्शनिक जगत् में खलबली पैदा कर गयी इसलिए न केवल जैन दार्शनिकों ने इस कारिका को अपने न्यायग्रंथों में उद्धृत किया है अपितु शांतरक्षित जैसे बौद्ध नैयायिकों को भी अपनी लेखनी पात्रस्वामी के इस कथन को उद्धृत करने हेतु उठानी पड़ी।
पांचरूप्य निरास -
त्रैरूप्य के समान पांचरूप्य भी जैन दार्शनिकों द्वारा अनुपपन्न ठहराया गया है । यथा "यह धूम अग्निजन्य है, सत्त्व होने के कारण पूर्वोपलब्ध धूम के समान इस वाक्य में "सत्त्व " हेतु पक्षीकृत धूम में विद्यमान है, पूर्वदृष्ट धूम रूप सपक्ष में विद्यमान है, विपक्ष में अविद्यमान है, धूम का अग्नि से उत्पन्न होना प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भी बाधित नहीं है तथा धूम का अग्नि के अभाव में उत्पन्न होने का साधक प्रतिपक्षी हेतु भी अविद्यमान है, इस प्रकार पाँच रूप विद्यमान है तथापि सत्त्वात् " हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव नहीं है इसलिए यह हेतु धूम के अग्निजन्यत्वरूप साध्य का गमक नहीं, फलतः हेत्वाभास है । इसलिए विद्यानन्द ने पात्रस्वामी का अनुसरण करते हुए पांचरूप्य की खण्डन विधायिनी कारिका का निर्माण किया है
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥
१. माणिक्यनन्दि ने दो प्रकार का अविनाभाव बतलाया है— सहभाव एवं क्रमभाव । यथा-सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः - परीक्षामुख, ३|१६
इस ग्रन्थ का उल्लेख अनन्तवीर्यकृत सिद्धिविनिश्चय टीका ६।२, पृ० ३७१-७२ में हुआ है ।
द्रष्टव्य तत्त्वसंग्रहकारिका, १३६८
स्याद्वादरत्नाकर, भाग ३, पृ० ५२५
२.
३.
४.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org