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________________ श्रमण : महावीर तीर्थ का प्रमुख स्तम्भ १९७ ८. जिस प्रकार दुःख मुझे प्रिय नहीं लगता है, उसी प्रकार संसार के समस्त जीवों को भी प्रिय नहीं लगता है । ऐसा समझ कर जो न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से करवाता है, सर्वत्र सम रहता है, वह समण है । ९. सूत्रकृतांग सूत्र १ - १६-२ में समण का सांगोपांग निर्वचन करते हुए कहा गया है :जो सर्वत्र अनिश्चित है, आसक्ति नहीं रखता, किसी प्रकार के सांसारिक भोगोपभोग की अभिलाषा नहीं रखता, किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता, प्राणीमात्र की हिंसा नहीं करता, असत्य नहीं बोलता, काम वासना के विचारों से रहित है, क्रोध मान-माया-लोभराग, द्वेष तथा प्राणातिपात (हिंसा) आदि जितने भी कर्म - बन्धन और आत्मपतन के हेतु हैं उन सभी से निवृत - मुक्त रहता है, इन्द्रियों का विजेता है, शुद्ध संयमशील है और शारीरिक मोह-ममत्व से रहित है, वह समण कहलाता है । १०. “ समण" का संस्कृत में एक रूप " शमन" भी होता है; जिसका अर्थ है :- अपनी चंचल मानसिक वृत्तियों का शमन करने वाला या शान्त करने वाला । श्रमण का जीवन : श्रमण उग्र एवं विशिष्टतम साधना के माध्यम से स्व-स्वरूप को उजागर करता हुआ अपने जीवन / व्यक्तित्व को सर्वदा / सर्वत्र निखारता रहता है और साधना से प्राप्त असीम उपलब्धियों द्वारा संस्कृति समाज को संवारता रहता है । साधनामय तपोपूत जीवन से उसका व्यक्तित्व कितना परिष्कृत / विशुद्ध एवं गरिमामय हो जाता है ? गुणोपेत श्रमण का व्यक्तित्व कैसा हो जाता है ? इसका विवेचन करते हुए कहा गया है : “उरग-गिरि-जलण-सागर - नहतल-तरुगणसमो अ जो होई । भमर-मिय-धरणि जलरुह - रवि-पवणसमो अ सो समणो ॥ " --- १. जो श्रमण " उरगमय" सर्प के समान दूसरे के लिये निर्मित आवास-स्थान में रहता है, अर्थात् स्व के लिये विनिर्मित स्थान में नहीं रहता है । २. जो “गिरिसम” पर्वत के समान परीषद् एवं उपसर्गों को निष्कम्प होकर सहन करता है । होता है, अथवा कदापि तृप्त नहीं ३. जो “जलणसम" अग्नि के समान तपसाधना से जाज्वल्यमान / तेजस्वी जैसे अग्नि घास से कदापि तृप्त नहीं होती, वैसे ही जो स्वाध्याय से होता है । ४. जो "सागरसम" समुद्र के समान ज्ञानादि रत्नों और गाम्भीर्यादि गुणों के धारक होते हैं एवं अपनी साध्वाचार की मर्यादा का कभी भी उल्लंघन नहीं करते हैं । ५. जो "नहतलसम" आकाश के समान किसी का आलम्बन / आश्रय / सहयोग न लेकर "स्व" के बल पर विचरण करता है । Jain Education International ६. जो " तरुगणसम" वृक्षों के समान सुख और दुःख में विकार को प्रदर्शित नहीं करता है । ७. जो “भमरसम” भ्रमरों के समान अनियत वृत्ति होता है अर्थात् अनेक गृहों से थोड़ीथोड़ी सी भिक्षा ग्रहण करता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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