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की विचारणा यह स्वाभाविक है। जैनों ने तो दार्शनिक दृष्टि से बौद्ध और वैदिकों के दार्शनिक विरोध को अनेकान्त के आश्रय से मिटाने का प्रयत्न किया है। ऐसी स्थिति में जैनाचार्य बौद्ध या वैदिक आचार्यों के समक्ष एक प्रबल विरोधी रूप से उपस्थित नहीं भी होते हैं। यह भी एक कारण है कि जैनाचार्यों के ग्रन्थों की चर्चा या प्रचार अन्य दार्शनिकों में नहीं हुआ।
एक ओर दार्शनिक दृष्टि से प्रबल विरोधी पक्ष के रूप में जन पक्ष को जब स्थान नहीं मिला तब जैनों के साहित्य को देखने की जिज्ञासा का उत्थान ही जैनेतरों में नहीं हुआ; तो दूसरी ओर जैनों को अपने मन्तव्यों को लिखित रूप में सर्वत्र प्रचारित करने की प्रेरणा या आवश्यकता भी प्रतीत नहीं हुई । वे अपने भक्तों के बीच ही अपने साहित्य का प्रचार करते रहे । भक्तों में भी श्रावक या उपासक वर्ग तो उन हस्तलिखित पोथियों की पूजा ही कर सकता था किन्तु पढ़ने की आवश्यकता महसूस नहीं करता था । साधुवर्ग में भी कुछ ही साधु संस्कृत-प्राकृत पढ़-लिख सकते थे अन्य अधिक संख्या तो ऐसी हो होती थी जो बाह्य तपस्या आदि साधनों के द्वारा ही अपने आत्म कल्याण में लगे हुए थे। ऐसी स्थिति में सब विषयों में सदैव साहित्य का सर्जन होकर भी प्रचार में आया नहीं तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है।
अंग्रेज यहाँ आये और उसके बाद मुद्रण-कला का विकास हुआ। प्रारम्भ में तो जैन पुस्तकों के प्रकाशन का ही विरोध हुआ और वह विरोध मर्यादित रूप में आज भी है। किन्तु जब वेबर, याकोबी और मोनियर विलियम्स जैसे विद्वानों ने जैन साहित्य का महत्त्व परखा और उसकी उपयोगिता राष्ट्रीय सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से भो अत्यधिक है-इस बात को कहा तब विद्वानों का ध्यान जैन साहित्य की ओर गया। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित जैन साहित्य की मात्रा अत्यधिक होते हुए भो प्राकृत और अपभ्रंश भाषा उसके विशेष अध्ययन में बाधक इसलिये हुई कि संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन को परम्परा के समान प्राकृत-अपभ्रश की अध्ययन-अध्यापन परम्परा भारत वर्ष में थी ही नहीं। और जो जैन साहित्य प्रकाशित भी हुआ उसका अधिकांश इस दृष्टि से तो प्रकाशित हआ ही नहीं कि इसका उपयोग जैनेतर विद्वान अपने संशोधन कार्य में भो एव हम देखते हैं कि अत्यधिक ग्रन्थ पत्राकार मुद्रित हुए और उनमें विस्तृत प्रस्तावना, अनुक्रमणिका और शब्दसूचियाँ आदि उपयोगी सामग्री दो नहीं गई और आधुनिक संशोधन पद्धति से उनका संपादन भी नहीं हुआ। इन कारणों से विद्वानों को उपेक्षा आधुनिक काल में भो जैन साहित्य के प्रति रही। अध्ययन की आवश्यकता
___ इस उपेक्षा के कारण जैन दर्शन के मर्म को पकड़ना प्राचीन और आधुनिक काल के विद्वानों के लिए कठिन हो गया है। यही कारण है कि अनेकान्त के विषय में प्राचीन काल में शङ्कराचार्य द्वारा दिये गये आक्षेपों को जिस प्रकार अन्य वेदान्ती विद्वान् दोहराते रहे उसी प्रकार आधुनिक विद्वानों में किसी एक ने जो आक्षेप किया दूसरों के द्वारा वहो दोहराया जाता है और प्रायः यह देखा जाता है कि मूल ग्रन्थ अब उपलब्ध होने पर भी उन्हें देखने का कष्ट विद्वान् लोग नहीं उठाते । विद्वानों के आक्षेपों का उत्तर देने का तो यह स्थान नहीं। जिन्हें जिज्ञासा हो वे पं० महेन्द्र कुमार द्वारा लिखित 'जैन दर्शन' देखें। किन्तु जब आज सह-अस्तित्व और पंचशील की बात कही और प्रचारित की जाती है तब यह विचारना तो आवश्यक हो गया है कि यह सह-अस्तित्व और पंचशील
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