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गीता, उसका शाङ्करभाष्य और जैन दशन समयसार गाथा २२८ में कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव चूंकि शङ्का रहित होते हैं। इसलिए निर्भय हैं और चूंकि सप्तमय से रहित हैं, इसलिए शङ्कारहित हैं।'
गाथा १८१ में कहा है कि उपयोग में उपयोग है, क्रोधादिक में कोई उपयोग नहीं है। क्रोध में क्रोध ही है, निश्चय से उपयोग में क्रोध नहीं है।
गीता में कहा गया है कि जो मुनि सर्वत्र अर्थात् शरीर, जीवन आदि में भी स्नेहरहित हो चुका है तथा उन शुभ या अशुभ को पाकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष ही करता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है। जब यह ज्ञान निष्ठा में स्थित हुआ संन्यासी कछुए के अङ्गों की भांति अपने अङ्गों को संकुचित कर लेता है। उसी तरह सब विषयों से, सब ओर से इन्द्रियों को खींच लेता है। भली भाँति रोक लेता है। तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है। ज्ञानार्णव में कहा गया है
संवृणोत्यक्षसैन्यं यः कर्मोऽङ्गानीव संयमी । - स लोके दोषपङ्काढ्ये चरन्नपि न लिप्यते ।। ज्ञानार्णव २०१३७
जिस प्रकार कछुआ अपने अङ्गों को समेट लेता है, उसी प्रकार जो संयमी मुनि इन्द्रियों की सेनासमूह को संवर रूप करता है, अर्थात् संकोचता या वशीभूत करता है, वही मुनिदोष रूपी कर्दम से भरे दोष रूपी कर्दम से विचरता हुआ भी दोषों से लिप्त नहीं होता। : आचार्य कुन्दकुन्द ने इन्द्रिय विषयों को दुःखकारी बतलाया है--
. सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं।
- जं इन्दिएहिं लद्धं तं सव्वं दुक्खमेव तहा ।। प्रवचनसार-७६ ___ जो सुख पाँच इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह पराधीन है, बाधा सहित है, बीच में नष्ट हो जाने वाला है, बन्ध का कारण और विषम हानि वृद्धि रूप है, इसलिए दुःख ही है।
इन्द्रियजन्य दुःखों का कारण होने से प्रवचनसार में शुभोपयोग और अशुभोपयोग को समान बतलाया है
वारणारयतिरियसुरा भजति जदि देहसंभवं दुक्खं । किध सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ॥ प्रवचनसार १७२
जब कि नारकी, तिर्यंच और देव-चारों ही गति के जीव शरीर से उत्पन्न होने वाला दुःख भोगते हैं । तब जीवों का वह उपयोग शुभ अथवा अशुभ कैसे हो सकता है ? ..
पुण्य और पाप में विशेषता नहीं है, ऐसा जो नहीं मानता है, वह मोह से आच्छादित हुआ भयानक और अन्तरहित संसार में भटकता रहता है। १. सम्मादिठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण ।
सत्तभयविप्पमुक्का जह्मा तह्मा दु णिस्संका । समयसार-२२८ २. यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। २।५७ ३. गीता-शाङ्करभाष्य २।५८ ४. प्रवचनसार १७७
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