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कविवर बनारसीदास और जीवनमूल्य
___ डा० नरेन्द्र भानावत साहित्य का धर्म और अध्यात्म से गहरा सम्बन्ध है। साहित्य के मूल में सहितता और हित का भाव निहित है तो धर्म और अध्यात्म का लक्ष्य प्राणि-मात्र के प्रति प्रेम और मैत्री का भाव स्थापित करते हुए विश्व एकात्मक बोध की आनन्दानुभूति में रमण करना है। यही कारण है कि संत काव्य और भक्ति काव्य में निहित संदेश आज भी संतप्त मानव को तृप्ति प्रदान करता है। रिक्त मन को परिपूर्ण बनाता है और निराशा व कुण्ठा के क्षणों में आशा और आस्था का संचार करता है। भारतीय साहित्य का अधिकांश भाग चाहे वह किसी भी भाषा का हो धर्म और अध्यात्म से अनुप्राणित है और इसीलिए वह चिर जीवित है, लोकमानस में रमा हुआ है।
कविवर बनारसीदास भारतीय धर्म और अध्यात्म चिन्तन-परम्परा के श्रेष्ठ कवि और व्याख्याता हैं। परम्परा का निर्वाह करते हुए भी वे उसका बोझा नहीं ढोते वरन् अवांछित तत्त्वों को काट-छाँट कर उसकी प्रकृत भावधारा को प्रवहमान रखते हैं। उसके भार को प्यार और क्रांति की धार में बदलते हैं। जीवन को वे भव-परम्परा के रूप में देखकर उसके कर्म-चक्र से टकराते हैं, उलझते हैं, उसमें फँसते और धंसते हैं, पर पराभूत नहीं होते। अपने ज्ञान-चक्र की पैनी धार से उसकी पर्तों को कुरेदते हैं, आत्मरस का अनुभव करते हैं।
यों जरा कल्पना कीजिए, उस मनःस्थिति की जिसमें बनारसीदास एक नहीं तीनतीन विवाह करते हैं और जिनके एक नहीं, दो नहीं, नौ संतानें-दो पुत्र और सात पुत्रियाँ होती हैं, पर अन्ततः जीवन में अकेलापन ।
उनका यह मृत्युबोध कितना मार्मिक, यथार्थ और सांसारिक नश्वरता, निस्सारता का द्योतक है :
नौ बालक हुवै मुवै, रहे नारी नर दोइ ।
ज्यौं तरवर पतझर हवै, रहैं ढूठ सो होइ ॥ ५५ वर्ष की अवस्था में कवि जैसे अपने जीवन-उपवन को तटस्थ होकर देखता है और अनुभव करता है कि जिसे उसने अब तक अपना जीवन-उपवन समझा है, वह बासन्ती बयार से युक्त नहीं वरन् पतझड़ की व्यथा से ग्रस्त है और मानव जीवन की सार्थकता 'पर' से ममत्व जोड़ने में नहीं वरन् 'स्व' के सम्मुख होने में है, स्वानुभव में है। यह अनुभव परिग्रह बढ़ाने से नहीं, वरन् घटाने से ही, निस्संग होने से ही सम्भव है। जब व्यक्ति चर्म-चक्षुओं से नहीं वरन् हृदय चक्षु से, ज्ञान चक्षु से संसार के वस्तु स्वरूप को देखने का सामर्थ्य पा लेता है, तब उसे बाहर नहीं, अपने भीतर ही अनन्त वसन्त लहलहाता दिखाई देता है :
तत्त्व दृष्टि जो देखिए, सत्यारथ की भाँति । ज्यौं जाको परिगह घटैं, त्यौं ताकौ उपसांति ॥
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