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________________ जैनधर्म में ईश्वर विषयक मान्यता का अनुचिन्तन दिया गया था, अपितु यह माना गया कि मनुष्य अपने आचार, शील व शुद्धता के माध्यम से ही जीवन के चरमसत्य को सहज में पा सकता था। इस सरल बुद्धिगम्य मार्ग को सामान्य जन-मानस तक प्रेषित करने के लिये तत्कालीन जन-भाषा (लोक-भाषा) को ही माध्यम बनाया गया । फलतः इस परिवर्तन का जन-मानस ने स्वागत किया। इसी परिस्थिति का तीर्थंकर महावीर ने यथाशक्य लाभ लेने का प्रयास किया और सफल भी हुये। महावीर ने समयानुरूप निष्काम शुद्धाचरण की शिक्षा का प्रतिपादन किया। उनकी मान्यता थी कि निष्काम शुद्धाचरण से व्यक्ति वीतराग रूपी ईश्वरपद को प्राप्त कर सकता है। उन्होंने अपने युग में मानव को ईश्वरत्व की कोटि तक पहुँचाने का महनीय कार्य किया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। उनके इसी महत्तर कार्य के कारण ही उन्हें जैनधर्म के २४वें तीर्थंकर जैनधर्म के प्रस्तोता रूप में समादृत स्थान दिया गया है।। कालान्तर में (७वीं शती में) जैन राजा कुन के शैवमत में दीक्षित हो जाने के फलस्वरूप महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्मदर्शन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वैष्णव व शैवमतों से वैचारिक भिन्नता के कारण भी जैनधर्म दर्शन की स्थिति सुखद नहीं रही। इस कारण स्थिति को यथावत् सुदृढ़ करने के लिये आवश्यक हो गया था कि मान्यताओं में समयानुरूप परिवर्तन किया जाये ताकि जन-मानस पुनः धर्म की ओर आकर्षित हो सके। यही कारण है कि महावीर द्वारा प्रतिपादित 'ईश्वर' संबंधी सिद्धान्त को वैष्णव व शैव के अनुरूप ही स्वीकृति दी गई । परिवर्तन की अपेक्षा से ही तीर्थङ्करों को जिनेन्द्र ईश्वर के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया तथा अन्य धर्मों के समान ही इन तीर्थङ्करों के प्रति अपनी भक्तिपूर्ण आदराञ्जली भी देने की स्वतंत्रता दे दी गई। भक्त अपने जिनेन्द्र की देवरूप में अर्चना करने लगे। ये जिनेन्द्र ही सर्वज्ञ रूप में निरूपित किये गये । कालान्तर में इसी भक्तिपूर्ण भावन पुष्टि कर दी गई। यह अवश्य है कि जैन धर्म-दर्शन का ईश्वर मनुष्य से भिन्न नहीं है- केवल आवश्यकता इस बात की है कि वह केवल-ज्ञान व दर्शन प्राप्त करे तभी वह मानवत्व से देवत्व की कोटि तक पहुँच सकता है। वस्तुतः मानव के पुरुषार्थ की इति ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है। इस ईश्वरत्व की अवस्था में मानव परमात्मभाव को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य को कुछ भी अप्राप्तव्य नहीं है । मात्र यही अपेक्षा है कि ज्ञानार्जन कर कर्म बन्धन को निःशेष करने हेतु प्रयासशील हों। यह प्रयास ही व्यक्ति को मानवीय चेतना के चरमविकास ईश्वरत्व तक पहुँचा सकता है । कथन भी : "ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः" १. भारतीय ईश्वरवाद-पं० शर्मा पृ० २८४-३३३ २. उत्तराध्ययन २५।४५ ३. (अ) चिन्तन की मनोभूमि-(ईश्वरत्व) पृ० ३३, (ब) "णाणं णरस्स सारो' दर्शन पाहुड ३३ कुन्दकुन्दाचार्य पृ० ५०-५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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