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डॉ० वशिष्ठ नारायण सिन्हा करके जैनदर्शन ने नित्यानित्यवाद को और स्पष्ट करने का प्रयास किया। दीपक और आकाश को क्रमशः अनित्य और नित्य माना जाता है। चूंकि दीपक जलता है, बुझता है इसलिए उसे अनित्य मानते हैं । आकाश सदा एक जैसा दिखाई पड़ता है इसलिए उसको नित्य कहते हैं। किन्तु इस सम्बन्ध में जैनाचार्य मानते हैं कि दीपक मात्र अनित्य नहीं बल्कि नित्य भी है । उसी तरह आकाश मात्र नित्य ही नहीं बल्कि अनित्य भी है। दीपक जब जलता है-प्रकाश हो जाता है और जब बुझ जाता है तो अन्धकार हो जाता है। इसको ऐसे भी कहा जा सकता है कि प्रकाश का होना दीपक का जल जाना है और अन्धकार का हो जाना दीपक का बुझ जाना। जैन दर्शन के अनुसार प्रकाश और अन्धकार अग्नि या तेजतत्व के दो पर्याय हैं जो एक के बाद दूसरे आते रहते हैं । अग्नि का अग्नित्व या तेजत्व हमेशा स्थिर रहता है सिर्फ पर्याय बदलते रहते हैं। इस तरह गुण की दृष्टि से दीपक नित्य है और पर्यायों की दृष्टि से अनित्य । आकाश का धर्म है आश्रय देना । वह हमेशा ही सब किसी को आश्रय देता है । आश्रय देना आकाश का
है। किन्तु वह किसी खास व्यक्ति या वस्तु को जो आश्रय देता है, जब व्यक्ति स्थान परिवर्तन करता है तो वह आश्रय बनता है, नष्ट होता है, विशेष व्यक्ति या वस्तु को आश्रय देना आकाश का पर्याय है। अतः यह भी प्रमाणित होता है कि आकाश अपने गुण की दृष्टि से नित्य तथा पर्याय की दृष्टि से अनित्य है।
काण्ट दर्शन । आधुनिक पाश्चात्य दर्शन की दो प्रसिद्ध धारायें हैं- बुद्धिवाद तथा अनुभववाद । आधुनिक चिन्तकों के सामने यह समस्या थी कि किस प्रकार दर्शन को मध्ययुगीन धार्मिक दासता से मुक्त किया जाए। इसी के समाधान स्वरूप इन दोनों दार्शनिक शाखाओं का प्रारम्भ हुआ। युग और समस्या में समता होते हुए भी बुद्धिवाद तथा अनुभववाद में भीषण विषमताएँ देखी जाती हैं, जिनके बीच सामंजस्यता स्थापित करने का सफल प्रयास आधुनिक युग के ही जर्मन दार्शनिक काण्ट ने किया है। बुद्धिवाद
- रेने देकार्त (Rene Descartes), जिन्हें आधुनिक पाश्चात्य दर्शन का जनक माना जाता है, ने ही बुद्धिवाद का श्रीगणेश किया। वे प्रसिद्ध दार्शनिक ही नहीं बल्कि गणितज्ञ और वैज्ञानिक भी थे। गणितज्ञ होने के कारण उन्हें गणित की निश्चयात्मकता में पूरा विश्वास था। वे ऐसा मानते थे-'गणित की नींव सुदृढ़ है और दर्शन की नींव बाल की बनी है।" किन्तु ऐसा मानकर वे चुप नहीं रहे, अपितु दर्शन को सुदृढ़ता प्रदान करने का प्रयास किया।
देकार्त ने यह माना है कि सत्य के दो रूप होते हैं स्वतःसिद्ध तथा प्रमाण जन्य । जो सत्य स्वतःसिद्ध होता है उसे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि वह प्रमाणों के द्वारा प्रमाणित नहीं होता है। वह तो स्वयं प्रमाणों को प्रमाणित करता है। प्रमाण किसी की सत्ता को प्रमाणित करते हैं या अप्रमाणित । प्रमाण का यह कार्य सविकल्प बुद्धि के द्वारा होता
१. पाश्चात्य दर्शन, डॉ० चन्द्रधर शर्मा, पृ० ८२
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