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________________ ४० रूपेन्द्र कुमार पगारिया २८. एक पक्ष एक गच्छ में एक आचार्य तथा एक ही महत्तरा का होना मानता है, तो दूसरा पक्ष अपनी सुविधा के अनुसार कई आचार्य एवं कई महत्तराओं की स्थापना करता है । पूर्णिमा गच्छवाले एक गच्छ में अनेक आचार्य मानते हैं, किन्तु एक ही महत्तरा होने का विधान करते हैं। २९. एक पक्ष अष्टमी, चौदस, पूर्णिमा तथा अमावास्या को ही शास्त्रोक्त पर्व तिथि मानता है तो दूसरा पक्ष द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी ऐसी पाँच तिथि मानता है। ३०. एक पक्ष, भट्टारिका, क्षेत्रपाल और गोत्रदेव की पूजा तथा श्राद्ध आदि को मान्य रखता है. तो दसरा पक्ष इसे मिथ्यात्व कह कर, इसका निषेध करता है। ३१. एक पक्ष पुराने वस्त्रों को ही ग्रहण करता है तो दूसरा पक्ष साधु को नूतन वस्त्र ही ग्रहण करने का विधान करता है। ३२. एक पक्ष ग्रहण के समय स्नात्र पूजा पढ़ता है, तो दूसरा पक्ष ग्रहण के समय पूजा आदि का निषेध करता है। ३३. एक पक्ष के साधु वर्ष में दो बार केशलुंचन करते हैं, तो कुछ साधु वर्ष में तीन बार लोच का विधान करते हैं। ३४. एक पक्षवाले साधु श्रावकों के द्वारा उठाई जाती हुई पालखी में बैठते हैं, तो दूसरा पक्ष उसे साध के लिए अकल्पनीय मानता है। ३५. एक पक्ष चन्दन से चरणपजा करवाता है, तो दूसरा पक्ष उसका निषेध करता है। ३६. एक पक्ष प्रणिधान दंडक की दो गाथा ही बोलता है, तो दूसरा चार गाथा बोलता है। ३७. एक शेषकाल में भी पीढ फलक आदि ग्रहण करता है, तो दूसरा उसका निषेध करता है। ३८. एक साधु रजोहरण की दशिकाओं को लम्बी तथा पतली बनाता है, तो दूसरा पक्ष ऐसा नहीं करता। ३९. एक पक्ष रजोहरण को एक ही बन्ध से बांधता है. तो दूसरा पक्ष दो बन्धसे बांधता है। ४०. एक पक्ष महानिशीथ सूत्र को प्रमाणभूत मानता है तो दूसरा पक्ष महानिशीथ को प्रमाणभूत नहीं मानता। ४१. एक पक्ष मस्तक पर कपूर डालता है, तो दूसरा उसका निषेध करता है। ४२. एक पक्ष नेपाल की कम्बल को ग्रहण करता है, तो दूसरा पक्ष नेपाल की कम्बल को ग्रहण करना अकल्पनीय मानता है। ४३. एक पक्ष में आचार्य स्वयं जिन बिम्ब की पूजा करता है, तो दूसरा पक्ष साधुओं को पूजा करने का निषेध करता है। ४४. एक पक्ष अक्षसमवसरण में पूजा करता है दूसरा पक्ष ऐसा नहीं मानता । ४५. एक गुरुपरम्परागत मंत्रपटकी पूजा करता है, तो दूसरा पक्ष ऐसा नहीं करता। ४६. श्रावक के पुत्र के नामकरण, विवाह आदि के अवसर पर एक पक्षवाले वासक्षेप करते हैं. तो दूसरा पक्ष उसका निषेध करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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