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महाराष्ट्री प्राकृत में मूल 'य' वर्ण का अभाव
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वस्तुतः यह जैनमहाराष्ट्री की विशेषता है तथा वैकल्पिक है । यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि वररुचि ने 'य' श्रुति विधायक सूत्र नहीं बनाया है । अतः उनके द्वारा प्रयुक्त उदाहरणों में एक भी 'य' वाला उदाहरण नहीं है ।
मूल 'य' और लघुप्रयत्नतर 'य' वर्ण के उच्चारण में भिन्नता रही है, अतः दोनों एक नहीं हैं । वस्तुतः यहाँ 'य' श्रुति कहने का यही तात्पर्य है 'जो सुनने में 'य' जैसा लगे, वस्तुतः 'य' न हो, संस्कृत वैयाकरणों ने इसे अधिक स्पष्ट किया है ।"
४. सम्प्रसारण - 'य' की गणना अर्धस्वरों में की जाती है । अतः कभी-कभी संयुक्त और असंयुक्त उभय अवस्थाओं में 'य' का सम्प्रसारण ( य > इ ) हो जाता है । " जैसे- चोरयति> चोरेइ ( चोर > इति > इइ = चोरेइ ), कथयति > कहेइ, व्यतिक्रान्तम् > वीइक्कतं, प्रत्यनीकम् > पडिणीयं, सौन्दर्यम् > सुन्दरिअं ।
५. संयुक्त 'य' का लोप संयुक्त 'य' का लोप होता है । प्राकृत की प्रकृति के अनुसार प्राकृत में भिन्नवर्गीय संयुक्त व्यञ्जन नहीं पाए जाते । उनमें से या तो एक का लोप करके और दूसरे का द्वित्व करके समानीकरण कर दिया जाता है या स्वरभक्ति । जैसे - लोप - मन्त्र > मन्त, शस्त्र > सत्थ । स्वरभक्ति-स्मरण > सुमरण, द्वार > दुवार । यह स्वरभक्ति प्रायः अन्तःस्थ या अनुनासिक वर्णों के संयुक्त होने पर ही देखी जाती है ।
६. संयुक्त 'य' का प्रभाव - (क) यदि संयुक्त वर्ण समान बल वाले होते हैं तो पूर्ववर्ती वर्ण का लोप करके परवर्ती वर्ण का द्वित्त्व कर दिया जाता है । यदि असमान बल वाले वर्ण होते हैं तो कम बलवाले का लोप करके अन्य वर्ण का द्वित्व कर दिया जाता है । जैसे - उत्पलम् > उप्पलं, काव्यम् > कव्वं, शल्यम् > सल्लं वयस्य > वअस्स, अवश्यम् > अवस्सं, चाणक्य > चाणक्क ।
(ख) यदि लोप होने पर द्वितीय या चतुर्थ वर्ण का द्वित्त्व होता है तो पूर्ववर्ती वर्ण को क्रमशः प्रथम या तृतीय वर्ण में बदल दिया जाता है । जैसे - व्याख्यानम् > वक्खाणं, अभ्यन्तर > अब्भंतर ।
( ग ) ऊष्मादेश - ऊष्म और अन्तःस्थ वर्णों का संयोग होने पर अन्तःस्थ को ऊष्मादेश होता है (य र व श ष स इन वर्णों का लोप होने पर यदि इनके पहले या बाद में श ष स वर्ण हों तो उस सकार के आदि स्वर को द्वित्वाभाव पक्ष में दीर्घकर दिया जाता है) । जैसे— शिष्य :- सीसो,
१. व्योर्लघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य । अष्टाध्यायी ( ८.३.१८ )
पदान्तयोर्वकारयकारयोर्लघुच्चारणौ वयो वा स्तोऽशि परे । यस्योच्चारणे जिह्वाग्रोपाग्रमध्यमूलानां शैथिल्यं जायते स लघुच्चारण: । वही, भट्टोजिदीक्षितवृत्ति ।
लघुः प्रयत्नः यस्योच्चारणे स लघुप्रयत्नः । अतिशयितः लघुप्रयत्नः लघुप्रयत्नतरः । प्रयत्ने लघुतरत्वं चैषां शैथिल्यजनकत्वमेव ।
२. प्राकृत दीपिका, पृ० ८ ।
३. बलाबल का निम्न क्रम स्वीकृत है
(क) वर्ग के प्रथम चार वर्ण - सबसे अधिक बलवान् परन्तु परस्पर समान बलवाले ।
(ख) वर्ग के पञ्चम वर्ण- प्रथम चार वर्णों से कम बल वाले परन्तु परस्पर समान बल वाले ।
(ग) लस व यर - सबसे कम बल वाले तथा क्रमशः निर्बलतर |
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