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इसिभासियाई के कुछ अध्ययनों का भाषाशास्त्रीय विश्लेषण
इसिभासियाइं के कुछ अध्ययनों में मध्यवर्ती 'थ' का 'ध' भी प्राप्त होता है____ अध्याय-२५ तधेव ( तथैव ), अ०-४० जधा ( यथा ) अ०-४५ जधा ५ बार, सव्वधा० और तधा कुछ और प्राचीन प्रयोग :अध्याय-१ कड ३ बार, भवति, संवुड २ बार, तवसा १ बार। अध्याय-११ आणच्चा ( आज्ञाय ) निराकिच्चा, कुणइ, कारियं ( कार्यम् )। अध्याय-२१ भवति, भवंति, कुरुते, जित्ता ( जित्वा )। अध्याय-३१ नितिय ( नि त्य ) २ बार, पप्प ( प्राप्य ) किच्चा ३ बार, मड (मृत)
संवुड ( संवृत ), भवति २ बार, भविस्सति २ बार अत्त, ( आत्मन् )। भूतकाल के रूप :-भुविं, णासि ३ बार
__ अध्याय ३१ में 'नामते' (नामतः ) पंचमी एक वचन के लिए प्रयुक्त हुआ है। पंचमी के ऐसे प्रयोग अशोक के पूर्वी शिलालेखों में मिलते हैं।
___इस ग्रन्थ में कभी प्राचीन तो कभी अर्वाचीन रूप दोनों ही प्रकार के शब्द प्रयोग मिलते हैं, जैसे-आता ( अ० ४४, ४५,) अप्पा (अ० ४१, ४५), आय आया (अ० २५, ४५)।
के ये चार प्रकार के रूप अत्ता, आता, आया और अप्पा प्राकृत भाषा के क्रमशः विकास के साक्षी हैं। अशोक के शिलालेखों में पूर्व में अत्ता मिलता है और पश्चिम में अत्पा मिलता है। अत्ता से आता और आया का विकास हुआ और अत्पा से अप्पा का विकास हुआ जो अलग-अलग काल में विकसित हुए।
कुछ अर्वाचीन प्रयोग जैसे-होति ( अ-९) निच्च ( अ-९), तवाओ ( अ-९), कज्ज (अ० ११) णिच्च (अ० ३१)।
___ इसिभासियाइं से अव्यय 'न' का प्रायः ण मिलता है। प्रारम्भिक 'न' के लिए अधिकतर 'ण' का प्रयोग हुआ है। मध्यवर्ती 'ज्ञ' के 'पण' का प्रयोग, मध्यवर्ती 'न्न' का 'पण' मिलता है। जबकि शुब्रिग महोदय के आचारांग के संस्करण में इस प्रवृत्ति के विपरीत दन्त्य 'न' और 'न्न' का ही प्रयोग हुआ है ।
शिलालेखीय आधारों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि 'न' और 'ज्ञ' के लिए 'ण' और 'पण' का प्रयोग प्राचीन कालीन न होकर अर्वाचीन कालीन है।
__ इसिभासियाई में अकारान्त पुलिंग प्रथमा एक वचन के लिए किसी अध्ययन में 'ए' विभक्ति तो किसी में 'ओ' विभक्ति अधिक प्रमाण में मिलती है। सप्तमी एकवचन के लिए 'ए' और 'म्मि' विभक्ति ही मिलती है। उपरोक्त अध्ययनों में कहीं पर भी 'अंसि' 'म्हि' या 'स्सि' विभक्तियाँ सप्तमी के लिए नहीं मिलती हैं जो प्राचीन प्राकृत विभक्तियाँ हैं। 'म्मि' विभक्ति काफी अर्वाचीन है । वर्धमान (अ०-२९) और महाकासव (अ० ९) नामक अध्ययनों में भी 'म्मि' विभक्ति ही मिल रही है। इन विभक्तियों को देखते हुए क्या इसका रचनाकाल परवर्ती अर्थात् आचारांग के बाद का माना जाय ?
पासिज्ज (अ०-३१) पार्श्वनाथ के अध्ययन में प्राचीन रूप मिलते हैं। इसमें मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप भी कम हैं। प्रथमा एक वचन के 'ए' विभक्ति की बहुलता है और भूतकाल के भविं (१ बार) णासी (३ बार) और आत्मन् के लिए अत्त के प्रयोग प्राचीनता के द्योतक हैं।
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