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जैनधर्म और इस्लाम में अहिंसा : तुलनात्मक दृष्टि
१२९ पैगम्बर मुहम्मद ने सेना को आदेश दिया कि जंग में बूढ़े, बच्चों और स्त्रियों का कत्ल न करना, हरेभरे खेतों को न उजाड़ना। उन्होंने वृक्षारोपण को भी सदका और खैरात की श्रेणी में रखा । जाहिर है वृक्ष जहाँ छाया देते हैं, पक्षियों को आश्रय देते हैं वहां वायु-प्रदूषण को भी रोकते हैं ? उन्होंने पशुओं के दागने को बहुत बुरा कहा और उस हिंसात्मक रीति को बंद करा दिया । आत्महत्या को भी इस्लाम में बुरा माना गया है । 'सूरेनिसा' (२९) में फरमाया है - अपनी जानों को कत्ल मत करो अल्लाह तुम पर बड़ा मेहरबान है।" एक हदीस है कि आत्महत्या करने वाला नरक में जायेगा।
इस्लाम में 'जिम्मो' की रक्षा करना फर्ज माना है और यह आदेश दिया है कि जो जिम्मी' पर हमला करे तुम उससे लड़ो। (मरातिबुल इज्मा)
ईर्ष्या-द्वेष न करने का भी आदेश हदीस में है (बुखारी, अबुदाऊद) कि आपस में जलन न रखो, न पीठ मोड़ो। अल्लाह के बंदे आपस में भाई-भाई हैं। किसी को भयभीत न करो। महावीर ने भी निर्भय रखने का आदेश दिया था। "हदीस तिर्मिज़ी" में उल्लेख है कि अपने शत्रु से द्वेष किसी सीमा तक रखो, हो सकता है वह किसी दिन तुम्हारा मित्र बन जाए। "असभव नहीं कि अल्लाह उसके दिल में प्रेम-मैत्री का भाव उत्पन्न कर दे, अल्लाह बड़ा 'गफरुर्रहीम' है, क्षमा करने वाला है।"
इस्लाम में चुगली करना बहुत बुरा माना गया है, इतना बुरा जैसे किसी ने अपने मुर्दा भाई का मांस खाया हो (हुजुरात १२१) इसी सूरत में एक जगह फरमाया है कि 'भाइयों के बीच सुलह-सफाई करा दो, अल्लाह से डरो ताकि तुम पर रहम किया जाए। (हुजुरात १०)
जैनधर्म में मधु, मांस, मदिरा, मछली, अंडा सभी का निषेध है। जीवहत्या प्रमादावस्था में की जाए तो वह हिंसा है. भाव हिंसा है। जैन धर्म में हिंसा दो प्रकार:
द्रव्य हिंसा और (२) भाव हिंसा । खेतीबाड़ी में या चलने-फिरने में सावधानी बरतने पर जो हिंसा हो जाती है, वह हिंसा नहीं, जानबूझकर किसी को मारना, सताना, तन-मन-धन से कष्ट पहुँचाना हिंसा है। यदि किसी को मारने या कष्ट पहुँचाने तथा हानि पहुँचाने का भाव मन में उत्पन्न हो गया तो वह भाव 'भावहिंसा' की कोटि में आयेगा। हिंसा का विचार आना भी हिंसा है। जैनधर्म में हिंसा भावों या विचारों पर निर्भर है और गृहस्थ तथा साधु की हिंसा में अन्तर है। गृहस्थ पूर्णरूप से अहिंसाव्रत का पालन नहीं कर सकता, अहिंसा उसके लिए 'अणुव्रत' है, महाव्रत' नहीं, साधु के लिए वह 'महाव्रत' है । ऐसा अन्तर इस्लाम में नहीं है। वहाँ सभी के लिए संयम बरतने का - समान रूप से उसे व्यवहृत करने का आदेश है। हिंसा चार प्रकार की मानी जा सकती है(१) संकल्पी-बिना अपराध के, जानबूझकर किसी प्राणी का वध करना संकल्पी
हिंसा है। (२) उद्योगी-खेतीबाड़ी, नौकरी, सेना में जीवन-निर्वाह के लिए जो हिंसा हो जाती
है, उसे उद्योगी हिसा कहेंगे। (३) आरम्भी-सावधानी बरतने पर भोजन आदि करने में जो हिंसा होती है उसे
आरम्भी हिंसा माना जायेगा।
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