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णायकुमारचरिउ के दार्शनिक मतों की समीक्षा
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लेता है ? एक स्थिर खड़ा रहता है और अन्य ( दूसरा) दौड़ता है। एक मरता है तो दूसरे अनेक जीवित रहते हैं। जो नित्य है, वह बालकपन, नवयौवन तथा वद्धत्व कैसे प्राप्त करेगा।'
___कवि ब्राह्मण धर्म के सामान्य विश्वासों की समीक्षा के साथ-साथ उनके देवताओं की भी समीक्षा करता है । शिव के सम्बन्ध में कहता है कि ---"जो कामदेव का दहन करता है, वह महिला ( पार्वती) में आसक्त कैसे हो सकता है ? ज्ञानवत्त होते हुए मदिरा-पान भी करते हैं। निष्पाप (निस्पृह ) होकर ब्रह्मा के सिर का छेदन करते हैं। जो सर्वार्थसिद्ध है उसे बैल रखने से क्या प्रयोजन ? जो दयालु है उसे शूल धारण से क्या लाभ ? जो आत्म संतोष से ही तृप्त हैं, उन्हें भिक्षा के लिये कपाल क्यों ? अस्थिमाल धारण करके भी वे पवित्र होते हैं। नित्य ही मद और मोह से उन्मत्त व रोष से परिपूर्ण पुरुष को लिंग-वेश की आवश्यकता क्यों ?२
महापुराण में भी कहा गया है कि जो शिव नृत्य-गान करते हैं, डमरू बजाते हैं, पार्वती के समीप रहते हैं तथा त्रिपुर आदि रिपुवर्ग को विदीर्ण करते हैं, वे मानव समुदाय को संसारसागर से कैसे पार कर सकते हैं । इसीलिए कवि वैदिक मत की उपयोगिता मूढ़ मनुष्यों के लिए बतलाता है।
चार्वाक दर्शन की समीक्षा--केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने वाले जड़वादी या भौतिकवादी दर्शन ( चार्वाक दर्शन ) सुख को ही जीवन का परम लक्ष्य मानते हैं। इसीलिए चार्वाक दर्शन में निम्न उक्ति को विशेष महत्त्व दिया गया है
यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत ।
भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनम् कुतः ॥ "प्रबोध चन्द्रोदय" नामक रूपक के द्वितीय अंक में कृष्ण मिश्र ने जड़वादी (चार्वाक) दर्शन का परिचय इस प्रकार दि
__ "लोकायत ही एकमात्र शास्त्र है, जिसमें प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ही एकमात्र तत्व है।
और वायु ही एकमात्र तत्व है। और काम ही पुरुषार्थ है। भूतों (पृथ्वी आदि).से चैतन्य उत्पन्न होते हैं, कोई परलोक नहीं है, मृत्यु ही निर्वाण है।'५ लेकिन कवि इस सिद्धांत का खण्डन करते हुए कहता है कि-"जल और अग्नि अपने-अपने स्वभाव से परस्पर विरोधी हैं, १. एक्कु णिच्चु किं तच्चु भणिज्जइ, एक्कु देइ अण्णो किं लिज्जइ ।
एक्कु थाइ अण्णेक्कु वि धावइ एक्कु मरइ अण्णेक्कू वि जीवइ । णिच्चहो कहिं लभइ बालत्तणु णवजोव्वणु पुणरवि बुड्ढतणु ।
–णायकुमारचरिउ-९।१०।३-५ २. णायकुमारचरिउ-९।७।४-९ ३. महापुराण-६५।१२।६-७ ४. 'लोइयवेइय मूढ़ताणाई'-णायकुमारचरिउ-४।३।३ ५. "सर्वलोकायतमेव शास्त्रं, यत्र प्रत्यक्षमेव प्रमाण पृथिवत्यपप्तेजोवायुरीतितत्वानि, अर्थकामो पुरुषार्थो
भ्रतान्येव चेतयन्ते । नास्ति परलोकः मृत्यु रेवायवर्गः।"
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