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आचारांग (प्रथम श्रुत-स्कंध) के प्रामाणिक संस्करणों के
कतिपय पाठों की समीक्षा एवं . भाषाकीय दृष्टि से उन्हें सुधारने की अनिवार्यता
___ डॉ० के० आर० चन्द्र आचारांग जैन अर्धमागधी आगम साहित्य का आद्य ग्रंथ है और प्राकृत भाषा की यह प्राचीनतम कृति माना जाता है। परंतु ग्रंथ के सूक्ष्म अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी भाषा का स्वरूप सर्वत्र प्राचीनतम नहीं है। इसके अतिरिक्त श्री शुबिंग महोदय, पूज्य श्री सागरानन्दजी, पू० श्री नथमल जी और पूज्य श्री जम्बूविजयजी के संस्करणों में कितने ही पाठ एक समान नहीं हैं। उनमें ध्वनि-परिवर्तन सम्बन्धी जो भेद मिलते हैं वे विचारणीय हैं।' श्री शुबिंग के संस्करण में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप लगभग अट्ठावन प्रतिशत (५८"/.) है जबकि पूज्य श्री जंबू विजयजी के संस्करण में लगभग चौबीस प्रतिशत (२४%) है। इस भेद के कारण प्रश्न यह उठता है कि किस संस्करण को मूल पाठ के अधिक निकट माना जाय ?
आगे दी गयी तालिका से स्पष्ट है कि अलग-अलग संस्करणों में भाषा (वर्ण-विकार एवं शब्द-रूप) संबंधी कितना अन्तर है। यदि इनकी आगमेतर प्राचीन ग्रंथों की प्राकृत भाषा के साथ तुलना की जाय तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि आचारांग के संस्करणों में मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप का जो प्रतिशत मिलता है वह उचित नहीं है। वसुदेवहिंडी में यह लोप छप्पन प्रतिशत (५६:/.) है और पउमचरियं में बासठ प्रतिशत (६२/.)। इन दोनों ग्रंथों की रचना परवर्ती है
और आचारांग की भाषा से इन दोनों की भाषा अर्वाचीन होनी चाहिए और ऐसा है भी। यह बात इनमें उपलब्ध रूपों से भी सिद्ध होती है। उदाहरणार्थ सप्तमी एकवचन की विभक्ति'अंसि,' हेत्वर्थक प्रत्यय-'इत्तए,' संबंधक भूत कृदन्त के प्रत्यय-'टु, त्तु और च्चा' आचारांग में तो मिलते हैं परंतु ये प्राचीन प्रत्यय वसुदेवहिंडी और पउमचरियं में नहीं मिलते हैं । स०ए० व० की विभक्ति-म्मि' वसुदेवहिंडी में दो प्रतिशत (२./.) पउमचरियं में बीस प्रतिशत (२०/.) उपलब्ध है जबकि यह अर्वाचीन विभक्ति आचारांग (प्र० श्रु० स्कंध) में उपलब्ध नहीं है । सं० १. अंत में दी गयी शब्दों की तुलनात्मक तालिका देखिए । २. आचारांग प्रथम श्रुत-स्कंध के दोनों संस्करणों के प्रथम अध्ययन के विश्लेषण के अनुसार इस
निष्कर्ष पर पहुँचा गया है। ३. देखिए मेरा लेख :
Comparative Study of the Language of Paumacariyam and Vasudevahimdi : Proceeding of the AIDC, Jaipur Session, 1982 : Poona, 1984, जिसमें वसुदेवहिण्डी पृ० ३३ से ३४ और पउमचरियं, उद्देशक ६० से ६५ पर आधारित भाषाकीय विश्लेषण किया गया है।
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