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________________ ११२ रमेशचन्द जैन गीता में कहा गया है कि जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और इस आत्मा को नष्ट हुआ मानता है, वे दोनों ही अनभिज्ञ हैं; क्योंकि यह आत्मा न तो किसी को मारता है और न मारा जाता है।' समयसार के बन्ध अधिकार में कहा गया है जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ २४७ ॥ जो पुरुष ऐसा मानता है कि मैं परजीव को मारता हूँ और परजीवों के द्वारा मैं मारा जाता हूँ, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है, वह ज्ञानी है। गीता में कहा गया है कि जिस प्रकार पुराने कपड़ों को छोड़कर मनुष्य दूसरे वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार पुराने शरीर को छोड़कर देही अन्य शरीर को धारण कर लेता है। इसी अभिप्राय को आचार्य पूज्यपाद ने समाधितन्त्र में इन शब्दों में व्यक्त किया है जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं न जीणं मन्यते तथा। जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीणं मन्यते बुधः ॥६४॥ समाधितन्त्र जैसे वस्त्र के पुराने पड़ने पर बुद्धिमान् व्यक्ति अपने आपको पुराना नहीं मानता है, उसी प्रकार अपने शरीर के जीर्ण होने पर आत्मा को जीर्ण नहीं मानता है। गीता में कहा गया है कि इस आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं और न अग्नि जला सकती है। जल इसे भिगो नहीं सकता तथा वायु इसका शोषण नहीं कर सकता। जिसने जन्म लिया, उसका मरण निदिचत है और जो मर गया, उसका जाम ध्रव है । अतः अपरिहार्य वषय के निमित्त शोक नहीं करना चाहिए। जैनदर्शन का भी यही मन्तव्य है। गीता में कहा गया है कि निराहारी के विषयों से निवृत्ति हो जाती है तथा ब्रह्म या आत्मज्ञान होने पर सूक्ष्म आसक्ति भी निवृत्त हो जाती है। प्रवचनसार में मुनि को निराहारी कहा गया है। मुनि की आत्मा परद्रव्य का ग्रहण न करने से निराहार स्वभाव वाली है। वही उसका अन्तरङ्ग तप है, मुनि निरन्तर उसी अन्तरङ्ग तप की इच्छा करते हैं और एषणा के दोषों से रहित जो भिक्षावृत्ति करते हैं, उसे सदा अन्य अर्थात भिन्न समझते हैं। अतः वे आहार ग्रहण करते हुए भी निराहार हैं ।। गीता में कहा गया है कि राग और द्वेष से रहित तथा अपने वश में की हुई इन्द्रियों १. गीता २११९ २. वही २०२२ ३. वही २।२३ ४. वही २।२७ ५. वही २०५९ ६. जस्स अणेसणमप्पा तं पि तओ तप्पडिच्छगा समणा । अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा । प्रवचनसार ३१२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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