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शतपदी प्रश्नोत्तर पद्धति में प्रतिपादित जैनाचार ४७. एक पक्षवाले गद्दी पर बैठते हैं,तो दूसरा पक्ष गद्दी पर बैठना शास्त्र विरुद्ध बताते हैं। ४८. एक पक्ष ऐसा मानता है कि वेदिका में (नन्दि में) रखा हुआ सभी द्रव्य गुरु का हो ___जाता है, दूसरा पक्ष ऐसा नहीं मानता। ४९. एक पक्ष श्रावक पर अक्षत सहित वासक्षेप करता है, तो दूसरा पक्ष अक्षतरहित
वासक्षेप करता है। ५०. एक पक्ष दिन में ही बलि चढ़ाते हैं, तो दूसरा पक्ष रात्रि में भी बलि चढ़ाता है।
एक पक्ष संघ के साथ चलकर तीर्थयात्रा करते हैं, तो दूसरे पक्षवाले स्वतंत्र रूप से चलकर तीर्थ यात्रा करते हैं।
एक गच्छ में आर्याएं श्रावक के हाथ से ही वस्त्र ग्रहण करती हैं, तो दूसरे पक्ष की आर्याएं साधुओं से भी वस्त्र ग्रहण करती हैं।
___ एक पक्षवाले हरिभद्रसूरि द्वारा रचित लग्न शुद्धि के आधार से रात्रि में भी दीक्षा, प्रतिष्ठा आदि करते हैं, तो दूसरे रात्रि में दीक्षा, प्रतिष्ठा आदि का निषेध करते हैं।
एक पक्षवाले अकेली साध्वी का तथा अकेले साधु का विचरना शास्त्र विरुद्ध नहीं मानते हैं, तो दसरा पक्ष अकेली साध्वी का तथा अकेले साध का विचरना शास्त्र विरुद्ध मानते हैं।
इस प्रकार की अनेक आचरणाएँ उस समय जैन समाज में प्रचलित थीं।
इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में कई ऐतिहासिक घटनाएँ भी मिलती हैं। जैसे गिरनार पर्वत पर वस्त्ररहित प्रतिमाएँ हैं जिन्हें श्वेताम्बर भी मानते हैं। प्राचीन समय में वायड में मुनिसुव्रत भगवान् की तथा जीवन्त स्वामी की प्रतिमाएँ वस्त्रयुक्त थीं। मुनिचन्द्रसूरि साध के लिए बनाये गये उपाश्रय में नहीं रहते थे। वि० सं० १२२९ में कुमारपाल राजा ने तीर्थयात्रा संघ निकाला था। हेमचन्द्राचार्य भी उस संघ में सम्मिलित थे। उस समय हेमचन्द्राचार्य ने तथा वायड मंत्री ने देवसूरि से कुमारपाल राजा की तीर्थयात्रा संघ में सम्मिलित होने की प्रार्थना की थी। देवसूरि ने उनसे कहा-महानिशीथ सूत्र में साधु के लिए तीर्थयात्रा संघ के साथ तीर्थयात्रा करने का निषेध किया गया है। अतः हम आपके तीर्थयात्रासंघ में नहीं आ सकते ।
इस ग्रन्थ में बृहद् गच्छ ( वडगच्छ ) का इतिहास भी दिया गया है। वह इस प्रकार है
नानक गाँव में नानकगच्छ में सर्वदेवसूरि हुए। इनके गुरु चैत्यवासी थे। सर्वदेवसूरि बाल्यावस्था में बड़े बुद्धिमान् थे । इनके गुरु ने इन्हें संस्कृत, प्राकृत, न्याय आदि ग्रन्थों के साथसाथ आगम ग्रन्थों का भी अध्ययन करवाया था। इनकी प्रतिभा को देखकर गरुजी ने 'आवि और 'हातली' नामक गाँव के बीच वट वृक्ष के नीचे राख का वासक्षेप डालकर इन्हें आचार्यपद पर अधिष्ठित किया । इनका गच्छ “वडगच्छ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस गच्छ में कई प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे, अतः यह गच्छ बृहद् गच्छ कहलाया।
इन्हीं सर्वदेवसूरि की परम्परा में यशोदेव नामके उपाध्याय हो गये। उनके शिष्य आचार्य जयसिंह सूरि ने अपने नौ विद्वान् शिष्यों को चन्द्रावती नगरी में महावीर स्वामी के मन्दिर में एक ही समय में आचार्य पद पर अधिष्ठित किया। नौ आचार्यों में शान्तिसरि भी एक थे उन्होंने पिप्पलिया गच्छ की स्थापना की। देवेन्द्रसूरि नाम के आचार्य से संगम खेडिया नामक गच्छ चला । अन्य शिष्यों में चन्द्रप्रभसूरि, शीलगुणसूरि, पद्मदेवसूरि एवं भद्रेश्वरसूरि
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