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प्रा० डॉ० एच० यु० पण्डया सकता है । भागवत के समय से तप प्रचलित रहे हैं।' पद्मपुराण में इन तप भेदों के अतिरिक्त
लगने पर कुशाग्र नीर बिदु पान, एक दिन कुंभक प्राणायाम, एक मास कुंभक, चतुर्मासव्रत, ऋतु के अंत में जलाहार, उपवास, छः मास उपवास, वर्षा निमेषत्य, वर्षाजल का आहार, वृक्षवत् स्थिति आदि तप भेदों का उल्लेख मिलता है। ऐसे तपस्वी के शरीर पर वल्मीक हो जाता है, केवल स्नायु एवं हड्डियाँ ही बचती हैं, जटा पक्षियों का निवास बन जाती है और शरीर पर घास भी उगती है वैदिक एवं जैन मत छः मासिक उपवास को स्वीकृति देते हैं।
बुद्ध चरित में शिलोंछवृत्ति, तृण-पर्ण-जल-फल-कन्द-वायु-आहार, जल निवास, पत्थर से पीस कर खाना, दाँतों से छिल कर खाना, अतिथि के भोजन के बाद यदि अवशिष्ट रहे तो खाना आदि तपभेदों का उल्लेख मिलता है ।
रघुवंश में सीतात्याग प्रसंग में (सीता संदेश में) सीता सूर्य निविष्ट दृष्टि तप का निर्णय करती है जिसका उल्लेख रामायण में नहीं है। इसके आधार पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि कालिदास के काल में सूर्य त्राटक की महिमा थी। भगवतीसूत्र के अनुसार गोशालक सूर्यत्राटक से तेजोलेश्यासिद्धि प्राप्त करता है। कुमारसंभव में पार्वती अग्निहोम, पंचाग्नितप, शीत में जलवास, वर्षा में शिलावास, शीर्णपर्णाहार, अयोचित जल का पान, पर्णाहारत्याग, वृक्षवत् स्थिति आदि कठिन तप करती है। किरातार्जुनीयम् में अर्जुन उपवास, एकपाद स्थिति आदि तप करता है । महाभारत में अर्जुन की कठोर तपस्या का विशद वर्णन है, किन्तु भारवि ने, आवश्यकता होने पर भी, अति संक्षिप्त वर्णन किया है, संभव है भारवि कठोर तप की ओर कम रुचि रखता हो। दूसरी ओर उत्तररामचरित में शम्बूक को धूम भोजी बताया है जिसका उल्लेख रामायण में नहीं है।' इससे ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि समाज में दोनों धाराएँ चलती रही थीं।
इन सभी तप भेदों का अंतर्भाव चार विभाग में किया जा सकता है-१. होम, २. प्राणायाम, ३. उपवास और ४. पंचाग्नि--जलनिवासादि अन्य दुष्कर तप । इनमें से होम और प्राणायाम का जैनमत में अस्वीकार इसलिए किया गया कि वे दोनों जैनमत के अन थे क्योंकि होम से अग्निकाय के और प्राणायाम से वायुकाय के जीवों की विराधना होती थी।
१. भागवत २-९-८; ४-२३-४ से ११, ७-३-२. २. पद्मपुराण; उद्धृत शब्दकल्पद्रुम कोश ३. बुद्धचरित ७-१४ से १७ ४. रघुवंश १४-६६ सारं तपः सूर्यनिविष्टदृष्टि; ....... ५. रामायण उत्तरकांड ४८-३ से १९. ६. कुमारसंभव ५-८ से २९ ७. किरातार्जुनीयम् ३-२८; ६-१९, २६; १२-२ ८. म० वनपर्व ३८-२३ से २४ ९. उत्तररामचरित अंक २ पृ० ४६ १०. रामायण उत्तरकांड ७५-१४
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