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आचारांग की समीक्षा एवं उन्हें सुधारने की अनिवार्यता नहीं दिये गये हैं अतः उस पर कोई चर्चा नहीं की जा सकती। पू० नथमलजी (युवाचार्य महाप्रज्ञजी) के संस्करण के बारे में कहा जा सकता है कि उसके सम्पादन में जिन प्रतों का आधार लिया गया है उनमें ही कुछ प्राचीन रूप उपलब्ध हैं परंतु उनको स्वीकार नहीं किया गया है। उदाहरणार्थःप्राचीनतम
अर्वाचीन प्रतों से घ प्रत से स्वीकृत रूप अस्वीकृत रूप स्वीकृत रूप
अस्वीकृत रूप
चुओ १-१-२ पडिसंवेदेइ १-१-B |
चुते पडिसंवेदयइ
वहंति १-६-१४० पहू १-७-१४५
वधंति (क) पभू (क)
इसी प्रकार शुबिंग महोदय के संस्करण में भी कुछ पाठों को उनके द्वारा उपयोगमें ली गयी प्रतों के आधार पर ही बदलने की आवश्यकता प्रतीत होती है । उदाहरणार्थ :
स्वीकृत पाठ
प्रतों में उपलब्ध (सी० चूणि)
पडिसंवेएइ (पृ. १-१८) अखेयन्ने (पृ० ९-१५) जीवा अणेगा (पृ० ३-१८) अनिच्चयं (पृ० ४-३०)
पडिसंवेदयइ (जी०) अखेत्तन्ने (जी०, सी०) जीवा अणेगे (ए०) अनितियं (सी०)
इसी तरह पू० जम्बूविजयजी के संस्करण में भी कतिपय पाठ बदलने की आवश्यकता प्रतीत होती है । उदाहरणार्थ :
कोष्ठक में सूत्र-संख्या दी गयी है--
स्वीकृत
अस्वीकृत
___स्वीकृत
अस्वीकृत
उववादिए
लोकं
उव वाइए (१, २) एगे (१२) आयाणीयं (१४,३६,४४,५२)
एके
अधं
आताणीयं
लोगं (२-२) अहं (४१) अट्ठिमिजाए (५२) अण्णयरम्म (९०) अणुपुव्वीए (२३०)
अट्ठिमिज्जाए
अण्णयरंसि
समुट्ठाए (१४,२५,३६,४० ४४,५२,५९,७०,७५)
समुट्ठाय
अणुपुत्वीय
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