________________
जैनधर्म और इस्लाम में अहिंसा : तुलनात्मक दृष्टि
डॉ० निज़ामउद्दीन
दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है
तत्थिमं पढमं ठाणं महावीरेणं देसियं । अहिंसा निउणादिट्ठा सव्वभूएस संजमो ॥ सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥
अर्थात् व्रतों में अहिंसा का सर्वप्रथम ज्ञान महावीर द्वारा उपदिष्ट है । महावीर के द्वारा अहिंसा सूक्ष्म रूप से प्रकट की गई है । सब प्राणियों के प्रति करुणाभाव रखना ही अहिंसा है सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की नहीं, अतः संयत व्यक्ति उस पीड़ादायक प्राणवध का परित्याग करते हैं । गहराई से देखा जाये तो अहिंसा मानव जीवन की चेतना है, किसी प्राणी की हिंसा का त्याग ही अहिंसा नहीं, बल्कि सभी प्राणियों से प्रेम करना अहिंसा है । अहिंसक आत्मदर्शी होता है, सकल संसार के जीवों को आत्मवत् देखता है । 'कूर्मपुराण' (७६-८०) में उल्लेख है कि सर्वदा सर्व प्राणियों को मन, वचन, कर्म से पीड़ित न करना, परम ऋषियों की दृष्टि में अहिंसा है-
कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा । अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसा परमर्षिभिः ॥
---
यही बात 'उत्तराध्ययनसूत्र' (८, १०) में इस प्रकार प्रस्तुत की गई है। जगनिस्सिएहि भूएहि, तसनामेहि नो सिमारंभे दंड, मणसा वयसा
थावरेहि च । कायसा चैव ॥
मन-वचन-काय तथा कृतकारित अनुमोदना से किसी दशा में त्रस स्थावर जीवों को दुःख न पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा सब को त्राण देने वाली है । यह शील का परिग्रह है और मानवता का सच्चा धर्म है । अहिंसा हिंसा का निषेध है, इसे निषेधरूप कहा जा सकता है । विधि-रूप में प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव अहिंसा है । अहिंसक सब प्राणियों का हित चाहता है-हदीस में कहा गया है – 'खैरुन्नासि मँय्यनफाउन्नास' यानि उत्तम पुरुष वह है जो दूसरे मनुष्यों को लाभ पहुँचाये ।
Jain Education International
अल्लाह न्याय, भलाई करने का आदेश देता है ( नहल, ९० ) जब मनुष्य असावधानी बरतता है, या प्रमाद करता है तो हिंसा का जन्म होता है । तत्त्वार्थसूत्र' में उमास्वामी कहते हैं-
प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ( :, १३ )
जब मनुष्य सावधानी बरतता है, विवेक से काम लेता है तो उस समय हिंसा कम होती है
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org