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जिनेन्द्र कुमार जैन हुए भी निष्क्रिय कैसे हो सकता है ? और भी जड़ एवं सक्रिय प्रकृति का चेतन एवं निष्क्रिय पुरुष से संयोग कैसे हो सकता है ? इन परस्पर विरोधी गुणों के होने उनमें संसर्ग या निकटता संभव नहीं है। इसलिए कवि कहता है कि -"यह लोक कणाद, कपिल, सुगत (बुद्ध) तथा द्विज शिष्य (चार्वाक) आदि उपदेशकों द्वारा भ्रान्ति में डाला गया है।'
अन्य मतों की समीक्षा-उपयुक्त दार्शनिक मतों के अतिरिक्त कवि ने न्याय, वैशेषिक, शैव दर्शन एवं कुछ मिथ्या धारणाओं तथा अंधविश्वासों पर भी चर्चा की है। न्याय एवं वैशेषिकदर्शन की चर्चा कवि ने अवतारवाद की आलोचना करते हुए इस प्रकार की है-"जिस प्रकार उबले हुए जौ के दाने पुनः कच्चे जौ में परिवर्तित नहीं हो सकते, उसी प्रकार सिद्धत्व को प्राप्त जीव पुनः देह कैसे धारण कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता । पक्षपाद-(न्यायदर्शन के प्रणेता) तथा कणधर (वैशेषिक दर्शन के प्रणेता, कणाद) मुनियों ने शिवरूपी गगनारविंद (आकाशकुसुम-असम्भववस्तु ) को कैसे मान लिया? और उसका वर्णन किया।
कवि ने शैव अनुयायी कौलाचार का वर्णन करते हुए कहा है कि वे अपनी साधना में मद्य, मांस, मत्स्य, मृदा तथा मैथुन का प्रयोग करते हैं। शैव मतवादी अन्य देवों की मान्यताओं को मिथ्या मानते हैं, तथा आकाश को शिव कहते हैं ।३।।
गाय और बैलों को मारा जाता है, ताड़ा जाता है, फिर भी गौवंश मात्र को देव कहा जाता है। पुरोहितों द्वारा याज्ञिकीहिंसा (यज्ञ में पशुबलि करना) की जाती है एवं मृगों को मार कर मगचर्म धारण करना पवित्र माना जाता है। चूंकि इनसे जीव हिंसा होती है फिर भी अंधविश्वासी लोग इसके एक पक्ष को ही ध्यान में रखते हैं।। .. कवि ने अपने अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं दार्शनिक समस्याओं पर प्रकाश डाला है। कुवलयमालाकहा, धर्मपरीक्षा, चन्द्रप्रभचरित, यशस्तिलकचम्पू, शान्तिनाथचरित आदि सम कालीन प्रतिनिधि जैन ग्रन्थ हैं, जिनमें जैन धर्म एवं दर्शन के सिद्धान्तों की चर्चा करते हुए। परमत खण्डन की परम्परा देखने को मिलती है।
___ इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में धार्मिक एवं दार्शनिक मतों की समीक्षा विभिन्न प्रमाणों सहित प्रस्तुत करके जनसमुदाय को सच्चे धर्म एवं सदाचार के पथ की ओर चलने के लिए प्रेरित किया गया है तथा दुष्कर्म के पथ पर चलनेसे रोका गया है। यह कहना अतिशयोक्तिपी होगा कि यह काव्य अपने समय का प्रतिनिधि काव्य है, जिसमें तत्कालीन धार्मिक एवं दार्शल निक सामग्री पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती है।
शोध-छात्र
जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया वि० वि०, उदयपुर १. णायकुमारचरिउ-९।११७ २. सित्थुजाइ किं जवणालत्तहो घड किं पुण विजाइ दुद्वत्तहो ।
सिद्धभमइ किं भवसंसार गयि विमुक्क कलेवर भारए । अक्खवाय कणयमुणि मण्णिउ सिवमयणारबिंदु किं वष्णिउ ।
-णायकुमारचरिउ-९।७।१-३ ३. णायकुमारचरिउ-९।६।३ ४. णायकुमारचरिउ-९।९।१-३,५
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