________________
FIRST ALL INDIA CONFERENCE
OF PRAKRIT AND JAINA STUDIES प्रधान अध्यक्ष : पं० दलसुखभाई मालवणिया का अभिभाषण
उपस्थित विद्वद्वन्द !
सर्वप्रथम आप सब विद्वत्जनों का आभार मानना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ कि आपने मुझे इस पद पर बैठा दिया। किन्तु जब मैं इसके कारण का विचार करता हूँ तब यह प्रतीत होता है कि आपने मझ जैसे व्यक्ति को अवसर दिया है उसका कारण मेरी विद्वत्ता की अपेक्षा जैन धर्म और प्राकृत भाषा के क्षेत्र में अध्ययन करनेवालों की कमी-यह है। तब ही मेरे जैसे व्यक्ति को यह अवसर दिया गया-ऐसा मैं हृदय से मानता हूँ। मेरे लिए यह आनन्द और प्रतिष्ठा की वस्तु होने पर भी जब मैं अनुभव करता हूँ कि जैन धर्म और प्राकृत भाषा का क्षेत्र विद्वानों द्वारा उपेक्षित हैं तब हृदय दुःख का अनुभव करता है, और इस उपेक्षा के कारणों की खोज की ओर मन स्वतः प्रवृत्त हो जाता है।
प्राकृत भाषा के अध्ययन की आज देश में क्या स्थिति है ? इसका चित्रण मेरे गुरु पं० सुखलाल जी ने आज से लगभग ४० वर्ष पूर्व किया था। उसे मैं उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ, वे लिखते हैं कि "जब मैं काशी में उच्चकोटि के साहित्यिक एवं आलंकारिक विद्वानों के पास पढ़ता था तब अलंकार नाटक आदि में आने वाले प्राकृत गद्य-पद्य का उनके मुंह से वाचन सुनकर विस्मित सा हो जाता था, यह सोचकर कि इतने बड़े संस्कृत के दिग्गज पण्डित प्राकृत को यथावत् पढ़ भी क्यों नहीं सकते ? विशेष अचरज तो तब होता था, जब वे प्राकृत गद्य-पद्य का संस्कृत छाया के अभाव में अर्थ ही नहीं कर सकते थे। प्रो० विधुशेखर शास्त्री ने इस सम्बन्ध में ध्यान खींचते हुए कहा है कि "प्राकृत भाषाओं के अज्ञान तथा उनकी उपेक्षा के कारण 'वेणी संहार' में कितने ही पाठों की अव्यवस्था हुई है।' पण्डित बेचरदासजी ने 'गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति' में पृ० १०० टि० ६२ में में शिवराम म० प्रांजपे संपादित 'प्रतिमा नाटक' का उदाहरण देकर वही बात कही है। राजशेखर की 'कर्पूरमंजरी' के टीकाकार ने अशुद्ध पाठ को ठीक समझ कर ही उसकी टीका की है। डा० ए. एन. उपाध्ये ने भी अपने वक्तव्य में प्राकृत भाषाओं के यथावत् ज्ञान न होने के कारण संपादकों व टीकाकारों के द्वारा हुई अनेकविध भ्रान्तिओं का निदर्शन किया है।
विश्वविद्यालय के नये युग के साथ ही भारतीय विद्वानों में भी संशोधन की तथा व्यापक अध्ययन को महत्त्वाकांक्षा व रुचि जगी। वे भी अपने पुरोगामी पाश्चात्य गुरुओं की दृष्टि का अनुसरण १. जैन साहित्य की प्रगति पृ०२-४
( 1 )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org